विचार / लेख
DHRUVA MISHRA/BBC
ध्रुव मिश्रा
उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में बसे गाँवों में रोज़गार एवं अन्य सुविधाओं के अभाव के चलते लोगों का पलायन एक बड़ी समस्या रही है.
राज्य में कई ऐसे गाँव हैं जहां से लोग पलायन करके शहरों में जा बसे हैं और गाँव के गाँव खाली हो चुके हैं. लेकिन इसी उत्तराखंड में एक गांव ऐसा भी है जहाँ से आज के समय में एक भी व्यक्ति पलायन करके नहीं गया है.
यहाँ पलायन लगभग शून्य के बराबर है.
मसूरी से करीब 20 किलोमीटर दूर टिहरी ज़िले के जौनपुर विकास खंड स्थित रौतू की बेली गाँव उत्तराखंड में पनीर विलेज के नाम से मशहूर है. करीब 1500 लोगों की आबादी वाले इस गाँव में 250 परिवार रहते हैं और गाँव के सभी परिवार पनीर बनाकर बेचने का काम करते हैं.
रौतू की बेली गांव के पूर्व ब्लॉक प्रमुख कुंवर सिंह पंवार ने ही इस गांव में सबसे पहले पनीर बनाने का काम 1980 में शुरू किया था.
कुंवर सिंह बताते हैं, "1980 में यहाँ पनीर पाँच रुपये प्रति किलो बिकता था. उस समय पनीर यहाँ से मसूरी स्थित कुछ बड़े स्कूलों में भेजा जाता था. वहाँ इसकी डिमांड रहती थी."
उनके मुताबिक़ 1975-76 में इस इलाके में गाड़ियाँ चलनी शुरू हुईं थीं तब यहाँ से बसों और जीपों में रखकर पनीर मसूरी भेजा जाता था.
यहाँ आसपास के इलाकों में तब पनीर नहीं बिकता था क्योंकि लोग पनीर के बारे में इतना जानते नहीं थे. यहाँ के लोग ये भी नहीं जानते थे कि पनीर की सब्ज़ी क्या होती है.
कुंवर सिंह बताते हैं, "पहले यहाँ पनीर का उत्पादन ख़ूब होता था. करीब 40 किलो पनीर एक दिन में यहाँ हो जाया करता था. फिर धीरे-धीरे उत्पादन में कमी आने लगी लेकिन 2003 के बाद फिर से उत्पादन में तेज़ी देखने को मिली."
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देहरादून तक पहुंचा गाँव का पनीर
कुंवर सिंह बताते हैं, "2003 में उत्तराखंड राज्य बनने के बाद इस गांव को उत्तरकाशी ज़िले से जोड़ने वाली एक रोड बनी जिसकी वजह से यहाँ के लोगों को काफ़ी फ़ायदा हुआ. उत्तरकाशी जाने वाली रोड के बन जाने की वजह से इस गाँव से होकर देहरादून और उत्तरकाशी आने-जाने वाले लोगों की संख्या बढ़ी है."
"यहां का पनीर पहले से ज़्यादा प्रचलित हुआ. इस रोड से आने-जाने वाले लोग अक्सर यहीं से आकर पनीर ख़रीदने लगे यहाँ लोगों का पनीर अलग अलग गाँव में बिकने लगा. रौतू की बेली गाँव के पनीर में मिलावट न होने और सस्ता होने की वजह से देहरादून तक के लोग इसको ख़रीदने लगे."
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गाँव में सबसे कम पलायन
कुंवर सिंह बताते हैं कि उत्तराखंड के बाक़ी इलाकों की तुलना में अगर देखें तो टिहरी ज़िले में यह पहला गाँव है जहां सबसे कम पलायन है.
कुछ 40-50 युवा ही गाँव से बहार पलायन करके काम करने के लिए बाहर गए थे लेकिन कोरोना महामारी के दौरान वापस घर लौट आए.
गाँव में कम पलायन का सबसे बड़ा कारण यह है की यहाँ के लोग अपनी थोड़ी बहुत आजीविका चलाने के लिए पनीर का काम करते हैं. थोड़ी-बहुत खेती बाड़ी भी लोग कर लेते हैं जिसकी वजह से पलायन करने की ज़रूरत महसूस नहीं होती.
इसी गाँव में रहने वाले भागेंद्र सिंह रमोला बताते हैं कि अगर सारे ख़र्चे को मिलाकर भी देखें तो वो यहां करीब 6000-7000 रुपये तक बचा लेते हैं क्योंकि यहां जानवरों के लिए घास घर की महिलाएं जंगलों से ले आतीं हैं और थोड़ा बहुत ख़र्चा भैंस के चोकर के लिए होता है.
हालाँकि जब अप्रैल के महीने में घास नहीं मिलती है तब यहाँ घास ख़रीदनी पड़ती है जिसमें ज़्यादा ख़र्च थोड़ा ज़्यादा हो जाता है.
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मुश्किल है पनीर बनाना
कुंवर सिंह बताते हैं कि पहाड़ पर पनीर बनाना बहुत कठिन काम है.
यहाँ अगर किसी के पास एक भैंस है अगर वह भैंस बिल्कुल नई है तो उसे साल भर पालना पड़ता है. यहां गांव के पास में भैंस के लिए चारा नहीं मिलता है.
चारा लाने के लिए गांव की बहू-बेटियों को दूर पहाड़ों पर चढ़कर जाना पड़ता है, कभी कभी यहाँ चारे की भी कमी पड़ जाती है जिसके लिए काफी दूर दूसरे गाँवों तक जाना पड़ जाता है.
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रौतू की बेली गांव में रहने वाली मुन्नी देवी बतातीं हैं, "पशुओं के लिए घास और जलाने के लिए लकड़ी जंगल से लाते हैं. जो लकड़ी जंगल से लाते हैं उसी को चूल्हे में जलाने के लिए उपयोग में लाते हैं उसी से पनीर बनता है. जंगल बहुत दूर हैं, आसपास कहीं भी घास नहीं मिलती है.''
''बहुत दूर पहाड़ पर जाना पड़ता है. सुबह नौ बजे जंगल में घास और लकड़ियां लेने जाते हैं और फिर शाम को चार बजे घास और लकड़ियां लेकर वापस आते हैं. शाम को दूध निकालकर पनीर बनाना शुरू करते हैं."
यहाँ के लोगों के मुताबिक़, अगर सरकार भैंस ख़रीदने में लोन की व्यवस्था कर दे और चारा अगर मुफ़्त में या सब्सिडी में उपलब्ध हो जाए तो लोगों को यहां थोड़ी राहत मिल सकती है.
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गाँव वालों की सरकार से माँग
रौतू की बेली गाँव के ग्राम प्रधान बाग़ सिंह भंडारी बताते हैं कि "हम लोग गांव में अलग-अलग जगह पर रहते हैं. ऊँचे-ऊँचे पहाड़ों पर अलग अलग जगह पर निवास होता है.''
''जिन जगहों पर हमारी कास्तकारी होती है या हमारा उत्पादन होता है वो जगहें मुख्य मार्ग से काफी दूर और ऊँचाइयों पर हैं इन जगहों तक रोड नहीं पहुंची हैं."
भंडारी ने बताया, "यहां रहने वाले लोग अपने उत्पाद घोड़े खच्चरों के माध्यम से नीचे मुख्य मार्ग तक ले जाते हैं जिसमें कि 150 रुपये तक एक चक्कर का भाड़ा लग जाता है.''
''इस रोड को बनवाने के लिए पिछले 10 से 15 सालों से लोग प्रयास कर रहे हैं, ख़ुद मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत साल 2011 में जब कृषि मंत्री थे तब इस रोड का शिलान्यास कर चुके हैं लेकिन ये रोड अभी तक तैयार नहीं हुई है."
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उत्तराखंड के वरिष्ठ पत्रकार योगेश भट्ट ने बीबीसी हिंदी से कहा, "गाँव आबाद हों इसके लिए हमें गांवों को केंद्र में रखकर योजनाओं को बनाने की ज़रूरत है. गांवों की योजनाओं को बनाने के अधिकार ग्राम प्रधानों के पास होने चाहिए."
मुन्नी देवी के मुताबिक पनीर बनाने से बहुत आमदनी तो नहीं होती लेकिन ख़र्चा-पानी निकल आता है.
उन्होंने कहा कि सर्दियां आने वाली हैं और बर्फ़ वाली ठंडक में जंगल से घास लाना कितना मुश्किल होता है, इसका अंदाज़ा आप लगा सकते हैं. बावजूद इन चुनौतियों के इस गांव का हर परिवार पनीर बना रहा है और उसे बाज़ार तक पहुंचा रहा है. (bbc.com)