विचार / लेख

प्रो. खेरा से बड़ा और कोई माटी-पुत्र हो सकता है?
23-Sep-2020 9:14 AM
प्रो. खेरा से बड़ा और कोई माटी-पुत्र हो सकता है?

पहली पुण्यतिथि : ‘छत्तीसगढ़’ विशेष

-मो. उस्मान कुरैशी

आज से ठीक एक वर्ष पहले दिल्ली विश्वविद्यालय से सेवानिवृत्त प्रोफेसर पी.डी. खेरा का 93 वर्ष की आयु में अपोलो हॉस्पिटल में देहावसान हो गया था। वे 36 साल पहले अचानकमार टाइगर रिजर्व घूमने के लिये आये थे और महानगर की आरामदेह जीवन शैली को त्यागकर यहीं के होकर रह गये। मिट्टी की एक झोपड़ी पर उन्होंने अपना बसेरा बना लिया। उन्होंने गरीब और वंचित बैगाओं की दशा सुधारने के लिये अपना शेष सारा जीवन लगा दिया। उनके स्वास्थ्य, बच्चों की शिक्षा और आर्थिक दशा ठीक करने के लिये वे निष्काम भाव से काम करते रहे। इस खास रिपोर्ट में उनसे लिया गया 7 वर्ष पुराने एक साक्षात्कार का अंश भी है जो बैगाओं की सामाजिक, आर्थिक स्थिति पर गहरे चिंतन की अभिव्यक्ति है। प्रो. खेड़ा को चाहने वाले उनकी समझ को केन्द्र में रखते हुए जन-जातियों को बचाने का काम कर सकते हैं। सरकार नीतियां बना सकती है। उनकी पहली पुण्यतिथि पर पढ़ें स्वतंत्र पत्रकार मो. उस्मान कुरैशी की यह विशेष रिपोर्ट-

छत्तीसगढ के मुंगेली जिले में बाघ और जंगली जानवरों से समृद्ध अचानकमार टाइगर रिजर्व के भीतर लमनी गांव है। ठीक एक साल पहले 23 सितंबर 2019 की सुबह अनजान शहरी लोगों की बढ़ती भीड़ का जमा होते जाना, इस गांव में बसे बैगा आदिवासियों के लिए कौतूहल था। ऐसा नहीं था कि ऐसी गाडियों और शहरी लोगों को वे पहली बार देख रहें हो। देखते थे, इन गाड़ियों को तेज रफ्तार के साथ अपने गांव की सडक से गुजरते हुए या फिर सीधे विश्राम-गृह में घुसते हुए। आज सड़क पर गाडियां और शहरी लोग तेज रफ्तार से भाग नहीं रहे थे, उनकी तेज रफ्तार गाड़ियों के पहिए गांव में सड़क किनारे बनी मिट्टी की झोपडी पर आकर थम जा रहे थे। इस भीड़ की वजह थी जंगल में तीन दशक से रह रहा शहरी आदमी और आदिवासियों के हमदर्द ‘दिल्ली वाले साब’। यानी प्रो. पीडी खेरा। जो बरसों पहले उनके बीच उनके पोशाकों से इतर कुर्ते पाजामे में उनकी ही तरह मिट्टी की झोपड़ी में ठहर कर उनके बीच रच-बस गए थे।

गांव के लोग सालों देखते रहे कि कभी-कभी कुछ लोग उनसे आकर मिलते है, लंबी बातचीत भी होते देखते रहे पर कभी इनका उनके साथ सरोकार हो, ऐसा महसूस नहीं किया। जंगल में बसे बैगा आदिवासियों को बीती शाम ही खबर हो गई थी उनके सिर पर अब आसमान नहीं रहा। दावानल की तरह ही तो ये खबर पूरे जंगल में फैल गई थी। समझ नहीं पा रहे थे कि ये क्या हो गया। पूरा जंगल उदास था। जंगल से निकल कर अल-सुबह ये सड़क के किनारे अपने मसीहा के पार्थिव देह को विदा करने उमड़ पड़े थे।

कम नहीं होता 35 साल का लम्हा, युवाओं की दो पीढ़ियों को अपने ज्ञान और सेवा से सींच कर बड़ा किया था, ज्ञान की रोशनी से रास्ता दिखा रहे थे। आज वे कृतज्ञ दृष्टि से अपने मसीहा को विदा होते देख रहे थे। और वे देख रहे थे उन अनजान चेहरों को जो उनके काफिले का हिस्सा बने हुए थे। न जाने क्या सोचकर ही तो वे कोई 35 साल पहले सैकडों मील दूर बड़े शहर के अभिजात्य जीवन और अपने लोगों की भीड़ को छोड़कर इस जंगल में अनजान लोगों के बीच आ बसे। इनके बीच ऐसे रचे-बसे की उनको लगा कि ये उनके ही हिस्से है। फिर ये कौन सी भीड़ थी जो उनका पीछा करते जंगल के बीच बने मिट्टी की झोपड़ी तक आ पहुंची थी। ऐसी जगह, जहां उनके बैठने तक की जगह नहीं। जहां रखी चारपाई के आधे हिस्से में किताबें पसरी हुई थी। इस जनसैलाब में उनका कोई रिश्तेदार, नातेदार नहीं था। जो थे उनमें नेता, पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता, आला दर्जे के प्रशासनिक अफसर शामिल रहे. जिनको प्रोफसर डॉ, पीडी खेरा के त्याग, सेवा और समपर्ण ने मुरीद बना दिया था।

दिसम्बर 2013 में उनसे इस रिपोर्टर की लम्बी बात हुई थी। तब प्रो. खेरा ने बताया कि जब सन् 1984 में पहली बार जब यहां आए तो यहां के बैगाओं को देखकर लगा कि जीवन की सार्थकता यहीं है। सच्ची मानव सेवा यहीं हो सकती है। जब वे यहां आए आदिवासी बहुत पिछड़े थे। मन को शांति मिली पर रुकने में बड़ी कठिनाईयां आती रही। समझ गया कि यहां बसेरा बनाना आसान काम नहीं है। शुरू में यहां कुछ भी नहीं था। राशन दुकानें भी नहीं थीं। ये सब चीजें यहां का सौर उर्जा का स्टेशन हमारी दौड़-धूप से बना। टाटा की एक टीम आई थी हम अचानकमार में थे। हमने मिलकर ये स्टेशन शिफ्ट करवाया। पता ही नहीं लगता था कि इस जंगल का मालिक कौन है, क्योंकि सरकारी सेवायें इन तक पहुंचती ही नहीं थीं। बसों की यात्रा कर कलेक्टर दफ्तर के (तब बिलासपुर जिला) दर्जनों बार चक्कर लगाये तब एक चलित खाद्यान्न सेवा शुरू हुई।

बैगाओं की सेहत को लेकर उनकी चिंता

बैगाओं के स्वास्थ्य पर चिंता जताते प्रोफेसर खेरा कहते कि उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता। खाना नही मिलता, क्योंकि शिकार पर रोक है। पहले गोश्त शिकार करके खाते थे अब खरीदना पड़ता है जो बहुत महंगा है। यहां इनको कम से कम सूअर रखने की इजाजत दी जाए। ज्यादातर लोग दारू पीते हैं। दारू पीयें और खाना ठीक नहीं मिले तो टीबी हो जाता है। और भी बहुत सी बीमारियों के शिकार हो जाते हैं।ये निरक्षर लोग हैं। गलती से अपना खुराक ठीक करने कभी सूअर को पकड़ कर खा भी लें तो वन विभाग वाले नहीं छोड़ते। वे जंगली सूअर न खाएं तो क्या खाएं। एक गिलहरी को खा लिया तो जेल भेज दिया। सरकार इस खत्म होती जाति बचाने की बात करती है पर उनके जीने के तौर-तरीके पर भारी दखल है। ये उनके लिये अच्छा नहीं है। बैगाओं के लिये खादी के थैले में उनके पास हमेशा मलेरिया, बुखार की दवायें रहती थीं। बच्चों को नहलाना-धुलाना, साफ धुले कपड़े पहनाना, उनके रोज का काम था।

झूम खेती पर रोक ने पहुंचाया नुकसान  

बैगाओं की संख्या लगातार घट रही है । पहले ये बहुतायत में थे अब वे जंगल में भी अल्पसंख्यक होते जा रहे हैं। बाहरी लोग बहुत आ गए हैं। उनकी जमीन पर कब्जा कर लेते हैं। बेटी की शादी होती है तो दामाद को भी यहां बसा लेते हैं। गोड़ हैं, अहीर हैं, सारी जातियां यहां आ गई। मूल तो असल में ये बैगा ही थे। वे झूम खेती (शिफ्टिंग कल्टिवेशन या बेवर खेती) करते थे। 20-25 लोगों का परिवार होता था, जितनी जरूरत होती थी उतना किसी भी जगह फसल उगा लेते थे। अब इस पर रोक लग गई है। जंगल के फल-फूल, पौधे पत्ते, धूप छांव सब उनकी दिनचर्या का हिस्सा है। यह प्रथा बंद क्या हुई बैगा मारे गये, कुचल दिये गये। शहरों से डिग्री लेकर आये जंगल के अफसर इन बातों को क्या समझेंगे? वर्दी में आते हैं, सहमे हुए बैगा दुबक जाते हैं। जंगल में जो उपजता है, उसी पर बैगाओं का जीवन निर्भर है पर सब जंगल के अफसरों ने धीरे-धीरे अपने कब्जे में ले लिया। अब ये खायें तो क्या, जीवन बचायें तो कैसे?

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