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जब तुम पत्नी का शव ढो रहे थे...
06-Sep-2020 1:29 PM
जब तुम पत्नी का शव ढो रहे थे...

तुमने जब अपनी पत्नी के

शव को कंधे पर रख
राजपथ पर पहला कदम बढ़ाया
उस समय कैलाश पर्वत पर
त्रिनेत्रधारी शिव
शैलपुत्री के साथ विहार कर रहे थे
सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा
नयी आकाशगंगाओं
का शिल्प गढ़ रहे थे
शेषशायी विष्णु क्षीरसागर में
कमल पर विराज कर
अपनी प्रिय पत्नी से
पाँव दबवाते हुए
मत्स्य कन्याओं का नृत्य देख रहे थे
देवराज इंद्र की सभा
सदैव की तरह
अप्सराओं के उद्दाम कामवेग
में हिलोरें ले रही थी
तुमने अर्धांगिनी के शव के साथ
जब दस कोस की यात्रा प्रारम्भ की
तब भद्रजन गिरिधर की भक्ति में लीन
झाँझ मजीरे बजाते हुए
गिरिराज पर्वत की पंचकोसी
परिक्रमा में थिरकते हुए
परलोक सुधारने में व्यस्त थे
लोकतंत्र की राजसभाओं में
सभासद विकास की स्वर्णाक्षरी लिखने
को गंभीर मंत्रणाओं में तल्लीन रहे
चारण और भाट समवेत स्वर में
सत्ता का विरुद गाते रहे
कवि प्रेम कवितायें
लिख लिख कर धन्य होते रहे
चित्रकार तूलिका से अमूर्त शैली में
नायिकाओं के उन्नत यौवन
रेखांकित कर नयनाभिराम चित्र बनाते रहे
संगीतकारों का अभ्यास
नए राग की रचना में
अनवरत चलता रहा
और तुम बिना थके
सृष्टि का महानतम भार
अपने कंधे पर रख चलते रहे, चलते रहे
स्वर्ग के देवताओं के पास नहीं था अवकाश
तुम्हारा आर्तनाद सुनने को
और न ही पृथ्वी के अधिनायक के पास समय
सुनो , दाना मांझी
दस कोस की इस महायात्रा में
तुम्हारे कंधे पर तुम्हारी पत्नी का नहीं
मनुष्यता का शव रखा था ।

-राकेश पाठक

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