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इंद्रजाल कॉमिक्स के साप्ताहिक होने से संकट...
29-Jul-2020 3:04 PM
इंद्रजाल कॉमिक्स के साप्ताहिक होने से संकट...

-दिनेश श्रीनेत

इंद्रजाल कॉमिक्स में जाहिर तौर पर ली फॉक के किरदार ही छाए रहे, मगर बीच का एक दौर ऐसा था जब इसने कुछ नए और बड़े ही दिलचस्प कैरेक्टर्स से भारतीय पाठकों से रू-ब-रू कराया। मैं उन्हीं किरदारों पर कुछ चर्चा करना चाहूंगा। कॉमिक्स की बढ़ती लोकप्रियता के चलते 1980 में टाइम्स ग्रुप ने इसे पाक्षिक से साप्ताहिक करने का फैसला कर लिया। यानी हर हफ्ते एक नया अंक। शायद प्रकाशकों के सामने हर हफ्ते नई कहानी का संकट खड़ा होने लगा। 1981-82 में अचानक इंद्रजाल कॉमिक्स ने किंग फीचर्स सिंडीकेट की मदद से चार-पांच नए किरदार इंट्रोड्यूस किए। मेरी उम्र तब करीब नौ-दस बरस की रही होगी। मुझे ये किरदार बहुत भाए। इसकी एक सबसे बड़ी वजह यह थी कि ये सारे कैरेक्टर वास्तविकता के बेहद करीब थे। उन कहानियों में हिंसा बहुत कम थी और वे एक खास तरीके से नैतिक मूल्यों का समर्थन करते थे।

सबसे पहले जो कैरेक्टर सामने आया वह था कमांडर बज सॉयर का। कमांडर सॉयर की पहली स्टोरी इंद्रजाल कॉमिक्स में ‘खूनी षडय़ंत्र’ थी। दृतीय विश्वयुद्ध में यूएस नेवी का एक फाइटर पायलट की सिविलियन लाइफ देखने को मिलती थी। सॉयर की उम्र आम नायकों से ज्यादा था। जो कहानियां मैंने पढ़ीं उनमें उसकी उम्र 45-50 के बीच रही होगी। कमांडर सॉयर की कहानियों की सबसे बड़ी खूबी यह थी कि उनके किरदार वास्तविक जीवन से उठाए हुए होते थे। इनके नैरेशन में ह्मयूर का तडक़ा होता था। इनमें से कई कहानियां क्राइम पर आधारित नहीं होती थीं। कई बार वे सोशल किस्म की कहानियां होती थीं। इनमें मानवीय भावनाओं का हल्के-फुल्के ढंग से चित्रण किया जाता था, बासु चटर्जी की फिल्मों की तरह। उदाहरण के लिए एक कहानी सिर्फ इतनी सी थी कि एक बिल्ली का बच्चा पेड़ पर चढ़ जाता है और उतरने का नाम नहीं लेता। फायर ब्रिगेड वाले भी कोशिश करके हार जाते हैं। आखिर कमाडंर सॉयर पेड़ पर चढक़र उसे पुचकार कर उतारते हैं। इसी तरह से एक अकेली विधवा मां और उसके बच्चे की कहानी, अनजाने में अपराधी बन गए दो बच्चों की कहानी जिस शीर्षक था ‘मासूम गुनाह’... ये बज सॉयर के कुछ यादगार अंक हैं, जिन पर कभी लिखना चाहूँगा। आम तौर पर इनका कैनवस अमेरिकन गांव हुआ करते थे।

इसके तुरंत बाद दूसरा कैरेक्टर इंट्रोड्यूस हुआ था कैरी ड्रेक का। ड्रेक एक पुलिस आफिसर था। यहां भी कुछ खास था। पहली बात किसी भी कॉमिक्स मे कैरी ड्रेक बहुत कम समय के लिए कहानी में नजर आता था। अक्सर ये कहानियां किसी दिलचस्प क्राइम थ्रिलर की बुनावट लिए होती थीं। इन कहानियों का मिजाज जेम्स हेडली चेज़ के उपन्यासों के बहुत करीब होता था। साथ ही हर कहानी के किरदारों पर काफी मेहनत की जाती थी। अक्सर कैरी ड्रेक की कहानियों में अपराधी किसी प्रवृति के चलते अपराध नहीं करते थे। परिस्थितियां उन्हें अपराध की तरफ ढकेलती थीं और वे उनमें फंसते चले जाते थे। इन कहानियों का सीधा सा मॉरल यह था कि अगर अनजाने में भी आपने गुनाह की तरफ कदम बढ़ा लिए तो आपको अपने जीवन में उसकी एक बड़ी कीमत चुकानी पड़ेगी और तब पछतावे के सिवा कुछ हाथ नहीं लगे। कुछ अपनी जिद, तो कुछ अपनी गलत मान्यताओं के कारण अपराध के दलदल में फंसते चले जाते थे। हर कहानी में एक केंद्रीय किरदार होता था। उसके इर्द-गिर्द कुछ और चरित्र होते थे। उन्हें बड़ी बारीकी से गढ़ा जाता था। अब मैं उन तमाम चरित्रों को याद करता हूं तो यह समझ मे आता है कि उसके रचयिता ने तमाम मनोवैज्ञानिक पेंच की बुनियाद पर उन्हें सजीव बनाया जो कि वास्तव में एक कठिन काम है और हमारे बहुत से साहित्यकार भी इतने वास्तविक और विश्वसनीय चरित्र नहीं रच पाते।

इसके बाद बारी आती है रिप किर्बी की। आंखों पर चश्मा, पाइप, किताबों और पुरातत्व में दिलचस्पी, सभ्य और शालीन और साथ में बॉक्सिंग का शौकीन। यह एक प्राइवेट डिटेक्टिव था मगर ज्यादा सॉफिस्टिकेटेड और अरबन मिजाज वाला- कुछ-कुछ शारलॉक होम्स जैसा। इंद्रजाल कॉमिक्स में रिप किर्बी की पहली कहानी हिन्दी में ‘रहस्यों के साये’ और अंग्रेजी में ‘द वैक्स ऐपल’ के नाम से प्रकाशित हुई थी। साफ-सुथरे रेखांकन वाली इन कहानियों मे एक्शन बहुत कम होता था। मुझे रिप किर्बी की एक कहानी आज भी याद है, जिसमें रिप किर्बी और उनका सहयोगी एक ऐसे टापू पर जा पहुंचते हैं जो अभी भी 1830 के जमाने में जी रहा है। बाहरी दुनिया से उनका संपर्क हमेशा के लिए कट चुका है। वहां पर अभी भी घोड़ा गाड़ी और बारूद भरकर चलाई जाने वाली बंदूके हैं।

इस पूरी सिरीज में मुझे सबसे ज्यादा पसंद माइक नोमेड था। अभी तक मैंने किसी भी पॉपुलर कॉमिक्स कैरेक्टर का ऐसा किरदार नहीं देखा जो बिल्कुल आम आदमी हो। उसके भीतर नायकत्व के कोई गुण नहीं हों। यदि आपने नवदीप सिंह की पहली फिल्म ‘मनोरमा सिक्स फीट अंडर’ देखी हो तो अभय देओल के किरदार में आप बहुत आसानी से माइक नोमेड को आइडेंटीफाई कर सकते हैं। यह इंसान न तो बहुत शक्तिशाली है, न बहुत शार्प-तीक्ष्ण बुद्धि वाला, न ही जासूसी इसका शगल है। माइक नोमेड के भीतर अगर कोई खूबी है तो वह है ईमानदारी। अक्सर माइक को रोजगार की तलाश करते और बे-वजह इधर-उधर भटकते दिखाया जाता था।

एक और कैरेक्टर था गार्थ का। इस किरदार का संसार सुपरनैचुरल ताकतों से घिरा था। गार्थ अन्य कैरेक्टर्स के मुकाबले थोड़ा वयस्क अभिरुचि वाला था। इस कॉमिक्स में काफी न्यूडिटी भी होती थी। कहानियां बहुत ही पॉवरफुल होती थीं और उतना ही शानदार और एक्सपेरिमेंटल रेखांकन। कॉमिक्स फ्रेम-दर-फ्रेम चित्रों के माध्यम से कहानी कहने कला है। गुफाओं में मिलने वाले पाषाणकालीन रेखांकन से लेकर आधुनिक सिनेमा तक कहानी इसी बुनियादी रूप में कही जाती है। इसका उत्कृष्ट रूप गार्थ में देखने को मिलता था। गार्थ के रचयिताओं ने कई बेहतरीन क्राइम थ्रिलर भी दिए हैं। इसमें से एक तो इतना शानदार है कि बॉलीवुड उसकी नकल पर एक शानदार थ्रिलर बन सकती है। कहानी है जुकाम के उत्परिवर्ती वायरस की जो बेहतर घातक है (कुछ-कुछ कोरोना वायरस की तरह), इसकी खोज करने वाले प्रोफेसर की हत्या हो जाती है। प्रोफेसर की भतीजी, गार्थ और गार्थ के प्रोफेसर मित्र इस मामले का पता लगाने की कोशिश करते हैं। पता लगता है कि कुछ सेवानिवृत अधिकारियों और रसूख वालों ने अपराधियों को खत्म करने का जिम्मा उठाया है, एक गोपनीय संगठन के माध्यम से। वे एक के बाद एक अपराधियों को पहचान कर उन्हें ठिकाने लगाने में जुटे हैं। यह रोमांचक तलाश उन्हें ले जाती है हांगकांग तक, जहां एक बेहतर खूबसूरत माफिया सरगना इस त्रिकोणीय संघर्ष का हिस्सा बनती है। संगठन से जुड़े लोग हांगकांग की सडक़ों पर मारे जाते हैं और उनका सरगना अपना मिशन फेल होने पर आत्महत्या कर लेता है। यह कहानी साध्य और साधन के नैतिक प्रश्न का सामना भी करती है और अंत में स्थापित करती है कि सही मकसद के लिए भी गलत रास्ते को अपनाने का अंजाम बुरा ही होता है।

इंद्रजाल की इस श्रंृखला का आखिरी कैरेक्टर था सिक्रेट एजेंट कोरिगन। इस सिरीज के तहत प्रकाशित कहानियां दो किस्म की थीं। दोनों के चित्रांकन और कहानी कहने का तरीका बेहद अलग था। पहला वाला बेहद उलझाऊ और दूसरा बहुत ही सहज और स्पष्ट। पहले किस्म की कोरिगन की कहानियों को पढक़र समझ लेना मेरे लिए उन दिनों एक चुनौती हुआ करता था। उन्हें पढऩे के लिए विशेष धैर्य की जरूरत पड़ती थी, लगभग गोदार की फिल्मों की तरह। इसके रचयिता कम फे्रम में बात कहने की कला में माहिर थे। मगर नैरेशन की कला का वे उत्कृष्ट उदाहरण थीं इनमें कोई शक नहीं। वहीं दूसरे किस्म की कहानियां को एक अच्छी पटकथा के बरक्स रखा जा सकता था। कोरिगन पर कभी विस्तार से बात होगी। (फेसबुक)

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