साहित्य/मीडिया

इलाहाबाद अब उदास करता है
27-Jul-2020 8:44 PM
इलाहाबाद अब उदास करता है

हिन्दी साहित्य की अंकेक्षण विधि ने तो डॉ. धर्मवीर भारती के उपन्यास-गुनाहों का देवता को, एक तरह से खारिज ही कर दिया है। लेकिन गुनाहों का देवता ने इलाहाबाद की संवेदनात्मक अनुभूतियों को उनके स्पन्दित स्पर्श के साथ हिन्दी साहित्य में सहेजा है। इलाहाबाद विश्वविद्यालय, वहाँ के सिविल लाईंस और इंडियन कॉफी हाऊस में वह स्पर्श अपनी सघनता में मिलता है। इंडियन कॉफी हाऊस मुझे उसके केन्द्र में मिलता रहा।

जिन दिनों मैंने लिखना शुरू किया था, यह इंडियन कॉफी हाऊस उस समय के जाने-माने बौद्धिकों और साहित्य के बड़े लोगों का अड्डा हुआ करता था। कभी-कभार अमृत राय, डॉ. विजय देव नारायण साही, डॉ. भारती स्वयं और कमलेश्वर और बहुधा मार्कण्डेय, नरेश मेहता, डॉ. लक्ष्मी नारायण लाल, डॉ. फिराक गोरखपुरी जैसे लोगों को वहां एक साथ देखना मेरे लिए एक अनुभव हुआ करता था।

मेरे इस अनुभव में उन बड़े लोगों की छोटी-छोटी तुनकमिजाजियाँ भी शामिल हैं, जो आज किसी किस्से-कहानी की तरह दिलचस्प भी लगती हैं। और कभी बताने का मन करता है।

इन बड़े लोगों से अलहदा भी कोई एक रुआबदार व्यक्ति वहाँ आया करते थे। अकेले आते थे और अकेले ही वहाँ बैठते थे। उनकी टेबल के साथ केवल दो कुर्सियां लगती थीं। लेकिन उस दूसरी कुर्सी पर किसी को उनके साथ बैठे हुए मैंने नहीं देखा। वो नाटे कद,पक्की उम्र और पक्के रंग वाले व्यक्ति थे। सुनहरे फ्रेम वाला उनका चश्मा उनके पक्के रंग पर चमकता हुआ अलग से दिखता था। खालिस सींग की एक महँगी छड़ी भी उनके हाथ में होती थी, जिसकी उनके लिए कोई जरूरत नहीं दिखती थी। अधिक से अधिक उनकी रईसी शान में इजाफा करने के ही काम में आती थी। अद्धे का चुन्नटदार कुरता, परमसुख ब्राण्ड वाली धोती और पैरों में महंगे पम्प शूज उन दिनों के पुराने रईसों की पोशाक हुआ करती थी। यही वो पहना करते थे। इसके ऊपर ‘लाल इमली’ के मशहूर ‘सर्ज’ की गाढ़े नीले रंग की ‘वास्केट।’ मुझे वो कोई एक सशक्त कथा पात्र दिखते थे। इसलिए वहाँ उनके आने-जाने और वहाँ बैठने पर मेरा ध्यान रहता था। मुझे बराबर लगता रहता कि उनके वास्केट की भीतरी जेब में, जरूर ही सोने की चेन वाली जेब घड़ी होगी। उनके आने-जाने और वहाँ बैठने का उनका समय उस चेन के साथ बंधा हुआ है। 

उन दिनों इंडियन कॉफी हाउस में क्रीम कॉफी भी मिला करती थी। वह महंगी होती थी। लेकिन उनके लिये वही आती थी। क्रीम कॉफी की पूरी ट्रे। और वह कॉफी पीने का उनका तरीका भी उनकी तरह रईसाना ही था। पहले वो क्रीम वाला पूरा पॉट अपने कप में उड़ेल लेते, फिर जितनी जगह बचती उसमें कॉफी। और बस।

वहाँ, मैंने अपने लिए बाईं तरफ वाली खिडक़ी से साथ लगी हुई टेबल हथिया रखी थी। उस खिडक़ी से, बड़े चौराहे पर गुलाबी पत्थरों वाला वह सुन्दर चर्च सामने दिखाई देता रहता था। सर्दियों की किन्हीं सुबहों में अपनी इस खिडक़ी से उस चर्च को देखना एक दिव्य अनुभव होता था। सर्दी के उन दिनों का आसमान नीले कांच की तरह चर्च के ऊपर तना होता था। कांच के आसमान पर कपास के सफेद फाहे यहां-वहाँ तैरते हुए होते थे। और सुबह की कोमल धूप में चर्च के गुलाबी पत्थर खिल रहे होते थे।

वह कॉफी हाऊस के खुलने का समय होता था। दक्षिण भारतीय चन्दन की अगरबत्तियों का धुंआ वहाँ लहरा रहा होता। और चन्दन की सुवास बाहर दूर तक जा रही होती थी। भीतर, लकड़ी के पार्टीशन के पीछे से कप-प्लेटों और चम्मचों की मिलीजुली आवाजें बाहर आकर किन्हीं घंटियों की सी तरंग में मिलती थीं। या, कुछ ऐसे कि किसी की कोई प्रेमिका पर्दा हटाकर बाहर आए तो परदे के किनारों पर टंकी घंटियाँ हवा में तैरने लगें, और वहाँ उजाला हो जाये।

इलाहाबाद का इंडियन कॉफी हॉउस अंग्रेज़ी दिनों की शानदार ‘दरबारी बिल्डिंग’ के एक हिस्से में है। इसकी छतें खूब ऊंची थीं और दरवाज़े मेहराबों वाले थे। यह सब किसी दृश्य से अधिक अपनी अनुभूति में होता था। और वह किसी पूजा-स्थल का सा बोध करता रहता था।

सुबह के समय, अभी जब कॉफी के शौकीनों की भीड़ वहाँ नहीं होती थी, एक थिरी हुई शांति वहाँ होती थी। वह थिरी हुई शांति एक भ्रांति की रचना करती थी। खूब ऊंची छत और मेहराबों में खुलते हुए दरवाज़े उस बड़े से हॉल को किसी ग्रीक थिएटर के मंच में बदलने लगते थे।

लेकिन अब ऐसा कुछ नहीं होता। अंग्रेजी दिनों की वो खूब ऊंची छत अब नीची हो गई है। निचली फाल्स सीलिंग ने पुरानी छत की ऊंचाई को ढाँक लिया है। अपनी पुरानी ऊंचाइयों को नीचा दिखाने कई तरीके हमारे हाथ लग चुके हैं। और ये तरीके हमारी आज की जरूरतों का हिस्सा हो चुके हैं।

वह खिडक़ी भी मुंद गई है, जहां से खुले हुए बड़े चौराहे तक साफ दिखता था। अब वहाँ से गुलाबी पत्थरों वाला वह चर्च नहीं दिखता। अब कॉफी हाउस में अँधेरा-अँधेरा सा रहता है।  इधर के 2-3 बरसों में मेरा इलाहाबाद आना-जाना बराबर हुआ है। और कॉफी हाऊस हर बार पहले से बदतर मिला है। इलाहाबाद का कॉफी हाऊस धीरे-धीरे किसी अवसाद में डूब रहा है। और यह बात मन को उदास करती है।

अब कॉफी हाऊस के बगल में विश्वभारती प्रकाशन और उपेन्द्रनाथ ‘अश्क’ का नीलाभ प्रकाशन भी नहीं हैं। अश्कजी के नहीं रहने के बाद भी ‘नीलाभ प्रकाशन’ एक जगह थी जहाँ उनकी उपस्थिति मिलती थी। उनकी इस उपस्थिति में उनका वह समय भी उपस्थित होता था जिसके साथ हमारा परिचय था। अब वहां अपरिचय है। हमारा परिचय उस समय से था जो अब असमय होता जा रहा है। अब नीलाभ भी नहीं रहे।

‘गुनाहों का देवता’ में ‘पैलेस सिनेमा’ का उल्लेख मिलता है। वहाँ की बालकनी की पिछली कतार की किन्हीं शानदार कुर्सियों में बैठकर चन्दर और सुधा ने एक अंग्रेजी फिल्म देखी थी। उस फिल्म का नाम है-सेलोमी, व्हेअर शी डाँस्ड।’

पैलेस सिनेमा की बालकनी की कुर्सियां सचमुच ही शाही और आरामदेह थीं। मैंने कई बार उन कुर्सियों को पहिचानने की कोशिश की जिनमें बैठकर एक उपन्यास के नायक और नायिका ने वह फिल्म देखी थी। यह वह कैशोर्य जिज्ञासा ही थी जिस आरोप में उस समय के एक उपन्यास को खारिज कर दिया गया। अब वहाँ एक बड़ा और आधुनिक ‘मॉल’ बन गया है, जहां किन्हीं भी कोमल स्मृतियों के लिए कोई जगह नहीं हो सकती।

लेकिन उन कोमल स्मृतियों की नायिका सुधा के साथ, बाद के दिनों में और कई निकटताओं में मेरी मुलाकातें रही हैं। अविभाजित मध्यप्रदेश के शिक्षा विभाग की एक उच्चस्तरीय समिति में उनके साथ एक सदस्य मैं भी था। लेकिन उन्होंने मुझे हर बार बरजा कि मैं उनमें सुधा को नहीं देखूं। उस एक कथा नायिका का कथात्मक अन्त हुआ। और वह दुखद था।

सिविल लाईंस की मशहूर चन्द्रलोक बिल्डिंग के एक विंग में ‘कहानी’ का दफ्तर हम समकालीन लोगों का अड्डा हुआ करता था। वहाँ सतीश जमाली बैठा करते थे। हम लोग उनको उनकी टेबल से उठाकर नीचे चले आया करते थे। नीचे, लक्ष्मी बुक हाउस में थोड़ी देर तक पत्र-पत्रिकाएं और पुस्तकें देखा करते। फिर सामने, सेन्ट्रल बैंक के सामने वाले किसी ठेले पर आधी-आधी चाय पिया करते। ‘कहानी’ के दफ्तर में या वहाँ, चाय के ठेले पर सरदार बलवन्त सिंह, रविन्द्र कालिया, दूधनाथ वगैरह और शायद बाद के दिनों में अब्दुल बिस्मिल्लाह से भी मिलना-जुलना हो जाया करता था।

ज्ञान रंजन के साथ भी मेरी शुरुआती मुलाकातें सतीश जमाली के इसी समुदाय में हुआ करती रही। बाद में विद्याधर शुक्ल भी वहाँ आने लगे थे। विद्याधर आलोचना पर केंद्रित एक अनियतकालीन पत्रिका लेखन का सम्पादन करते थे। अब नहीं रहे। और उनके बाद, उनके-लेखन  का क्या हुआ ? कुछ पता नहीं। लेकिन जब तक वो रहे अपने तेज-तर्रार तेवरों के साथ रहे, और खरी-खरी कहने में किसी को भी नहीं बख्शा।

इलाहाबाद के वो दिन और उन दिनों की यादें बताने की भी हैं और किन्हीं सुपात्र साझेदारियों में सहेजने की भी हैं। भारतीय रेलवे के एक अधिकारी तनवीर हसन इन दिनों मेरे संपर्क में हैं। और साहित्य में अपनी जगह तय कर रहे हैं। इस बार तनवीर मेरे साथ थे। और यह अच्छा रहा। किन्हीं पुराने दिनों में जाने के लिए अपने समय का कोई साथ मिल जाये तो उदासियों का डर कम हो जाता है। जहां ‘कहानी’ का दफ्तर था, आज वह उन पुराने दिनों की एक ऐसी ही जगह है। इसलिए तनवीर को मैंने अपने साथ ले लिया। हालाँकि मैं उनको नहीं बताऊंगा कि अपने डर से बचने के लिए मैंने उनको अपने साथ लिया।

श्रीपत राय ‘कहानी’ के सम्पादक थे। लेकिन दिल्ली में रहते थे। यहाँ सतीश जमाली ही ‘कहानी’ के अंकों की देखभाल किया करते थे। आधुनिक चित्रकला में श्रीपत राय का बड़ा नाम था। और ‘कहानी’ के प्रत्येक अंक के आवरण पृष्ठ पर उनकी कोई एक चित्रकृति प्रकाशित हुआ करती थी। उनकी पेंटिंग्ज से होने वाली आमदनी का कोई हिस्सा ‘कहानी’ के प्रकाशन में लग रहा था। लेकिन ‘कहानी’ के उस दफ्तर में हमें सूना सन्नाटा मिला। और नीचे की तरफ लक्ष्मी बुक हाउस में तोडफ़ोड़ हो रही थी। पता नहीं क्यों? लेकिन वह भी उदास करने वाली ही थी। कोई भी तोड़-फोड़ उदास ही करती है।

किंग्ज मेडिकल वाली लाइन में एक ‘ऑक्शन हाउस’ था। इंडियन कॉफी हाउस के अलावा यह ऑक्शन हाउस भी एक जगह थी जहाँ डॉ. फिराक गोरखपुरी आया करते थे, और बैठा करते थे। फिराक साहब चेन-स्मोकर थे, और उनका व्यक्तित्व रुतबेदार था। उनकी उँगलियों में एक जलती हुई सिगरेट फंसी ही रहती थी। सिगरेट पीने का उनका अपना तरीका था। यह तरीका उनके रुतबे के साथ मेल खाता था। और वहाँ, लोग उनका रुतबा माना करते थे। लेकिन, वह ‘ऑक्शन हॉऊस’ भी शायद अब वहाँ नहीं रहा। या, शायद मैं ही नहीं ढूंढ पाया। सचाई, शायद यह है कि मैं इलाहाबाद ढूंढ रहा था और ढूंढ नहीं पा रहा था।

‘कहानी’ दफ्तर से आगे वाला वह जो चौराहा है, क्रास्थवेट रोड का चौराहा, उसकी दाईं-बाईं वाली लेनों में मेहंदी के बाड़ों और गुलाब की रंगीन क्यारियों वाली छोटी-छोटी लेकिन खूबसूरत कॉटेज हुआ करती थीं, उन्हीं में से किसी एक में पम्मी रहती होगी जिसका भाई पागल था। और वहां पैलेस सिनेमा में यह पम्मी भी सुधा और चन्दर के साथ थी। एक बार मन किया कि उसकी कॉटेज को ढूंढूं। और वहां जाकर उसे बता दूँ कि अब सुधा नहीं रहीं। लेकिन यहाँ, इलाहाबाद में मैं तो कुछ ढूंढ ही नहीं पा रहा हूँ। शायद अब पम्मी भी काफी बूढ़ी हो चुकी होगी। पता नहीं उन दिनों की बातें उसे याद भी होंगी या नहीं? पता नहीं, अब वो भी होगी या नहीं।

ज्ञान रंजन हमारे समय की हिंदी कहानी के एक बड़े प्रवक्ता हैं। रायपुर में उन्हें मुक्तिबोध सम्मान दिया गया था। वहां से वापसी में थोड़ी देर के लिए बिलासपुर के रेलवे स्टेशन पर उनसे मुलाकात हुई थी, और हमने इलाहाबाद को उन दिनों में ढूँढने की कोशिश की थी जो साठोत्तरी हिन्दी कहानी का भरोसेमंद समय था। लेकिन अब वो लोग ही वहाँ नहीं रहे जिनसे उस समय का भरोसा था। रविन्द्र कालिया अब नहीं रहे। सतीश जमाली ने इलाहाबाद छोड़ दिया। दूधनाथ दिखते नहीं। अब एक अपरिचय वहाँ बसता है। और वह उदास करता है। इलाहाबाद अब उदास करता है।
अब सतीश जमाली भी नहीं रहे। कानपुर में, जहाँ वह अपने बेटे के साथ रह रहे थे, उनका देहावसान हो गया।

(दिल्ली से प्रकाशित होने वाले पाक्षिक ‘शुक्रवार’ के 16-31 जुलाई 2016 के अंक में बदले हुए शीर्षक के साथ प्रकाशित  इलाहाबाद : उदासियों का शहर। सतीश जायसवाल का यह संस्मरण 2016 का लिखा हुआ है। तब से अब तक रविन्द्र कालिया, दूधनाथ सिंह, सतीश जमाली और विद्याधर शुक्ल इस दुनिया में नहीं रहे।)

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