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आज समूचा विश्व एक साथ मंगल की प्रतीक्षा में है
19-Jul-2020 11:41 AM
आज समूचा विश्व एक साथ मंगल की प्रतीक्षा में है

फिज्दी/ऐश्वर्य नवनी

मंगल आयेगा तो हम फिर आदमी हो जायेंगे, हमारा फिर पड़ोस और मुहल्ला होगा और हम लोगों से मिलने से हिचकेंगे नहीं

-अशोक वाजपेयी

इन दिनों हम अक्सर मंगल कामना करते हैं क्योंकि हमें लगता है कि समूची पृथ्वी पर अमंगल की काली छाया मंडऱा रही है। हम जैसे लोग, जिन्हें आस्था का वरदान नहीं मिला है, सोचते हैं कि अनास्था से भी मंगल कामना की जा सकती है। ऐसी कामना आस्था या अनास्था का सत्यापन नहीं है। वह मंगल की वापसी के लिए समवेत आह्वान या प्रार्थना का हिस्सा है। हम भय से, सन्देह से, झूठ से, दुराचार और अन्याय से, झांसों और निराशा से घिर गये हैं। एक पूरी तिमाही बीत गयी है और हमें कोई राहत मिलती नजऱ नहीं आती। इस सारे घटाटोप के बीच यह तय है कि मंगल हमसे दूर भाग गया है। हम उसके वापस आने की अथक प्रतीक्षा कर रहे हैं।

हम जानते हैं कि मंगल किसी दैवी आशीर्वाद की तरह नहीं आयेगा। वह किसी दिव्य रथ या वचन पर चढक़र भी नहीं आने वाला। वह ऐसी चकाचौंध करते हुए भी नहीं आयेगा जिसमें बाक़ी सारे आलोक बुझ जायें या फीके पड़ जायें। वह हमारी निपट साधारणता से, अदम्य मानवीयता से ही उभरेगा। वह आकाश से नहीं उतरेगा। वह हमारी, इन दिनों अकसर सूनी पड़ी गलियों और सडक़ों से, शायद कुछ लडख़ड़ाता हुआ आयेगा। वह जुलूस और भजन-कीर्तन के साथ या गाजे-बाजे का शोर करते हुए नहीं आयेगा। मंगल आयेगा हर घर पर एक सौम्य दस्तक, एक हलकी झलक, एक छाया की तरह। हो सकता है कि वह इतने धीरे से आये कि हमें पता ही न चले। वह आयेगा तो बहुत कुछ, जो हमसे दूर फिंक गया है, ‘इतने पास अपने’ आ जायेगा। हमारा फिर पड़ोस और मुहल्ला होगा। हम लोगों से मिलने, उनकी तकलीफ सुनने और कुशल-क्षेम पूछने, सौदा-सुलूफ लाने की अनाटकीय कार्रवाई करते हिचकेंगे नहीं। मंगल आयेगा तो हम फिर आदमी हो जायेंगे, यों आधे-अधूरे जैसे हमेशा से थे, पर आकांक्षा में पूरे।

मंगल को हम ही लायेंगे, अपनी जिजीविषा से, अपने साहस, अपनी कल्पना से। जब वह आयेगा तो हमें कोई द्वारचार या बन्दनवार नहीं करना-लगाना होगा। मंगल हमारे बीच ऐसे आयेगा जैसे अभी थोड़ी देर के लिए बाहर जाकर फिर वापस आ गया है।

पुरखों की परछी में-1

मैंने पहले भी यह लक्ष्य किया है कि कोरोना की वजह से हुई घरबन्दी ने हम सभी को अपने परिवारों में अधिक मिल-जुलकर रहने और सबको अधिक जानने का अवसर दिया है। मेरे बेटे कबीर और बहू प्रीति ने एक उपक्रम किया है। हर रविवार की शाम को हम लोग ‘जूम’ पर अपने भाई-बहनों और उनके बेटे-बेटियों के साथ एक संयुक्त संवाद करते हैं। हमारे माता-पिता को जिन्हें दिदिया-काका कहते थे, याद करते और उनसे हममें से हरेक ने क्या सीखा इस पर कुछ बताते हुए। एक सत्र इस पर भी कि युवा पीढ़ी के सदस्यों ने परिवार में किससे-क्या सीखा। एक और सत्र इस पर है कि हमने परिजनों के अलावा बाहर के किन से क्या सीखा।

यह स्पष्ट हुआ कि हम लगभग सभी यह मानते हैं कि हम अपने माता-पिता से कहीं कमतर हैं, भले हमारी भौतिक उपलब्धियां उनसे बेहतर रही हों। निजी और पारिवारिक जीवन में हम पूरे विनय के साथ इसका एहतराम करते हैं कि हमारे पुरखे हमसे बेहतर थे। हो सकता है कि इसमें कुछ आदर्शीकरण या रूमानीकरण हो जाता हो। पर ऐसा हम सहज भाव से करते हैं। साहित्य में पुरखों के साथ हमारा व्यवहार अकसर इससे ठीक उलट होता है। वहां हम अकसर ऐसी उद्धत हरकत करते हैं मानो हमें अपने पुरखों से कुछ खास मिला नहीं है। हम उनसे बेहतर, अधिक उन्मुक्त, अधिक निर्भीक, अधिक उत्तेजक कर पा रहे हैं ऐसी आत्मरति हमें घेरे रहती है। कई बार हम सीधे-सीधे ऐसा कहते तो नहीं हैं पर भाव ऐसा होता है कि पुरखों के संघर्ष और उपलब्धि दोनों को अतिरंजित किया जाता है।

परिवार में तो पुरखों की स्मृति, कुल मिलाकर, पिछली चार-पांच पीढिय़ों तक सीमित होती है और उससे पहले के पुरखों के हमें नाम तक पता नहीं होते। लेकिन, इसके उलट, साहित्य में तो हम अपने पुरखों की सूची बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी तक पीछे ले जा सकते हैं। अक्सर हम ऐसा अपनी वैधता की तलाश में करते भी हैं। कई बार किसी पुरखे पर हम नाटकीय ढंग से ध्यानाकर्षण करने के उद्देश्य से आक्रमण भी करते हैं। उसके कुछ बने-बनाये विमर्श सहज उपलब्ध हैं - नारी-विरोध, दलित-विरोध, राज्याश्रय आदि। कम से कम जो युवा पीढ़ी आज बहुत सक्रिय और मुखर है उसे किसी पुरखे की न तो अपने कृतित्व में, न सार्वजनिक संवाद में कमी याद आती है। उसने अपने को पुरखों की तथाकथित गिरफ़्त से मुक्त कर लिया है। उसे अपने समवयसी ही याद आते हैं। पुरखे उसके न तो पैमाना हैं, न ऐसी उपस्थिति जिससे सर्जनात्मक और आलोचनात्मक स्तर पर संघर्ष करना ज़रूरी लगे।

पुरखों को भुलाना या सिर्फ़ कभी-कभार वैधता के लिए याद करना उस व्यापक स्मृतिवंचना का हिस्सा है जो हिन्दी समाज में तेज़ी से व्याप गयी है। हम निजी-पारिवारिक जीवन में पुरखों को याद करें और साहित्यिक जीवन में उन्हें भुला दें यह एक विडम्बना है। वैसे भुला देने से पुरखे इतिहास-परम्परा-दृश्य से ग़ायब नहीं हो जाते। यह भी कि उनका किया पैमाना तो बनता है और समय हमें उन पैमानों पर नापेगा ही। पैमाने बदलते हैं पर उनमें कुछ है जो टिकाऊ शाश्वत रहता है। हम इसका एहतराम भले न करें पर हम लिखते तो पुरखों की परछी में हैं।

पुरखों की परछी में-2
पुरखों से लगातार कुछ-न-कुछ सन्देश आते रहते हैं: उन पर ध्यान देने या उन्हें सुनने का हमारे पास धीरज, समय या जतन नहीं होता। फिर भी, कभी-कभार कुछ सन्देश पकड़ में आ जाते हैं। उनमें से कुछ इस प्रकार हैं :

जैसे हम नश्वर थे, वैसे ही तुम भी नश्वर हो। लेकिन, अपनी नश्वरता से बिंधे रहकर भी, तुम कुछ अनश्वर रच सकते हो। जैसे हमारा, वैसे ही तुम्हारा, साहित्य में उत्तरजीवन हो सकता है।

हम तुम्हारी निगरानी नहीं करते पर तुम क्या करते हो हम पर हमारी नजऱ रहती है : इस पर भी हमारे से पहले के पुरखों की नजऱ रहती थी। यह मत भूलो कि तुम सिर्फ़ अपने समकालीनों और भविष्यवर्तियों के लिए नहीं हम जैसे पुरखों के लिए भी लिखते हो।

अगर तुम पुरखों की परछी में आ जाओ तो वहां जगह बन ही जाती है : तुम आओगे तो सीमित होते हुए भी परछी आंगन की तरह खुल-फैल सकती है। जैसे तुमको हमारे होने से फर्क़ पड़ता है, वैसे ही हमको तुम्हारे होने से फर्क़ पड़ता है।

हमको भी अपना समय बहुत असह्य और अभूतपूर्व लगता था: हमने धीरे-धीरे जाना-सीखा कि लिखने वालों के लिए हर समय ऐसा ही होता है।
अगर तुम हमारी कतार में आना-बैठना पसन्द न करो तो यह तुम्हारा निर्णय है। पर समय तुम्हें या तो इस क़तार में मिला देगा या हमेशा के लिए बाहर कर देगा। हमारे बहुत से साथ वाले इस क़तार में नहीं आ पाये।

तुम हमारी पुकार न भी सुनो या सुनकर भी उसका उत्तर न दो कोई हर्ज़ नहीं। पर जब या अगर तुम कभी हमें पुकारोगे तो हम ज़रूर उत्तर देंगे। पुकारना और उत्तर देना, बाद में आये के लिए जगह बनाना, हमारा स्वभाव है।

हम तुम्हारे संघर्ष और बेचैनी की, जोखिम और कल्पना की क़द्र करते हैं : इतना भर याद दिलाते हैं कि अपने समय में हम तुमसे कम संघर्षरत, बेचैन या निराश या आशान्वित नहीं थे। साहित्य बेचैनी, संघर्ष, जोखिम, आशा-निराशा और कल्पना की एक अटूट बिरादरी है।

मनुष्य, जीवन, अस्तित्व, सचाई, यथार्थ, कल्पना सभी लेखक के लिए रहस्य, जिज्ञासा और विस्मय का विषय रहे हैं। न हम अनहोने थे, न तुम अनहोने होगे।
हमसे अगर तुम कुछ उधार लो तो उसे हमें नहीं लौटाना होगा। वह तुम बाद वालों को लौटाओगे। ऐसे कर्ज होते हैं जिन्हें चुकाना नहीं होता।
हम कुछ दे नहीं सकते। लेकिन यह आशय नहीं कि तुम कुछ ले नहीं सकते।

हम आधे-अधूरे हैं और तुम मिल जाओ तब भी आधे-अधूरे ही रहेंगे। मनुष्यता कभी पूरी नहीं होती, वह असमाप्य है। (satyagrah.scroll.in)

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