सामान्य ज्ञान
इंट्रेस्ट रेट में कमी के बीच रिटायरमेंट बेनिफिट्स पर फोकस काफी बढ़ा है। भारत में इसके लिए दो तरह की स्कीम्स हैं- एंप्लॉयीज प्रॉविडेंट फंड (ईपीएफ) स्कीम और नैशनल पेंशन स्कीम (एनपीएस)।
ईपीएफ स्कीम की शुरुआत 1952 में नोटिफाइड कंपनियों के लिए अनिवार्य रिटायरमेंट सेविंग्स प्रॉडक्ट के तौर पर हुई थी। इसके दायरे में सरकारी कर्मचारियों को भी रखा गया था। ईपीएफ को वैसी हर एंटिटी के लिए अनिवार्य बनाया गया था, जिसमें कम से कम 10 एंप्लॉयीज काम करते हों। दूसरी ओर, एनपीएस तुलनात्मक तौर पर नई स्कीम है, जिसे 2004 में नोटिफाई किया गया था और अभी यह वॉलेंटरी स्कीम है। यह उन लोगों को ऑफर की जाती है, जिन्होंने 2004 के बाद वर्कफोर्स को जॉइन किया है। सरकारी एंप्लॉयीज के लिए यह अनिवार्य है।
ईपीएफ स्कीम में एंप्लॉयी बेसिक सैलरी और महंगाई भत्ते का 12 पर्सेंट हर महीने कॉन्ट्रिब्यूट करता है। कंपनी भी उतनी ही रकम का योगदान इसके लिए अपनी तरफ से देती है। एंप्लॉयी कॉन्ट्रिब्यूशन पर टैक्स छूट हासिल की जा सकती है। एनपीएस वॉलेंटरी स्कीम है। इसमें हर साल कम से कम 6 हजार रुपये का कॉन्ट्रिब्यूशन करना पड़ता है। इसमें निवेश की अधिकतम सीमा नहीं है। इसमें भी एंप्लॉयर्स कॉन्ट्रिब्यूट करते हैं। हालांकि, एनपीएस के तहत एंप्लॉयी कॉन्ट्रिब्यूशन पर भी टैक्स छूट हासिल की जा सकती है।
ईपीएफ डिफाइंड बेनिफिट स्कीम है, जिसमें रिटर्न तय होता है और इस पर टैक्स छूट मिलती है। वहीं, एनपीएस डिफाइंड कॉन्ट्रिब्यूशन स्कीम है और इसमें रिटर्न फिक्स नहीं होता। ईपीएफ फंड को ईपीएफओ मैनेज करता है। वह इस पैसे को फिक्स्ड इनकम प्रॉडक्ट्स, खासतौर पर सरकारी बॉन्ड में लगाता है। वहीं, एनपीएस का कामकाज पेंशन फंड मैनेजर देखते हैं। पेंशन फंड मैनेजर रेग्लेयुटर्स की तरफ से नोटिफाइड होते हैं। एनपीएस का फंड इक्विटी प्रॉडक्ट्स में भी लगाया जाता है। एनपीएस को अधिक पारदर्शी स्कीम माना जाता है क्योंकि सब्सक्राइबर्स को डेली बेसिस पर इन्वेस्टमेंट की जानकारी मिलती है। वहीं, ईपीएफ के मामले में इन्वेस्टमेंट की वैल्यू साल के अंत में पता चलती है। यह उस वक्त होता है, जब लेबर मिनिस्ट्री स्कीम पर सालाना रिटर्न का ऐलान करती है। ईपीएफ से कुछ विद्ड्रॉल को मंजूरी मिली हुई है, लेकिन एनपीएस के तहत इस तरह का कोई प्रोविजन नहीं है। सब्सक्राइबर पिछला अकाउंट बंद करके और नया अकाउंट खोलकर इससे पैसा निकाल सकता है।
कनिंघम
सर अलेक्जेंडर कनिंघम ने भारत के पुरातत्व विभाग के निदेशक के रूप में 1870 से 1885 ई. तक काम किया। उसकी रुचि विविध विषयों में थी। 1833 ई. में एक सैनिक शिक्षार्थी के रूप में वह ब्रिटेन से भारत आया, सैनिक इंजीनियर बनकर युद्घों में भाग लिया तथा बाद में बर्मा और पश्चिमोत्तर प्रांत का मुख्य अभियंता रहा। 1861 ई. में सेवानिवृत्त होने पर वह पुरातत्व के काम में लगा तथा अपने अध्ययन के आधार पर मृदाशास्त्र का अधिकारी विद्वान माना जाने लगा। उसने अनेक पुरातत्व स्थलों की खोज की तथा इस विषय पर कई ग्रंथ लिखे, जिनका महत्व आज भी है।