अदालत की सख्ती और लगातार गहराते राजनीतिक विवाद के बावजूद असम सरकार आखिर बरसों पहले 'विदेशी' घोषित दो सौ से ज्यादा लोगों को उनके देश वापस क्यों नहीं भेज पा रही है?
डॉयचे वैले पर प्रभाकर मणि तिवारी की रिपोर्ट-
असम के ग्वालपाड़ा जिले में मातिया स्थित सबसे बड़े ट्रांजिट कैंप, में रहने वाले 270 'विदेशियों' में से ज्यादातर दो से छह साल से यहां हैं. इस कैंप को पहले डिटेंशन सेंटर कहा जाता था. यहां रहने वाले दो लोग तो करीब एक दशक से 'विदेशी' के तमगे के साथ दिन गुजार रहे हैं.
इस सप्ताह अमेरिका से लौटने वाले सौ से ज्यादा अवैध प्रवासियों की भारत वापसी और सुप्रीम कोर्ट की ओर से असम सरकार को सख्त निर्देश के बाद असम के विदेशी नागरिकों का मुद्दा एक बार फिर गरमा गया है.
सुप्रीम कोर्ट ने एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए असम सरकार को मतिया कैंप में रहने वाले 63 विदेशियों को दो सप्ताह के भीतर उनके देश भेजने का निर्देश दिया है.
असम के विदेशियों का पुराना है विवाद
असम में अवैध घुसपैठ का मुद्दा देश की आजादी जितना ही पुराना है. सीमा पार बांग्लादेश से बड़े पैमाने पर होने वाली घुसपैठ के विरोध में ही अस्सी के दशक में अखिल असम छात्र संघ (आसू) के नेतृत्व में करीब छह साल असम आंदोलन चला था. वर्ष 1985 में असम समझौते के बाद यह आंदोलन तो खत्म हो गया. लेकिन यह विवाद अक्सर भड़कता रहा है. नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजंस (एनआरसी) की कवायद के दौरान यह विवाद चरम पर पहुंचा था. यही वजह है कि उस दौरान एनआरसी के विरोध में राज्य में बड़े पैमाने पर हिंसा हुई थी. बाद में एनआरसी की ड्राफ्ट रिपोर्ट को नामालूम वजहों से ठंडे बस्ते में डाल दिया गया था.
असम समझौते में कहा गया था कि सीमा पार से अवैध तरीके से राज्य में आने वाले 'विदेशी' नागरिकों को सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ) की ओर से उनके देश नहीं भेजे जाने तक उनको डिटेंशन सेंटर में रखा जाएगा. हालांकि उसके बाद भी बरसों तक इस प्रावधान पर अमल नहीं किया गया था.'विदेशी' घोषित लोगों के गायब हो जाने की बढ़ती समस्या को ध्यान में रखते हुए गुवाहाटी हाईकोर्ट ने जुलाई 2008 में ऐसे लोगों को उनके देश वापस भेजने से पहले निगरानी में रखने के लिए डिटेंशन सेंटर बनाने का निर्देश दिया था.
अदालती फैसले के बाद तरुण गोगोई के नेतृत्व वाली तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने वर्ष 2009 में ग्वालपाड़ा जेल में एक अस्थाई डिटेंशन सेंटर बनाया. धीरे-धीरे ऐसे सेंटर की तादाद बढ़ कर छह हो गई. बाद में ग्वालपाड़ा में एक विशाल डिटेंशन सेंटर (अब ट्रांजिट कैंप) बना कर 'विदेशी' घोषित तमाम लोगों को अस्थाई डिटेंशन सेंटर से वहां भेज दिया गया.
कितने 'विदेशी' हैं ट्रांजिट कैंप में?
ग्वालपाड़ा के ट्रांजिट कैंप में फिलहाल 270 लोग हैं, जिन्हें 'विदेशी' घोषित किया गया है. उनमें 103 रोहिंग्या के अलावा चिन (म्यांमार) के 32 और सेनेगल का एक नागरिक है. इन सबको विदेशी अधिनियम, नागरिकता अधिनियम और पासपोर्ट अधिनियम के उल्लंघन के आरोप में अदालत से सजा दी गई थी. सजा पूरी करने के बाद निर्वासन से पहले उनको ट्रांजिट कैंप में रखा गया है.
बाकी 133 लोगों को राज्य के विभिन्न विदेशी न्यायाधिकरणों ने समय-समय पर 'विदेशी' घोषित किया है. राज्य सीमा पुलिस के एक अधिकारी डीडब्ल्यू को बताते हैं, "इनमें से 70 लोगों ने खुद के बांग्लादेशी नागरिक होने की बात कबूल कर ली है. उन्होंने बांग्लादेश का अपना पता भी बताया है. लेकिन बाकी 63 लोगों, ने अपना पता नहीं बताया है. लेकिन उनके बांग्लादेशी होने का अनुमान है ,इनका जिक्र सुप्रीम कोर्ट ने किया है."
अब सुप्रीम कोर्ट के ताजा निर्देश ने असम सरकार के साथ ही केंद्र सरकार को भी भारी असमंजस में डाल दिया है. असम सरकार में गृह विभाग के एक वरिष्ठ अधिकारी ने नाम नहीं छापने की शर्त पर डीडब्ल्यू से कहा, "किसी विदेशी घोषित नागरिक के निर्वासन में राज्य सरकार की खास भूमिका नहीं है. यह एक राजनयिक मुद्दा है. हमारी भूमिका विदेश मंत्रालय को विदेशी नागरिकों के नाम-पतों और नागरिकता की जानकारी भर देने की है. उसके बाद वह संबंधित देशों के दूतावास या उच्चायोग के समक्ष यह मुद्दा उठाता है. वहां से नागरिकों की पहचान की पुष्टि के बाद ऐसे लोगों को बीएसएफ के हवाले कर दिया जाता है. जो उसे संबंधित देश के सीमा सुरक्षा बल के हवाले कर देता है."
उन्होंने यह भी कहा कि सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले पर अमल करने की राह में सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि उसने जिन 63 विदेशियों के निर्वासन का निर्देश दिया है उन्होंने बांग्लादेश में अपना पता-ठिकाना नहीं बताया है. लेकिन अधिकारियों को लगता है कि वो बांग्लादेश के हैं.
ऐसे में आगे क्या होगा? इस सवाल पर उनका कहना था कि ऐसे लोगों की सूची केंद्र को भेज दी जाएगी और उसमें इनके बांग्लादेशी होने का जिक्र किया जाएगा.
आसान नहीं है निर्वासन की राह
असम में 'विदेशी' घोषित बांग्लादेशी नागरिकों के निर्वासन की राह आसान नहीं है. विदेशी न्यायाधिकरण सिर्फ इस बात का फैसला करता है कि संबंधित व्यक्ति भारत का नागरिक है या नहीं. वह उसकी नागरिकता के बारे में कुछ नहीं बताता. ऐसे में संबंधित व्यक्ति से मिली जानकारी ही एकमात्र सबूत है.
लंबे समय से ऐसे मामलों की पैरवी करने वाले एक एडवोकेट साबिर अहमद डीडब्ल्यू को बताते हैं, "सुप्रीम कोर्ट ने जिन 63 लोगों को दो सप्ताह के भीतर निर्वासित करने का निर्देश दिया है उनके पास अभी न्यायाधिकरण के फैसले को अदालत में चुनौती देने का अधिकार है. बरसों तक डिटेंशन सेंटर में रहने वाले कई लोग पहले अदालत के निर्देश पर रिहा हो चुके हैं."
वो इसके लिए वर्ष 2019 के एक मामले का हवाला देते हैं जब सेना के एक पूर्व अधिकारी सनाउल्लाह को 'विदेशी' घोषित कर डिटेंशन सेंटर में भेज दिया गया था. उनके परिजनों ने विदेशी न्यायाधिकरण के फैसले को गुवाहाटी हाईकोर्ट में चुनौती दी थी. अदालत के निर्देश के बाद ही वो घर लौट सके थे.
असम में गलत पहचान या परिवार के किसी एक सदस्य को 'विदेशी' घोषित कर डिटेंशन सेंटर में भेजने के कई दूसरे मामले भी सामने आ चुके हैं. करीब चार साल पहले पुलिस ने मधुमाला दास की जगह मधुबाला मंडल नाम की एक 59 वर्षीय महिला को भी पकड़ कर 'विदेशी' घोषित करा दिया था. उसके बाद उनको तीन साल तक डिटेंशन सेंटर में रहना पड़ा था.
गोलाघाट जिले के रहने वाले अब्दुल कलाम को भी बांग्लादेशी घोषित कर डिटेंशन सेंटर में भेज दिया गया है जबकि उनकी पत्नी आयशा खातून और परिवार के लोग भारतीय नागरिक है. आयशा डीडब्ल्यू से बातचीत में सवाल करती है, "ऐसा कैसे हो सकता है कि पति विदेशी हो और परिवार के बाकी लोग भारतीय?" उन्होंने अदालत में इस फैसले को चुनौती दी है.
इसी तरह बीते साल सितंबर में बरपेटा जिले की बंगाली मुस्लिम समुदाय की नौ महिलाओं समेत 28 लोगों को विदेशी घोषित कर दिया गया. दिलचस्प बात यह है कि उन 28 परिवारों के बाकी लोग भारतीय नागरिक हैं. यह लोग बंगाली मुस्लिम थे.
मानवाधिकार कार्यकर्ता जाहिदा खातून डीडब्ल्यू से कहती हैं, "बांग्लादेश के साथ मौजूदा संबंधों को ध्यान में रखते हुए इन 63 लोगों को वहां भेजना टेढ़ी खीर है. शेख हसीना के दौर में बात कुछ और थी. लेकिन जब इन लोगों के नाम-पते की ही जानकारी नहीं है तो बांग्लादेश की अंतरिम सरकार उनको अपना नागरिक मान कर वापस लेने को तैयार क्यों होगी? यह राज्य सरकार और केंद्र के लिए एक जटिल समस्या है."
इन 63 लोगों में से दो लोग तो एक दशक से ज्यादा समय से रह रहे हैं जबकि तीसरा विदेशी भी छह साल से विभिन्न डिटेंशन सेंटर में रहने के बाद अब मातिया कैंप में है. बाकी लोगों को बीते दो साल के दौरान विदेशी घोषित करने के बाद कैंप में ला गया था.
वरिष्ठ पत्रकार शिखा मुखर्जी ने डीडब्ल्यू से कहा, "किसी विदेशी का निर्वासन उसी स्थिति में संभव है जब संबंधित देश उसे अपना नागरिक होना स्वीकार करें. म्यांमार पहले ही रोहिंग्या लोगों को अपना नागरिक मानने से इंकार कर चुका है. ऐसे में मौजूदा परिस्थिति को ध्यान में रखते हुए बांग्लादेश सरकार इन 63 लोगों को अपना नागरिक मानेगी, इसकी संभवना बहुत कम नजर आती है. (dw.com/hi)