विचार / लेख
-डॉ. आर.के. पालीवाल
अमेरिका के राष्ट्रपति चुनावों पर दुनिया भर की नजर रहती है क्योंकि भौतिकता के युग में चीन, रूस, जापान, नाटो से जुड़े यूरोपीय देशों और भारत की उभरती हुई क्षेत्रीय हस्तियों के बावजूद द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से अमेरिका अभी भी विश्व गुरु का ताज पहने है। अमेरिका के इस चुनाव में कई महत्वपूर्ण बातें रही। एक तरफ विजयी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप पिछले चुनाव की हार भुलाने के लिए पूरे जोर शोर से मैदान में उतरे थे।
दूसरी तरफ डेमोक्रेट्स ने अपने बुजुर्ग राष्ट्रपति को उम्र की शिथिलताओं के कारण दरकिनार कर युवा और गैर श्वेत महिला उप राष्ट्रपति पर दांव लगाकर दुबारा सत्ता हासिल करने की पुरजोर कोशिश की थी। तीसरे रूस यूक्रेन और इजराइल अरब युद्ध के चलते अमेरिकी राष्ट्रपति के इस चुनाव में रूस, चीन, इजराइल और ईरान आदि देशों ने भी चुनाव को अपने अपने हिसाब से प्रभावित करने की कोशिश की थी। जहां तक अमेरिका और भारत के संबंधों का प्रश्न है उसमें इस चुनाव में भारत की स्थिति हमेशा की तरह तटस्थ भाव सरीखी ही रही। जो बाइडेन के कार्यकाल में भारत अमेरिका संबंध वैसी गर्मजोशी वाले नहीं रहे जैसे क्लिंटन, बराक ओबामा और डोनाल्ड ट्रंप के समय थे। वैसे जहां तक अमेरिकी नीतियों का प्रश्न है उनके लिए अमेरिका फस्र्ट ही नीतियों का मूलमंत्र है। अपनी जरूरत के हिसाब से अमेरिकी लोकतंत्र पाकिस्तान में सैनिक शासन से जबरदस्त गठबंधन कर लेता है और बांग्लादेश में चुनी हुई सरकार के तख्तापलट में शामिल हो सकता है। अपने आतंकवादी बिन लादेन को पाकिस्तान में घुसकर मार सकता है और हमारे आतंकवादियों की हत्या के प्रयास के आरोप में हमारे कैबिनेट रैंक के मंत्री का नाम घसीट सकता है। इस लिहाज से अमेरिका में चाहे डेमोक्रेट सत्ता में आएं या रिपब्लिकन दूसरे देशों के साथ उनका व्यवहार इस तथ्य पर निर्भर करता है कि उस देश से अमेरिका को क्या आर्थिक और सामरिक लाभ हो सकता है।
हम भारतीय अमरीकियों की तुलना में बहुत ’यादा भावुक हैं। खोखली भावनाओं के आधार पर सपने देखते हैं, मसलन कमला हैरिस को भारत के लिए इसलिए महत्वपूर्ण मानने लगे कि वे भारतीय मूल की हैं जबकि उन्होंने अपने कार्यकाल में कभी खुलकर भारत के समर्थन की कोई घोषणा नहीं की। इसी तरह जब सुनक ब्रिटिश प्रधानमंत्री बने थे तो इंफोसिस के चेयरमैन नारायण मूर्ति के दामाद होने के नाते उनसे हमने बहुत सी उम्मीद पाल ली थी और जब मुशर्रफ पाकिस्तान के राष्ट्राध्यक्ष बने थे तो उनसे शांति की उम्मीद करने लगे थे। हकीकत यह है कि दूसरे देश की नागरिकता लेने वाले अधिकांश लोगों की स्थिति नए मुल्ला ’यादा प्याज खाते हैं कहावत जैसी हो जाती है। वे नए देश के प्रति वहां के मूल निवासियों से अधिक राष्ट्रभक्ति का प्रदर्शन करते हैं। इस परिप्रेक्ष्य में कमला हैरिस की हार से भारत और अमेरिका संबंध पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ेगा। उल्टे डोनाल्ड ट्रंप की पिछली पारी और चुनाव के दौरान दिए गए भाषणों से ऐसा लगता है कि उनका प्रशासन रूस और भारत जैसे देशों के प्रति सकारात्मक रवैया अपनाएगा। इन देशों के शेयर बाजार में उछाल भी यही प्रारंभिक संकेत दे रहे हैं।
जहां तक डोनाल्ड ट्रंप के प्रशासन का संदर्भ है उनकी ऐसी छवि है कि वे अपने समर्थकों के लिए पलक पांवड़े बिछाने वाले हैं और विरोधियों के प्रति कट्टर रवैया अपनाते हैं। पिछले कार्यकाल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ उनके अ‘छे संबंध थे। यह उम्मीद की जा सकती है कि अमेरिका भारत की क्षेत्रीय शक्ति के रूप में उभरने में मदद करेगा। इस लिहाज से डोनाल्ड ट्रंप के अप्रत्याशित फैसले लेने और जिद्दी छवि के बावजूद हम भारतीयों को उनके जीतने पर दुखी होने का कोई कारण नहीं है। खुश होने के लिए यह भी एक भावनात्मक कारण है कि उनके उप राष्ट्रपति जे डी वेंस की पत्नी उषा वेंस भारतीय मूल की हैं।