साहित्य/मीडिया
कवि, उपन्यासकार विनोद कुमार शुक्ल को इस वर्ष साहित्य अकादमी की ‘महत्तर सदस्यता’ प्रदान की गयी है, यह अकादमी का सर्वोच्च सम्मान है. विनोद कुमार शुक्ल के कुछ अनछुए आयामों पर यह संस्मरण रमेश अनुपम ने लिखा है- पहचान सीरीज में उनके संग्रह के प्रकाशन का वृतांत दिलचस्प है.
-रमेश अनुपम
विनोद कुमार शुक्ल के होने और उनके निरंतर रचते चले जाने के बहुतेरे निहितार्थ हैं. वे हमारे समय के सर्वश्रेष्ठ लेखकों में शुमार हो चुके हैं, हिंदी ही नहीं अन्य भारतीय भाषाओं सहित विश्व के अग्रणी पंक्तियों के लेखकों में उन्हें समादृत किया जाता है. 84 वर्ष की उम्र में भी पढ़ने और लिखने की ललक जिस तरह से उनके भीतर बरकरार है, वह देखते ही बनता है. कोरोना काल में उन्होंने प्रचुर साहित्य की रचना की है. कहानी, कविता के अतिरिक्त बच्चों के लिए ढेर सारी कहानियां और कविताएं.
विनोद जी के सम्पूर्ण साहित्य को केंद्र में रखकर सेतु प्रकाशन दिल्ली द्वारा रचनावली की योजना भी मूर्त रूप लेने जा रही है. हालांकि विनोद जी जिस तरह से निरंतर सृजन कर्म में निमग्न हैं, संभव है बहुत कुछ उसमें आने से रह जायेगा, जो बाद में कभी आएगा. विनोद कुमार शुक्ल जी की स्मृतियों के कोठार में ऐसा बहुत कुछ एकत्र है जिसे सुनकर आप समय के आर-पार देख सकते हैं, बहुतेरी ऐसी विरल ध्वनियों को सुन सकते हैं जो समय की ओट में कहीं छिपी हुई सुस्ता रहीं हैं, बहुतेरी छवियों को निहार सकते हैं जो क्षितिज के पार कहीं झिलमिलाती जान पड़ती हैं, बशर्ते आप विनोद जी को जानने की कितनी अभिलाषा रखते हैं. उनकी स्मृतियों के कोठार का दरवाजा तभी आपके लिए खुल सकता है.
विनोद जी के इस कोठार में एक तरह से सबका प्रवेश निषिद्ध हैं, केवल उन्हें छोड़कर जो इस सुंदर पृथ्वी से प्रेम करना जानते हैं, जो इस सुंदर पृथ्वी को बचाने की चिंता रखते हैं, जो समस्त मनुष्य प्रजाति से और सम्पूर्ण प्रकृति से गहरा अनुराग रखते हैं. विनोद जी के गद्य या पद्य में प्रवेश भी तभी संभव होता है. विनोद जी को सुनना भी एक ऐसी पगडंडी से होकर गुजरने जैसा है जो सपाट नहीं है अपितु थोड़ा ऊबड़-खाबड़ और पथरीला है पर यह रास्ता आपको उस झरने की ओर ले जाने वाला रास्ता बन जाता है जिसकी निर्झरणी में आप देर तक भीग सकते हैं, जिसकी वेगवती धार में आप तन-मन प्राण से डूब सकते हैं, जिसकी जलराशि में आप जीवन के प्रच्छन्न फूलों के खिलने का आभास पा सकते हैं.
विनोद जी से जब भी मेरी मोबाइल से बात होती है मुझे हृदय के नोटबुक के कोरे पन्ने खोलने पड़ते हैं ताकि उनकी सारी बातें मैं दर्ज कर सकूं. कुछ छूट न जाये इस डर से और सब कुछ ज्यों का त्यों दर्ज हो जाए इस अभिलाषा के साथ. कोरोना के चलते अब उनसे मिलना बहुत कम हो गया है, पर भला हो इस मोबाइल क्रांति का जिससे आप अपने किसी प्रिय से आत्मीय संवाद तो कायम रख सकते हैं, उन्हें सुन सकते हैं और कल्पना की आंखों से देख भी सकते हैं. अगर आप वीडियो कांफ्रेंसिंग की सुविधा नहीं लेना चाहते हैं तो.
विनोद जी साहित्य में और अपने निजी जीवन में आत्म प्रचार से कोसों दूर रहते हैं. साहित्यिक तिकड़मों और षड्यंत्रों से बेखबर तमाम तरह की गुटबाजियों से बेपरवाह अपने सृजन की एकांतिक साधना में निरत वे मुझे किसी संत या योगी के समतुल्य अधिक जान पड़ते हैं. विनोद कुमार शुक्ल के सम्पूर्ण लेखन में एक विशेष प्रकार का सम्मोहन है, एक तरह का जादू भी. अपने उपन्यास या कहानियों के माध्यम से विनोद जी जिस दुनिया को रचते हैं, वह लातिनी लेखक ग्रेबिएल गार्सिया मार्क्वेज की तरह किसी जादुई यथार्थ की दुनिया से कम नहीं है.
यथार्थ विनोद जी के यहां उस तरह से नहीं आता है जिस तरह से वह अन्य लेखकों के यहां दिखाई देता है, विनोद जी के गद्य में यह यथार्थ फैंटेसी के साथ घुल मिल कर इस तरह से आता है कि पहचान कर पाना मुश्किल हो जाता है कि इसमें कितना यथार्थ है और कितनी कल्पना ?
उनके यहां फैंटेसी का अपना एक अलग जादू है, जो जादू उनके किसी समकालीन हिंदी लेखक के यहां दुर्लभ है. विनोद जी के यहां फैंटेसी किसी बच्चे की चित्रकारी की तरह है जो रंगों से खेलते हुए अनायास ऐसा कुछ रच देता है कि हम अवाक रह जाते हैं.
विनोद जी के यहां जो चीजें मुझे सबसे अधिक चमत्कृत करती हैं वह है एक बच्चे जैसी कल्पना, जो मछलियों को आकाश में तैरा सकती हैं और चिड़ियों को पानी के भीतर उड़ा सकती हैं. उनकी रचनाओं को गौर से देखें तो उनकी रचनाओं में बच्चों जैसी एक जिद भी है, कि मैं जो कुछ भी कह रहा हूं, उस पर तुम्हें यकीन करना ही होगा. उपन्यास या कहानी क्या है एक बच्चे की जिद ही तो है जिस पर बिना यकीन किए आपका प्रवेश वहां निषिद्ध है.
कभी-कभी लगता है विनोद जी अपनी रचनाओं में सुर बहार पर कोई पक्का शास्त्रीय राग बजा रहे हैं और अपने आरोह-अवरोह में, द्रुत और विलंबित में हमें डूब जाने के लिए विवश कर रहे हैं. कभी लगता है गणेश पाईन या गुलाम शेख की अद्भुत पेंटिंग की तरह वे हमें अपने रंगों और रेखाओं के साथ एकाकार कर देने की कोई जादुई कोशिश कर रहे हैं या कभी ऋत्विक घटक या अपर्णा सेन की फिल्मों की तरह किसी अलौकिक दृश्य या ध्वनियों की किसी ऐसी दुनिया में ले जा रहे हैं, जिसे हमने इस से पहले कभी इस तरह से देखा और सुना ही नहीं था.
विनोद जी का संपूर्ण गद्य मुझे किसी पवित्र ऋचा की तरह लगता है, जहां जाने से पहले स्वयं को भी पवित्र किया जाना अनिवार्य है. विनोद जी का पद्य मुझे किसी प्रागैतिहासिक शिला लेखों की भांति प्रतीत होते हैं जिसे अब तक ठीक-ठीक पढ़ा जाना बाकी है और जिसे अब तक समझा जाना बाकी है.
विनोद जी को पूरी तरह से समझे जाने के हमारे दावे निर्मूल सिद्ध हो सकते हैं, क्योंकि विनोद जी तात्कालिकता से परे एक ऐसे महत्वपूर्ण और दुर्लभ रचनाकार हैं, जो पाठकों और आलोचकों से एक नई दृष्टि की मांग करते हैं. जो समकालीनता की भीड़ से अलहदा सर्वकालिकता का वरण करते हैं. वे मुक्तिबोध की तरह लोकप्रियता और सर्व स्वीकार्यता पर यकीन करने से बचते हुए एक बीहड़ मार्ग पर चलना अधिक पसंद करते हैं, जहां अस्वीकृत किए जाने के खतरे अनगिनत हैं.
विनोद कुमार शुक्ल मूलतः कवि हैं. उनकी प्रकृति कविता के कहीं अधिक निकट है. उनका कवि होना उनकी नियति में शामिल हैं, वे कुछ और हो ही नहीं सकते थे. कविता को ही उनके जीवन में, उनकी प्रवृति और प्रकृति में स्वीकृत होना लिखा हुआ था. इसलिए हमारे पुरखों ने कहा है कवि बनते नहीं हैं ,जन्म लेते हैं. संभवत: निराला और मुक्तिबोध के विषय में भी यही कहा जा सकता है.
विनोद कुमार शुक्ल शायद अपना प्रारब्ध जानते थे कि कविता के अतिरिक्त उनके जीवन में कुछ भी सहज स्वीकार्य नहीं. जो कुछ भी है या जो कुछ भी पाना है वह कविता में ही पाना है. जो कुछ भी जानना है वह कविता के माध्यम से ही जानना है. विनोद कुमार शुक्ल का अवचेतन यह भी जानता था कि समकालीनता के दबाव या आतंक से अलग उन्हें अपना एक अलग काव्य मुहावरा भी गढ़ना होगा इसके बिना कविता की विराट दुनिया में अपनी एक अलग जगह बना पाना मुश्किल होगा. मुक्तिबोध का जीवन और लेखन उनके सम्मुख ही था.
कविता से उनकी संगति उनके लेखन के प्रारंभिक दौर से ही उनमें दिखाई देती है. सन 1960 में सर्वप्रथम श्रीकांत वर्मा के संपादन में दिल्ली से प्रकाशित होने वाली पत्रिका ‘कृति’ में विनोद जी की आठ कविताएं छपती हैं, ये वही कविताएं हैं जिसे मुक्तिबोध ने पसंद किया था और अपने पत्र के साथ उसे ‘कृति’ को भेज दिया था.
मुक्तिबोध ने अपने पत्र में श्रीकांत वर्मा को लिखा था-
‘आपके पास विनोद कुमार शुक्ल की कविताएं प्रकाशनार्थ भेज रहा हूं, उनकी कविताएं मुझे पसंद है. विनोद कुमार शुक्ल मेधावी तरुण है और उनमें विशेष काव्य प्रतिभा है.’
यह उस समय की घटना है जिन दिनों विनोद जी जबलपुर में कृषि महाविद्यालय के छात्र थे. उन्ही दिनों नरेश सक्सेना तथा सोमदत्त भी जबलपुर में पढ़ाई कर रहे थे. नरेश सक्सेना इंजीनियरिंग कॉलेज में और सोमदत्त वेटनरी कॉलेज में पढ़ रहे थे.
हरिशंकर परसाई के यहां विनोद जी का नियमित रूप से आना-जाना लगा रहता था. तब तक वे मुक्तिबोध के भी निकट आ चुके थे. ये वही दिन थे जब विनोद कुमार शुक्ल का कवि जीवन अपना एक अलग रूपाकार भी चुपचाप गढ़ने में लगा हुआ था. हिंदी कविता नई कविता में ढल रही थी. मुक्तिबोध जैसे एक बड़े कवि और आलोचक का आगमन हिंदी साहित्य में हो चुका था. मुक्तिबोध और अज्ञेय दो ध्रुव तारे के रूप में हिंदी कविता के गगन में आलोकित हो रहे थे. हिंदी कविता में पहली बार रूपवाद और प्रगतिवाद आमने सामने थे. अज्ञेय और मुक्तिबोध हिंदी कविता के दो प्रतिमान के रूप में स्थापित हो रहे थे.
युवा कवि मुक्तिबोध को हिंदी कविता का आदर्श मान रहे थे. ऐसे विरल समय में विनोद कुमार शुक्ल मुक्तिबोध को अपना आदर्श मानते हुए भी अपने लिए एक अलग रास्ते की खोज में लगे हुए थे. उनकी इस खोज का पता उनकी प्रारंभिक कविताओं में भी दिखाई देती है, खासकर उनके प्रथम काव्य संचयन में जो उन दिनों अशोक वाजपेयी द्वारा संपादित ‘पहचान’ सीरीज के अंतर्गत ‘लगभग जय हिन्द’ के नाम से सन 1971 में प्रकाशित हुआ था.
‘लगभग जयहिंद’ अशोक वाजपेयी द्वारा सम्पादित ‘पहचान’ सीरीज 2 के अंतर्गत प्रकाशित पुस्तिका थी. ‘पहचान’ सीरीज 2 में अशोक वाजपेयी ने जिन तीन युवा कवियों के प्रथम काव्य संग्रह प्रकाशित किए थे, उनमें सौमित्र मोहन, कमलेश और विनोद कुमार शुक्ल प्रमुख थे. सौमित्र मोहन का काव्य संग्रह ‘चाकू से खेलते हुए’ कमलेश का काव्य संग्रह ‘जरत्कारु’ तथा विनोद कुमार शुक्ल का काव्य संग्रह ‘लगभग जय हिंद’ ‘पहचान’ सीरीज 2 के अंतर्गत प्रकाशित किए गए थे.
इसके अतिरिक्त ज्ञानरंजन की लंबी कहानी ‘बहिर्गमन’ तथा रूसी कवि आंद्रे वाजनेसेस्की की कविताओं का श्रीकांत वर्मा द्वारा किया गया हिंदी अनुवाद ‘फैसले का दिन’ इसी सीरीज के अंतर्गत प्रकाशित किये गये थे. अशोक वाजपेयी उन दिनों छत्तीसगढ़ के अंबिकापुर जिले में कलेक्टर के पद पर आसीन थे. इससे पूर्व ‘पहचान’ 1 में अशोक वाजपेयी ने विष्णु खरे जितेंद्र कुमार, ज्ञानेंद्रपति तथा शमशेर बहादुर सिंह के काव्य संग्रह के साथ सीधी लेखक शिविर पर आधारित एक रिपोर्ट का प्रकाशन किया था.
‘पहचान’ सीरीज के प्रति सेट की कीमत ₹6 रखी गई थी. इसका मुद्रण का दायित्व इलाहाबाद प्रेस, इलाहाबाद तथा इसका वितरण का दायित्व लोक चेतना प्रकाशन जबलपुर को दिया गया था. ‘पहचान’ सीरीज 2 के अंतर्गत प्रकाशित तीन युवा एवं नए कवि के रूप में अशोक वाजपेयी ने तीन प्रतिभाशाली कवियों से हिंदी साहित्य जगत का परिचय करवाया था. हालांकि उस दौर में स्वयं अशोक वाजपेयी युवा एवं नए कवि के रूप में अपनी पहचान बना रहे थे.
‘लगभग जय हिन्द’ में विनोद कुमार शुक्ल की कुल इक्कीस कविताओं को 24 पृष्ठों में प्रकाशित किया गया था. जिसमें से एक से लेकर बीस कविताएं शीर्षकविहीन हैं जिसे 1, 2, 3, 4 के क्रमानुसार प्रकाशित किया गया है. अंतिम तथा इक्कीसवीं कविता ‘लगभग जय हिन्द’ शीर्षक के अंतर्गत प्रकाशित कविता है. आठवें दशक के प्रारंभ में ही ‘पहचान’ सीरीज की पर्याप्त चर्चा हिंदी साहित्य जगत में होने लगी थी. अशोक वाजपेयी को उस समय एक ऊर्जावान कवि, आलोचक तथा प्रशासक के रूप में देखा जाने लगा था.
विनोद कुमार शुक्ल की प्रतिभा और संभावनाओं से वे भली-भांति परिचित थे. यही कारण है कि उन्होंने ‘पहचान’ सीरीज 2 के अंतर्गत उनका चयन किया और उनकी कविताएं प्रकाशित की. विनोद कुमार शुक्ल उन दिनों को याद करते हुए कहते हैं कि
‘मुक्तिबोध ने मेरे प्रारंभिक कवि को संस्कार दिया. मुक्तिबोध जी के कारण मैं हरिशंकर परसाई, श्रीकांत वर्मा और अशोक वाजपेयी को जाना-पहचाना. श्रीकांत वर्मा और अशोक वाजपेयी ने ‘कृति’, ‘पूर्वग्रह’ जैसी पत्रिकाओं में मुझे प्रकाशित किया. अशोक वाजपेयी ने अपनी आलोचना में भी मुझे याद किया. मेरा पहला कविता संग्रह ‘वह आदमी चला गया नया गरम कोट पहिनकर विचार की तरह’ उन्हीं के कारण संभावना प्रकाशन से प्रकाशित हुआ.’
उन्हीं दिनों की स्मृति में डूबते-उतराते हुए विनोद कुमार शुक्ल यह भी कहते हैं कि ‘मैं तो चुपचाप साहित्य की दुनिया की तरफ चला जा रहा था, मुझे पता ही नहीं लगा कि कब मैं साहित्य की दुनिया में शामिल हो गया.’
मुक्तिबोध जैसे कवि का पुनः स्मरण करते हुए वे कहते हैं कि ‘मेरी सोच में मुक्तिबोध का गहरा प्रभाव था, इसलिए मेरी कविताओं के प्रतीक और बिंब कुछ दूसरी तरह के होते थे.’ ‘लगभग जय हिन्द’ के दिनों का स्मरण करते हुए वे बताते हैं कि ‘अशोक वाजपेयी उन दिनों अंबिकापुर के कलेक्टर हुआ करते थे. उन्हीं दिनों उन्होंने टेलीफोन कर ‘पहचान’ सीरीज 2 के लिए कविताएं भेजने के लिए कहा. जब कुछ दिनों के बाद उन्हें कविताएं नहीं मिली तो उन्होंने कलेक्टर रायपुर को फोन कर कहा कि किसी को भेजकर वे विनोद जी से कविताएं मंगवाकर उसे अंबिकापुर भिजवा दें.’
पर विनोद जी इस पूरे प्रसंग को लेकर पूरी तरह से आश्वस्त नहीं हैं. इसलिए वे मुझसे यह भी कहते हैं कि इस संबंध में मैं अशोक वाजपेयी से भी चर्चा कर लूं तो ज्यादा बेहतर होगा. अशोक वाजपेयी को मैंने विनोद कुमार शुक्ल होने के मायने मेल कर दिया था, ताकि वे उसे पढ़कर अपनी राय दे सकें.
तीन दिन बीत जाने के बाद मैं उन्हें फोन लगाता हूं. अशोक वाजपेयी मुझे बताते हैं कि उन्होंने मेरा मेल पढ़ लिया है, वे यह भी कहते हैं कि विनोद जी ने आपसे सही कहा है.
मैं उनसे कहता हूं कि आप थोड़ा विस्तारपूर्वक बताइए ताकि पूरा प्रसंग और अधिक स्पष्ट हो सके, यह हिंदी साहित्य जगत के लिए भी एक जरूरी प्रसंग है जिसे हम सबको जानना चाहिए.
अशोक वाजपेयी जी उन दिनों को याद करते हुए बताते हैं कि उन दिनों वे अंबिकापुर में कलेक्टर थे. उन्हीं दिनों वे ‘पहचान’ सीरीज 2 की परिकल्पना को मूर्त रुप देने के कार्य में लगे थे.
विनोद कुमार शुक्ल का चयन वे ‘पहचान’ सीरीज 2 के अंतर्गत कर चुके थे. विनोद कुमार शुक्ल और उनकी कविताओं से वे पहले से ही परिचित थे. श्रीकांत वर्मा के संपादन में दिल्ली से निकलने वाली पत्रिका ‘कृति’ में प्रकाशित उनकी आठ कविताएं वे पढ़ चुके थे. अशोक वाजपेयी ने विनोद कुमार शुक्ल को पत्र लिखकर कहा कि ‘पहचान’ सीरीज 2 के लिए वे अपनी 20-25 कविताएं उन्हें भेज दें ताकि एक संग्रह के रूप में उसका प्रकाशन किया जा सके.
विनोद कुमार शुक्ल की कवितायें जब उन्हें नियत तिथि तक नहीं मिली तो उन्होंने रायपुर कलेक्टर को फोन किया और कहा कि वे किसी को विनोद कुमार शुक्ल के घर या कृषि महाविद्यालय भेजकर उनसे कविताएं लेकर उन्हें भिजवा दें. अशोक वाजपेयी ने रायपुर कलेक्टर से यह भी कहा कि वे किसी ऐसे व्यक्ति को भेजे जो जरूरत पड़ने पर विनोद कुमार शुक्ल की कविताओं की नकल भी उतार सके. विनोद कुमार शुक्ल की उदासीनता और संकोची प्रवृत्ति से अशोक वाजपेयी भली-भांति परिचित थे.
रायपुर कलेक्टर ने ठीक वैसा ही किया. विनोद कुमार शुक्ल की कविताएं उन्होंने अंततः किसी को भेज कर मंगवाई और अशोक वाजपेयी के पास अंबिकापुर भिजवा दी. इस तरह ‘लगभग जय हिन्द’ के प्रकाशन की परिकल्पना मूर्त रुप ले सकी.
अशोक वाजपेयी बताते हैं कि विनोद कुमार शुक्ल ने ‘पहचान’ सीरीज 2 के लिए जो कविताएं उन्हें भेजी थीं, उसमें उन्होंने इस संग्रह को कोई नाम नहीं दिया था. अशोक वाजपेयी ने ही उनके इस संग्रह का नामकरण ‘लगभग जयहिंद’ किया तथा आवरण पृष्ठ पर जो लगभग जय हिंद लिखा हुआ है वह भी उन्हीं (अशोक वाजपेयी) की हस्तलिपि में है.
अशोक वाजपेयी मुझे एक रोचक संस्मरण भी सुनाते हैं. सन 1966 के दिनों में जब वे महासमुंद में एस.डी.एम. हुआ करते थे, उन्हीं दिनों उन्होंने महासमुंद में युवा लेखकों का एक वृहत समारोह का आयोजन किया. छत्तीसगढ़ के डेढ़-दो सौ युवा लेखक उसमें सम्मिलित हुए. पवन दीवान, नारायण लाल परमार, त्रिभुवन पांडेय से लेकर छत्तीसगढ़ का ऐसा कौन युवा लेखक या कवि नहीं था, जो उस साहित्य कुंभ में शरीक न हुआ हो.
महासमुंद में आयोजित यह दो दिवसीय साहित्य समारोह जिसे ‘नई कलम’ नाम दिया गया था, छत्तीसगढ़ के इतिहास में अभूतपूर्व समारोह सिद्ध हुआ. युवा कवि, आलोचक तथा आई.ए.एस. अशोक वाजपेयी की इस प्रतिभा के सब कायल हो गए. दूसरे दिन दोपहर में यह समारोह समाप्त हुआ. समारोह की सफलतापूर्वक समाप्ति के बाद अशोक वाजपेयी अपने शासकीय आवास पहुंचे. अभी बंगले पर पहुंचे ही थे कि थोड़ी ही देर में कॉल बेल बज उठा, पता लगा कि रायपुर से कोई विनोद कुमार शुक्ल आए हुए हैं.
अशोक वाजपेयी के आश्चर्य की कोई सीमा नहीं थी. उन्होंने तो विनोद कुमार शुक्ल के आने की उम्मीद ही छोड़ दी थी. समारोह भी समाप्त हो गया था, सारे साहित्यकार अपने-अपने शहरों में लौट गए थे या लौट रहे थे. ऐसे में विनोद कुमार शुक्ल का आना उन्हें चकित कर रहा था. विनोद कुमार शुक्ल बेहद मासूमियत के साथ अपने ही अंदाज में अशोक वाजपेयी को बता रहे थे, आपने आमंत्रित किया है तो मुझे आना तो चाहिए ही था. अशोक वाजपेयी हतप्रभ होकर विनोद कुमार शुक्ल को केवल देखे ही जा रहे थे.