विचार / लेख

कौवा अमंगल नहीं, मंगलकारी है
25-Sep-2021 12:21 PM
कौवा अमंगल नहीं, मंगलकारी है

-संदीप पौराणिक

पितृ पक्ष के दौरान कौए को आदर-सम्मान दिया जाता है। यही मौका है जब हम जनसाधारण को कौए की वैज्ञानिक वास्तविकताओं से परिचित करा सकते हैं और इसे शकुन-अपशकुन के घेरे से बाहर ला सकते हैं। कौआ हमेशा से अमंगल नहीं रहा हैं जबकि समाज में किसी व्यक्ति के मरने के बाद मृत आत्मा की शांति के लिए जो गरूड़ पुराण का पाठ कराया जाता हैं। उस कथा भी कागभुसंुडी जी के मुखारबिंद से ही गरूड़ जी को सुनाई जाती हैं तथा मृतक की आत्मा की शांति के लिए इसे मंगलकारी माना गया हैं। लेकिन अब शहरों में कौओं की संख्या घटती जा रही है और पितृपक्ष में ये देखने नहीं ‌ नहीं मिलते जबकि हिंदू मान्यता के अनुसार श्राद्ध पक्ष में पितरों के लिए बनाए जाने वाले व्यंजन कौवे के माध्यम से पितरों तक पहुंचाए जाते हैं । कौए के घटने का  प्रमुख कारण कीटनाशक व चूहे तथा काकरोच जैसे जीवों पर अंधाधुंध जहरीली दवाईयों का उपयोग है। इन मरे हुए कीट मकोड़ों को खाने से भी कौवों की संख्या घटी है। लगातार दूषित होते हुए पर्यावरण के कारण पक्षियों की कई प्रजातियां विलुप्त  होती जा रही है उनमें से एक  कौवा भी है।कौवे का सिर्फ धार्मिक ही नहीं पर्यावरण की दृष्टि से भी महत्त्व है। कौवा द्वारा खाए जाने वाले पीपल बरगद एवं अन्य बीजों को अपने  विष्ठा द्वारा बाहर निकाल कर फैलाया जाता है। पीपल और बरगद का पेड़ पर्यावरण एवं ऑक्सीजन की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है

कौऐ को साल भर दुतकारा जाता है। पर पितृ-पक्ष के इन पंद्रह दिनों कौए की खूब आवभगत की जाती है। इसे बुला-बुला कर ‘कौर’ खिलाया जाता है। दरअसल कौए से हमारा बड़ा पुराना रिश्ता रहा है। इसके साथ अनेक शकुनों-अपशकुनों को जोड़ा गया है। इन अंधविश्वासों से परे कौआ एक बुद्धिमान पक्षी है। साथ ही हमारा दोस्त भी है। 

कौआ हमारा सबसे करीबी पक्षी है। हमारी जिंदगी में कौए का जितना दखल और किसी भी पक्षी का नहीं है। यह सिलसिला आज का नहीं सदियों पुराना है। प्राचीनतम वेदों से लेकर आधुनिक साहित्य तक में किसी न किसी रूप में कौए का जिक्र लगातार होता रहा है। यही वजह है कि संस्कृत भाषा में कौए जितने नाम और किसी भी पक्षी के नहीं है। ‘शब्दकल्पद्रुम’ में कौए‌ के छत्तीस पर्यायवाची गिनाए गए हैं, फिर भी इसे पूरी सूची नहीं माना जा सकता। इसे संस्कृत साहित्य में द्रोणकाक, काकोल, करट, चौरिकाक, बसंतराज, ग्रामीण काक जैसे अनेक नामों से पुकारा गया है।

सवाल उठता है कि कौए को इतनी अहमियत क्यों दी गई? इसकी दो वजहें लगती है। एक तो कौआ बेहद बुद्धिमान पक्षी है और दूसरे मानव-बस्तियों को साफ-सुथरा रखने में इसका भारी योगदान है। आज वैज्ञानिकों ने ढेरों प्रयोग करके कौए की असाधारण बौद्धिक क्षमता के सबूत पेश किए हैं। पर हमारे यहां प्राचीन काल से ही कौए के तेज दिमाग का लोहा मान लिया गया था। अनेक जातक-कथाओं और लोक-कथाओं में कौए को बुद्धिमान पक्षी के रूप में दर्शाया गया है। पंचतंत्र की कहानियों का ‘काकोलूकीय’ बुद्धिमत्ता और चातुर्य का साक्षात प्रतीक है। यह तो सभी जानते हैं कि घड़े की पेंदी में मौजूद पानी को किसी तरह प्यासा कौआ ऊपर तक लाया। ऊपर तक लाया वर्तमान में ऐसे कई वीडियो अभी भी सोशल मीडिया में दिखाई देते हैं जिसमें कौवा पानी को अपनी बुद्धिमानी से ऊपर लाता है। वैज्ञानिकों ने बताया है कि कौए मनुष्यों की शक्लों को याद रखते हैं और लगभग दस तक की गिनती भी गिन सकते हैं। मशहूर कार्टूनिस्ट आर.के. लक्ष्मण शायद इन्हीं खूबियों के कारण कौओं के अनन्य प्रेमी थे। उन्होंने कौओं के शायद कई चित्र बनाए हैं। साथ ही उनके व्यवहार और आदतों पर भी अध्ययन किया है।

कौए का एक रूप मनहूसियत और दुष्टता का भी है। खासतौर पर वैदिक काल में कौए को अमंगलकारी माना गया है। किसी भी शुभ कार्य में कौए का दिखना या अचानक आ धमकना विघ्नकारी माना जाता था। वैदिक काल के बाद शकुन-अपशकुन विचारा जाने लगा तो कौए की स्थिति कुछ संभली। इसे कई अच्छे शकुनों से भी जोड़ा गया। जैसे घर की मुंडेर पर कौए का कांव-कांव करना किसी अतिथि के आने का सूचक माना जाता है। परंतु किसी के सिर पर कौए का बैठना अमंगलकारी जाना जाता है। कहते हैं कि ऐसे व्यक्ति को जल्दी ही किसी निकट संबंधी की मौत की खबर मिलती है। प्राचीन साहित्य में कौए के इन रूपों का भरपूर उल्लेख है।

कौए की दुष्टता और लालचीपन को भी किस्सों-कहानियों और प्राचीन साहित्य में जगह मिली है। ‘रामायण’ के एक प्रसंग में इंद्र के पुत्र जयंत ने कौए का रूप धरकर सीता को खूब तंग किया। क्रोधित होकर श्रीराम ने बाण चलाया और कौए की एक आंख सदा के लिए नष्ट कर दी। बहुत लोगों का विश्वास है कि आज भी कौए के एक ही आंख होती है। यह सच नहीं है। संभवतः भगवान राम द्वारा अभिशापित होने के कारण ही उत्तर रामायण काल में कौए की प्रतिष्ठा बहुत ज्यादा गिर गई। तांत्रिकों द्वारा किए जाने वाले दुष्कर्मों में भी कौए का इस्तेमाल होने लगा। ऐसा उल्लेख है कि तांत्रिक अपने अनुष्ठानों में कौए की चोंच, पंजे, आंख, पंख वगैरह का इस्तेमाल करते हैं।

कौए की आदतों में सबसे अनोखा इसका चौकन्नापन और फुर्ती है। इसी वजह से यह हमारे हाथ की रोटी छीनने का भी दुस्साहस कर डालता है और अक्सर कामयाब भी रहता है। तभी कवि रसखान ने भी लिखा 
काग के भाग बड़ंे सजनी
हरि हाथ सों ले गयो माखन रोटी। 

प्रसिद्ध पक्षी विज्ञानी सलीम अली ने लिखा है कि कौआ आपकी नाश्ते की मेज से भी अंडा ‘उड़ा’ सकता है। कौए को मनुष्य के मनोभावों को समझने में भी महारत हासिल है। असाधारण चौकन्नेपन के कारण ही ‘अग्निपुराण’ में राजा को कौए की तरह चौकन्ना रहने की सलाह दी गई है।

व्यवहार में इन सारी खूबियों के साथ ही कौआ हमारा दोस्त भी है। यह सड़ी-गली हर तरह की चीजें खाकर मानव बस्तियों के आस-पास सफाई रखने का काम करता है। कौए को कूड़-करकट के ढेर को कुरेद-कुरेद कर अपना भोजन तलाशते देखा जा सकता है। गंदगी का सफाया करके यह कई रोगों को फैलने से रोकता है। कौए टिड्डियों, दीमकों आदि हानिकारक कीड़ों को भारी संख्या में हजम कर जाते हैं। इस तरह यह किसानों का दोस्त भी है। पर कभी-कभी गेहूं, मक्का आदि की फसलों पर धावा बोलकर यह किसानों का नुकसान भी कर डालता है। इसीलिए बहुत से किसान कौए को न दोस्त मानते हैं और न दुश्मन। कौए तमाम जानवरों के अंडे, मेंढक, छिपकली, मुर्दे, रोटी, दाल-चावल और वह सभी कुछ जो हम खाते हैं या फेंक देते हैं, खाते हैं।

सलीम अली ने अपनी पुस्तक में देश में पाए जाने वाले दो तरह के कौओं का उल्लेख किया है - घरेलु कौआ और जंगली कौआ। कौओं के कुल को वैज्ञानिकों ने ‘कोर्विडी’ का नाम दिया है। इसमें कौए के अलावा इससे मिलते-जुलते चार पक्षी है - डिगडाल, मुटरी, बनसर्रा और जाग। घरेलु कौए को वैज्ञानिक रूप सेकोर्वस स्प्लेनडेंस नाम से पुकारा जाता है। वैसे इसे पाती कौआ, नौआ कौआ, देशी कौआ, नाऊ कौआ और ग्रामीण काक नाम से जाना जाता है।

सभी ने देखा है कि घरेलू कौआ पूरा काला नहीं होता। इसका सीना और गला सलेटी रंग का होता है। इसके कालेपन में एक बैंगनी-नीली-हरी सी चमक होती है। नर और मादा दिखने में एक जैसे होते हैं। यह साल भर लगभग पूरे देश में दिखाई देता था। हिमालय में यह चार हजार फुट की ऊंचाई तक घूमता-फिरता है। ये दिन भर भोजन की तलाश में घर-घर, बस्ती-बस्ती घूमते हैं। पर रात को झुंड बनाकर एक ही जगह बसेरा कर लेते हैं। बरगद और पीपल जैसे विशाल पेड़ों पर कई हजार कौओं का झुंड देखा जा सकता था। जब इनका पूरा झंुड एक साथ उड़ता है तो तेज आवाज होती है। इनकी बोली से ‘कॉ-ऑ-ऑ, कॉ-ऑ-ऑ’ की ध्वनि निकलती है।

घरेलू कौए का जोड़ा बांधने और अंडे देने का समय अलग-अलग इलाकों में अलग-अलग है। पश्चिम भारत में इन्हें  अप्रैल से जून के बीच घोंसला बनाते देखा जा सकता है। बंगाल में इसके पहले ही घोंसले देखे जा सकते हैं। कुछ इलाकों में दिसंबर और जनवरी की कड़ाकेदार सर्दी में भी ये अंडे देते हैं। घरेलू कौआ घोंसला बनाने में बड़ा फूहड़ है। यह पेड़ की गुलेल जैसे आकार की शाखा पर घास-फूस, तार, डंडियों आदि की मदद से ऊबड़-खाबड़ घोंसला बनाता है। इसका घोंसला देखने में भले ही बदसूरत हो, पर अंदर से आरामदायक होता है। मादा इसके भीतर रूई, चिथड़े आदि लगाकर खूब आरामदेह बना देती है। मादा एक बार में चार-पांच अंडे देती है। ये हल्के नीले-हरे होते हैं, जिन पर भूरी-सलेटी चित्तियां पड़ी होती है। घोंसला बनाने से लेकर शिशुओं के लालन-पालन तक में नर और मादा बराबरी का सहयोग देते हैं।  चालाक और बुद्धिमान होने के बावजूद कोयल इनकी आंखों में धूल झोंककर अपने अंडे भी कौए के घोंसले में रख देती है। कौआ दंपत्ति ही इसके शिशुओं को पालते हैं। बाद में कोयल के बच्चे इनको धता बताकर फुर्र हो जाते हैं। 

घरेलू कौए के बाद सबसे ज्यादा दिखाई देने वाले कौए को जंगली कौआ या काला या डोम कौआ कहा जाता है। इसे वैज्ञानिकों ने कोर्वस मैक्रोरिकोस का नाम दिया है। इसका आकार घरेलू कौए से बड़ा, पर चील से छोटा होता है। घरेलू कौए के विपरीत इसका पूरा शरीर काला भुजंग होता है पर चोंच मोटी होती है। इसकी आवाज भी घरेलू कौए से बहुत ज्यादा कर्कश होती है। इनमें झुंड बनाने की आदत नहीं है। एक जगह पर ज्यादा से ज्यादा पंद्रह-बीस कौए दिखाई देते हैं। ये शहरों में कम ही आते हैं। इनका निवास ज्यादातर गांव और बस्तियों से बाहर होता है। खासतौर से ऐसे स्थानों पर जहां गंदगी फेंकी जाती हो, मरे हुए जानवरों की लाशें फेंकी जाती हों तथा और भी कूड़ा-कड़कट जमा रहमा हो। जंगली कौए इसी में से अपनी पेट भरते हैं। इस तरह ये भी साफ-सफाई रखने में हमारी मदद करते हैं।

बरसात के मौसम में जंगली कौए,केकड़ों से अपना पेट भरते हैं। केकड़े अंकुरित हो रही फसलों को खा जाते हैं। इस तरह जंगली कौए भी किसानों के दोस्त साबित होते हैं। जंगल में ये कौए ऐसी जगह मंडराते हैं, जहां किसी जानवर की लाश पड़ी हो। शिकारी अक्सर इनकी कांव-कांव से बाघों-शेरों के ठिकाने का पता लगा लेते हैं। मैदानी इलाकों में जंगली कौए मार्च और मई के बीच अंडे देते हैं। घोसला बनाने, अंडा देने और शिशुओं के लालन-पालन में इनका व्यवहार ठीक घरेलू कौए की तरह है। कोयल इनके घोंसलों में भी अंडे देती है।

देश के पहाड़ी इलाकों में एक छोटा कौआ खूब दिखाई देता है। इसकी लंबाई मात्र तेरह इंच होती है। यह पूरा काला नहीं होता। इसके शरीर के कुछ हिस्सों पर भूरी स्लेटी पट्टी पड़ी होती है। इसे चौकी काक या चोर कौआ भी कहा जाता है। वैज्ञानिकों ने इसे कोवर्स मौनेकुला का नाम दिया है।

पहाड़ी कौआ अक्टूबर से मार्च तक पंजाब और हिमालय के उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र में ज्यादा दिखाई देता है। इसकी बोली अप्रिय नहीं लगती। स्थानीय लोगों ने तो पहाड़ी कौए की बोली को संगीतमय माना है। इनकी उड़ने की रफ्तार अन्य कौओं की तुलना में तेज होती है। पहाड़ी कौए पेड़ों की बजाय चट्टानों और मकानों के सुराखों में घोसला बनाना ज्यादा पसंद करते हैं। मादा कौआ चार से छह अंडे देती है, जिनके दोनों सिरे नुकीले होते हैं। कोयल इनके घोसलों में अपने अंडे नहीं रखती।

कोई दो फुट लंबाई का एक कौआ रैवेन कोर्वस के नाम से जाना जाता है। इसे द्रोण काक भी कहते हैं। इसके काले शरीर पर बैंगनी-नीली झलक रहती है। ये देश के पश्चिमी इलाके में दिखाई पड़ते हैं। इनके डैने काफी मजबूत होते हैं। इसलिए इनकी उड़ान सीधी और तेज होती है। खाने-पीने के मामले में ये अन्य कौओं से काफी मिलते-जुलते हैं। इसका घोंसला काफी मजबूत होता है, जिसे पेड़ की उंची शाखा पर सूखी टहनियों से बनाया जाता है। कभी-कभी इनके घोंसले ऊंचाई पर पहाड़ों के सुराखों में भी दिखाई देते हैं।

अगर कहें कि कुछ कौए भुर्राक सफेद भी होते हैं तो शायद आपको विश्वास न हो, पर यह सच है। रंजकहीनता यानी अल्बीनिज्म के कारण कुछ कौए सफेद हो जाते हैं। ऐसे घरेलू कौए यदा-कदा दिखाई दे जाते हैं, पर हम पहचान नहीं पाते।  प्राचीन संस्कृत साहित्य में इसे श्वेत काक या शुुक्ल काक के नाम से पुकारा गया है।

जिस तरह से कौए और अन्य पक्षी गौरैया समाप्त होते जा रहे हैं इसका एक प्रमुख कारण मोबाइल टावर से निकलने वाला विकिरण भी है यह बात वैज्ञानिक रूप से सिद्ध हो चुकी है। कहीं ऐसा ना हो पक्षियों में सबसे चालाक पक्षी कौवा का हश्र डोडो पक्षी जैसा हो जाए।

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