विचार / लेख
भारतीय दंड संहिता के जरिए सरकारों को बहुत गुमान है कि राजद्रोह उनका गोद लिया पुत्र है। वह अंगरेज मां की कोख से जन्मा है। भारतीय दंड संहिता अंगरेज शिशु की धाय मां है। अंगरेज चले गए, औलाद छोड़ गए! वह सुप्रीम कोर्ट के केदारनाथ सिंह के फैसले के कारण गोदनामा वैध बना हुआ है। यह अंगरेज बच्चा भारत माता के कोखजाए पुत्रों को अपनी दुष्टता के साथ प्रताड़ित करता रहता है। दुर्भाग्य है इस अपराध को दंड संहिता से बेदखल नहीं किया जा सका। पराधीन भारत की सरकार की समझ, परेशानियां और चिंताएं और सरोकार अलग थे। राजद्रोह का अपराध हुक्काम का मनसबदार था। अब तो लेकिन जनता का संवैधानिक राज है। राष्ट्रपति से लेकर निचले स्तर तक सभी लोकसेवक जनता के ही सेवक हैं। फिर भी मालिक को लोकसेवकों के कोड़े से हंकाला जा रहा है।
राजद्रोह की परिभाषा को संविधान में वर्णित वाक् स्वातंत्र्य और अभिव्यक्ति की आजादी के संदर्भ में विन्यस्त करते केदारनाथ सिंह के प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट ने दंड संहिता के अन्य प्रावधानों के संबंध में सार्थक अवलोकन कर लिया होता तो राजद्रोह के अपराध को कानून की किताब से हटा देने का एक अवसर विचार में आ सकता था। दंड संहिता के अध्याय 6 में शामिल राजद्रोह के साथ साथ कुछ और अपराध भी हमजोली करते हैं। उनके लिए राजद्रोह के मुकाबले कम सजाओं का प्रावधान नहीं है। मसलन अनुच्छेद 121 के अनुसार जो भारत सरकार के विरुद्ध युद्ध करेगा या युद्ध करने के लिए भड़काएगा वह मृत्यु या आजीवन करावास से दंडित किया जाएगा और जुर्माने से भी दंडनीय होगा। धारा 121-क में लिखा है जो भारत सरकार के विरुद्ध युद्ध करने जैसे अपराधों को लेकर देश के अंदर या बाहर षड्यंत्र करेगा या किसी राज्य सरकार को आपराधिक बल या अपराधिक बल के प्रदर्शन द्वारा आतंकित करने का षडयंत्र करेगा, वह भी आजीवन कारावास से दंडित हो सकेगा। अध्याय 6 में राज्य के विरुद्ध हिंसक अपराधों का ब्यौरा है। उन्हें भी अंगरेजों के समय से कायम रखा गया है।
केन्द्र सरकार के नागरिकता अधिनियम से बवंडर उठ खड़ा हुआ। पुलिस ने गांधी पुण्यतिथि के दिन दिल्ली में आरएसएस मुख्यालय पर प्रदर्शन कर रहे छात्रों और नागरिकों को लाठी और लात, घूंसों से पीटा कुचला। सुप्रीम कोर्ट के आदेशों का भी पालन पुलिस द्वारा नहीं किया जाता। देश की रक्षा का जिम्मा केन्द्र सरकार का ही है। इसलिए केन्द्र सरकार का मजाक भी नहीं उड़ाया जा सकता? हिन्दुस्तान मुश्किलों में घिरा है। पुलिस के सामने खुले आम गोपाल नाम के एक व्यक्ति ने पिस्तौल से हवाई फायर किए। एक युवक घायल भी हुआ। जेएनयू और जामिया के छात्र बच्चे नहीं, मतदाता हैं। देश के युवजनों के जेहन में नया देश और नई दुनिया बनाने की अवधारणाएं तिर रही हैं। विधायिका में आधे से अधिक अपराधी घुसे बैठे हों। उनसे विश्वविद्यालयों की बौद्धिक स्वायत्तता को लेकर जिरह कैसे हो? मीडिया देशद्रोह और राष्ट्रदोह जैसे झूठे, अजन्मे शब्दों की जुगाली कर रहा है। देश के विश्वविद्यालय बांबी नहीं हैं जिनमें औघड़ बाबाओं, दकियानूसों, पोंगा पंडितों, गुंडों, मजहबी लाल बुझक्कड़ों के सांप घुस जाएं। संविधान, देश और भविष्य का तकाजा है कि हर सवाल के लिए जनभावना के अनुकूल देश, संसद और सरकार मिल जुलकर सहिष्णुतानामा लिखें। दस दिनों तक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय देश की धड़कन बना रहा। कथित तौर पर कुछ नारे गूंजे। ‘कश्मीर की आजादी, भारत की बरबादी‘, ‘पाकिस्तान जिंदाबाद', ‘घर-घर होगा अफजल‘ वगैरह।
कुछ शब्द मसलन सांस्कृतिक राष्ट्रवाद, नकली धर्मनिरपेक्षता, वंदेमातरम, हिन्दुत्व, पाकिस्तान जाओ, जयश्रीराम, पुलिस, गोगुंडे, टुकड़े-टुकड़े गैंग, योगी आदित्यनाथ, रिपब्लिक टीवी, साध्वी प्रज्ञा, सुधीर चौधरी मिलकर सत्ता सुख की सक्रियता में होते हैं। कार्ल माक्र्स, बाबा साहब अंबेडकर, महात्मा गांधी, दलित, संविधान, ज्योतिबा फुले, रवीश कुमार, रोहित वेमुला, राष्ट्रीय ध्वज, कन्हैयाकुमार, जेएनयू, जामिया मिलिया, शरजील इमाम, शाहीन बाग वगैरह गहरी असहमति में होते रहे हैं। शरजील को पुलिस ने राजद्रोह सहित अन्य अपराध में गिरफ्तार कर लिया। विपक्ष दक्षिणपंथी हस्तक्षेप के खिलाफ जागरूक विरोध करता रहा है। छात्रों, अध्यापकों और पर्दानशीन महिलाओं तक ने नागरिकता संशोधन अधिनियम के खिलाफ विरोध कायम कर रखा।
राजद्रोह का अपराध वहां भी एक असंगत अपराध है जो हिंसक गतिविधियों से अलग हटकर बोलने, लिखने और किसी भी तरह की अभिव्यक्ति या संकेत तक को आजीवन कारावास देने से डराता है। राजद्रोह पूरी तौर पर असंवैधानिक है। अलग परिस्थितियों में उसे संविधानसम्मत ठहराया गया। राज्य की सुरक्षा आवश्यक है। साथ ही अभिव्यक्ति की आजादी को लेकर संविधान में दी गई सुरक्षा गारंटियां भी हैं। केदारनाथ सिंह के प्रकरण में किसी पत्रकार द्वारा अभिव्यक्ति की आजादी का कथित उल्लंघन करने का आरोप नहीं था। एक राजनीतिक व्यक्ति ने भी यदि सरकार के खिलाफ और आपत्तिजनक भाषा में जनआह्वान किया तो वह भी अपने परिणाम में टांय टांय फिस्स निकला था। सुप्रीम कोर्ट ने इसीलिए यही कहा कि यदि कोई लोक दुर्व्यवस्था हो जाए या कोई लोक दुर्व्यवस्था होने की संभावना बना दे तो उससे राज्य की सुरक्षा को खतरा होने की संभावना बनती है। राज्य की सुरक्षा रहना लोकतंत्र के लिए आवश्यक है।
राज्य की सुरक्षा नामक शब्दांश बेहद व्यापक और संभावनाशील है। सरकार या सरकार तंत्र में बैठे हुक्कामों के खिलाफ कोई विरोध का बिगुल बजाता है तो उससे भर राज्य की सुरक्षा को खतरा हो सकता है। ऐसा भी तो सुप्रीम कोर्ट ने नहीं कहा। इसी नाजुक मोड़ पर गांधी सबके काम आते हैं। अंगरेजी हुकूूमत के दौरान गांधी कानूनों की वैधता को संविधान के अभाव में चुनौती नहीं दे पाते थे। फिर भी उन्होंने कानून का निरूपण किया। जालिम कानूनों का विरोध करने के लिए गांधी ने जनता को तीन अहिंसक हथियार दिए। असहयोग, निष्क्रिय प्रतिरोध और सिविल नाफरमानी। अंगरेजी हुकूमत से असहयोग, सिविल नाफरमानी या निष्क्रिय प्रतिरोध दिखाने पर तिलक, गांधी और कांग्रेस के असंख्य नेताओं को बार-बार सजाएं दी गईं। इन्हीं नेताओं के वंशज देश में बाद में हुक्काम बने। आजादी के संघर्ष के दौरान जिस विचारधारा ने नागरिक आजादी को सरकारी तंत्र के ऊपर तरजीह दी। आज उनके प्रशासनिक वंशज इतिहास की उलटधारा में देश का भविष्य कैसे ढ़ूढ़ सकते हैं।
राजद्रोह का अपराध राजदंड है। वह बोलती हुई रियाया की पीठ पर पड़ता है। अंगरेजों के तलुए सहलाने वाली मनोवृत्ति के लोग राजद्रोह को अपना अंगरक्षक मान सकते हैं। राज केे खिलाफ द्रोह करना जनता का मूल अधिकार है, लेकिन जनता द्वारा बनाए गए संविधान ने खुद तय कर लिया है कि वह हिंसक नहीं होगा। यह भी कि वह राज्य की मूल अवधारणाओं पर चोट नहीं करेगा क्योंकि जनता ही तो राज्य है, उसके नुमाइंदे नहीं।