अमेरिका में अभी एक नई बहस छिड़ी है कि जिन लोगों ने कोरोना की वैक्सीन नहीं लगवाई है, उन्हें हवाई जहाज में चढऩे दिया जाए या नहीं? वहां सरकार ने वैक्सीन लगवाने का फैसला तो लोगों पर छोड़ा है, लेकिन वहां भारत जैसी हालत भी नहीं है कि विमान में चढऩे के पहले वैक्सीन सर्टिफिकेट दिखाना पड़े या कोरोना नेगेटिव होने का सर्टिफिकेट दिखाना पड़े। अमेरिका में लोग अपनी निजी स्वतंत्रता को लेकर अधिक जागरूक या, बेहतर होगा यह कहें कि, अधिक अडिय़ल है। उनमें से बहुत से लोग तो मास्क लगाने से भी इंकार कर देते हैं कि यह उनके मौलिक अधिकारों का हनन है। वैक्सीन न लगवाने वाले भी बहुत से जिद्दी लोग हैं जिनका कई किस्म का तर्क रहता है। लेकिन महज अमेरिकी लोगों को ही जिद्दी क्यों कहें, हिंदुस्तान के इतिहास को देखें तो जब कस्तूरबा गांधी की तबीयत बहुत खराब हुई थी, और पुणे के आगा खान महल में वे महात्मा गांधी के साथ रखी गई थीं, तब अंग्रेज डॉक्टर उन्हें देखने आया था। उसने जब पेनिसिलिन का इंजेक्शन लगाने की तैयारी की तो गांधी उससे इस बहस में उलझ गए कि किसी दवा को इंजेक्शन से शरीर में डालना प्रकृति के खिलाफ है। और इनके बीच कुछ बातचीत के बाद वह इंजेक्शन नहीं लग पाया, और दवा मौजूद रहते हुए भी कस्तूरबा चल बसी थीं। तो गांधी की जिद ने कस्तूरबा की जान ले ली थी। आज भी गाँधी होते तो कोरोना वैक्सीन नहीं लगवाते क्योंकि वह प्रकृति के खिलाफ होती। उसी तरह अमेरिका में बहुत से लोग जिद पर अड़े हुए हैं कि वे वैक्सीन नहीं लगवाएंगे। लेकिन दूसरे लोगों का कहना है कि वैक्सीन न लगवाने वाले लोगों का नुकसान और खतरा वे लोग क्यों झेलें जो कि वैक्सीन लगवा चुके हैं? बात सही भी है, गैरजिम्मेदार लोगों के हिस्से का नुकसान जिम्मेदार लोग क्यों झेलें ?
लेकिन अमेरिका और टीकों से परे की बात देखें तो भी दुनिया भर में यह देखने मिलता है कि किसी कार्यक्रम में समय पर पहुंचने वाले लोग अपने वक्त की बर्बादी करते उन लोगों का इंतजार करने को मजबूर रहते हैं जो देर से आने की आदत रखते हैं और कार्यक्रम जिनके लिए इंतजार करते रहता है। और तो और अपनी खुद की शादी में दूल्हा-दुल्हन कई बार दावत में इतनी देर से पहुंचते हैं कि वहां आए हुए मेहमान उनके इंतजार में खड़े रहते हैं। किसी बैठक में भी यही होता है कि समय पर पहुंचे हुए लोग अपने मन में खुद को और लेट-लतीफ लोगों को कोसते हुए बैठे रहते हैं, और देर से आने वाले लोग मजे से हंसते-मुस्कुराते पहुंचते हैं।
जो लोग सिगरेट-बीड़ी नहीं पीते हैं, उन्हें किसी जगह पर मौजूद दूसरे ऐसे लोग तकलीफ देते हैं, लेकिन ऐसे अनचाहे धुंए को झेलने के लिए मजबूर लोग नुकसान पाते हुए वहां खड़े या बैठे रहते हैं। हिंदुस्तान में यह सिलसिला इतना अधिक है कि बहुत से लोगों को यह अफसोस होता है कि वे इतने असभ्य देश में पैदा क्यों हुए हैं जहां एक काल्पनिक इतिहास के ऊपर तो सबको गर्व है, लेकिन आज मौजूद शर्मनाक वर्तमान पर किसी को शर्मिंदगी नहीं है। अभी छत्तीसगढ़ में भाजपा की एक बड़ी नेता और छत्तीसगढ़ की प्रभारी डी पुरंदेश्वरी ने कहा कि भाजपा के लोग एक बार थूक दें तो भूपेश बघेल की पूरी सरकार बह जाएगी। बात सही भी हो सकता है क्योंकि भाजपा छत्तीसगढ़ में सबसे अधिक सदस्यों वाली पार्टी होने का दावा करती है, और उसके बहुत से लोग तंबाकू-गुटखा खाकर इतना इतना थूक उगलते हैं कि हो सकता है कि एक सैलाब आ जाए। जो लोग सार्वजनिक जगहों पर नहीं थूकते हैं उन्हें ही दूसरों का ऐसा थूका हुआ अधिक खटकता है। जो लोग हर कुछ देर में किसी ना किसी साफ-सुथरी और सार्वजनिक जगह को देखकर थूकने में लग जाते हैं, उन्हें तो भला क्या बुरा लगता होगा।
किसी संपन्न कॉलोनी में भी रहने वाले लोगों को आसपास के असभ्य पड़ोसियों और उनके मेहमानों की बदतमीजी को झेलना पड़ता है, जिनकी गाडिय़ां आड़ी-तिरछी खड़ी रहती हैं, जो घरों के बाहर जोर-जोर से फिजूल की बात करते हुए मोबाइल फोन लिए टहलते रहते हैं, आते जाते घर की घंटी की जगह हॉर्न बजाते हैं और रास्ता रोकते हैं, और अड़ोस-पड़ोस की दीवार पर पेशाब करने में जुट जाते हैं। ऐसे लोग गिनती में बहुत कम रहते हैं जो अपने घर आने वालों या अपने मेहमानों को तमीज याद दिलाने की जहमत उठाएं। अधिकतर लोग दूसरों के प्रति किसी भी जिम्मेदारी को लेकर पूरी तरह बेफिक्र रहते हैं और अपने अधिकारों का दावा करने के लिए उतने ही चौकन्ने रहते हैं।
हिंदुस्तानी लोगों का यह मिजाज बड़ा ही दिलचस्प है कि हर सुबह अपने घर-दुकान के सामने का कचरा झाड़ू से सडक़ के दूसरी तरफ कर दें, मानो सडक़ एक सरहद है और उसकी दूसरी तरफ कोई दुश्मन देश है। एक बार दुनिया के सभ्य देशों में जाकर जो हिंदुस्तानी लौटते हैं उनका मोटा-मोटा अंदाज यह रहता है कि वहां जैसी सभ्यता, वहां जैसी साफ-सफाई और साफ हवा, तमीज हिंदुस्तान में सैकड़ों बरस तक नसीब नहीं होनी है। यहां पर लोग दूसरे लोगों की गंदगी और गलतियों की तकलीफ भुगतने के लिए मजबूर रहते हैं, और गंदगी फैलाने वाले, परेशानी फैलाने वाले लोग इस हद तक बेशर्म रहते हैं कि उन्हें शायद इस बात का एहसास भी नहीं होता कि वह कुछ गलत कर रहे हैं।
हिंदुस्तान की सडक़ों पर देखें तो दारु पिए हुए या दूसरे किस्म के नशे में गाड़ी चलाने वाले लोगों की संख्या कम नहीं रहती है। लेकिन लोग उन्हें रोक नहीं सकते क्योंकि रोकने का काम पुलिस का है, और पुलिस उन्हें कई वजहों से नहीं रोकती क्योंकि एक तो उसकी क्षमता इतनी गाडिय़ों और ड्राइवरों को जांचने की नहीं है, दूसरा यह कि इनमें से जो पिए हुए रहते हैं उनसे कुछ कमाई हो जाती है, इसलिए भी वह उन्हें जाने देते हैं। लेकिन सवाल ये उठता है कि सडक़ों पर पिए हुए लोग दूसरों पर खतरा रहते हैं। वे अपनी जान खतरे में डालें न डालें, दूसरों को कुचल सकते हैं। ऐसे में सडक़ों पर जिम्मेदारी से चलने वाले लोगों के क्या अधिकार हैं जिससे वे पिए हुए या नशे में लोगों को रोक सकें ? जो जिम्मेदार हैं उनके कोई अधिकार नहीं है, और जो गैरजिम्मेदार हैं उन पर कोई रोक नहीं है। हिंदुस्तान में सार्वजनिक जगहों का यही हाल है।
लोग अपने बच्चों को महंगी गाडिय़ां खरीद कर देते हैं जिनमें से बच्चे किसी के साइलेंसर फाड़ देते हैं, किसी के हेडलाइट को बदल देते हैं, किसी में प्रेशर हॉर्न लगवा लेते हैं, और दूसरों का जीना हराम करते चलते हैं। कभी-कभार भूले-भटके कोई अफसर ऐसी कुछ दर्जन गाडिय़ों पर कोई कार्यवाही करवा दे तो करवा दे, वरना आमतौर पर किसी को इनमें कोई बुराई नहीं दिखती क्योंकि हमारा मिजाज ही ऐसा हो गया है कि इस देश में तकलीफ पाना लोगों की बदनसीबी है, पिछले जन्मों के कर्मों का नतीजा है, और इसमें सरकार का या किसी और का दखल देना ठीक नहीं है।
कुल मिलकर जिम्मेदार लोगों की किस्मत में भड़ास में जीने के अलावा और कुछ नहीं है। अगले जन्म में किसी सभ्य देश में पैदा होने के लिए इस जन्म में कुछ नेक काम करते चलें।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
सुप्रीम कोर्ट ने अभी महाराष्ट्र के अमरावती जिले के एक पत्रकार की याचिका पर जिला प्रशासन का यह आदेश खारिज कर दिया जिसमें इस पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता को जिला बदर किया गया था। महाराष्ट्र के विदर्भ इलाके में अमरावती में पुलिस और प्रशासन से मिलकर पत्रकार रहमत खान को अमरावती शहर या अमरावती ग्रामीण जिले में एक साल तक न आने-जाने का आदेश दिया था। जिला बदर के इस आदेश के खिलाफ यह पत्रकार सुप्रीम कोर्ट पहुंचा था और अदालत ने सरकार के इस आदेश को खारिज करते हुए कहां कि किसी व्यक्ति को देश में कहीं भी रहने या स्वतंत्र रूप से घूमने के उसके मौलिक अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता।
लोगों को याद होगा कि सामाजिक कार्यकर्ताओं या राजनीतिक कार्यकर्ताओं को, मजदूर नेताओं को, जिला बदर करने को जिला प्रशासन और पुलिस एक हथियार की तरह इस्तेमाल करते हैं। देश के तकरीबन सभी राज्यों में प्रशासन जिला बदर के अंग्रेजों के समय से चले आ रहे कानून को डराने के लिए भी इस्तेमाल करता है और अपने को नापसंद लोगों को जिले से निकाल देने की एक ऐसी सजा देता है, जिसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचना हर किसी के बस का नहीं रहता। छत्तीसगढ़ में कई दशक पहले पीयूसीएल नाम के मानवाधिकार संगठन के एक बड़े कार्यकर्ता राजेंद्र सायल ने इस बात को कई जगह उठाया था कि जिला बदर करने का कानून संविधान में बताए गए मौलिक अधिकारों के खिलाफ है। उन्होंने कई मंचों पर इस बात को उठाया था, और इस बारे में लिखा भी था। लेकिन पुलिस और प्रशासन को प्रतिबंध के सारे तौर-तरीके बहुत सुहाते हैं क्योंकि उन्हें आसानी से लादा जा सकता है, और सत्तारूढ़ नेताओं को उनके फायदे को गिनाया जा सकता है। दूसरी तरफ सत्तारूढ़ नेता पुलिस और प्रशासन की मदद से अपनी राजनीति चलाते हैं और इसलिए वे तमाम किस्म के प्रतिबंधों की प्रशासन की पहल के हिमायती भी रहते हैं।
इस प्रतिबंध को ही देखें तो अगर कोई व्यक्ति किसी जिले में वहां के लोगों की जिंदगी के लिए खतरा बन जाता है तो उसे उस जिले से बाहर रहने के लिए पर्याप्त कारण मानते हुए उसे जिला बदर कर दिया जाता है। अब कुछ देर के लिए, बहस के लिए यह मान भी लें कि कोई व्यक्ति एक जिले में इतना बड़ा गुंडा हो जाता है, अपराधी हो जाता है कि वहां के लोगों को उससे खतरा रहता है, और उसे जिले से बाहर निकाल देना जिले की हिफाजत के लिए जरूरी लगता है। ऐसे में सवाल यह है कि जो एक जिले के लिए खतरा है उसे उस जिले से निकालकर उसे दूसरे जिले पर खतरा बनाकर क्यों डालना चाहिए? और फिर जिले की सुरक्षा तो अधिकारियों का जिम्मा है, कोई एक व्यक्ति इतना खतरनाक हो सकता है कि वह उस जिले से निकाल देने के लायक हो जाए? दिलचस्प बात यह है कि अभी जिस व्यक्ति को अमरावती से जिला बदर किया गया था उसने सरकार में कई तरह की सूचना के अधिकार की अर्जियां लगाई थीं और कई शैक्षणिक संस्थाओं और मदरसों में हुई आर्थिक अनियमितता के बारे में जानकारी मांगी थी। सुप्रीम कोर्ट में रहमत खान नाम के इस कार्यकर्ता ने तर्क दिया कि उसके खिलाफ यह कार्रवाई इसलिए की गई क्योंकि उसने सार्वजनिक धन के दुरुपयोग को खत्म करने और अवैध गतिविधियों में शामिल लोगों के खिलाफ कार्रवाई शुरू करने के लिए कदम उठाया था। उसका कहना है कि कलेक्टर और पुलिस से उसने ऐसे दुरुपयोग की जांच का अनुरोध किया था और इसके बाद इन संस्थाओं से जुड़े लोगों ने उसके खिलाफ एक रिपोर्ट लिखाई थी।
अमरावती जिला प्रशासन और पुलिस का यह रुख बताता है कि अफसर अपने अधिकारों का कैसा बेजा इस्तेमाल करते हैं, और हो सकता है कि राजनीतिक ताकतें भी ऐसे भ्रष्टाचार को बचाने के पीछे रहती हों। पुलिस और सत्तारूढ़ नेताओं के बीच का गठबंधन पूरे देश के हर राज्य में इतना खतरनाक हो चुका है कि अभी दो-चार दिन पहले सुप्रीम कोर्ट ने इसके खिलाफ एक टिप्पणी भी की है। छत्तीसगढ़ के एक आईपीएस जीपी सिंह के खिलाफ राजद्रोह का मामला दर्ज करने के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई के दौरान ऐसी बहुत सी बातें कहीं। अदालत ने देश के कई राज्यों के ऐसे मामलों के बारे में कहा कि जब कोई सरकार जब कोई पार्टी सत्ता में आती है तो पिछली सरकार के करीबी अफसरों के खिलाफ कई तरह के मामले दर्ज होने लगते हैं, यह हिंदुस्तान में एक नया रुख देखने में आ रहा है। देश के बहुत से राज्यों में ऐसा हो रहा है कि सत्तारूढ़ पार्टी को नापसंद लोगों के खिलाफ तरह-तरह के फर्जी मामले दर्ज कर लिए जाते हैं। दूसरी तरफ उत्तर प्रदेश के एक मामले में सुप्रीम कोर्ट को भी दखल देनी पड़ी जिसमें राज्य सरकार द्वारा दंगाइयों के खिलाफ दर्ज मामले वापस ले लिए गए, और उसके लिए हाईकोर्ट से लेने इजाजत लेने की शर्त भी पूरी नहीं की गई। सुप्रीम कोर्ट ने साफ किया कि हाईकोर्ट की इजाजत के बिना ऐसा नहीं किया जा सकता है।
पुलिस और प्रशासन के हथियार अंग्रेजों के वक्त बनाए गए ऐसे बहुत से कानून हैं जिन्हें कानून-व्यवस्था बनाए रखने के लिए जरूरी बताया जाता है, लेकिन जो मोटे तौर पर एक विदेशी जुल्मी सरकार के अत्याचार जारी रखने के लिए अंग्रेजों के वक्त पर बनाए गए थे। आज भी हिंदुस्तान की अफसरशाही, यहां की पुलिस उन्हें जारी रखने के पक्ष में हैं। केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ऐसे बहुत से कानूनों को खत्म करने की बात करती है, कई कानूनों को खत्म किया भी गया है, लेकिन नरेंद्र मोदी की पार्टी ही कई प्रदेशों की अपनी सरकारों में लोगों के खिलाफ बड़ी रफ्तार से राजद्रोह के मामले दर्ज करती है, जिसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट बरसों पहले फैसला दे चुका है। अभी सुप्रीम कोर्ट में दिल्ली का ही एक मामला चल रहा है जिसमें जब अदालत ने यह पूछा कि कुछ छात्रों के खिलाफ राजद्रोह का मामला कैसे दर्ज किया गया, तो पुलिस ने कुछ टीवी चैनलों का नाम लिया कि वहां वीडियो देखकर पुलिस ने उन पर राजद्रोह का मामला लगाया। जब इन चैनलों से पूछा गया तो उन्होंने कहा कि उन्होंने ट्विटर पर कुछ ट्वीट में यह वीडियो देखकर उन्हें अपने समाचारों में दिखाया था। और जब उन ट्वीट की जांच की गई तो यह पता लगा कि उन्हें भाजपा के आईटी सेल के प्रमुख ने ट्वीट किया था, और वहां से लेकर वे समाचार चैनलों में दिखाए गए, और वहां से उन वीडियो को देखकर पुलिस ने राजद्रोह के मुकदमे दर्ज कर लिए थे।
अब यह वक्त आ गया है कि पूरे देश में पुलिस और प्रशासन के ऐसे मनमानी करने के अधिकार खत्म किए जाएं, ऐसे कानून खत्म किए जाएं जिनमें कानून-व्यवस्था बनाए रखने जैसे बहुत ही अमूर्त और अस्पष्ट किस्म के बहाने गिनाकर लोगों पर कड़ी कार्यवाही की जाती है, और लंबे समय तक उन्हें परेशान किया जाता है। आज क्या इस बात की कल्पना की जा सकती है कि किसी मामूली व्यक्ति को एक साल के लिए जिला बदर कर दिया जाए तो किस तरह वह अपने जिले के बाहर रहेगा, कैसे जिंदा रहेगा, उसे कौन काम देगा, और किस तरह उसका परिवार उसके बिना साल भर जिंदा रह सकेगा? ऐसी नौबत की सोचे बिना सिर्फ सरकारी बहाने बनाकर ऐसी कार्रवाई पूरी तरह पूरी तरह से नाजायज है और इस पर रोक लगनी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने बहुत अच्छा किया है जो जिला बदर करने की कार्रवाई के खिलाफ एक व्यापक टिप्पणी की है जो कि जिला बदर के बाकी मामलों में भी देशभर मैं इस्तेमाल की जा सकेगी। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
पुराने कानूनों और नई टेक्नोलॉजी ने दुनिया के साथ-साथ भारत के लिए कई किस्म की नई चुनौतियों खड़ी कर दी हैं। अमरीका जैसे कुछ देश जिन्होंने टेक्नोलॉजी बदलने की रफ्तार से ही कानून भी बदल लिए, वे भी आज इन नए कानूनों के कई पहलुओं से रोज जूझ रहे हैं। इंटरनेट ने लोगों की जिंदगी में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बहुत से ऐसे नए पहलू जोड़े हैं जिनके बारे में कुछ बरस पहले तक मीडिया का एकाधिकार सा बने रहने की वजह से कभी सोचने की नौबत नहीं आई थी। अब बहुत मामूली से खर्च के साथ कोई भी व्यक्ति इंटरनेट पर जाकर वहां अपने मन की बहुत किस्म की बातें लिख सकते हैं, दूसरे लोगों को महान या घटिया बता सकते हैं। इस नई आजादी ने कल तक अखबारों के संपादक नाम की एक सेंसरशिप को खत्म कर दिया है और अब लोग सीधे-सीधे दूसरे लोगों तक पहुंच जाते हैं, पल भर में, सभी सरहदों को चीरकर।
भारत सरकार बीच-बीच में नोटिस देकर इंटरनेट की बहुत सी सोशल नेटवर्किंग वेबसाइटों को देकर कहती है कि वे वहां से आपत्तिजनक सामग्री हटाएं। दूसरी तरफ देश की कई बड़ी अदालतें भी ऐसे ही नोटिस इन वेबसाइटों को देती रहतीं हैं, जो मोटे तौर पर पश्चिमी दुनिया से चलती हैं, और समय-समय पर दुनिया के अलग-अलग देशों के प्रतिबंध झेलने की आदी हैं। फेसबुक, ट्विटर और इसी किस्म की दूसरी बहुत सी वेबसाइटें लोगों के बीच बातचीत, विचार-विमर्श और गाली-गलौज का रिश्ता मुहैया कराती हैं। पिछले एक-दो दशकों में भारत की सरकार को अपने भ्रष्टाचार के खिलाफ जितने किस्म के आंदोलन झेलने पड़े उनमें जनमत को तैयार करने और बात को फैलाने में इन वेबसाइटों ने खासी मदद की। नतीजा यह है कि सरकार इन पर लोगों की लिखी बातों से नाखुश है। लेकिन बात महज इतनी नहीं है। बिना किसी रोक-टोक के जब लोगों को अपनी किसी भी तरह की दिल-दिमाग की हालत के चलते लिखने और नेट पर डाल देने की सहूलियत है, और जब तक कोई कानूनी जांच न हो तब तक लोगों को एक यह छूट भी मिली हुई है कि वे बेनामी, गुमनामी के साथ, किसी नकली नाम से भी यह काम कर सकते हैं, तो नतीजा यह कि लोग किसी की वल्दियत पर सवाल खड़े कर रहे हैं, तो किसी की मां के चाल-चलन की बात कर रहे हैं।
हमारा अपना अनुभव यह रहा है कि यह बेकाबू आजादी जितना भला कर रही है उतना ही एक ऐसा बुरा भी कर रही है जिसके खिलाफ किसी किस्म की कानूनी कार्रवाई इस टेक्नोलॉजी के बेसरहद होने से मुमकिन भी नहीं है। भारत की सरकार अगर किसी वेबसाइट को रोक भी देगी, तो दुनिया के बहुत से देशों ने ऐसा करके देख लिया है, उससे कुछ नहीं थमता। तो ऐसे में इस मर्ज का इलाज क्या है? अभी मोदी सरकार ने एक नया आईटी कानून बनाकर उन्हीं सोशल मीडिया के पर कतरने की कोशिश की है, जिन पर सवार होकर वह दो-दो बाद सत्ता पर पहुंची है।
दरअसल इंटरनेट लोगों को बिना अपनी शिनाख्त उजागर किए लिखने की एक ऐसी छूट देता है जो कि अब तक किसी ऐसे सार्वजनिक शौचालय के दरवाजे के भीतर की तरफ ही हासिल होती थी। उसमें भी पहले और बाद में उसी शौचालय में जाने वाले लोग तो यह अंदाज लगा ही सकते थे कि यह किसने लिखा होगा, लेकिन इंटरनेट पर जहां भारत के ही करोड़ों लोग हैं, और जहां बेचेहरा बने रहने की पूरी सहूलियत हासिल है वहां पर पखाने की इस दरवाजे के भीतर लिखने वाले का अंदाज भी लगाना मुमकिन नहीं है। कहने को तो यह भी है कि कंप्यूटर, इंटरनेट और फोन पर भेजा गया एक शब्द भी इतनी जानकारियों के साथ दर्ज होता है कि उसे तलाश कर अदालत में साबित किया जा सकता है। लेकिन एक सवाल यह उठता है कि कोलकाता के बॉटनिकल गार्डन के बिना ओर-छोर के अंतहीन फैले हुए बरगद के पेड़ पर टहलती हुई लाखों चीटियों में से किसी एक चींटी को कैसे तो कोई तलाशेगा और फिर कैसे उसके पदचिन्ह अदालत में साबित करेगा? कैसे कोई समंदर में रेत के एक कण को पहचानकर उसे कानून के कटघरे तक ले जाएगा? यह काम डॉन को पकडऩे से भी मुश्किल है।
दूसरी बात यह कि अभिव्यक्ति की जिस स्वतंत्रता को लेकर कानून अपने आपमें अभी कमजोर है, एक-एक मामले पर सुप्रीम कोर्ट तक बहस गई हुई है, ऐसे में करोड़ों लोगों की रोजाना की अभिव्यक्ति को पुलिस या कोई दूसरी जांच एजेंसी कब तक पकड़ते रहेगी और अदालतों में लगी हुई मामलों की कतारों में ऐसे मामलों को कब जगह मिलेगी? अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और दूसरे लोगों के अपने सम्मान, अपने निजी जीवन के हक, एक की धार्मिक भावनाएं और दूसरे की धार्मिक भावनाएं, एक के नैतिक मूल्य और दूसरे के नैतिक मूल्य, इन सबमें इतने किस्म की विविधता है, टकराव है कि कोई भी दूसरे की कही हुई बात को अपना अपमान मान सकते हैं, और अपने हक का दावा कर सकते हैं। दूसरी तरफ जो कहने वाले लोग हैं, लिखने और इंटरनेट पर डालने वाले लोग हैं उनके अपने ये तर्क हो सकते हैं कि अभिव्यक्ति की यह उनकी अपनी स्वतंत्रता है।
कहने के लिए भारत का मौजूदा, और नया भी, सूचना तकनीक कानून इतना कड़ा है कि वह लोगों को छपी हुई बातों के मुकाबले, इंटरनेट पर डाली गई बातों के लिए अधिक आसानी से अधिक कड़ी सजा दिला सकता है। लेकिन सवाल यह है कि पहले से बोझ तले टूटी कमर वाली जांच एजेंसियों और अदालतों के पास ऐसे नए मामलों के लिए वक्त कहां से निकलेगा? कहने के लिए सरकार के पास पानी की जांच करने के लिए सहूलियत है, लेकिन अगर देश भर के हर नदी-तालाब के पानी की जांच हर हफ्ते करवाई जाए तो क्या इन प्रयोगशालाओं से कोई नतीजे निकल सकेंगे? इसलिए हम इस मौजूदा हाल को किसी आसान इलाज के लायक नहीं समझते। हम यहां पर अपनी तरफ से कोई बात इसलिए सुझाना नहीं चाहते क्योंकि दुनिया के लोगों की अभिव्यक्ति की जरूरतें अलग-अलग हैं। हमें तो आए दिन, या रोज-रोज लिखने का मौका मिल जाता है, जिन लोगों को तकलीफ हमसे ज्यादा है और कहने को जगह कहीं नहीं हैं, वे लोग अपनी भड़ास को, अपनी शिकायत या तकलीफ को अगर इंटरनेट पर नहीं निकालेंगे तो वह भड़ास उनके मन के भीतर इक_ा हो-होकर किसी अलग किस्म का धमाका करेगी।
यहां पर लगे हाथों हम भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के एक और पहलू पर भी बात करना चाहेंगे। यहां सेंसर हो चुकी फिल्में के पर्दे पर पहुंचने के पहले ही उनके खिलाफ अदालतों में मामले दर्ज होने लगते हैं, किसी की तस्वीर को लेकर मामला चलने लगता है तो किसी गाने को हटाने की मांग होने लगती है। धर्मों को लेकर सामाजिक तनाव इतना है कि खुलकर उस बारे में बात नहीं हो सकती और एक बहुत ही सतही जुर्म की तरह, एक थाने के स्तर पर ही किसी के लिखे के खिलाफ, किसी के कहे के खिलाफ यह जुर्म दर्ज हो जाता है कि उसने किसी और की धार्मिक भावनाओं को आहत पहुंचाई है। हजारों ईश्वरों वाले भारत जैसे देश में किसी एक के धार्मिक अधिकार भी किसी दूसरे की धार्मिक भावनाओं को चोट पहुंचाने वाले हो सकते हैं। एक धर्म पूरी तरह अहिंसा पर चलता है और उसके लोग यह दावा कर सकते हैं कि दूसरे धर्म के लोग जब बलि या कुर्बानी देते हैं, तो अहिंसा की उनकी धार्मिक भावना को चोट पहुंचती है। किसी धर्म या आध्यात्म के तहत महिलाओं से भेदभाव की व्यवस्था हो सकती है, और कोई दूसरा धर्म यह कह सकता है कि उनके देश में ऐसा भेदभाव उनकी धार्मिक भावना को आहत करता है। आज योरप के कई देशों में यह हो भी रहा है। मुस्लिम महिलाओं के बुर्के के खिलाफ फ्रांस और कुछ दूसरी जगहों पर जिस तरह के कानून बन रहे हैं उन्हें मुस्लिम अपने धार्मिक अधिकारों के खिलाफ मान रहे हैं और दूसरे लोग उसे अपने देश की संस्कृति के खिलाफ मान रहे हैं। तो ऐसे टकराव इंटरनेट के बिना भी चलते हैं जहां पर कि लोगों के चेहरे हैं, उनकी शिनाख्त है।
भारत के मौजूदा हाल में हमें कुछ बहुत ही खतरनाक किस्म की साम्प्रदायिक या आतंकी बातों के अलावा, इंटरनेट पर अधिक रोक-थाम की गुंजाइश इसलिए नहीं दिखती क्योंकि इस बात पर मतभेद बने रहेगा कि क्या आपत्तिजनक है, और क्या नहीं। लेकिन भारत की सरकार ने और एक अदालत ने यह बात इंटरनेट कंपनियों से कही है, और अब करोड़ों लोग उत्सुकता से यह देख रहे हैं कि आपत्तिजनक और अभिव्यक्ति की कौन सी परिभाषाएं लागू होती हैं। दुनिया का अब तक का अनुभव तो यह रहा है कि कुछ बहुत हिंसक, बहुत आतंकी और बच्चों के सेक्स-शोषण जैसे जाहिर तौर पर पहचाने जा सकने जुर्म तो एजेंसियों के घेरे में आ जाते हैं लेकिन छोटी-मोटी गाली-गलौज और छोटा-मोटा चरित्र हनन रोकने के लायक माना नहीं जाता। लायक न मानने के यहां पर हमारे दो मतलब हैं, एक तो यह कि उन्हें इतनी अहमियत नहीं दी जाती कि उसे रोकने की कोशिश हो, दूसरी बात यह कि उसे रोकना कानूनी-तकनीकी रूप से मुमकिन ही न हो।
भारत में जो लोग आज अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मजा लेना चाह रहे हैं, ले रहे हैं उन्हें याद रखना चाहिए कि हजार बरस पहले हिन्दुओं की बनाई नग्न प्रतिमाओं की तरह की कुछ पेंटिंग्स बनाने की वजह से मकबूल फिदा हुसैन को इस किस्म के इतने कानूनी मुकदमे झेलने पड़े कि बची जिंदगी सैकड़ों अदालतों में फेरे लगाने के बजाय उन्होंने इस देश को ही छोड़ देना बेहतर समझा। उन्हें तो दुनिया के कई देशों में जगह मिल गई, लेकिन बाकी लोगों की कही छोटी-छोटी बातों पर भी अगर उन्हें अदालतों में इस तरह खड़ा कर दिया जाएगा तो वे कैसे जिंदा रह पाएंगे? और यह काम बहुत मुश्किल भी नहीं है। अपनी धार्मिक भावना को ठेस पहुंचने के तर्क के साथ ही लोग अगर देश भर की हर जिला अदालत में किसी एक के खिलाफ मामले दर्ज करेंगे तो अब कोई कितने जिलों में हर पेशी पर जा पाएगा? हम किसी भी नए कानून के बनाए जाने के पहले मौजूदा कानूनों पर अमल की नाकामयाबी पर सोच-विचार बेहतर समझते हैं। बहुत से ऐसे मामले रहते हैं जिनमें आज के कानून का इस्तेमाल न कर पाने वाले नालायक लोग नए कानूनों को बनाने की बात करते हैं ताकि उनकी आज की कमजोरियां, आज के कानून की कमजोरियां साबित की जा सकें।
इंटरनेट पर लोगों की लिखने की आजादी अब एक ऐसी हकीकत है जो वापिस नहीं जा सकती। एक संभावना ने जन्म जब ले लिया, तो फिर उसे मां के पेट में डाला नहीं जा सकता। अब वह कितनी अच्छी है और कितनी बुरी, उसके साथ किस तरह का बर्ताव किया जाए और कैसे निपटा जाए, यही बात हो सकती है और सच तो यह है कि आज इंटरनेट बिना किसी मां-बाप के, बिना किसी पालने वाले के, अपने आप पलने वाला माध्यम बन चुका है और उस पर नामुमकिन रोक-टोक की कोशिश भारत की आज की सरकार को ऐसा बताती है मानो उसके पास लुकाने-छुपाने को बहुत कुछ है।
हमारा यह मानना है कि इंटरनेट पर हमले उन्हीं लोगों पर होते हैं जो जिंदगी में कुछ बने हुए हैं। ऐसे लोग वहां पर झूठ का पर्दाफाश कर सकते हैं बजाय अदालतों के। लेकिन कुछ मामलों में अगर बदनीयत हमलावर, कानून तोड़ते हुए कुछ लिखते हैं, तो वे अपनी मुसीबत का सामान खड़ा कर रहे हैं। अधिकार और जिम्मेदारी को मिला-जुलाकर ही देखा जा सकता है और ऐसा कुछ भी करते हुए हुसैन को याद रखना चाहिए जो अपने वतन लौटने के बजाय परदेस में ही गुजर गए, हिंदुस्तानी जेल के बजाय। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
सोशल मीडिया पर एक लाइन अभी पढऩे मिली कि एक दुख भरी शादी के मुकाबले बिना दुख वाला तलाक बेहतर होता है। बात एकदम खरी है और उन देशों या समाजों के लिए इसकी अधिक अहमियत है जहां पर तलाक को एक बदनाम शब्द माना जाता है। हम यहां पर ऐसे समाज के तलाक की चर्चा नहीं कर रहे जहां मर्दों को ही इसका आसान हक हासिल और औरतों को यह हक मानो मिला हुआ नहीं है, तमाम लोगों की बात कर रहे हैं, जहां पर तलाक देना दोनों के ही हक की बात होती है. वहां पर एक तकलीफ और यातना भरी हुई शादीशुदा जिंदगी को ढोने के बजाय उससे आजाद होकर अकेले होना और फिर आगे की अपनी जिंदगी को खुद तय करना किस तरह बेहतर होता है इसे समझने की जरूरत है।
हिंदुस्तान के बहुत बड़े हिस्से में जब शादी के बाद लडक़ी को घर से विदा किया जाता है तो उसे रवानगी के तोहफे की शक्ल में एक नसीहत दी जाती है कि डोली मां-बाप के घर से उठ रही है, अब अर्थी ससुराल से उठना चाहिए। इसे एक अच्छी महिला होने का पैमाना माना जाता है कि वह ससुराल में मर-खप जाए, तकलीफ की जिंदगी गुजार ले, या तनाव को बर्दाश्त कर ले, लेकिन उसे छोडक़र कभी ना निकले। बहुत से भाई इस बात के हिमायती अधिक दूर तक होंगे कि लडक़ी लौटकर मां बाप के घर कभी ना आए क्योंकि मां-बाप तो अपना वक्त गुजार कर रवानगी डाल देंगे, और उसके बाद लौटी हुई बहन भाइयों की ही जिम्मेदारी रह जाएगी। उसके बाद उस बहन के अगर बच्चे हुए तो उनकी भी जिम्मेदारी भाइयों के परिवार पर आएगी, और कानून की अगर बात करें तो लडक़ी मां-बाप की दौलत में बराबरी की हकदार भी होती है, इसलिए भी हो सकता है कि भाइयों में बहन के लौटने के नाम से ही दहशत होने लगे। ऐसे में हिंदुस्तान के अधिकतर समाज में लडक़ी से ससुराल की ज्यादतियां बर्दाश्त करने की उम्मीद की जाती है। चाहे वह यातना झेलते-झेलते मानसिक रोगी ही क्यों न हो जाये, वह खुदकुशी ही क्यों न कर ले, या उसकी दहेज हत्या ही क्यों ना हो जाए. आमतौर पर लडक़ी के मां-बाप, उसके भाई इसी कोशिश में लगे रहते हैं कि वह किसी तरह ससुराल में एडजस्ट हो जाए, वहां उसका तालमेल बैठ जाए।
लेकिन जब हम अपने आसपास के लोगों को देखते हैं और एक नजरी सर्वे सा करते हैं कि कौन सी लड़कियां ऐसी हैं जो तनाव को बाकी जिंदगी झेलने के बजाय, एक सीमा तक झेलने के बाद ससुराल और शादी के बंधन से निकलने की हिम्मत जुटा पाती हैं? ऐसा सोचने पर आसपास दिखता यह है कि या तो बहुत संपन्न परिवारों की ऐसी लड़कियां जिनके मां-बाप, भाई उनके साथ में खड़े हुए हैं, वे बाहर निकलने का हौसला जुटा पाती हैं, या फिर मजदूर तबके की ऐसी महिलाएं जिन्हें घर लौटने के बाद में एक कोठरी में अपनी कमाई पर जीने की हिम्मत रहती है, वह भी शादी को तोडक़र बाहर निकलने की हिम्मत दिखा पाती हैं। लेकिन इनसे परे तलाक के मामलों में बाकी महिलाओं का हौसला कुछ कम दिखाई पड़ता है, और केवल वही महिलाएं तलाक का हौसला कर पाती हैं, जो आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर रहती हैं. यह निष्कर्ष किसी सर्वे पर आधारित नहीं है केवल आसपास के मामलों को देखते हुए ऐसा लगता है कि आर्थिक रूप से संपन्न महिला यातना के सिलसिले को तोडऩे का हौसला जुटा पाती है। इसलिए यह बात बहुत मायने रखती है कि शादी के पहले ही हर लडक़ी को आर्थिक रूप से सक्षम और आत्मनिर्भर बनाने की कोशिश की जाए ताकि उसके मायके के लोग अगर उसका साथ न भी दें तो भी वह अपने दम पर जिंदा रह सके।
अपने दम पर जिंदा रह सके यह बात तो सोचने का मतलब किसी कोने से भी यह सुझाना नहीं है कि शादी के बाद लडक़ी को उसके मायके की संपत्ति में हिस्सा ना मिले या तलाक के बाद उसके पति और ससुराल से उसे बराबरी की एक जिंदगी जीने का इंतजाम ना मिले। हम इन दोनों इंतजामों के साथ-साथ यह बात सुझाना चाहते हैं कि हर लडक़ी को आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाना उसके परिवार और समाज इन दोनों के लिए भी जरूरी है। मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ जैसी सरकारें जो कि गरीब लड़कियों की शादी में सरकार की तरफ से समारोह का इंतजाम करती हैं, और घर बसाने के लिए कुछ सामानों का तोहफा भी देती हैं, उन्हें ऐसे लुभावने रस्म-रिवाज का जिम्मा उठाने के बजाय महिलाओं की आत्मनिर्भरता के बारे में कुछ अधिक सोचना चाहिए, और करना चाहिए। सोचने की जरूरत है कि किसी वजह से कोई लडक़ी या महिला अकेले रह जाए, तो उसकी आर्थिक आत्मनिर्भरता के लिए सरकार क्या कर सकती है?
हिंदुस्तान के ही केरल जैसे प्रदेश को देखें तो वहां ना केवल पढ़ाई-लिखाई बल्कि कई किस्म की पेशेवर ट्रेनिंग का ऐसा इंतजाम है कि केरल के कोई भी व्यक्ति बेरोजगार नहीं रह जाते। पूरे हिंदुस्तान में मेडिकल ढांचे में जितने किस्म के तकनीकी काम रहते हैं, उनमें केरल से निकले हुए लोग बड़ी संख्या में दिखते हैं। उनके अलावा अंग्रेजी का डिक्टेशन लेने या अंग्रेजी टाइप करने जैसे कामों के लिए भी केरल के लोग बहुत दिखते हैं। फिर बड़ी-बड़ी मशीनों को चलाने में दिखते हैं, उनकी मरम्मत में दिखते हैं। जहां पर पढ़ाई-लिखाई के साथ-साथ हुनर सिखाने का इंतजाम भी होता है, वहां सभी लोग आत्मनिर्भर हो जाते हैं। हमारा यह मानना है कि एक आत्मनिर्भर समाज ही आत्मसम्मान से भरा हुआ समाज हो सकता है, और ऐसा ही समाज यातनामुक्त भी हो सकता है, क्योंकि वहां लोग मजबूरी के संबंधों को ढोने के बजाय बाहर निकलकर अपने दम पर जीने की एक संभावना तो देखते ही हैं।
हिंदुस्तान में शादी को लेकर जितने किस्म का पाखंड प्रचलन में है, वह बताता है कि कन्या का दान किया जाता है। हिंदू शादी में इस्तेमाल होने वाला यह शब्द मानो लडक़ी का दर्जा जिंदगी भर के लिए तय कर देता है कि वह दान में दी जाने वाली एक चीज है। और जिसे दान में कोई सामान मिलता है, उसे उस सामान का अधिक महत्व तो कभी समझ में आता भी नहीं है। इसके साथ-साथ हिंदू समाज में पति के जितने प्रतीकों को सुहाग के प्रतीकों के नाम पर एक महिला पर लाद दिया जाता है, उससे भी वह एक आश्रित का दर्जा पा लेती है, और उसका आत्मविश्वास, उसकी आत्मनिर्भरता इन सब को अच्छी तरह कुचल दिया जाता है। फिर समाज की मान्यताएं भी रहती हैं कि औरत के सुहागिन होकर मरने को उसकी किस्मत की बात माना जाता है। मतलब यह कि औरत अपने पति की मरते तक सेवा करें और उसके मरने के साथ ही उसके प्रतीकों को उतार हिंदुस्तान में शादी को लेकर जितने किस्म का पाखंड प्रचलन में है कामा वह बताता है की कन्या का दान किया जाता है। हिंदू शादी में इस्तेमाल होने वाला यह शब्द मानव लडक़ी का दर्जा जिंदगी भर के लिए तय कर देता है कि वह दान में दी जाने वाली एक चीज है। और जिसे दान में कोई सामान मिलता है उसे उस सामान का अधिक महत्व तो कभी समझ में आता भी नहीं है। इसके साथ साथ हिंदू समाज में पति के जितने प्रतीकों को सुहाग के प्रतीकों के नाम पर एक महिला पर ला दिया जाता है उससे भी वह एक आश्रित का दर्जा पा लेती है और उसका आत्मविश्वास उसकी आत्मनिर्भरता इन सब को अच्छी तरह कुचल दिया जाता है। फिर समाज की मान्यताएं सी रहती हैं की औरत के सुहागिन होकर मरने को उसकी किस्मत की बात मानी जाती है। मतलब यह की औरत अपने पति कि मरते तक सेवा करें और उसके मरने के साथ है ही उसके प्रतीकों को उतार दे, तोड़ दे, और पोंछ दे।
एक महिला के दिमाग में यह बैठा दिया जाता है कि शादी सात जन्मों का संबंध रहता है। इसलिए वह एक जन्म के बाद भी इस बंधन से आजाद होने की नहीं सोच पाती। ऐसी मानसिकता के बीच जरा भी हैरानी की बात नहीं रहती कि कोई महिला पूरी जिंदगी शादीशुदा जिंदगी की यातनाओं को ढोते हुए मर-खप जाती है, और शायद ही कभी अपने मां-बाप के घर पर दोबारा अपना हक पाने के लिए लौट पाती है। आर्थिक आत्मनिर्भरता से परे एक लडक़ी के सामाजिक और पारिवारिक का हक पर भी खुलकर बात होनी चाहिए और इस सोच को जगह-जगह कुचलना चाहिए कि मां-बाप के घर से बस डोली ही निकलती है, और अर्थी तो ससुराल से ही निकलेगी।
हिंदुस्तान के कानून में लडक़ी को मां-बाप की दौलत पर बराबरी का हक दिया गया है, और शादी के खर्च या दहेज को इस हक का विकल्प मान लेना नाजायज बात तो होगी। यह समझने की जरूरत है कि समाज में प्रचलित इस धारणा को भी जगह-जगह धिक्कारना चाहिए कि दहेज के साथ लडक़ी का हक देना पूरा हो जाता है। मां-बाप लडक़ी की शादी पर खर्च अपनी शान शौकत के लिए करते हैं। और दहेज लेना-देना तो वैसे भी जुर्म के दर्जे में आता है और इस सिलसिले को खत्म करना जरूरी है। कोरोना और लॉकडाउन के पूरे दौर में शादियों में 25-50 लोगों का ही बंधन रहा, और वैसे में भी लोगों ने शादियां कर दीं, समारोह कर दिए।
इसलिए अब एक कानून बनाकर प्रदेश सरकारों को भी अतिथि नियंत्रण लागू करना चाहिए ताकि लड़कियों के मां-बाप पर दिखावे की शान-शौकत का जलसा करने का बोझ भी ना रहे। ऐसा करके कानून एक ऐसा माहौल खड़ा करने में मदद कर सकता है जिसमें लड़कियों के नाम पर खर्च दिखाने के लिए शानशौकत की दावत दर्ज कर ली जाए, जिनसे उस लडक़ी को अपनी किसी मुसीबत के वक्त कोई मदद तो मिलती नहीं है। इसलिए लडक़ी के हक और उसकी आत्मनिर्भरता के मुद्दे पर समाज में व्यापक चर्चा जरूरी है, अलग-अलग कई मंचों पर इस मुद्दे पर बात होनी चाहिए, और ऐसी बात जब अधिक होती है तो वह नीचे तक भी उतरती है. सामाजिक मंचों को ऐसी बहस छेडऩी चाहिए ताकि लोगों के दिल-दिमाग में बैठे हुए पुराने ख्यालात निकल भी सकें, और नई कानूनी बातें घुस भी सकें।
हिंदुस्तान जैसे समाज में लडक़ी और महिला की आर्थिक आत्मनिर्भरता को उनके बुनियादी मानवाधिकार मानना चाहिए। और उनकी ऐसी आत्मनिर्भरता उनके बच्चों की परवरिश के लिए भी एक बेहतर नौबत रहती है, जब बच्चे रिश्तेदारों से किसी मदद के मोहताज नहीं रहते, और अपनी मां की कमाई पर अच्छे से जिंदा रह सकते हैं. ऐसा समाज ही एक बेहतर समाज भी बन सकता है जिसमें एक महिला आर्थिक रूप से पूरी तरह आत्मनिर्भर हो, और आत्मविश्वास से भरी हुई हो।
बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के दिल्ली प्रवास की खबर से राजनीति में गर्मी आ गई है कि क्या वे अगले चुनाव को लेकर अपने आपको एक सर्वमान्य विपक्षी नेता के रूप में स्थापित करने की कोशिश कर रही हैं? और ऐसी अटकलबाजी के पीछे, अभी हाल में ही तृणमूल कांग्रेस के शहीदी दिवस की रैली में ममता बनर्जी ने सार्वजनिक रूप से गैर एनडीए विपक्षी दलों को एक होने का आह्वान किया था और कहा था कि अब कुल ढाई-तीन बरस बाकी हैं, और लोग अगर भाजपा को हटाना चाहते हैं तो उन्हें गठबंधन बनाकर साथ में काम करना चाहिए। ममता बनर्जी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पार्टी पर हमला करते हुए कहा था कि यह सरकार देश में एक निगरानी राज बनाना चाह रही है। यह बात पेगासस नाम के निगरानी सॉफ्टवेयर को लेकर उन्होंने कही, और निगरानी की ऐसी बातें भाजपा के कुछ बंगाल के नेता भी पिछले दिनों कह गए हैं, जिसमें एक नेता ने सार्वजनिक रूप से एक पुलिस अधीक्षक को धमकी दी कि वह किससे बात करते हैं उसके पूरे कॉल डिटेल्स उनके पास मौजूद हैं, और वह आईपीएस अफसर हैं, और क्या वह कश्मीर तबादला चाहते हैं? बंगाल के बहुत से नेताओं के साथ दिक्कत यह है कि वे जुबानी हमले करते हुए यह नहीं समझ पाते कि उनकी कही हुई बातें कैसे उनके ही लिए आत्मघाती साबित होंगी, क्योंकि ऐसी सार्वजनिक धमकी देकर इस नेता ने खुद ही को एक पुलिस जांच में उलझा लिया है। खैर हम यहां पर बंगाल की राजनीति पर अधिक बात करना नहीं चाहते क्योंकि हम राष्ट्रीय स्तर पर ममता की संभावनाओं पर बात करना चाहते हैं, और राष्ट्रीय स्तर पर ममता से परे की संभावनाओं पर भी।
दरअसल कुछ दिन पहले जब ममता बनर्जी के विधानसभा चुनाव तक के रणनीतिकार प्रशांत किशोर मुंबई जाकर दो बार शरद पवार से मिले, और उसके बाद दिल्ली आकर 10 जनपथ में उन्होंने जिस तरह से सोनिया, राहुल, और प्रियंका, इन सबसे मुलाकात की, उससे भी ये अटकलें आगे बढ़ीं कि क्या वे भाजपा के खिलाफ देश में कई पार्टियों के मोर्चे के लिए कोशिश कर रहे हैं? और सच तो यही है कि आज जब कभी इस देश में लोग मोदी सरकार से थककर, या नाराज होकर, उसे हटाने के बारे में बात करते हैं, तो पहला सवाल यही खड़ा होता है कि मोदी का विकल्प कौन है? भारत की राजनीति में इसे टीना फैक्टर कहते हैं, टीना का मतलब देयर इज नो अल्टरनेटिव। अब बात एक किस्म से सही भी है कि मोदी ने पिछले करीब 10 बरस में अपने आपको इस देश का ‘एक सबसे बड़ा’ नेता साबित करते हुए, अपने आपको ‘सबसे बड़ा नेता’ स्थापित कर दिया है। हम इसे इतिहास में मोदी की जगह नहीं बता रहे हैं, बल्कि आज की भारतीय चुनावी राजनीति में मोदी की स्थिति को बयान कर रहे हैं।
मोदी के बारे में उनके आलोचक भी जब मूल्यांकन करने बैठते हैं, और इतिहास में मूल्यांकन नहीं, आने वाले अगले आम चुनाव में उनकी चुनावी संभावनाओं के मूल्यांकन में, तो उन्हें भी लगता है कि मोदी जैसा कोई नहीं। उनमें से कुछ लोग लिखते भी हैं कि मोदी को खुद मोदी ही हरा सकते हैं। लेकिन सवाल यह उठता है कि जनसंघ से लेकर भाजपा के इतिहास तक के सबसे बड़े नेता रहे अटल बिहारी वाजपेई ने मोदी की गुजरात सरकार को राजधर्म का पालन न करने वाली सरकार माना था, उसके बाद भी मोदी पार्टी के भीतर के मोर्चे पर जीते, और उसके बाद गुजरात में उन्होंने दो-दो चुनाव जीते। इसलिए मोदी को लेकर जल्दी में कोई मूल्यांकन करना गलत होगा क्योंकि हिंदुस्तान के इतिहास में ऐसा कोई दूसरा नेता नहीं हुआ है जिसने चुनाव जीतने की मशीन चलाने में ऐसी महारत हासिल की हो। बल्कि यह मशीन भी मोदी की ही बनाई हुई है, जो जानते हैं कि किस तरह भारत में मतदान के दिन भारत के चुनाव आयोग की नजरों और उसके काबू से परे जाकर नेपाल और बांग्लादेश में दिन भर मंदिरों का दौरा करके भी टीवी स्क्रीन के मार्फत हिंदुस्तान में चुनाव प्रचार किया जा सकता है। इसलिए यह बात अपने आपमें सही है कि चुनाव प्रचार के मामले में मोदी जैसा अब तक न कोई था, और न आज कोई है।
जब मोदी के विकल्प के बारे में सोचा जाए तो जो चेहरे सामने दिखते हैं वहीं से बात हो सकती है, ममता बनर्जी ने जिस अंदाज में बंगाल का चुनाव लड़ा और मोदी और शाह की टीम को बुरी शिकस्त दी, उनके सारे दावों को गलत साबित किया, उनकी सारी मेहनत पर पानी फेर दिया, तो बंगाल के चुनावी नतीजे आने के साथ-साथ ममता की राष्ट्रीय संभावनाओं के बारे में भी चर्चा शुरू होनी थी। वह चर्चा श्रद्धांजलि और अभिनंदन के मंचों से की जाने वाले विशेषण से भरी चर्चा की हद तक तो शुरू हुई, लेकिन फिर लोगों को शायद उसमें कोई दम नहीं दिखा। ममता बनर्जी जिस तरह बंगाल की राजनीति में कांग्रेस और वामपंथियों दोनों को बुलडोजर से कुचल चुकी हैं, उसके बाद सवाल यह भी उठता है कि ये दोनों पार्टियां राष्ट्रीय स्तर पर ममता बनर्जी को कितना बड़ा नेता बनाना चाहेंगी? और फिर वामपंथी तो ऐसे हैं जिनके पास केरल, बंगाल और त्रिपुरा जैसे गिने-चुने तीन राज्य ही थे, और अगर वामपंथियों की कोई संभावना केरल के बाद बचेगी तो हो सकता है कि उसमें बंगाल को वे गिनकर चल रहे हों, इसलिए राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा का विरोध करने के लिए भी वामपंथी ममता बनर्जी के साथ किसी एक गठबंधन में आएंगे ऐसा मुमकिन नहीं दिखता है।
दूसरी तरफ राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के मुखिया शरद पवार जाहिर तौर पर देश के सबसे बुजुर्ग, और शायद सबसे वरिष्ठ भी, गैर भाजपाई, गैर एनडीए नेता हैं, और उनके बारे में भी ऐसी चर्चा चलती है कि वे मोदी के मुकाबले एक गठबंधन के मुखिया हो सकते हैं। लेकिन मतदाताओं के दिल को रिझाने वाली बातों को देखें तो शरद पवार के साथ भी दिक्कत यह है कि महाराष्ट्र और दिल्ली से परे आम जनता में उनका असर सीमित है। वे ममता के मुकाबले कुछ बेहतर हिंदी भाषी जरूर हैं, लेकिन हिंदी भाषण देना उनकी खूबी में कहीं नहीं है। यही दिक्कत ममता बनर्जी के साथ भी है। इसलिए मोदी के तेजाबी और जलते-सुलगते चुनावी भाषणों के मुकाबले ये दोनों नेता किसी किनारे भी नहीं टिक पाएंगे, इस बात को भूलना नहीं चाहिए।
अब बहुत से लोगों को यह लगता है कि भाजपा के अलावा कांग्रेसी एक ऐसी पार्टी है जो आज की अपनी दुर्गति में भी देश में सबसे अधिक फैली हुई पार्टी है, जिसका हर प्रदेश में अस्तित्व अभी भी बाकी है। हो सकता है कि बंगाल की तरह और राज्य भी हों जहां पर कांग्रेस का कोई भी विधायक न बचा हो, लेकिन उससे पार्टी संगठन खत्म नहीं हो पाया है और कांग्रेस एक पार्टी के रूप में अभी भी बची हुई है। कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में आज जो अनिश्चितता बनी हुई है, वह कांग्रेस की संभावनाओं पर भारी पड़ रही है। राहुल गांधी में जो लोग मोदी के मुकाबले एक चेहरा देखते हैं, उनको यह समझने में दिक्कत होती है कि अभी तो राहुल गांधी के अगला कांग्रेस अध्यक्ष बनने का भी ठिकाना नहीं है, और हो सकता है कि कांग्रेस के जो दो दर्जन बड़े नेता बागी तेवरों के साथ संगठन चुनाव की मांग कर रहे थे, उनमें से बहुत से लोग राहुल गांधी की फिर से अगुवाई के हिमायती ना हों। ऐसी हालत में राष्ट्रीय स्तर पर यूपीए जैसे किसी गठबंधन का नेता बनने के पहले कांग्रेस के भीतर कांग्रेस का नेता तय होने की जरूरत रहेगी। इसलिए राहुल गांधी के बारे में मोदी के मुकाबले किसी संभावना को देखना उसी वक्त हो पाएगा जिस वक्त कांग्रेस के भीतर उनकी संभावनाएं औपचारिक रूप से तय और घोषित हो जाएं।
देश की जिन पार्टियों को मोदी के विकल्प के रूप में एक गठबंधन या एक नेता को तय करने के लिए अभी सही समय लग रहा है, उनकी सोच गलत नहीं है। लेकिन हिंदुस्तान के इतिहास में ऐसा पहले भी हो चुका है जब पहले एक गठबंधन बना हो उसने चुनाव जीता हो, चुनाव मुद्दों पर लड़ा और जीता गया हो, चुनाव तानाशाही के खिलाफ लड़ा गया हो और जीता गया हो, चुनाव सेंसरशिप या मनमानी या जुल्म के खिलाफ लडक़र जीता गया हो, और प्रधानमंत्री उसके बाद तय किया गया हो। हिंदुस्तान की राजनीति में चार से ज्यादा प्रधानमंत्री ऐसे हुए हैं जिनके प्रधानमंत्री बनने के ठीक पहले तक कोई उनके बारे में अंदाज नहीं लगा सकते थे कि वे प्रधानमंत्री बनेंगे। चंद्रशेखर, इंद्र कुमार गुजराल, देवेगौड़ा, नरसिंह राव, और मनमोहन सिंह। अपने वक्त में इन सभी की संभावनाएं कभी ऐसी मजबूत नहीं थीं कि इनकी अगुवाई में कोई चुनाव लडक़र, इनके चेहरे को प्रधानमंत्री के रूप में पेश करके, कोई चुनाव जीता जा सकता था। लेकिन वक्त ऐसा आया कि इनमें से हर कोई प्रधानमंत्री बने, और मनमोहन सिंह तो दो-दो बार प्रधानमंत्री बने।
इसलिए हम आज राष्ट्रीय स्तर पर मोदी के मुकाबले किसी चेहरे के तय होने को लेकर बहुत निराश नहीं हैं, और न ही हमें ममता बनर्जी की कोशिश या उनकी तरफ से प्रशांत किशोर की कोशिश अपरिपच् लग रही है कि अभी उसका समय नहीं आया है। ना सिर्फ अगला चुनाव लडऩे के लिए या कि प्रधानमंत्री बनने के लिए ऐसा गठबंधन होना चाहिए, बल्कि आज देश के सामने जो बहुत से खतरे खड़े हुए हैं, उनसे जूझने के लिए भी ऐसे गठबंधन की जरूरत है, और हो सकता है कि ऐसा कोई औपचारिक गठबंधन न भी बने लेकिन गैरभाजपा गैरएनडीए पार्टियों के बीच एक व्यापक तालमेल बनकर बात आगे बढ़ सके। ऐसे किसी तालमेल की जरूरत आने वाले उत्तर प्रदेश के चुनाव में भी गैरभाजपाई दलों को पड़ सकती है जहाँ अभी तक के माहौल में ऐसे किसी तालमेल की कोई संभावना नहीं दिख रही है। इसलिए ममता बनर्जी या शरद पवार की पहल हो सकता है भारतीय लोकतंत्र में एक मजबूत मोर्चे के रूप में मुद्दों को लेकर अगले ढाई बरस लडऩे के काम आए, और उसके बाद के चुनाव में काम आए या ना आए यह एक अलग बात रहेगी। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
सोशल मीडिया पर हर दिन कई समझदार दिखते लोगों का लिखा हुआ पढऩे मिलता है जिसमें इंसान की घटिया हरकतों, इंसान के तरह-तरह के जुर्म में इनको कोसने के लिए जानवरों का इस्तेमाल किया जाता है। कहीं भेड़ की खाल ओढ़े हुए भेडि़ए का जिक्र होता है, तो कहीं आस्तीन के सांप का, तो कहीं रंगे सियार की बात होती है, तो कहीं घडिय़ाल के आंसुओं की। जानवरों के बारे में बड़ी मामूली सी जानकारी रखने वाले भी इस बात को जानते हैं कि इंसान अपनी खुद की कमीनगी को जानवरों की कुछ एक काल्पनिक खामियों के साथ जोडक़र मानो अपने पर लगी तोहमत को घटाना चाहते हैं।
अब इंसानों के किए हुए कामों को देखें तो लगता है कि जानवरों में भला कौन हैं जो ऐसे काम करते हैं? एक भी मिसाल जानवरों में ऐसी नहीं मिल सकती जो इंसानों की कमीनगी का मुकाबला कर सके। अब आज की एक खबर है कि उत्तर भारत के किसी एक गांव में एक बाप-बेटी खुले खेत में सेक्स कर रहे थे और लोगों ने घेरकर उनका वीडियो बनाया, उन्हें वहां से भगाया तो वह लोगों पर पथराव करने लगे। अब उनकी हिफाजत के लिए गांव में उनके घर के बाहर पुलिस तैनात की गई है वरना यह खतरा है कि गांव के लोग उन पर हमला कर सकते हैं। कल या परसों एक दूसरी खबर थी कि एक बेटे ने अपनी मां को मारकर उसकी किडनी और अंतडिय़ाँ बाहर निकाल लीं। अखबार में बैठे हुए यह भी समझ नहीं पड़ता कि इस तरह की हिंसा या इस तरह के जुर्म की कितनी खबरें छापी जाएं, उन खबरों में कितना खुलासा किया जाए। क्या उससे समाज को सावधान होने का मौका मिलेगा या इन खबरों का ही समाज पर बुरा असर पड़ेगा, यह तय करने में मुश्किल होने लगती है। जानवरों में कौन से ऐसे हैं जिनमें इस तरह की मिसालें मिल सकें?
इंसान कैसा-कैसा करते हैं, इसकी एक मिसाल कुछ सौ बरस पहले की अभी पढऩे मिली जब कोरोना से बचाव के लिए टीकों की खबर के साथ-साथ वैक्सीन के इतिहास पर भी छपा, और पढऩे मिला। इतिहास का ऐसा ही एक पन्ना 1803 के बरस का है जब दुनिया भर में स्मॉलपॉक्स बहुत बुरी तरह फैला हुआ था, और वह लोगों को बड़ी संख्या में मार भी रहा था, साथ-साथ उनके बदन पर गहरे दाग छोड़ रहा था, कई लोगों की आंखें खराब कर दे रहा था। वैसे में 1796 के आसपास एक ब्रिटिश डॉक्टर ने स्मालपॉक्स के संक्रमण से बचाव की एक तरकीब ढूंढी, और उसने यह पाया कि एक दूसरा संक्रमण कॉउपॉक्स ऐसा है जिससे संक्रमित लोगों को स्मालपॉक्स नहीं हो रहा था। उसने लोगों को स्मालपॉक्स संक्रमण से बचाने के लिए कॉउपॉक्स के वायरस देने शुरू किए, और ऐसे दुनिया की पहली वैक्सीन सामने आई।
इसका तरीका भी बड़ा आसान था, जिन लोगों को कॉउपॉक्स से संक्रमित किया जाता था, उनके बदन पर 9-10 दिनों में कुछ फोड़े हो जाते थे, और दूसरे लोगों के बदन में खरोंच लगाकर उन फोड़ों का पानी निकाल कर उन्हें छुआ दिया जाता था, तो वे लोग भी कॉउपॉक्स से संक्रमित हो जाते थे, लेकिन स्मालपॉक्स के संक्रमण से बच जाते थे जो कि जानलेवा और बहुत अधिक खतरनाक संक्रमण था।
अब इसमें दिक्कत यह आ रही थी कि संक्रमित लोगों के फोड़ों से निकलने वाला पानी बहुत दूर तक नहीं ले जाया जा सकता था। उसे कुछ सौ किलोमीटर ले जाते हुए भी उसका असर खत्म हो जाता था। ऐसे में यूरोप से अमेरिका अगर यह संक्रमण ले जाना हो ताकि अमेरिका में बुरी तरह फैले हुए स्मालपॉक्स का संक्रमण रोका जा सके, तो उसकी कोई तरकीब नहीं निकल रही थी। लेकिन जैसा कि आमतौर पर होता है विज्ञान का एक तकनीक से रिश्ता होता है इंसानियत से नहीं, इसलिए स्पेन के डॉक्टरों और वैज्ञानिकों ने एक तरीका निकाल लिया। यह अनोखा प्रयोग था लेकिन उन्होंने इस पर काम शुरू कर दिया।
1803 में स्पेन के राजा की इजाजत से वहां के दो दर्जन अनाथ बच्चों को छांटकर एक जहाज पर सवार किया गया। राजा की सोच जनकल्याणकारी थी इसलिए उसने इन बच्चों के खाने-पीने का और इनके रखरखाव का अच्छा इंतजाम किया। जहाज के रवाना होने के ठीक पहले डॉक्टरों ने इनमें से दो बच्चों के शरीर में कॉउपॉक्स का संक्रमण डाल दिया। समंदर में सफर के बीच नौ-दस दिनों में इन दो बच्चों की बाहों पर लगाए गए इस टीके के जख्म फोड़ों में तब्दील हो गए और जहाज पर तैनात डॉक्टरों ने इन्हें फोडक़र इसमें से पानी निकालकर दो दूसरे बच्चों की बाहों में खरोंच लगाकर उसमें इसका संक्रमण डाल दिया। अगले नौ-दस दिनों के बाद ये दो बच्चे अपने संक्रमित फोड़ों के साथ तैयार थे, और फिर यही सिलसिला तब तक चलते रहा जब तक जहाज अमेरिका नहीं पहुंच गया। अमेरिका पहुंचने पर सिर्फ आखिरी बच्चे की बाहों में एक फोड़े में पानी था, और डॉक्टरों ने जहाज से उतरते ही उससे संक्रमित पानी निकाल कर दूसरे बच्चों का टीकाकरण शुरू कर दिया जिन पर कि स्मालपॉक्स का खतरा दूसरी उम्र के लोगों के मुकाबले अधिक था। अब अगर देखा जाए कि ये अनाथ बच्चे बिना किसी की इजाजत के इस तरह से वैक्सीन खच्चर की तरह इस्तेमाल किए गए, और इनमें से कुछ बच्चे जहाज पर मर भी गए। तो आज वैक्सीन के कारखानों से निकलकर फ्रीजर जैसी गाडिय़ों में लदकर वैक्सीन दूर-दूर तक जाती है, और एक वक्त यह काम इन अनाथ बच्चों से करवाया गया जिन्होंने इन वैक्सीन को अपने बदन में ढोया, और अपनी जिंदगी की कुर्बानी दी।
जो लोग बात-बात पर इंसान की खामियों के लिए जानवरों की मिसालें ढूंढ लेते हैं, उन लोगों को चाहिए कि इंसान की इस कमीनगी के टक्कर की कोई मिसाल जानवरों में ढूंढकर बताएं। पंछी भी हजारों किलोमीटर उडक़र कई देश पार करके हर बरस किसी एक देश पहुंचते हैं, और मौसम बदलने पर फिर वापस अपने देश आ जाते हैं, लेकिन न वे इंसानों की तरह किसी दूसरे जानवर की पीठ पर सवार होकर आते हैं, और न ही आते जाते हुए किसी दूसरे का हक का खाते हैं। इसलिए यह समझने की जरूरत है कि दुनिया के इतिहास में उसके हर दौर में इंसान जितने तरह के बुरे काम करते रहा है, उसकी कोई मिसाल इंसानों से परे कहीं देखने नहीं मिलेगी। दुनिया का इतिहास जुल्म से भरा हुआ है और हर जुल्म के लिए महज इंसान जिम्मेदार रहे हैं।
अपने आसपास के लोगों को कैदी बनाकर गुलाम बनाकर उन्हें बाजारों में नीलाम करना, उनसे जानवरों या मशीनों की तरह काम लेकर उन्हें खत्म कर देना, और उन्हें फेंक कर फिर से दूसरे गुलाम खरीद लेना ऐसे कितने ही काम बड़े आम तरीके से इंसान करते हैं।
अभी हाल के बरसों तक द्वितीय विश्व युद्ध के बाद तक जापान ने कई दूसरे देशों में अपनी फौज के लोगों के लिए वहां की स्थानीय लड़कियों और महिलाओं को रखकर चकलाघर बना दिए थे, और उनका मनचाहा शोषण करने के बाद सैनिक अपने देश लौट आए वहां पर अपनी एक अगली पीढ़ी छोडक़र। ऐसा ही अमेरिकी फौजियों ने वियतनाम में किया था, ऐसा ही तालिबान आज अफगानिस्तान में कर रहे हैं जहां वे विधवाओं और लड़कियों की लिस्ट बनाकर विधवाओं को अपने सैनिकों के हवाले कर रहे हैं ताकि वे उनका मनचाहा इस्तेमाल कर सकें। खूब बढ़-चढक़र जानवरों के खिलाफ लिखने वाले इंसानों को जानवरों में ऐसी कोई मिसाल ढूंढने की कोशिश करनी चाहिए और नाकामयाब होने पर कम से कम आगे जानवरों के खिलाफ अपनी हैवानियत नहीं दिखानी चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
जनसंख्या नियंत्रण हिंदुस्तान में हमेशा से एक बड़ा नाजुक मुद्दा रहा है और खासकर इमरजेंसी के दौरान देश की आबादी को काबू में लाने के लिए संजय गांधी की अगुवाई में इंदिरा सरकार ने जिस तरह की ज्यादतियां की थीं, उनसे हमेशा के लिए यह एक जुल्म की तरह देखा जाने लगा है। आज हालत यह है कि जनसंख्या नियंत्रण व परिवार नियोजन शब्द का इस्तेमाल भी समझदार सरकारें नहीं करती हैं। लेकिन अभी जनसंख्या नियंत्रण इसलिए चर्चा में है कि भाजपा की सरकारों वाले दो प्रदेशों में जनसंख्या पर काबू पाने के लिए कुछ नियम लागू करने की तैयारी चल रही है, इनमें से एक असम है जहां पर अभी-अभी भाजपा सरकार अपने दूसरे कार्यकाल में लौटी है और जिसके ऊपर चुनाव का कोई दबाव नहीं है। दूसरी तरफ उत्तर प्रदेश है जहां पर भाजपा सरकार अगले बरस चुनाव का सामना करने जा रही है और उसे एक खास राजनीतिक मकसद से अपना यह रुख दिखाना है कि वह बढ़ती हुई आबादी के खिलाफ है, और जनसंख्या को घटाने के लिए जो नियम वहां पर बनाए जा रहे हैं उन नियमों को लेकर हिंदू मतदाताओं के बीच एक धार्मिक ध्रुवीकरण की नीयत भी सरकार की दिख रही है।
इस मामले को लेकर भाजपा सरकारों के ऊपर यह साफ तोहमत लग रही है कि उसके निशाने पर मुस्लिम समुदाय है जिसमें बच्चों का अनुपात राष्ट्रीय अनुपात के मुकाबले कुछ अधिक रहता है. और फिर एक बात जो मुस्लिमों के खिलाफ राजनीतिक रूप से उठती है वह यह भी रहती है कि इस समाज में एक से अधिक शादियां कानूनी हैं और हर शादी में कई बच्चे पैदा हो सकते हैं. एक लुभावना सांप्रदायिक नारा मुस्लिमों के खिलाफ यह भी चलता है कि चार बीवी और 16 बच्चे इस रफ्तार से एक दिन हिंदुस्तान में मुस्लिम ही बहुसंख्यक रह जाएंगे। जबकि आंकड़ों की हकीकत इसके खिलाफ है और मुस्लिमों के भीतर भी बड़ी रफ्तार से आबादी के बढ़ने में गिरावट आ रही है, और ऐसे आसार दिख रहे हैं कि मुस्लिम समाज में आबादी बढ़ना धीरे-धीरे राष्ट्रीय अनुपात के बराबर पहुंच जाएगा। फिर भी जब धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण करना हो तो चार बीवियां और 16 बच्चे की एक संभावना या आशंका जताना एक लुभावना नारा बनता ही है।
उत्तर प्रदेश में एक शादीशुदा जोड़े के 2 बच्चों की नीति लागू करने पर बहस चल रही है और असम लागू कर चुका है। इसमें यह कहा गया है कि 2 बच्चों से अधिक बच्चे पैदा करने वाले जुड़े स्थानीय चुनावों के चुनावों में हिस्सा नहीं ले सकेंगे, यानी वे पंचायत और म्युनिसिपल के चुनाव नहीं लड़ सकेंगे। उत्तर प्रदेश देश का सबसे अधिक जनसंख्या वाला राज्य भी है, और इस राज्य में जनसंख्या बढ़ने की दर भी देश में सबसे अधिक 2 राज्यों में से एक है, पहले नंबर पर बिहार है जहां 3.3 फ़ीसदी की जनसंख्या बढ़ोतरी है और उत्तर प्रदेश में 2.9 की जनसंख्या बढ़ोतरी है। आज देश में राष्ट्रीय जनसंख्या बढ़ोतरी 2.2 है जो कि 1950 में 5.9 थी। कुछ और आंकड़ों को देखें तो वे आंकड़े यह बताते हैं कि 1970 से 1980 के बीच के दशक में हिंदुस्तान में जनसंख्या बढ़ोतरी 2.2 से बढ़कर 2.3 से भी अधिक हो चुकी थी और दशक के आखिर तक वहीं पर बनी रही थी। यही वह दौर था जब संजय गांधी ने अपने सारे आक्रामक तानाशाह तेवरों के साथ परिवार नियोजन कार्यक्रम लागू किया था और सड़कों पर पकड़-पकड़कर गैरशादीशुदा लोगों की भी नसें काट दी जा रही थीं। ऐसा माना जाता है कि इमरजेंसी के बाद कांग्रेस सरकार के खत्म होने और दफन होने के पीछे नसबंदी एक सबसे बड़ी वजह थी।
अब यह समझने की जरूरत है की उत्तर प्रदेश जिस अंदाज में यह जनसंख्या नियंत्रण विधेयक ला रहा है उसके तहत दो बच्चों तक सीमित रहने वाले सरकारी कर्मचारियों को 2 अतिरिक्त वेतन वृद्धि या मिलेंगी छुट्टियां अधिक मिलेंगी और पेंशन में बढ़ोतरी होगी। दो से ज्यादा बच्चे पैदा करने वाले लोग सरकार की कल्याणकारी योजनाओं से वंचित रह जाएंगे और किसी परिवार को रियायती राशन सिर्फ सिर्फ चार लोगों के लायक मिलेगा। दो बच्चों से अधिक के मां-बाप म्युनिसिपल और पंचायत चुनाव नहीं लड़ पाएंगे और ना ही सरकारी नौकरी के लिए आवेदन कर सकेंगे, ना ही उन्हें सरकारी सब्सिडी का फायदा मिल सकेगा। उत्तर प्रदेश सरकार इस नई व्यवस्था में यह भी कह रही है कि अगर कोई आम परिवार एक बच्चे की नीति अपनाकर नसबंदी करा लेंगे तो उन्हें एक बेटा होने के बाद एकमुश्त 80 हजार रुपये, और एक बेटी के बाद नसबंदी होने पर सीधे एक लाख रुपये की आर्थिक मदद होगी। असम का मामला भी कुछ इसी तरह का है वहां जनसंख्या बढ़ोतरी बहुत तेजी से तो नहीं हो रही है लेकिन राज्य के भाजपा मुख्यमंत्री हेमंत बिस्व शर्मा का कहना है कि राज्य के कुछ हिस्सों में जनसंख्या विस्फोट है और यह राज्य के विकास में बाधा हो सकता है।
अब अगर हम भाजपा की साख को 2 मिनट के लिए अलग रखें कि उसके बहुत सारे कार्यक्रम मुसलमानों को निशाने पर रखकर बनाए जाते हैं या हिंदुओं को फायदा देने के लिए बनाए जाते हैं, तो हमें इस बात को देखना होगा कि बढ़ती हुई आबादी से किसका फायदा हो रहा है? क्या उत्तर प्रदेश और असम के, या देश में सबसे अधिक तेज रफ्तार से आबादी बढ़ाने वाले बिहार के मुस्लिम समुदाय में अधिक बच्चे होने से कोई फायदा हो रहा है? मुस्लिमों के बीच पढ़ाई-लिखाई कम है, उनके अधिकतर लोग मिस्त्री-मैकेनिक जैसे छोटे काम में ही सीमित रह जाते हैं, ड्राइवर-कंडक्टर जैसे कम हुनर वाले काम तक उनकी संभावनाएं खत्म हो जाती हैं। मुस्लिम आबादी का कम अनुपात ही उच्च शिक्षा पाकर बेहतर रोजगार तक पहुंच पाता है। और यह बात महज मुस्लिमों तक सीमित नहीं है दूसरे लोगों पर भी लागू है कि अधिक बच्चे होने से उन्हें आज बेहतर शिक्षा देना नामुमकिन सा हो गया है. किसी भी पार्टी के राज वाले प्रदेश में सरकारी स्कूलों में पाई गई शिक्षा बच्चों को उच्च शिक्षा के बड़े मुकाबलों के लायक तैयार नहीं कर पाती हैं और महंगी निजी स्कूलों के बाद महंगे कोचिंग इंस्टीट्यूट से होकर ही बच्चे इन बड़े मुकाबलों के लायक अपने आपको पाते हैं। इस बात के खिलाफ कई किस्म के अपवाद गिनाए जा सकते हैं लेकिन हम अभी व्यापक आंकड़ों से निकाले गए निष्कर्ष के आधार पर यह कह सकते हैं कि किसी भी जात और धर्म के परिवारों में जितने अधिक बच्चे होते हैं उनके अच्छे पढ़ने की संभावना उतनी ही कम हो जाती है, उनके अच्छे खाने पीने की संभावना भी उतनी ही कम हो जाती है, उनके अच्छे रहन-सहन की संभावना भी उतनी ही कम हो जाती है। इसलिए परिवार में बच्चों की गिनती कम होना हर जाति और धर्म के लिए एक बेहतर नौबत है।
सवाल यह है कि अगर मुस्लिम समाज में अधिक बच्चों की अभी तक चली आ रही प्रथा पर असम या उत्तर प्रदेश के इन नए नियमों से कोई नया वार होने जा रहा है? यह समझने की जरूरत है कि यह वार है, या इन समुदायों के लिए फायदे की बात है? हम इन समुदायों को, खासकर मुस्लिम समुदाय को जब देखते हैं, तो यह साफ दिखाई पड़ता है कि एक मुस्लिम महिला की अपनी इच्छा की बहुत अधिक जगह मुस्लिम सामाजिक व्यवस्था के भीतर नहीं है, और एक मुस्लिम महिला से कितने बच्चे पैदा हों, इन्हें आमतौर पर उसके शौहर को ही तय करने दिया जाता है। ऐसे में यह नई व्यवस्था अगर मुस्लिम समाज के कुछ लोगों को कम बच्चे पैदा करने के लिए प्रेरित या मजबूर करती है, तो इससे कम से कम उतने परिवारों में मुस्लिम महिला की स्थिति भी बेहतर होगी, जो आज ना केवल अधिक बच्चे पैदा करने के लिए मजबूर है बल्कि अधिक बच्चों की देखभाल करने के लिए, उन्हें बड़े करने के लिए, और फिर उन बच्चों की बाकी जिंदगी फिक्र करने के लिए भी मजबूर हैं। आज चाहे मुस्लिम समाज में अधिक बच्चों को पैदा करने की आजादी इस नए कानून के तहत कुछ सीमित होने जा रही है, तो भी यह सोचने की जरूरत है कि यह सीमा किसके लिए नुकसानदेह है और किसके लिए फायदेमंद है?
अगर एक मुस्लिम का परिवार छोटा होगा तो उससे उसी का फायदा है, उसके बचे हुए पैसों से हिंदू समाज का कोई फायदा होने नहीं जा रहा है। अगर मुस्लिम समाज के किसी व्यक्ति को अधिक बच्चे पैदा करने में दिलचस्पी है, तो उसे पंच-सरपंच का चुनाव लड़ने नहीं मिलेगा, उसे वार्ड या महापौर का चुनाव लड़ने नहीं मिलेगा, उसे सरकारी नौकरी के लिए अर्जी देने नहीं मिलेगा, लेकिन उसके बच्चे पैदा करने पर कोई रोक नहीं है। उसे सीमित बच्चों के लिए लिए रियायती राशन मिलेगा लेकिन यह संख्या हिंदू परिवार के लिए भी लागू होगी जहां पर दो से अधिक बच्चे होने पर कोई हिंदू भी चुनाव नहीं लड़ सकेगा या किसी हिंदू परिवार को भी रियायत राशन 2 बच्चों से अधिक के लिए नहीं मिल सकेगा। आज ऐसे हिंदू परिवार भी कम नहीं हैं, जहां पर बेटे की चाह में चार-चार, पांच-पांच बेटियां हो जाती हैं और उसके बाद बुढ़ापे में जाकर एक बेटा नसीब हो पाता है। ऐसे हिंदू परिवार भी चुनाव लड़ने या रियायती राशन पाने के हक से वंचित रह जाएंगे। इसलिए उत्तर प्रदेश और असम के यह कानून जिन लोगों को मुस्लिम समाज को चोट पहुंचाने वाले लग रहे हैं उन्हें लगते रहे, हम तो इन्हें मुस्लिम समाज के फायदे के कानून मान रहे हैं कि परिवार का आकार सीमित रखकर वे अपने कम बच्चों को बेहतर शिक्षा दे सकते हैं, बेहतर खानपान दे सकते हैं, उनका इलाज करा सकते हैं और एक मुस्लिम महिला की हालत भी उससे बेहतर ही हो सकती है।
छत्तीसगढ़ जैसे राज्य ने भी पिछली भाजपा सरकार के दौरान यह व्यवस्था देखी हुई है कि जब पंच-सरपंचों के लिए 2 बच्चों की अनिवार्यता लागू की गई थी, और बहुत से ऐसे मामले हुए थे जिनमें तीसरा बच्चा पैदा होने के बाद पंच सरपंच की पात्रता खत्म कर दी जाती थी, उन्हें बर्खास्त कर दिया जाता था. बाद में भाजपा सरकार के चलते हुए ही विरोध की वजह से इस व्यवस्था को बदला गया था। हमने उस वक्त भी लगातार इस बात को लिखा था कि यह व्यवस्था कई मायनों में नाजायज है। इसलिए नाजायज थी कि इसे लागू करने वाले विधायकों ने इसे अपने ऊपर लागू नहीं किया था। इसे सिर्फ गांव के पंच-सरपंच पर लागू किया गया था मानो गांव में पढ़ने वाली आबादी सांसदों और विधायकों के रास्ते बढ़ने वाली आबादी से अधिक खतरनाक होती है।
खैर यह व्यवस्था खत्म हुई और आज उत्तर प्रदेश और असम में इसे लागू करने पर चर्चा हो रही है तो हम इस बात को साफ लिखना चाहते हैं कि यह व्यवस्था आज के बाद पैदा होने वाले बच्चों के परिवारों पर ही लागू होनी चाहिए, और अगर पहले से किन्हीं लोगों के दो से अधिक बच्चे हैं, तो उन पर यह व्यवस्था लागू नहीं होनी चाहिए। दूसरी बात यह व्यवस्था स्थानीय संस्थाओं के बजाय देश के हर किस्म के चुनाव पर लागू होनी चाहिए और 9 बच्चों के मां-बाप सांसद या विधायक क्यों बन सकें अगर उन्हें पंच सरपंच बनने के लिए अपात्र माना जा रहा है, या जैसा कि उत्तर प्रदेश में शहरी निकायों में भी चुनाव के लायक नहीं माना जा जा रहा है। हमारा मानना है कि ऐसी असमान व्यवस्था असंवैधानिक होगी और इसे संसद और विधानसभा तक लागू करना ही होगा। सांसद और विधायक को अधिक बच्चे पैदा करने का सुख या मनमर्जी देने का कोई लोकतांत्रिक कारण नहीं हो सकता, और यह व्यवस्था सभी के लिए खत्म होनी चाहिए।
हम खुद मुस्लिम समाज के हित के लिए यह बात चाहते हैं कि अगर वे अधिक बच्चे पैदा कर रहे हैं तो उन्हें अपने परिवार के आकार को सीमित रखने के लिए यह एक अच्छी वजह मिल रही है कि वह सरकारी नौकरी के हकदार बनने के लिए या किसी चुनाव को लड़ने के लिए अपने परिवार के आकार को सीमित रखें। जिन लोगों को किसी सरकारी रियायत की फिक्र नहीं है और जिन्हें अपने कितने भी बच्चों को पढ़ाने और उनका इलाज कराने की ताकत हासिल है, वह लोग जरूर जैसा चाहे वैसा कर सकते हैं, और उसके बाद उन्हें कोई शिकायत भी नहीं होनी चाहिए। चुनाव की पात्रता पंचायत से लेकर संसद तक तक तक सब जगह लागू हो, और जनकल्याण की कुछ गरीब केंद्रित योजनाओं के लिए बच्चों की संख्या को कोई सीमा न बनाया जाए। बाकी इस कानून में हमको कोई बुराई नहीं दिख रही है और यह कानून लागू किया जाना चाहिए। जिन लोगों को यह लगता है कि यह कानून मुस्लिम समाज पर एक हमला है और वह मुस्लिमों के हितैषी होने के नाते उनके हक के लिए इस कानून का विरोध करना चाहते हैं तो ऐसे लोगों के लिए हमारा यह मानना है कि यह लोग मुस्लिम समाज के विरोधी हैं और यह मुस्लिम समाज के नुकसान का ही काम कर रहे हैं अगर यह उसके लोगों को बच्चों की संख्या सीमित रखना नहीं समझा पा रहे हैं। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
बॉलीवुड अभिनेता आमिर खान और किरण राव ने तलाक लेने का फैसला किया है। दोनों ने एक साझा बयान जारी कर इसकी जानकारी दी-
‘‘इन 15 खूबसूरत वर्षों में हमने एक साथ जीवन भर के अनुभव, आनंद और हँसी साझा की है और हमारा रिश्ता केवल विश्वास, सम्मान और प्यार में बढ़ा है। अब हम अपने जीवन में एक नया अध्याय शुरू करना चाहेंगे- अब पति-पत्नी के रूप में नहीं बल्कि एक-दूसरे के लिए सह माता-पिता और परिवार के रूप में।
हमने कुछ समय पहले एक प्लांड सेपरेशन शुरू किया था और अब इस व्यवस्था को औपचारिक रूप देने में सहज महसूस कर रहे हैं। अलग-अलग रहने के बावजूद अपने जीवन को एक विस्तारित परिवार की तरह साझा करेंगे।
हम अपने बेटे आजाद के प्रति समर्पित माता-पिता हैं, जिनका पालन-पोषण हम मिलकर करेंगे। हम फिल्मों, पानी फाउंडेशन और अन्य परियोजनाओं पर भी सहयोगी के रूप में काम करना जारी रखेंगे, जिनके बारे में हम भावुक महसूस करते हैं।
हमारे रिश्ते में हुए इस विकास को लेकर मिले निरंतर सहयोग और समझ के लिए हमारे परिवारों और दोस्तों का बहुत-बहुत धन्यवाद जिनके बिना हम यह कदम लेने में इतने सुरक्षित महसूस नहीं करते।
हम अपने शुभचिंतकों से शुभकामनाएं और आशीर्वाद की उम्मीद करते हैं और आशा करते हैं कि हमारी तरह आप इस तलाक को अंत की तरह नहीं बल्कि एक नए सफऱ की शुरुआत के रूप में देखेंगे।
धन्यवाद और प्यार,
किरण और आमिर’’
फिल्म अभिनेता आमिर खान और उनकी पत्नी किरण राव ने शादी का यह रिश्ता खत्म करने की घोषणा की तो घोषणा की बातों से लोग हैरान हुए, और कुछ लोगों ने इस बारे में कई गंभीर बातें भी लिखीं। एक अखबारनवीस ने सोशल मीडिया पर सवाल किया कि इस बयान में लिखा गया है कि यह रिश्ता केवल विश्वास, सम्मान, और प्यार में बढा है, तो यह कैसे बढ़ा है जब यह तलाक तक पहुंच गया है? पहली नजर में यह सवाल बड़ा जायज लगता है क्योंकि हम आमतौर पर बहुत कड़वाहट और मुकदमेबाजी के साथ तलाक देखते आए हैं। लोगों के दिल-दिमाग में शादीशुदा जिंदगी को लेकर भी आम प्रचलन में चले आ रहा एक खास किस्म का खाका बैठे रहता है और उससे परे शादीशुदा जिंदगी को देखना मुमकिन नहीं रहता। धारणाएं इतनी मजबूत हो जाती हैं कि वे किसी भी किस्म की नई कल्पना को पास फटकने भी नहीं देतीं, इसलिए कोई शादीशुदा जिंदगी विश्वास, सम्मान, और प्यार बढऩे के बाद भी तलाक तक पहुंच जाए इस पर एकाएक भरोसा नहीं होता।
सच तो यह है कि शादीशुदा जिंदगी अपने आपमें एक बड़ी और कड़ी खींचतान के साथ चलने वाला एक बड़ा ही अस्वाभाविक किस्म का बंधन और सिलसिला है जिसे समाज ने गढ़ा है और जिसे समाज ने लोगों पर थोप दिया है, और समाज तलाक से इसलिए खफा रहता है कि समाज का अपना अस्तित्व शादीशुदा लोगों से ही चलता है। जिस तरह किसी धर्म के मानने वाले धर्मालु लोग या किसी आध्यात्मिक गुरु के अनुयायी न हों तो न वह धर्म बच सकेगा न वह आध्यात्मिक संप्रदाय बच सकेगा। इसी तरह अगर शादीशुदा जोड़े खत्म हो जाएंगे, शादी का चलन खत्म हो जाएगा, तो समाज व्यवस्था भी या तो पूरी तरह खत्म हो जाएगी या वह कुछ ऐसी हो जाएगी जो आज की समाज व्यवस्था से बिल्कुल अलग होगी। नतीजा यह होता है कि समाज अपनी सहूलियत के लिए विवाह नाम की संस्था को लोगों पर थोपते चलता है और जो लोग शादीशुदा जिंदगी में पडऩा नहीं चाहते, उनके लिए खासी दिक्कतें खड़ी करते चलता है।
शादीशुदा जिंदगी जाहिर तौर पर जिस तरह की वफादारी का दावा करती है और जैसी वफादारी की खाल ओढक़र वह जीना चाहती है, हकीकत उससे खासी अलग भी रहती है। और फिर दूसरी बात यह कि जब अपने-अपने दायरे के बहुत कामयाब लोग अपने काम के सिलसिले में ही बहुत से दूसरे बहुत ही आकर्षक और होनहार, हुनरमंद और कामयाब लोगों से मिलते हैं, तो शादीशुदा जिंदगी की बंदिशें कई बार दम घोटने वाली लगती हैं। नतीजा यह होता है कि लोग शादी के भीतर छटपटाने लगते हैं, बाहर कोई विकल्प या रास्ता देखने लगते हैं, या पास मौजूद किसी विकल्प की तरफ उनका ध्यान जाता है और शादी खटाई में पड़ जाती है। कई मामलों में ऐसा भी हो सकता है कि शादीशुदा जोड़े के दोनों भागीदार अपने आपमें बहुत हुनरमंद और कामयाब हों, अपने आपमें दौलतमंद भी हों, और उनकी उम्मीदों के आसमान भी बहुत बड़े हों। ऐसे में दोनों अपने-अपने रास्ते अलग तय कर सकते हैं, और हो सकता है कि दोनों एक साथ ऐसी दिमागी हालत में हों कि उन दोनों को ही अलग होना बेहतर लग रहा हो। दरअसल तलाक के सिलसिले में हम कड़वाहट की बुनियाद देखने के आदी हैं। इसी वजह से होता यह है कि बिना कड़वाहट के अगर तलाक हो रहा है तो वह हमें भरोसेमंद नहीं लगता।
दरअसल आमिर खान और किरण खान अपने परिवारों और अपने बच्चे के अलावा और किसी के लिए इस तलाक को लेकर जवाबदेह भी नहीं हैं। ऐसे में अगर उन्होंने एक सार्वजनिक बयान दिया है तो उस बयान को गलत मानने के पहले लोगों के पास ऐसी वजह रहना चाहिए कि वे गलत क्यों कहेंगे? क्योंकि इस बयान के बाद इसकी वजह से इन दोनों का करियर कामयाबी की तरफ बढ़ेगा ऐसा भी कुछ नहीं है, और तलाकशुदा लोग नाकामयाब होने लगते हैं ऐसा भी कुछ नहीं है। ऐसे में उनकी कही हुई बात के शब्दों को ही हम उनकी भावना भी मानेंगे और यह बात पूरी तरह नामुमकिन भी नहीं लगती कि लोगों के बीच प्यार, विश्वास, और सम्मान बढऩे के बाद भी हो सकता है कि वे पति-पत्नी की तरह साथ रहने को गैरजरूरी मान रहे हों। ये दोनों बातें एक साथ हो सकती हैं, लोग एक-दूसरे पर अधिक विश्वास भी कर सकते हैं, और अलग रहना बेहतर भी मान सकते हैं।
दरअसल शादीशुदा जिंदगी को लेकर जो आम जनधारणा चली आ रही है वह इसके मुताबिक कुछ अटपटी साबित होती है और इसलिए लोग सोच पर कोई जोर डालने के बजाय लोगों को ही झूठ बोलता मान लेते हैं। दिलचस्प बात यह है कि आमिर खान की पहली और दूसरी, दोनों पत्नियां हिंदू थीं, और इसे लेकर भी आमिर खान को डबल लव जिहाद का कसूरवार ठहराते हुए लोग गालियां भी दे रहे हैं। जो लोग लगातार सार्वजनिक जीवन में रहते हैं, और जिनका पैसा शोहरत पर भी टिका रहता है, वह ऐसी बहुत सी बातों को सुनने के आदी रहते हैं, और क्योंकि इस जोड़े ने अपने अलग होने की बात को खुद होकर सार्वजनिक किया है, और तमाम बातें लोगों के सामने रखी हैं इसलिए यह स्वाभाविक ही है कि लोग उस पर तरह तरह की प्रतिक्रिया करेंगे। फिल्मी दुनिया या सार्वजनिक जीवन के हर लोग अपने तलाक को लेकर ऐसे बयान जारी नहीं करते हैं, और अलग होना रहता है, तो अलग हो जाते हैं। इसलिए जब इन्होंने अपनी बातें लोगों के सामने रखी हैं तो लोग उन्हें अपने अपने पैमानों पर आंकेंगे ही। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
छत्तीसगढ़ में अभी खबर वीडियो के साथ तैर रही है कि एक आदिवासी इलाके में महिला सरपंच का पति किस तरह गुंडागर्दी कर रहा है, और कैसे एक म्युनिसिपल इलाके में महिला नगर पालिका अध्यक्ष का पति गुंडागर्दी कर रहा है। कानून बनने से महिला आरक्षित सीट पर महिला पंच-सरपंच, या पार्षद-महापौर बन जाती हैं लेकिन उनके नाम पर उनके पति ही दफ्तर चलते हैं, गुंडागर्दी करते हैं। महिला की सहमति बिना किस तरह वसूली-उगाही करते हैं। कानून ने गांव और शहर में तो महिला को बराबरी का दर्जा दे दिया है, लेकिन घर के भीतर वह गुलाम ही है।
अगर महिलाओं को बराबरी का दर्जा देने की सोच सचमुच ही हो तो कुछ बातों के बारे में सोचना जरूरी है। हममें से हर कोई अपने बचपन से ही स्कूलों में और दूसरे जलसों में यह देखते आए हैं कि किस तरह स्टेज पर एक महत्वपूर्ण व्यक्ति अपने से अधिक महत्वपूर्ण व्यक्ति को माला पहना रहे हैं या शॉल, या उन्हें कोई किताब, स्मृति चिन्ह भेंट कर रहे हैं। इन सबको एक ट्रे में लेकर वहां सुंदर से कपड़ों में एक लडक़ी या महिला को खड़ा कर दिया जाता है। सौ फीसदी मामलों में इन्हें सजावट के सामान की तरह इस्तेमाल किया जाता है, और इनकी और कोई भूमिका नहीं होती, इनका कहीं नाम भी नहीं लिया जाता, और इनकी तरफ कोई गौर से देखते तक नहीं हैं। तो एक मजदूर की ऐसी भूमिका में एक पुतले की तरह सजाकर किसी महिला को ऐसे खड़ा करना तमाम महिलाओं के अपमान से कम नहीं है। इस बारे में सोचना चाहिए कि न तो मुख्य अतिथि की भूमिका में आमतौर पर महिलाएं रहतीं, न ही किसी संस्था या संगठन के प्रमुख के रूप में मुख्य अतिथि का स्वागत करने वाली महिला रहती, और महिलाओं को इस स्टेज पर जगह आमतौर पर सिर्फ ट्रे थामे हुए सजावट के सामान की तरह मिलती है। यह सिलसिला खत्म होना चाहिए।
एक ऐसी तस्वीर की कल्पना क्या की जा सकती है जिसमें मुख्य अतिथि कोई महिला हो, स्वागत करने वाली कोई महिला हो, और कोई पुरुष ट्रे में माला या गुलदस्ता लेकर मदद करने के लिए वहां खड़े हुए हो ? क्या ऐसा किया जा सकता है? इसकी कल्पना भी मुश्किल होगी क्योंकि हमें सांस्कृतिक रूप से यही समझाया गया है कि स्टेज पर दिया जलाने के लिए दीपक लेकर एक लडक़ी को या महिला को खड़े होना है, वह दिया जलाने वाले लोग आमतौर पर पुरुष होंगे। यह एक अलग बात है कि जिस प्रतिमा के सामने दिया जलाया जाएगा वह आमतौर पर एक महिला की होगी सरस्वती की। लेकिन सच तो यह है कि एक महिला को महत्व पाने के लिए हिंदुस्तान में आमतौर पर प्रतिमा बनना जरूरी होता है चाहे वह कोई धार्मिक प्रतिमा हो चाहे वह ओलंपिक से मेडल लेकर या अंतरिक्ष जाकर लौटी हुई भारतवंशी सुनीता विलियम्स हो। प्रतिमा के दर्जे पर पहुंचने के पहले सम्मान की कोई गुंजाइश नहीं है। स्कूल कॉलेज के बच्चों के सामने से स्टेज पर ट्रे थामे महिला का नजारा खत्म करना होगा, तभी इस पीढ़ी का दिमाग ठीक हो पायेगा।
इन दिनों सोशल मीडिया पर महिलाओं को लेकर बहुत किस्म की बहस चल रही है, और कई महिलाओं ने खुलकर इस बात को लिखा है कि उनके परिवार के बुजुर्ग साफ-साफ यह कहते थे कि उन्हें मिक्सी में बनाई हुई चटनी पसंद नहीं है, उन्हें सिलबट्टे पर हाथों से पीसी हुई चटनी ही अच्छी लगती है, या कुछ बुजुर्ग ऐसे भी रहते थे जो कहते थे कि उन्हें कुकर में बनाया हुआ खाना अच्छा नहीं लगता, उनके लिए अलग-अलग बर्तनों में बिना किसी प्रेशर के खाना पकाया जाए, तो ही वे खा सकते हैं। दुनिया के जितने किस्म के उपकरण रसोईघर में महिला के काम में मदद करने के लिए बने हैं, उनसे लोगों का ऐसा लगता है कि स्वाद फीका आता है। जबकि ऐसी कोई वजह नहीं है और सिलबट्टे की जिद करना या बटलोई में दाल पकाने की जिद करना, इन सबका बोझ सीधा-सीधा महिला के ऊपर जाता है। कुछ लोगों को गैस चूल्हे पर बनी रोटी पसंद नहीं आती और अगर उनके सामने विकल्प रहे तो वे घर की महिला से कहें कि लकड़ी के चूल्हे पर बनी हुई रोटी ही सबसे अच्छी रहती है। यह एक अलग बात है कि अकेले हिंदुस्तान में हर बरस 10 लाख से अधिक महिलाएं घरेलू चूल्हे से होने वाले प्रदूषण से मारी जाती हैं। यह आंकड़ा अमेरिका के बर्कले विश्वविद्यालय के एक प्राध्यापक ने पिछले 50 वर्षों में भारत आकर लगातार काम करके वैज्ञानिक जांच-पड़ताल के बाद निकाला है।
एक महिला का शोषण करने के जितने तरीके हो सकते हैं उन सबमें हिंदुस्तान ने एक महारत हासिल की हुई है। विख्यात उपन्यासकार और कहानी लेखिका शिवानी की एक कहानी याद पड़ती है जिसमें पहाड़ी पर बसे एक परिवार में बूढ़ा पति अपनी जवान बीवी के सामने खाना खाने के बाद उसी थाली को उसकी तरफ आगे बढ़ा देता था और उम्मीद करता था कि वह जूठन खाए और उसका चेहरा भी देखते रहता था कि थाली उसकी तरफ बढ़ाने पर उसकी क्या प्रतिक्रिया होती है। घरों में यह आम बात है कि आदमी पहले खा लेते हैं लडक़े खा लेते हैं और लड़कियों और महिलाओं की बारी सबसे आखिर में आती है। घर में अगर एक बच्चे को पढ़ाने की गुंजाइश है तो वह लडक़े को पढ़ाया जाएगा, एक बच्चे के इलाज की गुंजाइश है तो वह लडक़े का इलाज होगा। पहले भी इसी जगह पर हम इस बात को लिख चुके हैं कि किस तरह मुंबई के टाटा कैंसर अस्पताल में एक सर्वे किया था कि वहां पर जिन बच्चों को कैंसर की शिनाख्त होती है उनमें से लडक़ों को तो तकरीबन सभी को इलाज के लिए वापस लाया, लेकिन लड़कियों में से गिनी-चुनी ही ऐसी रहती हैं जिनको मां-बाप इलाज के लिए वापस लाते हैं। लडक़ी को भला खर्च करके क्यों जिन्दा रखें?
लड़कियों और महिलाओं से गैरबराबरी के बर्ताव, और उन पर हिंसा के बारे में लगातार बात करने की जरूरत है।
कुछ वक्त पहले हिंदुस्तान में एक फिल्म आई जिसमें अभिनेत्री स्वरा भास्कर अपने ही बदन को सेक्स सुख देते हुए दिख रही थी। हिंदी भाषा में लोग बात करते हुए सेक्स से जुड़े बहुत से शब्दों से परहेज करते हैं इसलिए हस्तमैथुन शब्द की जगह तरह-तरह के शब्द जोडक़र काम चलाना पड़ता है। इस फिल्म के इस सीन को लेकर जिसमें कोई अश्लीलता नहीं थी, और जो कि जिंदगी की एक हकीकत बयान करने वाला सीन था, उस पर खूब बवाल खड़ा हुआ। देश भर से उसके खिलाफ लिखा गया। लोग इस सीन के जितने खिलाफ थे, उतने ही इस बात के भी खिलाफ थे कि स्वरा भास्कर ने कुछ किया था। स्वरा अपनी राजनीतिक विचारधारा के चलते हुए और लगातार मुखर बने रहने की वजह से देश के करोड़ों नफरतजीवियों के निशाने पर हमेशा ही बनी रहती हैं। वे अगर सुबह उठकर ट्वीट करें कि आज पूरब की तरफ चलना चाहिए, तो महज उनकी बात को खारिज करने के लिए लाखों समर्पित लोग पश्चिम की तरफ चलने लगेंगे। ऐसी नफरत का केंद्र बनी हुई स्वरा न तो किसी हमले से डरती हैं और न ही सच को बोलने से परहेज करती हैं, इसलिए इस फिल्म के इस सीन से उन्हें कोई दिक्कत नहीं थी जो कि हस्तमैथुन करने के बुनियादी इंसानी हक को महिलाओं को भी उतना ही देता है जितना कि पुरुषों के पास हमेशा से रहते आया है।
जिन लोगों को यह लगता है कि हस्तमैथुन कोई पश्चिमी संस्कृति और सभ्यता का ईसाई प्रभाव है जो कि हिंदुस्तानी नौजवानों को बर्बाद कर रहा है तो उन्हें अपने ही देश के इतिहास को पढऩा चाहिए जिसमें दुनिया में सेक्स की सबसे मशहूर किताब तरह-तरह के तरीके बताती है कि कैसे अधिक से अधिक देहसुख हासिल किया जा सकता है, और जो सेक्स के 84 किस्म के आसन बताती है। लोगों को यह भी देखना चाहिए कि सैकड़ों बरस पहले बने इस देश के मंदिरों की दीवारों पर इंसानों के सेक्स और इंसानों के जानवरों के साथ सेक्स और हर किस्म के सेक्स की मूर्तियां कैसे बनाई गई थीं। इसलिए यह देश सेक्स से ऐसे बड़े परहेज वाला देश भी कभी नहीं रहा है।
अब देखने की मजेदार बात यह है कि एक फिल्म में एक अभिनेत्री अगर अपने बदन को सेक्स सुख दे रही है तो उसकी एक उंगली से इस देश को इतनी बड़ी तकलीफ हो गई जितनी तकलीफ उसे कभी इस देश की दीवारों पर लिखे इसी बात के इश्तहारों से नहीं हुई थी। हिंदुस्तान की दीवारों को देखें तो वे गुप्त रोग विशेषज्ञों के इश्तहारों से भरी हुई हैं जिनमें से कोई भी शिक्षित या प्रशिक्षित डॉक्टर नहीं है, और सारे के सारे फर्जी इलाज करने वाले, नीम-हकीम कहे जाने वाले, नीम और हकीम दोनों शब्दों को बदनाम करने वाले लोगों के सेक्स क्लीनिक के हैं। हिंदुस्तानी दीवारों पर ऐसे सेक्स क्लीनिक के इश्तहार उस वक्त से चले आ रहे हैं जब पुरातत्व विभाग को खुदाई में दीवार मिली भी नहीं थी। जो सबसे पुरानी दीवारें हड़प्पा और मोहनजोदड़ो में मिली होंगी, उन पर भी किसी डॉक्टर मुल्की या डॉक्टर शाह का इश्तिहार लिखा हुआ जरूर रहा होगा जिसे बाद में शर्मीले पुरातत्ववेत्ताओं ने मिटा दिया होगा। एक तरफ तो सेक्स के नाम पर बीमारियों का हौव्वा खड़ा करके उनके इलाज का दावा करने वाले ऐसे इश्तहारों का पहला ही शब्द लिखा रहता है कि बचपन से हस्तमैथुन करने की वजह से जो कमजोरी आ गई है उसका शर्तियां इलाज किया जाता है। इसका मतलब है कि यह समाज सेक्स और हस्तमैथुन इन दोनों के अस्तित्व को तो अनंत काल से देखते आ रहा है। सेक्स क्लीनिक के विज्ञापनों को किसी ने आपत्तिजनक माना हो और उनके खिलाफ आंदोलन छेड़े हों ऐसा तो पिछले 50 साल में कहीं पढऩे में नहीं आया क्योंकि यह इश्तहार मोटे तौर पर आदमियों को खींचने के लिए रहते हैं, लडक़ों को खींचने के लिए रहते हैं जिन्हें यह समाज यह मौलिक अधिकार देता है कि वह हस्तमैथुन भी कर सकते हैं, उसकी वजह से बीमारियों के शिकार भी हो सकते हैं, और फिर ऐसे फर्जी इलाज करने वाले गुप्त रोग विशेषज्ञों के पास भी जा सकते हैं।
लडक़ों और पुरुषों के ऐसे काम करने पर समाज को कोई दिक्कत नहीं है लेकिन अगर एक अभिनेत्री ने एक फिल्मी कहानी की जरूरत को पूरा करने के लिए अपने ही बदन पर अपनी उंगली धर दी तो मान लो यह पूरा देश ही सिहर उठा। सारे के सारे मर्दों को लगा कि यह उंगली तो उनकी मर्दानगी पर उठ गई है, हस्तमैथुन के उनके एकाधिकार पर उठ गई है। सेक्स के अधिकार पर उनकी मोनोपोली खतरे में पड़ गई है, और ऐसे हाल में तो आगे जाकर महिलाएं और भी हक मांगने लगेंगी, और फिर जो महिला अपने बदन को खुद सुख दे पाएगी उसे भला मर्द की जरूरत क्या रह जाएगी? यह समाज तो बहुत ही खतरनाक समाज हो जाएगा जहां औरत बिना मर्द के अपने बदन की जरूरत को पूरा कर लेगी !
इसलिए ऐसी फिल्म के ऐसे सीन के खिलाफ और इसे करने वाली अभिनेत्री के खिलाफ जमकर लिखा गया उसे हिंदुस्तानी संस्कृति पर हमला मान लिया गया और उसे भारतीयता के खिलाफ मान लिया गया मानो हिंदुस्तानी दीवारों पर इश्तहार करने वाले सेक्स क्लीनिक के गैरचिकित्सक फर्जी डॉक्टर यूरोप और अमेरिका के लोगों का इलाज करते हैं और हिंदुस्तानी संस्कृति में तो मानो कोई हस्तमैथुन है ही नहीं जिसके लिए वे दीवारों पर इश्तहार लिखते हैं। यह अजीब सा पाखंडी समाज है जिसे एक औरत का उसकी देह पर उसका हक देखते भी नहीं बनता। यह देश ऐसे मर्दों का देश है जो कि खुद संतुष्टि पा लेने वाली महिला को देखकर दहशत में आ जाते हैं. जिन्हें किसी महिला की सेक्स की जरूरत मर्द पर आश्रित रहने तक ही अच्छी लगती है। ऐसा कायर देश जो कि स्वरा भास्कर की एक उंगली को देखकर कांप उठा था उसे देश पर मर्दों के लिए दीवारों पर लिखे गए सेक्स क्लीनिक के इश्तहारों के हस्तमैथुन से कोई दिक्कत नहीं दिखती है, ऐसा है मेरा देश!
अब यह वक्त आ गया है कि औरत से जुड़े हुए तमाम मुद्दों पर उनकी बात सुनी जाए, उनकी लिखी हुई बात को पढ़ा जाए, और हिंदुस्तानी मर्द अपनी सोच पर फिक्र करें कि कैलेंडर की 21वीं सदी के 21 साल में भी वे किस तरह हज़ारों बरस पहले की पत्थर की किसी गुफा में जी रहे हैं ! (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
दुनिया के जुर्म और पुलिस के इतिहास की एक सबसे बड़ी घटना अभी पिछले हफ्ते हुई जब अमेरिकी जांच एजेंसी एफबीआई ने कई देशों की जांच एजेंसियों के साथ मिलकर दुनियाभर में फैले हुए संगठित अपराध के गिरोहों के बीच की बातचीत को पकड़ा, और उसके आधार पर करीब 800 बड़े माफिया सरगना को गिरफ्तार किया। दुनिया भर में नशीले सामानों की बहुत बड़ी जब्ती हुई, और एक किस्म से संगठित अपराधों की कुछ वक्त के लिए कमर टूट गई। लोगों का मानना है कि माफिया पर कार्रवाई में यह दुनिया के इतिहास की सबसे बड़ी कार्रवाई है, और इसे बड़े दिलचस्प तरीके से अंजाम दिया गया।
हुआ यूं कि अमेरिकी जांच एजेंसी एफबीआई ने यह तरकीब सोची कि व्हाट्सएप किस्म का एक दूसरा मैसेंजर एप्लीकेशन ऐसा बनाया जाए जिसकी शोहरत मुजरिमों के बीच में सबसे सुरक्षित मैसेंजर के रूप में फैलाई जाए। उसके बाद इसके ब्लैक मार्केट में मौजूद कुछ खास मोबाइल हैंडसेट पर ही चलने की शोहरत भी मुजरिमों के बीच फैलाई जाए। इस सुरक्षित दिखाए जाने वाले मैसेंजर के लिए हर महीने एक फीस भी ली जाए ताकि वह मुफ्त का ना दिखे। इसके बाद ऑस्ट्रेलिया की एक जेल में बंद एक बड़े माफिया सरगना को उसका भरोसेमंद बनकर एक अफसर ने एक ऐसा हैंडसेट पहुंचाया जिसमें यह मैसेंजर एप्लीकेशन डाला हुआ था। क्योंकि इतने बड़े सरगना ने इस मैसेंजर एप्लीकेशन की साख का दम भरा तो दुनिया भर में दूसरे मुजरिमों के बीच में जल्द ही उस पर भरोसा कायम हो गया, और वे खुलकर इसका इस्तेमाल करने लगे। जुर्म की अपनी तमाम बातें खुलकर करने लगे। इस एप्लीकेशन पर आने-जाने वाले संदेशों को पढऩे का इंतजाम अमेरिकी और ऑस्ट्रेलियाई जांच एजेंसियों ने कर रखा था। इस मैसेंजर पर बड़े-बड़े मुजरिम खुलेआम नशे की आवाजाही की चर्चा करते थे, सामानों की फोटो भेजते थे जिनके भीतर ड्रग्स छुपाकर भेजी जा रही हैं, कत्ल की चर्चा करते थे कि किसका खून किया जाने वाला है, और तमाम किस्म के जुर्म की बातें खुलकर करते थे क्योंकि उन्हें यह भरोसा था कि यह मुजरिमों का अपना मैसेंजर है और इसकी कोई भी बात कहीं नहीं जा सकती। खास मोबाइल हैंडसेट और भुगतान वाला मैसेंजर, इन दो बातों से इसकी साख बढ़ती चली गई और जांच एजेंसियों को ऐसा लगने लगा कि दुनिया का हर बड़ा जुर्म उनकी आंखों के सामने उनकी जानकारी में हो रहा है, ऐसे में एक वक्त, एक साथ कई देशों में छापा मारा गया और 800 बड़े मुजरिमों को गिरफ्तार कर लिया गया।
आज इस मुद्दे पर चर्चा इसलिए भी जरूरी है कि आज दुनिया भर में इस बात को लेकर बहस चलती है कि कौन से देश की सरकार किस मैसेंजर सर्विस का गला दबाकर उससे मनचाहे लोगों के मैसेज निकलवाने में लगी हुई है। हिंदुस्तान में भी भारत सरकार का कुछ सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स के साथ टकराव चल रहा है और व्हाट्सएप के साथ भी। इन सबने दुनिया के लोगों का भरोसा जीता है कि उन पर भेजे गए संदेश पूरी तरह सुरक्षित रहते हैं, और उन्हें कोई भी सरकार या कोई दूसरी एजेंसी पढ़ नहीं सकती। लेकिन भारत में हाल ही में आईटी कानून में फेरबदल करके यह इंतजाम किया जा रहा है कि ऐसे तमाम सोशल मीडिया और मैसेंजर सर्विसों से सरकार और अधिक जानकारी ले सकें। भारत में जांच एजेंसियों के पास और राज्य सरकारों के पास, कुल करीब 10 एजेंसियों के पास इस बात के अधिकार रहते हैं कि वे लोगों के मोबाइल पर हो रही बातचीत को सुन सकें, फोन पर आने-जाने वाले संदेश पढ़ सकें, ईमेल में झांक कर सकें और यही वजह है कि आज सामान्य टेलीफोन कॉल और एसएमएस को सबसे कम महफूज माना जाता है।
अब धीरे-धीरे लोगों का व्हाट्सएप पर से भी भरोसा हट गया है और बहुत से लोगों को आईफोन के फेसटाइम फीचर पर ही भरोसा रह गया है। इसकी एक वजह यह भी है कि अमेरिका में एक बड़े आतंकी के गिरफ्तार होने पर उसके आईफोन को एफबीआई भी नहीं खोल पाई, और आईफोन बनाने वाली एप्पल कंपनी ने सरकार की कोई भी मदद करने से इंकार कर दिया। अब दुनियाभर के लोगों को लगता है कि जिस फोन को एफबीआई भी नहीं खोल पाई, और जिसे एफबीआई के लिए भी खोलने से एप्पल ने मना कर दिया, वह एक सबसे सुरक्षित फोन और बातचीत करने की सर्विस है।
राजनीति और सरकार में, मीडिया और खुफिया एजेंसी, या बड़े कारोबार में, जिन लोगों को गोपनीयता की जरूरत होती है, उनके बीच अलग-अलग समय पर अलग-अलग मैसेंजर पर भरोसा दिखता है। जब लोगों को यह लगने लगा कि हिंदुस्तान की खुफिया एजेंसी व्हाट्सएप को तोडऩे वाले इजराइली सॉफ्टवेयर खरीद चुकी हैं, तब लोगों ने किसी ने सिग्नल, किसी ने रॉकेट, और किसी ने और कोई मैसेंजर इस्तेमाल करना शुरू किया। धीरे-धीरे आज के बाजार में सबसे सुरक्षित फेसटाइम को माना जा रहा है और कोई हैरानी नहीं होगी कि साल दो साल बाद जाकर पता लगे कि अमेरिकी या इजराइली खुफिया एजेंसियां फेसटाइम की तमाम बातचीत को सुन रही थीं, उसके सारे वीडियो कॉल को देख रही थीं, और उस पर आने-जाने वाले संदेश अपने कंप्यूटरों पर पढ़ रही थीं।
यह पूरा सिलसिला फोन या कंप्यूटर बनाने वाली कंपनियों और उनमें घुसपैठ करने वाले लोगों के बीच चलने वाले एक अंतहीन मुकाबले का है इसके अलावा अब मैसेंजर सर्विसों या ईमेल सर्विस का एक ऐसा नेटवर्क भी है जिस पर अलग-अलग लोगों को अलग-अलग समय में भरोसा रहता है, और खुफिया एजेंसियां या जांच एजेंसियां लगातार इनमें घुसपैठ करने की तरकीब निकालती रहती हैं. मुकाबला अंतहीन है, हमेशा चलते ही रहेगा, और ताकतवर तबकों को किसी न किसी भरोसेमंद मैसेंजर की जरूरत पड़ती रहेगी। किसी ना किसी भरोसेमंद फोन या कंप्यूटर की जरूरत भी लगेगी जिसमें घुसपैठ आसान ना हो, जिसकी जानकारी को कोई ना निकाल सके। दुनिया में ना सिर्फ मुजरिमों बल्कि सरकारों के कामों में भी ऐसी गोपनीयता की जरूरत रहती है कि उपकरणों से लेकर एप्लीकेशन तक को अधिक से अधिक सुरक्षित रखा जाए। ऐसा इसलिए भी है कि हाल के वर्षों में दुनिया के बड़े-बड़े देशों ने अपने नेटवर्क में ऐसी घुसपैठ देखी है जिसमें दुनिया के किसी कोने में बैठा हुआ कोई एक हैकर अमेरिका के एक शहर में पीने का पानी सप्लाई करने वाली कंपनी के कंप्यूटरों में छेडख़ानी करके किसी एक रसायन को इतना अधिक मिलाने की ताकत पा लेता है, जिससे उसे पीने वाले लोग मर जाएं। इसलिए जांच एजेंसियों की ऐसी घुसपैठ भी नाजायज नहीं है क्योंकि अपराधियों की ताकत बढ़ती चल रही है।
फिलहाल लोगों को यह मानकर चलना चाहिए कि उनकी मैसेंजर सर्विस दुनिया की जांच एजेंसियों और खुफिया एजेंसियों की नजरों से तभी तक दूर है जब तक वे लोग महत्वपूर्ण नहीं हो जाते। जिस दिन उनकी कोई अहमियत हो जाएगी उस दिन उनके फोन, कंप्यूटर और उनके मैसेंजर पर घुसपैठ होने लगेगी, इसलिए अधिक अच्छा यही है कि किसी किस्म के जुर्म में शामिल ही ना हुआ जाए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
थाईलैंड के एक विश्वविद्यालय में लैब्राडोर नस्ल के कुत्तों को ट्रेनिंग दी जा रही है कि वह लोगों को सूंघकर यह पता लगा लें कि वे कोरोना पॉजिटिव हैं या नहीं। अभी वैज्ञानिकों को प्रयोग के स्तर पर जो नतीजे मिले हैं उनके मुताबिक कोरोना की प्रारंभिक जांच, रैपिड टेस्ट से मिलने वाले नतीजों के मुकाबले कुत्तों के पहचाने गए नतीजे अधिक सही निकल रहे हैं। ऐसी उम्मीद की जा रही है कि अगर बड़ी संख्या में कुत्तों को प्रशिक्षित किया जा सका तो उन्हें भीड़ की जगहों पर, स्टेडियम, रेलवे स्टेशन या एयरपोर्ट पर तैनात करके कोरोना के मरीजों को पहचाना जा सकेगा। अभी थाईलैंड के अलावा फ्रांस, ब्रिटेन, चिली, ऑस्ट्रेलिया, बेल्जियम, और जर्मनी में भी कुत्तों को ऐसा प्रशिक्षण दिया जा रहा है।
यह तो लोगों ने पहले से देखा हुआ है कि किसी जुर्म के होने पर मुजरिम की तलाश के लिए पुलिस अपने प्रशिक्षित कुत्ते को लेकर पहुंचती है, जो बहुत से मामलों में मौके को सूंघकर और जाकर मुजरिम को पकड़ भी लेते हैं. इसी तरह एयरपोर्ट और दूसरी जगहों पर प्रशिक्षित कुत्ते सूंघकर विस्फोटकों को पकड़ लेते हैं, और नशीले पदार्थों को पकड़ लेते हैं। हालत यह है कि किसी जुर्म की जगह पर अगर पुलिस पहुंचे तो लोगों को ठीक से भरोसा नहीं होता है कि जांच हो पाएगी या नहीं, लेकिन पुलिस का कुत्ता पहुंच जाए तो लोगों का भरोसा हो जाता है कि मुजरिम पकड़ में आ जाएंगे।
इन बातों से परे बहुत सी दूसरी जगहों पर कुत्तों का इस्तेमाल हो रहा है, वे किसी भूकंप में गिरी इमारतों, या किसी हवाई हमले में गिरी इमारतों के मलबे में से लोगों को तलाशने में भी बचाव कर्मियों की मदद करते हैं, जिंदा या मुर्दा लोगों का पता गंध से ही लगा लेते हैं, ताकि कम मेहनत में उन तक पहुंचा जा सके। बहुत से प्रशिक्षित कुत्ते ऐसे हैं जो नेत्रहीन लोगों के साथ चलते हैं और उनके गाइड का काम करते हैं। इसी तरह बीमार लोगों की पहियों वाली कुर्सी को खींचकर ले जाने का काम भी कुछ कुत्ते करते हैं और दुनिया का इतिहास ऐसी सच्ची कहानियों से भरा हुआ है जहां मालिक के गुजर जाने पर उनके पालतू कुत्ते वर्षों तक उनकी समाधि पर रोज आते रहे या वहां डेरा डालकर बैठे रहे।
दिक्कत यह है कि घर की चौकीदारी करने के मामले में सबसे वफादार प्राणी माना जाने वाला कुत्ता इंसान के लिए सबसे आसान और सहज गाली की तरह भी इस्तेमाल होता है। वैसे तो इंसान अपनी कहावतें और मुहावरों में अनंत काल से अपने से परे तमाम किस्म के प्राणियों को गालियों की तरह इस्तेमाल करते आए हैं, लेकिन कुत्तों के ऊपर इंसानों की कुछ खास मेहरबानी है। ऐसा शायद इसलिए भी है कि कुत्ता सबसे अधिक प्रचलित पालतू प्राणी है, और सबसे अधिक वफादार भी समझा जाता है। जो सबसे अधिक वफादार हो उसे सबसे जल्दी गाली बना लेना इंसान के हिसाब से देखें तो कोई अटपटी बात नहीं है, इंसान होते ही ऐसे हैं कि जो उनके सबसे अधिक काम आए उन्हें वह गालियों की तरह इस्तेमाल करें।
अब अगर हिंदी भाषा में कहावतें और मुहावरों को देखें तो कुत्ते को लेकर सबसे ही खराब गालियां बनाई जाती हैं। जब किसी को बद्दुआ देनी हो तो कहा जाता कि वे कुत्ते की मौत मरेंगे, और यह कहने के मतलब बूढ़ा होकर स्वाभाविक मौत नहीं होता, यह रैबीज के शिकार तड़पकर मारने वाले कुत्ते होते हैं। जब किसी इंसान के मां-बाप को गाली देनी हो तो हिंदी फिल्मों में आमतौर पर उन्हें कुत्ते के पिल्ले या कुतिया के पिल्ले कहा जाता है, और धर्मेंद्र तो कुछ अधिक हिंसक होकर यह भी बोलते आए हैं कि कुत्ते मैं तेरा खून पी जाऊंगा। एक और फिल्मी डायलॉग तो एक लतीफे में बदल चुका है, फिल्म शोले में धर्मेंद्र हेमा मालिनी से कहते हैं कि बसंती इन कुत्तों के सामने मत नाचना। इसे लेकर कई कार्टून बने हैं जिनमें कुत्तों की पूरी टोली जाकर किसी से पूछते हुए दिखती है कि हममें क्या कमी है जो बसंती को हमारे सामने नाचने से मना किया जा रहा है? अब बसंती जिन कुत्तों के सामने ना नाचे और जिन कुत्तों का वीरू खून पी जाए, उनसे अब इंसान यह उम्मीद करते हैं कि वे अपनी जान खतरे में डालकर इंसानों के लिए एक काम और करें, और कोरोना के मरीज पकड़ें।
अब तक कुत्ते जमीनी सुरंग ढूंढ लेते हैं, दूसरी जगहों पर विस्फोटक ढूंढते हैं, हत्यारे और डकैत ढूंढते हैं, नशे के सौदागरों को पकड़ते हैं, नशीले पदार्थों का जखीरा कहीं हो तो उसे पकड़ते हैं, और बदस्तूर गालियां खाते चलते हैं और नए-नए काम करना सीखते चलते हैं। यानी फौजी, पुलिस, बचाव कर्मी, होने के साथ-साथ अब कुत्ते पैथोलॉजिस्ट, डॉक्टर का काम भी करने लगे हैं, इसलिए इंसानों को एक बार सोचना चाहिए कि क्या कुत्ते को लेकर बनाई गई गालियों में से कुछ गालियों को कम करना जायज नहीं होगा?
इंसान कुत्तों के ऊपर ही इतनी सारी गालियां क्यों बनाते हैं, और कुत्तों को लेकर ही इतनी सारी कहावतें और मुहावरे क्यों गढ़े गए थे इस बारे में सोचें तो ऐसा लगता है कि कुत्ते अपनी वफादारी से और अपनी दूसरी खूबियों से इंसानों के मन में एक गहरी हीन भावना पैदा कर देते हैं, जो कि पहला मौका मिलते ही वफादारी को फेंककर करीबी लोगों की पीठ में छुरा भोंकने में लग जाते हैं। अब हाल के बरसों में हिंदुस्तान में एक पार्टी छोडक़र दूसरी पार्टी में जाने वाले लोगों को देखें, किसी पार्टी या विचारधारा के साथ उनकी बेवफाई देखें, उनकी गद्दारी देखें, तो यह जाहिर है कि किसी भी वफादार प्राणी को देखकर उनके मन में हीनभावना तो आएगी ही। कुछ ऐसा ही सिलसिला जिंदगी के अलग अलग दायरों में अनंत काल से चले आ रहा होगा जब इंसानों को अपनी बेईमानी, अपने धोखे के बाद जब कुत्ता दिखता होगा, तो लगता होगा कि उनसे तो कुत्ता बेहतर है जो आसपास के लोगों को धोखा नहीं देता। शायद उसी वक्त ऐसी कहावतें और ऐसे मुहावरे गढ़े गए होंगे।
हिंदी में कहावत और मुहावरों की सबसे प्रतिष्ठित किताब को देखें तो उसमें कुत्तों पर सैकड़ों लोकोक्तियां बनी हुई हैं, और हर एक के मतलब में यह लिखा हुआ है कि वह नीच व्यक्ति, बुरे व्यक्ति, दुष्ट और पापी के लिए बनाई गई हैं। अब इंसान अपने भीतर के सबसे बुरे लोगों के लिए कुत्तों पर ही दर्जनों कहावत बनाकर बैठा है, और अपनी हर मुसीबत, और अब तो सबसे खतरनाक जानलेवा बीमारी से बचने, के लिए भी वह कुत्तों को झोंक रहा है। सबसे वफादार को इस तरह खतरे में डालकर क्या इंसान को किताबों में दर्ज कुत्तों के खिलाफ किसी भी गाली को इस्तेमाल करने का नैतिक अधिकार बचता है? (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
हाल के बरसों में मैंने अपने बहुत से कॉलम्स में, और दूसरी जगह लिखे, या कहे हुए में कुछ देशों को लेकर बार-बार विकसित लोकतंत्र लिखा है। अभी पिछले कुछ बरस से कनाडा में जो प्रधानमंत्री हैं जस्टिन ट्रूडो, उनकी तारीफ में भी कुछ लिखा है। लेकिन ये खूबियां इन लोकतंत्रों के बहुत ताजा इतिहास को देखते हुए गिनाई गई हैं। थोड़े से और पहले अगर जाएं तो इनका इतिहास इतना खराब भी रहा है कि उनके बारे में विकसित लोकतंत्र जैसे शब्दों का इस्तेमाल नहीं हो सकता था। ऐसा ही एक मामला कनाडा को लेकर अभी सामने आया है जिसमें वहां के एक आवासीय विद्यालय के अहाते में 215 बच्चों की एक सामूहिक कब्र मिली है। ये बच्चे 1978 में बंद हुए एक ऐसे स्कूल के रहवासी थे जिसे वहां के मूल निवासियों के बच्चों को शहरी और सभ्य बनाने के नाम पर, शिक्षित बनाने के नाम पर वहां रखा गया था।
अब ऐसी सामूहिक कब्र देखकर कनाडा की सरकार हिल गई है, और वहां के प्रधानमंत्री ने यह लिखा है कि इसे देख कर उनका दिल टूट गया है। यह जाहिर है कि इतनी बड़ी संख्या में बच्चों की सामूहिक कब्र एक साथ मौतों से जुड़ी हुई हो सकती है, और ये बच्चे अपने परिवारों से छीनकर, अपनी संस्कृति और सभ्यता से दूर लाकर, एक ईसाई और शहरी सभ्यता के पुर्जे बनाने के लिए रखे जाते थे, और अब कनाडा के मूल निवासी समुदाय भी बहुत बुरी तरह दुख में डूब गए हैं कि उनके बच्चों के साथ ऐसा किया गया। कनाडा का इतिहास बतलाता है कि 1863 से 1998 तक करीब डेढ़ लाख आदिवासी बच्चों को परिवारों से अलग रखा गया और इन्हीं स्कूलों में लाकर बसाया गया क्योंकि शहरी और ईसाई सत्ता अपनी संस्कृति, अपनी पढ़ाई और अपने तौर-तरीकों को ही सभ्य मानती थी, और आदिवासियों की मूल संस्कृति को असभ्य।
लोगों को याद होगा कि कुछ ऐसी ही किस्म का काम ऑस्ट्रेलिया में वहां की शहरी सरकारों और चर्च ने मिलकर किया था। ऑस्ट्रेलिया के आदिवासियों या जिन्हें मूल निवासी भी कहा जाता है, उनके बच्चों को चर्च और सरकार छीनकर ले आते थे, और उन्हें शहरी, ईसाई पढ़ाई में रखकर उन्हें इंसान बनाने का एहसान किया जाता था। अभी कुछ बरस पहले ऑस्ट्रेलिया की आज की सरकार को समझ आया कि उसके पुरखे इंसानियत के खिलाफ इतना बड़ा जुर्म कर रहे थे, तो उसने वहां के मूल निवासी समुदायों के लोगों को संसद में आमंत्रित किया और उन्हें सदन के बीच लाकर उनसे पूरे सदन ने माफी मांगी कि आस्ट्रेलिया की सरकार ने, और वहां के शहरी समुदाय ने, मूल निवासियों के साथ ऐसा किया था। ऑस्ट्रेलिया का इतिहास बताता है कि इन बच्चों को 1905 से लेकर 1967 तक उनके परिवारों से छीना जाता रहा।
इस तरह देखें तो कनाडा की यह ताजा घटना जो कि 1998 तक चल रही थी, और ऑस्ट्रेलिया की स्टोलन जनरेशन (चुराई गई पीढिय़ां) की घटना जो कि 1967 तक चल रही थी, ये हिंदुस्तान की आजादी के काफी बाद तक चलने वाली घटनाएं हैं और पश्चिमी देशों के इतिहास को देखें तो उनमें से कई में सबसे कमजोर तबकों पर जुल्म हिंदुस्तान में लोकतांत्रिक कानून बनने के बहुत बाद तक कानूनी रूप से जारी रहे। यह एक अलग बात है कि हाल के वर्षों में हिंदुस्तान में इस देश के सबसे कमजोर तबकों के साथ कुछ उसी किस्म का काम चल रहा है और दलित-आदिवासी, अल्पसंख्यक सडक़ों पर पीटे जा रहे हैं उनकी भीड़त्या हो रही है। हिंदुस्तान में जगह-जगह उन पर शहरी, संपन्न, सवर्ण, और सनातनी सांस्कृतिक मूल्यों को लादा जा रहा है, और पीट-पीटकर उन्हें मजबूर किया जा रहा है कि वे खान-पान से लेकर पहनावे तक उन पर थोपी जा रही बातों को मानें। लोकतांत्रिक हिंदुस्तान की 21वीं सदी के 21वें बरस में भी आज दलित को मूंछें रखने पर गुजरात में बुरी तरह पीटा जा रहा है, और मध्य प्रदेश में दलितों दूल्हे को अगर घोड़ी पर चढक़र निकलना है तो उसके लिए जब तक बड़ी पुलिस हिफाजत ना हो जाए तब तक वह मुमकिन नहीं हो पाता। इसलिए हिंदुस्तान के कुछ कागजी कानूनों को लेकर अब विकसित हो चुके पश्चिमी लोकतंत्रों के साथ हम तुलना करना नहीं चाहते।
मुझे याद है कि अपनी रिपोर्टिंग के दिनों की शुरुआत मैं मैंने अपने शहर के वनवासी कल्याण आश्रम के एक कन्या छात्रावास में उस वक्त की जनसंघ की बहुत बड़ी नेता विजयाराजे सिंधिया से मुलाकात की थी वहीं बात हुई थी, और वहीं मैंने उत्तर पूर्वी राज्यों से लाकर यहां रखी गई उन बच्चियों के साथ विजयाराजे सिंधिया की बहुत सी तस्वीरें भी खींची थी। वह दौर मेरे शुरुआती कामकाज का था और उस वक्त इतनी राजनीतिक समझ भी नहीं थी कि उत्तर-पूर्व से लाकर यहां पर कट्टर हिंदूवादी संस्कृति के संस्थान में इन बच्चियों को रखना, पढ़ाना, और इनमें एक अलग धार्मिक संस्कार विकसित करना बहुत मासूम काम नहीं था। इन बच्चियों को वहां पर उत्तर-पूर्व के उन राज्यों से लाकर रखा जा रहा था, जिन राज्यों में आदिवासियों के ईसाई हो जाने का खतरा संघ परिवार को लग रहा था। लेकिन बाद के वर्षों में धीरे-धीरे जब दुनिया के दूसरे देशों में शहरी और संगठित आधुनिक धर्मों द्वारा आदिवासियों के साथ किए जा रहे सुलूक के बारे में पढ़ा, तो धीरे-धीरे एक समझ विकसित हुई कि यह उन गरीब आदिवासी परिवारों पर कोई एहसान नहीं है। ऑस्ट्रेलिया और कनाडा की तरह एक पूरी पीढ़ी की चोरी है। यह उन्हें अपनी सांस्कृतिक जड़ों से अलग करके उनके ईसाई होने के खतरे को घटाने की हरकत है। यह पूरा सिलसिला, दुनिया में सत्ता और धर्म की मिली-जुली साजिश, ऐसे ही चलते हैं।
मध्यप्रदेश के लोगों को यह अच्छी तरह याद होगा कि यह सिलसिला जनता पार्टी सरकार के वक्त आपातकाल के तुरंत बाद शुरू हुआ था जब वनवासी कल्याण आश्रम जैसे हिंदूवादी संगठन को उस वक्त के जनता पार्टी सरकार के, जनसंघ के मुख्यमंत्री की मेहरबानी हासिल थी। दुनिया का इतिहास इस बात का गवाह है कि जब राजा और पुरोहित एक हो जाते हैं, राज्य और चर्च एक हो जाते हैं, तो जनता को अपार जुल्मों से कोई नहीं बचा सकते। यह जुल्म जब धर्म का नाम लेकर, राज्य की सत्ता की ताकत का इस्तेमाल करके ढाए जाते हैं, तो उनका कोई अंत नहीं होता।
कुछ बरस पहले भारत सरकार की तरफ से देश के कुछ अखबारों के संपादकों को उत्तर पूर्व के दौरे पर ले जाया गया था और उस वक्त मिजोरम की राजधानी आइजोल में 3 दिन रहने का मौका मुझे भी मिला था। दिलचस्प यह था कि मैं उस वक्त मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के गुजरात के विधानसभा चुनाव की रिपोर्टिंग के लिए गुजरात में था। वहीं पर फोन से मिजोरम पहुंचने का न्योता मिला। जब हफ्ते भर एक शराबबंदी वाले राज्य के बाद शराबबंदी वाले दूसरे राज्य मिजोरम पहुंचा, तो बहुत से अखबारनवीसों ने हमदर्दी जताई थी।
मिजोरम एक छोटा सा राज्य था और इन 3 दिनों में, दो या तीन बार तो मुख्यमंत्री ने ही डिनर पर बुला लिया था। मुख्यमंत्री से औपचारिक बातचीत भी हुई थी जिनमें पता लगा था कि यंग मिजो एसोसिएशन नाम का एक संगठन उस राज्य में बहुत सक्रिय है. वह लोगों को नशा करने से रोकता है, नशे के कारोबार को रोकता है, फिर भी कोई नशे में मिले तो उसे चौराहे पर खंभे से बांधकर पीटता है। कोई व्यक्ति अपनी बीवी को पीटे तो इस संगठन के लोग जाकर उसे पीटते हैं, और राज्य में नैतिकता के पैमानों का एक ढांचा लागू करते हैं। जब मुख्यमंत्री से पूछा गया था कि क्या इन्हें कोई कानूनी रियायत मिली हुई है तो उन्हें इस व्यवस्था में कोई जटिलता नहीं दिखी, कोई कानूनी दिक्कत नहीं दिखी कि एक धार्मिक संगठन प्रदेश के लोगों में बुराई को खत्म कर रहा है, तो उसे क्यों रोका जाए।
उन्होंने बहुत से शब्दों में इस बात को दोहराया था कि सरकार तो इस संगठन का साथ देती है। मिजोरम शायद 87 फ़ीसदी से अधिक ईसाई राज्य है, और वहां चर्च का बहुत बड़ा असर है। देशभर से इकट्ठा संपादकों के स्वागत में जो सांस्कृतिक कार्यक्रम पेश किए गए, उसमें भी दोनों-तीनों दिन चर्च में गाए जाने वाले गाने भी शामिल थे। वहां की संस्कृति ही उस तरह की थी और ईसाई धर्म मानो वहां का राजधर्म हो गया था। उस प्रदेश में रहने वालों को इस राजधर्म और लोकतंत्र में कोई टकराव भी दिखना बंद हो गया था।
हालत यह थी कि जब पत्रकारों को दोपहर के भोजन की योजना दिखाने के लिए ले जाया गया तो मैंने यह सुझाया कि स्कूली बच्चों के साथ ही पत्रकार खा लेंगे उनके लिए अलग से किसी रेस्ट हाउस में खाना रखने की क्या जरूरत है? लेकिन जब स्कूल पहुंचे तो समझ पड़ा कि मेरी राय न मानना बेहतर रहा। उस स्कूल में दोपहर के भोजन में बच्चों के लिए दो तरह के खाने का इंतजाम था एक सूअर के गोश्त के साथ चावल, और एक बीफ के साथ चावल। बीफ लिखना इसलिए जरूरी है कि इसमें गोवंश के साथ-साथ भैंस का गोश्त भी आ जाता है। वहां पर यह पूछने पर कि अगर कोई शाकाहारी हो तो उस बच्चे के लिए खाने को क्या है, किसी स्थानीय अफसर के पास कोई जवाब नहीं था क्योंकि वहां शाकाहार किस्म की कोई चीज चलन में नहीं थी। वहां पहुंचे अखबार वालों में से बहुत से लोग शाकाहारी थे और यह अच्छा ही हुआ कि खाने का इंतजाम कहीं और था जहां पर गोश्त के अलावा शाकाहारी खाना भी था।
उत्तर पूर्व के इन दो मामलों का जिक्र करने की वजह यह है कि धर्म और राज्य मिलकर कितने खतरनाक हो सकते हैं इसकी मिसाल देखने के लिए ऑस्ट्रेलिया और कनाडा ही जाने की जरूरत नहीं है हिंदुस्तान में ही इसे वनवासी कल्याण आश्रम के शबरी आश्रमों में देखा जा सकता है, या कि मिजोरम जैसे ईसाई बहुल राज्य में देखा जा सकता है जहां पर चर्चा और राज्य में कोई फर्क ही नहीं है, और दोनों एक ही साथ मिलकर काम करते हैं। ऑस्ट्रेलिया और कनाडा की संसद और सरकारें तो आदिवासियों के बच्चों को उनसे दूर लाने के लिए माफी मांग चुकी हैं, मांग रही हैं, हिंदुस्तान में यह चोरी जारी है !
छत्तीसगढ़ के एक जिले में लॉकडाउन के दौरान सडक़ पर एक बेकसूर नौजवान को पीटने को लेकर कल से सोशल मीडिया और मीडिया में जितना कुछ चला, तो आज सुबह मुख्यमंत्री ने उस कलेक्टर का वहां से तबादला कर दिया, और खुद मुख्यमंत्री ने सोशल मीडिया पर जाकर उस परिवार के प्रति खेद जताया, और यह आगाह किया कि किसी भी अफसर का ऐसा बर्ताव बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। लेकिन कल से इस घटना को लेकर जितना कुछ लिखा गया है और छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में बसे हुए पत्रकारों ने इस पर जो प्रतिक्रिया की है, उसका एक छोटा हिस्सा भी बस्तर के उन आदिवासियों को नसीब नहीं हुआ जो कि अपने इलाके में पुलिस कैंप आने का विरोध कर रहे थे और इस विरोध के चलते पुलिस गोली से 3 आदिवासियों की मौत भी हुई है जिन्हें पुलिस ने अपनी हिकमत से आनन-फानन नक्सली करार दे दिया है। शहरी मीडिया का यह रुख नया नहीं है, क्योंकि विज्ञापनदाताओं को लाशों की खबरें नहीं सुहातीं।
बस्तर जैसे इलाके में जहां रात-दिन पुलिस और नक्सलियों में टकराव चलते रहता है वहां पुलिस अपने शक की बिना पर ही किसी भी आदिवासी को नक्सल समर्थक, नक्सल मददगार, या कुछ और साबित करने की ताकत रखती है। शायद वह बस्तर की पूरी वोटर लिस्ट को लेकर हर आदिवासी नाम के खिलाफ अपना एक शक कागजों में दर्ज करके उन्हें संदिग्ध नक्सली की शक्ल में बनाए रखती है, ताकि कभी भी जरूरत पडऩे पर उनकी लाश के साथ पुलिस का एक पुराना रिकॉर्ड चस्पा किया जा सके कि वह फलाना नक्सली कमांडर था जिस पर इतने का इनाम रखा गया था, जिसे इतने जुल्मों के लिए ढूंढा जा रहा था, और जो मुठभेड़ में मारा गया। सवाल यह है कि जब छत्तीसगढ़ का मीडिया, सोशल मीडिया, और यहां के नेता, शहर के एक थप्पड़ और लाठी के वीडियो से विचलित हो जाते हैं, उस वक्त बस्तर में 3-3 आदिवासियों की लाश गोली खाकर पड़ी हुई हैं, हजारों आदिवासी प्रदर्शन करते हुए पड़े हुए है, और उस पर शहरों में हलचल नहीं हो रही है। बस्तर के जिन जिलों में ऐसा प्रदर्शन चल रहा है या ऐसी पुलिस कार्यवाही चल रही है या ऐसी लाशें गिराई गई हैं वहां पर भी एक पुलिस जिला और एक राजस्व जिला, दो शामिल हैं, वहां भी कलेक्टर होंगे, वहां भी जाहिर तौर पर एसपी तो है ही क्योंकि गोली चलाने के हुक्म पर दस्तखत तो किसी कलेक्टर और एसपी का ही होगा, लेकिन जवाबदेही मानो किसी की नहीं है।
भाजपा के पिछले 15 वर्षों में जिन सामाजिक कार्यकर्ताओं के साथ कंधे से कंधा मिलाकर कांग्रेस ने बस्तर के आदिवासियों पर जुल्म के खिलाफ आंदोलन किए थे, वे कांग्रेसी भी आज खामोश हैं। प्रदेश की कांग्रेस सरकार भी इस पर खामोश है. आज भी मरने वाले तो उन्हीं आदिवासियों में से हैं जिनमें से भाजपा सरकार के समय मरने वालों पर कांग्रेस की हमदर्दी उनके परिवार के साथ रहती थी, उनके समाज के साथ रहती थी। आज जब बस्तर में लाशें गिरी हैं उस वक्त बस्तर के कांग्रेस नेता अगर उसी दोपहर खबरों के बीच ही फेसबुक पर अपनी प्रोफाइल फोटो बदलने का वक्त निकाल लेते हैं, लेकिन उसी फेसबुक पर आदिवासियों की मौतों को लेकर लिखी जा रही बातों को देखने का वक्त उनके पास नहीं रहता, तो यह एक सोचने की बात है कि क्या सत्तारूढ़ होने से किसी पार्टी की संवेदनशीलता इस हद तक चौपट हो सकती है?
आज बस्तर में मारे गए आदिवासियों तक पहुंचने के लिए वहां काम कर रही एक सामाजिक कार्यकर्त्ता बेला भाटिया लगातार संघर्ष कर रही हैं लेकिन उन्हें वहां आदिवासियों तक जाने नहीं दिया जा रहा। बेला भाटिया के पति, पूरी दुनिया के माने हुए अर्थशास्त्री, ज्यां द्रेज भी बस्तर पहुंचे हुए हैं वे भी इन आदिवासियों तक जाने की कोशिश कर रहे हैं, और पुलिस उन्हें वहां जाने नहीं दे रही। यह कैसी अजीब बात है कि ज्यां द्रेज यूपीए सरकार के 10 बरस में सोनिया गांधी की नेशनल एडवाइजरी काउंसिल के एक सबसे प्रमुख सदस्य रहे हैं, लेकिन आज वे मानो अवांछित हैं। कई बरस पहले बेला भाटिया की हिमायत करते हुए राहुल गांधी के ट्वीट हवा में तैर रहे हैं, जिसमें राहुल छत्तीसगढ़ की भाजपा सरकार के वक्त आदिवासियों के हक के लिए लडऩे वाली बेला भाटिया का साथ देते दिख रहे हैं, और आज सोशल मीडिया पर बार-बार छत्तीसगढ़ की कांग्रेस सरकार से यह पूछा जा रहा है कि क्या वह आज राहुल गांधी की कही हुई बात का समर्थन करती है या नहीं?
यह पूरा सिलसिला बड़ा अजीब है, बस्तर में 15 बरस तक भाजपा का राज रहा और भाजपा सरकार ने उसे पूरी तरह एक पुलिस राज्य बना कर रखा। भाजपा ने पूरे बस्तर को मोटे तौर पर बदनाम पुलिस अफसरों के हवाले कर दिया था, और उन्हें वहां की जागीर दे दी थी, कि वे जिसे जिंदा रखना जरूरी समझें उसे जिंदा रखें, बाकी की कोई फिक्र राजधानी रायपुर को नहीं होगी। यह पूरा सिलसिला उस वक्त राहुल गांधी ने बार-बार उठाया भी था और आज के छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने भी यह बात बार-बार उठाई थी।
आज सुबह मुख्यमंत्री ने जिस रफ्तार से सूरजपुर के कलेक्टर को हटाया है उसकी निंदा की है और उसके तोड़े गए मोबाइल की सरकार की तरफ से भरपाई करने की बात कही है, क्या इनमें से किसी भी किस्म की भरपाई बस्तर के मारे गए आदिवासियों को लेकर, वहां आंदोलन कर रहे आदिवासियों को लेकर की गई है? और अगर नहीं की गई है तो न सिर्फ बस्तर और छत्तीसगढ़ बल्कि तमाम हिंदुस्तान इस बात की राह देख रहा है कि बस्तर की मौतों को लेकर कांग्रेस पार्टी का क्या कहना है, मुख्यमंत्री का क्या कहना है और क्या आदिवासी मुद्दे आज भी कांग्रेस के दिल के उतने ही करीब हैं, जितने करीब छत्तीसगढ़ में भाजपा सरकार के रहते हुए थे? ये तमाम मुद्दे सरकार के लिए बहुत असुविधा के हो सकते हैं क्योंकि नक्सल मोर्चे पर उसे इसी पुलिस के सहारे लडऩा है, लेकिन ऐसा तो कोई कभी सोचता भी नहीं कि सरकार चलाना बहुत सुविधा का काम होता है।
मुख्यमंत्री भूपेश बघेल को बस्तर के मामले में कुछ तो बोलना चाहिए क्योंकि कैलेंडर की हर तारीख के साथ उनकी चुप्पी दर्ज होते चल रही है बढ़ रही है। उन्हें बोलने से अधिक कुछ करना भी चाहिए क्योंकि करना उनका अधिकार ही नहीं जिम्मा भी है। बस्तर को पुलिस के भरोसे छोड़ देने का मतलब आदिवासियों को नक्सलियों के भरोसे छोड़ देने के अलावा और कुछ नहीं है। रमन-सरकार के पंद्रह बरसों का इतिहास गवाह है कि हिंसक और हत्यारे अफसरों ने बस्तर का क्या हाल कर रखा है। राज्य में सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी बस्तर में नामौजूद रहकर अपनी जमीन खो बैठेगी। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
जब कभी मेरा साप्ताहिक स्तंभ ‘आजकल’ लिखना होता है, तो लिखने का एक नशा सा छाने लगता है, और एक उत्साह बने रहता है कि लिखा जाए, हर हफ्ते लिखा जाए। लेकिन जब गाड़ी पटरी से उतरती है तो ऐसी बुरी तरह उतरती है कि कई-कई महीनों तक कॉलम लिखना नहीं हो पाता। मेरी एक दिक्कत यह भी हो गई है कि सोशल मीडिया पर रात-दिन इतना अधिक लिखना हो जाता है कि वहां पर खासी गुबार निकलने का जरिया रहता है, और उसके बाद लिखने के मुद्दे भी कुछ कम हो जाते हैं। अखबार का संपादक होने के नाते कोई और टोकने वाले नहीं रह जाते कि कॉलम लिखना नहीं हो रहा है। इसलिए पिछले कुछ बरसों में यह कॉलम लिखना नहीं के बराबर हो पाया। अब बोलकर टाइप करने की एक नई तकनीक हाथ लगी है, जिससे तकरीबन पूरा का पूरा बिना गलती के टाइप किया जा सकता है, और फिर कुछ मिनटों में बकाया सुधार हो सकता है इसलिए एक बार फिर यह कोशिश कर रहा हूं कि हफ्ते का यह कॉलम जारी रह सके। एक वक्त तो यह था कि इस कॉलम पर छपी हुई किताब, वही मेरी पहचान बनी हुई थी और कई नए लोगों से मुलाकात होने पर कभी-कभी यह भी सुनने मिलता था कि अरे आपकी वह किताब हमारी देखी हुई है, पढ़ी हुई है, या संभाल कर रखी हुई है। लिखने के लिए कोई ना कोई ऐसा मुद्दा भी जरूरी होता है जो कि लिखने पर बेबस करे, और आज बाकी वजहों के अलावा एक वजह यह भी है कि दिल्ली ने ऐसा एक मुद्दा पेश किया है।
दिल्ली में करीब 2 दर्जन मजदूरों को पुलिस ने गिरफ्तार किया है जिन पर यह तोहमत है कि उन्होंने मोदी की आलोचना के पोस्टर दीवारों पर चिपकाए और कहीं-कहीं खंभों पर उनको टांगा भी है। अब यह पोस्टर क्या है इसे देखें तो इनमें मोदी से सवाल किया गया है मोदीजी हमारे बच्चों की वैक्सीन विदेश क्यों भेज दिया? इस एक सवाल को दीवारों पर टांगने और चिपकाने के जुर्म में 2 दर्जन से अधिक गरीब मजदूर गिरफ्तार किए गए हैं, जिनमें से कुछ का काम है पोस्टर चिपकाने का, और कुछ खाली बैठे हुए थे और जिंदा रहने की बेबसी ने उन्हें मजदूरी करने के लिए यह काम दिलाया था और इस काम में कोई जुर्म नहीं दिख रहा था इसलिए उन्होंने यह किया। गनीमत यही है कि इन दो दर्जन लोगों में से 2-3 को छोडक़र बाकी सारे के सारे हिंदू नाम दिख रहे हैं वरना ये पोस्टर मुल्क के साथ गद्दारी भी करार दिए जाते। अब अभी यह खुलासा नहीं हुआ है कि इन पोस्टरों को छपवाया किसने है, कुछ लोगों का अंदाज है कि आम आदमी पार्टी से जुड़े लोगों ने इसे छपवाया और टंगवाया, लेकिन अभी तक कोई सुबूत पुलिस के हाथ नहीं लगे हैं इसलिए महज मजदूर गिरफ्तार हो रहे हैं। यह एक अलग बात है कि जिस रात ये पोस्टर चिपके, उसी शाम या रात आम आदमी पार्टी के ट्विटर अकाउंट पर यही सवाल मोदी से पूछा भी गया।
अब सवाल यह है कि यह सवाल देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से पूछा गया है, और यह सरकार का किया गया खुद का खुलासा है कि उसने किस तरह कोरोना के करोड़ों टीके उस वक्त विदेश भेजे जिस वक्त इस देश में टीके लगना शुरू ही हुआ था। अब यह वैक्सीन डिप्लोमेसी अच्छी थी या नहीं। यह एक अलग बहस का मुद्दा है, यह हकीकत अपनी जगह साफ है कि जब देश में कुछ करोड़ वैक्सीन नहीं लगी थीं, तब भी कुछ करोड़ वैक्सीन देश के बाहर भी दूसरे देशों को भेजी गई थी। देश के बहुत से लोगों का यह मानना है कि दुनिया के किसी समझदार देश ने अपने देश के हर नागरिक के लिए वैक्सीन पूरी तरह जुटा लेने के पहले किसी दूसरे देश की मदद नहीं की है और हर किसी की जिम्मेदारी पहले अपने लोगों को बचाना होना चाहिए। हालांकि ऐसी नौबत में जवाहरलाल नेहरू प्रधानमंत्री रहते तो उनका क्या सोचना रहता इसे लेकर मेरी अपनी एक सोच है। लेकिन मैं अपनी सोच को इन दोनों तबकों में से किसी एक को बचाने के लिए या घेरने के लिए क्यों इस्तेमाल करूं। आज तो मोदी और उनकी वैक्सीन डिप्लोमेसी को लेकर सवाल करने वाले लोग आमने-सामने हैं, और क्योंकि मोदी के हाथों पुलिस है इसलिए ऐसे सवाल करने वाले लोगों के पोस्टर चिपकाने वाले मजदूर भी गिरफ्तार हो रहे हैं।
यह भी देखना चाहिए कि दिल्ली पुलिस ने कई थानों में जुर्म कायम करके पोस्टर चिपकाने वाले मजदूरों को जिस तरह गिरफ्तार किया है और उन पर जो दफा लगाई है वह कानून क्या है। आईपीसी की धारा 188 कहती है कि लोक सेवक के आदेश की अवमानना करने पर लोगों पर कार्रवाई की जा सकती है। एक दूसरी धारा जो इन मजदूरों पर लगाई गई है वह धारा 269 है जिसके तहत महामारी के दौर में लापरवाही बरतने और संक्रमण फैलाने की आशंका पर कार्रवाई करने का प्रावधान है। अब सभ्य भाषा में लिखे गए और छापे गए इन पोस्टरों में ऐसी कोई बात नहीं लिखी गई है जो अफवाह हो जो, अभद्र हो, जो किसी का अपमान हो, या जिसे पूछना लोकतंत्र के दायरे के बाहर की बात हो।
इस देश की जनता क्या अपने प्रधानमंत्री से यह पूछने की हकदार भी नहीं रह गई है कि इस देश के लोगों को लगे बिना यहां की वैक्सीन दूसरे देशों को क्यों भेजी गई? यह एक बहुत साधारण सा सवाल है जिसे पिछले कई हफ्तों से देश की जनता बार-बार पूछ रही है हजार बार पूछ रही है, और केंद्र सरकार के किसी-किसी स्तर से इसका कोई जवाब भी दिया गया है। अगर उसी सवाल को पोस्टरों की शक्ल में दिल्ली की दीवारों के रास्ते प्रधानमंत्री से पूछा गया है तो इसमें किस लोक सेवक के कौन से आदेश की अवमानना होती है यह बात कानून की हमारी बहुत मामूली समझ में बैठ नहीं रही है। इसके अलावा यह सवाल करना किस तरह महामारी के दौर में लापरवाही बरतना है या संक्रमण फैलाने की आशंका पैदा करना है यह भी हमारे समझ से बिल्कुल परे है। यह तो सवाल ही प्रधानमंत्री से इसलिए किया जा रहा है कि देश के लोग वैक्सीन पाने के लिए बेचैन हैं यह पोस्टर लगाने वाले कहीं भी वैक्सीन के खिलाफ कोई बात नहीं कह रहे, बल्कि वैक्सीन की अपनी चाहत बतला रहे हैं। ऐसे लोगों को तो इस बात को उठाने के लिए सम्मानित करना चाहिए कि वे वैक्सीन की जरूरत साबित कर रहे हैं, लेकिन उन्हें गिरफ्तार किया जा रहा है क्योंकि हिंदुस्तान में आज प्रधानमंत्री से सवाल करना केंद्र सरकार के मातहत काम करने वाली दिल्ली पुलिस एक जुर्म करार दे रही है। यह सवाल देश के तकरीबन तमाम गैर एनडीए नेता उठा चुके हैं तकरीबन तमाम गैरचापलूस अखबार भी यह सवाल उठा चुके हैं।
ऐसे में इस सवाल को अगर एक जुर्म जाता है और उस दिल्ली में जुर्म माना जाता है जहां पर संसद बेसुध सोई हुई है, लेकिन जहां पर जागी हुई अदालतें केंद्र सरकार से बहुत से सवाल कर रही हैं। टीकों को लेकर भी सवाल कर रही हैं, और टीके लगाने को लेकर सरकार पर जोर भी डाल रही हैं कि इन्हें किस तरह मुफ्त में तमाम लोगों को लगाया जाना चाहिए। ऐसी दिल्ली में जहां पर कि सरकार के पास अदालत में देने के लिए कोई जवाब नहीं है और जहां पर वह अदालत को कहती है कि उसे सरकार के इस काम में दखल नहीं देना चाहिए उसे अपनी सीमा के भीतर रहना चाहिए, वहां पर एक मासूम सा सार्वजनिक सवाल जेल दिलवा रहा है, तो यह लोकतंत्र का एक किस्म से खात्मा है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को उन्हीं के बहुत से शुभचिंतक, चेतन भगत से लेकर अनुपम खेर तक, सार्वजनिक रूप से यह बात समझा रहे हैं कि आज के हालात सुर्खियों पर काबू पाने या अपनी छवि को सुधारने-चमकाने के नहीं हैं, आज के हालात जिंदगियों को बचाने के हैं, तो ऐसी हालत में भी जिस किसी ने ऐसे मजदूरों की गिरफ्तारी का फैसला लिया है, हमारा यह मानना है कि यह फैसला लेने वाले लोग केंद्र सरकार या नरेंद्र मोदी के शुभचिंतक नहीं हो सकते। नरेंद्र मोदी की और बहुत सी गलतियां हो सकती हैं, बहुत सी खामियां हो सकती हैं, लेकिन क्या वे इतने नासमझ हो सकते हैं कि इन पोस्टरों पर मजदूरों की गिरफ्तारी की तोहमत और बदनामी अपने नाम आज और मढ़वा लें ? यह बात मुमकिन तो नहीं लगती है, लेकिन हम मोदी के ऐसे करीबी लोगों के, करीबी लोगों के, करीबी लोगों के, करीब भी नहीं हैं कि हमसे पूछ सकें कि आज के हालात में क्या सरकार और पुलिस की प्राथमिकता इस मासूम सवाल वाले पोस्टर को चिपकाने वाले गरीब बेरोजगार मजदूरों को गिरफ्तार करना होना चाहिए? आज हिंदुस्तान में सवाल कौन किससे पूछ सकते हैं? फिर यह है कि एक सवाल लिखकर पोस्टकार्ड भेजा गया हो, और पहुंचाने गए हुए डाकिए को गोली मार दी गई हो, उसे क्या कहा जाए?
आज तो जो मजदूर एक दिन की जिंदगी और गुजार लेने के लिए अपनी तरफ से कोई कानूनी मेहनत कर रहे हैं, उनकी ऐसी गिरफ्तारी हमारा ख्याल है कि सुप्रीम कोर्ट में दो मिनट भी खड़ी नहीं हो पाएगी, और जिस दिल्ली में बड़ी-बड़ी अदालतों की भरमार है, इन मजदूरों की तरफ से किसी को एक बड़ी अदालत में जाना चाहिए। अगर यह सिलसिला नहीं रुका तो पोस्टर चिपकाने की सीसीटीवी रिकॉर्डिंग देख-देखकर ऐसे मजदूरों की गिरफ्तारी में जुटी हुई दिल्ली की पुलिस और कहां तक पहुंचेगी, इसका कोई ठिकाना तो है नहीं। जिस दिल्ली में लाश जलाने को जगह नहीं मिल रही है, जहां अस्पतालों में ऑक्सीजन नहीं मिल रही है, जहां कब्रिस्तान में दफनाने को जगह नहीं मिल रही है, जहां पर इंजेक्शन और दूसरी जीवनरक्षक दवाइयां नहीं मिल रही है, वहां पर ऐसा लगता है कि दिल्ली पुलिस के पास वक्त ही वक्त है, वह पोस्टर चिपकाने वाले लोगों तक को पहचानने के लिए उनकी शिनाख्त करने के लिए सीसीटीवी कैमरों की रिकॉर्डिंग देखते बैठी है, और फिर उन मजदूरों को ढूंढकर उन्हें पकड़ते गिरफ्तार करते घूम रही है! क्या देश की राजधानी में पुलिस के पास यही आज सबसे महत्वपूर्ण काम रह गया है? और क्या ऐसे सवाल पूछने पर इस देश में क्या गिरफ्तारी के लिए महज मजदूर रह गए हैं? जिन मजदूरों के पास कोई काम नहीं रह गया है, जिनके पास कोई खाना नहीं रह गया है, उन्होंने अगर एक कानूनी काम करने का मजदूरी का जिम्मा लिया, तो उन्हें इस तरह गिरफ्तार किया जा रहा है ! क्या इन पोस्टरों को लगाने से दिल्ली में महामारी का संक्रमण फैलने की आशंका बढ़ रही है? महामारी अधिनियम के तहत ऐसी गिरफ्तारियां, सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने के लायक हैं ताकि महामारी एक्ट के तहत ऐसी और कार्रवाई ना हो सके और बेकसूर गिरफ्तार न किए जा सकें। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
सुशांत राजपूत की मौत को खुदकुशी से परे एक साजिश या कत्ल साबित करने में जो खेमा रात-दिन एक कर रहा था, उसे पिछले दिनों एम्स के डॉक्टरों की रिपोर्ट से खासी मायूसी हाथ लगी कि मौत खुदकुशी ही है। इतने महीनों से गैस भरकर एक बड़ा सा गुब्बारा रस्सी से बांधकर आसमान तक पहुंचाया गया था कि सुशांत सिंह राजपूत को इंसाफ मिले, और मुजरिम बताते हुए उन तमाम लोगों को बदनाम करने का एक अभियान चला हुआ था जिन्हें कंगना रनौत पसंद नहीं कर रही थीं। सुशांत राजपूत के घरवालों के मुकाबले भी कंगना रनौत अधिक आक्रामक होकर एक धूमकेतू की तरह इस फिल्मी विवाद में पहुंची थी, और एम्स की रिपोर्ट के बाद उसकी भी बोलती बंद सरीखी है। इस दौरान उसने केन्द्र की भाजपा अगुवाई वाली सरकार से देश की एक सबसे ऊंचे दर्जे की हिफाजत हासिल कर ली, और बिना मास्क लगाए देश की एक सबसे महत्वपूर्ण सुरक्षा एजेंसी के दर्जनों लोगों के लिए खतरा बनी हुई उन्हीं के घेरे में घूम भी रही है। इस बीच उसने महाराष्ट्र की शिवसेना को नीचा दिखाने की एक ऐसी कोशिश भी कर डाली जो कि गठबंधन टूटने के बाद भी भाजपा नहीं कर पाई थी। कुल मिलाकर कंगना रनौत ने कुछ अरसा पहले जिस झांसी रानी लक्ष्मीबाई का किरदार परदे पर निभाया था, उसी किरदार को जिंदा करते हुए वह लकड़ी के घोड़े के बजाय प्लेन और कारों के काफिले में सफर करते हुए भाजपा को नापसंद तमाम लोगों पर तलवार भी चला रही है।
लेकिन यहां लिखने का मकसद कंगना रनौत के इस धूमकेतू-किरदार पर लिखना नहीं है, बल्कि उन्होंने एक ताजा बात कही है उसके व्यापक सामाजिक संदर्भ पर लिखना है। कंगना ने पिछले दिनों किसी बात को लेकर शायद ऐसा दावा किया होगा कि ऐसा हो जाए तो वे अपना सम्मान या अवार्ड लौटा देंगी। उन्होंने दावा किया है या नहीं, यह भी मुद्दा नहीं है, उन्होंने इस बात की याद दिलाते हुए स्वरा भास्कर की एक ट्वीट पर लिखा कि वे एक क्षत्रिय हैं, और अपनी बात से कभी मुकरेंगी नहीं, लेकिन उन्होंने कहा क्या था इसके लिए यह वीडियो देख लिया जाए।
यहां लिखने का मामला बस यहीं से शुरू होता है कि एक क्षत्रिय का दिया हुआ वचन क्या बाकी लोगों के दिए हुए वचन के मुकाबले अधिक वजन रखता है? क्या दूसरी जातियों के लोग अधिक झूठ बोलते हैं? हिन्दुस्तान में इस किस्म का जुबानी जमाखर्च चलते ही रहता है जब लोग अपनी ऊंची समझी जाने वाली जात को लेकर ऐसे दावे करते हैं, कोई कहता है कि यह राजपूत की जुबान है, तो कोई कहती है कि वह ब्राम्हण की औलाद है। यह आम सिलसिला है कि लोग कहें कि उनकी रगों में फलानी जाति का लहू दौड़ रहा है, या वे फलाने की औलाद हैं, और ऐसा नहीं कर सकते।
जातियों का अहंकार हिन्दुस्तान को तो तोड़ रहा है, लेकिन इस अहंकार को तोडऩे वाला हथौड़ा इस देश में बना नहीं है, और यह एक वजह है कि दुनिया के बाकी विकसित देशों के मुकाबले हिन्दुस्तान सौ कदम पीछे ही रहेगा क्योंकि वह अपनी आधी महिला आबादी को हिकारत से देखता है, वह अपनी दलित आबादी को बलात्कार करने के अलावा बाकी कामों के लिए अछूत मानता है, वह आदिवासियों को कमअक्ल मानता है, वह इस देश के मुस्लिमों और ईसाईयों को विदेशी धर्म का मानता है। मतलब यह कि अपने आपको हिन्दुस्तान, और पूरा हिन्दुस्तान मानने वाला यह ऊंची समझी जाने वाली जाति का बहुत छोटा सा तबका ऐसा है जो कि पीढिय़ों के अहंकार से लदा हुआ है। यह गौरव, मतलब यह कि जिसे यह तबका गौरव समझता है, वह इस तबके की ताकत न होकर इस तबके पर बोझ बनकर लदा हुआ है। यह झूठी शान ऐसा सोचने वालों को खुले दिमाग से न कुछ सोचने देती, न बात करने देती। इसकी हरकतें उन जातियों के ओर हमलावर रूख की रहती हैं जिन्हें ये जातियां अपने से नीची मानती हैं।
कल-परसों ही दलित तबके के किसी हिमायती ने, या उसके तबके के ही किसी ने यह सवाल उठाया है कि दलित लड़कियों से बलात्कार करते हुए छुआछूत कहां चले जाता है? बात सही भी है, क्योंकि दलितों के छूने से अगर कुआं अपवित्र हो जाता है, उनके पूजा करने के बाद ईश्वर की प्रतिमा और मंदिर को धोना पड़ता है, उनकी छाया पडऩे के बाद अपने आपको गंगाजल से साफ-शुद्ध करना पड़ता है, तो फिर उनकी लड़कियों की देह के इतने भीतर तक जाते हुए सवर्णों को कुछ छुआ नहीं लगता?
जाति के गर्व का पाखंड अहिंसक नहीं है। यह सदियों की हिंसा की परंपरा को आज आजादी की पौन सदी के करीब भी उतनी ही आक्रामकता के साथ लेकर चल रहा है क्योंकि सवर्ण अहंकार को दलितों में रीढ़ की हड्डी नहीं सुहाती, उनके दूल्हे का घोड़ी पर चढऩा बर्दाश्त नहीं होता, और उनके लिए इन पर हमला करना मानो अपने गर्व को जिंदा रखने के लिए जरूरी हो जाता है। ऐसे ही हमलावर तबके बात-बात पर अपनी जात के गौरव का गुणगान जुबान का पक्का रहने, हौसलामंद होने, इज्जत के लिए दूसरों को खत्म कर देने जैसी बातों के साथ करते हैं।
भारत जैसे जटिल जातिवाद को देखें, उसके ढांचे और उसकी हिंसा को देखें, तो यह बात साफ दिखती है कि किसी धर्म या किसी जाति के अहंकार के सार्वजनिक दावे एक किस्म से दूसरे धर्मों और दूसरी जातियों को अपने से नीचे दिखाने की कोशिश भी रहते ही हैं। लोगों को अगर सामाजिक न्याय की बात करनी है, दूसरे धर्म और दूसरी जातियों के लोगों को बराबरी का इंसान समझना है, तो अपने तबके के घमंड से अपने को आजाद भी करना होगा। जो धर्म परंपरागत रूप से दूसरों के प्रति हमलावर रहते आए हैं, जो जातियां दूसरी जातियों पर ज्यादतियां करते आई हैं, उन जातियों की ऐसी काल्पनिक खूबियों के दावे एक सामाजिक हिंसा तो रहते ही हैं, फिर चाहे उनसे सीधे-सीधे लहू न निकलता हो।
हिन्दी फिल्मों में कहानी में नाटकीयता पैदा करने के लिए ऐसी हिंसा की बातों को लाद दिया जाता है। फिल्मों के संवाद-लेखक इन्हें उसी हिंसा के साथ पेश करते हैं जो हिंसा आजादी के पहले भी नाजायज मानी जा चुकी थी। ऊंची समझी जाने वाली जातियों की नीची समझी जाने वाली जातियों पर हिंसा। अनगिनत हिन्दी फिल्मों की कहानियां ऐसे ही सामाजिक अन्याय पर टिकी रहती हैं, उन्हीं की बुनियाद पर खड़ी रहती हैं।
सामाजिक व्यवस्था अनंतकाल से महिलाओं के खिलाफ, कुछ जातियों के खिलाफ, गरीबी और बीमारी के खिलाफ, विकलांगता के खिलाफ, बेकसूर जानवरों के खिलाफ अंतहीन किस्म के कहावत और मुहावरे गढ़ते आई है। समाज का मिजाज बेइंसाफी से भरा रहता है, और उसे आगे बढ़ाने के लिए, धार देने के लिए समाज वैसी ही जुबान का इस्तेमाल बढ़ाते चलता है। अपने आपको क्षत्रिय बताते हुए अपनी जुबान पक्की होने के बारे में जाति का हवाला देते हुए कंगना रनौत ने कोई नया काम नहीं किया है, बल्कि सदियों से चली आ रही इसी अन्यायपूर्ण सामाजिक सोच को आगे बढ़ाया है कि लोगों का अपनी बात पर कायम रहना किसी जात से जुड़ा रहता है। मतलब यह कि दूसरी जातियों के लोग शायद अपनी बात पर पक्के नहीं रहते। सामाजिक अन्याय की खूबी यही रहती है कि कई बार वह किसी दूसरे को गाली दिए बिना, महज अपने गुणगान से एक बेइंसाफ तस्वीर पेश करता है। और अब तो यह अहंकार वाई केटेगरी के सुरक्षा घेरे में चल रहा है, करेला नीम पर चढ़ गया! (इस मिसाल के लिए करेले और नीम दोनों से माफी मांगते हुए)। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
लगातार पढऩे वाले पाठकों से भी कई बार कुछ मुद्दों पर लिखने की सिफारिश मिलती है। अभी एक ने अर्नब गोस्वामी का एक वीडियो भेजा, और उसके साथ लिखा कि महाराष्ट्र सरकार के लोगों के बारे में यह कैसी जुबान में कहा जा रहा है, इस बारे में मुझे लिखना चाहिए। अर्नब गोस्वामी की कोई भी वीडियो क्लिप खोलना मैंने बरसों से बंद कर दिया है क्योंकि अपने खुद के शहर की, अपने घर-दफ्तर के आसपास की नालियां जाम रहती हैं, और गंदगी वहां दिखती रहती है। ये पत्रकार साथी चाहते थे कि मैं इस पर लिखूं ताकि वे बाद में मुझे मेरे नाम सहित अपनी वेबसाईट पर प्रकाशित भी कर सकें, लेकिन किसी दोस्त की सिफारिश पर भी मैं इतनी गंदगी में उतरना नहीं चाहता। एक रूपए का सिक्का अगर नाली में गिर जाए, तो मैं उसे ढूंढने के लिए नाली में नहीं उतरूंगा। टीवी पर किसी किस्म की नफरत, हिंसा, साम्प्रदायिक भडक़ाऊ बकवास सुनकर अपना दिन क्यों खराब करना।
लेकिन महाराष्ट्र सरकार इन दिनों खबरों के घेरे में आई है, और सत्तारूढ़ गठबंधन की मुखिया शिवसेना शायद लंबे समय बाद एक बेहूदे बवाल में फंस गई है जिसमें से कोई इज्जतदार रवानगी थोड़ी मुश्किल दिख रही है। ऐसा भी नहीं है कि अलग-अलग किस्म के बवाल को शिवसेना को कोई परहेज रहा हो, और अपनी संस्थापक बाल ठाकरे के वक्त से शिवसेना तरह-तरह के विवादों और बवालों से बुरी शोहरत और अच्छी ताकत पाते रही है। इसलिए अभी जब शिवसेना के अखबार के संपादक और उसके मीडिया-चेहरा संजय राऊत ने जब फिल्म अभिनेत्री कंगना राणावत (या रनौत) से एक सार्वजनिक टकराव मोल लिया, तो वह कुछ अधिक दूर तक चले गया। विपक्ष में रहने वाली शिवसेना की जुबान तेजाबी और तीखी रहती है, लेकिन इस बार उसे अपनी टक्कर की एक जुबान कंगना की शक्ल में मिली है जिसके पीछे भाजपा और केन्द्र सरकार जमकर खड़ी दिख रही हैं।
दरअसल यह बवाल कंगना और शिवसेना के भी पहले से सुशांत राजपूत नाम के अभिनेता की मौत से चल रहा है जिसे बिहार सरकार, और बिहार में चुनाव लडऩे जा रहे गठबंधन में भागीदार भाजपा मौत से परे कुछ साबित करने पर उतारू हैं, और सुशांत राजपूत बिहार का सपूत करार देते हुए यह साबित करने की कोशिश हो रही है कि महाराष्ट्र की पुलिस इस मौत की जांच करने की क्षमता और शायद नीयत नहीं रखती। यह बात मेरी साधारण समझ से परे की है कि महाराष्ट्र पुलिस की इस मौत में किसी को बचाने, या किसी को फंसाने की क्या नीयत हो सकती है। यह तो एक मौत है, जो खुदकुशी साबित हो तो केस बंद हो जाएगा, जो कत्ल साबित हो तो शक के घेरे में आए लोगों पर मुकदमा चलेगा, और इनमें से कोई भी सरकार का हिस्सा नहीं है। लेकिन जिस तरह से बिहार के डीजीपी ने एक सार्वजनिक मोर्चा खोलकर, उसे लगातार जारी रखकर उसे बिहार की अस्मिता का मुद्दा बनाया, उसे बिहार चुनाव तक जारी रखने का एक चुनावी मुद्दा बनाने की कोशिश हुई, जिस हलकट-जुबान में डीजीपी ने मुम्बई की एक अभिनेत्री के बारे में बयान दिया, जिन अनगिनत शब्दों में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की चापलूसी की, उन सबको देखते हुए यह शक होना नाजायज नहीं होगा कि यह सब एक मौत का चुनावी इस्तेमाल होने जा रहा है, बल्कि डीजीपी खुद चुनाव लडऩे की तैयारी कर रहे हैं।
सिलसिला यहीं खत्म नहीं हुआ, बिहार सरकार ने जिस जोर-शोर के साथ सुशांत राजपूत की मौत की जांच करने के लिए अपनी पुलिस मुम्बई भेज दी, मुम्बई में क्वारंटीन नियमों पर अमल की वजह से उसने यह शिकायत की कि मुम्बई पुलिस बिहार पुलिस को जांच नहीं करने दे रही है, और बिहार सरकार की मांग पर, महाराष्ट्र के तमाम विरोध के बावजूद केन्द्र सरकार ने मुम्बई में हुई मौत की सीबीआई जांच का हुक्म दे दिया।
यह सिलसिला बड़ा अटपटा चल रहा था, और इसमें सौ-पचास दूसरे लोग अपने-अपने बयानों के तीर भी चला रहे थे, और इस बीच जाने कहां से कंगना ने मोर्चा सम्हाल लिया, और हमला सीधे शिवसेना पर किया। या अधिक सही यह कहना होगा कि कंगना के बयानों पर शिवसेना ने हमला किया, और फिर यह छोटी बयानबाजी एक बड़ी जंग में तब्दील हो गई, जिसका एक नाटकीय मोड़ अभी इस पल खबरों में आ रहा है कि केन्द्र सरकार ने कंगना को मुम्बई जाने के ठीक पहले वाई केटेगरी की सुरक्षा दे दी है। मतलब यह कि वह केन्द्रीय सुरक्षा बल की बंदूकों के घेरे में मुम्बई पहुंचेगी, और शिवसेना का उसे वहां आने न आने देने को लेकर दिया गया बयान किनारे रह जाएगा। जिस जुबान में कंगना ने शिवसेना से बहस शुरू की है, वह हमें पिछले कई दशकों में शिवसेना के लिए किसी और के मुंह से सुनाई नहीं दी थी। अब हालत यह है कि या तो सत्तारूढ़ गठबंधन की मुखिया खुद ही कानून तोडक़र कंगना के आने के खिलाफ बवाल खड़ा करे, या फिर अपने ही किए हुए दम-खम के दावों, और धमकियों को भूलकर घर बैठे।
आज जब देश जमीनी दिक्कतों, मुसीबतों के बीच मरने की नौबत में है, तब देश के कुछ राज्य, केन्द्र सरकार में सत्तारूढ़ पार्टी, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का एक बड़ा हिस्सा, और सोशल मीडिया का उससे भी बड़ा हिस्सा इस बकवास को लेकर बहस में उलझे हुए हैं। टीवी के पर्दों को देखें तो लगता है कि इस देश में परसों तक अकेला सुशांत राजपूत राष्ट्रीय मुद्दा था, फिर कल उसकी प्रेमिका रही रिया चक्रवर्ती नाम की अभिनेत्री राष्ट्रीय मुद्दा बन गई, और आज तो महज कंगना ही कंगना खनक रहा है। यह कंगना इस कदर खनक रहा है कि देश के भूखों, बीमारों, बेरोजगारों, और कोरोना से कराहते या मरते लोगों की आवाजें भी दब गई हैं। यह पूरा देश एक गैरमुद्दे को अकेला राष्ट्रीय मुद्दा बनाकर उसमें उलझ गया है, या उलझा दिया गया है।
केन्द्रीय रेलमंत्री रहते हुए ममता बैनर्जी जब बंगाल जाती थीं, तो वहां सत्तारूढ़ वामपंथी सरकार की सुरक्षा पर भरोसा करने के बजाय वे रेलवे पुलिस के घेरे में जाती थीं। खैर वे तो फिर भी केन्द्रीय मंत्री थीं। अब जिस अंदाज में कंगना को देश की दूसरे-तीसरे दर्जे की हिफाजत दी गई है, वह कई किस्म के सवाल खड़े करती है। हम इसमें केन्द्र सरकार को अधिक कुसूरवार नहीं मानते क्योंकि महाराष्ट्र के गृहमंत्री ने जिस जुबान में कंगना के लिए सार्वजनिक बयान दिया था, और जिस जुबान में सत्तारूढ़ शिवसेना के बयान आ रहे थे, उन्हें देखते हुए केन्द्र सरकार ऐसी हिफाजत दे भी सकती थी, जो कि बहुत नाजायज नहीं कही जा सकतीं।
लेकिन दिक्कत यह है कि जिस जुबान में महाराष्ट्र सरकार के गृहमंत्री और शिवसेना के प्रवक्ता एक अभिनेत्री से उलझे हैं, उससे महाराष्ट्र सरकार की स्थिति कमजोर हुई है। एक विपक्षी पार्टी के रूप में अराजकता की बातें शिवसेना के लिए नई नहीं होतीं, लेकिन एक सत्तारूढ़ पार्टी के रूप में उसे अपनी जिम्मेदारी समझनी चाहिए थी, और वह चूक गई। किसी निजी टीवी चैनल के एंकर तो कितनी भी हिंसक और भडक़ाऊ, साम्प्रदायिक और अश्लील बातें कर सकते हैं, अपनी मौजूदगी में लाईव टेलीकास्ट में मां-बहन की गालियां प्रसारित करवा सकते हैं, लेकिन एक सरकार की अपनी सीमाएं होती हैं, महाराष्ट्र के गृहमंत्री का यह बयान कि अगर कंगना को मुम्बई सुरक्षित नहीं लगता है, तो उन्हें यहां नहीं आना चाहिए, यह सरकारी ओहदे की जिम्मेदारियों से परे की बात थी।
सुशांत राजपूत की मौत के अलग-अलग कई पहलुओं, और उसकी लाश पर रोटी सेकते बाकी दर्जनों लोगों के बयान अलग रहे, लेकिन एक राज्य को ऐसे विवाद में नहीं उलझना चाहिए। जहां तक कंगना का सवाल है, तो वह तो कमर कसकर, हाथ में तलवार लेकर केन्द्र सरकार में अगले किसी ओहदे की तरफ बढ़ती हुई दिख रही है, और सोशल मीडिया ऐसे मजाक से भी भरा हुआ है कि स्मृति ईरानी को सम्हल जाना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
अखबारनवीसी में बहुत से पुराने लोग बड़े कट्टर होते हैं। आजकल कुछ अखबारों में जिस तरह हिंग्लिश छपती है, उसे देखकर वे कब्र या पंचतत्व में भी बेचैनी से करवटें बदलते होंगे। बहुत से लोग खालिस हिन्दी को लेकर, बहुत से लोग व्याकरण को लेकर इतने कट्टर रहते हैं कि अंग्रेजी में उनके लिए एक बड़ा माकूल शब्द किसी ने काफी पहले से उछाला हुआ है- ग्रामर नाज़ी। जिस तरह हिटलर और उसकी नाज़ी सेना जर्मन आर्य रक्तशुद्धि पर अड़े रहते थे, कुछ उसी तरह लोग व्याकरण या ग्रामर को लेकर भी अड़े रहते हैं। एक-एक हिज्जे को लेकर, एक-एक उच्चारण को लेकर बड़ी लंबी बहस होती है, और अखबारी जुबान की बखिया उधेड़ दी जाती है।
ये सारी बातें कम से कम हिन्दी में एक उस खड़ी बोली के व्याकरण के मुताबिक की जाती हैं, जो अलग-अलग क्षेत्रीय लोकभाषाओं, और बोलियों से निकलकर बनी है, और जिसका व्याकरण एक फौलादी ढांचा बना दिया गया है। हिन्दी जिन क्षेत्रीय भाषाओं और बोलियों से निकली है, उन्हें अगर देखें तो अलग-अलग प्रदेशों के अखबारों में उसकी झलक दिखती है। बहुत से लोग एकदम खरी और सही हिन्दी बोलते हैं, लिखते हैं, लेकिन बहुत से लोग जो कि क्षेत्रीय भाषाओं से उठकर अखबारनवीसी में पहुंचे हैं, उनकी भाषा में खड़ी बोली के ग्रामर के पैमाने पर काफी गलतियां निकाली जा सकती हैं।
मेरा निजी तौर पर यह मानना रहा है कि लोग अगर सही व्याकरण लिख सकते हैं, तो बहुत अच्छी बात है, लेकिन आसपास के तमाम लोग सही व्याकरण लिखें, ऐसा आग्रह उन्हीं जगहों पर करना ठीक है जो कि भाषा और व्याकरण पढ़ाने की जगहें हैं। क्लासरूम की पढ़ाई में शिक्षक का व्याकरण ठीक हो, यह बात तो ठीक है, लेकिन साधारण जानकारी के लिए जो अखबार पढ़े जाते हैं, उनमें लिखने वाले लोग अगर व्याकरण की कुछ गलतियां भी करते हैं तो उन्हें इस बात के साथ जोडक़र ही देखना चाहिए कि अखबारनवीसी की बाकी खूबियां उनमें कैसी हैं?
सौ फीसदी खरी हिन्दी लिखने वाले लोग अगर सामाजिक सरोकारों में कमजोर हों, अगर उनकी राजनीतिक चेतना कमजोर हो, तो फिर उनकी खरी हिन्दी अखबारनवीसी में कोई बड़ी खूबी नहीं है। बड़ी खूबी तो सरोकार और चेतना, समझ और इंसाफ की फिक्र होनी चाहिए, और इसके साथ-साथ भाषा ठीक हो तो ठीक है, कुछ मामूली गलतियां हों, तो कोई मायने नहीं रखतीं।
दरअसल एकदम खालिस जुबान की अगर बात करें, तो हिन्दुस्तान में हिन्दी अखबार और बाकी मीडिया में काम करने वाले बहुत से लोग किनारे लग जाएंगे। अखबारी पाठक खुद भी बहुत सी बातों को समझ लेते हैं, और उनको अगर कुछ गलतियां खुद भी सुधारकर पढऩा पड़े, तो उनका जानकार दिमाग ऐसा करते रहता है। यह बात सांस लेने की तरह है जो कि अच्छी और बुरी गंध के बीच भी अपना काम करना जानती है।
एकदम ही शुद्ध जुबान कुछ शास्त्रीय संगीत की तरह होती है जिसमें एक-एक स्वर को लेकर एक ठोस ढांचा रहता है। अलग-अलग रागों में अलग-अलग स्वर की बड़ी कट्टर बारीकियां रहती हैं। और व्याकरण की कक्षा में, व्याकरण की किताब में तो भाषा की ऐसी कट्टर बारीकी जरूरी है, लेकिन असल जिंदगी की दौड़-भाग के बीच आपाधापी में तैयार अखबार या खबर ऐसी कट्टरता के साथ चले यह जरूरी नहीं है।
भाषा तो महज एक औजार है, एक की बातों को दूसरे तक पहुंचाने का औजार, या एक की बातों को कई तक पहुंचाने का औजार। दुनिया में ऐसी बहुत सी मिसालें हैं जिनमें लोग किसी भाषा को ठीक से जाने बिना भी अपना काम चला लेते हैं। मैं किसी भी कोने से यह नहीं सुझा रहा हूं कि अखबारों की कोई जुबान ही नहीं होना चाहिए, लेकिन यह जरूर सुझा रहा हूं कि क्षेत्रीय भाषाओं और बोलियों के असर वाली जो हिन्दी है, उसे कला में लोककला की तरह ही मंजूर करना चाहिए। उसे खारिज करने का मतलब बहुत से लोगों को ही खारिज करना हो जाएगा जो कि शास्त्रीय हिन्दी में महारत हासिल नहीं कर पाते।
एक वेबसाईट पर अभी ऐसी कई दर्जन बड़ी दिलचस्प और मजेदार मिसालें पोस्ट हुई हैं जिनमें लोग किसी भाषा को जाने बिना किस तरह अपना काम चलाते हैं। अलग-अलग लोगों ने अपने तजुर्बे सोशल मीडिया पर पोस्ट किए हैं। एक ने लिखा है कि उसके फ्रेंच दोस्त को ढक्कन शब्द का अंग्रेजी याद नहीं रहा, उसने अपना काम चला लिया यह कहकर- इसका हैट कहां है?
अंग्रेजी में डिग्री पाई एक महिला मशाल के लिए अंग्रेजी शब्द भूल गई थी, उसने इंटरनेट पर यह लिखकर उसे ढूंढ लिया- एक डंडे पर आग।
इसी तरह किसी के स्विस बॉयफ्रेंड को बछड़े या बछिया के लिए अंग्रेजी शब्द काफ याद नहीं पड़ा तो उसने पपी-काऊ कहकर काम चला लिया, यानी गाय का पिल्ला।
एक किसी ने अपने खुद के बारे में लिखा है कि उसे गिनने के लिए अंग्रेजी शब्द काऊंटिंग याद नहीं पड़ रहा था, तो उसने-डू द नंबर अल्फाबेट, कहकर काम चला लिया।
एक और मजेदार मिसाल है कि एक आदमी मुर्गी का अंग्रेजी शब्द भूल गया, तो दुकानदार से उसने अंडे की तरफ इशारा करके पूछा कि इसकी मदर किधर है?
एक महिला माचिस के लिए फ्रेंच शब्द भूल गई, तो उसने दुकानदार से कहा- लकड़ी की छोटी डंडियां जिससे आग लगती है। और दुकानदार जान गया कि वह माचिस चाहती है।
किसी को रात शब्द का अंग्रेजी याद नहीं पड़ा तो उसने डार्क टाईम कहकर काम चला लिया, किसी को अंग्रेजी का सैंडविच नहीं सूझा तो उसने डबलरोटी पर खाना, और ऊपर डबलरोटी कहकर अपनी बात समझा दी।
एक गैरइटैलियन को दूध का इटैलियन शब्द याद नहीं पड़ा, तो उसने काऊ-जूस कहकर काम निकाल लिया, सामने वाले को समझ आ गया कि उसे दूध चाहिए।
एक को जब यह याद नहीं पड़ा कि आधी रात को मिडनाईट कहा जाता है तो उसने नाईटनून कहकर काम चला लिया।
इन मिसालों का सीधे-सीधे अखबारनवीसी से कोई लेना-देना नहीं है, सिवाय यह बताने के कि भाषा कभी रोड़ा नहीं होती, भाषा तो बस अपनी बात पहुंचाने के लिए एक गाड़ी की तरह होती है, जो लडख़ड़ाकर भी चल सकती है।
फिर हिन्दुस्तान जैसे दर्जनों भाषाओं और सैकड़ों बोलियों वाले देश में यह भी याद रखने की जरूरत है कि स्थानीय बोलियों का व्याकरण कहीं हावी रहेगा, और कहीं उन बोलियों के शब्द भी। इनकी सीमाएं भी न तो सूबों की सीमाओं की तरह नक्शों पर दर्ज हैं, और न ही अखबार इन सरहदों तक सीमित रहते हैं। किसी एक बोली के इलाके के अखबारनवीस हिन्दी के अखबार में छपकर किसी दूसरी बोली के इलाके तक भी जाते ही हैं। इसलिए भाषा की शुद्धता का मतलब लोगों को उनकी स्थानीयता से काटकर, व्याकरण की अग्निपरीक्षा से गुजारकर एक खास कैरेट के सोने की तरह बनाना हो जाएगा। जिस तरह हिन्दुस्तानी जुबान का इस्तेमाल किसी भी एक भाषा के मुकाबले अधिक असरदार और बेहतर है, उसी तरह स्थानीयता का असर भाषा में खोट नहीं है, वह खूबी है, और उसे खूबी की तरह ही लेना चाहिए। अखबार की जुबान का इतना बेरहम होना जरूरी नहीं है कि क्षेत्रीय अखबारों के अधिकतर काम करने वाले कमजोर साबित होने लगें। जिस तरह किसी मछली को पेड़ पर चढऩे का काम देकर उसे बड़ी आसानी से नालायक और नाकामयाब साबित किया जा सकता है, उसी तरह क्षेत्रीय भाषाओं के लोगों को एकदम खरी खड़ी बोली वाली हिन्दी के लिए कहना उन्हें अखबारनवीसी में नाकामयाब करना होगा। महारत वाली जुबान रखने वाले लोगों को ग्रामर-नाजि़यों की तरह बेरहम नहीं होना चाहिए।
अभी एक किसी केन्द्रीय मंत्री के एम्स में भर्ती होने को लेकर सोशल मीडिया पर बहुत कुछ लिखा जा रहा है जो कि भाभीजी-पापड़ से कोरोना ठीक करने एक किसी दावे की वजह से पिछले कुछ हफ्तों से लगातार खबरों में थे। हाल के बरसों में किसी केन्द्रीय मंत्री का जितना मखौल इस बयान की वजह से उड़ाया गया था, वैसा शायद कम ही लोगों के साथ हुआ होगा। लेकिन अब जब यह केन्द्रीय मंत्री खुद कोरोनाग्रस्त हुए, तो ये जाकर एम्स में भर्ती हुए। दूसरी तरफ कुछ जगहों पर यह खबर भी आई है कि गृहमंत्री अमित शाह कोरोनाग्रस्त होकर दिल्ली के एक सबसे महंगे निजी अस्पताल में भर्ती हुए थे, और उन्हें देखने के लिए एम्स से डॉक्टर भेजे गए थे। शशि थरूर जैसे कांग्रेस सांसद ने सोशल मीडिया पर यह भी लिखा था कि अमित शाह को निजी अस्पताल के बजाय सरकारी एम्स में भर्ती होना था, लेकिन आनन-फानन शशि थरूर के जवाब में सोशल मीडिया पर यह खबर लोगों ने चिपकाई कि सोनिया गांधी दिल्ली के एक बड़े नामी निजी अस्पताल में उसी वक्त भर्ती हुई हैं, और वे एम्स क्यों नहीं गईं?
आज यहां पर इस मुद्दे पर लिखते हुए किसी एक नेता या किसी एक पार्टी को निशाना बनाना मकसद नहीं है। हिन्दुस्तान में जब जिस नेता को इलाज की जरूरत पड़ती है, वे देश के सबसे महंगे अस्पतालों में तो जाते ही हैं, विदेश भी जाते हैं। अटल बिहारी वाजपेयी को अमरीका में इलाज की जरूरत थी, तो उस वक्त के प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने उन्हें संयुक्त राष्ट्र जा रहे भारतीय संसदीय प्रतिनिधिमंडल का मुखिया बनाकर भेजा था ताकि उनका इलाज भी हो जाए। इस बात का जिक्र खुद वाजपेयी ने बड़ी उदारता के साथ सार्वजनिक रूप से एक से अधिक बार किया था। इसलिए अपने इलाज के लिए जिसे जहां जाना हो, वह उनकी अपनी मर्जी की बात है, और उनके परिवार के लोकतांत्रिक अधिकार की बात भी है।
लेकिन यहां कुछ बुनियादी सवाल खड़े होते हैं जिनको हम किसी एक नेता या पार्टी की मिसाल के बिना उठाना चाहते हैं। जब ऐसे नेता संसद या सरकार के खर्च पर इलाज करवाते हैं, तो वहां पर संसद और सरकार की यह भी जिम्मेदारी बनती है कि आधी आबादी गरीबी की रेखा के नीचे वाले इस देश की जनता का पैसा किस हद तक इसके निर्वाचित नेताओं पर खर्च हो, अफसरों और जजों पर खर्च हो। इन सभी तबकों में निजी संपन्नता वाले लोग भी रहते हैं, और बहुत से लोग ऐसे भी रहते हैं जिनके परिवारों के पास अपनी कमाई भी रहती है। कई जज ऐसे रहते हैं जिन्होंने वकालत करते हुए करोड़ों रूपए कमाए हों, और अब जज की हैसियत से वे मुफ्त सरकारी इलाज के हकदार हों। ऐसा ही कई केन्द्रीय मंत्रियों के साथ हो सकता है, सांसदों और विधायकों के साथ हो सकता है।
लेकिन कुछ अरसा पहले उत्तरप्रदेश हाईकोर्ट के एक फैसले को इस सिलसिले में देखना जरूरी है जिसमें कहा गया था कि राज्य के अफसर और मंत्री अपने बच्चों को सिर्फ सरकारी स्कूल में पढ़ाएं। हम उस बात से सैद्धांतिक रूप से सहमत थे, लेकिन उस वक्त भी हमने लिखा था कि यह फैसला ऊपर की अदालत में जाकर टिक नहीं पाएगा क्योंकि किसी परिवार के बच्चों पर काबू करना अदालत के दायरे से बाहर है, फिर चाहे वह परिवार किसी मंत्री का हो, या किसी अफसर का हो। बच्चे अफसर की संपत्ति नहीं होते हैं कि उन पर सरकार का ऐसा नियंत्रण रहे कि वे कहां पढ़ाई करें, और कहां इलाज करवाएं।
लेकिन जब इलाज का खर्च सरकार देती है, तब सरकार यह तय कर सकती है कि वह निजी अस्पतालों में इलाज का खर्च तब तक नहीं उठाएगी, जब तक सरकारी अस्पतालों में वह इलाज उपलब्ध ही न हो। देश की जनता का यह हक है कि वह अपने पैसों पर तनख्वाह, भत्ते, और इलाज पाने वाले अफसरों-नेताओं, जजों और सांसद-विधायकों के उस महंगे इलाज का खर्च उठाने से मना कर दे जो कि सरकारी अस्पतालों में हासिल है।
लेकिन सवाल यह है कि सत्ता में बैठे लोग, निर्वाचित जनप्रतिनिधि, और ऐसी किसी संभावित जनहित याचिका पर सुनवाई करने वाले जज ही तो ऐसी सहूलियतों के हकदार हैं, वे भला क्यों ऐसी बंदिश को बढ़ावा देंगे? जिस तरह आरक्षित तबकों के भीतर क्रीमीलेयर को आरक्षण के फायदों से बाहर करने के मुद्दे पर हिन्दुस्तान के सारे ताकतवर तबके एक साथ गिरोहबंदी कर लेते हैं, और कभी क्रीमीलेयर को लागू नहीं होने देते। ठीक उसी तरह निजी अस्पतालों में इलाज पर अगर रोक लगाई जाएगी, तो वह भी किसी ताकतवर को बर्दाश्त नहीं होगी। और हम ऐसी किसी रोक की बात नहीं कर रहे हैं कि ये लोग अपनी मोटी तनख्वाह से खर्च करके निजी इलाज न करवाएं, हम तो महज एक ऐसी रोक की बात कर रहे हैं कि सरकारी खर्च पर ऐसा इलाज न करवाया जाए जो सरकार के अच्छे अस्पतालों में हासिल है। अगर कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका, संवैधानिक दूसरे पदों पर बैठे हुए लोग अपने ओहदों की कानूनी सहूलियतों के मुताबिक निजी अस्पतालों से ही इलाज करवाएंगे, तो उससे तो सरकारी अस्पताल और पिछड़ते चले जाएंगे।
आज हिन्दुस्तान में पिछले चार-पांच महीनों में यह अच्छी तरह देख लिया है कि कोरोना से निपटने के लिए तमाम खतरे झेलते हुए भी देश के सरकारी अस्पताल ही सबसे पहले उपलब्ध थे। नेहरू को रात-दिन उन तमाम बातों के लिए कोसा जाता है जो उन्होंने नहीं की हैं, और जो उन्होंने किया है, उन एम्स के लिए नेहरू के नाम की चर्चा भी नहीं होती। आज हिन्दुस्तान में कोरोना से लड़ाई में देश के तमाम एम्स सबसे आगे रहे, और बात महज कोरोना की नहीं है, पिछली आधी सदी में, जबसे एम्स बने हैं तबसे वे अपने इलाकों में लोगों की इलाज के लिए पहली पसंद रहते हैं, और वे निजी अस्पतालों के मुकाबले बेहतर माने जाते हैं। कोरोना के महामारी बनने के वक्त को देश के सारे निजी अस्पताल कन्नी काटने लगे थे, वे कोरोना के मरीजों को देखना ही नहीं चाहते थे, देश में दर्जनों मौतें हो गई क्योंकि निजी अस्पतालों ने कोरोना का खतरा मानकर दूसरी बीमारियों की मरीजों को भी भर्ती करने से मना कर दिया था।
ऐसे में हिन्दुस्तान को अपने आक्रामक निजीकरण के बीच सरकार की अस्पतालों की अहमियत को अनदेखा नहीं करना चाहिए। सत्ता की ताकत वाले हिन्दुस्तान के तमाम लोग बड़े निजी अस्पतालों में इलाज कराकर उसका बोझ गरीब जनता की जेब पर डाल सकते हैं, लेकिन गरीब जनता के लिए बड़े इलाज की जगह आज भी एम्स या ऐसे दूसरे बड़े सरकारी अस्पताल हैं।
अमित शाह हों, सोनिया गांधी हों, या कोई दूसरे जज हों, इन सबके लिए निजी इलाज पर सरकारी खर्च खत्म कर दिया जाना चाहिए। न मंत्री, न अफसर, न जज, न राष्ट्रपति, न राज्यपाल या मुख्यमंत्री, न सांसद, न विधायक, और न ही दूसरे संवैधानिक ओहदों पर बैठे लोग, इनमें से किसी को भी निजी अस्पताल के खर्च का हक नहीं रहना चाहिए। इन सबकी तनख्वाह भी इतनी रहती है कि वे हेल्थ बीमा खरीदकर, या सीधा भुगतान करके देश की गरीब जनता पर बोझ बनने से बच सकते हैं। केन्द्र सरकार को अगर निजीकरण करना है, तो वह इन्हीं तमाम ताकतवर ओहदों पर बैठे लोगों के बंगलों को खत्म करके उन्हें किराए की पात्रता देकर कर सकती है। आज एक-एक ओहदे वाले पर सरकार का मकान का खर्च ही करोड़ों रूपए साल का होता है, और बड़े बंगले तो दिल्ली में सैकड़ों करोड़ के एक-एक हैं। यह पूरा सिलसिला खत्म होना चाहिए, हर ओहदे के साथ एक भाड़े का पैमाना जुड़ा रहे, और फिर लोग उससे मकान खरीदें, या किराए से लेकर रहें, इसे वे जानें।
जिस बात से आज यहां लिखना शुरू किया गया, वह जाहिर तौर पर नाजायज और गैरजिम्मेदार बातों से उपजी है। कुछ लोग देश के लोगों को पापड़ से ठीक कर रहे हैं, कुछ लोग एक फर्जी आयुर्वेदिक कंपनी की दवाओं से ठीक कर रहे हैं, कुछ लोग दीया जलाकर, कुछ लोग थाली-चम्मच बजाकर कोरोना मरीजों को ठीक कर रहे हैं। गैरजिम्मेदारी का यह सिलसिला भी खत्म होना चाहिए क्योंकि अब यह साफ हो गया है कि जब रामदेव के दाएं हाथ बालकृष्ण को भी इलाज की जरूरत पड़ती है, तो ये भागे-भागे एलोपैथिक अस्पताल ही जाते हैं, किसी गौशाला जाकर गोमूत्र नहीं पीते। ये तमाम बातें सीधे-सीधे महामारी-कानून के तहत जुर्म भी हैं कि वे लोगों में अंधविश्वास पैदा कर रही हैं, और उनकी सेहत को खतरे में डाल रही हैं। केन्द्र सरकार की यह जिम्मेदारी बनती है कि उसके ओहदों पर बैठे लोग अगर ऐसी पाखंडी बातों को फैला रहे हैं, तो इसे खुद होकर इसे रोकना था। लेकिन आज का हिन्दुस्तान वैसा रह नहीं गया है, इसी वजह से सोशल मीडिया पर पापड़ का मखौल बनाकर ही उस केन्द्रीय मंत्री के साथ हिसाब चुकता हो पाया है। हम उस बारे में यहां अधिक लिखना नहीं चाहते, इसलिए हम सीधे एम्स पर आए, और देश के विशेषाधिकार दर्जा प्राप्त लोगों के महंगे सरकारी खर्चों पर आए। हमें उम्मीद तो धेले भर की भी नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट में कोई जनहित याचिका लेकर जाने पर कोई जज इसे गरीबों के नजरिए से देख भी पाएंगे, लेकिन लोगों को कोशिश छोडऩी नहीं चाहिए क्योंकि गरीबों का पैसा बड़े लोगों पर निजी अस्पतालों में क्यों खर्च हो?
कल कुछ ऐसा हुआ कि अजगर के बदन में हलचल देखने मिली। यह हैरानी की बात भी थी क्योंकि इसकी इस वक्त उम्मीद नहीं थी, लेकिन खुशी की बात भी थी कि इससे अजगर के जिंदा रहने का सुबूत भी मिला था।
कांग्रेस पार्टी में कल कई नेताओं ने यूपीए सरकार के कामकाज को लेकर कुछ सवाल उठाए, और कुछ दूसरे लोगों ने उसका जवाब दिया। खबरों की मानें तो यह नौजवान नेताओं और बुजुर्ग तजुर्बेकार लोगों के बीच दो अलग-अलग तबके बन जाने जैसी बयानबाजी थी। कांग्रेस के उम्र के पैमाने पर जवानी के आंकड़े कुछ अलग रहते हैं। इसके मुताबिक जो अपेक्षाकृत जवान लोग हैं उन लोगों ने कुछ बुजुर्ग लोगों के बयान पर कहा कि मनमोहन सिंह की सरकार को किसी नाकामयाबी के लिए जिम्मेदार ठहराना एक बहुत ही गैरजिम्मेदारी का काम है। पूर्व केन्द्रीय मंत्री और कांग्रेस प्रवक्ता रहे मनीष तिवारी ने ट्विटर पर लिखा- भाजपा 2004 से 2014 तक दस साल सत्ता से बाहर रही लेकिन उसके लोगों ने उस समय की हालत के लिए कभी अटल बिहारी वाजपेयी या उनकी सरकार को जिम्मेदार नहीं ठहराया।
एक और नौजवान नेता मिलिंद देवड़ा ने ट्वीट किया क्या कभी उन्होंने (मनमोहन सिंह ने) कल्पना भी की होगी कि उनकी ही पार्टी के कुछ लोग उनकी सालों की सेवा को खारिज कर देंगे, और उनकी विरासत को नुकसान पहुंचाने की कोशिश करेंगे, वह भी उनकी मौजूदगी में। एक तीसरे अपेक्षाकृत नौजवान पूर्व केन्द्रीय मंत्री, और वर्तमान सांसद शशि थरूर ने मनीष तिवारी और मिलिंद देवड़ा की बात को सही करार देते हुए लिखा- यूपीए के क्रांतिकारी दस सालों को दुर्भावनापूर्ण बहस के साथ कलंकित कर दिया गया। हमारी हार से सीखने को बहुत सारी बातें हैं, और कांग्रेस के पुनरुद्धार के लिए बहुत मेहनत करनी होगी, लेकिन हमारे वैचारिक शत्रुओं के मनमाफिक चलकर ऐसा नहीं हो सकता।
दरअसल पार्टी के एक दूसरे युवा नेता ने कांग्रेस के राज्यसभा सदस्यों की हाल में हुई एक बैठक में यूपीए के कामकाज पर सवाल उठाया था, और उन्होंने कपिल सिब्बल और पी.चिदंबरम से इतनी पुरानी पार्टी के कमजोर होने पर आत्मचिंतन को कहा था।
अब सोई हुई कांग्रेस जो कि राजस्थान के तमाम ढोल-नगाड़ों के बाद भी करवट बदल-बदलकर सोई हुई है, वह मनमोहन सरकार के कामकाज पर उठाए गए सवाल को लेकर जाग गई है। हम कांगे्रस के इन अलग-अलग तबकों की कही बातों में फर्क को लेकर अधिक विश्लेषण करना नहीं चाहते क्योंकि मुद्दा यह है कि एक पार्टी के भीतर कोई बहस चल रही है। मुर्दे की देह में हलचल एक अच्छी बात है, और वह किसी दवा की वजह से हो रही है, किस बात का लक्षण है, यह कम महत्वपूर्ण बात है।
कांग्रेस पार्टी के पास खोने के लिए अब करीब-करीब कुछ भी नहीं बचा है। भारतीय संसदीय राजनीति और भारतीय चुनावी राजनीति में वह हाशिए पर आ चुकी है, और ऐसा लगता है कि देश की सत्ता के लायक किसी गठबंधन का मुखिया बनना भी उसके लिए अभी दूर की कौड़ी है। ऐसे में लोकसभा के पिछले चुनाव में खुद अपनी जुबान में उसने जिसे शिकस्त मान लिया, उस शिकस्त की वजहें तलाशने के लिए आज तक एक भी बैठक नहीं हुई। चुनाव के बाद की तकरीबन सारी ही बैठकें राहुल के अध्यक्ष पद से हटने, उनकी मां सोनिया के कामचलाऊ अध्यक्ष बनने, और फिर से राहुल से अध्यक्ष बनने की अपील करने में खत्म हो गई। यह पार्टी इतनी कम सीटों पर क्यों बनी रह गई इस पर भी चर्चा नहीं हुई, और न ही पार्टी में इतना हौसला बच गया कि वह कह सके कि वह पिछली बार के चुनाव के मुकाबले कुछ भी खोने वाली नहीं रही, एक-दो सीटें बढ़ाने वाली ही रही। पार्टी हौसला खो चुकी थी, पार्टी का अध्यक्ष अपनी खुद की नजरों में सब कुछ खो चुका था, लेकिन पार्टी के भीतर अध्यक्ष का परिवार कुछ भी नहीं खो रहा था। ऐसे में किसी ने तात्कालिक सन्यास की राह पर चले राहुल की अगुवाई में लड़े गए चुनाव के विश्लेषण की बात नहीं सोची, और चुनाव के 9 महीने बाद भी पार्टी अब तक यह नहीं सोच पाई है कि मोदी के मुकाबले उसका यह हश्र क्यों हुआ, जबकि इसके कुछ महीने पहले के विधानसभा चुनावों में उसने ठोस कामयाबी पाई थी।
अभी हम कांग्रेस की इन दो पीढिय़ों के बीच चल रही बहस के मुद्दों को अहमियत नहीं दे रहे, लेकिन बहस को अहमियत दे रहे हैं। मनमोहन सिंह ने प्रधानमंत्री रहते हुए यह कहा था कि इतिहास जब उनके कामकाज का जिक्र करेगा तो वह उनके साथ कुछ उदार रहेगा। यह एक सज्जन आदमी की जुबान थी, जो कि भारत की आज की राजनीति की आम हो गई बदजुबानी से बिल्कुल अलग थी। फिर भी दस बरस सरकार चलाने वाले नेता को, उसके मंत्रियों को, उसके अध्यादेश को फाडक़र फेंकने वाले कांग्रेस के एक महज-सांसद को चुनावी नतीजों पर आत्ममंथन तो करना ही चाहिए। स्कूली बच्चे भी जब सालाना नतीजे लेकर बाहर निकलते हैं, तो हर पर्चे में हासिल नंबर देख-देखकर सोचते हैं कि किस पर्चे में क्या गलती रह गई होगी? घर लौटकर पर्चा निकालकर देखते हैं कि उसमें किस सवाल का क्या जवाब लिखा था, किस गणित का क्या हल किया था, और उसमें से कौन सा गलत हुआ होगा? इतने आत्ममंथन के बिना, इतने आत्मविश्लेषण के बिना तो आम स्कूली बच्चे भी नहीं रहते। इसलिए मनमोहन सिंह, उनकी मुखिया रहीं सोनिया गांधी, और पार्टी में अनोखी ताकत से लैस राहुल गांधी को यूपीए के दस बरसों का विश्लेषण क्यों नहीं करना चाहिए? और यह विश्लेषण पार्टी के लोग क्यों बुरा मान रहे हैं, क्यों इसे वैचारिक दुश्मनों के हाथों में खेलना मान रहे हैं?
हमारा तो यह मानना है कि हिन्दुस्तानी धार्मिक रीति-रिवाजों के मुताबिक अंतिम संस्कार के बाद के 13 दिनों के पूरे हो जाने पर जिस तरह एक पगड़ी रस्म होती है, और परिवार के अगले मुखिया के सिर पर वह पगड़ी समारोहपूर्वक धरी जाती है, वैसा ही राजनीतिक दल में क्यों नहीं होना चाहिए? मनमोहन सिंह को खुद को ही पार्टी के सामने यह प्रस्ताव रखना था कि हार का विश्लेषण किया जाए। जरूरी नहीं है कि कांग्रेस इस विश्लेषण के आखिर में यह पाती कि वह मनमोहन सरकार की गलतियों और गलत कामों की वजह से अधिक सीटें नहीं पा सकी। हो सकता है कि कांग्रेस का तर्कसंगत विश्लेषण यह भी सामने रखता कि उसके बेहतर नतीजे न आने के पीछे देश की हवा का बदतर कर दिया जाना रहा, और कांग्रेस पार्टी देश की जहरीली हवा में अधिक लंबी दौड़ नहीं लगा पाई, क्योंकि उसके फेंफड़े नफरत की हवा के आदी नहीं थे। एक आत्ममंथन और विश्लेषण से कतराना तो जरा भी ठीक नहीं है। क्या होगा, अधिक से अधिक कुछ लोग मनमोहन सिंह पर तोहमत ही डाल देंगे। लेकिन इतिहास लेखन कभी भी बहुत दरियादिल नहीं हो सकता। पार्टी के भीतर के बड़े लोगों को अगर लग रहा है कि मनमोहन सरकार के मंत्री कांग्रेस की एक बदहाली के लिए जिम्मेदार थे और हैं, तो इस सोच से इतना डरने की क्या जरूरत है? ऐसी बात तो देश की जनता का एक बड़ा हिस्सा भी सोचता है, पार्टी के भीतर कम से कम जनता के एक हिस्से की सोच तो कोई सामने रख रहे हैं।
कांग्रेस पार्टी मध्यप्रदेश और राजस्थान में साजिशों से हुई शिकस्त से मजबूत होकर उभर सकती है। कोई भी पार्टी ऐसी चुनौतियों के बीच अपनी ताकत को बढ़ाती है, और कांग्रेस के सामने यह एक मौका है। बजाय इसके कि कांग्रेस ज्योतिरादित्य सिंधिया और सचिन पायलट जैसे नेताओं को खोए, कांग्रेस को अपने घर के भीतर जमकर खुली बातचीत करने का हौसला दिखाना चाहिए। हम इस बात को एकदम ही मासूम नहीं मानते कि सार्वजनिक मंच पर कांग्रेस नेता एक-दूसरे पर टूट पड़े हैं। इसके पीछे कोई सोची-समझी रणनीति भी हो सकती है, लेकिन उससे भी हमारी इस सोच पर कोई फर्क नहीं पड़ता कि पार्टी को बनते कोशिश बंद कमरे में, और बंद कमरे में मुमकिन न हो सके तो सार्वजनिक रूप से आत्ममंथन के लिए तैयार रहना चाहिए। जो विचार-विमर्श और बहस की जरूरत के मौके पर चुप रह जाए, उसे मुर्दा ही मान लेना बेहतर होगा। इसलिए आज अगर कांग्रेस के भीतर कड़वी, कुछ लोगों को अवांछित और गैरजरूरी लगती, और तात्कालिक नुकसान की बातें खटक भी रही हों, तो यह याद रखना चाहिए कि पौराणिक कथाओं के समुद्र मंथन की तरह अगर इससे कुछ जहर भी निकलेगा, तो इससे कुछ अमृत भी निकलेगा। और जहर से आज की कांग्रेस का कुछ नुकसान नहीं हो सकता, आत्ममंथन के अमृत से उसका फायदा जरूर हो सकता है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
बहुत से तबकों में एक-दूसरे के लिए कुछ उसी किस्म की हिकारत होती है जैसी एक खूबसूरत लडक़ी के दो आशिकों के बीच एक-दूसरे के लिए रहती ही रहती है। प्रिंट मीडिया में पूरी जिंदगी गुजारने वाले इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को नीची नजरों से देखते हैं कि यह भी कोई पत्रकारिता है? इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के लोग इस गुरूर में ही गुब्बारा रहते हैं कि बड़े से बड़े नेता उन्हें देखते ही कपड़े ठीक करने लगते हैं, और मुंह से मास्क उतारकर तलाशने लगते हैं कि माईक कहां है, और कैमरा कहां है। टीवी स्टूडियो में कल के छोकरे बड़े-बड़े नेताओं को उनके पहले नाम से बुलाते देखे जाते हैं, और बुजुर्ग नेता भी मानो इस पर खुश ही रहते हैं कि वे जवान हो गए हैं। अब ऐसे में इलेक्ट्रॉनिक मीडियाके लोगों को भी यह हकीकत तो मालूम रहती है कि असली जर्नलिज्म क्या है, और वे क्या कर रहे हैं, इसलिए बाहर तो दिखावा चाहे जो भी हो, मन के भीतर तो वे भी प्रिंट मीडिया के पुराने अखबारनवीस को रकीब ही मानकर चलते हैं। अब इलेक्ट्रॉनिक मीडिया भी कोई दो पीढ़ी पुरानी तकनीक हो गई है, और नया डिजिटल मीडिया इलेक्ट्रॉनिक के लिए एक और रकीब बन गया है।
रकीबों की इस कतार का नजारा तब और दिलचस्प हो जाता है जब इन सबके मुकाबले सोशल मीडिया पर लगातार लिखने और बोलने वाले लोग छा जाते हैं। एक वक्त कोई साहित्यकार अपनी किताब छपने की राह तकते बूढ़े होने लगते थे, अब अपना ब्लॉग बनाकर वे दसियों हजार लोगों को अपना लिखा पढ़वा पा रहे हैं। हिन्दी के साहित्य का हाल तकरीबन पूरी जिंदगी यह रहा कि प्रकाशक साढ़े पांच सौ किताबें छापकर उसमें से पारिश्रमिक के रूप में पचास किताबें देकर हाथ झाड़ लेता था, और वे पांच सौ किताबें कई बरस तक धीरे-धीरे बिकती रहती थीं। लेखक खुद इन पचास किताबों को आसपास बांटकर, समीक्षकों को देकर कुछ और शोहरत पा लेता था, लेकिन वह हिन्दी के 99 फीसदी लेखकों का कुल हासिल रहता था। आज जो लोग ज्वलंत और समकालीन मुद्दों पर लिखते हैं, उनको कुछ घंटों के भीतर ही साढ़े पांच सौ से अधिक लोग पढ़ लेते हैं, कई दर्जन लोग उनको दुबारा पोस्ट कर देते हैं, और वहां पर कई हजार लोग और पढ़ लेते हैं।
सोशल मीडिया ने देश के कुछ सबसे अच्छे ऐसे पत्रकार सामने ला दिए हैं जिनका पेशा कुछ और है, जो न कभी पेशेवर-पत्रकार रहे, न रहेंगे, लेकिन जो बहुत ही स्थापित और नामी-गिरामी अखबारी-स्तंभकार, और डिजिटल-ब्लॉगर के मुकाबले बेहतर लिख रहे हैं, अधिक जरूरी लिख रहे हैं, अधिक आजादी से लिख रहे हैं, और शायद अधिक अराजकता से भी। नतीजा यह हुआ है कि अखबारों से लेकर टीवी के स्टूडियो के कथावाचक सरीखे एंकरों तक, और पेशेवर डिजिटल-पत्रकारों तक पर एक अनकहा दबाव रहता है कि गैरपत्रकार लोग सोशल मीडिया जैसे जनमंच पर उनसे बेहतर तो नहीं लिख रहे हैं? और सच तो यह है कि बेहतर लिख ही रहे हैं। लोग आज जब एक मामूली सा सर्च इंटरनेट पर करते हैं, तो उसमें एक ही विषय पर जितने लोगों का लिखा हुआ एक पल में सामने आ जाता है, उससे तुलना बड़ी आसान भी हो जाती है।
बड़ी शोहरत वाले स्तंभकारों के साथ यह दिक्कत भी हमेशा से रहते आई है कि उनके विचार और उनके तर्क प्रिडिक्टेबल रहते हैं जिनके बारे में पढऩे से पहले ही पूरा अंदाज लग जाता है। लेकिन सोशल मीडिया पर नया लिखने वाले लोग, स्तंभकारों की तरह कॉलम वाले अखबारों की पसंद-नापसंद, रीति-नीति की फिक्र करने पर मजबूर नहीं रहते, वे एक आजाद कलम रहते हैं, वे किसी भी कैद से परे रहते हैं। फिर यह भी है कि कल तक प्रिंट के जो दिग्गज अपने खुद के अखबार में, या उन अखबारों में जहां वे स्तंभकार रहते थे, वहां पाठकों की प्रतिक्रिया पर उनका काबू रहता था। बहुत अधिक कड़ी और कड़वी आलोचना शायद ही किसी अखबार में पाठकों के पत्र कॉलम में जगह पाती थी। लेकिन अब इंटरनेट पर, इंटरनेट पर तो लोग पल भर में आपकी धज्जियां उड़ाकर रख देते हैं, और आपका अगला-पिछला सब कुछ नंगा करके रख देते हैं। लिखने के पीछे अगर कोई बदनीयत रहती है, तो लोग कई बार तो उसके सुबूतों सहित नामी-गिरामी लोगों का भांडाफोड़ कर देते हैं कि यह चापलूसी, यह ठकुरसुहाती किसलिए की गई है।
इसलिए आज मीडिया के अपने पारदर्शी हो जाने से, और सोशल मीडिया के आ जाने से साहित्यकारों से लेकर पत्रकारों तक पर एक इतना बड़ा लोकतांत्रिक दबाव पड़ा है जिसकी कोई कल्पना दो दशक पहले तक किसी ने की नहीं थी। सोशल मीडिया में आकर लोकतंत्र को जवाबदेह बनाने का एक बड़ा काम किया है, और लोकतंत्र का स्वघोषित चौथा पाया होने का दावा करने वाले प्रेस और मीडिया को भी। अब मीडिया के किसी झूठ को उजागर करने के लिए लोगों को उसी मीडिया के एक सबसे तिरस्कृत कोने के आखिर में जगह पाने का संघर्ष नहीं करना पड़ता। अब लोग खुद लिखकर पोस्ट कर सकते हैं, हजार रूपए में अपनी वेबसाईट बना सकते हैं, और झूठ को झूठ, सच का भी जीना हराम कर सकते हैं।
टेक्नालॉजी की लाई हुई इस क्रांति ने लोकतंत्र को चाहे अराजक ही क्यों न बना दिया हो, उसने लोकतंत्र को जिंदा भी कर दिया है। एक शहर के दो-तीन अखबार गिरोहबंदी करके किसी बड़े विज्ञापनदाता के बड़े से बड़े जुर्म को अनदेखा करने का आसान सा काम कर लेते थे, लेकिन अब किसी बात को उस तरह दबा पाना नामुमकिन हो गया है। अगर मीडिया का बड़ा हिस्सा उसे दबा भी देता है, तो फेसबुक या ट्विटर जैसे सोशल मीडिया पर आम लोग, जिन्हें स्थापित मीडिया दो कौड़ी का कहते आया है, वे लोग भी बड़े इश्तहारों की तस्वीर, और बड़े जुर्म पर चुप्पी को जोडक़र पोस्ट करने लगते हैं, और इसका कोई कानूनी असर चाहे न हो, तथाकथित बड़े मीडिया का तौलिया पल भर में चौराहे पर उतर जाता है।
सोशल मीडिया ने स्थापित और मेनस्ट्रीम कहे जाने वाले मुख्य धारा के मीडिया की सत्ता और राजनीति के साथ गिरोहबंदी भी कमजोर कर दी है। अब जब सत्ता और राजनीति को यह लगता है कि कुछ अखबारों और कुछ चैनलों को मैनेज कर लेने से ही बात नहीं बनेगी, और रायता तो सोशल मीडिया पर बिखर ही जाएगा, तो फिर मूलधारा के संगठित मीडिया का वजन भी घट गया, और लोकतंत्र को एक सांस लेने की मोहलत मिल गई।
सोशल मीडिया अपने अराजक और गैरकानूनी तेवरों की वजह से इतना बदनाम हो गया है कि उससे कुछ अच्छा भी होता है, यह मानने से भी बहुत से लोग इंकार कर देंगे। लेकिन हकीकत यह है कि मुम्बई में दाऊद भी रहता था, और भाभा एटॉमिक रिसर्च सेंटर के वैज्ञानिक भी कामयाबी हासिल करते थे। कुछ वैसा ही हाल सोशल मीडिया का भी है। इस पर बुरे लोग भी हैं जो कि रात-दिन नफरत फैलाकर, हिंसा फैलाकर लोकतंत्र को खत्म करने में लगे हुए हैं, और दूसरी तरफ भले लोग भी हैं जिनके दबाव में सरकारों को बिकते हुए पल भर को झिझक तो होती ही है, और आगे-पीछे जाकर उनका भांडा भी फूटता है। चिडिय़ा के चहकने की तरह नाम और तस्वीर वाले ट्विटर का मिजाज उस कौंए की तरह है जो चीख-चीखकर कुछ उजागर करने के लिए जाना जाता है। जिस फेसबुक के बिना आज दुनिया के मुखर लोगों का काम चलता नहीं है, वह फेसबुक लोगों के फेस पर पहने गए नकाब और मुखौटे उतार देने की सबसे बड़ी जगह बन गई है। यह सिलसिला साबित करता है कि अपनी सारी अराजकता के बावजूद सोशल मीडिया ने जो दो सबसे बड़े काम किए हैं, उनमें से एक तो यह कि मेनस्ट्रीम मीडिया में खरीदी गई चुप्पी का असर खत्म कर दिया है, दूसरा यह किया है कि तमाम तथाकथित मेनस्ट्रीम मीडिया पर एक अनकहा दबाव पैदा कर दिया है कि उसकी चुप्पी का भांडाफोड़ एक अकेला चना भी कर सकता है।
सच कहें तो 21वीं सदी में सबसे बड़ा लोकतांत्रिक काम स्थापित मीडिया का एकाधिकार टूटना, और सोशल मीडिया का इतनी बड़ी जगह पा जाना हुआ है। आज हिन्दुस्तान जैसे देश में भी आबादी का एक बड़ा हिस्सा ऐसा होते जा रहा है जिसकी पहली सूचना का जरिया स्थापित मीडिया न होकर सोशल मीडिया हो गया है, और जिसके विचारों को प्रभावित करने का काम स्थापित मीडिया से कहीं आगे बढक़र सोशल मीडिया कर रहा है।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के संसदीय चुनाव क्षेत्र बनारस से एक खबर आई कि वहां एक हिन्दू उग्रवादी संगठन ने नेपाल के एक नागरिक को पकडक़र जबर्दस्ती उसका मुंडन करवाया, और उससे जयश्रीराम के नारे लगवाए। इस संगठन के लोगों ने उससे नेपाल के प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली के खिलाफ भी नारे लगवाए जिन्होंने पिछले दिनों यह कहा था कि राम नेपाली थे।
चूंकि यह खबर इन दिनों हवा में तैर रहे एक बड़े विवाद से जुड़ी हुई थी, तमाम मीडिया पर छा गई, और उसके साथ मूंडे गए सिर पर राम का नाम भी लिखा हुआ था, इसलिए इसका धार्मिक उन्माद के लिए भी खासा महत्व हो गया था। इसका वीडियो भी तैरते रहा। आज के वक्त के इलेक्ट्रॉनिक और डिजिटल मीडिया में कोई खबर अपने तथ्यों से अगर महत्व के दस नंबर पाती है, तो उसकी तस्वीर होने से वह घटना महत्व के चालीस नंबर और पा जाती है। फिर अगर वीडियो भी है, तो सोने पे सुहागा, महत्व के पचास नंबर और मिल जाते हैं, और वह सौ टका खरा टीआरपी-वेबसाईट हिट सामान बन जाती है।
अब बनारस पुलिस ने जांच के बाद बताया है कि जिसका सिर मूंडकर वीडियो बनाया गया वह कोई नेपाली नहीं था बल्कि बनारस का ही था, मां-बाप दोनों सरकारी नौकरी करते थे, और वह अभी भी मां की जगह नौकरी पाए भाई के सरकारी क्वार्टर में रहता है। उससे तीन हिन्दुओं ने जाकर संपर्क किया था, और कहा था कि एक कार्यक्रम में घाट पर चलकर सिर मुंडवाना है जिसके लिए हजार रूपए मिलेंगे। सिर मुंडाकर नारे लगवाए, वीडियो बनवाया, और दोनों देशों के बीच एक गैरजरूरी तनाव खड़ा करवाकर लोग चले गए। बाकी का काम आपाधापी में रचे गए मीडिया ने कर दिया। विश्व हिन्दू सेना के संस्थापक अरूण पाठक सहित जिन लोगों पर जुर्म कायम हुआ है उनमें राजेश और जयगणेश नाम के लोग भी हैं।
पुलिस ने अब तक इस सिलसिले में छह लोगों को गिरफ्तार तो कर लिया है, लेकिन ऐसी तथाकथित राष्ट्रवादी सोच को तो पूरे देश में पनपने दिया जा रहा है जिसकी वजह से देश के भीतर लोगों में खाई खुद रही है। यह समझने की जरूरत है कि भारत में नेपाली नागरिक बिना किसी वीजा के आते-जाते रहे हैं, और यहां सरकारी नौकरी भी पाते रहे हैं। ऐसा ही हाल नेपाल में भी हिन्दुस्तानियों का रहा है। लेकिन जब इन दोनों देशों के बीच एक तनातनी चल रही है तो खुद शोहरत पाने के लिए ऐसी नफरती साजिश रचकर ऐसी हरकत करना क्या देश के साथ गद्दारी नहीं है? देश के साथ गद्दारी और भला क्या होती है कि इस देश में आए हुए नेपालियों के खिलाफ नफरत फैलाई जाई, हिंसा फैलाई जाए, इसके लिए एक राह दिखाई जाए। पड़ोस के एक देश से रिश्ते खराब किए जाएं, और बाकी पूरी दुनिया में भी हिन्दुस्तान का नाम बदनाम किया जाए कि यहां दूसरे देश के लोगों से कैसा सुलूक किया जाता है।
आज जब हिन्दुस्तान में बात-बात पर लोगों को गद्दार होने का सर्टिफिकेट दिया जा रहा है, जब हिन्दू धर्म, और कुछ राजनीतिक संगठनों से जुड़े हुए लोगों के तमाम किस्म के जुर्म, हत्या और बलात्कार कर, दंगा-फसाद तक पर देने के लिए क्लीनचिट छपवाकर ग_ा रखा गया है, और दूसरी तरफ इनसे परे के, असहमत, लेकिन सचमुच के भले और देशभक्त लोगों को देने के लिए गद्दार की पर्ची छपवाकर रखी गई है, तब अगर ऐसी साजिश का हौसला लोगों का हो रहा है, तो वह देशद्रोह से कम कुछ नहीं है। देशद्रोह की परिभाषा में यह भी आता है कि किसी मित्र देश के साथ संबंध खराब करने की कोशिश।
यह भी याद रखना चाहिए कि जब हिन्दुस्तान में ईसाईयों को जिंदा जलाया जाता है, तो दुनिया के ईसाईबहुल देशों में बसे हुए भारतवंशियों को इस देसी नफरत के दाम चुकाने पड़ते हैं। अमरीका और इंग्लैंड जैसे विकसित देशों में भी भारतवंशियों को निशाना बनाया जाता है, और ऐसी चर्चित हिंसा से परे मामूली भेदभाव की तो अनगिनत बातें उन्हें झेलनी पड़ती हैं। जब हिन्दुस्तान में मुस्लिमों पर हमले होते हैं, तो खाड़ी के देशों में और दूसरे मुस्लिम देशों में काम कर रहे हिन्दुस्तानियों को उसका दाम चुकाना पड़ता है। अभी बनारस में जिस हिन्दुस्तानी को नेपाली बताकर उसका सिर मुंडाकर नेपाल से तनाव खड़ा करने की कोशिश की गई, उसके जवाब में अगर नेपाल में कई हिन्दुस्तानियों को सिर काट दिए जाते, तो क्या बहुत बड़ी हैरानी और शिकायत की बात होती? तो यह सब क्या देश के साथ गद्दारी नहीं है? दूसरे देशों में बसे हिन्दुस्तानियों के साथ गद्दारी नहीं है?
अगर ऐसी आक्रामक-हिंदुत्ववादी हरकतों और हिंसा की जगह किसी दूसरे धर्म के लोगों ने ऐसा किया होता तो अब तक हिन्दुस्तानी सोशल मीडिया पर कई लाख पेशेवर लोग टूट पड़े होते, और ऐसा करने वाले की मां-बहन के बलात्कार की धमकियां आगे बढ़ाते रहते। अब सवाल यह है कि क्या महान इतिहास वाले, और शर्मनाक वर्तमान वाले इस देश में बहुमत या बहुसंख्यक समाज की जनसंख्या ही लोकतंत्र और इंसानियत के पैमाने तय करेगी? यह बहुत भयानक नौबत है कि किसी मुजरिम के भले साबित होने के लिए, और किसी भले के मुजरिम साबित करने के लिए उनका धर्म काफी माना जाए। हिन्दुस्तान को आखिर कितने पैमानों पर टुकड़े-टुकड़े किया जाएगा? जिस कन्हैया कुमार ने हिन्दुस्तान के खिलाफ नारे नहीं लगाए, उस पर टुकड़े-टुकड़े गिरोह का सरगना होने की तोहमतें आज भी लगाई जाती हैं, और आज भी उन तमाम वीडियो को इस्तेमाल किया जाता है जिन्हें दिल्ली की बड़ी अदालत फर्जी और गढ़ा हुआ कह चुकी है।
जिन लोगों को यह लगता है कि बनारस में एक सिर मूंड देने से देश पर कोई खतरा नहीं है, उन्हें दुनिया के दूसरे देशों में बसे हुए हिन्दुस्तानियों से पूछना चाहिए कि ऐसी हरकतों से वहां उन्हें कितनी तकलीफ उठानी पड़ती है, कितना नुकसान उठाना पड़ता है, और उन पर खतरा कितना बढ़ जाता है।
इन दिनों हिन्दुस्तान में ऐसा लगता है कि जुर्म की परिभाषा बदल गई है। कुछ धर्मों के लोगों के खिलाफ किया गया जुर्म जुर्म नहीं रह गया, कुछ धर्मों के लोगों द्वारा किया गया जुर्म जुर्म नहीं रह गया। यह सिलसिला बढ़ते-बढ़ते अब यहां तक पहुंच गया है कि इस देश के भीतर के उत्तर-पूर्वी राज्यों से निकलकर देश के महानगरों में जाकर कामयाबी से नौकरी करने वाले, बेहतर और अधिक काबिलीयत वाले नौजवानों को कई जगहों पर पकडक़र पीटा जा रहा है, उन्हें चीनी या चिंकी कहा जा रहा है, राजधानी दिल्ली में उन पर थूका जा रहा है, और बेंगलुरू जैसे आधुनिक शहर में भी उन्हें भारी भेदभाव झेलना पड़ रहा है, शहर छोडक़र जाना पड़ रहा है।
दरअसल जो लोग यह सोचते हैं कि मुस्लिमों और ईसाईयों से नफरत का सिलसिला उनके साथ ही खत्म हो जाएगा, उन्हें याद रखना चाहिए कि जिस तरह जंगली जानवर के एक बार इंसानखोर हो जाने पर उसे इंसानों से ही पेट भरने वाला मान लिया जाता है, ठीक वैसे ही नफरत पर जीने वाले लोग जब निशाना लगाने के लिए दूसरे धर्मों के लोग नहीं रहेंगे, वे अपने धर्म के दूसरी जातियों के लोगों पर निशाना लगाएंगे, जैसा कि उत्तर भारत में कई जगह जातियों की हिंसा में देखने में आता है। हिंसा का मिजाज बनाया जा सकता है, उसे सुधारना बहुत ही मुश्किल रहता है। आज देश में जिस तरह से विज्ञानसम्मत सोच को गद्दारी माना जा रहा है, संविधान और इंसाफ को अवांछित संतान करार दिया जा रहा है, जिस तरह कानून हाथों में लेकर सडक़ों पर भीड़ पैरों से कुचलकर सजा दे रही है, जिसके चलते लोगों का हौसला इतना बढ़ रहा है कि वे एक हिन्दुस्तानी को हजार रूपए देकर नेपाल से तनाव खड़ा करने की हरकत कर रहे हैं। पुलिस तो कुछ मामूली दफाओं के तहत उन पर कार्रवाई करेगी, लेकिन हिन्दुस्तान के एक पड़ोसी मित्र देश के साथ रिश्ते बिगाडऩे के लिए भी उन पर कोई दफा लगेगी?
कांग्रेस ने एक बड़ा हैरान करने वाला काम किया है जो कि उसकी परंपरा, उसके मिजाज से बिल्कुल अलग है। आमतौर पर यह पार्टी उन कंधों पर सवार होकर चलती है जो कंधे खुद लाठी थामे हुए हाथों पर टिके रहते हैं। ऐतिहासिक हो चुके बुजुर्गों पर सवारी की शौकीन कांग्रेस ने गुजरात में हार्दिक पटेल को अपना कार्यकारी अध्यक्ष बनाया। क्या कांग्रेस में हाल के कई बरसों में इससे अधिक चौंकाने वाला कोई अकेला फैसला या कोई अकेला मनोनयन हुआ है?
हार्दिक पटेल के बारे में अधिकतर लोगों को अच्छी तरह याद होगा कि कई बरस पहले यह नौजवान गुजरात में पाटीदार आरक्षण आंदोलन का अगुवा होकर उभरा, और उसके खिलाफ केन्द्र और गुजरात की भाजपा सरकारों ने राजद्रोह जैसे भी मुकदमे दर्ज किए। लेकिन कुछ समय पहले हार्दिक पटेल कांग्रेस में शामिल हुआ जो कि गुजरात में किनारे बैठी इस पार्टी के लिए एक बड़ा हासिल था। अब 26 बरस के इस नौजवान को कांग्रेस ने गुजरात का अपना कार्यकारी अध्यक्ष नियुक्त किया है। गुजरात कांग्रेस के सारे ही बड़े नेता हार्दिक की उम्र से अधिक लंबा तजुर्बा रखने वाले हैं, और यह तय है कि बीती रात के इस फैसले पर वहां के नेता यही कह रह होंगे कि जब वे कांग्रेस में नेता बन चुके थे, तब तक यह नौजवान तो पैदा ही नहीं हुआ था। हार्दिक पटेल 2012 से पाटीदार समाज में एक सक्रिय कार्यकर्ता रहा, और आगे चलकर वह पाटीदार आरक्षण का सबसे बड़ा चेहरा बना। 2017 के गुजरात विधानसभा चुनाव के समय वह कांग्रेस पार्टी में शामिल हुआ, और इसे बड़े हल्के और बड़े वजनदार आरोपों में राजद्रोह के मुकदमे झेलने पड़े हैं जो अभी चल रहे हैं। 26 बरस की उम्र में वह एक सेक्स टेप कांड की तोहमत भी झेल चुका है, और अपनी बहन की शादी में करोड़ों रूपए खर्च करके ही वह विवाद और चर्चा में रहा है।
गुजरात, जो कि नरेन्द्र मोदी और अमित शाह का अपना प्रदेश है, और जहां 15-20 बरस से भाजपा का राज लगातार चल रहा है, वहां कांग्रेस ने यह एक बड़ा दांव लगाया है। इसके पीछे कौन सा तर्क है यह तो अभी नहीं मालूम है, लेकिन हाल के बरसों के गुजरात कांग्रेस के दलबदलू सांसदों-विधायकों को देखना जरूरी है जिन्होंने राज्यसभा चुनाव के वक्त पार्टी को बुरी तरह दगा दी, और उसे खोखला करके छोड़ दिया। ऐसे प्रदेश में कांग्रेस ने हाल ही में राजनीति में आए, हाल ही में कांग्रेस में आए, और कुल 26-27 बरस के हार्दिक पटेल को एक किस्म से पार्टी की कमान और लगाम क्या सोचकर दी है, उसका खुलासा आज के आज हो नहीं पाया है। इस फैसले की कांग्रेस के इतिहास में कोई मिसाल नहीं मिलती। इस पार्टी में आमतौर पर कार्यकारी अध्यक्ष हमेशा ही नहीं बनते, और मोदी-शाह के गृहप्रदेश में यह फैसला खासा बड़ा है, खासा अटपटा है, और थोड़ा सा अविश्वसनीय किस्म का भी है।
कांग्रेस पार्टी को जिंदा रहने के लिए भी नए खून की जरूरत है। छत्तीसगढ़ में भी कांग्रेस पार्टी के प्रदेश स्तर के जितने नेता खबरों में रहते थे, उनमें सबसे नौजवान भूपेश बघेल को प्रदेश अध्यक्ष भी बनाया गया, और उनकी अगुवाई में विधानसभा चुनाव जीतने पर उन्हें हाईकमान के चाहे-अनचाहे मुख्यमंत्री भी बनाया गया। एक किस्म से भूपेश पहले चुनाव में भाजपा से जीते, और फिर राहुल गांधी के घर के भीतर हुए मुकाबले में वे अपने से खासे बड़े तीन नेताओं से जीते और मुख्यमंत्री बने। फिर भी हार्दिक पटेल की जितनी उम्र है, उतने बरस से तो भूपेश बघेल विधायक रहते आए हैं। भूपेश 1993 में पहली बार पाटन से चुनाव जीते, उसी बरस गुजरात के पाटीदार परिवार में हार्दिक का जन्म हुआ। इसलिए हार्दिक पटेल की पार्टी के भीतर यह ताजपोशी बहुत हैरान करने वाली है। इसके पीछे पहली नजर में जो तर्क दिखता है वह यही है मोदी और शाह के मुकाबले गुजरात में किसी भी पार्टी का कोई और चेहरा जो कि कामयाब हुआ हो, वह हार्दिक का ही रहा है।
कांग्रेस हाईकमान के राजनीतिक सचिव का जिम्मा लंबे समय तक गुजरात के ही एक नेता अहमद पटेल ने सम्हाला है, इसलिए हाईकमान को गुजरात अच्छी समझ हासिल रही है, आज भी है। अब यह आने वाला वक्त बताएगा कि इस फैसले के क्या नतीजे निकलते हैं, और क्या पूरे देश में कांग्रेस एक पूरी पीढ़ी को किनारे करके राहुल की अपनी पीढ़ी तक लीडरशिप को ला सकेगी?
हार्दिक पटेल का यह फैसला अपने किस्म का एक अकेला फैसला है, इसलिए अभी इसके बहुत अधिक मतलब निकालना अटकलबाजी किस्म का काम होगा, लेकिन यह दिलचस्प प्रयोग है, और कांग्रेस को मिट जाने से बचाने वाला एक टीका (वैक्सीन) बनाया गया दिखता है, जो कि बिना ह्यूमन ट्रायल के ही बाजार में उतार दिया गया है। एक राज्य के भीतर तक ही लीडरशिप की संभावनाओं वाले इस नौजवान नेता को कांग्रेस संगठन के दिल्ली में कोई खतरा नहीं है, शायद इस भरोसे के साथ ही उसे गुजरात में ऐसी जिम्मेदारी दी गई है। आगे-आगे देखें होता है क्या।
-सुनील कुमार
हिन्दुस्तान में लॉकडाऊन के चलते शराब भी बंद कर दी गई थी, और नशे के अधिक आदी लोगों में से कुछ लोगों ने शायद इसी वजह से केरल जैसे राज्य में खुदकुशी कर ली थी, और कुछ दूसरे राज्यों में दारू की जगह कोई दूसरी चीज पीकर कुछ लोग मर गए थे। लेकिन ये तमाम बातें गरीबों के साथ हुईं, पैसे वालों के लिए तो सारे ही वक्त हर जगह ठीक उसी तरह शराब हासिल रहती है जिस तरह शराबबंदी वाले गुजरात में पूरे ही वक्त हर ब्रांड की दारू घर पहुंच मिल जाती है। कुल मिलाकर दारू अधिक बिकने वाला एक नशा रहा जिसकी बिक्री शुरू होना, बंद होना एक बड़ा राजनीतिक मुद्दा रहता है, और सत्तारूढ़ पार्टी के लिए एक नंबर और दो नंबर की सबसे बड़ी कमाई भी रहती है। यह कमाई किसी एक प्रदेश की संस्कृति तक सीमित नहीं है, यह देश के तकरीबन हर प्रदेश में एक सरीखी है।
ऐसे में नशे की कई दूसरी किस्में हैं जिन पर सरकार का कोई काबू नहीं रहता, रह सकता भी नहीं। अभी अमरीका के एक राज्य में सरकारी अफसरों की जानकारी में कोरोना-पार्टियां चल रही हैं। इनमें किसी एक कोरोना मरीज की मौजूदगी में बहुत से लोग पार्टी में शामिल होते हैं, इसके लिए वे एक तय भुगतान करते हैं। पार्टी के बाद इनमें से जो पहले कोरोनाग्रस्त होते हैं, उन्हें जमा रकम में से एक बड़ा ईनाम मिलता है। क्योंकि बीमारी की दहशत से लोग डिप्रेशन में हैं, इसलिए वे इससे उबरने के तरह-तरह के रास्ते ढूंढ रहे हैं, और लोगों के लिए यह एक बड़ा उत्तेजक नशा है कि वे बीमारी को चुनौती दे रहे हैं, उसे न्यौता दे रहे हैं, और उत्तेजना के साथ इंतजार कर रहे हैं कि कब वे पॉजिटिव होकर ईनाम जीतते हैं।
आज भी दुनिया के कई देशों में गांजे का नशा फिर से कानूनी बनाया गया है क्योंकि सरकारों का यह मानना है कि गांजे का नशा कम नुकसानदेह होता है, और उसमें कुछ चिकित्सकीय गुण भी होते हैं। इलाज के लिए भी, और नशे के लिए भी गांजा पीने के कैफे अमरीका जैसे कई देशों में बढ़ रहे हैं, और लोग इस सस्ते और कम नुकसानदेह नशे को मिले कानूनी दर्जे का इस्तेमाल कर रहे हैं। भारत में गांजा गैरकानूनी है, और छत्तीसगढ़ जैसा राज्य इससे गुजरते हुए गांजे की गाडिय़ों को रोज ही पकड़ रहा है। शराब के नशे में लोग रोज लापरवाही से कोरोना का खतरा झेल रहे हैं, अंधाधुंध खर्च भी कर रहे हैं, लेकिन गांजा हिन्दुस्तान में गैरकानूनी है। कम से कम हिन्दू धर्म के बहुत से गंजेड़ी साधुओं को छोडक़र बाकी के लिए तो गैरकानूनी है ही, साधुओं की चिलम का गांजा मानो कानून से ऊपर है।
हर देश और समाज को यह बात समझनी चाहिए कि अगर लोकतांत्रिक व्यवस्था के भीतर नशे पर पूरी रोक मुमकिन नहीं है, तो फिर कौन सा नशा किस तरह छूट का हकदार हो। नरेन्द्र मोदी जैसे कड़े मुख्यमंत्री के रहते हुए गुजरात में शराब जितनी आसानी से हासिल थी, वह अपने आपमें एक मिसाल है कि नशे पर पूरी रोक मुमकिन नहीं है। किसी तानाशाही में शायद थोड़ी अधिक कड़ाई हो भी सकती है क्योंकि वहां नशे के कारोबारियों को चौराहे पर फांसी दी जा सकती है, या उनके हाथ काटे जा सकते हैं, उनकी आंखें फोड़ी जा सकती हैं, लेकिन लोकतंत्र में सजा की एक सीमा है, और इसीलिए नशे का कारोबार पूरी तरह खत्म नहीं हो रहा है।
लेकिन अमरीका जैसे समाज में जिस तरह से कोरोना-पार्टियां चल रही है, कुछ उसी किस्म से ब्रिटेन में लोग कोरोना मौतों के बीच भी बड़े पैमाने पर पार्टियां कर रहे हैं, समंदर के किनारे उनकी भीड़ दिख रही है, और दूसरी जगह भी वे बेफिक्र नाच-गा रहे हैं। अब किसी भी देश का सरकारी अमला, या वहां की पुलिस इस हिसाब से तो बनाए नहीं गए हैं कि सारी की सारी आबादी पर कोई नियम-कानून एकदम से डालना पड़ेगा। अगर हर नागरिक से कड़े नियमों पर अमल करवाना है, तो उसके लिए कई गुना अधिक पुलिस लगेगी, जो कि मुमकिन नहीं है। इसलिए कोरोना से भिडऩे का नशा हो, या गांजे का नशा हो, या शराब हो, और लापरवाही की उत्तेजना हो, दुनिया में हर किस्म की अराजकता को रोक पाना मुमकिन नहीं है। अमरीका में तो नागरिकों का एक बड़ा तबका ऐसा है जो कि गिरती लाशों के बीच भी मास्क पहनने से मना करता है, और उसका मानना है कि सांसों को ढांकना ईश्वर की व्यवस्था के खिलाफ भी है, और अमरीकी संविधान के खिलाफ भी है। वहां बड़ी संख्या में लोग बिना मास्क रह रहे हैं क्योंकि वे अपने संवैधानिक अधिकारों को लेकर अपने को अधिक जागरूक मानते हैं, और अपने ईश्वर की बनाई हुई व्यवस्था का सम्मान करना, कोरोना प्रतिबंधों से अधिक महत्वपूर्ण और जरूरी मानते हैं। यह समझने की जरूरत है कि आजादी के हक का ऐसा नशा, या ईश्वर की व्यवस्था पर डॉक्टरी राय से भी ऊपर भरोसे का नशा लोगों को कहां ले जाकर छोड़ेगा? यह भी समझने की जरूरत है कि कोरोना किस्म के संक्रामक खतरे एचआईवी-एड्स किस्म के खतरे नहीं हैं जो कि बिना सेक्स या बिना डॉक्टरी लापरवाही के किसी सामान को छूने से भी हो सकते हैं। लेकिन आज कई लोग सत्ता की ताकत के नशे में मास्क से हिकारत कर रहे हैं। भारत में ही उत्तरप्रदेश में काम करने वाली यूनिसेफ की एक अधिकारी ने उस प्रदेश के आईएएस अफसरों के बारे में लिखा है कि वे कैसे मास्क पहनने को अपनी हेठी समझते हैं।
आज यह बात साफ है कि जो अधिक ताकतवर हैं, जो अधिक पैसे वाले हैं, वे ही लोग कहीं पार्टियां करके, तो कहीं दुस्साहस दिखाकर कोरोना का खतरा मोल ले रहे हैं, और बाकी दुनिया के लिए भी यह खतरा बढ़ा रहे हैं। भारत में हमने देखा हुआ है कि कोरोना प्लेन पर सवार विदेशों से लौटे लोगों के पासपोर्ट के साथ आया, और यहां राशन कार्ड वाले गरीबों तक पहुंच गया। आज हर किस्म की लापरवाही में वही पासपोर्ट-तबका, राशनकार्ड-तबके को खतरे में डाल रहा है। ताकत का नशा कई किस्म से दूसरों को खतरे में डालता है, और उसके कई नए नमूने लॉकडाऊन और कोरोना की वजह से सामने आए हैं।
-सुनील कुमार
हिन्दुस्तानी फौज में ऊपर के चार सबसे बड़े अफसरों में से एक ओहदा होता है मेजर जनरल का। अभी एक रिटायर्ड मेजर जनरल ब्रजेश कुमार ने एक वीडियो पोस्ट किया जिसमें अमरीका के बनाए हुए अपाचे फौजी हेलीकॉप्टर पानी की सतह के करीब उड़ रहे हैं। ब्रजेश कुमार ने लिखा कि लद्दाख में भारतीय फौज के लिए हमलावर हेलीकॉप्टर उड़ रहे हैं। उन्होंने इस वीडियो के साथ अपनी खुशी और फौज की तारीफ भी पोस्ट की।
दिक्कत यह है कि आज सोशल मीडिया और इंटरनेट की मेहरबानी से लोग तुरंत ही किसी तस्वीर या वीडियो की अग्निपरीक्षा ले लेते हैं। कुछ ही देर में लोगों ने पोस्ट करना शुरू किया कि ये हेलीकॉप्टर अमरीका में हूवर बांध के जलाशय के ऊपर उड़ रहे हैं, भारत को अमरीका से मिले अपाचे हेलीकॉप्टरों का रंग अलग है। एक दूसरे ने मेजर जनरल को याद दिलाया कि लद्दाख की यह झील अब किसी भी सेना की पहुंच से परे रखी गई है। फिर किसी ने लिखा कि यह अमरीका के एरिजोना की हवासू झील है। एक रिटायर्ड ब्रिगेडियर ने ध्यान दिलाया कि इस वीडियो के बारहवें सेकंड में एक विदेशी महिला की आवाज है। इतनी जानकारियां सामने आ जाने के बाद भी मेजर जनरल ब्रजेश कुमार अपनी बात पर अड़े रहे, उन्होंने जानकारी के लिए धन्यवाद तो दिया लेकिन लिखा कि यह वीडियो भारतीय फौज के लिए फीलगुडफैक्टर है। इस पर लोगों ने कहा कि नकली खबर से बना हुआ ऐसा फैक्टर किसी काम का नहीं रहता। कुछ और लोगों ने लिखा कि नकली वीडियो से सिर्फ बेवकूफ खुश हो सकते हैं।
चीन के साथ चल रही मौजूदा तनातनी के बीच लोगों को अपनी देशभक्ति की नुमाइश के लिए कई किस्म के रास्ते निकालने पड़ रहे हैं। बहुत से लोग घर के टूटे-फूटे चीनी खिलौनों को सड़कों पर जलाकर प्लास्टिक का जहरीला धुआं पैदा करके चीन को नुकसान पहुंचा रहे हैं। वे तमाम लोग जिनका कभी चीनी कच्चेमाल से वास्ता नहीं पड़ा, जिनकी रोजी-मजदूरी या जिनका कारोबार चीनी पुर्जों से नहीं जुड़ा है, जिन्होंने अपनी मेहनत की कमाई से चीन के सामान बुलाकर बिक्री के लिए गोदामों में नहीं रखे हैं, वे सारे लोग आज देशभक्ति साबित करने के बड़े आसान तरीके पर चल रहे हैं, और चीनी सामानों के बहिष्कार का फतवा दे रहे हैं।
लेकिन हिन्दुस्तानी फौज में मेजर जनरल होकर रिटायर हुए इंसान को इतनी गंभीरता और इतनी ईमानदारी की उम्मीद की जाती है कि वे नकली वीडियो पोस्ट करके असली गौरव पैदा करने की जालसाजी न करें। लेकिन रिटायर्ड फौजियों का हाल टीवी चैनलों पर दिखता ही है जब वे समाचार बुलेटिनों के बीच विशेषज्ञ-जानकार की तरह पेश किए जाते हैं, और पहले पाकिस्तान के खिलाफ, और अब चीन के खिलाफ आग उगलते हुए स्टूडियो के कैमरों तक थूक उड़ाते हैं। इनकी उत्तेजना देखें तो लगता है कि जो-जो जंग लडऩे का इन्हें मौका नहीं मिला, उन सबको इस बुलेटिन के चलते-चलते लड़ लेंगे।
एक नकली वीडियो से जिस फौजी जनरल को लगता है कि फौज का मनोबल बढ़ेगा, उन्हें नकली के नुकसान की समझ बिल्कुल नहीं है। अगर कोई लड़ाई खालिस सच के दम पर लड़ी जा सकती है, और उसमें लड़ाई के चलते अगर झूठ स्वयंसेवक होकर भी आकर जुड़ जाए, तो सच उस लड़ाई को हार बैठता है। सच तभी तक सच है, और ताकतवर है जब तक वह खालिस है। झूठ मिला, और सच की सारी ताकत गई। इसलिए यह समझने, याद रखने, और अमल करने की जरूरत हमेशा रहती है कि सच अगर किसी लड़ाई में कमजोर भी पड़ रहा है, तो भी उसे झूठ का सहारा नहीं लेना चाहिए। इस बात के साथ-साथ यह भी समझने की जरूरत है कि जब सच को आधा बताया जाता है, और आधा छुपा लिया जाता है, जिसे कि अर्धसत्य कहते हैं, तो वह सच झूठ से भी गया-गुजरा हो जाता है। अर्धसत्य न सिर्फ महत्वहीन रहता है, बल्कि जिस मुंह से निकलता है, उसकी सारी साख को चौपट कर देता है। अमरीका से भारी-भरकम काम देकर जो अपाचे हेलीकॉप्टर भारतीय फौज के लिए खरीदे गए हैं, उनकी ताकत से जो मनोबल बढऩा था, वह एक फर्जी वीडियो से टूट भी जाता है कि हिन्दुस्तानी फौज में आत्मगौरव और आत्मविश्वास के लिए फर्जी वीडियो लगने लगे हैं।
आज सोशल मीडिया पर बहुत किस्म की वैचारिक लड़ाई लड़ी जा रही है। सैद्धांतिक बहसें चल रही हैं, और मनोवैज्ञानिक भी लड़े जा रहे हैं। अगर चर्चाओं पर भरोसा किया जाए तो भारत की एक सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी ने लाखों लोगों को सोशल मीडिया पर जनधारणा-प्रबंधन के काम में झोंक रखा है। अब लाखों लोगों का असली हिसाब, या ऐसी अफवाह की हकीकत तो वह पार्टी ही बता सकती है, लेकिन सोशल मीडिया पर किसी झूठ को, किसी हमले और किसी लांछन को फैलाने, खड़ा करने, और उससे किसी की चरित्र-हत्या करने के काम की विकरालता तो आए दिन दिखती ही है। यह साफ दिखता है कि अगर आप वैचारिक रूप से किसी से असहमत हैं, तो सोशल मीडिया पर आनन-फानन इतने अधिक लोग आप पर थूकने लगेंगे कि आपका सारा वक्त उस थूक से छुटकारा पाने में ही लग जाएगा, और वैसे गीले हाथों से आप की-बोर्ड पर आगे कुछ काम कर नहीं सकेंगे।
लोगों को याद होगा कि बहुत बरस पहले सड़कों पर ठगने और लूटने के लिए एक लोकप्रिय तरीका यह था कि किसी के कपड़ों पर पखाना उछाल दिया जाए, और उसका पूरा ध्यान उसे साफ करने में लग जाए, और उसके साथ का सामान लूट लिया जाए। ऐसा हर कुछ दिनों में होता था, अखबारों में छपता था, फिर भी फेंके गए पखाने को देखते ही असर ऐसा होता था कि लोगों का सौ फीसदी ध्यान उसे धोने-पोंछने में लग जाता था। आज सोशल मीडिया पर ट्रोल कहे जाने वाले ऐसे भाड़े के राजनीतिक कार्यकर्ताओं या मजदूरों का काम यही रहता है कि रात-दिन असहमत लोगों पर पखाना फेंका जाए, ताकि वे अगली असहमति जाहिर करने के बजाय गालियों और धमकियों की टट्टी में ही उलझे रहें। असहमति की राजनीतिक या धार्मिक सोच रखने वाले लोगों का जीना हराम करके उन्हें सोशल मीडिया पर मुर्दा बना देने की साजिश और नीयत बहुत मामलों में साफ-साफ दिखती है। यह समझ आता है कि किसी की बीवी, बहन, बेटी, या मां के साथ बलात्कार करने की धमकी देकर उसके दिल-दिमाग का सुख-चैन को खत्म किया ही जा सकता है।
ऐसे माहौल में सच कहना खासा खतरनाक है, और खासकर तब जबकि वह सच हिन्दुस्तान में कहा जाए, और वह अमरीका के काले लोगों के अधिकारों की हिमायत करने के बजाय हिन्दुस्तान के दलित-अल्पसंख्यकों के हक की बात करे। दूर निशाना लगाना ठीक है, महफूज है, लेकिन अपने आसपास निशाना लगाना खतरनाक है क्योंकि भाड़े के लोग आप पर टूट पड़ेंगे। यह भी है कि टूट पडऩे वाले तमाम लोग भाड़े के नहीं होंगे, कई लोग ऐसे भी होंगे जिनकी नफरत और हिंसा पर अपार आस्था होगी, और जो अमन-मोहब्बत की बातों को बर्दाश्त नहीं कर पाते होंगे। ऐसे लोग सौ फीसदी भाड़े के हत्यारे होंगे, यह कहना और समझना कुछ ज्यादती होगी, लेकिन ऐसे लोग ही हमलावर-ट्रोल आर्मी के सैनिक होंगे, भुगतान पाने वाले सैनिक होंगे, ऐसा जरूर लगता है।
हिन्दुस्तान में तनाव के वक्त तरह-तरह की झूठी कहानियों को किसी बात को साबित करने के लिए गढ़ा जाता है। देश के सम्मान को बढ़ाने की कही जाने वाली कोशिशों के लिए सब कुछ जायज मान लिया जाता है, लेकिन देश की लड़ाई को भी महज सच पर टिकाए रखने की बात बहुत कम लोगों को सुहाती है जिन्हें लगता है कि मोहब्बत, जंग, और सोशल मीडिया पर समर्थन में सब कुछ जायज होता है।
सब कुछ जायज तो दुनिया में किसी भी बात में नहीं होता। जो लोग मोहब्बत में सब कुछ जायज मानते हैं, उनकी मोहब्बत खतरे में जीती है, और वह किसी भी दिन खत्म हो सकती है, क्योंकि नाजायज बातें किसी को लंबे समय तक जिंदा नहीं रहने देतीं, न हिटलर को, न इमरजेंसी को, और न ही सतीप्रथा को। ऐसे में देश के आत्मगौरव को बढ़ाने के लिए, या अपनी फौज का मनोबल बढ़ाने के लिए सच को छुपाने या झूठ को सिर चढ़ाने की कोशिशें नुकसान ही करती हैं, कोई नफा नहीं करतीं। जिन लोगों को फौज से आम सवाल करना भी देश से गद्दारी लगती है, वे न सिर्फ फौज का, बल्कि देश का भी बड़ा नुकसान करते हैं। और ऐसा नुकसान करने में रिटायर्ड फौजियों की बड़ी हिस्सेदारी है, खासकर उनकी, जिनकी जिंदगी में अब सबसे बड़ी कामयाबी टीवी के कैमरों के सामने बने रहना रह गई है।
-सुनील कुमार