आजकल
छत्तीसगढ़ के एक जिले में लॉकडाउन के दौरान सडक़ पर एक बेकसूर नौजवान को पीटने को लेकर कल से सोशल मीडिया और मीडिया में जितना कुछ चला, तो आज सुबह मुख्यमंत्री ने उस कलेक्टर का वहां से तबादला कर दिया, और खुद मुख्यमंत्री ने सोशल मीडिया पर जाकर उस परिवार के प्रति खेद जताया, और यह आगाह किया कि किसी भी अफसर का ऐसा बर्ताव बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। लेकिन कल से इस घटना को लेकर जितना कुछ लिखा गया है और छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में बसे हुए पत्रकारों ने इस पर जो प्रतिक्रिया की है, उसका एक छोटा हिस्सा भी बस्तर के उन आदिवासियों को नसीब नहीं हुआ जो कि अपने इलाके में पुलिस कैंप आने का विरोध कर रहे थे और इस विरोध के चलते पुलिस गोली से 3 आदिवासियों की मौत भी हुई है जिन्हें पुलिस ने अपनी हिकमत से आनन-फानन नक्सली करार दे दिया है। शहरी मीडिया का यह रुख नया नहीं है, क्योंकि विज्ञापनदाताओं को लाशों की खबरें नहीं सुहातीं।
बस्तर जैसे इलाके में जहां रात-दिन पुलिस और नक्सलियों में टकराव चलते रहता है वहां पुलिस अपने शक की बिना पर ही किसी भी आदिवासी को नक्सल समर्थक, नक्सल मददगार, या कुछ और साबित करने की ताकत रखती है। शायद वह बस्तर की पूरी वोटर लिस्ट को लेकर हर आदिवासी नाम के खिलाफ अपना एक शक कागजों में दर्ज करके उन्हें संदिग्ध नक्सली की शक्ल में बनाए रखती है, ताकि कभी भी जरूरत पडऩे पर उनकी लाश के साथ पुलिस का एक पुराना रिकॉर्ड चस्पा किया जा सके कि वह फलाना नक्सली कमांडर था जिस पर इतने का इनाम रखा गया था, जिसे इतने जुल्मों के लिए ढूंढा जा रहा था, और जो मुठभेड़ में मारा गया। सवाल यह है कि जब छत्तीसगढ़ का मीडिया, सोशल मीडिया, और यहां के नेता, शहर के एक थप्पड़ और लाठी के वीडियो से विचलित हो जाते हैं, उस वक्त बस्तर में 3-3 आदिवासियों की लाश गोली खाकर पड़ी हुई हैं, हजारों आदिवासी प्रदर्शन करते हुए पड़े हुए है, और उस पर शहरों में हलचल नहीं हो रही है। बस्तर के जिन जिलों में ऐसा प्रदर्शन चल रहा है या ऐसी पुलिस कार्यवाही चल रही है या ऐसी लाशें गिराई गई हैं वहां पर भी एक पुलिस जिला और एक राजस्व जिला, दो शामिल हैं, वहां भी कलेक्टर होंगे, वहां भी जाहिर तौर पर एसपी तो है ही क्योंकि गोली चलाने के हुक्म पर दस्तखत तो किसी कलेक्टर और एसपी का ही होगा, लेकिन जवाबदेही मानो किसी की नहीं है।
भाजपा के पिछले 15 वर्षों में जिन सामाजिक कार्यकर्ताओं के साथ कंधे से कंधा मिलाकर कांग्रेस ने बस्तर के आदिवासियों पर जुल्म के खिलाफ आंदोलन किए थे, वे कांग्रेसी भी आज खामोश हैं। प्रदेश की कांग्रेस सरकार भी इस पर खामोश है. आज भी मरने वाले तो उन्हीं आदिवासियों में से हैं जिनमें से भाजपा सरकार के समय मरने वालों पर कांग्रेस की हमदर्दी उनके परिवार के साथ रहती थी, उनके समाज के साथ रहती थी। आज जब बस्तर में लाशें गिरी हैं उस वक्त बस्तर के कांग्रेस नेता अगर उसी दोपहर खबरों के बीच ही फेसबुक पर अपनी प्रोफाइल फोटो बदलने का वक्त निकाल लेते हैं, लेकिन उसी फेसबुक पर आदिवासियों की मौतों को लेकर लिखी जा रही बातों को देखने का वक्त उनके पास नहीं रहता, तो यह एक सोचने की बात है कि क्या सत्तारूढ़ होने से किसी पार्टी की संवेदनशीलता इस हद तक चौपट हो सकती है?
आज बस्तर में मारे गए आदिवासियों तक पहुंचने के लिए वहां काम कर रही एक सामाजिक कार्यकर्त्ता बेला भाटिया लगातार संघर्ष कर रही हैं लेकिन उन्हें वहां आदिवासियों तक जाने नहीं दिया जा रहा। बेला भाटिया के पति, पूरी दुनिया के माने हुए अर्थशास्त्री, ज्यां द्रेज भी बस्तर पहुंचे हुए हैं वे भी इन आदिवासियों तक जाने की कोशिश कर रहे हैं, और पुलिस उन्हें वहां जाने नहीं दे रही। यह कैसी अजीब बात है कि ज्यां द्रेज यूपीए सरकार के 10 बरस में सोनिया गांधी की नेशनल एडवाइजरी काउंसिल के एक सबसे प्रमुख सदस्य रहे हैं, लेकिन आज वे मानो अवांछित हैं। कई बरस पहले बेला भाटिया की हिमायत करते हुए राहुल गांधी के ट्वीट हवा में तैर रहे हैं, जिसमें राहुल छत्तीसगढ़ की भाजपा सरकार के वक्त आदिवासियों के हक के लिए लडऩे वाली बेला भाटिया का साथ देते दिख रहे हैं, और आज सोशल मीडिया पर बार-बार छत्तीसगढ़ की कांग्रेस सरकार से यह पूछा जा रहा है कि क्या वह आज राहुल गांधी की कही हुई बात का समर्थन करती है या नहीं?
यह पूरा सिलसिला बड़ा अजीब है, बस्तर में 15 बरस तक भाजपा का राज रहा और भाजपा सरकार ने उसे पूरी तरह एक पुलिस राज्य बना कर रखा। भाजपा ने पूरे बस्तर को मोटे तौर पर बदनाम पुलिस अफसरों के हवाले कर दिया था, और उन्हें वहां की जागीर दे दी थी, कि वे जिसे जिंदा रखना जरूरी समझें उसे जिंदा रखें, बाकी की कोई फिक्र राजधानी रायपुर को नहीं होगी। यह पूरा सिलसिला उस वक्त राहुल गांधी ने बार-बार उठाया भी था और आज के छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने भी यह बात बार-बार उठाई थी।
आज सुबह मुख्यमंत्री ने जिस रफ्तार से सूरजपुर के कलेक्टर को हटाया है उसकी निंदा की है और उसके तोड़े गए मोबाइल की सरकार की तरफ से भरपाई करने की बात कही है, क्या इनमें से किसी भी किस्म की भरपाई बस्तर के मारे गए आदिवासियों को लेकर, वहां आंदोलन कर रहे आदिवासियों को लेकर की गई है? और अगर नहीं की गई है तो न सिर्फ बस्तर और छत्तीसगढ़ बल्कि तमाम हिंदुस्तान इस बात की राह देख रहा है कि बस्तर की मौतों को लेकर कांग्रेस पार्टी का क्या कहना है, मुख्यमंत्री का क्या कहना है और क्या आदिवासी मुद्दे आज भी कांग्रेस के दिल के उतने ही करीब हैं, जितने करीब छत्तीसगढ़ में भाजपा सरकार के रहते हुए थे? ये तमाम मुद्दे सरकार के लिए बहुत असुविधा के हो सकते हैं क्योंकि नक्सल मोर्चे पर उसे इसी पुलिस के सहारे लडऩा है, लेकिन ऐसा तो कोई कभी सोचता भी नहीं कि सरकार चलाना बहुत सुविधा का काम होता है।
मुख्यमंत्री भूपेश बघेल को बस्तर के मामले में कुछ तो बोलना चाहिए क्योंकि कैलेंडर की हर तारीख के साथ उनकी चुप्पी दर्ज होते चल रही है बढ़ रही है। उन्हें बोलने से अधिक कुछ करना भी चाहिए क्योंकि करना उनका अधिकार ही नहीं जिम्मा भी है। बस्तर को पुलिस के भरोसे छोड़ देने का मतलब आदिवासियों को नक्सलियों के भरोसे छोड़ देने के अलावा और कुछ नहीं है। रमन-सरकार के पंद्रह बरसों का इतिहास गवाह है कि हिंसक और हत्यारे अफसरों ने बस्तर का क्या हाल कर रखा है। राज्य में सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी बस्तर में नामौजूद रहकर अपनी जमीन खो बैठेगी। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)