तमिलनाडु के एक जिले के कलेक्टर ए.पी.महाभारती को तीन बरस की एक बच्ची पर हुए यौन हमले में उस बच्ची को ही जिम्मेदार ठहराने के बयान के बाद मौजूदा ओहदे से हटा दिया गया है। अभी एक कार्यक्रम में उन्होंने यौन उत्पीडऩ की शिकार तीन साल की एक बच्ची के बारे में सार्वजनिक कार्यक्रम में कहा कि इस बच्ची ने 16 साल के लडक़े के मुंह पर थूका था जिसके बाद उन पर यौन हमला हुआ। यह कार्यक्रम बच्चों को यौन हमलों से बचाने के लिए पुलिस अफसरों की एक दिन की ट्रेनिंग का था, और इसमें कलेक्टर को भी बोलने का मौका दिया गया था। कलेक्टर ने अभी 24 फरवरी को ही एक आंगनबाड़ी में तीन बरस की बच्ची पर 16 साल के लडक़े के यौन हमले की घटना का जिक्र करते हुए कहा कि वह बच्ची भी गलती पर थी, उसने लडक़े के मुंह पर थूका था इसलिए ऐसी घटनाओं को दोनों तरफ से देखना चाहिए। जब चारों तरफ से नेताओं ने कलेक्टर के इस बयान पर हमले किए तो सरकार ने उसे हटाकर बिना कोई काम दिए बिठा दिया। भाजपा से लेकर सीपीएम तक तमाम पार्टियों ने इस अफसर की जमकर निंदा की थी।
इस देश में अफसरों से लेकर जजों तक में सामाजिक सरोकारों, न्याय और मानवीय मूल्यों की समझ बड़ी कमजोर है। इन्हें नौकरी के इम्तिहानों के रास्ते छांट लिया जाता है, और इनमें इंसानियत की किसी परख को नहीं आंका जाता। यही वजह है कि एक हाईकोर्ट का जज अदालत के परिसर में ही आयोजित एक धार्मिक संगठन के कार्यक्रम में अल्पसंख्यकों के खिलाफ गंदी जुबान में नफरती बयान देता है, और उसके बाद फिर अदालती फैसलों के लिए बैठ जाता है। अफसरों में अनगिनत ऐसे लोग हैं जिनमें समाज के विशेष सुरक्षा प्राप्त, कमजोर तबकों के लिए हिकारत है। महिलाओं के खिलाफ, दलितों या आदिवासियों के खिलाफ, विकलांगों या मानसिक कमजोर लोगों के खिलाफ ऊंची-ऊंची कुर्सी पर बैठे लोगों के मन नफरत से भरे हुए रहते हैं। ऐसे में सरकारी और अदालती कामकाज में इंसाफ होने की गुंजाइश बहुत कम बच जाती है।
हमारा ख्याल है कि किसी को अखिल भारतीय सेवा का अफसर, या राज्य सेवा का अफसर, या अदालती जज बनाने के पहले उनकी राजनीतिक (दलगत नहीं), सामाजिक, लैंगिक समझ को बारीकी से जांचना-परखना चाहिए, और जहां इंसाफ की उनकी समझ कमजोर दिखे, उन्हें शिक्षण-प्रशिक्षण के लिए भेजना चाहिए। जिन अफसरों को अदालती, या सरकारी कामकाज के बीच में किसी एक धर्म की प्रतिष्ठा को बढ़ाने, और दूसरों को खारिज करने में कुछ गलत नहीं लगता है, उन्हें एक लंबी ट्रेनिंग के लिए भेज दिया जाना चाहिए। पता नहीं देश की प्रशासन और पुलिस अकादमियों में इन लोगों को क्या सिखाया जाता है कि ये राजनीतिक दलों की नफरती सोच का झंडा-डंडा लेकर चलने लगते हैं। मध्यप्रदेश में हाईकोर्ट को यह कहना पड़ता है कि पुलिस थानों में किसी धर्म के उपासना स्थल बनाना गलत है, और अदालत के कहे बिना सरकार के अफसरों को इसमें कुछ भी अटपटा नहीं लगता। इसी तरह जब किसी आदिवासी के चेहरे पर पेशाब की जाती है, तो अफसर सत्तारूढ़ पार्टी की इस पेशाब को बचाने में लग जाते हैं, उसकी धार को सहलाने लगते हैं कि कहीं सत्ता की भावनाओं को चोट न लग जाए। अफसरों में सामाजिक न्याय की इतनी कमजोर समझ उन्हें बर्खास्त कर देने लायक रहनी चाहिए, लेकिन आज की भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में अधिकतर लोगों को तो इसमें कुछ अटपटा भी नहीं लगता।
देश के एक प्रमुख और चर्चित आईएएस अफसर ने यूपीएससी के इम्तिहान में बैठने के पहले दो बरस तक गांधी शांति प्रतिष्ठान में काम किया था, और गांवों की जिंदगी को, सामाजिक हकीकत को करीब से देखा था। उनका कहना था कि एक संपन्न परिवार से आकर सीधे कलेक्टरी तक पहुंच जाने पर उन्हें गांव की जमीनी हकीकत से वाकिफ होने का मौका ही नहीं मिलता, और उनकी सोच विकसित नहीं हो पाती। लेकिन ऐसे कितने लोग हैं जो कि सरकारी नौकरी में आने के बाद सत्तारूढ़ सोच की चापलूसी से परे सामाजिक न्याय की बात भी सोचते हों? अपनी कमाऊ, या ताकतवर कुर्सी की फिक्र में वे जिस तरह सत्ता को नापसंद कमजोर तबकों को भी कुचलने के लिए एक पैर पर खड़े रहते हैं, वह देखना एक भयानक नजारा रहता है। सच तो यह है कि ऐसे समझौतापरस्त और आत्मजीवी, भ्रष्ट और संवेदनाशून्य अफसर अगर न रहें, तो सत्तारूढ़ नेता, पार्टी, या गठबंधन मनमानी कर ही न सकें। नेता की मर्जी को भांपकर जो अफसर बुलडोजर लेकर बेकसूर, मासूम, की तरफ दौड़ पड़ते हैं, उन्हीं अफसरों की वजह से यह सिलसिला चल पाता है।
तमिलनाडु के जिस आईएएस अफसर के इस अमानवीय बयान से आज की यह बात लिखना शुरू हुआ है, उसकी सोच को देखें, शायद उसकी शौच इसके मुकाबले कम बदबूदार होगी। ऐसे व्यक्ति को बंद कमरे के किसी ऐसे काम में ही लगाना चाहिए, जहां जिंदा इंसानों से उसका कोई वास्ता ही न पड़ता हो। उसे जमीनों के नक्शे, या सरकारी रिकॉर्ड रूम जैसी कोई जिम्मेदारी देकर किसी खस्ताहाल दफ्तर के पीछे के कमरे में अगले कई बरस रखना चाहिए, और मनोवैज्ञानिक परामर्शदाता के पास उसे उसकी तनख्वाह के पैसों से ही भेजना चाहिए। फिर जब मनोचिकित्सकों का बोर्ड यह प्रमाणित करे कि उसमें इंसानियत लौट आई है, तब उसे बच्चों और महिलाओं से दूर के किसी विभाग में रखना चाहिए।
मेरा ख्याल है कि अदालत के जज हों, या कि अफसर, या कि किसी विभाग को संभालने वाले मंत्री हों, उनके विभाग से जुड़े हुए इंसानों, दूसरे प्राणियों, और कुदरत के खिलाफ अगर उनके मन में कोई पूर्वाग्रह है, तो उन्हें वैसा कोई जिम्मा दिया ही नहीं जाना चाहिए, वरना उसके खिलाफ जनहित याचिका लेकर अदालत जाना चाहिए। अब पल भर को सोचें कि डोनल्ड ट्रम्प अगर हिन्दुस्तान का नेता, या अफसर होता, तो जिस तरह से वह पर्यावरण बचाने की कोशिशों को दुनिया का सबसे बड़ा ग्रीन-फ्रॉड कहता है, क्या उसे पर्यावरण मंत्री या सचिव बनाना जायज रहता? जो नेता, अफसर महिलाओं के खिलाफ गंदी जुबान में बात करते हैं, क्या उन्हें कभी भी महिलाओं से जुड़े हुए मामलों का मंत्री, सचिव बनाना जायज होगा? सरकारी अधिकारी या जज लोकतंत्र पर स्थाई बोझ रहते हैं, इसलिए उनकी नौकरी बात-बात पर खत्म तो नहीं की जा सकती, लेकिन इतना तो किया ही जा सकता है कि उनकी चरित्रावली में यह लिख दिया जाए कि वे किस तरह के काम करने के लायक नहीं हैं। निर्वाचित नेताओं को मंत्री या किसी आयोग का मुखिया बनाते समय भी इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि उनके पूर्वाग्रह ऐसे विभागों की जिम्मेदारियों के खिलाफ तो नहीं हैं। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)