अभी दो-चार दिन पहले ही एक कॉफी हाऊस में बैठे लोगों में से ठीकठाक कपड़े-जूते पहने एक आदमी के पैर कुछ अटपटे लगे, और फिर ध्यान से देखने पर समझ पड़ा कि उसने दो अलग-अलग किस्म के मोजे पहने हुए थे। लोगों की पोशाक से बहुत कुछ समझ आ जाता है, इसलिए इस आदमी को देखकर यह तो समझ आ ही गया था कि दो किस्म के मोजे किसी मजबूरी में पहने हुए नहीं हैं, बल्कि अपनी मर्जी से पहने हैं। इसे देखकर याद आया कि मैं कई बरस से इस बात की वकालत करते आ रहा हूं कि नामी-गिरामी लोगों को धरती पर सामानों का बोझ बचाने के लिए फैशन के पैमानों के खिलाफ जाकर कपड़े-जूते पहनने चाहिए ताकि उन्हें देखकर अपनी स्टाइल तय करने वाले लोग भी सामानों की गैरजरूरी बर्बादी पर न उतरें।
मर्दों की फैशन तो फिर भी कम बर्बादी की रहती है, लेकिन महिलाओं की फैशन में रंग-रूप, और पोशाक के अलावा दूसरी चीजों को लेकर इतने किस्म से चौकन्नापन रहता है कि उससे सामानों की बड़ी बर्बादी होती है। फिर पोशाकों से परे भी कई किस्म की बर्बादी देखने मिलती है। लोग खाने की मेज पर इस्तेमाल होने वाले डिनर सेट से लेकर घर के पर्दों तक, दीवार के रंगों तक, बहुत सी चीजों पर अपनी ताकत से आगे बढक़र भी खर्च करते हैं। आज फेसबुक पर एक ऐसी तस्वीर देखने मिली जिसमें अलग-अलग तरह की क्रॉकरी से भरा हुआ डायनिंग टेबिल दिख रहा था। जो संपन्न घर रहते हैं वहां कई तरह के डिनर सेट इस्तेमाल होते हैं, और टूटते-फूटते आखिर में ऐसा मिलाजुला टेबिल सज सकता है, लेकिन इसे अभिजात्य या कुलीन पैमानों पर खराब माना जाता है, इसलिए दिखावे के शौकीन लोग ऐसा दुस्साहस नहीं करते।
धरती पर किसी भी सामान को बनाने में ऊर्जा खर्च होती है, और कार्बन का बोझ बढ़ता है। इसलिए पर्यावरण शब्द का चलन होने के पहले से ही गांधी ने सादगी और किफायत की जो सोच सामने रखी थी, वह धरती पर किसी भी तरह का खतरा खड़े होने के पहले धरती को बचाने की पहल थी। गांधी ने वक्त के दशकों पहले से यह सोच-समझ लिया था कि कैसी जीवनशैली धरती को बचा सकेगी। इसके लिए उनका यह समझना भी जरूरी था कि एक दिन बढ़ती हुई खपत, और खपत की अंधी दौड़ के चलते धरती किस तरह बर्बाद होगी। आज जलवायु परिवर्तन को लेकर जितने किस्म की भी बातें होती हैं, अगर दुनिया गांधी सरीखी किफायत जरा सी भी अपना ले, तो जलवायु परिवर्तन थम सकता है, और धीरे-धीरे कम हो सकता है।
हम एक बार फिर आज की जिंदगी की छोटी-छोटी बातों को देखें, तो फैशन को लेकर, घर और गाडिय़ों को लेकर, मोबाइल फोन और लैपटॉप सरीखे उपकरणों को लेने और बदलने को लेकर किफायत सोच सकें, तो जलवायु परिवर्तन की वह मार हल्की हो सकती है जो धरती पर अरबों गरीबों पर सबसे अधिक पड़ रही है। और इंसानों से आगे बढक़र वह पशु-पक्षियों, और प्रकृति को तबाह कर रही है। ऐसे में अगर कोई घर पर दो किस्म के एक-एक बच गए मोजों को एक साथ पहनने का साहस दिखा सकते हैं तो उसकी तारीफ करनी चाहिए। अगर लोग अलग-अलग किस्म की बच गई क्रॉकरी या कप-प्लेट में परोसने का साहस दिखाते हैं, तो उसकी भी तारीफ की जानी चाहिए।
आज दुनिया में बहुत लोगों को यह याद नहीं होगा कि चीन की बहुत बुरी गरीबी के बीच वहां की सरकार ने यह नियम बना दिया था कि औरत-मर्द तमाम लोग एक ही रंग और एक ही किस्म के कपड़े पहनेंगे। एक जैसा माओ कोट पहने हुए हजारों लोग साइकिलों पर एक साथ जाते दिखते थे, और जीवनशैली में ऐसी किफायत लाकर चीन ने अपने लोगों से मेहनत करवाई थी, और चार दशक में गरीबी की रेखा के नीचे की आबादी आधे से भी कम कर ली थी।
आज हालत यह है कि हिन्दुस्तान में गरीब मां-बाप अपने बच्चों को उनकी पसंद का मोबाइल फोन नहीं दिला पा रहे हैं, तो बच्चे खुदकुशी कर ले रहे हैं। अब मां-बाप किस हिम्मत से बच्चों को फिजूलखर्ची के खिलाफ जिम्मेदार बनाने की सोच सकते हैं? लोग कर्ज लेकर भी बच्चों के शौक पूरा करते हैं कि कम से कम वे जिंदा तो रहें, और दूसरी तरफ दुनिया के विकसित देशों में यह बहुत आम बात है कि करोड़पति मां-बाप के औलाद भी अपने स्कूल-कॉलेज के दिनों में ही कहीं कार धोकर, तो कहीं रेस्त्रां में खाना परोसकर अपना खर्च निकालने लगती है। जिम्मेदार मां-बाप अपने बच्चों की जरूरतों को सीमित रखने की समझदारी दिखाते हैं, लेकिन जब पूरा समाज फिजूलखर्ची की शान-शौकत को ही विकास मान लेता है, तो फिर किसी भी तरह की सादगी का चलन मुश्किल होता है।
हमने एक तरफ गांधी की सादगी की चर्चा की है, दूसरी तरफ अमरीका के कुछ सबसे सफल कारोबारियों की बात करें, तो मार्क जुकरबर्ग से लेकर स्टीव जॉब्स तक, और एप्पल के मौजूदा मुखिया टिम कुक से लेकर सत्या नडेला तक बहुत से अरबपति-खरबपति लोगों को मामूली टी-शर्ट पहने भी देखा जा सकता है। मार्क जुकरबर्ग तो एक ही रंग की टी-शर्ट, और एक ही रंग की जींस को यूनिफॉर्म की तरह इस्तेमाल करते हैं।
धरती को बचाने के लिए दाओस जाने, और क्लाइमेट समिट में हिस्सा लेने की जरूरत भी नहीं है, अगर धरती के लोगों के बीच किफायत की सोच बढ़ाई जा सके, और इसके लिए किफायत की फैशन का चलन किया जा सके, तो पर्यावरण परिवर्तन जैसे खतरे टल सकते हैं। यहां लिखी बातें कतरा-कतरा कहानियां हैं, वे बेतरतीब और बेसिलसिलेवार भी लग सकती हैं, लेकिन ये कुल मिलाकर सादगी और किफायत की हिमायती बातें हैं। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)