आजकल
सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले से अभी उत्तरप्रदेश के मदरसों पर इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला खारिज हो गया है, और हो सकता है कि मदरसा चलाने वाली संस्थाओं को इससे एक राहत मिली हो कि उन्हें कानूनी मान्यता देने वाला यूपी का कानून सुप्रीम कोर्ट ने संवैधानिक करार दिया है। लेकिन सवाल यह उठता है कि धर्म की शिक्षा आज किसे कहां पहुंचा रही है? हर वह चीज जो कि संवैधानिक हो, वह लोगों के फायदे की हो, वह जरूरी नहीं है। कोई अगर जाकर किसी धर्मस्थान पर रोज 8 घंटे बैठे, तो वह पूरी तरह संवैधानिक तो है, लोगों को उसका कानूनी हक है, लेकिन क्या वह लोगों के फायदे का भी है? कुछ ऐसा ही हाल धर्मशिक्षा का भी है। और यह अकेले मुस्लिमों की धर्मशिक्षा की बात नहीं है, दुनिया के अधिकतर धर्म अपने मानने वाले परिवारों के बच्चों के लिए तरह-तरह की शिक्षा का इंतजाम करते ही हैं।
हिन्दुस्तान में मदरसे चलाने के लिए कहा जाता है कि खाड़ी के देशों से बहुत सा पैसा आता है। हो सकता है कि हिन्दुस्तान के कुछ संपन्न मुस्लिम कारोबारी भी इसके लिए पैसा देते हों, और दूसरे धर्मों के संपन्न लोग भी अपने-अपने धर्म की शिक्षा को बढ़ावा देते हों। लेकिन क्या बढ़ावा देने वाले ये कारोबारी, या खाड़ी के इन देशों के शेख, या शासक, अपने बच्चों को भी किसी मदरसे में पढऩे भेजते हैं? भारत में यह सवाल कुछ लोग एक और किस्म से उठाते हैं कि जो नेता इस देश में अपने धर्म के निठल्ले बेरोजगारों को व्यस्त रखने के लिए धर्म के झंडे-डंडे देकर तरह-तरह की अंतहीन यात्राओं पर भेजते रहते हैं, नारे लगवाते हैं, क्या उन्होंने कभी अपने बच्चों को भी इस तरह के निरर्थक काम में झोंका है? कुछ लोग सोशल मीडिया पर धार्मिक नारे लगवाने वाले नेताओं के बच्चों के नाम और चेहरे सहित जानकारी पोस्ट करते हैं कि वे दुनिया के किन-किन नामी-गिरामी, और/या महंगे विश्वविद्यालयों में पढ़े हुए हैं, और दुनिया के किन कामयाब पेशे या कारोबार में लगे हुए हैं। यह बात सही लगती है कि अपने धर्म को जिंदा रखने की एक नामौजूद जरूरत का हवाला दे-देकर जो लोग अपने धर्म के बेरोजगारों को व्यस्त रखते हैं, वे अपने परिवार ऐसी फिजूल की दीवानगी में नहीं झोंकते।
अभी सोशल मीडिया पर एक वीडियो तैर रहा है जिसमें एक बहुत ही नामी-गिरामी धार्मिक प्रवचनकर्ता सामने मौजूद भीड़ में से एक नौजवान से बात कर रहा है। उसे दिए गए माईक पर वह नौजवान बता रहा है कि उसे उसके घर पर कोई पसंद नहीं करते। वजह वह बताता है कि वह कोई काम नहीं कर रहा है। और जो काम वह करना चाहता है, वह कुछ मुश्किल है। वह बताता है कि वह भारत को एक खास धर्म का राष्ट्र बनाना चाहता है, और उसी के लिए अपनी जिंदगी समर्पित करना चाहता है। जब प्रवचनकर्ता उससे पूछते हैं कि वह किस तरह भारत को इस धर्म का राष्ट्र बनाएगा, तो वह एक खास धर्म के लोगों का नाम लेकर कहता है कि इन सारे लोगों को खत्म करना पड़ेगा, इन्हें मार डालने के बाद ही भारत एक धर्म का राष्ट्र हो सकेगा।
इस साम्प्रदायिक दीवानगी पर लिखने की जरूरत अभी नहीं पड़ी होती, अगर अभी कनाडा में 22 और 24 बरस के दो हिन्दू छात्रों को वहां की पुलिस ढूंढ न रही होती। वहां खालिस्तानियों ने एक मंदिर पर हमला किया, और इसके जवाब में हिन्दुओं की तरफ से कुछ गुरूद्वारों पर हमले की साजिश बनाई गई, और उसमें शामिल नौजवानों में से दो भारतीय छात्रों को अब पुलिस वहां ढूंढ रही है। खालिस्तानी तो पहले से हिंसा में लगे हुए थे, अब वहां खालिस्तान विरोधी, और हिन्दू छात्रों को भी इसी में झोंक दिया गया है। जिस कनाडा को हिन्दुस्तानी छात्रों और नौजवानों के बीच पश्चिम में बसने और कमाने का एक बड़ा रास्ता माना जाता था, वह आज धार्मिक टकराव में झुलस रहा है। न हिन्दू मूलरूप से कनाडा के हैं, और न ही खालिस्तानी-सिक्ख। लेकिन कनाडा इनके बीच जंग का मैदान बना हुआ है, और अभी जब सिक्खों के एक जत्थे ने एक हिन्दू मंदिर पर हमला करके लाठियों से लोगों को पीटा, तो उसके जवाब में हुए हिन्दू प्रदर्शन में एक हिन्दुस्तानी लाउडस्पीकर पर चीख रहा था कि भारत सरकार अपनी फौज कनाडा भेजे, और खालिस्तानियों के सारे गुरूद्वारों पर कब्जा करवाए। जाहिर है कि यह 1984 में स्वर्ण मंदिर पर हुए ऑपरेशन ब्लूस्टार की याद दिलाने के अलावा और कुछ नहीं था।
एक बार फिर हम कहेंगे कि कनाडा या अमरीका में, या ब्रिटेन में भारत के धार्मिक झगड़ों को सडक़ों पर लाने में जो लोग लगे हैं, उनमें से कोई भी भारत के किसी बड़े नेता के घरवाले नहीं हैं। इनमें हिन्दू भी हैं, सिक्ख, और मुस्लिम भी हैं, लेकिन इनके बड़े लोग अपने बच्चों को इससे दूर रखते हैं। अपने खुद के भविष्य को आग में झोंककर जो लोग अपने-अपने धर्म के फतवेबाजों के मनसूबे पूरे करने में लगे हैं, उन्हें यह बात समझना चाहिए कि यह सिलसिला जरा भी मासूम नहीं है। बेरोजगारों की फौज इतनी बड़ी हो गई है कि उसे कहीं न कहीं व्यस्त रखना जरूरी है, और इसीलिए तरह-तरह के धार्मिक और सामाजिक प्रपंच किए जाते हैं। जिस धर्म के भी जो नेता नौजवानों से धर्मरक्षा के लिए कुर्बान हो जाने की उम्मीद जताते हैं, उनसे यह सवाल किया जाना चाहिए कि उन्होंने खुद ने इस मकसद को पूरा करने के लिए अपने परिवार से कितनी कुर्बानियां दी हैं लेकिन यह तनातनी हिन्दुस्तान में तो फिर भी चल जा रही थी, अब अगर यह पश्चिम के विकसित देशों तक नफरती हिंसा बनकर पहुंचेगी, तो यह बात तय है कि उन देशों में हिन्दुस्तानियों के पढऩे, काम करने, और बसने की संभावनाएं घटती चली जाएंगी। आज कनाडा में माहौल चाहे जो दिख रहा हो, यह बात समझ लेना चाहिए कि हिन्दुस्तान के राजनीतिक, सामाजिक, और धार्मिक टकराव को कनाडा भी अधिक समय तक नहीं झेलेगा। अब तक वहां अकेले खालिस्तानी झंडे लहराते थे, अब उनका मंदिरों पर हमला होने लगा, और हिन्दुओं की तरफ से जवाबी हमले के फतवे तैरने लगे, तो यह तय माना जाना चाहिए कि ऐसे देशों में हिन्दुस्तानियों का अधिक स्वागत नहीं रह जाएगा।
जिन नौजवानों की भारत के बाहर किसी देश में जाकर पढऩे, कमाने, और बसने की कोई भी संभावना नहीं है, औसत से नीचे दर्जे के ऐसे नौजवानों की भीड़ को देश के भीतर व्यस्त रखने के लिए जो नारे चल रहे हैं, वे देश की इज्जत को चौपट भी करते जा रहे हैं। एक देश संभावनाओं को किस तरह खो सकता है, भारत उसकी एक बड़ी मिसाल बनते जा रहा है। धर्म की जगह जिंदगी के असल मुद्दे तय हो जाने के बाद आनी चाहिए थी, लेकिन उसने सामने की सीटों पर कब्जा कर लिया है, और भूख सहित जिंदगी के तमाम असल मुद्दों को पीछे की सीटों पर धकेल दिया है।
धर्म अपने आपमें सवाल पूछने की इजाजत नहीं देता क्योंकि सवालों की कब्र पर ही धर्म की बुनियाद खड़ी होती है। लेकिन भारत में जिस तरह राजनीति के घोड़े पर सवार धर्म, या धर्म के घोड़े पर सवार राजनीति ने सवालों को पूरी तरह खत्म ही कर दिया है, वह देखना भयानक है। दुनिया का, मानव जाति का, विज्ञान और टेक्नॉलॉजी का सारा विकास ही सवालों से हो पाया है, किसी धार्मिक आस्था से नहीं। और ऐसे में आज जब धर्म, और भारत से शुरू एक से अधिक धर्म पश्चिमी देशों में जाकर संघर्ष कर रहे हैं, तो वे धर्म की मारक क्षमता की एक नई ऊंचाई पेश कर रहे हैं। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)