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...सभ्यता और लोकतंत्र तो चमड़ी जितने मोटे भी नहीं, खुरचते ही...
03-Nov-2024 3:09 PM
...सभ्यता और लोकतंत्र तो चमड़ी  जितने मोटे भी नहीं, खुरचते ही...

इन दिनों पूरी दुनिया में कोई संदेश, फोटो या वीडियो भेजने, या किसी समूह में थोक में ब्रॉडकास्ट करने के लिए सबसे लोकप्रिय, वॉट्सऐप से खबर है कि उसने भारत में 85 लाख से अधिक अकाऊंट पर रोक लगाई है। इसके पहले भी 16 लाख अकाऊंट ब्लॉक किए गए थे। लेकिन यह संख्या अपने आपमें तब बहुत बड़ी लगना बंद हो जाती है जब दिखता है कि भारत में वॉट्सऐप इस्तेमाल करने वाले 60 करोड़ लोग हैं। इनमें से अगर डेढ़ फीसदी लोगों को हर किस्म की वजह मिलाकर ब्लॉक किया गया है, तो उतनी रफ्तार से शायद नए लोग उसका इस्तेमाल कर रहे होंगे। फिर हमारा यह भी मानना है कि इसके हर व्यक्ति की विनाशकारी क्षमता एक बराबर नहीं होती है, और कुछ पेशेवर नफरतजीवी, हिंसक, या धोखेबाज लोग अकेले ही सैकड़ों आम लोगों से अधिक बात फैलाते होंगे। इसलिए डेढ़-दो फीसदी अकाऊंट को ब्लॉक करने की बात का बहुत महत्व नहीं है। 

मेरे जैसे लोग जो कि नफरत से लगातार लडऩे की कोशिश करते रहते हैं, करीबी दोस्तों को भी उनकी झूठी पोस्ट, या सांप्रदायिक-नफरती पोस्ट के खिलाफ सावधान करते रहते हैं, उनकी क्षमता भी बड़ी सीमित है। सद्भावना या प्रेम की बात करने वाले लोगों के भीतर जितनी प्रेरणा रहती है, उससे सौ गुना प्रेरणा नफरतियों के मन में नफरत और हिंसा फैलाने के लिए भरी रहती है। मैं हर दिन दर्जनों वॉट्सऐप ग्रुप पर यह देखता हूं कि किस तरह कुछ शिक्षित और डिग्रीधारी लोग सुबह का पहला काम झूठ और नफरत फैलाने से शुरू करते हैं, और रात को शायद नींद में तकिए पर सिर लुढक़ जाने पर वे इसी काम में लगे रहते हैं। इन्होंने नफरत का लावा फैलाने में ज्वालामुखियों से मुकाबला करना तय किया हुआ है, और इसके लिए वे ओवरटाईम करते रहते हैं। 

नफरत की नफरतियों को आपस में जोडऩे की ताकत अपार है। फेविकोल के किसी मजबूत जोड़ के मुकाबले भी नफरत के साझा एजेंडा से जुड़े हुए लोग आपस में अधिक मजबूती से जुड़े रहते हैं, एक-दूसरे की प्रेरणा बने रहते हैं, और उन्हें अपने इस जुनून के नशे में अपनी अगली पीढ़ी का अंधकारमय किया जा रहा भविष्य भी नहीं दिखता है। और अपनी खुद की साख, अपना खुद का सम्मान भी उन्हें नहीं दिखता है। वे इतिहास में दर्ज तथ्यों से परे जाकर जिस बेधडक़ और बेझिझक तरीके से झूठ को फैलाते हैं, उनका दुस्साहस देखने लायक रहता है। फिर उनके नफरती गुरूभाईयों की भीड़ उनके उछाले हर झूठ, और हर हिंसक-नफरती पोस्ट को आगे बढ़ाने के लिए जिस प्रशंसाभाव के साथ तैयार खड़ी रहती है, उससे भी शायद उनका हौसला बढ़ता है। जो लोग किसी भी किस्म के सोशल मीडिया, या वॉट्सऐप जैसे मैसेंजर पर मौजूद हैं, उन्हें यह दिखता ही रहता है कि नफरती-झूठ फैलाने में किसी को कोई परहेज नहीं रह गया है। 

हिन्दुस्तान का सुप्रीम कोर्ट हेट-स्पीच के खिलाफ अपने खुद के बार-बार दुहराए गए आदेशों पर अमल के मामले में इस हद तक बेपरवाह है कि अदालती हुक्म पर शायद ही नफरती-बयानों के खिलाफ कोई मामला दर्ज होता हो। कुछ राजनीतिक सभाओं में लगातार जहरीली बातों, और जहरीले बयानों को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट को मानो अपनी ही इज्जत बचाने के लिए ऐसा फैसला देना पड़ा था कि नफरती बयानों के खिलाफ किसी शिकायतकर्ता की जरूरत नहीं है, और जानकारी में ऐसे बयान आते ही इलाके के अफसरों को खुद होकर हेट-स्पीच का जुर्म दर्ज करना है, वरना इस अनदेखी को सुप्रीम कोर्ट की अवमानना माना जाएगा। लेकिन अदालत का यह फैसला, और उसके बाद के बहुत से आदेश कचरे की टोकरी में पड़े हुए हैं, और खुद अदालत मानो इसे अनदेखा करने में सहूलियत और राहत महसूस करती है कि कोई उसे याद दिलाकर देश के नफरतियों के खिलाफ कार्रवाई करने पर मजबूर न करे। 

इसके लिए कानून के जानकारों की भी जरूरत नहीं लगती कि देश में कौन से बयान, और कौन सी हरकतें हेट-स्पीच के दायरे में आती हैं। जिन लोगों को लोकतंत्र की जरा भी समझ है, वे इस बात को सीधे-सीधे समझ सकते हैं कि नफरत और हिंसा के फतवे कौन से हैं। अगर सुप्रीम कोर्ट को देश के संविधान, और अपनी खुद की इज्जत की जरा भी परवाह होती, तो वह देश की कितनी ही सरकारों को अब तक कटघरे में ला चुकी रहती कि वे अपने साम्राज्य में नफरत को किस हद तक जगह दे रही हैं, बर्दाश्त कर रही हैं, और सच कहा जाए तो बढ़ावा दे रही हैं। लेकिन सुप्रीम कोर्ट अपने मौजूदा मुख्य न्यायाधीश की अगुवाई में मोतियाबिंद के बाद पहने जाने वाले पूरी तरह से काले चश्मे को बिना जरूरत लगाकर देश की मौजूदा हकीकत को देखने से पूरी तरह इंकार ही कर दे रहा है। उसने गांधी के तीन बंदरों की तरह बुरा देखना, बुरा सुनना, और बुरा बोलना सब बंद कर दिया है। संविधान में न्यायपालिका को अगर गांधी के इन तीन बंदरों की तरह ही रखना होता, तो वह न्यायपालिका शब्द की जगह बंदरपालिका शब्द का इस्तेमाल करता, लेकिन उसने कार्यपालिका और विधायिका से परे न्यायपालिका की जरूरत महसूस की थी, और बंदरों से अलग जजों की भी। अब तो ऐसा लगने लगा है कि ऊंची अदालतों के कई जज शायद यह मनाते होंगे कि उनके सामने कोई ऐसे केस न पहुंचे जिन पर फैसला सरकार को नापसंद होने का खतरा हो। 

ऐसे देश में डेढ़ करोड़ नफरती वॉट्सऐप अकाऊंट अगर बंद होते हैं, तो हर महीने इससे ज्यादा अकाऊंट नए नंबरों से शुरू हो सकते हैं, हो रहे हैं, और उन्हें रोकने-टोकने की रफ्तार दिखावे की रहेगी, उसका कोई असल असर नहीं पड़ेगा। देश में आज हिंसा और नफरत फैलाने वाले दसियों करोड़ लोगों को देखें, तो एक बात समझ आती है कि सैकड़ों बरस का सभ्यता का तथाकथित विकास, और पिछली पौन सदी का भारत का लोकतंत्र, ये दोनों ही लोगों में उनकी चमड़ी की मोटाई जितनी भी नहीं हैं, और मानो चमड़ी को जरा सा खुरच दिया जाए, तो उसके ठीक नहीं तक वह आदिम और हिंसक मिजाज लबालब है। देश में नफरत ने फैलना शुरू होते ही एक धर्म-संगीत की शक्ल अख्तियार कर ली है, और अब लोग तो मानो खुद होकर अपनी चमड़ी खुरचकर अपने असली मिजाज के साथ सडक़ों पर हैं।  (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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