राजस्थान के एक जिले, बाड़मेर पहुंचे सत्तारूढ़ पार्टी के नेता सतीश पूनिया के स्वागत में खड़ी वहां की कलेक्टर टीना डाबी ने नेताजी के साथ जैसा शिष्टाचार निभाया, वह एकदम खबरों में आ गया है। इसका वीडियो देखकर लोगों ने हिसाब लगाया कि सात सेकेंड में किस तरह इस कलेक्टर ने नेताजी के सामने पांच बार सिर झुकाया, और आठ बार हाथ जोड़े। सतीश पूनिया अभी किसी सरकारी ओहदे पर नहीं है, और उनके स्वागत में इस तरह की असाधारण विनम्रता सोशल मीडिया पर लोगों की आलोचना पा रही है। जिन लोगों को याद नहीं होगा उन्हें यह बता देना ठीक है कि टीना डाबी 2016 में आईएएस के इम्तिहान में पहली कोशिश में ही कुल 22 बरस की उम्र में देश में अव्वल आकर खबरों में आई थीं, और उसके बाद वे तब खबरों में आईं जब उन्होंने यूपीएससी में उनके ठीक बाद की जगह पाने वाले कश्मीर के एक मुस्लिम नौजवान से शादी की थी। तीसरी बार वे तब खबर में आईं जब उन्होंने इस मुस्लिम पति को तलाक दे दिया। इसके बाद शायद उन्होंने एक शादी और की, लेकिन वह हमारी दिलचस्पी का सामान नहीं है। अब बाड़मेर का कलेक्टर रहते हुए वे जिस अंदाज में वहां बड़े दबदबे से शहर सुधारने का अभियान चला रही है, वह वैसे भी खबरों में बना हुआ था। माईक लेकर दुकानदारों को चेतावनी देते हुए उनके वीडियो हवा में तैर ही रहे थे, और उनके बीच एक नेता के सामने ‘बिछ जाने’ का यह वीडियो लोगों की आलोचना झेल रहा है।
हमने कई किस्म के अफसर देखे हैं। भारत में, जहां पर आईएएस बनना तकरीबन तमाम लोगों की हसरतों की पराकाष्ठा रहती है, वहां पर इस सोच को यह प्रचलित लाईन और मजबूत करती है कि देश में असली ताकत तीन ही लोगों के हाथ में रहती है, पीएम, सीएम, और डीएम (डीएम यानी आईएएस डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट/कलेक्टर)। हमने छत्तीसगढ़ के पहले सीएम अजीत जोगी को डीएम भी देखा हुआ है, और फिर सीएम भी देखा हुआ है, और सीएम बनते ही उन्होंने छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में अपने लिए जो बंगला छांटा था, वह अपने डीएम (कलेक्टर) रहते हुए इस्तेमाल किया हुआ बंगला ही था। मजे की बात यह है कि उस वक्त जो कलेक्टर थे, उन्हें मुख्यमंत्री सचिवालय में बुलाकर जब बताया गया कि उन्हें बंगला बदलना पड़ेगा क्योंकि अजीत जोगी उस बंगले में रहना चाहते हैं, तो उस कलेक्टर ने यह कहते हुए विरोध किया था कि यह बंगला तो कलेक्टर के लिए निर्धारित है। बंगले में रहते हुए दिमाग ऐसा हो गया था कि मुख्यमंत्री की पसंद को भी एक पल को चुनौती दे दी थी, लेकिन फिर उस वक्त मुख्यमंत्री के सचिव रहे अफसर बहुत व्यवहारिक थे, और उन्होंने कलेक्टर को उसकी सीमाएं समझा दी थीं, और बाद में अनमने ढंग से कलेक्टर ने बंगला खाली किया था, और जोगी अपनी कलेक्टरी की यादों में जीते हुए मुख्यमंत्री रहने तक उसी बंगले में रहे।
अखबारनवीसी के इन बरसों में मेरा वास्ता सौ-पचास आईएएस अफसरों से पड़ा होगा, और उनमें से शायद ही कोई ऐसे रहे हों जो कि अपनी कलेक्टरी की यादों के साये में न जी रहे हों। हर किसी के पास कलेक्टरी के किस्से रहते हैं, और यह आसानी से समझ आ जाता है कि उनकी तब तक की नौकरी का सबसे गौरवशाली हिस्सा जिलों में कलेक्टर रहने का ही था। यह ओहदा बहुत से लोगों को बददिमाग बना देता है, और वे राह चलते लोगों को पीटने का काम भी करने लगते हैं, जो नापसंद हो, उसे बेदखल करना भी उन्हें आसान लगता है, और मातहतों पर भरी बैठकों में फाईल फेंकना, धमकी देना भी बहुत बड़ी बात नहीं रहती है। लेकिन दूसरी तरफ सत्ता की चापलूसी को भी इस कुर्सी के लिए बुरा नहीं माना जाता, और ऐसा समझा जाता है कि खुशामद से इस कुर्सी पर अपनी पकड़ मजबूत करना प्रशासन का एक आम और जायज तरीका है। कुल मिलाकर देखें तो पीएम, सीएम, के बाद की तीसरे नंबर की यह सबसे ताकतवर कुर्सी अपने नीचे के लोगों को कुचलने के लिए, और अपने से ऊपर के लोगों को खुश रखने के लिए जानी जाती है। अब इस पर बैठे हुए कुछ लोग अपने पांव जमीन पर रखने में कामयाब हो जाते हैं, और उनकी विनम्रता भी कई तरह की प्रचलित कहानियों का सामान बन जाती है।
मेरा ख्याल है कि भारत जैसी लोकतांत्रिक व्यवस्था में नौकरशाही कही जाने वाली बड़े अफसरों की इस जमात के नाम में ही कुछ बुनियादी दिक्कत है। जाने कहां से यह शब्द निकला जो अपने आपमें बहुत बड़ी विसंगति और विरोधाभास से भरा हुआ है। यह शब्द, नौकरशाह, नौकर को शाह बताता है, या शाह को नौकर, यह समझना बड़ा मुश्किल है। कलेक्टरी के दिनों में कई अफसर सचमुच ही विनम्र रहते हैं, जो कि राजा से लेकर प्रजा तक सबके बीच में विनम्रता जारी रखते हैं। लेकिन बहुत से अफसर ऐसे रहते हैं जो कि सारी की सारी विनम्रता राजाओं पर खर्चते हैं, और जनता के लिए उनके पास फिर बूट ही बच जाते हैं। टीना डाबी को लेकर पिछले दिनों से बाड़मेर की जो खबरें आ रही हैं, वे कुछ इसी किस्म की दिख रही हैं, बाजार में दुकानदारों को लाउडस्पीकर पर धमकाते हुए वे जिस तेवर के साथ राज करती हैं, सत्ता से परे के, लेकिन सत्तारूढ़ नेता के साथ उनका तेवर एकदम अलग दिखता है। अब मैंने तो इतने बरसों में पहली बार यह देखा है कि किसी अफसर के शुरू के कई विनम्र, और झुके हुए अभिवादन तो सत्तारूढ़ पार्टी के नेताजी मोबाइल पर अपनी व्यस्तता की वजह से देख भी नहीं पाते हैं, और फिर इस अफसर को वह झुकना जारी रखना पड़ता है, और मीडिया को उनके झुकने की गिनती गिननी पड़ती है कि वे कितने सेकेंड में कितनी बार इस अतिविनम्रता की नुमाइश कर रही थीं।
देश में ऐसे ही अफसरी सिलसिले को तोडऩे के लिए मैं दस-बीस बरस से एक सलाह दुहराते आया हूं। नौकरशाह, जिन्हें जनता के प्रति रहना तो नौकर सरीखा चाहिए, लेकिन जो जनता के प्रति शाह रहते हैं, और सत्तारूढ़ नेताओं के प्रति नौकर बने रहते हैं, उनके पदनाम को बदलना चाहिए। अब कलेक्टर जितना कलेक्ट करते हैं उससे अधिक तो सरकारी खजाने से जनता पर खर्च करते हैं। और अंग्रेजों के वक्त के डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट वाली भूमिका भी अब खत्म हो गई है। ऐसे में कलेक्टर या डीएम का नाम बदलकर जिला जनसेवक रखना चाहिए, ताकि अपना पदनाम उन्हें बार-बार, पूरे वक्त यह याद दिला सके कि उनकी जिम्मेदारी क्या है। टीना डाबी, या ऐसे दूसरे कलेक्टर दिन भर में चार बार भी जनता के साथ विनम्र हो जाएं, वह अधिक जरूरी है बजाय सत्तारूढ़ पार्टी के एक नेता के सामने हाथ जोडऩे, और सिर झुकाने की कसरत दुहराने के। अफसरों का इस कदर झुकना नेता के प्रति सम्मान कम, और अपनी हसरत अधिक होने का सुबूत होता है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)