(तस्वीर मंत्री सी विजयभास्कर के ट्विटर पेज से)
सनातन धर्म पर टिप्पणी को लेकर विवादों में घिरे तमिलनाडु से एक अच्छी खबर है जिससे पूरा हिन्दुस्तान कुछ सीख सकता है। वहां पर सरकार ने तय किया है कि अंगदान करने वालों को अंतिम संस्कार राजकीय सम्मान के साथ होगा। वहां के मुख्यमंत्री एम.के.स्टालिन ने कहा कि तमिलनाडु को अंग प्रत्यारोपण के लिए सर्वश्रेष्ठ राज्य का सम्मान मिला है। उन्होंने आंकड़े भी गिनाए कि किस तरह हजारों लोगों को अंगदान और अंग प्रत्यारोपण से बचाया गया है। तमिलनाडु की राजधानी चेन्नई दक्षिण भारत में इस तरह के ऑपरेशनों के लिए एक बड़ा केन्द्र है। दूसरी तरफ एक तकलीफदेह बात यह भी है कि इसी चेन्नई का यह इतिहास रहा है कि वहां पर किडनी बेचने वाले लोगों की एक पूरी बस्ती रही है जिसके हर घर में किडनी बेचने वाले बदन पर चीरा लगे हुए लोग रहते थे। अब कानून कुछ कड़ा हो गया है, और शरीर के अंग खरीदना-बेचना, उन्हें लगाना उतना आसान नहीं रह गया है, और इस कारोबार में लगे हुए बहुत से डॉक्टरों और दलालों को अलग-अलग वक्त पर गिरफ्तार भी किया गया है।
लेकिन तमिलनाडु सरकार के इस फैसले को हम इस मायने में महत्वपूर्ण मान रहे हैं कि वह समाज के लोगों को बढ़ावा देने के लिए सरकार की ताकत का एक बहुत ही इज्जतदार इस्तेमाल कर रही है। इससे एक तो धर्म और जाति से परे लोगों के अंग लेने-देने से समाज में एकता आएगी, बहुत सी जिंदगियां बचेंगी, और राज्य के कारोबारी हित में यह भी है कि अस्पतालों को ऐसा कारोबार मिलेगा। इसमें से कोई भी बात अनदेखी करने लायक नहीं है। अगर देश के धर्म और आध्यात्म से जुड़े हुए चर्चित लोग आम जनता के बीच यह अपील करेंगे कि वे चिकित्सा-विज्ञान के लिए अपनी जिंदगी खत्म होने के वक्त अंगदान करें तो उसका कुछ असर हो सकता है। उनसे परे कुछ फिल्मी सितारे, कुछ क्रिकेट सितारे भी ऐसा कर सकते हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सरीखे नेता भी ऐसी अपील कर सकते हैं जिनके भक्त पांच सौ रूपए लीटर में भी पेट्रोल खरीदने के लिए तैयार खड़े हैं। वे अगर दिल से ऐसी अपील करेंगे, तो हो सकता है कि देश में मानव अंगों की जरूरत वाले मरीजों का काम एक दिन में ही पूरा हो जाए, देश में उनको मानने और चाहने वाले दसियों करोड़ लोग होने का दावा लोग करते हैं। और यह बात सिर्फ मोदी पर लागू नहीं होती है, दूसरी पार्टियों के लोग भी अपने-अपने समर्थकों, और अपने-अपने प्रभावक्षेत्र में ऐसा काम कर सकते हैं।
आज जब लोग जिंदा रहने के लिए पूरी तरह से चिकित्सा-विज्ञान पर निर्भर करते हैं, जब आधुनिक चिकित्सा-विज्ञान गालियां बकने वाला रामदेव भी खुद की जान बचाने के लिए आधुनिक चिकित्सा के पास ही जाता है, तब यह बात समझने की जरूरत है कि मरीजों का ब्रेन-डेड हो जाने के बाद भी उनके अंगदान न करके, अंतिम संस्कार के लिए इंतजार करके, और फिर जलाकर या दफन करके किसी का भला नहीं किया जाता। चिकित्सा-विज्ञान इस बात को बिना शक के साफ कर देता है कि कब किसी मरीज के दुबारा पूरी तरह जिंदा होने की गुंजाइश खत्म हो चुकी है, और कब उसके अंग दूसरों को लगा दिए जाने चाहिए। अभी-अभी छत्तीसगढ़ के रायपुर के एम्स की एक नर्स ने गुजरते हुए अपने अंगदान कर दिए थे जो कि आधा दर्जन अलग-अलग मरीजों को लगे। दुनिया में बहुत सी जगहों पर लोग अपने दिल के टुकड़े, अपने बच्चों के गुजर जाने के तकलीफदेह मौकों पर उनके अंग दान कर देते हैं, और उनके बच्चे आधा दर्जन तक मरीजों में 25-50 बरस, जाने कब तक जिंदा रहते हैं। आप जिन्हें सबसे ज्यादा चाहते हैं, उनके न रहने पर भी उनके इस तरह से रहने का करिश्मा चिकित्सा-विज्ञान करता है, जो कि ईश्वर भी नहीं करता। इसलिए लोगों को इस बारे में सोचना चाहिए। और तमिलनाडु सरकार की इस बात को अहमियत इसलिए देनी चाहिए कि वह सरकार को मिले हुए अधिकार का इस तरह सामाजिक उपयोग कर रही है।
आज देश में शायद कुछ ऐसे प्रदेश भी हैं जिन्होंने अंग प्रत्यारोपण के लिए नियम-कायदे बनाने का काम भी पूरा नहीं किया है। नतीजा यह है ऐसे प्रदेशों में अंग प्रत्यारोपण हो नहीं सकता। वहां परिवार के लोग भी घर के मरीजों को दान नहीं दे सकते, या उसकी कानूनी जरूरत पूरी करना आसान नहीं रह गया है। ऐसे देश और ऐसे प्रदेशों को पड़ोस के श्रीलंका से सबक लेना चाहिए जहां पर बौद्ध धर्म की नसीहतों के चलते लोगों में मृत शरीर के लिए मोह कम रह गया है, लोग खूब अंगदान करते हैं, और नतीजा यह है कि लोग श्रीलंका के समुद्र तटों को घूमने के नाम पर वहां जाते हैं, और किडनी बदलवाकर आते हैं। एक वक्त की खबर हमें याद है कि श्रीलंका में इतने नेत्रदान होते थे कि वहां से देश के बाहर कई देशों के मरीजों की जरूरत भी पूरी होती थी। वहां 1958 में एक चिकित्सा छात्र देशबंधु डॉ. हडसन सिल्वा ने नेत्रदान (कॉर्निया दान) का अभियान छेड़ा था, और पत्नी के साथ मिलकर उन्होंने 1964 तक दुनिया के दूसरे देशों को कॉर्निया भेजना शुरू कर दिया था। अब तक वे 57 देशों में 60 हजार कॉर्निया भेज चुके हैं, और 9 लाख से अधिक लोगों ने उनकी संस्था के माध्यम से मृत्यु के बाद नेत्रदान का घोषणा पत्र भरा है। हर बरस उनकी संस्था तीन हजार के करीब नेत्रदान पाती है, जिसमें से दो हजार से अधिक विदेशों को भेज दिए जाते हैं। वहां से सबसे अधिक नेत्र पाने वाला देश पाकिस्तान है क्योंकि इस्लाम की मान्यताओं के मुताबिक बदन को पूरा का पूरा दफनाया जाना चाहिए। ऐसी धार्मिक मान्यता के चलते भी इस धर्म को मानने वाले लोग अंगदान नहीं करते हैं। श्रीलंका में बौद्ध मान्यताओं के चलते शरीर का कोई महत्व नहीं रहता, और वहां पर आंखों की जरूरत वाले किसी भी मरीज की कोई कतार नहीं रह गई है। श्रीलंका का आई बैंक, और मानव-टीश्यू बैंक दुनिया का ऐसा सबसे बड़ा बैंक है। बौद्ध धर्म की दान की सोच इसकी कामयाबी में मदद करती है, और देश के कई जाने-माने लोगों ने, जैसे वहां के गुजरे हुए राष्ट्रपति जे.आर.जयवर्धने ने अपनी आंखें मरने पर दान की थी, जो कि दो जापानी लोगों को लगाई गई थीं।
हिन्दुस्तान में रक्तदान, नेत्रदान, और अंगदान को बढ़ावा देने की जरूरत है, और केन्द्र और राज्य सरकारें इसे सामाजिक आंदोलन के रूप में अगर बढ़ाएं, तो दुनिया के इस सबसे अधिक आबादी वाले देश में लोगों को जरूरत पडऩे पर हर अंग मिल सकता है, और इससे भारत में एक अंतरराष्ट्रीय चिकित्सा-कारोबार भी बढ़ सकता है। जब लोग अंगदान करेंगे, तो देश की जरूरतें पूरी होने के बाद उन्हें विदेशियों को भी लगाया जा सकेगा, और उससे भी भारतीय चिकित्सा-विज्ञान को तजुर्बा भी मिलेगा, और कारोबार भी। वरना एक इंसान के गुजरने के बाद उसके शरीर को या तो जलाने में लकडिय़ां बर्बाद होती हैं, या दफन करने पर जमीन घिरती है। दोनों ही बातें पर्यावरण के लिए खतरनाक हैं, और देहदान या अंगदान से धरती पर यह बोझ भी घट सकता है। इस बारे में सामाजिक स्तर पर अधिक मेहनत की जरूरत है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)