अभी चूंकि तमिलनाडु से सनातन धर्म को लेकर एक नया विवाद उठ खड़ा हुआ है, इसलिए सनातन धर्म को लेकर बहुत सी अलग-अलग बातें उठ रही हैं। आज 17 सितंबर को ही तमिलनाडु के एक सबसे बड़े समाज सुधारक रामास्वामी पेरियार का जन्मदिन पड़ता है, और इस मौके पर लिखने वालों ने उन्हें जाति व्यवस्था के खिलाफ देश का एक सबसे बड़ा क्रांतिकारी करार दिया है। हालांकि पेरियार की कुछ बातें लोकतंत्र के साथ मेल नहीं भी खाती हैं, और दलितों के लिए एक अलग राष्ट्र की उनकी मांग को अतिवादी भी लिखा गया है, लेकिन जाति, धर्म, और नस्ल के भेदभाव और उनके आधार पर शोषण को उन्होंने करीब से देखा था, भुगता था, और इसीलिए वे सामाजिक संघर्ष की उस ऊंचाई तक ले जा पाए थे। उन्होंने हिन्दू धर्म के पाखंड के खिलाफ इसे छोड़ा, और एक नास्तिक की तरह धर्म, जाति, लिंग, प्रजाति और भाषा इन सबके भेदभाव के खिलाफ एक लड़ाई छेड़ी, जो कि उनके जाने के दशकों बाद भी आज भी जारी है। तमिलनाडु में दलितों और महिलाओं की हालत सुधारने में उनसे बड़ा योगदान किसी का नहीं रहा।
उनकी सोच पर चलने वाली आज की डीएमके सरकार के लोगों ने जिस तरह सनातन धर्म को बीमारी के बराबर बताते हुए उसके उन्मूलन की बात कही है, उस धर्म को उसकी हिंसक बुराइयों के साथ समझने की जरूरत है। जब इस पर बहस हम देखते हैं, तो एक धार्मिक कट्टरता के साथ सनातन पर टिके रहने की जिद वाले बहुत से सवर्ण हिन्दू दिखते हैं, लेकिन इनमें दलित-आदिवासी हिन्दू बिल्कुल भी नहीं दिखते। जाहिर है कि हिन्दुओं के बीच सनातनी व्यवस्था से निकली हुई जो मनुवादी जाति व्यवस्था है, वह हिन्दू समाज को एक तबके की तरह नहीं रखती है, और यह जाति व्यवस्था एक वजह है कि हिन्दू कहे जाने वाले अलग-अलग जातियों के तबके सनातन शब्द और मनुवादी व्यवस्था को एक नजरिए से नहीं देख सकते। जूते का तल्ला, और उसके तले कुचले जाने वाला नंगा पैर, इन दोनों का नजरिया जूते के बारे में एक सरीखा नहीं हो सकता है। इसलिए जूते के ऊपर के बदन पर सिर चढ़ा जातीय अहंकार एक अलग सोच रखता है, और जूते के तल्ले के नीचे रखे जाने वाले दलित एक अलग सोच रखते हैं।
ऐसे में कुछ लोगों ने याद दिलाया है कि इसी बरस बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय ने एक नया शोध कार्य शुरू किया है जिसका नाम है- आधुनिक भारतीय समाज में मनुस्मृति को लागू करने की प्रासंगिकता/प्रयोज्यता (एप्लीकेबिलिटी)। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के धर्मशास्त्र-मीमांसा विभाग ने इसी साल फरवरी में एक इश्तहार जारी करके ऐसी रिसर्च के लिए लोगों से अर्जियां बुलवाई थीं। और इसे लेकर लोगों के मन में हैरानी भी हुई थी कि डॉ.बी.आर. अंबेडकर द्वारा मनुस्मृति जलाने के करीब सौ बरस बाद अब उसे लागू करने की संभावनाओं पर शोध करवाया जा रहा है! लोगों को याद होगा कि हिन्दुस्तान के सनातनी लोगों के बीच हिन्दू धर्म के भीतर सवर्णों की पसंद की जो मनुवादी जाति व्यवस्था है, उसके तहत शूद्रों को पूरी जिंदगी सवर्णों की सेवा करनी है, अनपढ़ रहना है। इसके साथ-साथ यह मनुस्मृति महिलाओं के खिलाफ भयानक हिंसा की वकालत करती है।
हिन्दुस्तान आज एक लोकतंत्र हो चुका है, उसके चाहे जिस किसी धार्मिक या सामाजिक ग्रंथ में अलोकतांत्रिक बातें लिखी गई हैं, उन्हें अब इतिहास का एक दस्तावेज मानकर लाइब्रेरी में रख देना चाहिए ताकि इस देश, धर्म, और समाज की हिंसा के इतिहास को आने वाली पीढिय़ां भी जान सकें, और ऐसी हिंसा के मुआवजे के रूप में लागू की गई आरक्षण की व्यवस्था को भी समझ सकें। लेकिन इतिहास के पन्ने से परे ऐसी हिंसा का कोई भविष्य न आज है, और न ही आने वाले कल में हैं। और तो और, अब तो आरएसएस के मौजूदा मुखिया मोहन भागवत ने भी खुलकर यह कहा है कि दो हजार बरस जिनके साथ बेइंसाफी हुई है, उन्हें अगर दो सौ बरस आरक्षण मिल जाए, तो उसमें बुराई क्या है, लोगों को उन्हें ऐसा हक देने में आपत्ति क्यों होनी चाहिए?
अब जिन लोगों को सनातन शब्द की हिफाजत करना जरूरी लग रहा है, उन्हें सनातन या हिन्दू शब्द के साथ जुड़ी हुई बाकी व्यवस्थाओं की संवैधानिकता को भी देखना चाहिए कि आज उनमें से क्या-क्या कानूनी है। लोगों को यह भी याद रखना चाहिए कि किस तरह मुस्लिम समाज की चली आ रही धार्मिक व्यवस्थाओं को देश की मौजूदा मोदी सरकार ने बदला है, और उसे मंजूर भी कर लिया गया है। संवैधानिक लोकतंत्र एक बड़ी साफ-साफ व्यवस्था है जिसमें कानून से टकराव होने पर जातीय या धार्मिक व्यवस्था को किनारे होना पड़ेगा। कल तक शूद्रों के साथ जो बर्ताव किया जाता था, आज वह जारी भले हो, लेकिन अगर वह अदालत में साबित किया जा सकता है, तो फिर शूद्रों पर हिंसा करने वालों को कड़ी सजा मिलना ही मिलना है। इसलिए देश में संविधान लागू होने के बाद सनातन हो, हिन्दू हो, मुस्लिम हो, या कोई और धार्मिक व्यवस्था, सामाजिक रिवाज, इनको कानून के मुताबिक ही चलना होगा। आज किसी महिला के तथाकथित चाहने पर भी उसे सती नहीं बनाया जा सकता, वरना वहां मौजूद तमाम भीड़ के लिए जेल की कैद तय है। लोग अपने पुराने रीति-रिवाज का हवाला देकर बच्चों के बाल विवाह नहीं करवा सकते, वरना उसमें गिरफ्तारी तय है।
ऐसे में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय या बीएचयू का यह शोधकार्य भयानक है, और यह मानो उसी किस्म का है कि कोई विश्वविद्यालय शोध करवाए कि भारतीय समाज में सतीप्रथा की क्या संभावनाएं हैं। मनुस्मृति एक इतिहास के पन्ने से परे अगर आज लागू करने की बात होती है, तो वह एक जुर्म रहेगी। इसे एक विश्वविद्यालय इस तरह बढ़ावा दे, यह उस विश्वविद्यालय के लिए शर्मिंदगी की बात है, और इस कलंक के कागज पर संबंधित विभाग के मुखिया प्रो.शंकर कुमार मिश्रा के दस्तखत हैं। अगर इस विश्वविद्यालय में सामाजिक न्याय की सोच होती, तो वहां से इस तरह के शोध के लिए अर्जियां न बुलवाई गई होतीं।
अब जो लोग आजादी की पौन सदी पूरी होने पर भारी जोर-शोर से इसे हिन्दू धर्म से निकले एक शब्द, अमृत नाम से आजादी का अमृत महोत्सव करार दे रहे हैं, वे लोग मनुस्मृति को एक बार फिर महिमामंडित करके उस आजादी को खत्म करने का काम भी कर रहे हैं। शूद्रों को गुलामी की जंजीरों से बांधे हुए रखने की जो वकालत मनुस्मृति करती है, उसके महिमामंडन के साथ किसी आजादी का अमृत महोत्सव नहीं मनाया जा सकता। अगर इन दोनों को साथ-साथ चलना है तो यह भारत की आजादी के खिलाफ मनुवादी सवर्णों की हिंसक आजादी की जीत होगी। सिर्फ नारों से लोकतंत्र और संविधान को स्थापित नहीं किया जा सकता। इतिहास के अन्याय को मानने, और उसे खारिज किए बिना किसी संवैधानिक व्यवस्था की बात नहीं हो सकती। इसलिए तमिलनाडु में अभी उठ खड़े हुए एक विवाद को इस बरस की शुरूआत में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के इस शोधकार्य से जोडक़र देखने की जरूरत है और चूंकि देश भर में सनातन धर्म या हिन्दू धर्म पर एक हमला साबित करने की कोशिश हो रही है, इसलिए इन विवादों के हर पहलुओं पर खुलकर सामाजिक चर्चा होनी चाहिए। इसी चर्चा से लोगों के छुपे हुए दांत और छुपे हुए नाखून सामने आ पाएंगे, और उनकी शिनाख्त हो सकेगी।