विचार / लेख

बच्चों की रेस्पोंसिबल पेरेंटिंग जीरो
30-Oct-2024 3:16 PM
बच्चों की रेस्पोंसिबल पेरेंटिंग जीरो

-श्याम मीरा सिंह

दिल्ली में मेरे किराए के घर के पास अमीरों की रिहाइश है। उनके बच्चे पिछले दो हफ़्ते से पार्क में इक_ा होते हैं और घंटों-घंटों तक पटाखे फोड़ते हैं। उनके ग्रुप बने हुए हैं। आपस में कन्पटीशन होते हैं। मेरे कई पत्रकार मित्र जो मेरे घर आए उन्होंने ख़ुद आँखों से ये सब देखा है। मेरे कई दोस्तों ने फ़ोन पर भी पटाखें की आवाज़ें नोटिस की हैं और टोका है कि ये किसकी अवाज आ रही है बार बार। जब मैं कहता हूँ कि पटाखों की तो वे कहते हैं अभी तो दीवाली भी नहीं आई। इसी हफ़्ते मेरे तीन दोस्त घर आए, जिन्हें मैंने छत की बालकनी में बिठाया। पटाखों की आवाज़ से वे इतने परेशान हुए कि खुले में बैठ ही नहीं पाए, उन्हें कमरे के अंदर जाना पड़ा। ये दीवाली से एक हफ़्ते पहले की बात है, इसका हमारे पवित्र त्यौहार से कोई संबंध भी नहीं है।

रिच किड्स पर पैसे की कमी नहीं होती, इन्हें पॉकेट मनी भी हमारे बच्चों की स्कूल फ़ीस से ज़्यादा मिलती है। जहां आम हिन्दी त्यौहार मनाने के लिए एक दो पटाखे फोड़ लेता है वहीं अमीरों के ये बच्चे अपने मनोरंजन के लिए दो हफ़्ते पहले से ही घंटों तक पटाखे फोड़ते हैं। बच्चों में आपस में ग्रुप हैं और घंटों तक कनपटीशन चलते हैं। पूरा आसमान पटाखे के ज़हरीले धुएँ से भरके, आराम से घर जाकर अपने बड़े बड़े घरों में सोते हैं जहां इनके घरों में एयर प्योरिफ़ायर होते हैं। लेकिन धुआँ घंटों आसमान में रहता है। इधर उधर जाता है। उन लोगों तक पहुँचता है जो इसके लिए जि़म्मेदार भी नहीं। इस धुएँ को दिल्ली में आम हिंदू झेलते हैं। जबकि गरीब हिंदू और उनके बच्चों का इस ज़हरीले धुएँ में लगभग जीरो योगदान है। अधिक से अधिक वे दीवाली वाले दिन एकाध पटाखें जला लें तो जला लें। नहीं तो गरीब हिंदुओं के बच्चे आपको पटाखे फोड़ते नहीं मिलेंगे। (बाकी पेज 5 पर)

अमीरों के बच्चे ही नहीं बल्कि अमीर लोग ख़ुद भी दीवाली वाले दिन सबसे अधिक पटाखे फोड़ते हैं। अपने मनोरंजन के लिए बीस-तीस हज़ार के पटाखे फोड़ देना इनके लिए कान पर जू रेंगने जितना भी नहीं है। आपने कभी नहीं देखा होगा कि किसी गाँव में रंगारंग आतिशबाजी घंटों तक हो रही हो। ये शहरों में ही होती हैं, वो भी अमीर लोगों के द्वारा।

हमारे घरों को खिड़कियाँ भी ऐसी होती हैं कि बाहर की आवाज़ें और धुआँ घरों में घुस जाएँ, जबकि इनके मकानों में लगे ग्लास से बाहर की आवाज़ तक इनके कमरों में नहीं घुस सकती। शहर और शहर का पर्यावरण हमारी साझा जि़म्मेदारी हैं। लेकिन हमारे यहाँ सिटिजऩ सेंस जीरो है, बच्चों की रेस्पोंसिबल पेरेंटिंग जीरो है। इस कारण पर्यावरण को नुक़सान पहुँचाने वाला कोई और होता है और झेलने वाले कोई और।


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