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प्रशासनिक खामियों और परंपराओं की वजह से दुनियाभर में महिलाओं को जमीन पर मालिकाना हक पाने में दिक्कत होती है. हालांकि, ऐसे सबूत हैं कि मालिकाना हक होने से उन्हें जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों से निपटने में मदद मिलती है.
दुनिया की आधी आबादी महिलाओं की है. इनमें ज्यादातर अपनी जीविका के लिए भूमि और प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर हैं. इसके उलट, सिर्फ 14 फीसदी जमीन पर महिलाओं का मालिकाना हक है. अफ्रीका और पूर्वी एशिया में यह मालिकाना हक और भी कम है. गैर सरकारी संगठन और थिंक टैंक वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टीच्यूट (डब्लूआरआई) की एक रिपोर्ट के मुताबिक जिन देशों में महिलाओं को जमीन पर मालिकाना हक देने का कानून लागू है वहां भी महिलाओं को व्यावहारिक और सामाजिक अड़चनों का सामना करना पड़ता है. इन समाजों में खासतौर पर महिलाओं को कमतर आंका जाता है.
डब्लूआरआई में रिसर्च एसोसिएट, सेलिन सलसेडो ला विना कहती हैं, "महिलाओं को उनकी समुदायिक जमीन के बारे में ऐतिहासिक जानकारी है. वह जमीन पर काम करती हैं, इसीलिए उन्हें पता है कि उसका प्रबंधन कैसे करना है और कैसे उसकी उत्पादकता बनाए रखनी है." ला विना कहती हैं कि नीतियों में आमतौर पर घरों और खेती की जमीन पर व्यक्ति के मालिकाना हक पर जोर होता है. ला विना कहती हैं कि सामुदायिक संसाधनों पर महिलाओं को अधिकार देने से उनकी खाद्य सुरक्षा की जरूरतें भी पूरी होंगी और सूखा जैसी प्राकृतिक आपदा से भी निपटने में मदद मिलेगी.
महिला मुखिया तो समुदाय को मिलता है फायदा
अगर महिलाएं घर की मुखिया की भूमिका में होती हैं तो उनके समुदाय को फायदा मिलता है जिनमें खाद्य सुरक्षा, बच्चों के स्वास्थ्य और शिक्षा पर निवेश और जमीन का प्रबंधन शामिल है. इससे समुदाय को जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों से निपटने में मदद मिलती है. ला विना कहती हैं कि कोरोना महामारी के बाद से दुनियाभर की सरकारें अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने की कोशिश कर रही हैं.
इसका नतीजा सामुदायिक संसाधनों के निजीकरण के रूप में देखने को मिल सकता है. इससे ग्रामीण समुदायों को नुकसान होगा क्योंकि इन संसाधनों पर यहां के समुदाय का कानूनी अधिकार नहीं है. ला विना, कैमरून, मेक्सिको, इंडोनेशिया, नेपाल और जॉर्डन के समुदायों का अध्ययन कर चुकी हैं. इन देशों में महिलाओं को जमीन पर मालिकाना हक देने का कानून बना हुआ है.
महिलाओं को वन पर पारंपरिक अधिकार
रिपोर्ट में इंडोनेशिया के रिआऊ प्रोविन्स का जिक्र है जहां के आदिवासी समुदाय की महिलाओं को वन पर परंपरागत अधिकार मिले हुए हैं. इससे युवाओं को बेहतर रोजगार के अवसर मिले हैं और कारोबार के लिए वृक्षारोपण रोकने में मदद मिली है. कानूनी और सामाजिक तौर पर जमीन का मालिकाना हक मिलने से महिलाओं को घर के साथ ही समुदाय में भी निर्णय लेने में भागीदारी बढ़ती है. ला विना कहती हैं, "महिलाएं समुदायिक जमीन का इस्तेमाल सामुदायिक उद्यम लगाने में कर सकती हैं. इससे पूरे समुदाय को फायदा मिलेगा और अतिरिक्त कमाई होने से सभी आर्थिक तौर पर सशक्त होंगे.'
चियांग माई विश्वविद्यालय में मेकांग भूमि अनुसंधान मंच के समन्वयक डैनियल हेवर्ड कहते हैं कि घरेलू और सामुदायिक स्तर पर महिलाओं की ओर से जमीन के प्रबंधन को मान्यता देना 'नैतिक जरूरत' है. उनके अनुसार, "अगर ऐसा होता है, तो लोगों की जीविका पहले से ज्यादा सुरक्षित रहेगी और वे बाहर से आए निवेशकों को मजबूती के साथ 'नहीं' कह पाएंगे.' उन्होंने कहा कि महिलाओं को जमीन पर कानूनी अधिकार देने से वह बाहरी खतरों से निपटने में अग्रणी भूमिका निभा पाएंगी, चाहे खतरा पर्यावरण से जुड़ा हो, आर्थिक हो या फिर राजनीतिक.
आरआर/एमजे (थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन)