राष्ट्रीय

मायावती की बीजेपी से 'नज़दीकी' कोई नई राजनीतिक पटकथा लिख पाएगी?
02-Nov-2020 8:33 PM
मायावती की बीजेपी से 'नज़दीकी' कोई नई राजनीतिक पटकथा लिख पाएगी?

उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी की नेता मायावती एक बार फिर चर्चा में हैं. यह चर्चा उनके बीजेपी के साथ बन रहे और समाजवादी पार्टी के साथ बिखर रहे रिश्तों को लेकर है.

दिलचस्प बात यह है कि इससे पहले भी उनकी पार्टी का बीजेपी से जुड़ाव सपा से रिश्ते टूटने पर ही हुआ था और अब वही इतिहास एक बार फिर दोहराया जा रहा है.

बीएसपी और उसकी नेता मायावती पर लंबे समय से आरोप लग रहे थे कि यूपी में बीजेपी के साथ उनका 'छिपा हुआ गठबंधन' है लेकिन अब उन्होंने खुले तौर पर कह दिया है कि राज्य में समाजवादी पार्टी को हराने के लिए वो बीजेपी का भी समर्थन कर सकती हैं.

यह अलग बात है कि पिछले साल ही हुए लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी के साथ 25 साल पुरानी राजनीतिक और व्यक्तिगत दुश्मनी को भुलाते हुए उन्होंने चुनावी गठबंधन किया था.

हालांकि इस रिश्ते की सच्चाई मायावती के बयान से कुछ दिन पहले ही सामने आ चुकी थी जब महज़ 15 विधायकों के बल पर उन्होंने रामजी गौतम को राज्यसभा चुनाव में बीएसपी उम्मीदवार बनाकर खड़ा कर दिया था और बीजेपी ने पर्याप्त संख्या बल होने के बावजूद राज्यसभा चुनाव के लिए अपने सिर्फ़ आठ उम्मीदवार उतारे.

लेकिन इन सबके बीच सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या आगामी दिनों में, ख़ासकर साल 2022 में होने वाले यूपी विधानसभा चुनाव में बीएसपी और बीजेपी का कोई गठबंधन संभव है? और यदि ऐसा हुआ तो वो किसके फ़ायदे में होगा?

दिल्ली से क़रीबी

जानकारों का कहना है कि मायावती के रिश्ते उन पार्टियों से हमेशा ही अच्छे रहे हैं जिनकी केंद्र में सरकार रही है.

वो बताते हैं कि आज वो कांग्रेस पार्टी के ख़िलाफ़ भले ही आए दिन आग उगलती नज़र आती हैं और किसी भी कांग्रेस शासित राज्य की घटनाओं को लेकर प्रतिक्रिया देने में बिल्कुल देरी नहीं करतीं लेकिन सच्चाई यह है कि यूपी में बीएसपी, कांग्रेस पार्टी के साथ भी गठबंधन कर चुकी है.

जहां तक बीजेपी के साथ गठबंधन की संभावनाओं का सवाल है तो मेरठ विश्वविद्यालय में राजनीति शास्त्र के प्राध्यापक और दलित चिंतक प्रोफ़ेसर सतीश प्रकाश इसे सिरे से नकारते हैं.

सतीश प्रकाश कहते हैं, "बहुजन समाज पार्टी के पास सबसे बड़ा दलित वोट बैंक है और दलित राजनीतिक रूप से सबसे ज़्यादा जागरूक मतदाता है, यह किसी से छिपा नहीं है. बीजेपी के साथ मायावती की नज़दीकियों की चाहे जितनी चर्चा हो, वो ख़ुद भी भले ही कह चुकी हैं कि सपा को हराने के लिए हम बीजेपी को भी समर्थन दे सकते हैं लेकिन बीजेपी के साथ कोई चुनावी गठबंधन होगा, ऐसा लगता नहीं है."

अस्तित्व का संकट

साल 2007 में यूपी में पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने वाली बहुजन समाज पार्टी का ग्राफ़ उसके बाद लगातार गिरता ही गया.

साल 2007 के विधानसभा चुनाव में उन्हें जहां 206 सीटें मिली थीं, वहीं साल 2012 में महज़ 80 सीटें मिलीं.

साल 2017 में यह आंकड़ा 19 पर आ गया. यही नहीं, साल 2014 के लोकसभा चुनाव में उन्हें राज्य में एक भी सीट हासिल नहीं हुई.

इस दौरान बीएसपी का न सिर्फ़ राजनीतिक ग्राफ़ गिरता गया, बल्कि उसके कई ऐसे नेता तक पार्टी छोड़कर दूसरी पार्टियों में चले गए जो न सिर्फ़ क़द्दावर माने जाते थे बल्कि पार्टी की स्थापना के समय से ही उससे जुड़े थे.

वरिष्ठ पत्रकार शरत प्रधान बताते हैं कि बीएसपी के सामने सबसे बड़ा संकट अस्तित्व बचाने का है.

शरत प्रधान कहते हैं, "दलित मतों में बीजेपी सेंध लगा चुकी है. बचा-खुचा दलित वोट जो है उस पर कांग्रेस पार्टी और भीम आर्मी की निगाह लगी हुई है. दलितों के ख़िलाफ़ यूपी में जो कुछ भी हो रहा है, उसमें न तो मायावती और न ही उनकी पार्टी बीएसपी कहीं नज़र आती है."

जहां तक बीजेपी के साथ बीएसपी के रिश्तों की बात है तो इसमें नया कुछ भी नहीं है. बीएसपी ने न सिर्फ़ बीजेपी के समर्थन से सरकार बनाई है तो ऐसी स्थिति भी आई कि उन्हें यह तक कहना पड़ा कि दोबारा वो बीजेपी के साथ कभी कोई राजनीतिक गठजोड़ नहीं करेंगी.

ऐसे ही खट्टे-मीठे रिश्ते उनके समाजवादी पार्टी के साथ भी रहे और कांग्रेस के साथ भी.

सहयोगियों से संबंध

लखनऊ में वरिष्ठ पत्रकार सुनीता ऐरन कहती हैं, "मायावती ने जिनसे भी गठबंधन किया या जिस भी दल के साथ रहीं, उनसे उनके कभी अच्छे रिश्ते नहीं रहे. सपा के साथ भी जब गठबंधन हुआ तो अंदर से यह कहा गया कि अखिलेश का समर्थन नहीं करना है."

"बीजेपी के साथ वो कोई गठबंधन करती भी हैं तो उसका उन्हें कोई फ़ायदा होगा, कहना मुश्किल है. दूसरे, बीजेपी उनसे क्यों गठबंधन करेगी, यह भी बड़ा अहम सवाल है. इसकी सिर्फ़ यही वजह हो सकती है कि वो कांग्रेस और समाजवादी पार्टी को कमज़ोर कर सकें. इसके अलावा तो कोई कारण दिखता नहीं है."

"दूसरी बात, मायावती जिस तरह से रिएक्ट कर रही हैं, विधायकों के टूटने पर वो हमेशा ऐसे ही रिएक्ट करती रही हैं. यह कोई नई बात नहीं है."

उत्तर प्रदेश में नब्बे के दशक में गठबंधन की राजनीति कुछ ऐसी रही कि हर पार्टी एक-दूसरे के साथ आ चुकी है, बस केवल बीजेपी और कांग्रेस साथ नहीं आए.

साल 1989 में जब मुलायम सिंह यादव मुख्यमंत्री बने थे, तब उन्हें बीजेपी का समर्थन हासिल था.

1993 में पहली बार बसपा और सपा का गठबंधन हुआ और बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद हुए इस चुनाव में बीजेपी को हार का सामना करना पड़ा.

लेकिन सपा-बसपा गठबंधन की यह सरकार जल्दी ही बिखर गई और 1995 में मायावती बीजेपी के समर्थन से मुख्यमंत्री बनीं.

बीएसपी-बीजेपी सरकार

साल 2002 में यूपी में बीएसपी और बीजेपी की मिली-जुली सरकार बनी लेकिन बहुत ज़्यादा दिनों तक टिक नहीं पाई.

एक साल बाद ही बीजेपी ने मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व में समाजवादी पार्टी की सरकार बनवाने में फिर मदद की.

लेकिन अब बीजेपी और बीएसपी के बीच तल्ख़ी काफ़ी बढ़ चुकी थी और बीएसपी नेता मायावती ने बीजेपी के साथ किसी तरह का गठबंधन करने या समर्थन लेने-देने से तौबा कर ली थी.

बीएसपी और बीजेपी के क़रीब आने को यूं तो राजनीतिक विश्लेषक सिर्फ़ राज्य सभा या विधान परिषद चुनाव तक ही देख रहे हैं लेकिन आगामी विधानसभा चुनाव में भी परोक्ष गठबंधन की संभावनाओं से भी इनकार नहीं किया जा रहा है.

बीजेपी के नेता इस मामले में कोई भी टिप्पणी करने से इनकार करते हैं लेकिन प्रोफ़ेसर सतीश प्रकाश कहते हैं कि गठबंधन से बीजेपी को फ़ायदा होगा.

सतीश प्रकाश के मुताबिक़, "बीजेपी मायावती से नज़दीकियां सिद्ध करने का कोई मौक़ा नहीं छोड़ती. क्योंकि इसमें उसका फ़ायदा है. दरअसल, एनआरसी और सीएए को लेकर जो कुछ भी हुआ, उसमें दलित समुदाय मुस्लिमों के साथ दिखा."

"बीजेपी को यह लगता है कि यदि दलित-मुस्लिम का बड़ा गठजोड़ बनता है तो ये उसके लिए बड़ा नुक़सान कर सकता है. मायावती या बीएसपी की इमेज अपने समर्थक के तौर पर पेश करके बीजेपी इस दलित-मुस्लिम गठजोड़ की संभावना को तोड़ सकती है."

जानकारों का यह भी कहना है कि बीजेपी आज जिस स्थिति में है, उसमें उसे बीएसपी के साथ गठबंधन करने की कोई ज़रूरत या कोई फ़ायदा तो नहीं दिखता लेकिन एक फ़ायदा ज़रूर है कि ऐसा करके वो एसपी-बीएसपी को साथ जाने से तो रोकेगी ही, दलित वोटों के बिखराव को भी रोक सकती है.

लेकिन वरिष्ठ पत्रकार सुभाष मिश्र ऐसा नहीं मानते हैं.

सुभाष मिश्र कहते हैं, "2019 के लोकसभा चुनाव के बाद यह कहना बड़ा मुश्किल है कि बीएसपी जिसको चाहे दलित वोट ट्रांसफ़र करा सकती है. क्योंकि यदि ऐसा हुआ होता तो समाजवादी पार्टी को और सीटें मिली होतीं. इसलिए कोई ज़रूरी नहीं है कि दलित मायावती के कहने पर बीजेपी को वोट दे दे."

"अभी यह सब कहना जल्दबाज़ी होगी. दूसरे, कांग्रेस पार्टी की सक्रियता, दलितों के प्रति दिखाई जा रही हमदर्दी और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भीम आर्मी की सक्रियता को भी नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता. दलित भी विकल्प तलाशने लगा है और आगे भी तलाशेगा." (bbc)


अन्य पोस्ट