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भारत में शराब के बढ़ते बाजार के बीच, जेन-जी नॉन-अल्कोहलिक विकल्पों को अपनाकर पीने की आदतों में बदलाव ला रहे हैं. लेकिन अभी ये विकल्प पूरी तरह शराब की जगह नहीं लेने जा रहे
डॉयचे वैले पर शिवांगी सक्सेना की रिपोर्ट -
भारत में शराब पीने के तरीके में बदलाव आ रहा है. जिम्मेदारी से पीने के शौकीन अब एक ऐसे विकल्पों की ओर देख रहे हैं जो उनके स्वास्थ्य के लिए हानिकारक ना हों. इस ट्रेंड को 'सोबर ड्रिंकिंग' या 'सोबर क्यूरोसिटी' कहते हैं. बहुत से जेन-जी सोशल गैदरिंग में शराब के अलावा काफी मात्रा में नॉन-अल्कोहलिक ड्रिंक्स भी पी रहे हैं. स्वास्थ्य के प्रति बढ़ती जागरूकता से ऐसा हुआ है. ज्यादा शराब पीने से वजन बढ़ने और नींद खराब होने जैसे बुरे प्रभावों को लेकर लोगों में जागरूकता बढ़ी है. वे शराब पी रहे हैं लेकिन नियंत्रित मात्रा में. नॉन-अल्कोहलिक ड्रिंक्स भी उन्हें आकर्षित कर रही हैं.
यूरोमीटर इंटरनेशनल की 'वैश्विक शराब बाजार 2025' रिपोर्ट के अनुसार वैश्विक शराब उद्योग वर्ष 2024 में 253 अरब लीटर तक पहुंच गया था. फिर इसकी रफ्तार ठहर गई. दुनियाभर में शराब पीने वाले लोगों की संख्या घट रही है. जो लोग कभी-कभी शराब पीते हैं, उनमें से 53 प्रतिशत लोग अब इसे कम करने की कोशिश कर रहे हैं. जबकि पांच साल पहले यह आंकड़ा 44 प्रतिशत था.
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सबसे ज्यादा जेन-जी इस बदलाव को तेजी से अपना रहे हैं. रिपोर्ट में बताया गया है कि 36 प्रतिशत युवाओं ने कभी शराब नहीं पी. इसके पीछे स्वास्थ्य एक बड़ी वजह है. लगभग 87 प्रतिशत लोगों को लगता है कि स्वास्थ्य को बेहतर बनाने और लंबी उम्र के लिए शराब से परहेज जरुरी है. जबकि 30 प्रतिशत लोग सोचते हैं कि कम शराब पीने से बचत होती है. वहीं 25 प्रतिशत लोग बेहतर नींद पाने के लिए शराब कम कर रहे हैं.
भारत में क्या हैं ड्रिंकिंग पैटर्न?
पारंपरिक रूप से शराब की बड़ी खपत वाले पश्चिमी देशों के बजाए अब ब्राजील, मेक्सिको, दक्षिण अफ्रीका और खासतौर पर भारत जैसे उभरते हुए बाजार बेहतर प्रदर्शन कर रहे हैं. वर्ष 2024 से 2029 तक भारत में शराब की खपत करीब 36 करोड़ लीटर बढ़ने की उम्मीद है. यह दर्शाता है कि भारत के बाजारों में भी शराब की खरीद तेजी से बढ़ रही है. इसका मुख्य कारण है इन सभी देशों में मध्यम वर्ग की आय का बढ़ना और लोगों की खरीदारी की आदतों में आया बदलाव. वहीं तेज महंगाई और खराब होती अर्थव्यवस्था के बीच अमेरिका और यूरोप जैसे विकसित देशों में लोग खर्च करने से पहले बहुत ज्यादा सोच-विचार करने लगे हैं. इसलिए अब शराब उद्योग को सबसे बड़ी संभावनाएं उभरते हुए बाजारों में दिख रही हैं.
हालांकि भारत में भी लोगों का शराब की ओर रुझान अपने चरम पर नहीं है क्योंकि भारत में भी लोग कम अल्कोहल वाले विकल्पों की ओर जा रहे हैं. ऐसे में नॉन-अल्कोहलिक ड्रिंक्स का बाजार तेजी से बढ़ रहा है. भारत में नॉन-अल्कोहलिक ड्रिंक का बाजार वर्ष 2024 में लगभग 32.06 बिलियन डॉलर था. वर्ष 2033 तक यह बढ़कर 68.73 बिलियन डॉलर तक पहुंचने का अनुमान है. अगर इस सेगमेंट की बात करे तो वर्ष 2024 में नॉन-अल्कोहलिक ड्रिंक्स की बिक्री में 17 प्रतिशत और नॉन-अल्कोहलिक रेडी-टू-ड्रिंक ड्रिंक्स की बिक्री में 14 प्रतिशत की वृद्धि हुई है. जबकि नॉन/लो अल्कोहल बीयर में 11 प्रतिशत और नॉन-अल्कोहलिक वाइन में 7 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है. अधिकतर बार और रेस्टोरेंट्स में जीरो‑प्रूफ स्पिरिट्स या नॉन-अल्कोहलिक कॉकटेल आसानी से मिल रहे हैं.
क्यों नॉन-अल्कोहलिक बन रहे हैं युवा
स्टैटिस्टा के आंकड़ों के अनुसार जेन-जी पिछली पीढ़ियों की तुलना में शराब पर बहुत कम खर्च कर रही है. वर्ष 2022 में बूमर, जेन-एक्स और मिलेनियल ने शराब पर 23 से 25 बिलियन डॉलर तक खर्च किया. वहीं जेन-जी का खर्च केवल 3 बिलियन डॉलर था.
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नॉन-अल्कोहलिक ड्रिंक की लोकप्रियता के कई कारण है. जेन-जी और मिलेनियल सबसे स्वास्थ्य‑सचेत पीढ़ियां समझी जाती हैं. ये लोग किसी भी प्रोडक्ट को खरीदने से पहले उसमें इस्तेमाल सामग्री को ध्यान से पढ़ते हैं. ताकि उन्हें पता हो कि उनके शरीर में क्या जा रहा है. खासकर कोविड महामारी के बाद से वे ज्यादा सतर्क हो गए हैं. ये वो पीढ़ी भी है जिसने अपने परिवार या आसपास किसी ना किसी पर शराब के बुरे असर होते देखे हैं. ये लोग इस बात के प्रति भी सजग हैं कि 40 साल की उम्र तक उनका स्वास्थ्य और शरीर कैसा दिखना चाहिए. इसलिए वे अपने खान-पान पर और अधिक ध्यान दे रहे हैं. साथ ही नॉन-अल्कोहलिक ड्रिंक उन लोगों को भी समूह का हिस्सा बनने का मौका देती हैं जो शराब नहीं पीते, लेकिन फिर भी पार्टी में शामिल होना चाहते हैं.
अल्कोहलिक ड्रिंक जैसे बीयर, वाइन, व्हिस्की और रम में एथेनॉल होता है. जबकि मॉकटेल, नॉन-अल्कोहलिक बीयर, और जीरो प्रूफ स्पिरिट्स को फलों का रस, हर्ब्स, मसाले और फ्लेवरिंग एजेंट्स मिलाकर बनाया जाता है.
वंश पाहुजा घरेलू नॉन-अल्कोहलिक स्पिरिट्स ब्रांड ‘सोबर' के फाउंडर है. वह डीडब्ल्यू को बताते हैं कि नॉन-अल्कोहलिक ड्रिंक उनके लिए है जो शराब जैसा स्वाद, अनुभव, खुशबू और लुक चाहते हैं लेकिन शराब के नकारात्मक असर जैसे सिरदर्द या नशे का अनुभव नहीं करना चाहते. नॉन-अल्कोहलिक ड्रिंक में शुगर और कैलोरी की मात्रा भी बहुत कम या ना के बराबर होती है. हां, इनकी कीमत थोड़ी ज्यादा है क्योंकि अभी इनका बड़े पैमाने पर उत्पादन नहीं हो रहा. अभी इनकी डिमांड बेंगलुरु, मुंबई और दिल्ली जैसे बड़े शहरों में अधिक है.
क्या है युवाओं में लोकप्रिय जीब्रा स्ट्राइपिंग
नॉन-अल्कोहलिक ड्रिंक अभी इस स्थिति में नहीं हैं कि वो शराब की जगह ले लें. हालांकि वो एक विकल्प जरूर बन चुके हैं. युवा 'जीब्रा स्ट्राइपिंग' अपना रहे हैं. इसका मतलब है कोई व्यक्ति पार्टी या सोशल मौके पर शराब और नॉन-अल्कोहलिक ड्रिंक को बारी-बारी से पीता है. ताकि शराब कम और संतुलित तरीके से पी जाए.
रुचि नागरेचा नॉन-अल्कोहलिक कॉकटेल ब्रांड ‘सोब्रेटी सिप्स' की फाउंडर हैं. उनका मानना है कि नॉन-अल्कोहलिक ड्रिंक्स जश्न मनाने का एक तरीका हैं. शराब उद्योग सैकड़ों सालों से मौजूद है. यह रातों-रात खत्म नहीं होगा. उनके ब्रांड की ड्रिंक्स में बोटैनिकल्स, हाइड्रोसोल्स, टिंचर और कोल्ड एक्सट्रैक्शन का इस्तेमाल होता है. जो अल्कोहलिक कॉकटेल जैसी जटिलता और संतुष्टि देते हैं.
रूचि डीडब्ल्यू से कहती हैं, "मैं अक्सर देखती हूं कि कोई शाम की शुरुआत वाइन के एक ग्लास से करता है और फिर जीरो-प्रूफ या नॉन-अल्कोहलिक कॉकटेल की ओर शिफ्ट हो जाता है. यह एक बेहतरीन संतुलन है. जीब्रा स्ट्राइपिंग एक मानसिकता है. लोग अभी भी पार्टी और माहौल का हिस्सा बनना चाहते हैं. लेकिन साथ ही वो हाइड्रेटेड रहना और हैंगओवर से भी बचना चाहते हैं."
क्या शराब की जगह ले सकेंगे नॉन- अल्कोहलिक ड्रिंक?
भारत में लोग स्वास्थ्य के प्रति अधिक सचेत हो रहे हैं. इसका मतलब यह नहीं कि वे सीधे नॉन-अल्कोहलिक ड्रिंक्स की ओर बढ़ रहे हैं. भारत में शराब के क्षेत्र में अब कम अल्कोहल वाले और रेडी-टू-ड्रिंक (आरटीडी) उत्पाद लोकप्रिय हो रहे हैं. लेकिन ये बदलाव अभी अल्कोहलिक ड्रिंक की कैटेगरी पर ज्यादा असर नहीं डाल रहा.
आरडेंट अलकोबेव के निदेशक देबाशीष श्याम ने इसे लेकर डीडब्ल्यू को बताया कि लोग शराब कम पीने लगे हैं. वे बेहतर क्वालिटी के उत्पाद चुन रहे हैं. घर पर पार्टी, ट्रैवल और आउटडोर इवेंट्स बढ़ने से प्रीमियम शराब की मांग भी बढ़ रही है.
शराब विशेषज्ञ और सलाहकार रोजिता तिवारी भी कुछ ऐसा ही कहती हैं. उनके मुताबिक अब भारत में पीने की एक नई सोच शुरू हो रही है. लोग ज्यादा समझदारी और संतुलन के साथ, स्वाद और आनंद पर ध्यान देते हुए पीना पसंद कर रहे हैं. लोग कम पीना चाहते हैं लेकिन गुणवत्ता वाली चीजें पीना चाहते हैं. नॉन-अल्कोहलिक ड्रिंक्स उनके लिए हैं जो शराब नहीं पीते. ताकि वे बिना शराब के भी दोस्तों के साथ उसी स्वाद और माहौल का आनंद ले सकें. ये नशे का इलाज नहीं हैं सिर्फ किसी समूह में 'एडजस्ट' होने का एक तरीका हैं.
वीरेंदर दिल्ली के वसंत विहार में स्थित 'रेड' बार में बतौर बार टेंडर काम करते हैं. ये बार अपने अल्कोहलिक कॉकटेल के लिए जाना जाता है. वीरेंद्र डीडब्ल्यू को बताते हैं कि लोग स्वास्थ्य को लेकर चिंतित हैं लेकिन वो ज्यादातर मामलों में खुद से नॉन-अल्कोहलिक ड्रिंक्स नहीं मांग रहे, सिर्फ आर्डर देते समय वे शुगर की मात्रा कम रखने को कहते हैं. उनके बार में सोबर ब्रांड के ड्रिंक मौजूद हैं. इनको ड्रिंक्स मेन्यू में 'मॉकटेल' की कैटेगरी में रखा जाता है. यानी बार और रेस्टोरेंट्स में नॉन-अल्कोहलिक ड्रिंक को जूस, और कोक जैसे सॉफ्ट ड्रिंक की कैटेगरी में जगह मिल गई है.
शराब पीने को लेकर किस देश में क्या चेतावनी दी जाती है
अमेरिका में शराब की बोतलों पर कैंसर की चेतावनी देने की जरूरत पर बहस चल रही है. अलग अलग देशों में शराब पीने को लेकर अलग अलग नियम हैं.
ब्रिटेन
ब्रिटेन की राष्ट्रीय स्वास्थ्य सेवा कहती है कि एक हफ्ते में 14 यूनिट से ज्यादा शराब नहीं पीनी चाहिए. उसका यह भी कहना है कि "पीने का पूरी तरह से सुरक्षित कोई भी स्तर नहीं है, लेकिन इन दिशा निर्देशों के पालन से आपके स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचने का जोखिम कम हो जाता है." इन दिशा निर्देशों के मुताबिक, कम शराब पीने के लंबी अवधि के फायदों में कैंसर के जोखिम का कम होना शामिल है.
फ्रांस
फ्रांस की स्वास्थ्य एजेंसी का कहना है कि वयस्कों को एक दिन में अधिकतम दो सामान्य ड्रिंक जितनी शराब पीनी चाहिए और हर रोज नहीं पीना चाहिए. एक हफ्ते में 10 से ज्यादा सामान्य ड्रिंक नहीं लेने चाहिए और हर हफ्ते शराब ना पीने वाले वाले दिन भी होने चाहिए. एजेंसी के मुताबिक शराब कैंसर का जाना माना कारण है और कुछ तरह के कैंसर होने का खतरा रोज एक ड्रिंक लेने से भी बढ़ जाता है.
जर्मनी
जर्मन सेंटर फॉर एडिक्शन इशूज कहता है कि एक दिन में महिलाओं को 12 ग्राम से ज्यादा और पुरुषों को 24 ग्राम से ज्यादा शराब नहीं पीनी चाहिए. हर हफ्ते कम से कम दो दिन शराब से परहेज भी करना चाहिए. 2022 में सरकार के पैसे से हुए एक अध्ययन में दावा किया गया था कि शराब पीने से कई तरह के कैंसर हो सकते हैं.
आयरलैंड
अगले साल लागू होने वाले नए नियमों के तहत आयरलैंड में बिकने वाले सभी शराब उत्पादों पर स्वास्थ्य से जुड़ी लेबल लगाना अनिवार्य कर दिया गया है. इनमें कैंसर, लिवर की बीमारी आदि से संबंध और गर्भावस्था में पीने के जोखिम को लेकर चेतावनियां शामिल हैं. इस कदम का स्वागत करते हुए उस समय विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कहा था कि आयरलैंड शराब उत्पादों पर स्वास्थ्य से जुड़े लेबल देने वाला पहला देश बन जाएगा.
लिथुआनिया
लिथुआनिया के कड़े नियम शराब पीने को लेकर किसी भी तरह के सार्वजनिक प्रोत्साहन को प्रतिबंधित करते हैं. यहां तक कि शराब के विज्ञापन भी नहीं निकाले जा सकते हैं. सरकार के नारकोटिक्स, टोबैको एंड अल्कोहल कंट्रोल बोर्ड की वेबसाइट पर एक बयान में शराब और कैंसर के बीच संबंध के बारे में बताया गया है. हालांकि इसमें कैंसर को लेकर स्पष्ट चेतावनी नहीं दी गई है.
नॉर्वे
नॉर्वे के स्वास्थ्य निदेशालय का कहना है कि शराब पीने का कोई सुरक्षित स्तर नहीं है और इसे "जितना हो सके उतना कम" पीना चाहिए. 2024 में जारी किए गए दिशानिर्देशों में निदेशालय ने कहा, "शराब पीना कैंसर के विकसित होने से जुड़ा हुआ है, विशेष रूप से स्तनों का कैंसर और गैस्ट्रोइंटेस्टाइनल ट्रैक्ट का कैंसर."
स्पेन
स्पेन के स्वास्थ्य मंत्रालय का कहना है कि शराब पीने से हमेशा ही जोखिम रहता है और "शराब को जितना कम पिया जाए उतना अच्छा." महिलाएं एक दिन में वाइन का आधा गिलास या बियर का छोटा गिलास पीएं तो जोखिम कम रहता है. पुरुषों के लिए यह सीमा एक दिन में वाइन का एक गिलास या बियर के दो छोटे गिलास है. मंत्रालय के मुताबिक जोखिम भरे सेवन से भविष्य में कैंसर या मानसिक रोग जैसी समस्याओं के होने की संभावना बढ़ती है.
अमेरिका
अमेरिका में शराब आधारित ड्रिंक्स पर 1988 से एक स्वास्थ्य चेतावनी रहती है, लेकिन इसमें गर्भवती महिलाओं को सलाह दी गई होती है कि वो इन्हें ना पिएं. यह भी लिखा होता है कि शराब पीने से इंसान की गाड़ी चलाने और मशीनें चलाने की क्षमता पर असर पड़ता है. सीके/एनआर (रॉयटर्स)
दिल्ली वालों को रोजाना एक घंटा भी आराम का नहीं मिलता
एक नई रिपोर्ट ने दिल्ली समेत कई भारतीय शहरों पर प्रदूषण के असर को एक नए नजरिए से पेश किया है. रिपोर्ट दिखाती है कि प्रदूषण का इन शहरों में रहने वालों के जीवन की गुणवत्ता पर कितना बुरा असर पड़ रहा है.
क्या हैं आरामदायक घंटे
आरामदायक घंटे यानी वो समय जब किसी भी शहर का तापमान 18 से 31 डिग्री सेल्सियस के बीच रहता है. इसके बारे में अहमदाबाद के सीईपीटी विश्वविद्यालय और भारतीय जलवायु टेक स्टार्टअप 'रेस्पीरेर लिविंग साइंसेज' ने मिल कर एक नया अध्ययन किया है.
दिल्ली में नहीं आराम
रिपोर्ट के मुताबिक दिल्ली को साल के 8,760 घंटों में से सिर्फ 2,210 ऐसे घंटे मिलते हैं जो तापमान के लिहाज से आरामदायक होते हैं. लेकिन इनमें से 1,951 घंटे (88 प्रतिशत) ऐसे होते हैं जिनमें वायु की गुणवत्ता खराब होती है. दिल्ली वालों को साल में सिर्फ 259 (तीन प्रतिशत) घंटे ऐसे मिलते हैं जिनमें तापमान आरामदायक होता है और वायु की गुणवत्ता भी अच्छी होती है. यानी एक दिन में औसतन सिर्फ 42 मिनट.
चेन्नई का भी यही हाल
रिपोर्ट के मुताबिक दिल्ली अकेला ऐसा भारतीय शहर नहीं है जो इस समस्या से जूझ रहा है. राष्ट्रीय राजधानी की ही तरह चेन्नई के आरामदायक घंटों में से भी करीब 88 प्रतिशत घंटों पर वायु प्रदूषण का असर रहता है.
बेंगलुरु का हाल बेहतर
बेंगलुरु का हाल दिल्ली से काफी बेहतर बताया गया है. कर्नाटक की राजधानी में साल में 8,100 से भी ज्यादा घंटे ऐसे मिलते हैं जिनमें वायु की गुणवत्ता ठीक होती है और तापमान के लिहाज से आरामदायक घंटों पर खराब एक्यूआई की न्यूनतम छाया पड़ती है. इसी तरह अहमदाबाद को भी दिल्ली से ज्यादा इस्तेमाल करने लायक घर से बाहर के हालात मिलते हैं.
मेट्रो शहरों पर दोहरा असर
रिपोर्ट दिखाती है कि विशेष रूप से भारत के मेट्रो शहरों में जलवायु परिवर्तन और प्रदूषण का दोहरा असर बढ़ता जा रहा है. इससे पहले भी कई अध्ययन यह दिखा चुके हैं कि इन दोनों कारणों की वजह से इन शहरों में जीवन की गुणवत्ता और लोगों के स्वास्थ्य पर असर पड़ रहा है.
पारंपरिक तरीकों से नहीं बन रही बात
इन हालात को देखते हुए इस रिपोर्ट में घर के अंदर के हालात को भी और बेहतर बनाने के उपाय सुझाए गए हैं. रिपोर्ट के मुताबिक पूरी तरह से बंद और वातानुकूलित स्थान हों या बेरोक प्राकृतिक वेंटिलेशन वाले स्थान, दोनों ही तरीके अब भारतीय शहरों की मांग को पूरा नहीं कर पा रहे हैं. प्रस्तावित किया गया है कि पर्स्नलाइज्ड एनवायरनमेंटल कंट्रोल सिस्टम्स (पीईसीएस) का इस्तेमाल करना चाहिए.
क्या है पीईसीएस
पीईसीएस यानी तापमान का नियंत्रण करने के स्थानीय साधन, जैसे निजी पंखे, रेडिएंट पैनल और स्थानीय वेंटिलेशन सिस्टम आदि. इनसे ऊर्जा की भी बचत होती है. रिपोर्ट में दिखाया गया है कि अगर इमारतें बनाने में पीईसीएस का इस्तेमाल किया जाए तो दिल्ली में 68 प्रतिशत, अहमदाबाद में 70 प्रतिशत और चेन्नई में 72 प्रतिशत ऊर्जा बचत की जा सकती है.


