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कानपुर की पहचान रहीं टेक्सटाइल मिलें, अपनी पहचान बचाने को संघर्ष कर रही हैं
21-Feb-2022 1:44 PM
कानपुर की पहचान रहीं टेक्सटाइल मिलें, अपनी पहचान बचाने को संघर्ष कर रही हैं

कभी पूर्व का मैनचेस्टर कहे जाने वाले कानपुर में सूती और ऊनी कपड़ों की मिलों के अब सिर्फ निशान ही बचे हैं. उसके अलावा यदि कुछ बचा है तो इन मिलों में काम कर रहे कर्मचारियों के अनशन की तस्वीरें और उनकी समस्याएं.

   डॉयचे वैले पर समीरात्मज मिश्र की रिपोर्ट-

कानपुर के वीआईपी रोड के आस-पास लाल इमली की ईंटों की बनी हुई शानदार इमारत, उससे लगी हुई एक ऊंची क्लॉक टॉवर और इमारत के भीतर मशीनें और चिमनियां साफ देखी जा सकती हैं और ये सब न सिर्फ इस इमारत की बल्कि इस शहर की बुलंदियों की भी गवाह सी दिखती हैं.

एक समय था जब कानपुर की बड़ी-बड़ी मिलों, खासकर टेक्सटाइल मिलों का न सिर्फ भारत में बल्कि पूरी दुनिया में डंका बजता था. लेकिन वक्त बीतने के साथ ही इन मिलों से बजने वाले सायरन की आवाजें खामोश हो गईं और देखते ही देखते कानपुर की 12 प्रमुख टेक्सटाइल मिलें बंद होती गईं, मजदूर बेरोजगार होते गए और आम लोगों के लिए इन मिलों से मिलने वाले सस्ते लेकिन गुणवत्ता में शानदार सूती और ऊनी कपड़े स्वप्न से हो गए.

कानपुर की बंद पड़ी मिलों में से एक प्रमुख मिल है एलगिन मिल नंबर वन जहां एक समय करीब चार हजार मजदूर काम करते थे. इसी शहर में एलगिन मिल नंबर दो भी है और वहां भी यही स्थिति थी. साल 2003 में 12 सौ से ज्यादा मजदूरों को मिल में नहीं आने का फरमान सुनाया गया, साल 2013 से मिल में उत्पादन बंद हो गया और उसके बाद तो मिल को बंद होना ही था और आखिरकार ऐसा हो भी गया. इस मिल के बाहर अपने हक की लड़ाई लड़ रहे कुछ मजदूर अब भी उम्मीद लगाए बैठे हैं कि शायद उनकी बात सुनी जाए और उन्हें न्याय मिल सके.

मिल के बाहर एक कर्मचारी संजय तिवारी कहने लगे, "42 महीने हो गए हैं, हम लोगों को तनख्वाह नहीं मिली है. मिल में अब भी कुछ कर्मचारी काम कर रहे हैं लेकिन कोई काम नहीं है. सिर्फ आते हैं और चले जाते हैं. हमारी मांग है कि हमारा हिसाब कर दिया जाए और जो कुछ बनता हो हमें दे दिया जाए. हम कुछ और काम कर लेंगे. वेतन नहीं मिल रहा है तो हम लोगों को खाने के लाले पड़ गए हैं.”

एक अन्य कर्मचारी महेश दीक्षित कहते हैं कि 2017 तक जो लोग रिटायर हो गए उन्हें फंड का पैसा तक नहीं मिला, ग्रैच्युटी नहीं मिली और जो लोग अभी भी काम कर रहे हैं, उन्हें वेतन नहीं मिल रहा है. संजय तिवारी कहते हैं, "2003 में जब अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे, उसी समय से मिल की स्थिति खराब होनी शुरू हो गई. 2007 से उत्पादन कम होना शुरू हो गया और 2014 के बाद मिल पूरी तरह से बंद हो गई. अंतिम बार यहां उत्पादन साल 2014 में ही हुआ. कई मंत्रियों और सांसदों से गुहार लगाई गई, उन लोगों ने बात को संसद तक पहुंचाया भी लेकिन कुछ नहीं हुआ.”

कुछ ही दूरी पर एक जमाने में ऊनी कपड़ों की मशहूर ब्रांड रही लाल इमली की हालत भी ऐसी ही है. इस मिल की शानदार इमारत कानपुर की पहचान है. कुछ दिन पहले नगर निगम ने इस इमारत पर फैन्सी लाइटें लगाने का फैसला किया है ताकि लोगों को दूर से ही इमारत दिख जाए लेकिन इस इमारत के भीतर कभी काम करके अपने परिवार पालने वालों की जिंदगी बहुत ही खराब स्थिति में पहुंच गई है.

यहां साल 2016 से साल से कर्मचारी लगातार अनशन पर बैठे हैं और यह अनशन अनवरत चल रहा है. चुनाव आचार संहिता की वजह से अनशन स्थल से प्रशासन ने उन्हें हटा दिया है लेकिन मिल की दीवार पर इन कर्मचारियों ने मतदान बहिष्कार का बोर्ड लगा रखा है और चुनाव बाद फिर से यहां बैठने को तैयार हैं. कर्मचारी संघ के कानूनी सलाहकार एसके श्रीवास्तव से मुख्य द्वार के बाहर मुलाकात हुई. वो कहने लगे, "हमारा आंदोलन इसलिए चल रहा है कि हमारे पारिश्रमिक का जो भी भुगतान बनता हो वो कर दिया जाए. मिल चलाना या न चलाना सरकार के ऊपर है. हालांकि यहां की मशीनें बिल्कुल उसी स्थिति में हैं और यदि थोड़ी बहुत कोशिश कर ली जाए तो मिल फिर से चल सकती है लेकिन सरकार ने इसे बंद करने की ठान ही ली है तो कोई क्या करे.”

लाल इमली कानपुर की पहचान रही है. यहां न सिर्फ हजारों कर्मचारियों को रोजगार मिला हुआ था बल्कि इस मिल के ऊनी कपड़ों की पहचान भारत के अलावा यूरोप तक थी. मिल का स्वर्णिम दौर देख चुके एक बुजुर्ग राम नारायण याद करते हैं, "1876 में बनी इस मिल में एक समय दस हजार से ज्यादा लोग काम करते थे. अलग-अलग शिफ्टों में मिल चौबीस घंटे चलती थी और सुबह-शाम दो बार बजने वाल हूटर की आवाज दो-तीन किमी तक सुनाई देती थी. हूटर की आवाज और यहां लगी घड़ी से लोग समय का मिलान करते थे.”

कुछ यही हाल पास में ही स्थित म्योर मिल, एलगिन मिल नंबर दो और स्वदेशी कॉटन मिल का भी है.

कानपुर शहर में बीआइसी यानी ब्रिटिश इंडस्ट्रीज कॉर्पोरेशन की मिलों में से एक लाल इमली अपने ऊनी कपड़ों के लिए मशहूर थी. मिल के कर्मचारी रहे लल्लन झा बताते हैं, "यहां ऑस्ट्रेलिया की मेरिनो भेड़ के बाल से बनने वाले ऊन से कंबल, लोई, मफलर, टोपी और दूसरे कपड़े इतने गर्म होते थे कि कड़ाके की सर्दी में भी पसीना निकाल देते थे. यहां के ऊनी कपड़ों की मांग न सिर्फ भारत बल्कि इंग्लैंड, अमेरिका, रूस और जर्मनी जैसे देशों में भी थी.”

पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के समय में साल 1981 में इसका राष्ट्रीकरण किया गया और उसके बाद यहां उत्पादन और बढ़ गया. संजय तिवारी बताते हैं, "यहां के उत्पादों के दाम इतने कम रखे जाते थे कि सामान्य लोगों से लेकर मजदूर वर्ग तक के लोग आसानी से खरीद सकते थे. इसके अलावा ऊंची गुणवत्ता वाली चीजें भी बनती थीं और सैनिकों की वर्दी के लिए भी कपड़े तैयार किए जाते थे.”

लेकिन साल 1990 के बाद मिल का घाटा बढ़ना शुरू हुआ और साल 1992 में इसे बीमार मिल घोषित कर दिया गया. उत्पादन लगातार गिरता रहा और मिल को बचाने की किसी तरह की कोई कोशिश नहीं हुई और आखिरकर साल 2017 में नीति आयोग ने इसे बंद करने का निर्णय लिया.

कानपुर की स्वदेशी कॉटन मिल में 1970 के दशक में करीब 22 हजार लोग काम करते थे लेकिन उसी समय मिल की आर्थिक हालत खराब होने लगी थी. 6 दिसम्बर 1977 को बकाया वेतन और अन्य मांगों को लेकर आंदोलन कर रहे मजदूरों और मिल प्रबंधन के अफसरों के बीच वार्ता हो रही थी लेकिन उसी दौरान कुछ मजदूर नेताओं की पुलिस से कहासुनी हो गई और मजदूर नेताओं की पुलिस ने पिटाई कर दी.

आक्रोशित मजदूरों ने मिल के दो अफसरों को ब्वॉयलर में फेंक दिया है, बेकाबू भीड़ को हटे के लिए पुलिस ने गोलियां चलाईं और 11 मजदूरों की इस गोलीबारी में मौत हो गई. उस वक्त देश और प्रदेश में जनता पार्टी की सरकार थी. मशहूर ट्रेड यूनियन नेता जॉर्ज फर्नांडिस उस समय उद्योग मंत्री थे. वो कानपुर आए और उसके बाद स्वदेशी कॉटन मिल का राष्ट्रीयकरण किया गया. लेकिन 2002 में यह मिल भी पूरी तरह से बंद हो गई.

लाल इमली में कर्मचारी रहे और अब निजी व्यवसाय कर रहे रमेश निगम बताते हैं, "कानपुर में सूती कपड़ों की बड़ी मिलें तो बंद हो गईं लेकिन पनकी जैसे छोटे औद्योगिक इलाकों में सूती कपड़े का उद्योग एक बार फिर पनपने लगा था. इन मिलों में हजारों की संख्या में लोग काम करते थे. मिल मालिकों ने इस व्यवसाय को किसी तरह आगे बढ़ाया लेकिन लॉकडाउन ने एक बार फिर इस क्षेत्र को तबाह कर दिया.”

वो कहते हैं कि इन मिलों में काम करने वाले लोग बड़ी संख्या में बेरोजगार हो गए और मालिकों ने घाटे की वजह से मिलें बंद कर दीं. कुछेक छोटे उद्योग जरूर चल रहे हैं लेकिन एक औद्योगिक नगरी के रूप में कानपुर की जो पहचान थी, वो अब लगभग खत्म हो गई है. (dw.com)
 


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