महासमुन्द

हाईकोर्ट बिलासपुर ने सेशन कोर्ट द्वारा वर्ष 1999 में दी गई तीन साल के कठोर कारावास और जुर्माने की सजा को निरस्त किया
‘छत्तीसगढ़’ संवाददाता
महासमुंद,20 जुलाई। महासमुंद जिले में रिश्वत लेने के आरोप में फं से एक थानेदार गणेशराम शेंडे की केस लड़ते-लड़ते मौत हो गई तो पत्नी ने यह केस लडऩा शुरू किया और आखिरकार 26 साल की लंबी कानूनी लड़ाई के बाद दिवंगत थाना प्रभारी को हाईकोर्ट से राहत मिली है।
जानकारी अनुसार जस्टिस संजय अग्रवाल ने ट्रायल कोर्ट की सजा को निरस्त कर दिया है। गौरतलब है कि रिश्वत लेने के आरोप में फं से तत्कालीन थानेदार गणेशराम शेंडे की केस लड़ते-लड़ते मौत हो गई। उनकी मौत के बाद पत्नी ने अपने पति को बेगुनाह साबित करने कानूनी लड़ाई शुरू की और आरोप लगने के करीब 26 साल बाद जस्टिस संजय अग्रवाल ने आरोपी थानेदार को बा-इज्जत बरी कर दिया है। कोर्ट ने अब जाकर माना है कि जिस रिश्वत की मांग की बात की गई थी उसका कोई औचित्य नहीं बनता।
मामला यह है कि 8 अप्रैल 1990 में ग्राम ढूटीकोना निवासी जैतराम साहू ने सहनी राम, नकुल और भीमलाल साहू के खिलाफ मारपीट की शिकायत दर्ज कराई थी। इस पर बसना थाने में एफआईआर की गई थी। तत्कालीन थाना प्रभारी गणेशराम शेंडे ने यह कार्रवाई की थी। मामला आईपीसी की धारा 324 के तहत जमानती था। इस वजह से तीनों आरोपियों को उसी दिन मुचलके पर रिहा कर दिया गया।
मामला इसके बाद फिर से गर्माया और मुचलके पर रिहा होने के दो दिन बाद 10 अप्रैल 1990 को एक आरोपी भीमलाल साहू ने रायपुर लोकायुक्त एसपी को शिकायत की कि उसे थाने रिहा करने के बदले में थानेदार ने एक हजार रुपए रिश्वत मांगी थी। इस शिकायत के आधार पर लोकायुक्त की टीम ने रेड की। इसमें थाना प्रभारी शेंडे को रंगे हाथों पकड़ा गया।
अत: अबकी बार थाना प्रभारी शेंडे पर केस दर्ज किया गया। उन्हें गिरफ्तार कर कोर्ट में पेश किया गया। लोकायुक्त ने साल 1999 में भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा 7 और 13-1, क के साथ धारा 13-2 के तहत चालान पेश किया। इस पर कोर्ट ने थाना प्रभारी को दोषी ठहराते हुए 3 साल कैद और 2 हजार रुपए जुर्माने की सजा सुना दी। इस सजा के खिलाफ श्री शेंडे ने हाईकोर्ट में अपील की। अपील लंबित रहते ही उनकी मौत हो गई।
थानेदार की मौत के बाद उनकी पत्नी ने अपने पति का केस लड़ा। मामले की सुनवाई के दौरान याचिकाकर्ता की तरफ से कोर्ट को बताया गया कि शिकायत करने वाले भीमलाल साहू ने भी मामले में दूसरे पक्ष के खिलाफ शिकायत की थी। जिस पर कार्रवाई नहीं होने के कारण वह थाना प्रभारी शेंडे से नाराज था। तर्कों को सुनने के बाद हाईकोर्ट ने रिश्वत लेने जैसी परिस्थितियों को संदेहास्पद माना।
कोर्ट ने माना कि अभियोजन पक्ष रिश्वत की मांग साबित करने में असफल रहा और ट्रैप में जब्त राशि का कोई वैधानिक आधार नहीं था। सुनवाई के बाद हाल ही में 17 जूलाई गुरुवार को हाईकोर्ट बिलासपुर ने सेशन कोर्ट द्वारा वर्ष 1999 में दी गई तीन साल के कठोर कारावास और जुर्माने की सजा को निरस्त कर दिया है।
हाईकोर्ट ने कहा है कि थानेदार द्वारा रिश्वत मांगने का कोई औचित्य नहीं बनता। हाईकोर्ट ने दस्तावेजों और गवाहों के बयानों के आधार पर पाया कि जिस बात के लिए रिश्वत की मांग की बात की गई, उसका कोई औचित्य नहीं बनता। क्योंकि शिकायतकर्ता और उसके परिजन को पहले ही 8 अप्रैल 1999 की शाम 5 बजे जमानत पर रिहा कर दिया गया था।
तथ्यों के अनुसार दो दिन बाद ही 10 अप्रैल 1999 को उसी जमानत के एवज में पैसे की मांग करने का आरोप असंभव लगता है।