सामान्य ज्ञान

शुक्राचार्य दैत्यों के आचार्य के रूप में प्रसिद्ध हैं। महर्षि भृगु, शुक्राचार्य के पिता थे। एक समय जब बलि वामन को समस्त भूमण्डल दान कर रहे थे तो शुक्राचार्य बलि को सचेत करने के उद्देश्य से जलपात्र की टोंटी में बैठ गये। जल में कोई व्याघात समझ कर बलि ने उसे सींक से खोदकर निकालने का प्रयास किया जिससे शुक्राचार्य की एक आंख फूट गई। तब से इनका नाम एकाक्षता का द्योतक हो गया।
शुक्राचार्य की कन्या का नाम देवयानी तथा पुत्र का नाम शंद और अमर्क था। बृहस्पति के पुत्र कच ने इनसे संजीवनी विद्या सीखी थी। मत्स्य पुराण के अनुसार दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य का वर्ण श्वेत है। उनके सिर पर सुन्दर मुकुट तथा गले में माला हैं। वे श्वेत कमल के आसन पर विराजमान हैं। उनके चार हाथों में क्रमश: दण्ड, रुद्राक्ष की माला, पात्र तथा वरदमुद्रा सुशोभित रहती है। शुक्राचार्य ने बृहस्पति से प्रतिद्वन्द्विता रखने के कारण दैत्यों का आचार्य बनना स्वीकार किया था। ये योग के आचार्य हैं। अपने शिष्य दानवों पर इनकी कृपा सर्वदा बरसती रहती है। उन्होंने भगवान शिव की कठोर तपस्या करके उनसे मृत संजीवनी विद्या प्राप्त की थी। उसके बल से ये युद्ध में मरे हुए दानवों को जिंदा कर देते थे। आचार्य शुक्राचार्य वीर्य के अधिष्ठाता हैं। आचार्य शुक्राचार्य नीति शास्त्र के प्रवर्तक थे। इनकी शुक्र नीति अब भी लोक में महत्वपूर्ण मानी जाती है। इनके पुत्र षण्ड और अमर्क हिरण्यकशिपु के यहां नीति शास्त्र का अध्यापन करते थे। मत्स्य पुराण के अनुसार शुक्राचार्य ने असुरों के कल्याण के लिये ऐसे कठोर व्रत का अनुष्ठान किया जैसा आज तक कोई नहीं कर सका।
महाभारत के अनुसार सम्पत्ति ही नहीं, शुक्राचार्य औषधियों, मन्त्रों तथा रसों के भी स्वामी हैं। इनकी सामर्थ्य अद्भुत है। उन्होंने अपनी समस्त सम्पत्ति अपने शिष्य असुरों को दे दी और स्वयं तपस्वी-जीवन ही स्वीकार किया। ब्रह्मा की प्रेरणा से शुक्राचार्य ग्रह बनकर तीनों लोकों के प्राण का परित्राण करने लगे। कभी वृष्टि, कभी अवृष्टि, कभी भय, कभी अभय उत्पन्न कर ये प्राणियों के योग-क्षेम का कार्य पूरा करते हैं। ये ग्रह के रूप में ब्रह्मा की सभा में भी उपस्थित होते हैं। लोकों के लिये ये अनुकूल ग्रह हैं तथा वर्षा रोकने वाले ग्रहों को शान्त कर देते हैं। इनके अधिदेवता इन्द्राणी तथा प्रत्यधिदेवता इन्द्र हैं।