सामान्य ज्ञान
एफ- 35 एक लड़ाकू विमान है। अमेरिका समेत कई देशों ने अरबों डॉलर खर्च कर यह विमान बनाया है। हालांकि अब इसकी क्षमता को लेकर विवाद उठ रहे हैं। लॉकहीड मार्टिन का एफ-35 दुनिया का सबसे खर्चीला हथियार प्रोजेक्ट है। अब तक इस पर 400 अरब डॉलर खर्च हो चुके हैं, लेकिन इंजन की नाकामी के चलते जून 2014 में सभी एफ-35 विमानों की टेस्ट उड़ान निलंबित कर दी गई।
अमेरिका, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया, इटली, कनाडा, नीदरलैंड्स, नॉर्वे, डेनमार्क और तुर्की इस प्रोजेक्ट में साझेदार हैं। अब ऐसी भी चर्चाएं हैं कि कनाडा और डेनमार्क जैसे देश एफ-35 के बजाए दूसरे लड़ाकू विमानों की ओर देखने लगे हैं।
एफ-35 कई मायनों में अलग तरह का लड़ाकू विमान है। यह अकेला ऐसा विमान है जो रनवे पर बिना दौड़े सीधे मिसाइल की तरह ऊपर उठने लगता है। इसी तरह जहाज बिना दौड़े नीचे भी फटाक से एक जगह पर लैंड भी कर जाता है। अब इसके इंजीनियरों को लग रहा है कि ईंधन भरने के बाद 35 टन भार एफ-35 के सिंगल इंजन के लिए बहुत ज्यादा है। इसमें लगा दुनिया का सबसे शक्तिशाली फाइटर जेट इंजन इसे 20 टन की ताकत देता है, लेकिन इतने भार को तेज रफ्तार से ढोने के लिए काफी नहीं। भार की वजह से इंजन पर इतना दबाव पड़ता है कि उसमें गड़बड़ी होने लगती है और सिंगल इंजन जेट में उड़ान के दौरान ऐसी गड़बड़ी का मतलब है क्रैश।
पाल वंश
भारत में पाल साम्राज्य की नींव 750 ई. में गोपाल नामक राजा ने डाली। बताया जाता है किकन्नौज क्षेत्र में फैली अशांति को दबाने के लिए कुछ प्रमुख लोगों ने उसको राजा के रूप में चुना। इस प्रकार राजा का निर्वाचन एक अभूतपूर्व घटना थी। इसका अर्थ शायद यह है कि गोपाल उस क्षेत्र के सभी महत्वपूर्ण लोगों का समर्थन प्राप्त करने में सफल हो सका और इससे उसे अपनी स्थिति मज़बूत करने में काफ़ी सहायता मिली।
पाल वंश का सबसे बड़ा सम्राट गोपाल का पुत्र धर्मपाल था। इसने 770 से लेकर 810 ई. तक राज्य किया। कन्नौज के प्रभुत्व के लिए संघर्ष इसी के शासनकाल में आरम्भ हुआ। पाल वंश के आरम्भ के शासकों ने आठवीं शताब्दी के मध्य से लेकर दसवीं शताब्दी के मध्य, अर्थात कऱीब 200 वर्षों तक उत्तरी भारत के पूर्वी क्षेत्रों पर अपना प्रभुत्व क़ायम रखा। दसवीं शताब्दी के मध्य में भारत आने वाले एक अरब व्यापारी सुलेमान ने पाल साम्राज्य की शक्ति और समृद्धि की चर्चा की है। उसने पाल राज्य को रूहमा कहकर पुकारा है।
पाल वंश के बारे में तिब्बती ग्रंथों से भी पता चलता है, हालांकि यह सतरहवीं शताब्दी में लिखे गए। इनके अनुसार पाल शासक बौद्ध धर्म तथा ज्ञान को संरक्षण और बढ़ावा देते थे। नालन्दा विश्वविद्यालय को, जो सारे पूर्वी क्षेत्र में विख्यात है, धर्मपाल ने पुन: जीवित किया और उसके खर्चे के लिए 200 गांवों का दान दिया। उसने विक्रमशिला विश्वविद्यालय की भी स्थापना की। जिसकी ख्याति केवल नालन्दा के बाद है। यह मगध में गंगा के निकट एक पहाड़ी चोटी पर स्थित था। पाल शासकों ने कई बार विहारों का भी निर्माण किया जिसमें बड़ी संख्या में बौद्ध


