दयाशंकर मिश्र
मुश्किल वक्त है, कसकर हाथ पकडक़र चलना है! एक-दूसरे के लिए जीना है, एक-दूसरे के साथ जीना है।
उसने कहा, अगर तुम्हारा फोन नहीं आता तो संभव है, हम इस जन्म में फिर बात न कर पाते। वह जीवन समाप्त करने की तैयारी कर रहा था! मुझे उसको लेकर कुछ बेचैनी हो रही थी, अजीब-सी घबराहट। मेरा टेलीपैथी में बड़ा यकीन है! कई दिन से बार-बार फोन करने के बाद भी उससे बात नहीं हो पा रही थी। किसी तरह बुधवार की रात बात हुई, तो देर रात तक चलती रही। मेरा एक दोस्त, सखा, सुख-दुख का गवाह मुश्किल लड़ाई में है। कोरोना ने उसे मुश्किल वक्त में डाल दिया है। सबकुछ ठीक होने के दावे के बीच अंधकार की खाई में पहुंच गया है। हमने मिलकर उम्मीद के रास्ते पर चलना शुरू किया है। यह सब बहुत निजी है उसके बाद भी इसलिए लिख रहा हूं ताकि हम सब यह समझ पाएं कि खतरा कितना बढ़ गया है।
आप सभी से मेरी दिल की गहराइयों से गुजारिश है कि अपनों से निरंतर बात करें। बार-बार संवाद करें। उन्हें कुछ समझाने की जगह केवल उनको सुनने की कोशिश करें। बहुत सीमित क्षमता, संसाधन के साथ मैं यही कोशिश कर रहा हूं। आप सबके साथ के लिए बहुत शुक्रिया! ‘जीवन संवाद’ की पूरी यात्रा इस साथ पर ही टिकी है। अपने हर उस व्यक्ति से गहरे संपर्क में रहिए, जिसके साथ आप जीना चाहते हैं! हम जीते हुए कई बार यह भूल जाते हैं कि एक-दूसरे से संपर्क सामान्य परिस्थितियों में भी रखना है, जिससे सबकुछ बिखरने से पहले खुद को बचाया जा सके!
ऊपर जो कुछ आपने पढ़ा है, उसे लिखते हुए ‘जीवन संवाद’ के 800 से अधिक अंको में से आज मुझे सबसे अधिक संतोष की अनुभूति हो रही है। इसके पहले भी अनेक पाठकों ने मुझे बताया कि इस कॉलम ने उनके जीवन को बचाने में मदद की है, लेकिन कल रात का अनुभव इस मायने में मेरे लिए नया था कि किसी ने मुझसे सीधे-सीधे स्वीकार किया कि वह अपना जीवन समाप्त करने ही जा रहा था। उसके बाद लगभग घंटे-घंटे की बातचीत।
जीवन की आस्था से जुड़ी कहानियों की लंबी चर्चा, सुख-दुख की व्याख्या के बीच अपने मित्र को जीने के लिए राजी करना मेरे लिए सबसे कठिन चुनौती थी। ठीक वैसे ही जैसे डॉक्टर के लिए अपने निकट संबंधी का जटिल ऑपरेशन करने का निर्णय लेना।
‘जीवन संवाद’ के सफर में आप सबकी ओर से मिले विश्वास, प्रेम ने मुझे जीवन के प्रति जो नजरिया दिया है, उसके लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं! फिलहाल यही कहना चाहूंगाा कि फूल को अकेले ही खिलना होता है, लेकिन उसकी खुशबू सबको मिलती है। जीवन में संघर्ष का सामना भी कुछ इसी तरह करना चाहिए। फूल की तरह हमें खुद को शक्ति से भरने का हुनर सीखना होगा! मुश्किल वक्त है, कसकर हाथ पकडक़र चलना है! एक-दूसरे के लिए जीना है, एक दूसरे के साथ जीना है। (hindi.news18)
-दयाशंकर मिश्र
पीपल उगने के बाद धीरे-धीरे अधिक जगह घेरेगा ही। वह नीम नहीं है। वह पीपल है। सबका अपना स्वभाव है। इतने सारे देशज पेड़-पौधों से घिरा रहने वाला समाज भी मनुष्यों के बारे में एकदम प्रकृति-विरोधी तरीके से विचार करता है।
छोटी-सी कहानी से संवाद आरंभ करते हैं। महात्मा बुद्ध का बहुत सुंदर प्रसंग है। संन्यास के कई वर्ष बाद बुद्ध पिता से मिलने राजमहल गए। तब तक दुनिया बुद्ध के ज्ञान से परिचित हो चुकी थी। लाखों लोग उनके उपदेशों से प्रभावित थे। अहिंसा, करुणा, दया पर हर कोई उनकी बात सुनने को तत्पर था। पिता ने उनको गले लगाते हुए कहा, ‘मुझे पता था तुम जरूर लौट आओगे। तुमने हमें बहुत परेशान किया, फिर भी मुझे खुशी है कि तुम लौट आए।’ महात्मा बुद्ध के पिता राजा थे। जब वह संन्यासी बुद्ध से बात कर रहे थे, तब भी वह राजा ही बने रहे। वह पिता नहीं बन पाए।
बुद्ध ने उन्हें समझाने की कोशिश करते हुए कहा, ‘मैं अब महल से बहुत दूर चला गया हूं। मैं आपकी इस दुनिया के योग्य नहीं हूं।’ पिता ने नाराज होते हुए कहा, ‘मैं तुम्हें बचपन से जानता हूं। तुम हमेशा से ही जिद्दी हो। मैं तुम्हारी बातों और यहां से जाने को लेकर सारे अपराध क्षमा कर सकता हूं। तुम इधर-उधर की बात मत करो, बस लौट आओ। मैं तुम्हारा पिता हूं। तुमसे बहुत अच्छी तरह परिचित हूं।’
बुद्ध ने उनसे बहस नहीं की। अनुमति लेकर हमेशा के लिए महल से दूर अपने मार्ग पर आगे बढ़ गए। दूसरी ओर हम कितना अधिक एक-दूसरे को जानने का दावा करते हैं! जबकि अभी तक तय नहीं है कि हम स्वयं को भी जानते हैं कि नहीं! दूसरे को जानने का अहंकार हमारे अंदर बहुत गहरे उतर गया है। इसकी पहचान से ही हम भीतर की ओर आगे बढ़ पाएंगे! यह केवल बुद्ध की बात नहीं। हम एक-दूसरे को जीवनभर नहीं समझ पाते। यह कहना अधिक उपयुक्त होगा कि समझने की कोशिश नहीं करते। हां, अभिमान जरूर करते हैं सबको समझने का।
इसके साथ ही एक दूसरी यात्रा पर मैं आपको ले जाना चाहता हूं। जहां इसे न समझने का कारण है। यह कारण है- बीज और फूल का।
जब किसी व्यक्ति को हम एकदम जन्म से देख रहे होते हैं, तो हमेशा ही उसके बारे में पूर्वानुमान से भर जाते हैं। जैसे ही वह हमारे अनुमानों की उल्टी दिशा में जाना शुरू करता है, हम घबराने लगते हैं, क्योंकि हमने उसे बीज रूप से (बचपन से/बहुत पहले से) देखा हुआ है। अगर वह हमारे अनुमान की दिशा में जा रहा है, तो वह ठीक दिशा में जा रहा है। अगर उससे जरा भी दाएं-बाएं होता है, तो हम घोषणा करने लगते हैं कि वह गलत दिशा में दौड़ रहा है।
जबकि ऐसा होने की उम्मीद कहीं अधिक होती है, अगर उस बीज में विराट वृक्ष होने की संभावना हो। पीपल उगने के बाद धीरे धीरे अधिक जगह घेरेगा ही। वह नीम नहीं है। वह पीपल है। सबका अपना स्वभाव है। इतने सारे देशज पेड़-पौधों से घिरा रहने वाला समाज भी मनुष्यों के बारे में एकदम प्रकृति-विरोधी तरीके से विचार करता है।
बुद्ध के पिता ने जो उनसे कहा, हम सबके पिता/परिवार और शिक्षक यही तो दोहराते रहते हैं। हम तुम्हें जानते हैं, तुम यह काम नहीं कर पाओगे। संसार में जो भी नवीन काम हुए, जो भी लोग अपने जीवन के असली अर्थ को उपलब्ध हुए, इन विचारों से दूर रहकर ही हुए। अपने निर्णय पर डिगे रहने के कारण हुए। इसलिए जब लोग यह कहकर रास्ता रोकने लगें कि यह तुम्हारे बस में नहीं, तो बहुत जरूरी है कि उस पर दो बार और सोचा जाए!
स्थितियों का विवेकपूर्ण आंकलन जरूरी काम है, लेकिन इससे भी जरूरी है हमेशा यह याद रखना कि अगर हमारा रास्ता आसान है, तो मुश्किल भी छोटी होगी। अगर मुश्किलें बड़ी हैं, तो ही लक्ष्य के बड़ा होने की संभावना है!
इसलिए जब भी कोई नया रास्ता चुनने का समय आए, तो ऐसे लोगों के पास अपने प्रश्न लेकर जाइए, जो आपसे सचमुच में परिचित हों। केवल आपके जन्म और बड़े होने की प्रक्रिया से नहीं!
शुभकामना सहित...
-दयाशंकर मिश्र
निर्णय में मतभेद को मनभेद बना लेने से जीवन सरल नहीं होता, बल्कि उलझता जाता है। मन को इस उलझन से बचाना है।
रिश्तों में इन दिनों बढ़ती दरार, दूरी का कारण केवल इंटरनेट, स्मार्टफोन और समय की कमी नहीं है। जब यह तीनों नहीं थे तो इनकी जगह कुछ दूसरी चीजें थीं। हां, इतना जरूर हुआ है कि पहले गुस्सा फेंकना इतना सहज नहीं था। जितना इनके कारण आज हो गया। नाराजगी की पहली परत मन में बनती नहीं कि हम दूसरे की ओर गुस्सा फेंकना शुरू कर देते हैं। हम भूल जाते हैं कि कुछ क्षण/दिन पहले तक सबकुछ ठीक ही था। रिश्तों में बढ़ती दूरियों का कारण अपने को पूरी तरह सही मान लेना और दूसरे को हर हाल में गलत मानते रहना है, जबकि कभी ऐसा भी हो सकता है कि आप तो पूरी तरह सही हों, लेकिन दूसरा गलत न हो।
फैसले लेने की प्रक्रिया में असहमति को हम अक्सर ही नाराजगी मान लेते हैं, जबकि यह बिल्कुल व्यावहारिक नहीं है। लेकिन दूसरों को सलाह देते समय हमारे मन में कहीं न कहीं यह बात तैरती रहती है कि जो हमने उससेे कहा, वह उसके अनुकूल आचरण करे। अगर वह किसी कारण से ऐसा न कर पाए तो हम पूरी जिंदगी यही मानकर चलते हैं कि उसने ठीक नहीं किया, जबकि उसने केवल अपना निर्णय लिया था। निर्णय में मतभेद को मनभेद बना लेने से जीवन सरल नहीं होता, बल्कि उलझता जाता है। मन को इस उलझन से बचाना है।
इसका एक सहज सूत्र है। अपनी स्वतंत्रता को स्वीकार करना और दूसरे की स्वतंत्रता को अपनी मंजूरी देना। हम मानकर चलते हैं कि दूसरों के जीवन के निर्णय सब हमें ही करने हैं। पहलेे माता-पिता बच्चों की पढ़ाई सेे लेकर उनके विवाह तक के निर्णय में अपने अधिकारों का पूरा ‘इस्तेमाल’ करतेे हैं। उसके बाद जब वह जीवन के अंतिम चरण की ओर बढ़ते हैं, तो वह अपने ही बच्चों द्वारा सबसे अधिक उपेक्षित होते हैं। अपनी उपेक्षा को वह बहुत अधिक महत्व देते हैं, लेकिन उस व्यवहार की ओर उनका ध्यान नहीं जाता, जो उन्होंने अपने ही परिजनों के साथ किया था!
अपने एक परिचित परिवार की छोटी-सी कहानी आपसे कहता हूं।
पिता बहुत अधिक अनुशासन प्रिय थे और उन्होंने अपने इकलौतेे बेटे को एक भी निर्णय जीवन में नहींं लेने दिया। हमेशा सारे निर्णय वही करते रहे, क्योंकि उनका मानना था कि बेटे के लिए वही सबसे अच्छे निर्णय कर सकते हैं।
लेकिन जैसे ही बेटे की पढ़ाई पूरी हुई। बाहरी दुनिया से उसका परिचय हुआ। उसने धीरेे-धीरे महसूस किया कि उसकी दुनिया अपने निर्णय से बननी चाहिए। उसने अपने माता-पिता के साथ वही व्यवहार शुरू कर दिया, जो माता-पिता उसके साथ करतेे आए। उसने न केवल अपनी मर्जी से करियर की राह चुनी, बल्कि अपने जीवनसाथी के चयन मेंं भी माता- पिता के पारंपरिक विचार से हटकर अपने विचार को प्राथमिकता दी।
पहले बेटे को लगता क्यों उसके साथ गलत हो रहा है। अब माता-पिता को लग रहा है कि बेटा गलत कर रहा है। हम जीवन में स्वतंत्रता के मूल विचार से जैसेे-जैसे दूर होते जाते हैं जीवन के सौंदर्य से दूर निकलते जाते हैं। इसलिए बहुत जरूरी है कि हम इस बात को समझें कि जीवन के अलग-अलग समय में विभिन्न जिम्मेदारियों को निभाते समय दूसरे को ‘जगह’ देना बहुत जरूरी है। सबसे अधिक जरूरी। इससे जीवन में प्रेम रूपी ऑक्सीजन की संतुलित मात्रा बनी रहती है।
अगली बार किसी को गलत साबित करने से पहले यह जरूर सोचिएगा कि कुछ गलती तो आपकी भी है! जीवन इतना भी मुश्किल नहीं कि अपने किए गए फैसले पर पुनर्विचार न किया जा सके। गलती स्वीकार करने, दूसरों केे लिए हृदय बड़ा रखने से जीवन में केवल प्रेम ही बढ़ता है। (hindi.news18)
-दयाशंकर मिश्र
जीवन, अपने मूल्यों को समझिए। तुलना के मोह से बाहर आइए। अपने मन की सुगंध को महसूस कीजिए। अपने सपनों की कीमत पर जीवन को गिरवी मत रखिए।
दुनिया में युद्ध का इतिहास पुराना है। हम जब शांति में भी रहते हैं, तो युद्ध की तैयारी करते हैं। सजगता से देखने पर पता चलेगा कि दुनिया शांति में कम, युद्ध और युद्ध की तैयारी में अधिक रहती है। मानसिक रूप से हम युद्ध के इतने समर्थक हो चले हैं कि हमेशा जंग के लिए तैयार रहते हैं। मन के युद्ध कभी थमते ही नहीं। राजनीति के क्षेत्र दूसरे हैं और जीवन के दूसरे। लेकिन उदारीकरण के नाम पर दुनिया में जो कुछ रचा जा रहा है, उसका सबसे अधिक नुकसान अगर किसी को हुआ है, तो वह मनुष्य का मन है।
शांत, सुंदर, सुकून वाले मन में इतनी चिंता थोपी जा रही है कि मन का स्वभाव ही बदलता जा रहा है। हम करीब-करीब नींद में चल रहे हैं! जीवन के छोर हमारे वश में नहीं। हमारे नाम पर कोई दूसरा फैसले कर रहा है! दूसरों से होड़, मुकाबला, आगे निकलने की आकांक्षा ने जीवन का सारा रस छीन लिया। इसमें कुछ भी गलत नहीं था, अगर इसमें जीवन का रस बाकी रहता। जब हम कहते हैं कि हम तालाब का पानी बचाने के लिए उसकी खुदाई कर रहे हैं, तो हमें इस बात का ध्यान रखना ही होता है कि खुदाई करते हुए हम कहीं तालाब के तटबंधों को ही नुकसान न पहुंचा दें। यही बात जीवन पर भी लागू होती है! कहीं पहुंचने, जल्दी पहुंचने के फेर में सबकुछ छूटता जा रहा है। हमारी जरूरत का तो इंतजाम हो सकता है, लेकिन दुनिया में कोई ऐसा अलादीन का चिराग नहीं, जो हमारे लालच को पूरा कर सके।
एक छोटा-सा किस्सा आपसे कहता हूं। संभव है इससे मेरी बात सरलता से आप तक पहुंच सके।
एक राजा के दरबार में बड़ी विचित्र घटना घटी। राजमहल के बाहर मीलों तक पांव रखने की जगह न थी। एक फकीर आया था दरबार में। राजा के लिए उसको संतुष्ट करना कोई बड़ी बात न थी। लेकिन उसने एक शर्त रखी। उसके पास खोपड़ी का कंकाल था। उसे ही उसने अपना भिक्षापात्र बना लिया था। फकीर ने राजा से कहा, ‘मैं उससे ही भिक्षा लेता हूं जो मेरे भिक्षापात्र को पूरा भर सके।’
राजा हंसा। राजा हंसते ही हैं जब कोई उनके वैभव को चुनौती दे! राजा ने कहा, ‘तुम्हें लगता है, मेरे पास इतना वैभव भी नहीं कि तुम्हारी यह टूटी खोपड़ी न भर सकूं।’ उसने अपने वजीर से कहा, ‘इसे हीरे-जवाहरात से भर दो!’ जैसे-जैसे वजीर हीरे और बहुमूल्य वस्तुएं खोपड़ी में भरते गए, राजा की हंसी डूबती गई। फकीर हंसता ही रहा। सुबह से शाम होने को आई, लेकिन खोपड़ी पूरी न भर पाई!
राजा फकीर के चरणों में गिर पड़ा! उसने कहा, ‘मुझे क्षमा करें। मैं आपको पहचान न सका। आपको देने योग्य मेरे पास कुछ नहीं।’ फक़ीर ने कहा, ‘तुम अभी भी नहीं पहचान रहे। इस खोपड़ी को भरने का प्रश्न है, जो खोपड़ी तुम्हारे शरीर पर है उसे रिक्त करो। उसमें से अहंकार, लालच और अपने कुछ होने के दंभ को निकाल बाहर फेंको।’
उस फकीर के भिक्षापात्र का पता नहीं। राजा उसे भर पाया कि नहीं। लेकिन हमारा अपना दिमाग भी ठीक उसके जैसा है। लाख जतन कर लीजिए वह भरता नहीं। वह तब तक नहीं भरेगा, जब तक हम राजा की तरह व्यवहार करना बंद नहीं करेंगे। दूसरों से तुलना बंद कीजिए। जीवन, अपने मूल्यों को समझिए। तुलना के मोह से बाहर आइए। अपने मन की सुगंध को महसूस कीजिए। अपने सपनों की कीमत पर जीवन को गिरवी मत रखिए। (hindi.news18.com)
-दयाशंकर मिश्र
सरलता का किसी के पहनावे से कोई लेना-देना नहीं। सरलता हमारे चित्त्त में होती है। हृदय में होती है। चाहे आप महल में रहें या झोपड़ी में। सरलता तो दोनों जगह एक जैसा महसूस करने में है।
सुकरात के सरल व्यवहार, जीवन की कहानियां मशहूर हैं। महानतम दार्शनिक, विचारक, सत्यनिष्ठ होने के साथ ही वह सरल व्यवहार के लिए भी उतने ही विख्यात रहे। सरलता का जीवनशैली से दूर जाना आम की मिठास कम होते जाने सरीखा है! आज सुकरात के जीवन से एक कहानी आपसे कहता हूं। सुकरात के समय ही यूनान के दूसरे दार्शनिक डायोजनीज का भी बड़ा नाम था। लेकिन सुकरात की बात ही कुछ और थी। उनके स्वभाव में सरलता बहा करती थी, वह कुछ भी ओढ़ते नहीं थे। जैसे भीतर, वैसे बाहर। जैसे बाहर, वैसे ही भीतर।
दूसरी तरफ डायोजनीज जैसे विद्वान थे, जो सरलता को अभ्यास से साधने की कोशिश कर रहे थे। वह उनके भीतर थी नहीं, लेकिन उन्हें विश्वास था कि अभ्यास से इसे पाया जा सकता है। जबकि सुकरात के साथ सरलता को पाने जैसी कोई बात न थी।
डायोजनीज, खुद को सरल, सादा दिखने के लिए नए-नए कपड़ों को फाडक़र, उनमें चिथड़े लगाकर, उनको फटा-पुराना, मैला दिखाकर सादगी से रहने का अभ्यास करते। यहां तक कि उपहार में मिले कीमती वस्त्रों को भी काटकर, मैला करके, उस पर चिथड़े लगाकर पहनते। इससे कुछ लोग बड़े प्रभावित भी होते। जब उनको लगा कि उनका प्रभाव बढऩे लगा है तो एक दिन वह सुकरात से मिलने पहुंचे।
सुकरात के पास उस समय अनेक लोग बैठे हुए थे। उन सबके बीच ही डायोजनीज ने सुकरात से कहा, ‘तुम्हें सुंदर वस्त्रों में देखकर लगता है तुम कैसे साधु हो। यह तुम्हारी सरलता है! इतनी महंगे वस्त्र।’ ऐसा कहते समय वह भूल रहे थे कि सरलता का किसी के पहनावे से कोई लेना-देना नहीं। सरलता हमारे चित्त्त में होती है। हृदय में होती है। चाहे आप महल में रहें या झोपड़ी में। सरलता तो दोनों जगह एक जैसा महसूस करने में है। एक जैसी नींद आ जाने में है!
सुकरात ने डायोजनीज की बात सुनकर हंसते हुए कहा, ‘हो सकता है मैं सरल न हूं! तुम ठीक कहते हो।’ डायोजनीज ने समझा अपनी बात बन गई। उसने कहा तुम खुद ही यह स्वीकार कर रहे हो! मैंने भी लोगों से यही कहा था कि तुम सरल आदमी नहीं हो। आज तुम खुद भी यह स्वीकार करते हो कि तुम सरल नहीं हो!
सुकरात ने मुस्कराते हुए कहा, ‘तुम कहते हो तो इनकार करने का कोई कारण ही नहीं।’ उनकी बात सुनकर डायोजनीज गदगद हो गया। विजय के एहसास से खिलखिलाने लगा। आज उसे इस बात का बहुत गर्व था कि उसने एक ऐसे व्यक्ति को हरा दिया, जिसकी सरलता की मिसाल यूनान में दी जाती है। वह उतरकर वहां से अपने घर को जा ही रहे थे कि नीचे सुकरात के शिष्य प्लेटो (अफ़लातून) मिल गए।
प्लेटो ने पूछा क्या बात है आज बहुत आनंद में दिख रहे हैं। डायोजनीज ने कहा, ‘बात ही कुछ ऐसी है। आज तुम्हारे गुरु सुकरात ने स्वयं सबके सामने यह स्वीकार किया है कि वह सरल नहीं हैं। उनके जीवन में सरलता नहीं! इसका अर्थ यह है कि यूनान में मैं ही सबसे सरल व्यक्ति हूं। मेरी सरलता को अब कोई चुनौती नहीं!’
प्लेटो उनकी बात सुनने के बाद, मुस्कराते हुए सिर से लेकर पांव तक उनको देखते हुए कहते हैं, ‘यह जो नए कपड़ों में तुमने चिथड़े लगा रखे हैं। जगह-जगह से कपड़ों के छेद तुम्हारे भीतर के अहंकार को छुपाने में असफल हैं। तुम्हारे इन कपड़ों से अहंकार के अलावा और कुछ दिखाई नहीं देता। जबकि तुम दार्शनिक हो। चिंतक हो।’
अपनी बात समझाते हुए प्लेटो ने कहा, ‘असल में तुम समझ ही नहीं पाए। यही तो सरल आदमी का लक्षण है। तुम उससे कहने जाओ कि वह सरल नहीं है और वह सरलता से स्वीकार कर ले। दूसरी ओर तुम हो जो सरलता के ताज के लिए परेशान हो। अब तुम स्वयं सोचो सरलता कहां है! किसके हृदय में है!’
प्लेटो बड़ी सुंदर बात कहते हैं, ‘जहां किसी चीज की चेष्टा/ प्रयास है। वहां उसका होना संभव नहीं। हम जितनी कोशिश करते हैं, किसी चीज को पाने की, वह असल में हमसे उतनी ही दूर होती जाती है’। सरलता का यह प्रसंग ताओ उपनिषद से लिया गया है।
डायोजनीज जो कोशिश बहुत पहले करके हार गए। हम आज भी उससे लडऩे की कोशिश कर रहे हैं। हम भूल रहे हैं कि सरलता के मायने क्या हैं। सरलता साबित करने से नहीं आएगी। यह दूसरों के जैसे दिखने, होने में नहीं है। सरलता बस अपने जैसा होने में है। जैसे भीतर, वैसे बाहर। स्वयं के स्वभाव में होना ही सरलता है। जीवन को कार्बन कॉपी होने से बचा लेने पर ही सरलता के निकट पहुंचना संभव है! (hindi.news18.com)
-दयाशंकर मिश्र
प्रेम और स्नेह मनी प्लांट की तरह बोतल और गमलों में तैयार नहीं होते। उनके लिए आम के वृक्ष लगाने सरीखे उपाय करने होते हैं। जो चीज इतनी आसानी से मिल जाती है, उसका स्वाद और समय दोनों ही बहुत देर तक नहीं टिकता।
आज जीवन संवाद की शुरुआत एक छोटी-सी कहानी से। दो यात्री रास्ता भटक गए। रेगिस्तान में फंस गए। गर्मी, भूख, प्यास से बेहाल हो गए। उनके पास खाने-पीने का जो भी सामान था खत्म हो गया। तीन-चार दिन में लगने लगा कि अब वहां से जीवित लौटना संभव नहीं होगा। जीवन की आशा उनके मन में कमजोर होने लगी। तभी दोनों को एक छोटा-सा पहाड़ नजर आया। पहाड़ के नीचे संकरा रास्ता था। उन्होंने उस दरार से झांककर देखा, तो पाया कि दूसरी तरफ खूबसूरत घाटी थी। साफ पानी का झरना। नरम घास। मीठे फलों से लदे पेड़ थे।
दोनों कड़े परिश्रम के बाद दूसरी ओर उतर गए। मीठा पानी पिया। विश्राम करने लगे। पहले ने कहा अब यहां कुछ दिन आराम से रहूंगा। उसके बाद आगे का सफर तय करूंगा। बड़ी मुश्किल से यहां तक पहुंचे हैं कितना संकरा रास्ता था। दूसरे ने कहा, ठीक है। जैसा तुम चाहो, लेकिन इस रास्ते के बारे में बहुत कम लोग जानते हैं। जिस तरह हम फंसे उसी तरह अनेक लोग भीषण गर्मी में फंसे हैं। उनकी मदद करना भी जरूरी है।
ऐसा कहकर उसने अपने लिए थोड़ा-सा पानी, कुछ फल लिए और वापस मुश्किल रास्ते से दूसरी ओर लौट गया। जिससे वह रेगिस्तान में भटके हुए, बेहाल यात्रियों को इस घाटी का रास्ता बता सके। कुछ ऐसी व्यवस्था कर पाए कि आपदा में फंसे लोग यहां तक आसानी से पहुंच जाएं। रेगिस्तान में संकट में फंसे लोग ऐसी कहानियों से ही जिंदा रहते हैं। मनुष्यता का दीपक लोगों की जान बचाने में वहां प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष दोनों तरह से अपनी भूमिका निभाता है।
रेगिस्तान के बारे में कहा जाता है कि वह अपना व्यवहार कभी नहीं बदलता। हां, रेत के टीले जरूर हवाओं से इधर-उधर होते रहते हैं।
जो अपने जीवन के महत्व को समझते हैं। वह ऐसे ही व्यवहार करते हैं, जिस तरह दूसरे यात्री ने किया। जिंदगी केवल अपने लिए रास्ता बनाने का काम नहीं। जो जीवन से प्रेम करते हैं, वह दूसरों के लिए रास्ता ‘बुनते’ चलते हैं। आखिर हम सब दूसरों के लगाए वृक्षों के ही फल खाते हैं। जीवन में कुछ न कुछ तो ऐसा होना चाहिए, जिसके दरवाजे दूसरों के लिए भी खुलते हों! प्रेम और स्नेह मनी प्लांट की तरह बोतल और गमलों में तैयार नहीं होते। उनके लिए आम के वृक्ष लगाने सरीखे उपाय करने होते हैं
जो चीज इतनी आसानी से मिल जाती है, उसका स्वाद और समय दोनों ही बहुत देर तक नहीं टिकता। इसलिए हमें मुश्किल रास्तों से घबराना बंद करना होगा।
जीवन की दिशा, दशा को वैज्ञानिक तरीके से समझना होगा। विज्ञान पढऩे का अर्थ यह नहीं होता कि हमारा दृष्टिकोण भी वैज्ञानिक हो जाए। इसीलिए आपने देखा होगा कि बहुत से पढ़े-लिखे लोग भी दकियानूसी विचारों से घिरे रहते हैं।
यह समझना जरूरी है कि पढ़े-लिखे का अर्थ क्या है! डिग्री हासिल करने के लिए पढऩा-लिखना कोर्स को याद करके परीक्षा देने जैसा है। इसलिए, किसी की डिग्रियों से उसकी जीवनदृष्टि का अंदाजा लगाने की गलती मत करिए। अगर ऐसा होता तो आपकी दृष्टि में बड़ी-बड़ी नौकरियों में बैठे लोग करुणा, क्षमा, अहिंसा, प्रेम और स्नेह से इतने वंचित नहीं होते। उनके भीतर दूसरों के लिए, संकट में फंसे हुए लोगों के लिए वैसी ही दृष्टि होती जैसी हमारी कहानी के दूसरे यात्री के पास है।
जीवन अलग तरीके के गुणों से चलता है। नौकरी अलग तरह के तरीकों से। हम व्यक्तिगत जिंदगी में जो कुछ भी हैं, हमें कोशिश करनी है कि हम मनुष्य के रूप में अपने परिवार, समाज और दुनिया के लिए कुछ बेहतर लौटा सकें। हमेशा ध्यान रहे कि आप गमलों में मनी प्लांट लगाने पर ध्यान दे रहे हैं, जबकि आपका उद्देश्य आम और पीपल के पौधे लगाना होना चाहिए।
शुभकामना सहित....
-दयाशंकर मिश्र
जिंदगी को हमने कमतर मान लिया। मुश्किल, तनाव की बूंदाबांदी होते ही भावुक हो जाते हैं। हमें जीवन को अनिवार्य बनाना है। रिश्ते कैसे भी हो जाएं, किसी भी स्थिति में जीवन को दूसरे नंबर पर नहीं रखना है। जीवन हमेशा सबसे पहले है।
जब कभी रिश्तों के मोड़ ऐसी घुमावदार स्थिति में पहुंच जाएं, जहां विकल्प सीमित हों, वहां निर्णय करना मुश्किल हो जाता है। इसलिए हमारी असली परीक्षा तो ऐसी स्थिति में ही होती है। इन दिनों ऐसी घटनाएं सामने आ रही हैं, जहां दो व्यक्तियों के बीच संबंध इतने अधिक खराब हो जाते हैं कि साथ रहना असंभव लगने लगता है। वहां लोग जीवन से मुंह मोडऩे का रास्ता अधिक अपनाने लगे हैं। ऐसे रिश्ते को वहीं छोडक़र आगे बढ़ जाने का विकल्प होते हुए भी लोग उसे नहीं चुन रहे। जिंदगी को हमने कमतर मान लिया। मुश्किल, तनाव की बूंदाबांदी होते ही भावुक हो जाते हैं। हमें जीवन को अनिवार्य बनाना है। रिश्ते कैसे भी हो जाएं, किसी भी स्थिति में जीवन को दूसरे नंबर पर नहीं रखना है। जीवन हमेशा सबसे पहले है।
अगर किसी रिश्ते में रहना संभव नहीं है, तो उससे बाहर आने का विकल्प चुना जाए, जीवन को बिना किसी तरह संकट में डाले! पति-पत्नी के साथ ही माता-पिता, भाई-बहन और बेहद घनिष्ठ मित्रता में भी यह देखने में आता है कि आपसी विश्वास की दीवार कई बार इतनी कमजोर हो जाती है कि बहुत मरम्मत के बाद भी उसे पुरानी स्थिति में लाना संभव नहीं होता। ऐसे में इस दीवार के निरंतर कमजोर होते जाने और किसी दिन अचानक गिर जाने का खतरा बना रहता है। दीवार गिरेगी तो जीवन को भी हानि हो सकती है। इसलिए हरसंभव कोशिश करने के बाद भी खंडहर हो चुके रिश्तों से बाहर आने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए।
भारतीय समाज की रचना इतनी जटिल और पुरुषप्रधान है कि अक्सर ही लड़कियों/ स्त्रियों को इस स्थिति से बाहर आने में बहुत अधिक कठिनाई का सामना करना पड़ता है। लेकिन यह संभव नहीं है। अपने जीवन में ऐसे प्रसंगों का स्वयं गवाह रहा हूं। जहां, मेरे विशाल संयुक्त परिवार में ही इस तरह के मामले सामने आने पर पुरुषों की ओर से कोई पहल नहीं की गई। लेकिन जब बेटियों ने आवाज बुलंद करनी चाही कि अपने खंडहर हो चुके रिश्ते को छोडक़र जीवन की नई राह चुननी चाहिए, तो उसे वैसा समर्थन नहीं मिला, जैसा मिलना चाहिए था। लेकिन उनने जीवन को चुना। इन पंक्तियों के लेखक को यह सौभाग्य मिला कि वह गांव की हिम्मतवर और प्रतिभाशाली बेटियों का सारथी बन सके। उनकी यात्राओं में शामिल होकर जीवन संघर्ष का जो रस मुझे मिला। उससे मेरा यह विश्वास निरंतर गहरा होता जा रहा है कि जीवन दूसरों का दिखाया आईना नहीं, बल्कि वह तस्वीर है जिसमें हमें ही रंग भरने हैं। रंग भरते समय इस बात की गुंजाइश हमेशा रखनी चाहिए कि अगर कुछ गड़बड़ हो जाए, तो तस्वीर नए सिरे से भी बनानी पड़ सकती है!
समाज के रूप में हम रिश्तों के प्रति इतने परंपरावादी/ यथास्थितिवादी हैं कि एक ही रिश्ते में घुटना तो स्वीकार है, लेकिन यह स्वीकार नहीं कि हम (स्त्री/पुरुष। कोई भी) नई राह पर चल सकें। जबकि पुराने रास्ते पर चलना संभव नहीं है। मैं अलग होने पर जोर नहीं दे रहा हूं। मैं केवल इस बात का विश्वास दिलाना चाहता हूं कि जीवन संभावनाओं से भरा हुआ और बहुत व्यापक है। इसे समझिए। जीवन को रिश्तों का बंदी मत बनाइए। किसी का जीवनसाथी एक बार बन जाने का मतलब यह नहीं है कि किसी भी स्थिति में इससे अलग नहीं हुआ जा सकता। विवाह / रिश्ते में रजामंदी, एक साथ होने का फैसला ऐसा नहीं है कि उसे जीवन का पर्यायवाची बना लिया जाए। जब तक साथ रहें, खुशबू की तरह रहें। जब अलग हो जाएं, तो वैसे जैसे एक रास्ता कहीं जाकर दो पगडंडियों में बदल जाता है। शुभकामना सहित...
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-दयाशंकर मिश्र
जीवनदृष्टि जब किसी भी कारण से बाधित हो जाती है तो जिंदगी अधिक दूर तक नहीं देख पाती। प्रेम, स्नेह के होते हुए भी कई बार हम स्वयं को हर चीज के लिए जिम्मेदार मानने लगते हैं।
हर चीज की वजह आप हो, यह जरूरी नहीं। कई बार हम अनजाने में खुद को इतना महत्वपूर्ण मान लेते हैं कि अपने आसपास हो रही हर घटना के लिए खुद को कसूरवार मानने लगते हैं। कोरोना के कारण बहुत सारे लोगों की नौकरियां जा रही हैं। नौकरियां जा रही हैं, क्योंकि कंपनियां अपने खर्चों को संभालने में असमर्थ हैं। आर्थिक और व्यापारिक दुनिया की नींव हिली हुई है। यह सब चीजें आपस में जुड़ी हुई हैं। हम इनमें से किसी को भी प्रभावित करने की स्थिति में नहीं हैं, लेकिन हम इन सबसे प्रभावित होते हैं। इसलिए हम में से बहुत से लोगों की नौकरियों पर संकट है। संकट आ चुका है/आने वाला है।
इसके कारण अच्छे भले हंसते-गाते लोग भी तनाव में दिख रहे हैं। कोरोना के डर ने सबको भयभीत कर दिया है। क्रिकेट में बल्लेबाज तब अक्सर आउट नहीं होता, जब वह लापरवाही दिखाए। बल्कि उसके आउट होने की संभावना ऐसी स्थिति में बढ़ जाती है, जहां वह गेंदबाज को अपने ऊपर हावी हो जाने दे। बल्लेबाज इससे एक ऐसी स्थिति में पहुंच जाता है, जहां उसके पांव चलने बंद हो जाते हैं। फुटवर्क थम जाता है। एक बार गेंदबाज आपको ऐसी स्थिति में ले आए, तो उसके बाद वह सहज ही बल्लेबाज को आउट कर लेता है।
‘जीवन संवाद’ को बड़ी संख्या में आपके ईमेल और संदेश अपने सहकर्मियों के खराब बर्ताव, एक-दूसरे को न समझ पाने और असंभव लक्ष्य के पीछे दौड़ाने जैसी शिकायतें मिल रही हैं। ऐसा इसलिए हो रहा है, क्योंकि हर कोई अपनी नौकरी को सुरक्षित रखना चाहता है और वह इसके लिए किसी भी कीमत तक जाने को तैयार है।
पंद्रह दिन पहले एक रोज देर शाम जब मैं आपके लिए अगले दिन के लिए ‘जीवन संवाद’ की तैयारी कर रहा था। गुजरात से एक फोन आया। मेरी पूूर्व सहकर्मी की मित्र निहारिका भटनागर एक प्रतिष्ठित आईटी कंपनी को अहमदाबाद में अपनी सेवाएं दे रही हैं। निहारिका ने बताया कि वह चिंता (एंजायटी) से इतनी परेशान हैं कि इससे उबरने के लिए दवाइयों का उपयोग कर रही हैं। डॉक्टर को दिखाया है। मैंने उनसे कहा कि वह अत्यधिक सोच-विचार कर रही हैं? उन्होंने कहा नहीं। लेकिन इसके साथ ही यह भी बताया कि कुछ महीने से नींद गायब है। बेचैनी है। स्वयं के भीतर अपराधबोध है। अपनी ही अपेक्षाओं पर खरा न उतरने से स्वयं के प्रति नाराजगी है। कई बार हम चिंता में तो होते हैं, लेकिन उसे स्वीकार नहीं कर पाते। हम स्वयं ही नहीं समझ पाते कि किस तरह की भ_ी में हमारा मन जला जा रहा है।
डॉक्टर ने उनको शरीर के हिसाब से दवाई दी। लेकिन मेरा सुझाव था कि संकट मन का है। अपने अंतर्मन को नहीं संभाल पाने का है। डॉक्टर को उनसे अधिक संवेदनशीलता से बात करनी चाहिए थी। सबसे महत्वपूर्ण बात थी कि वह स्वयं के प्रति गहरे संदेह से गुजर रही हैं। सारे रास्ते बंद हो गए हैं, जब इस तरह के विचारों ने उनको घेर लिया, तो यहीं से चिंता ने चक्रव्यूह रच लिया। डॉक्टर की दवाइयां निसंदेह रूप से जरूरी हैं लेकिन अभी वह ऐसी स्थिति में हैं, जहां से स्वयं को संभाल सकती हैं।
हमने जीवन के अलग-अलग पक्षों पर बात की। कुछ कहानियां सुनीं। वही जिंदगी की कहानी जो आप जीवन संवाद में पढ़ते, इसके फेसबुक लाइव में सुनते हैं। उनको अपने भीतर झांकने और मन की खरपतवार की सफाई का निवेदन किया। वही निवेदन आपसे करता हूं, स्वयं से संवाद बढ़ाएं। उन रास्तों की ओर न देखें जो बंद हो रहे हैं, उन पगडंडियों को तलाशने की कोशिश करें जो आपकी प्रतीक्षा में हैं।
मुझे यह कहते हुए बेहद संतोष, प्रसन्नता है कि अब उनकी स्थिति बेहतर है। दवाइयां बंद हो गई हैं। उनका संकट सामाजिक, आर्थिक से अधिक मानसिक है। भीतर का संकट है। जीवनदृष्टि जब किसी भी कारण से बाधित हो जाती है तो जिंदगी अधिक दूर तक नहीं देख पाती। प्रेम, स्नेह के होते हुए भी कई बार हम स्वयं को हर चीज के लिए जिम्मेदार मानने लगते हैं। आज जिस दशा में हैं, संभव है वह कल से बेहतर न हो, लेकिन आने वाला कल उससे तो हम परिचित नहीं हैं। इसलिए उसके प्रति मन में निराशा ठीक नहीं। जो चीजें हमारे नियंत्रण से बाहर हैं, उनकी चिंता में घुलना बंद कर दीजिए। हां, जो कर सकते हैं, उसमें पूरा समर्पण दीजिए। इससे जिंदगी की दशा और दिशा दोनों सरलता से बदली जा सकती हैं! (hindi.news18.com)
-दयाशंकर मिश्र
प्रश्न यह नहीं कि दुर्योधन ने कृष्ण की सेना ही क्यों चुनी! प्रश्न यह है कि हम में से अधिकांश लोग अगर दुर्योधन की जगह होते, तो क्या चुनते! आज भी क्या चुन रहे हैं! हम जो चुन रहे हैं, उसमें भी प्रेम की जगह शक्ति ही अधिक है...
हम जो चुनते हैं, उससे बहुत कुछ तय नहीं होता। उससे ही सबकुछ तय होता है! अक्सर हमारा चुना हुआ लुभावना, लोकप्रिय और आश्वस्त करने वाला होता है। हम गुणवत्ता से चुनाव नहीं करते हम चुनाव करते समय जो आधार बनाते हैं वह अक्सर वैसे ही होते हैं, जिसकी कहानी हमें महाभारत में स्पष्ट सुनाई गई है! जब युद्ध होना तय हुआ तो पांडव और कौरव दोनों ही मदद का निवेदन लेकर कृष्ण के पास पहुंचे। संयोग से दोनों का कृष्ण के पास पहुंचने का समय एक ही था। लेकिन दोनों के दृष्टिकोण, जीवन के प्रति नजरिए में बड़ा फर्क था। दुर्योधन सोते हुए कृष्ण के सिरहाने बैठ जाते हैं, तो अर्जुन उनके पांव की ओर। दोनों का चयन मूलत: दोनों के व्यवहार से जुड़ा हुआ है।
जब हम विनम्रता से किसी के पास जाते हैं, तो हमारी आवाज, हमारा मन श्रद्धा के साथ निवेदन के लिए होता है। विनम्रता में स्नेह शामिल होता है। दूसरी ओर अहंकार के साथ ऐसा नहीं। अहंकार के साथ शक्ति का भाव अधिक होता है। इसलिए जब मदद मांगने का पहला अवसर अर्जुन को मिला, तो उन्होंने अकेले कृष्ण को चुना! उन्होंने निहत्थे कृष्ण को चुना। उन्होंने युद्ध में शस्त्र न उठाने वाले कृष्ण को चुना!
जब कृष्ण ने यह कहा था कि विशाल सेना और निहत्थे कृष्ण में से चुनना है, तो दुर्योधन भीतर ही भीतर डर गया होगा। उसे अवश्य ही लगा होगा कि कहीं अर्जुन और कृष्ण की प्रशिक्षित विशाल सेना न मांग ले। उसे लगा तो होगा कि अर्जुन वही मांगेगा, क्योंकि निहत्थे का वह क्या करेगा! लेकिन अर्जुन ने दुर्योधन के उलट चित्त पाया था। उसका मन तो कृष्णमय था। प्रेम में था। उसके मन में कहीं कोई दुविधा नहीं है।
दुविधा की दुनिया तो दुर्योधन जैसों के लिए है। जो विशाल सेना और प्रेम, स्नेह के बीच केवल शक्ति को चुनते हैं। शक्ति को चुनना असल में अपने अहंकार की पुष्टि है। जहां शक्ति के प्रति आग्रह अधिक होगा, वहां अहंकार से दूरी संभव नहीं।
प्रश्न यह नहीं कि दुर्योधन ने सेना क्यों चुनी! प्रश्न यह है कि हम में से अधिकांश लोग अगर दुर्योधन की जगह होते, तो क्या चुनते! आज भी क्या चुन रहे हैं। हम जो चुन रहे हैं, उसमें भी प्रेम की जगह शक्ति ही अधिक है। कौरवों की हार केवल इसलिए नहीं हुई, क्योंकि पांडवों के पक्ष में धर्म था। बल्कि इसलिए भी हुई, क्योंकि वहां दूर-दूर तक अहंकार था। शक्ति के अनुयायी, समर्थक कई बार यह भूल जाते हैं कि उनके सेनापति मजबूरी में उनका साथ दे रहे हैं मन से नहीं।
जिस सेना के सेनापति भीष्म, द्रोणाचार्य, कर्ण जैसे महारथी हों, उसका हारना केवल पांडवों की जीत नहीं है। उससे कहीं अधिक कौरवों की हार है। यह तीनों ही किसी न किसी रूप में पांडवों के साथ थे। उनकी विजय को अप्रत्यक्ष रूप से समर्थन कर रहे थे। अहंकार के साथ ऐसा ही है। कल अहंकार दुर्योधन के साथ था, आज वह किस रूप में हमारे साथ है हमें नहीं पता!
इसलिए यह प्रश्न महत्वपूर्ण है कि हम अपने जीवन में दिए गए विकल्पों में से क्या चुनते हैं। महाभारत में द्रौपदी वस्त्रहरण, लाक्षागृह के होने पर जब धृतराष्ट्र और उनके समर्थित, पोषित, वचनबद्ध मौन चुन रहे थे तो असल में वह युद्ध की नींव रख रहे थे। अकेले दुर्योधन को युद्ध का जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। उसके अहंकार की इसमें बड़ी भूमिका है, लेकिन उससे अधिक भूमिका उन लोगों की है जो अपनी अपनी निष्ठा, निष्ठा के अहंकार से बंधे थे। इसलिए, यह बहुत जरूरी है कि हम अपने चुनाव और लक्ष्यों के प्रति सजग रहें। उनको पाने की हड़बड़ी में कहीं हम दुर्योधन जैसी गड़बड़ी न करें।
हमें भले ही बड़े युद्ध लडऩे हों, लेकिन हमें पता होना चाहिए कि हम कहीं कृष्ण की जगह उनकी सेना के भरोसे तो नहीं हैं। कृष्ण किसी भी प्रश्न को अधूरा नहीं छोड़ते। इसलिए आगे चलकर जब वह हस्तिनापुर जाते हैं शांतिदूत बनकर तो दुर्योधन की जगह विदुर के यहां भोजन का निमंत्रण स्वीकार करते हैं। दुर्योधन के नाराज होने पर वह उन्हें समझाते हैं, तुमको मुझसे स्नेह नहीं, नहीं तो तुम मेरे लिए लड़ जाते! दो पल के लिए केवल कल्पना करके देखिए अगर उस दिन दुर्योधन ने निहत्थे कृष्ण को मांग लिया होता, तो महाभारत की कहानी कुछ और होती।
मनुष्य प्रेम में गलतियां नहीं करता। असल में वह प्रेम में गलतियां करता ही नहीं। हां, उसका प्रेम कितना गहरा है यह प्रश्न जरूर उपस्थित होता है। गलतियां तो शुरू ही वहां से होती है, जहां प्रेम नहीं होता। हम प्रेम को दिखाना तो चाहते हैं, लेकिन बस अपने फायदे के लिए। ऐसे प्रेम का परिणाम वही होता है जो दुर्योधन का हुआ!
इसलिए यह जरूरी है कि हम अपने चयन के प्रति सावधान रहें। प्रेम में लेकिन, किंतु-परंतु होने से जायका बिगड़ जाता है। वहां शर्तों के लिए जगह नहीं हो सकती। कृष्ण वह सबकुछ करते हैं जो पांडवों के लिए जरूरी है! यहां तक कि वह अपनी प्रतिज्ञा भी तोड़ देते हैं। दूसरी ओर उनको देखिए जो कौरवों के सेनापति हैं। उनमें दुर्योधन के प्रति प्रेम नहीं, इसलिए वह अपनी शपथ के पिंजरे में स्वयं कैद हो जाते हैं।
प्रेम, अंतत: प्यार ही सबसे बड़ा हितैषी है। हमारा ख्याल जिस सुंदरता से प्रेम रख सकता है, वैसा कोई दूसरा नहीं। यह मन, जीवन, जीवनशैली तीनों को बखूबी संभालता है। लेकिन सबसे पहले हमें इसके साथ रिश्ते को संवारना होता है!
-दयाशंकर मिश्र
खुद को नकलची होने से बचाना सबसे जरूरी काम है। हमें भीतर से इस बात के लिए तैयार होना होगा कि दूसरे का हमें कुछ नहीं चाहिए। अपने बनाए नए रास्ते ही जब हमें लुभावने लगेंगे, तभी हम अपनी पहचान को प्राप्त हो पाएंगे।
खुद की पहचान मुश्किल काम है। हम अक्सर ही इससे दूर रहते हैं। जीवन में तीन बातें ही खास हैं- जन्म, प्रेम और पहचान। जन्म वश में नहीं। प्रेम की समाज में व्यवस्था नहीं। पहचान करने के लिए बहुत साहस चाहिए। इसलिए हम दुखी, अकेले हुए जा रहे हैं। यह चक्रव्यूह टूटना चाहिए। जन्म हम तय नहीं कर सकते। इसे कोई और हमारे लिए तय करता है। यह हमारे नियंत्रण में नहीं। उसके बाद प्रेम। प्रेम, हम कितना सीख पाएंगे यह हमारे ऊपर ही निर्भर करता है, क्योंकि इसे सिखाने की कोई व्यवस्था नहीं। हमारे किसी स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय में प्रेम पढ़ाया नहीं जाता। इसके उलट सारी व्यवस्थाएं हम इस तरह से करते हैं कि किसी तरह प्रेम कम होता जाए।
हम बच्चों को एक-दूसरे से अधिक अंक लाने के लिए प्रोत्साहित करते हैं जन्म से ही। एक-दूसरे से आगे बढऩे के लिए प्रेरित करते हैं। इसलिए नहीं, क्योंकि इसका मनुष्य होने से कोई रिश्ता है, बल्कि इसलिए क्योंकि हम नहीं चाहते कि हमारे बच्चे दुनियादारी में पीछे रह जाएं। जीवन के अर्थ को वह भले ही न समझ पाएं, लेकिन हमारी नजर इसी पर रहती है कि वह दुनिया के मुकाबले में कहीं पिछड़ न जाएं!
जीवन संवाद में प्रेम पर तो हम निरंतर बात करते ही रहे हैं। आज पहचान पर कुछ बातें आपसे साझा करता हूं। एक छोटी-सी कहानी आपसे कहता हूं। संभव है इससे मेरी बात अधिक स्पष्ट हो सकेगी, अपनी पहचान के बारे में...
अमेरिका में अब्राहम लिंकन के निधन के बाद उन पर एक नाटक तैयार किया गया। नाटक में लिंकन की भूमिका के लिए जिस व्यक्ति को चुना गया, उसे नाटक शुरू होने के छह महीने पहले से तैयारी पर लगाया गया। नाटक महत्वपूर्ण था। पूरे अमेरिका की इस पर नजर थी। इसलिए, उसके परिवार ने भी इस किरदार को ठीक से निभाने में पूरा सहयोग किया। उसे घर पर लिंकन होने का पूरा एहसास कराया गया।
वह व्यक्ति किरदार में इतना डूब गया कि वह पूरी तरीके से स्वयं को अब्राहम लिंकन ही समझने लगा। जब तक नाटक चल रहा था, तब तक तो किसी का इस ओर ध्यान नहीं गया। लेकिन धीरे-धीरे उनकी पत्नी और बच्चों ने नाटक के निर्देशक से इस बात की शिकायत करते हुए कहा कि वह यह मानने को राजी ही नहीं कि वह लिंकन नहीं हैं!
उस व्यक्ति को लिंकन के बारे में इतनी अधिक जानकारियां हो गई थीं, इतने अधिक विवरण उसके पास थे कि वह स्वयं को अब्राहम लिंकन ही समझने लगा। अंतत: उसे डॉक्टरों को दिखाना पड़ा। मनोचिकित्सकों के पास ले जाया गया। तब भी जल्दी से उस पर असर नहीं हुआ। उसके परिवार और मित्रों की चिंताएं बढ़ती जा रही थीं। वह किसी भी तरह से इस बात के लिए राजी नहीं था कि वह लिंकन नहीं है। डॉक्टरों को एक उपाय सूझा, उन्होंने उसे झूठ पकडऩे वाली मशीन से परीक्षण (लाई डिटेक्टर टेस्ट) के लिए तैयार किया। तब कहीं जाकर उसे यह समझाया जा सका कि वह लिंकन नहीं है। उसने केवल लिंकन का किरदार निभाया है!
वह खुशकिस्मत था। उसे कुछ ही वर्षों में पता चल गया कि वह लिंकन नहीं है! हम में से अधिकांश लोग पूरी जिंदगी न जाने खुद को क्या-क्या मानते हुए बिता देते हैं। हमें कोई कितना भी समझा ले, हम इस बात के लिए राजी नहीं होते कि हम जिसके गुमान में हैं, हम वह नहीं हैं! यह बताए भी कौन! क्योंकि बताने में बड़ा झंझट है। इसलिए जानते-बूझते सब लोग शांत रहते हैं। कितनी खतरनाक शांति है, लेकिन एक समाज के रूप में हमने इसे स्वीकार किया है।
खुद को नकलची होने से बचाना सबसे जरूरी काम है। हमें भीतर से इस बात के लिए तैयार होना होगा कि दूसरे का हमें कुछ नहीं चाहिए। अपने बनाए नए रास्ते ही जब हमें लुभावने लगेंगे, तभी हम अपनी पहचान को प्राप्त हो पाएंगे। (hindi.news18.com)
-दयाशंकर मिश्र
हम सबके जीवन में झगडऩे के विषय इतने अधिक हैं कि प्रेम एकदम अकेला पड़ता जा रहा है। जो भी अकेला होता जाता है, उसे संभालना मुश्किल होता जाता है। इसीलिए तो प्रेम सिमटता जा रहा है। क्रोध, अहिंसा और असहिष्णुता बढ़ती जा रही है।
हमारी गलती कभी होती ही नहीं। हम तो हमेशा ही निर्मल, निर्दोष होते हैं। सारी गलती हमेशा दूसरों की ही होती है। अपनी ओर न देखने के कारण हमारी चेतना में यह भाव इतनी गहराई से बैठ गया है कि हमने अपनी ओर देखना ही बंद कर दिया है। कमल का फूल कीचड़ में रहकर भी उसमें नहीं रहता, क्योंकि वह कीचड़ से ही ऊर्जा हासिल करके खुद को सुगंधित और कोमल बनाकर अपना जीवन बदल लेता है। हम सब भी ऐसा कर पाते, तो जिंदगी कम से कम ऐसी नहीं होती जैसी आज है।
हम मन, विचार, शरीर से दूसरों के प्रति कठोरता से भरते जा रहे हैं। जीवित व्यक्तियों को तो छोडि़ए, जो इस दुनिया में नहीं हैं उनके प्रति भी हमारा नजरिया घृणा, वैमनस्य से भरा होता है। यह बताता है कि हमारी जीवनदृष्टि कितनी छोटी, सीमित, संकुचित होती जा रही है!
दूसरों में निरंतर कमियां, गलतियां खोजने के कारण हम भीतर से रिक्त होते जा रहे हैं। कुएं में पानी कम हो, तो बाहर से पानी लाकर उसमें नहीं डालते। कुएं के भीतर उतरकर सफाई की जाती है। कचरा हटाया जाता है। कुएं में पानी उसके भीतर से आता है, बाहर से नहीं! हमारे संकट भी अंदर से ही आते हैं!
एक कहानी आपसे कहता हूं! इससे दूसरों को दोष देने की बात सरलता तक आपसे पहुंच सकेगी। संभव है आप उस मनोदशा को उपलब्ध हो सकें, जहां कहानीकार आपको ले जाना चाहता है!
परिवार में एक ही बेटा था। उनकी आर्थिक स्थिति भी कोई बहुत खराब नहीं थी, लेकिन बेटा बात-बात में नाराज रहा करता। नाराजगी से ज्यादा गुस्सा उसका स्वभाव बन गया था। इकलौते बेटों के साथ अक्सर यह समस्या देखी जाती है, क्योंकि वह अपनी हर इच्छा को ईश्वर के आदेश के बराबर मानते हैं। बचपन में बच्चे माता-पिता के अधीन होते हैं, लेकिन जैसे-जैसे बच्चे बड़े होते जाते हैं वह सीख जाते हैं कि माता-पिता को कैसे ‘काबू’ में रखना है! क्योंकि उन्होंने अपने माता-पिता से उनके माता-पिता को काबू करने के तरीके जाने-अनजाने सीख लिए हैं।
लडक़े का गुस्सा देखकर, उसकी बढ़ती उम्र देखकर उन लोगों ने तय किया कि इसका विवाह कर देना चाहिए। संभव है, विवाह के बाद उसकी मनोदशा में कुछ अच्छे बदलाव आ जाएं। कितनी मजेदार बात है, जिस बच्चे को मां-बाप बीस-पच्चीस बरस में नहीं बदल पाते, उसे परिवार के नए सदस्य के भरोसे छोड़ देते हैं! किसी का जीवन बदलना इतना सरल नहीं।
दूसरी ओर एक ऐसी लडक़ी थी जिसकी जिद, गुस्से को संभालने में माता-पिता असमर्थ हो रहे थे। उनके मन में भी ऐसा ही विचार आया जैसा इस लडक़ी के माता-पिता के मन में आया। कुछ ऐसा संयोग हुआ कि दोनों के माता-पिता मिले, विवाह तय हो गया। विवाह के पहले ही दिन जब दोनों एकांत में अपने उपहारों को देखने बैठे, तो एक बहुत ही प्रिय व्यक्ति द्वारा दिए गए उपहार को खोलने की कोशिश पत्नी ने की। पति ने कहा, ठहरो चाकू ले आता हूं। पत्नी ने कहा हमारे यहां तो अक्सर ही ऐसे उपहार आते थे। मैं जानती हूं, इसे कैसे खोलना है। ऐसे उपहार को चाकू से नहीं कैंची से खोला जाता है। मैं कोई अनाड़ी नहीं हूं।
यह संभव है कि दो शांतिप्रिय लोग मिलकर बहुत अधिक शांतिपूर्ण वातावरण न बना सकें। लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं कि अगर दो झगड़ालू लोग मिल जाएं, तो निश्चित रूप से विवाद, कलह, मनमुटाव की ऐसी दीवारें खड़ी कर सकते हैं, जिन्हें गिराना किसी बुलडोजर के बस में नहीं! फिलहाल कहानी पर लौटते हैं। नवदंपत्ति का सारा विवाद चाकू, कैंची पर आकर सिमट गया। जीवन उससे आगे बढ़ ही नहीं पा रहा था।
मान लीजिए पत्नी कैंची पर अड़ी, तो पति ही चाकू की जिद छोड़ देते। लेकिन ऐसा हो न सका। दोनों परिवारों का उनके स्वभाव को बदलने का प्रयास विफल हो गया। दोनों के विवाह को कई बरस हो गए, लेकिन ये चाकू-कैंची पर ही उलझे रहे। हर दिन ही चाकू-कैंची तलाश लिए जाते।
कुएं की तरह हमारी रिक्तता का उपाय हमारे भीतर उतरने में ही है! जैसा भीतर, वैसा बाहर! जैसा बाहर, वैसा भीतर! हम सबके जीवन में झगडऩे के विषय इतने अधिक हैं कि प्रेम एकदम अकेला पड़ता जा रहा है। जो भी अकेला होता जाता है, उसे संभालना मुश्किल होता जाता है। इसलिए प्रेम सिमटता जा रहा है। क्रोध, अहिंसा, असहिष्णुता बढ़ती जा रही है। (hindi.news18.com)
-दयाशंकर मिश्र
आज का संवाद एक कहानी से शुरू करते हैं। किसान को एक बार बहुत नुकसान उठाना पड़ा। वह पहले दुखी हुआ फिर नाराज। अपने ईश्वर पर। अपने कच्चे मकान के पास खड़े होकर उसने तेज आवाज में ईश्वर को ललकारते हुए कहा, तुमको खेती करना नहीं आता। समय पर पानी नहीं देते। बेमौसम बारिश करते हो। खड़ी फसल पर ओले फेंकते हो। पहले से फसल को मार देते हो। ऐसा लगता है तुम्हें खेती का बिल्कुल भी अनुभव नहीं है!
कहानीकार के अनुसार ईश्वर भी किसान से उतना ही प्यार करते थे, जितना किसान स्वयं ईश्वर से। प्यार हमेशा दोनों तरफ से होता है। वह दोनों ओर से नहीं है, तो उसे प्रेम की जगह कुछ और कहना चाहिए! किसान के ईश्वर ने उसकी चुनौती स्वीकार कर ली। ईश्वर ने उससे कहा, जैसा तुम चाहते हो, वैसा ही होगा। कहते जाओ, होता जाएगा! किसान को खेती का लंबा अनुभव था। उसने पूरी तैयारी की। एकदम सही मात्रा में पानी। सही मात्रा में धूप। उचित समय पर खाद और खरपतवार की सफाई सही समय पर। कहीं कोई गलती नहीं। उसने बेमौसम बारिश चाही नहीं, पाला चाहा नहीं। कीड़े-मकोड़े और दूसरे संकट फसल से दूर ही रहे। फसल ऐसे लहलहाने लगी कि किसान के आनंद का कोई ठिकाना न रहा। उसने अपने मित्रों से कहा भी, खेती करने का अनुभव काम आ रहा है, देखो।
जब फसल काटने के दिन आने लगे तो किसान का सीना गर्व से चौड़ा हो गया। उसने समय पर फसल की कटाई के लिए पूरे गांव को इक_ा कर लिया। फसल हुई ही बहुत जोरदार थी। लेकिन यह क्या! फसल काटने को किसान खेत में दाखिल हुआ, तो देखता है कि बालियों में गेहूं अधपका है। फसल बाहर-बाहर तो ठीक दिख रही थी, लेकिन भीतर से ठीक तरह से पकी नहीं थी। गेहूं विकसित ही नहीं हो पाया था। किसान ने नाराजगी से ईश्वर की ओर देखा। ईश्वर ने आकाशवाणी की, फसल केवल सही चीजों का मिश्रण नहीं है। फसल के होने में प्रतिकूल मौसम से उसका संघर्ष भी शामिल है। फसल के पकने में कीड़े-मकोड़ों से लोहा लेना और खराब मौसम का सामना भी शामिल है। पाला भी शामिल है और खराब मौसम की आहट की घबराहट भी। फसल इससे तैयार होती है, मित्र! जैसे तुम्हारा जीवन है वैसे ही फसल है!
किसान इस बात को समझ गया कि फसल क्या है! जीवन क्या है। उसकी सुंदरता क्या है। जो जीवन का रहस्य समझ जाते हैं, वह जीवन के प्रति नाराज नहीं होते। उसके प्रति आभारी रहते हैं। सदैव कृतज्ञ रहते हैं। गलतियां जीवन को दिशा देने, सुंदर बनाने के लिए जितना काम करती हैं, उतना कोई भी दूसरा हमारे लिए नहीं कर सकता।
कृतज्ञता का सिद्धांत अनूठी जीवनशैली है। इस पर विस्तार से हम अगले अंकों में बात करेंगे। अभी तो केवल इतना ही कि हमें शिकायत करते हुए जीने की जगह कृतज्ञता के साथ जीने का अभ्यास करना चाहिए। प्रकृति और जीवन ने हमें जो दिया है, वह आनंद से भरा है। अगर कोई कमी है, तो वह हमारी सोच के पत्थर हैं। उन पत्थरों पर कोमलता के फूल खिलाने हैं। जिंदगी एक उजाला है। गलतियां उजाले की सहयात्री हैं। गलतियों के बिना जीवन संभव नहीं।
अनुभव और गलती/भूल साथ साथ चलने वाली जीवन क्रियाएं हैं। अगर कोई कहता है कि उसने अब तक जीवन में कोई गलती नहीं, तो उसका सरल अर्थ यही है कि उसका अब तक का जीवन जड़ है। उसमें गति नहीं। जहां गति नहीं है, वहां गलतियां भी नहीं होंगी। गलतियों के लिए गति का होना बहुत जरूरी है। जो अपने फैसले खुद नहीं करते। मनुष्य होने के गुण न पहचानते हुए चेतना से दूर मानसिक गुलामी में रहते हैं, ऐसे लोग कभी कोई गलती नहीं करते। जिंदगी का सौंदर्य घुमावदार, पर्वताकार रास्तों के बिना अपूर्ण है! गलतियों के बिना अधूरा है! गलतियों के बिना अधूरा, असुंदर है!
-दयाशंकर मिश्र
सुख चाहने का अर्थ केवल अपना सुख चाहना नहीं है। अपना सुख चाहकर कोई सुखी नहीं हो सकता। सुख तब आएगा जब हम करुणा, क्षमा और प्रेम के द्वार खोल देंगे।
हमने सुख के लिए इतनी सारी शर्तें तय कर दी हैं कि वह चाहे भी तो आसानी से हमारे द्वार पर दस्तक नहीं दे सकता! उसे अनुमति और पूछताछ की प्रक्रिया से गुजरना होगा। इस तरह तो कोई भी हमारे घर नहीं आना चाहेगा। कम से कम वह तो कभी नहीं आना चाहेगा, जिसे हम बुलाने के सबसे अधिक इच्छुक रहते हैं। सुख, हमारा ऐसा ही परिचित है, जिसे हम हमेशा आमंत्रित करना चाहते हैं, लेकिन हमने अपने घर और मन के बाहर इतनी तरह के नियम बना लिए हैं कि उसका प्रवेश संभव नहीं। हो सकता है कि सुख घर तक तो किसी तरह पहुंच भी जाए, लेकिन मन तक नहीं पहुंच सकता। मन तक पहुंचने के लिए तो शर्तें हटानी ही पड़ेंगी।
महात्मा बुद्ध ने बहुत सुंदर बात कही है। वह कहते हैं, हमारी सभ्यता, पुराने नियम, जीने के तरीके हमें सुखी नहीं होने देते। सुखी होना मानसिकता है, एक दृष्टि है, लेकिन हम ऐतिहासिक परंपरा के गुलाम हैं।
बुद्ध जो कह रहे हैं, उसे समझने के लिए बहुत दूर नहीं जाना है। बस अपने भीतर ही उतरकर देखना है। हम अपने कपड़े बदलते हैं। मकान बदलते हैं। हर वह चीज बदलते हैं, जिसमें कुछ नयापन है, लेकिन जो नहीं बदलते हैं, वह है- हमारे सोचने का तरीका! जीवन को समझने जानने का दृष्टिकोण। बुद्ध जब कहते हैं, सुखी होना एक मानसिकता है तो यह जरूरी है कि हम मानसिकता को समझने, रखने लायक मानस बनाएं। अपने दिमाग को इस तरह तैयार करें कि वह सुख भीतर की ओर खोजे, बाहर की ओर नहीं। हमारी मानसिकता हमारे मन से बनती है और मन का संबंध चेतन से अधिक हमारे अवचेतन से होता है। उस भीतर से होता है जिसकी ओर हम देखना ही पसंद नहीं करते। जिसकी ओर हम देखना पसंद नहीं करते, उसके अनुकूल खुद को हम कैसे तैयार कर पाएंगे। इसलिए हमारे चेतन और अवचेतन मन के बीच हमेशा जंग चलती रहती है। इसके कारण हम अपने ही भीतर बंट जाते हैं। भीतर से कुछ और करने की आवाज आती है और बाहर से कुछ और करते हैं। यहीं से व्यक्ति में समग्रता की कमी शुरू हो जाती है।
सुख चाहने का अर्थ केवल अपना सुख चाहना नहीं है। अपना सुख चाहकर कोई सुखी नहीं हो सकता। सुख तब आएगा जब हम करुणा, क्षमा और प्रेम के द्वार खोल देंगे। मैं चेखव की एक कहानी आपसे कहता हूं। संभव है कि इससे मेरी बात अधिक स्पष्टता से आप तक पहुंच पाए।
महान कहानीकार चेखव की यह कहानी सुख की मानसिकता के बारे में बहुत सहज संवाद करती है। इसका नाम ध्यान में नहीं आ रहा है। कहानी इस प्रकार है- एक जमींदार घर से भागे पुत्र को खोज रहा है। उसका बेटा बचपन में ही घर छोडक़र चला गया था। किसी तरह पुत्र से संवाद स्थापित होता है। जमींदार को पता चलता है कि वह किसी भी समय बताए गए स्टेशन पर उससे मिलने आ सकता है। ठंड के दिन हैं। रूस में वैसे भी सर्दियां मुश्किलभरी होती हैं। जमींदार स्टेशन पर मौजूद धर्मशाला को पूरी तरह किराए पर ले लेता है। उसे अपने बेटे का स्वागत धूमधाम से जो करना है। बेटा किस स्थिति में आएगा, इसकी जानकारी जमींदार को नहीं है। धर्मशाला उसने इस तरह कब्जे में कर ली थी कि दूसरे किसी को भी रुकने की इजाजत नहीं थी।
देर रात उस धर्मशाला के दरवाजे पर दस्तक हुई। एक भिखारी ने बहुत प्रार्थना की। उसे रात बिताने के लिए जगह की जरूरत थी, क्योंकि बाहर भयानक शीतलहर चल रही थी। जमींदार के आदेश के अनुसार उसे जगह नहीं दी गई। वह भिखारी धर्मशाला के बाहर ही सो गया। इस तरह सोया कि अगले दिन उसे उठाया नहीं जा सका। वह ठंड में जम गया था।
सुबह उठते ही जमींदार ने पूछा कोई आया है! धर्मशाला के प्रबंधक ने उससे कहा कि आपका बेटा तो नहीं आया, देर रात एक भिखारी जरूर आया था, लेकिन आपके आदेश के अनुसार हमने उसे भीतर नहीं आने दिया। बाहर ठंड के कारण उसकी मौत हो गई। जमींदार बाहर जाकर देखता है कि वह भिखारी ही उसका बेटा है!
हमारे सुख के साथ अक्सर यह दुर्घटना होने की आशंका बनी रहेगी, अगर सुख को हम इतना निजी बना देंगे। सुख को निजी बनाते ही उसमें दूसरे के लिए करुणा और प्रेम समाप्त होते जाएंगे। जहां करुणा, प्रेम और उदारता समाप्त हो जाते हैं, वहां कुछ शेष नहीं रहता। इसलिए अपने लिए सुख चाहते समय हमें दूसरों के सुख का भी खयाल रखना होगा। यह मनुष्यता का सहज नियम है, इसका पालन करना मुश्किल नहीं। हां, हम थोड़े से लालच में इसे भुला बैठे हैं! (hindi.news18.com)
-दयाशंकर मिश्र
दुनिया और हमारे देश में आत्महत्या सबसे तेजी से बढ़ती बीमारी है। यह मानसिक कमजोरी है। मन को न संभाल पाने की कमी है। दुनिया से जूझना उतना मुश्किल है जितना खुद को संभालना है। अपने अस्तित्व को पहचानना सबसे बड़ा काम है।
नवीनता और ताजगी के प्रति उत्सुकता होना बहुत है। हमारे आसपास जो कुछ नया घट रहा होता है, हम उसके प्रति उत्सुक और आकर्षित होते हैं। नई चीज़ों के बारे में जानने के लिए प्रयासरत होना भी इससे जुड़ी हुई बात है। लेकिन यह सब चीज़ें अधिकतर हमारी बाहरी दुनिया के बारे में हैं। भीतर जो कुछ घट रहा है, उसके बारे में हम इतने भी सजग नहीं कि इस बात को समझ पाएं कि मन से भी पुरानी जड़, खरपतवार और घास-फूस साफ करने की जरूरत है। उसके बिना ताज़ा, प्रफुल्लित, आनंदित मन का होना संभव नहीं!
एक किसान नई फसल से पहले जिस तरह अपने खेत को तैयार करता है। अपने मन के प्रति भी हमें वैसे ही सजगता और सावधानी रखनी होगी। भीतर ही भीतर बहुत कुछ टूटता और घुटता रहता है। उस टूटन और खरपतवार के मन के भीतर उगने से हमें निरंतर सजग दृष्टि ही बचा सकती है। यह सब कुछ बहुत आंतरिक है! इतना अधिक आंतरिक कि कई बार हमें इस बात का पता भी नहीं चलता कि हम टूट रहे हैं।
सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या के बाद बॉलीवुड के छोटे पर्दे से जुड़े दो कलाकार बाहरी दुनिया के दबाव संभाल पाने में असफल रहे हैं। इनमें से समीर शर्मा ने गुरुवार को ही आत्महत्या की है। उनके कारणों का अभी सामने आना बाकी है।
हमें इस बात को समझना होगा कि जिन चीजों को हम सामान्य मानते जाते हैं, हमारे बीच बढ़ती ही जाती हैं। ठीक उसी तरह जैसे हमने कैंसर को सामान्य मान लिया। मलेरिया को सामान्य मान लिया। हमने उसके होने के कारणों को जड़ से मिटाने पर जोर नहीं दिया। पूरी दुनिया में बीमारियों को व्यवस्थित करने का प्रयास खास तरह के व्यापार से जुड़े लोग समय-समय पर करते रहते हैं। क्योंकि इससे उनके हित पूरे होते हैं।
ऐसा ही कुछ आत्महत्या के साथ हो रहा है। हम उसके कारणों पर तो बात कर लेते हैं लेकिन इसकी जड़ कहां है। इसे रोका किस तरह जाए। इस पर कोई संवाद नहीं। दुनिया और हमारे देश में आत्महत्या सबसे तेजी से बढ़ती बीमारी है। यह मानसिक कमजोरी है। मन को न संभाल पाने की कमी है। दुनिया से जूझना उतना मुश्किल है जितना खुद को संभालना है। अपने अस्तित्व को पहचानना सबसे बड़ा काम है।
मनुष्य अंतरिक्ष तक की यात्राएं आसानी से कर ले रहा है, लेकिन वह अपने ही जटिल मन के भीतर प्रवेश कर पाने में सक्षम नहीं है। अपने ही मन से संवाद टूटा हुआ है। डर लगता है, हमें अपने ही भीतर उतरने में!
छोटी सी कहानी कहता हूं, आपसे। संभव है इससे मेरी बात आपको अधिक स्पष्ट हो सके।
एक राजा के तीन पुत्र थे। तीनों बुद्धिमता और शारीरिक क्षमता, दक्षता की कसौटी पर एक जैसे दिखते थे। राजा की उम्र हो चली थी। उसने तीनों में से किसी एक को अपना उत्तराधिकारी बनाने का फैसला किया था। बहुत से उपाय किए लेकिन वह किसी अंतिम नतीजे पर नहीं पहुंच पा रहा था। एक दिन वह कुछ चिंतित था। उसी समय उसका एक बहुत ही प्रिय सेवक उसके पास आया। जो किसान भी था। बुजुर्ग और अनुभवी भी।
राजा को उसने एक उपाय सुझाया। राजा को बात जंच गई। अगले दिन उसने अपने तीनों बेटों को बुलाया। उन्हें एक-एक बोरी बीज देते हुए कहा। इन्हें संभाल कर रखना। एक वर्ष बाद मैं इसका पूरा हिसाब लूंगा। यह बहुत ही कीमती हैं। इनका कैसे उपयोग करना है, यह सब कुछ तुम तीनों पर निर्भर करता है। जो इसे सबसे अच्छे तरीके से सहेज कर रखेगा, वही राज्य का राजा होगा। अब मैं तुम तीनों से एक बरस बाद ही मिलूंगा।
बड़े बेटे ने तुरंत अपने सलाहकार को बुलाया। सलाहकार ने उसे समझाया अगर महाराज की दृष्टि में यह कीमती बीज हैं, तो इसे संभाल कर अपने खजाने में रख लीजिए। हमें यह भी देखना होगा कि कहीं से कोई नुकसान ना पहुंचा दे। कोई इसे चुरा कर ना ले जाए, इसलिए यह भी जरूरी है कि इसे कड़े पहरे में रखा जाए। बीच-बीच में हम दोनों इसकी सुरक्षा जांचते रहेंगे।
दूसरे नंबर के बेटे ने उन बीजों को अपने हिस्से की दूर-दूर तक फैली जमीनों के एक हिस्से में बारिश के मौसम में खेत में बोने का आदेश दे दिया। उसने यह देखना और जानना जरूरी नहीं समझा कि बीज कहां बोए जा रहे हैं। उसने यह भी सुनिश्चित नहीं किया कि बोलने से पहले खेतों की ठीक तरह से सफाई की जाए। खरपतवार हटाए जाएं। उन खेतों में पिछली फसल के कचरे को ठीक तरह से हटाया जाए। खेतों की रखवाली और दूसरे इंतजाम भी उसने केवल अपने कर्मचारियों के भरोसे छोड़ दिए। वह एक राजकुमार था, जिसके साथ कुछ समय बाद राजा बनने की संभावना थी। इसलिए वह राजकाज के मामलों की जानकारी हासिल करने में पूरा समय लगाता। दिन भर सलाहकारों से घिरा रहता और हमेशा उनके बताए उपायों के अनुसार ही काम करता।
तीसरा और सबसे छोटे बेटा दोनों से अलग था। वह दिए गए काम को पूरी तल्लीनता से करता। उसके लिए कोई काम छोटा बड़ा नहीं था। समय आने पर वह अपने हिस्से की जमीन का दौरा करने खुद गया। वहां उसने जमीनों का देखभाल करने वाले मजदूरों से देर तक बातचीत की। उनसे बीजों की प्रकृति और मिट्टी की पूरी जानकारी ली। अच्छी तरह खेतों की साफ सफाई सुनिश्चित कराई। समय आने पर बीज बोए गए। जब तक फसल तैयार नहीं हुई वह नियमित रूप से उसकी देखभाल का हिस्सा बना। उसने खेत की सफाई, खरपतवार हटाने, घास फूस काटने से लेकर फसल काटने तक में सतत भूमिका निभाई।
फसल काटने में कुछ ही दिन बचे थे कि राजा के यहां से बुलावा आ गया। उन्होंने बेटों से बीजों का हिसाब मांगा। बड़ा बेटा उन्हें अपने खजाने में ले गया और ताले खुलवा कर दिखाया कि बीज यहीं रखे गए थे। बीज खजाने की अलमारियों में नहीं रखे जाते। नियमित समय पर उनकी देखभाल की जरूरत होती है। उसके बीज खराब होना शुरू हो गए थे। खराब होने को ही थे।
उसने दूसरे बेटे की ओर देखा जो उसे अपने साथ उस जमीन पर ले गया जहां वह आज तक कभी गया ही नहीं था। उसका सलाहकार राजा को जानकारी देने का प्रयास कर रहा था। क्योंकि राजकुमार को उस जमीन और फसल के बारे में सीधे कोई जानकारी नहीं थी। उसने पिताजी से बताया कि उसने बीजों को यहां पर बोने का आदेश दिया था। लेकिन बारिश ठीक से न होने, मजदूरों की लापरवाही से फसल ठीक से नहीं हुई। लेकिन राजा देख पा रहा था कि यह उसके दिए हुए बीजों के लिए सही जमीन नहीं थी।
तीसरा बेटा राजा के आदेश की प्रतीक्षा में था। उसने राजा और अपने दो भाइयों को विनम्रता से अपने रथ पर आमंत्रित किया। उसके बाद वह स्वयं उन्हें अपनी जमीन की ओर ले गया। उसने राजा को हर छोटी से छोटी चीज़ की जानकारी दी, खेती-किसानी के बारे में जो उसने स्वयं पिछले एक बरस में हासिल की थी।
लहलहाती फसल देखकर राजा का मन हर्षित हो गया। दूर-दूर तक फसल पर सूर्य की किरणें मानो उस पर अपना आशीर्वाद बरसा रही थीं। राजकुमार ने उसके इस काम में मदद करने वाले सभी लोगों का परिचय राज्य से करवाया। उसने कहा, पिताजी कुछ समय बाद आपके बीज कई गुना होकर आपके पास पहुंच जाएंगे। राजा ने अगले ही दिन घोषणा कर दी थी उनका सबसे छोटा बेटा ही राज्य का नया राजा होगा!
यह कहानी राजा बनने के बारे में नहीं है। उन गुणों के बारे में भी नहीं जो नेतृत्व के लिए होने चाहिए। बल्कि यह उस तैयारी के बारे में है, जो मन को हमेशा करते रहना चाहिए। रिश्तों की नई फसल बोने से पहले, नए रिश्ते में प्रवेश करने से पहले। किसी रिश्ते को खत्म करने के बाद। नाराजगी और गुस्से के तूफान के अपने ऊपर से गुजरने के बाद। हमें अपने मन को ठीक उसी तरह तैयार करना है, जैसे किसान हर फसल के पहले अपने खेतों को तैयार करता है। ऐसे ही हमारा मन हमेशा ताजा, आनंदित और सुगंधित बना रहेगा! (hindi.news18.com)
-दयाशंकर मिश्र
हम अदृश्य खूंटियों से बंधे रहते हैं। खुद को स्वतंत्र करने से डरते रहते हैं। अपने निर्णय लेने का साहस नहीं जुटा पाते! नए रास्तों पर चलने के लिए खुद को समझाना, नई पगडंडियों पर कदम बढ़ाने को मन को सजग करना होगा। मन के साथ होशपूर्ण व्यवहार करने का प्रयास कीजिए।
सबसे मुश्किल काम है खुद को समझाना। हम स्वयं को इतना अधिक परिपक्व, सही और निर्णायक समझते हैं कि अपने लिए गए फैसले, धारणा से बाहर देख नहीं पाते। इसलिए दुनिया जिस तरफ भागती रहती है, हम भी उसी तरफ दौडऩे लगते हैं। इसका सबसे बड़ा फायदा यह होता है कि हम भीड़ में शामिल हो जाते हैं।
भीड़ में शामिल लोगों का अपना कोई भी नहीं होता, लेकिन हौसला जरूर होता है। पहचाने और पकड़े जाने के डर से भी मुक्ति होती है। इसलिए अधिकांश लोग भीड़ में दिखना चाहते हैं। जिस तरह का व्यवहार सब लोग कर रहे हैं उसी तरह का करते रहने से सुरक्षा का भरोसा बना रहता है।
यह जीवन प्रक्रिया बाहर से देखने में सुरक्षित लगती है लेकिन अंदर हमें कमजोर, साहसहीन और दुखी बनाती जाती है। भेड़ों के बारे में तो हमने बहुत सुना है, अक्सर हम उनका मजाक नहीं उड़ाते हैं क्योंकि भेड़ केवल समूहों का रास्ता अपनाती है। लेकिन लंबे समय तक अगर हम किसी का मजाक उड़ाते रहें, उसके बारे में बात करते रहें तो यह खतरा बना रहता है कि हम भी कहीं उसके जैसे न हो जाएं। भेड़ों के मामले में हमारे साथ बिल्कुल ऐसा ही हो चुका है।
हम तेजी से मनुष्य से भेड़ बनने की ओर बढ़ रहे हैं। हमारी जीवनशैली अपने विवेक पर नहीं दूसरों की नकल करने पर केंद्रित होती जा रही है। हम इसकी पहचान हमारे भीतर फैसले लेने की कम होती क्षमता, प्रेम, उदारता और क्षमा की कमी से कर सकते हैं! एक छोटी सी कहानी आप से कहता हूं। संभव है, इससे आप तक मेरी बात सरलता से पहुंच सके।
एक रात रेगिस्तान की एक टूटी-फूटी सराय में 100 ऊंटों का दल आकर रुका। उनके सरदार ने सराय के मालिक से मिलकर कहा, हमें सुबह जल्दी निकलना है। इसलिए हम शीघ्र ही सोना चाहते हैं। बस एक समस्या आ रही है , हमारे पास निन्यानवे ऊंटों को बांधने के लिए रस्सी है, लेकिन एक ऊंट को बांधने को रस्सी की कमी है। अगर उसको न बांधा गया तो डर है कहीं रात में वह भटक न जाए।
इसलिए, हमारी मदद कीजिए। सराय के मालिक ने कहा हमारे पास इस तरह की कोई रस्सी नहीं है। हां मैं आपको एक उपाय बता सकता हूं, जिससे आपकी समस्या हल हो सकती है। उसने सरदार से कहा, जैसे सब को बांधा है, उस ऊंट को भी उसी तरह बांध दो। सरदार ने थोड़ी नाराजगी से कहा, यही तो समस्या है कि हमारे पास उसे बांधने के लिए रस्सी नहीं है।
सराय के उस बूढ़े मालिक ने कहा, मैं रस्सी की बात नहीं कर रहा हूं। जाओ, उसके गले में हाथ डाल कर उससे कहो तुम्हें बांध दिया है, यहीं बैठे रहना। जैसे दूसरे ऊंटों के लिए जमीन पर खूंटी ठोंककर रस्सी बांधते हो, उनके गले में हाथ फेरकर वैसी ही प्रक्रिया उसके साथ भी करो। और उसकी चिंता भूल जाओ वह कहीं नहीं जाएगा।
सरदार के पास कोई रास्ता नहीं था, सराय के मालिक की उम्र और अनुभव को देखते हुए उसने उसकी बात मान ली और ऐसा ही किया। सुबह जब चलने का वक्त हुआ तो सारे ऊंटों को खोल दिया गया। वह खड़े हो गए। चलने को तैयार। बस वह नहीं उठा, जिसके गले में रस्सी बांधी ही नहीं गई थी। हां, उससे कहा जरूर गया था कि रस्सी बांधी है, कहीं जाना नहीं।
सरदार सराय मालिक के पास पहुंचा और उसने कहा उस ऊंट को आप ही चल कर उठा सकते हैं। कल आप की तरकीब से उसे बांधा गया था, मुझे लगता है, आप जादूगर हैं।
सराय के मालिक ने कहा - लगता है ,आपने उसकी रस्सी खोली नहीं। सरदार ने कहा रस्सी बांधी कब थी। बुजुर्ग ने सरदार की तरफ देखकर हंसते हुए कहा, अरे! खूंटी बांधने का नाटक तो किया था, उसके गले में हाथ डालकर रस्सी होने का एहसास भी दिलाया था। यह सब रस्सी जैसा ही है। जाओ और उस ऊंट के साथ भी वही प्रक्रिया अपनाओ जो दूसरों के साथ अपनाई।
सरदार ने वैसा ही किया और ऊंट उठ खड़ा हुआ! यह केवल ऊंटों की बात नहीं, हमारा मन भी एकदम ऐसा ही है। हम अदृश्य खूंटियों से बंधे रहते हैं। खुद को स्वतंत्र करने से डरते रहते हैं। अपने निर्णय लेने का साहस नहीं जुटा पाते! नए रास्तों पर चलने के लिए खुद को समझाना, नई पगडंडियों पर कदम बढ़ाने को मन को सजग करना होगा। मन के साथ होशपूर्ण व्यवहार करने का प्रयास कीजिए। इससे जीवन में नई ऊर्जा, उत्साह के रंग उभरेंगे। (hindi.news18.com)
-दयाशंकर मिश्र
हम अपने सुख के लिए नहीं जीते, इन छोटे-छोटे उद्देश्यों के लिए अपनी चेतना और समझ को ग़ुलाम बनाए रखते हैं। जीवन केवल जीते रहना नहीं है। उदारता, स्नेह और करुणा के बिना हमारा मन हमेशा अंधेरे में ही रहेगा!
आज संवाद की शुरुआत एक कहानी से करते हैं। एक यात्रा में दो व्यक्तियों की पहचान हो गई। सफर मुश्किल था अलग-अलग मौसम और स्थितियों के से होकर दोनों को जाना था। इनमें से एक देख नहीं सकता था। लेकिन उसे रास्ते अच्छी तरह याद रहते। दूसरे के पास यात्रा के अनुकूल समझ, साहस और जानकारी थी। चलते-चलते दोनों रेगिस्तान में पहुंचे। सर्दियों के दिन थे। तापमान नीचे की ओर जा रहा था। रात को विश्राम के बाद सुबह चलने का समय हुआ। जो व्यक्ति देख नहीं सकते थे उनकी नींद सुबह जल्दी खुल गई। जहां रात को उन्होंने अपनी छड़ी रखी थी, वही सांप ने छिपकर ठंड से बचने की कोशिश की लेकिन ठंड कुछ ऐसी थी कि उसका शरीर एकदम अकड़ गया। संभवत: ठंड से वह बेहोश हो गया हो। अपनी चेतना खो बैठा हो।
अपनी छड़ी टटोलने की कोशिश में उन्होंने सांप को पकड़ लिया। और अपने मित्र को उठने के लिए कहा। मित्र की जैसे ही नींद खुली उन्होंने कहा इसे फेंक दीजिए यह आप की छड़ी नहीं है बल्कि सांप है। जो देख नहीं सकते थे उन्होंने कहा कैसी बात कर रहे हो, यह एक नरम मुलायम, चिकनी और बहुत ही कोमल लेकिन मजबूत छड़ी है। संयोगवश इतनी सुंदर छवि मुझे मिली है। ऐसा लगता है तुम्हें इससे ईष्र्या हो रही है, इसलिए तुम इसे सांप बता रहे हो !
देख सकने वाले मित्र ने समझाने की बहुत कोशिश की लेकिन न देख सकने वाले ने उसकी बात नहीं मानी। वह नए सफर पर निकल पड़े। जैसे ही सूरज ने धरती पर अपनी रोशनी फेंकी, गर्मी से सांप की चेतना वापस लौट आई। उसने अपनी जान बचाने की कोशिश में उन सज्जन को काट लिया, पकड़ से मुक्त हो गया।
जिन्होंने सांप को छड़ी समझ लिया था, उनकी आंखों में रोशनी नहीं थी, लेकिन यह इस संकट का एकमात्र कारण नहीं है। विश्वास की कमी, कुछ पाने की लालसा में अपने विवेक से समझौता, इस कहानी में संकट का बड़ा कारण हैं। हम सब एक तरह की बेहोशी में जी रहे हैं। ठीक उसी तरह जैसे नशे में धुत किसी शराबी से अगर आप उसके रात के आचरण के बारे में पूछें तो वह मना कर देगा। वह कहेगा उसने तो ऐसा किया ही नहीं। जिसने किया वह कोई दूसरा था। एक मायने में वह सही कह रहा है क्योंकि उसकी चेतना पर, उसके विवेक, समझ पर बेहोशी छाई हुई थी। इसलिए स्वयं से उसका नियंत्रण जाता रहा।
एक समाज के रूप में हम ठीक इसी तरह की बेहोशी का शिकार हैं। हम सब वही कर रहे हैं, जिसके लिए प्रशिक्षित किए जाते रहे। हमारे प्रशिक्षण के लक्ष्य बहुत छोटे हैं। हमारे हर छोटे से छोटे काम को हमने उद्देश्यों से जोड़ लिया है। हम अपने सुख के लिए नहीं जीते, इन छोटे-छोटे उद्देश्यों के लिए अपनी चेतना और समझ को ग़ुलाम बनाए रखते हैं। जीवन केवल जीते रहना नहीं है। उदारता, स्नेह और करुणा के बिना हमारा मन हमेशा अंधेरे में ही रहेगा!
कोरोना ने हमारी सामाजिकता को कठिन संकट की ओर धकेल दिया है। आर्थिक से अधिक यह सामाजिक प्रेम, उदारता और डर की चुनौती है। अपनी ही दुनिया में सिमटा हुआ आदमी उनकी तुलना में कहीं अधिक भयभीत होता है जिनके दायरे बड़े होते हैं। इसलिए यह समझना बहुत जरूरी है कि कोरोना का डर हमारे मन में तो नहीं बैठ गया। मन में बैठा डर शरीर की तुलना में कहीं अधिक नुकसानदायक होता है।
इसलिए यह समझने की जरूरत है कि हमें इस संकट का सामना एक-दूसरे के साथ ही करना है। एक-दूसरे के साथ रहते हुए ही करना है। एक-दूसरे का ख्याल रखते हुए करना है। यही सबसे अच्छी नीति है। कोरोना एक ऐसे समय पर हम सबके जीवन में आया है जहां परस्पर प्रेम, स्नेह और उदारता की दुनिया सिकुडऩे लगी थी। हम इतने अधिक आत्म केंद्रित हो गए थे कि हमें अपने अलावा दूसरे किसी की चिंता ही नहीं थी। इस बात की गवाही हम आसानी से पर्यावरण, नदी, जंगल और परिंदों से ले सकते हैं।
मनुष्य और प्रकृति अलग-अलग नहीं है। दोनों एक ही सफर के हमसफऱ हैं लेकिन हमने स्वयं को प्रकृति से बहुत अधिक दूर कर लिया। हम अधिकतर चीजों को सही और गलत केवल इस आधार पर मानते हैं कि अधिकतर लोग क्या कह रहे हैं! हम सही दिशा, दशा को समझने की कोशिश ही नहीं करना चाहते।
आइए, जिंदगी को उसकी पहचान की ओर ले चलें। अपने होने को दूसरों से नहीं खुद से जोड़ें। (hindi.news18.com)
-दयाशंकर मिश्र
जीवन की डोर के लिए सबसे जरूरी है प्रेम। केवल प्रेम। प्रेम की कमी मन को उसी तरह संकट में डालती है, जैसे शरीर को ऑक्सीजन की कमी!
एक बार हम सुनना सीख जाएं। फिर मन वैसे ही काम करने लगेगा, जैसे शब्दभेदी बाण किसी जमाने में किया करते थे। मन की आंख बहुत संवेदनशील है। सुनने का अभ्यास आपको अपनों के मन के संकट को पढऩे में बहुत मददगार साबित होगा। हम अपने ही लोगों का मन पढऩे में असफल हैं, इसीलिए तो हम आए दिन देखते हैं कि हमारे कितने ही नजदीकी लोग किस तरह से अपने जीवन को समाप्त करने का निर्णय ले लेते हैं। किसी का बेटा चौबीस बरस की उम्र में आत्महत्या कर लेता है, तो किसी की पत्नी, पति शादी के एक साल बाद जीवन को समाप्त करने का फैसला कर लेते हैं।
सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या को राजनीति ने अपनी जकड़ में ले लिया है। सुशांत की मौत हमारे समाज रूपी तालाब की गंदगी का संकेत थी, जिसे हमने केवल मछली की मौत के रूप में स्वीकार कर लिया है।
जिस बॉलीवुड में सुशांत ने बेहद कम समय में इतनी सफलता अर्जित कर ली उसके बारे में यह कहना कि वहां बाहरी लोगों के लिए जगह नहीं है, तर्कसंगत नहीं दिखता। उल्टे यह इरफान खान, नवाजुद्दीन जैसे अद्भुत कलाकारों के साथ अन्याय सरीखा है।
यह कहा जा रहा है कि बॉलीवुड बहुत कठोर है। वहां बाहरी व्यक्ति के लिए जगह नहीं है। यह हमारे समाज के मूल प्रश्न से भटकने का सटीक उदाहरण है। कौन-सा क्षेत्र है, जहां कठोरता नहीं है। जीवन के किस इलाके में उदारता बिखरी है! हमने ऐसे समाज का निर्माण किया है, जहां सफलता ही सबकुछ है। इसलिए इसके परिणाम भी ऐसे ही आएंगे।
परिस्थितियां जैसी भी हों, आत्महत्या विकल्प नहीं है। हमें हर हाल में जीवन के पक्ष में ही खड़े होना है। जीवन के पक्ष में खड़े होने के लिए जरूरी है, मन को संवेदनशील बनाया जाए। मन को सुनने लायक बनाया जाए। सुशांत के पक्ष में जितने लोग आज खड़े हैं, अगर इसके एक प्रतिशत भी उस समय उनके मन के सारथी बन गए होते, जब वह तनाव से जूझ रहे थे, तो संभव है, उनका जीवन बच जाता!
हम जीवित के साथ खड़े नहीं होते। जबकि ऐसा करने के लिए साहस और संवेदनशीलता के अलावा किसी गुण की जरूरत नहीं। हमारे बीच जब कोई आत्महत्या घटती है तो उसके बहाने हम दूसरों को घेरने की लहर में शामिल हो जाते हैं। तालाब की गंदगी को दूर करने की जगह हम मरी हुई मछली पर शोर मचाने में व्यस्त हो जाते हैं!
जिस तरह बॉलीवुड में किसी की अंतिम यात्रा के लिए भी खास कपड़े पहनने का रिवाज है। अब यह रंग समाज में उतर आया है। इस जीवनशैली को बदलिए। जीवित व्यक्तिव्यक्तियों के प्रति संवेदनशील बनिए। मन की गांठ, गहरी चिंता धीरे-धीरे हमारे मन से जीवन की आस्था, आशा की सुगंध और हृदय की कोमलता को मिटाती जाती है। इसलिए, जिनसे आप प्रेम करते हैं उनसे नियमित संवाद कीजिए।
यह समझने की भी जरूरत है कि बात-बात में डिप्रेशन शब्द का उपयोग मन के लिए ठीक नहीं है। हर छोटी-छोटी चिंता डिप्रेशन नहीं है। किसी सूचना पर मायूस होना। थोड़ी देर के लिए निराश हो जाना। यह मायूसी है। आशा की मात्रा मन से थोड़ी देर के लिए कम हो जाना है। मन का गहरी चिंता में डूबना, डिप्रेशन की ओर जाना है। इसके कुछ संकेत हमेशा ध्यान में रखिए।
अगर किसी व्यक्ति का व्यवहार दो सप्ताह से अधिक समय लिए बदला हुआ लगे। उसके स्वभाव में ज्यादा परिवर्तन दिखे। वह हर संकट को स्वयं सुलझाने की बात करने लगे, तो हमें ऐसे व्यक्ति के प्रति सजग होने की जरूरत है। हमारा कोई प्रिय नौकरी से परेशान है/प्रेम संबंधों में टकराहट है/दांपत्य जीवन में छटपटाहट है। बच्चा चाहकर भी अच्छे परिणाम नहीं दे पा रहा है। तो हमें इन सभी के प्रति मन में करुणा की जरूरत है। गहरे अनुराग और स्नेह की जरूरत है।
सफलता को केवल नौकरी की कीमत/ बिजनेस की कामयाबी से जोडक़र मत देखिए। मनुष्य होना, सुखी होना। जीवन में आनंद होना। इनका कामयाबी से कोई रिश्ता नहीं है। जीवन की डोर के लिए सबसे जरूरी है प्रेम। केवल प्रेम। प्रेम की कमी मन को उसी तरह संकट में डालती है, जैसे शरीर को ऑक्सीजन की कमी!
इसलिए प्रेम के प्रति सजग बनिए। स्नेह को जीवन की नींव बनाइए। नींव मजबूत होगी, तो वह किसी भी तरह का तनाव सरलता से सह जाएगी! जीवन यात्रा है। यात्रा में मुश्किलें आनी स्वाभाविक हैं। इसके प्रति सरलता सीखनी है, जीवन से बड़ी कोई दूसरी पाठशाला नहीं। यहां की पढ़ाई बहुत सरल है, बस हम रटने की जगह समझने की कोशिश करें! (hindi.news18.com)
-दयाशंकर मिश्र
मन की गांठ, कैंसर से कम खतरनाक नहीं। अगर कैंसर को सही समय पर नहीं पकड़ा जाए, तो जीवन छोटा हो जाता है। ऐसे ही मन की गांठ समय रहते न खोली जाए, तो यह जीवन के चंद्रमा पर पूरी तरह ग्रहण लगा सकती है!
हमारा मन समुद्र से गहरा है! समुद्र की गहराई का अनुमान तट पर खड़े होकर नहीं लग सकता। उसके लिए तो समंदर के भीतर ही प्रवेश करना होता है। मन का स्वभाव भी ऐसा ही है। मन के बारे में हमें इतने तरह के भ्रम हैं कि उन्हें सरलता से पहचानना संभव नहीं। मन हमें बाहर से वैसा ही दिखता है, जैसे समंदर में बर्फ के बड़े-बड़े पहाड़ दूर से दिखते हैं। ऐसा लगता है कि छोटे-मोटे टीले हैं, चट्टाने हैं। जहाज को इनसे खतरा नहीं, लेकिन होता अक्सर इसका उल्टा है। ‘टाइटैनिक’ फिल्म को देखें, तो इसका आधार मन की गलतफहमी है, जहाज के कप्तान की जानकारी में कमी नहीं। ‘टाइटैनिक’ के पास एक से बढक़र एक अनुभवी और गहरी जानकारी रखने वाले विशेषज्ञ थे, लेकिन वह भी समंदर के भीतर बैठे बर्फ के पहाड़ को ठीक से पकड़ नहीं पाए। क्योंकि दूर से वह बहुत छोटा दिख रहा था।
जीवन भी ठीक इसी मिजाज का है। डिप्रेशन (अवसाद) की छोटी-छोटी झलकियां हमें अक्सर दिखाई देती हैं, लेकिन हम इनको गंभीरता से नहीं लेते। हम मन में उगने वाले तनाव के खरपतवार को समय रहते हटाने का काम नहीं कर पाते। इसकी कीमत हमें जीवन की फसल के नुकसान के रूप में चुकानी होती है।
एक छोटी सी कहानी कहता हूं। इससे आपको अपने मन की शक्ति और संभालने में सहजता होगी।
एक पहलवान जिसे हराना अपने समय में बहुत मुश्किल था। अब बुजुर्ग होकर ज़ेन साधक बन गया था। ज़ेन बौद्ध धर्म की ही शाखा है जो जापान तक पहुंचते हुए कुछ परिवर्तन के साथ अधिक परिपक्व और तर्क के साथ नए रूप में करोड़ों लोगों के ज्ञान पाने का माध्?यम बनी।
यह बूढ़ा साधक अब पहलवानी से बहुत दूर आ गया था। उन दिनों एक नौजवान लड़ाके की बड़ी चर्चा थी। वह बहुत तेज़ तर्रार होने के साथ चतुर भी था। उसने अपने समय के सभी बड़े योद्धाओं को हरा दिया था। उसे ख्याल आया कि इस बुजुर्ग को हराकर ही वह सिद्ध माना जाएगा। तो उसने बुजुर्ग को चुनौती दे डाली।
बूढ़े साधक के शिष्यों ने उनको बहुत समझाया। लेकिन वह नहीं माने और युवा पहलवान की चुनौती स्वीकार कर ली। चतुर लड़ाका अपने सामने एक शांत, स्थिर लड़ाके को देखकर समझ गया कि इसकी शक्ति का केंद्र कहीं और है। उसने दूसरा उपाय अपनाया। उसने बूढ़े साधक को अपशब्द कहने आरंभ कर दिए। एक के बाद एक ऐसी अपमानजनक बातें कहीं कि कोई दूसरा होता तो बौखला जाता। लेकिन अनुभवी साधक एकदम शांत खड़ा रहा।
कुछ देर बाद युवा पहलवान बेचैन हो उठा। उसके सारे पैंतरे बेकार हो गए। उसने हार मान ली।
बुजुर्ग साधक से उसके शिष्यों ने पूछा, उसकी बातें सुनकर हमारा खून खौल रहा था। लेकिन आप शांत रहे, और वह हार गया। साधक ने केवल इतना कहा, उसने मेरे बारे में जो कुछ कहा, उनमें से कोई भी बात सच नहीं थी। इसलिए मैंने उनको स्वीकार नहीं किया। और हम, अपने मन पर दूसरों के कचरे को परत दर परत जमाते जाते हैं। मन को अंधेरे की ओर धकेलने वालों से सावधान रखना जरूरी है।
आइए, मन की ओर चलते हैं। चेतना की सारी जड़ें मन की गहराई में हैं। हम जैसे भी हैं, अपने मन के कारण ही हैं। इसलिए इसके काम करने के तरीकों को समझना सबसे पहला कदम है, जीवन की ओर।आइए समझें, दर्द की परतों को किस तरह धीरे-धीरे खोलना है।
मन में बैठे दर्द की परतों को धीरे-धीरे खोलिए। संवाद का मरहम ही इसे ठीक करने में सक्षम है। इसके सरीखा जादू किसी दूसरी दवा में नहीं। जब भी मित्र, परिचित, सहकर्मी, परिजन मन की पीड़ा/तनाव/मन की गांठ लेकर आपके पास आएं, तो उसे ‘हवा’ में मत उड़ाइए। उनको सुनिए, सुनना संकट सुलझाने की पहली किश्त है!
उससे मत कहिए कि अपनी नौकरी की चिंता करो। तुम्हारे ऊपर जिम्मेदारी का बोझ है। बेकार की बातों में उलझे हो! मत कहिए कि वह जिंदगी को समझ नहीं पा रहा है! नहीं समझ रहा, इसीलिए तो आपके पास आया है। मन की गांठ, कैंसर से कम खतरनाक नहीं।
अगर कैंसर को सही समय पर नहीं पकड़ा जाए, तो जीवन छोटा हो जाता है। ऐसे ही मन की गांठ समय रहते न खोली जाए, तो यह जीवन के चंद्रमा पर पूरी तरह ग्रहण लगा सकती है!
जब भी कोई मन की गांठ लेकर आपके समीप आए, उसे उतने ही स्नेह, अनुराग से सुनिए, जिस तरह हमारी जटिल बीमारी का इलाज करने वाला समझदार डॉक्टर हमारी बात सुनता है। अपनी व्यस्तता भूल जाइए जब कोई दोस्त/प्रियजन मन की कुछ बात कहने आया हो। अपने किंतु/ परंतु/ आशंका के बादल एक तरफ रख दीजिए। बस उसे सुनिए।
सुनने पर इतना जोर इसलिए, क्योंकि हम हमेशा जल्दबाजी में रहते हैं। किसी के लिए दो पल का समय भी तन्मयता और सघनता के साथ नहीं दे पाते। हम सुन नहीं पाते। बिना सुने कोई बात कैसे समझी जा सकती है। इससे कोई फर्क ही नहीं पड़ता कि कहने वाला कौन है! हमें तो बस सुनने का अभ्यास करना है। यह दूसरों से अधिक हमारे मन को स्वस्थ रखने के लिए उपयोगी है। यह मन को ठोस, सुंदर और निरोगी बनाता है। (hindi.news18.com)
-दयाशंकर मिश्र
मन में जब भी अतीत के घाव तैरने लगें, हमेशा उनको करुणा का मरहम दीजिए। क्षमा की खुराक दीजिए। कुछ जख्म होते हैं, जिनको भुलाना आसान नहीं होता लेकिन इतना इंतजाम तो किया ही जा सकता है कि वह कम से कम नुकसान दें।
जीवन संवाद में हम निरंतर प्रेम, अहिंसा, क्षमा और करुणा की बात करते हैं। जीवन का प्राथमिक उद्देश्य मनुष्य बनना होना चाहिए। मनुष्यता के इतिहास के महानतम नायकों में सबसे शक्तिशाली संदेश यही है। लेकिन हम लालच को सफलता, स्वार्थ को प्रेम और महत्वाकांक्षा में लालच को इस तरह मिलाने में व्यस्त हुए कि जीवन के असली रंग से ही दूर हो गए।
हम वर्तमान में रहना भूलते जा रहे हैं। जीवन संवाद को हर दिन मिलने वाले संदेश, ईमेल और व्हाट्सएप को अगर एक छोटा सा आधार मान लिया जाए तो नब्बे प्रतिशत लोग इसलिए प्रसन्न नहीं होते। सब से दूर रहते हैं क्योंकि वह अपनी स्मृतियों से अंधेरा ही खींचते रहते हैं। जबकि कठिन से कठिन परिस्थिति में रहने वाले मनुष्य के जीवन में भी प्रेम का ऐसा एक भी कोमल पल न हो यह संभव नहीं। लेकिन हम उस एक पल को महत्वपूर्ण नहीं मानते।
हम उसे जरूरी ही नहीं मानते, जो शीतल हवा है। आत्मा का अमृत किसी गहरे सागर में नहीं है वह हमारे पास ही है लेकिन अवचेतन मन में इतने गहरे बैठ गया है कि बिना किसी गहरी पुकार, प्रेम की गहरी आकांक्षा के वह बाहर नहीं आ सकता।
आपसे एक छोटी सी कहानी कहता हूं। संभव है उससे मेरी बात लिख सरलता से स्पष्ट हो पाएगी।
एक दिन सक्सेना जी (इनका नाम ही सक्सेना जी है) अपने मित्र से मिलने उसके घर पहुंचे। वह फोन पर सक्सेना जी की दुख भरी बातें सुन सुनकर परेशान हो गए थे। उसने सक्सेना जी से कहा आइए, स्वागत है। बताइए क्या सेवा की जाए।
सक्सेना जी अपने ऑफिस के बड़े अधिकारी थे। लेकिन रहते हमेशा दुखी। उन्होंने कहा ऐसी कोई विशेष इच्छा नहीं। उनके मित्र बड़े सुलझे हुए थे।
उनने सक्सेना जी को थोड़ी देर में घर के व्यंजन परोसने शुरू कर दिए। सक्सेना जी के सामने जो थाली आई उसमें बासी रोटियां थीं। एकदम ठंडी दाल थी। सब्जी थी जो दाल से भी ठंडी थी। उसके बाद इसी तरह की और भी चीजें हैं जो बिना संदेह बासी थीं। गर्मी के दिन थे। आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता था कि यह बचा हुआ खाना ही था जो सक्सेना जी को पेश किया गया! सक्सेना जी एकदम गुस्से से लाल हो गए। उन्होंने दोस्त से कहा यह क्या है मुझे बासी खाना पेश किया जा रहा है। मित्र ने उतनी ही सरलता से कहा नहीं देखिए चाय उबल रही है। वह एकदम ताजी है।
सक्सेना जी गुस्से में जरूरत थे लेकिन मित्र की सरल, सहज और बुद्धिमता पूर्ण जीवन शैली के कायल भी थे। इसलिए सोचने लगे कि इसका मतलब क्या है! मित्र ने अधिक परेशान न करते हुए अपने बच्चों से वह सभी बासी चीजें हटा लेने के लिए कहा। उसके बाद तुरंत लजीज? व्यंजन पेश किए गए! जिनकी सुगंध से घर महक उठा।
मित्र ने कहा, सक्सेना जी- मैंने आपसे कई बार निवेदन किया है बासी-बासी बातें न किया करो। जब देखो तब अतीत का दुख मन पर लादे रहते हो। जो बीत गया वह हमारे नियंत्रण से बाहर है! इसलिए उसकी चिंता में केवल हम घुल सकते हैं। लेकिन अतीत में टहलते रहने से कुछ हासिल नहीं होता। अतीत में हाथ-पांव मारने से भी कुछ नहीं मिलता। अतीत एक दलदल है, जैसे दलदल में जितनी ऊपर आने की कोशिश हम करते हैं उतना ही धंसते जाते हैं।
अतीत की तरह ही जो भविष्य होगा, उस पर भी हमारा बस नहीं। इसलिए हमें केवल वर्तमान के आनंद में रहने का अभ्यास करना चाहिए। मन में जब भी अतीत के घाव तैरने लगें, हमेशा उनको करुणा का मरहम दीजिए। क्षमा की खुराक दीजिए। कुछ जख्म होते हैं, जिनको भुलाना आसान नहीं होता लेकिन इतना इंतजाम तो किया ही जा सकता है कि वह कम से कम नुकसान दें। जीवन केे प्रति कृतज्ञता और आस्था के सिद्धांंत को अपना कर हम बहुत सारे ऐसेेे कष्टों से मुक्त हो सकते हैं, जो हमारे अपने ओढ़े हुए हैं। (hindi.news18.com)
-दयाशंकर मिश्र
हमारा दिमाग बहुत ही ताकतवर मशीन की तरह काम करता है। हम जैसे-जैसे उसे इनपुट देते हैं उसके आधार पर ही वह आउटपुट देता है। यहां भी चेतन और अवचेतन मन का संबंध महत्वपूर्ण हो जाता है।
कोरोना हम सबके जीवन को ऐसे मोड़ पर ले आया है, जहां पर सबके सामने तरह-तरह की चुनौतियां हैं। कुछ लोगों की दिशा ही बदल गई। बहुत से लोगों का काम हमेशा के लिए बदलने वाला है। बड़ी संख्या में लोगों को अपना काम बदलना पड़ेगा। इस बीच इस बदलाव के कारण मन पर जो दबाव पड़ रहा है, उसके कारण बड़ी संख्या में लोगों का जीवन अस्त-व्यस्त हो गया है।
जीवन संवाद के सजग पाठक महेश विश्वकर्मा ने जोधपुर से हमें लिखा है कि पिछले कुछ समय से वह ठीक से सो नहीं पा रहे हैं। उनको नींद नहीं आ रही। दिनभर की चिंताएं रात को मस्तिष्क पर सवार होकर मन में उतर आती हैं। मन में अधूरी चिंताएं हलचल पैदा करती हैं, दिमाग को विश्राम नहीं करने देतीं। यह तब है, जब महेश को अब तक किसी भी तरह का वित्तीय नुकसान नहीं उठाना पड़ा है। असल में वह भविष्य के प्रति बहुत अधिक आशंकित हैं। इसके साथ ही उन्होंने बहुत अधिक आशा बांध रखी है। देश, काल, परिस्थितियों को देखते हुए भी नहीं देखना हमारी बड़ी पुरानी समस्याओं में से एक है।
महेश दुनिया भर से आने वाली खबरों के कारण मानसिक रूप से परेशान हो रहे हैं। हमारा दिमाग बहुत ही ताकतवर मशीन की तरह काम करता है। हम जैसे-जैसे उसे इनपुट देते हैं उसके आधार पर ही वह आउटपुट देता है। यहां भी चेतन और अवचेतन मन का संबंध महत्वपूर्ण हो जाता है। हम अनेक बातों/चीज़ों को अवचेतन मन की ओर धकेलते जाते हैं। अनसुलझी बातें इक_ी होती जाती हैं। जैसे घर में कबाड़ जरूरी चीजें को संभाल कर रखने से शुरू होता है लेकिन धीरे-धीरे सभी बेकार की चीज़ें वहां जमा होती जाती है। अवचेतन मन भी ठीक इसी तरह से काम करता है। इसलिए हमें उसके प्रति सतर्क, जागरूक रहने की जरूरत है।
इसलिए, मन कैसे काम करता है। यह समझना जरूरी है। इससे हम उन रास्तों पर भटकने से बच जाएंगे, जिनका जीवन से कोई सरोकार नहीं होता। एक छोटी सी कहानी कहता हूं आपसे। इससे मेरी बात आप तक अधिक स्पष्टता से पहुंच पाएगी।
राजा के सबसे प्रभावशाली, बुद्धिमान मंत्री का पद रिक्त हुआ। राजा ने मंत्री से कहा- जाने से पहले वह इस पर किसी को नियुक्त करके जाए। प्रतियोगिता हुई, तरह-तरह की परीक्षाओं से अंत में दस उम्मीदवार बचे। अंतिम मुकाबला इन्हीं में से होना था। मंत्री ने सबको बुला कर कहा, एक सप्ताह का समय है। एक सप्ताह के बाद मुख्य परीक्षा होगी। हम देखना चाहते हैं कि आप में से कौन सबसे अधिक सजग दृष्टि रखता है। आप सबको एक बड़े कमरे में बंद किया जाएगा। दरवाजा भीतर से ही बंद होगा। वहां एक ताला लगा होगा। जो दरवाजा खोलकर बाहर आएगा, वही विजेता होगा।
सारे उम्मीदवार इस सूचना के बाद नगर के बाजारों में टहलने निकल गए। ऐसी किताब खोजने में जुट गए, जिनमें तालों के बारे में जानकारी हो। कुछ तो ताला बाजार में जाकर चाबियां भी इक_ी कर लाए। चोरी छुपे चाबियों को अपने कपड़ों में छुपा कर कमरे में परीक्षा के लिए पहुंचे। एक रात पहले सबको उस कमरे में बंद कर दिया गया। जिस दिन उस से निकल कर सीधे राजा के दरबार में पहुंचने का रास्ता खुल जाना था!
रात भर कोई नहीं सोया। केवल एक उम्मीदवार को छोडक़र जो न तो किताब खोजने गया और न ही ताले की चाबी। वह पूरी मौज में विश्राम में रहा। रात भर पूरी शांति से सोया। उसके अलावा बाकी नौ, सारी रात जागते रहे। सोचते रहे कि किस तरह दरवाजा खोला जा सकता है। अगले दिन रात भर के जागे और चिंता में डूबे उम्मीदवार तालाा खोलने में जुट गए। वह जो रात भर सोया था, गहरी शांति में था। उसक भीतर जरा भी बेचैनी नहीं थी। बाकी नौ जल्दबाजी में थे। सबने जाकर कोशिशें शुरू कर दीं। उस विशाल कमरे में कुछ ऊंचाई पर एक खिडक़ी थी। जहां वह बूढ़ा मंत्री शांति से बैठ कर सारे दृश्य देख रहा था।
जब सारे उम्मीदवार अपनी कोशिश में हार गए तो वह युवक शांति से उठा। उसने रात को ही गहराई से कमरे और दरवाजे को समझा था। वह शांति से दरवाजे के पास पहुंचा, और दरवाजे की सिटकनी खोलकर बाहर निकल आया।
बुजुर्ग मंत्री प्रसन्नता से झूमते हुए उसका स्वागत करने दरवाजे की ओर बढ़ गए। असल में ताला तो था लेकिन बाहर निकलने के लिए ताला खोलने की जरूरत नहीं थी। ताले को इस तरह लगाया गया था कि उसे बिना खोले ही बाहर जाना संभव था। लेकिन उसके अतिरिक्त सभी उम्मीदवार अपना सारा ध्यान, ज्ञान और चेतना ताले पर ही केंद्रित किए रहे इसलिए उन्हें ख्याल ही नहीं रहा इसके बिना भी दरवाजा खोला जा सकता है। (hindi.news18.com)
-दयाशंकर मिश्र
स्वतंत्रता, जितनी बाहरी जरूरत है उससे कहीं अधिक यह हमारी आंतरिक विचार प्रणाली से जुड़ी हुई है। अपने निर्णय को निष्ठा के कर्ज से दूर रख कर ही हम उस स्वतंत्रता की ओर बढ़ सकते हैं जिसकी हम अक्सर बातें करते हैं।
महाभारत की सबसे बड़ी शिक्षा में से एक है, निष्ठा के प्रति सतर्कता। महाभारत की पूरी कहानी में निष्ठा एक ऐसा किरदार है, जिसके आसपास पूरी कथा रची गई है। निष्ठा पर विचार करते समय इसमें से मनुष्यता, नैतिकता और न्याय का दृष्टिकोण भुला देने के कारण ही वह भीषण संघर्ष हुआ जिसकी कहानी महाभारत है। दुर्योधन के प्रति कर्ण की निष्ठा में इन तीनों गुणों की कमी है। उसकी निष्ठा की आंखें केवल और केवल दुर्योधन को देख पाती हैं। क्योंकि उनकी आंखों पर दुर्योधन के कर्ज की पट्टी बंधी है!
आज ‘जीवन संवाद’ में महाभारत की चर्चा इसलिए क्योंकि हमें बड़ी संख्या में पाठकों ने लिखा है कि वह कई बार ना चाहते हुए भी माता-पिता और परिवार के दबाव में, उनके प्रति निष्ठावान होने के कारण अपने निर्णय नहीं करते। परिवार में कुछ भी गलत होते हुए देखने के बाद भी उसके विरुद्ध खड़े नहीं होते। क्योंकि वह सम्मान और निष्ठा की डोर से बंधे होते हैं।
कर्ण का जीवन दुखमय है। उसमें दुख, उपेक्षा और प्रतिभाशाली होते हुए भी अधिकारों के प्रति वंचित किए जाने की पीड़ा है। ऐसी पीड़ा के बीच दुर्योधन जैसे सहारे के प्रति निष्ठावान होना स्वाभाविक तो हो सकता है लेकिन न्याय संगत नहीं। इससे मनुष्यता के इतिहास में कर्ण की भूमिका उसके सभी गुणों के बावजूद धूमिल होती जाती है। जबकि कर्ण जैसा दानवीर पूरी कथा में दूसरा नहीं है। निष्ठा के दूसरे उदाहरण स्वयं भीष्म पितामह जो धर्म के ज्ञाता, महावीर और हर प्रकार के संकट का सामना करने में सक्षम हैं। लेकिन वह भी कर्ण की तरह केवल सिंहासन के प्रति निष्ठावान हैं।
इसीलिए भीष्म पितामह और कर्ण का जीवन उस यश को प्राप्त नहीं होता जो उनसे बहुत कम प्रतिभाशाली और सक्षम दूसरे किरदारों को मिला। निष्ठा अक्सर ही हमसे उस समय मौन रहने को कहती है जब समाज को हमारी आवाज़ की जरूरत है। इसीलिए अक्सर विद्रोही, पढ़े लिखे और चैतन्य विचार के लोग राजनीति में सफल नहीं हो पाते। क्योंकि राजनीति उस तरह की निष्ठा की मांग करती है जिसकी पूर्ति बहुत हद तक भीष्म, द्रोण और कर्ण करते हैं। यहां विदुर का उल्लेख भी जरूरी है, जो इन सब के बीच धृतराष्ट्र की नौकरी करते हुए भी सत्य के पक्ष में सजगता से खड़े हैं। उनके बिना तो पांडवों की यात्रा आगे जाती नहीं दिखती।
इन सब किरदारों पर विस्तार से बातचीत हम जीवन संवाद के अगले अंकों में करेंगे, आज की बातचीत को हम कर्ण पर ही केंद्रित रखते हैं। कर्ण से हम क्या सीख सकते हैं! 'जीवन संवाद' के लॉकडाउन के दौरान एक व्याख्यान में यह प्रश्न पूछा गया। इस प्रश्न में शामिल था कि दोस्ती कर्ण जैसी होनी चाहिए!
कर्ण से हम बहुत कुछ सीख सकते हैं। लेकिन दोस्ती और निष्ठा के विवेक में अंतर करना जरूरी है। कर्ण से हम सीख सकते हैं, लोगों के तानों और 'लोग क्या कहेंगे' के बीच प्रतिभा को निखारते रहना। द्रोण जैसे गुरु से अपने अंगूठे की रक्षा करना। लेकिन इससे भी महत्वपूर्ण है, जो गलती की उसे नहीं दोहराना। किसी के प्रति निष्ठावान होते हुए भी अपने विवेक की ओर से आंखें नहीं मूंदना।
हमें इस बात को याद रखना ही होगा कि विवेक हमारा ही है। कर्ण दुर्योधन के राज्य से बाहर जाकर, उसका राज्य लौटा कर एक सामान्य जीवन जीने का विकल्प चुन सकते थे, यदि उन्हें सत्य के प्रति राज्य से अधिक अनुराग होता। कर्ण ने द्रौपदी वस्त्र हरण के समय जिस तरह का व्यवहार किया वह यह बताता है कि अपने मित्रों के प्रति सतर्क न रहने और निष्ठा की पट्टी आंखों पर बनी रहने के कारण हमारा दिमाग, चेतना कब अन्याय की ओर झुक जाए। इसका कोई ठिकाना नहीं।
व्यक्तिगत असहमतियों को हम अन्याय में नहीं बदल सकते। कर्ण के व्यक्तित्व का प्रकाश उस दिन निष्ठा की पट्टी ने धूमिल कर दिया जब उसने दुर्योधन की प्रसन्नता के लिए अपने मनुष्यता के दायित्व को भुला दिया।
हमें इस बात को स्पष्टता से समझना है कि किसी की मेहरबानियों का कजऱ् उतारते समय यह अवश्य ध्यान रखा जाए कि निष्ठा का अर्थ अपने विवेक और मनुष्यता के प्रति सतर्क विचारों से दूरी नहीं है। हम अक्सर निर्णय लेने के समय ऐसे ही विचारों से लगे रहते हैं। स्वतंत्रता, जितनी बाहरी जरूरत है उससे कहीं अधिक यह हमारी आंतरिक विचार प्रणाली से जुड़ी हुई है। अपने निर्णय को निष्ठा के कर्ज से दूर रख कर ही हम उस स्वतंत्रता की ओर बढ़ सकते हैं जिसकी हम अक्सर बातें करते हैं।
अपने जीवन को हम जितना अधिक स्वतंत्र बना पाएंगे, उसमें आनंद की सुगंध उतनी ही व्यापक होगी। इसलिए अपने विचार और मन को उधार के विचारों से जितना संभव हो दूर रखें। निष्ठा का अर्थ अपने विवेक और मनुष्यता के प्रति सतर्क विचारों से दूरी नहीं है! (hindi.news18.com)
-दयाशंकर मिश्र
इस समय हर कोई बहुत जल्दी में है, यह बात और है कि कोई कहीं पहुंचता दिखाई नहीं देता। अक्सर पहुंचकर भी रास्ते में ही रहते हैं!
बच्चों के लिए माता-पिता का आशावाद, चिंता नई चीज नहीं है। यह हमेशा से थी। हां, पहले यह बहुत हद तक ‘समय’ से आकार लेती थी। अब यह चिंता बच्चे की शिक्षा आरंभ होते ही तनाव में बदल जाती है। ‘डियर जिंदगी’ को बड़ी संख्या में अभिभावकों के सवाल मिल रहे हैं।
परीक्षा के कठिन मौसम में बच्चों से कहीं अधिक तनाव में अभिभावक रहते हैं। इस समय इंटरनेट पर दस साल का बच्चा एलेक्स छाया हुआ है। एलेक्स खुद को ‘ओशियानिया एक्सप्रेस’ का संस्थापक और सीईओ कहता है। एलेक्स ने ऑस्ट्रेलियन एयरलाइंस ‘क्वांटस’ के सीईओ एलन जोएस को चि_ी लिखकर अपनी एयरलाइंस खोलने के लिए मदद करने की गुजारिश की है। बच्चे ने लिखा, ‘प्लीज, मुझे सीरियसली लें, मैं एक एयरलाइंस शुरू करना चाहता हूं।’ एलन ने चि_ी का जवाब देने के साथ ही उन्हें मिलने के लिए भी बुलाया है।
यहां चि_ी के जिक्र का अर्थ केवल इतना है कि दुनिया के दूसरे समाजों में बच्चों को किस तरह लिया जाता है। बच्चे की चि_ी को एक सीईओ कितनी गंभीरता से ले रहा है, उसे संवाद का मौका दिया जा रहा है और उसे जितना संभव हो प्रोत्साहित किया जा रहा है। इसके उलट हमारे यहां माता-पिता केजी वन से लेकर पहली दूसरी में ही बच्चे के स्कूल में प्रदर्शन से दुखी हुए जा रहे हैं। हम अपने बच्चे को एक ऐसे ‘तुलना घर’ में धकेले जा रहे हैं जहां हर समय उसे परीक्षा से गुजरना है। बच्चे की रुचि, उसकी प्रतिभा के दायरे तलाशने की जगह हम पहले से चुनी, तय की हुई चीजें उसके ऊपर थोप रहे हैं।
हम बच्चे को ऐसे ‘दीवार’ की ओर धकेल रहे हैं जहां कोई खिडक़ी नहीं है जहां कोई रोशनदान नहीं, बस गहरा अंधेरा है। अब यह केवल संयोग की बात हो सकती है कि उसके धक्के से या तो दीवार में सुराग हो जाए या किसी वजह से कोई हाथ बढ़ाकर उसे दीवार के उस पार ले जाए। हम बच्चों पर अपने और अपने समय के वह सभी ग्लैमरस सपने थोप रहे हैं जिनसे उनके ‘कुछ हो जाने’ की आस है।
हमारे एक मित्र हैं जो किसी जमाने में गायक बनना चाहते थे, नहीं बन पाए तो आप अपने 15 बरस के बेटे में अपना सपना जीने की कोशिश कर रहे हैं। बच्चे की आवाज निसंदेह अच्छी है, लेकिन वह तो कंप्यूटर इंजीनियर बनना चाहता है। अमेरिका जाकर पढऩा चाहता है और भारत के लिए सुपर कंप्यूटर से बहुत आगे की कोई चीज तैयार करना चाहता है। वह अपने सपने को जीना चाहता है, मित्र बेटे के बहाने ‘अपने’ सपने को पूरा करना चाहते हैं। यह सपनों का टकराव नहीं, सपने का अतिक्रमण है।
अब जरा एलेक्स के सपने और इस बच्चे के सपने को सामने रखकर देखिए। एलेक्स के सपने को एक अनजान सीईओ का सहारा मिलता है। दूसरी ओर हमारे यहां एक पिता अपने सपने के लालच को संभाल नहीं पा रहा। बच्चे में उसके खुद के स्वतंत्र सपने को पूरा करने की हिम्मत कैसे भरेगा।
हमें बहुत गंभीरता से एक समाज के रूप में यह समझने की जरूरत है कि हम अपने बच्चों को कितनी स्वतंत्रता दे रहे हैं और कितनी देने की जरूरत है। बच्चों को महंगे स्कूल, महंगी जि़द, कपड़े और गैजेट की जगह अगर किसी चीज़ की सबसे ज्यादा जरूरत है तो ‘उनके’ सपनों की तलाश में मददगार बनने की। उनके भीतर की प्रतिभा को बिना किसी मिलावट के जानने और समझने की। बच्चों पर दांव लगाने की और उनके सपनों में साझेदार होने की। इससे हम बहुत हद तक उनके भीतर बढ़ रहे तनाव, गहरी निराशा और आत्महत्या जैसे खतरे को कम कर सकते हैं। (hindi.news18.com)
-दयाशंकर मिश्र
दूसरे को पराजित करने का भाव मनुष्य के मन को 'बदलापुर' बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है. जैसे ही इस बदलापुर की जगह करुणा को मिल जाती है हमारा मन दूसरों के प्रति कोमल होने लगता है.
हमारे मन में दूसरों के लिए जब कभी क्षमा का भाव आने लगता है तो उसे रोकने का काम कठोरता करती है. इस कठोरता को हम करुणा की कमी भी कर सकते हैं! इसलिए बहुत जरूरी है कि हम इस बात की ओर निरंतर ध्यान देते रहें कि मन में करुणा की मात्रा कहीं कम तो नहीं पड़ रही.
करुणा, जीवन में उस समय कम नहीं पड़ती दिखती जब हमें एहसास हो जाएगी सामने वाले के पास बहुत थोड़ा समय है. थोड़ा संवेदनशील होकर सोचिए. हम सबके जीवन इतने अधिक अनिश्चित और छोटे हैं कि उस में कठोरता की जगह बहुत कम होनी चाहिए. अगर हम करुणा के कोमल भाव को अपने हृदय में स्थान दे पाते तो संभव है कि समाज की दिशा कुछ और होती. मनुष्यता गहरा विचार है, हमने इसे समझने और जीवन में उतारने की जगह केवल रट लिया है.
ठीक उसी तरह जैसे 'पंचतंत्र ' की एक कहानी में साधु तोतों के समूह को शिकारियों से बचाने के लिए उन्हें सिखाता है, 'शिकारी आता है, जाल फैलाता है, लेकिन हमें जाल में नहीं फंसना है.' तोते जब यह दोहराने लगते हैं, तो साधु को भ्रम हो जाता है कि तोतों ने समझ लिया है कि अब वह शिकारी के जाल में नहीं फंसेंगे. वह उनकी शिक्षा को पर्याप्त समझ कर आगे बढ़ जाता है. लेकिन कुछ ही दिन बाद देखता है कि शिकारी अपना जाल समेट कर जा रहा है. उसमें फंसे तोते रटा हुआ पाठ दोहरा रहे हैं, शिकारी आता है ,जाल फैलाता है लेकिन हमें जाल में नहीं फंसना है!
हमारी स्थिति तोतों से बहुत अलग नहीं. जब बच्चा छोटा होता है तो हम सारी अच्छी बातें उसे सिखाने, समझाने की जगह रटाने में ऊर्जा खर्च करते हैं. नैतिक शिक्षा का जीवन में उपयोग करने की जगह जब से हम उसे रटने लगे, मनुष्यता, उसके साथी संकट की ओर बढ़ने लगे.
मनुष्यता का कटोरा इसलिए हर दिन रिक्त होता जा रहा है क्योंकि उसमें करुणा की कमी होती जा रही है. मन से करुणा का मिटना मनुष्यता का संकुचन है. तोते इसलिए संकट में नहीं पड़े क्योंकि उनके पास शिक्षा नहीं थी. शिक्षा तो थी उनके पास, लेकिन उन्होंने उसे जीवन की जगह पाठ/रटने में खोजा. हम भी यही गलती कर रहे हैं. हमने साक्षरता को ही शिक्षा मान लिया है.
किसी भी आदमी के पढ़े-लिखे होने का अंदाजा उसकी डिग्री देखकर नहीं लगाया जा सकता. साक्षरता अलग बात है और शिक्षा की रोशनी दूसरी बात. मेरे जीवन में दो महिलाएं ऐसी रहीं जिनकी साक्षरता का प्रतिशत शून्य है. मेरी दादी और मां. लेकिन मैं विश्वास पूर्वक कहता हूं कि दोनों ही शिक्षित हैं. शिक्षा और साक्षरता इतनी अलग-अलग बात है.
साक्षरता उस गली का नाम है जिस से गुजर कर आप शिक्षा की ओर थोड़ी आसानी से जा सकते हैं. लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि किसी के शिक्षित होने के लिए साक्षरता अनिवार्य है.
अब बात माफी और करुणा की. अगर हमारी दृष्टि में थोड़ी करुणा की मात्रा बढ़ जाए तो जीवन में तनाव, दुर्भावना और ईर्ष्या का बहुत सारा कचरा स्वयं ही मन से साफ हो जाता है. जैसे ही हमें पता चलता है इस व्यक्ति का जीवन अब सीमित है हमारे मन में उसके लिए करुणा आ जाती है. उसके दोष के प्रति हम विनम्र हो जाते हैं. हम सब का जीवन एक जैसा ही अनिश्चित और छोटा है.
निश्चित तो केवल मृत्यु है. लेकिन इस बात की तो हमने केवल रटा है. समझा नहीं है. अगर समझ गए होते तो हमारे भीतर करुणा अधिक होती. दया, प्रेम और ममता अधिक होती. लेकिन हम संसार में सबसे अधिक निश्चित मृत्यु को ही हमेशा अपने से दूर मानते हैं. इतने दूर कि उसके बारे में कभी विचार तक नहीं करते.
इस पर विचार/चिंतन न करने के कारण दूसरों के प्रति बदला मन में तैरता रहता है. दूसरे को नीचा दिखाने की भावना. दूसरे को पराजित करने का भाव मनुष्य के मन को 'बदलापुर' बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है. जैसे ही इस बदलापुर की जगह करुणा को मिल जाती है हमारा मन दूसरों के प्रति कोमल होने लगता है.
जैसे ही मन कोमल होता है, उसमें प्रेम उतरने लगता है. जिसके जीवन में प्रेम के फूल खिल जाते हैं उसके सारे संकट स्वयं हल हो जाते हैं. हमें अपने भीतर प्रेम को बढ़ाना है. करुणा को गहराई देनी है!
-दयाशंकर मिश्र
हमें इस बात को समझना होगा कि हम चाहते क्या हैं. जीवन में सपनों के पीछे दौड़ना और उन चीजों को हासिल करना जिन्हें हम कामयाबी कहते हैं, समझते हैं. इसमें कुछ भी खराबी नहीं है. तब तक जब तक हम उसे खुद से भी कीमती न समझने लगें.
हम जितने अधिक अकेले होते जा रहे हैं, हमारा मन उससे कहीं अधिक सुगंध, महक, उदारता और प्रेम से दूर होता जा रहा है. बोगनवेलिया सरीखा. दूर से देखने पर झाड़ी में इस पौधे की सुंदरता मन को मोहित करती है लेकिन पास जाते हैं, हमें समझ में आता है कि असल में इसमें पास आने जैसा कुछ नहीं. बोगनवेलिया, सजावटी फूल है. दूर से देखने पर ही इसका सुख है. इसमें वह सुगंध नहीं, जो मन को महका सके. यह आंखों के लिए तो फिर भी ठीक है, लेकिन जो प्रेम की आशा में इसके पास जाएंगे वह अनमने होकर ही लौटेंगे.
हम प्रेम से धीरे-धीरे इतने दूर होते जा रहे हैं कि हमारा मन बहुत तेजी से बोगनवेलिया की तरह होता जा रहा है. बाहर से दिखने में तो बहुत आकर्षण है, बहुत सजावट है. लेकिन भीतर रोशनी की कमी है. प्रेम की हवा नहीं है. स्नेह की उदारता नहीं. अगर कुछ बचता है तो केवल एक-दूसरे से प्रतिस्पर्धा. किसी भी कीमत पर आगे निकलने की होड़. अपनी सुगंध, स्वभाव से दूर जाकर हम बहुत अधिक हासिल नहीं कर सकते. क्योंकि इसकी कीमत चुका कर जो भी हमें मिलेगा उससे जीवन में उजाला नहीं आएगा.
चंद्रमा का उजाला उधार का उजाला होता है. बहुत अच्छी बात है कि चंद्रमा इस बात को जानता है. इसलिए वह शीतल है. लेकिन मनुष्य दूसरों के उजाले को अपना प्रकाश मानने की जिद किए बैठा है!
जीवन में अधिकांश लोग मन की सुगंध को बोगनवेलिया होने की चाहत में खोते जा रहे हैं. खुद से दूर निकलते जा रहे हैं. लॉकडाउन में मनुष्य के स्वभाव की इतनी विचित्र परतें सामने आ रही हैं, जिसका स्वयं हमें भी अंदाजा नहीं था. इतनी जल्दी लोग टूट रहे हैं जैसे उनके मन कांच के बने हुए. संघर्ष की धूप जरा सी उन पर पड़ी नहीं कि चटक जाते हैं. इस चटकने को हम ऐसे दिखाते हैं, मानो यह कोई बाहरी समस्या है.
हमारे अधिकांश प्रश्न बिल्कुल भीतरी होते हैं. एकदम अंदरूनी. लेकिन हम उन्हें बाहर-बाहर ही खोजते रहते हैं. तलाशते रहते हैं. अपने रिश्तों में प्रेम की कमी, जीवन में उल्लास, आनंद, उदारता और स्नेह की कमी भीतर से उपजी है. इसलिए उपजी, क्योंकि प्रेम, अहिंसा, क्षमा और करुणा से दूर होते जा रहे हैं. जंगल के बाहर खड़े होकर जंगल को महसूस नहीं किया जा सकता. उसके लिए तो जंगल के भीतर उतरना ही होगा. हमारा मन जो इतना बेचैन, उदास, परेशान दिख रहा है. उसके कारण बाहरी नहीं हैं. नितांत अंदरूनी हैं.
हमें इस बात को समझना होगा कि हम चाहते क्या हैं. जीवन में सपनों के पीछे दौड़ना और उन चीजों को हासिल करना जिन्हें हम कामयाबी कहते हैं, समझते हैं. इसमें कुछ भी खराबी नहीं है. तब तक जब तक हम उसे खुद से भी कीमती न समझने लगें. हमें इस बात को अपने भीतर उतारने की जरूरत है कि जिंदगी सबसे जरूरी है. जिंदगी का कोई विकल्प नहीं. वह अविकल्पनीय है.
हम जैसे ही जिंदगी का विकल्प ढूंढने लगते हैं, खुद को कमजोर करने लगते हैं. कुछ समय पहले अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत ने जो रास्ता अपनाया, वह जिंदगी के विकल्प खोजना है. सांसों की डोर टूटती के बाद कोई उजाला नहीं है. बस एक अंधेरा है. मुक्ति नहीं है, मुक्ति का भ्रम है. आत्महत्या मनुष्यता का की हत्या है. मानवता का वध है. इस विचार को खुद भी समझिए और दूसरों को भी इसके प्रति सजग करिए.
आत्महत्या को किसी भी तरह सही नहीं ठहराया जा सकता. जिन दुखों को हम इतना बड़ा मान बैठे हैं कि जीवन दांव पर लगाने को तैयार हैं. वह दुख नहीं, हमारी चेतना के अंधेरे हैं. प्रेम और क्षमा मनुष्यता के इतिहास की सबसे खूबसूरत मीनारें हैं. हम इनसे दूर चले गए, इसका अर्थ यह नहीं कि इनका अस्तित्व नहीं!
चलिए, अपने पास चलते हैं. खुद से प्रेम करते हैं. खुद को क्षमा करते हैं. खुद को प्यार करते हैं. बिना स्वयं को इनसे परिचित कराए इसे दूसरों के साथ कैसे किया जा सकता है. अपने जीवन को ही सबसे बड़ी प्रार्थना समझिए. जीवन में हर चीज़ को दोबारा हासिल करना संभव है, बस जीवन ही ऐसा है जिसे खोकर प्राप्त नहीं किया जा सकता. इसलिए अपने मन को प्रेम के निकट ले जाइए. उसे रेगिस्तान बनने से बचाइए. बोगनवेलिया बनने से बचाइए.
-दयाशंकर मिश्र
जीवन का सुख एक-दूसरे के साथ संबंध में संतुलन से है। कुछ उसी तरह जैसे हम कोई वाहन चलाते हैं। कार चलाते समय केवल ब्रेक पर पांव रखने से कार आगे नहीं बढ़ेगी। उसी तरह केवल एक्सीलेटर पर सारा जोर देने से कार पर नियंत्रण नहीं रहेगा।
कोरोना ने सेहत पर जितना संकट उत्पन्न किया है, उतना ही इसके कारण घर-परिवार में तनाव गहराया है। कोरोना दृश्य और अदृश्य दोनों रूप में बराबरी से कष्ट दे रहा है। हमें इससे पहले लंबे समय से इस तरह एक साथ, बंद कमरों में रहने का अभ्यास नहीं था। इसलिए, लॉकडाउन के बीच पारिवारिक तनाव, तकरार बढ़ती जा रही है। घर-परिवार में एकदम मामूली चीजों को लेकर तनाव बढ़ रहा है।
पति-पत्नी के बीच होने वाला सामान्य विवाद कलह की सीमा तक बढ़ रहा है। छोटी-छोटी बात पर झगड़े इतने अधिक हो रहे हैं कि साथ रहने की मिन्नतें करने वाले हम सब अब थोड़ी दूरी की प्रार्थना कर रहे हैं। ‘जीवन संवाद’ को इस बारे में बहुत से संदेश मिले हैं। हम बहुत अधिक सुनाने में यकीन रखते हुए ‘सुनने’ से दूर जा रहे हैं। हमारे बहुत से संकट केवल इस बात से बड़े होते जाते हैं कि हम सुनने को एकदम तैयार नहीं होते। हमें एक दूसरे के साथ रहते हुए एक-दूसरे का वैसा ही ख्याल रखना होगा जैसा हम दूर रहने वाले का करते हैं!
अति हर चीज की खराब है। भले ही वह साथ रहने की क्यों न हो। हम अक्सर दूरी का महत्व कम करके देखने लगते हैं। कोरोना ने हमें समझाया कि मनुष्य के लिए रिश्ता और उनके बीच सही तालमेल की कितनी जरूरत है। यह कुछ उसी तरह है, जैसे लॉकडाउन के दौरान हमारा प्रकृति के मामलों में हस्तक्षेप बंद हुआ तो पर्यावरण निखर गया। नदियां, फूल पत्ते, सब में हमने जो अति मिला दी थी। कोरोना ने उसमें अति हटाकर संतुलन कर दिया।
रिश्तों में भी कुछ इसी तरह के संतुलन की जरूरत है। खासकर उन दंपतियों के बीच जिनमें से कोई एक या दोनों कामकाजी हैं। ऑफिस के काम के साथ घर के काम को लेकर वहां तनाव नियमित होता जा रहा है।
दंपतियों के बीच तनाव को लेकर आज आपसे एक छोटी सी कहानी कहता हूं। संभव है, इससे आप मेरी बात सरलता से समझ जाएंगे। एक जेन साधक के पास उनके शिष्य ने अपनी परेशानी रखी। उनका कहना था कि उनकी पत्नी अत्यंत कठोर अनुशासन वाली है। उनके नियम कायदे अत्यधिक सख्त हैं। उसके थोड़ी देर बाद उनकी एक शिष्या ने ऐसी ही कुछ बात अपने पति के बारे में कही। साधक ने दोनों को बुलाया। अगले दिन दोनों को कहा गया कि वे अपनी पत्नी, पति के साथ आएं।
चारों लोगों से बात करते हुए साधक ने अपनी मुट्ठी बंद करते हुए कहा, अगर हाथ हमेशा के लिए ऐसा हो जाए तो आप लोग क्या कहेंगे। सब ने उत्तर दिया, यही कहेंगे कि हाथ खराब हो गया है। मुट्ठी नहीं खुल रही, तो अवश्य ही गंभीर संकट है। उसके बाद साधक ने अपने दोनों हाथ खोलकर फैला दिए। जेन साधक ने कहा, अगर हमेशा के लिए हाथ ऐसा ही हो जाए उंगलियां मुड़ें ही न तो कैसा होगा! इस पर भी चारों का यही उत्तर हुआ तब भी हाथ खराब ही कहा जाएगा।
साधक ने आनंदित होते हुए उंगलियों को खोलते-बंद करते, हवा में लहराते हुए कहा आपको याद रखना होगा, दांपत्य जीवन के सुख, आनंद का रहस्य इसमें ही है। साथ रहते हुए एक दूसरे के लिए बंधन के साथ सहज सम्मान, आज़ादी का इंतजाम करना ही होगा। इसके बिना बात नहीं बनेगी।
जीवन का सुख एक-दूसरे के साथ संबंध में संतुलन से है। कुछ उसी तरह जैसे हम कोई वाहन चलाते हैं। कार चलाते समय केवल ब्रेक पर पांव रखने से कार आगे नहीं बढ़ेगी। उसी तरह केवल एक्सीलेटर पर सारा जोर देने से कार पर नियंत्रण नहीं रहेगा। ब्रेक और एक्सीलेटर दोनों के संतुलन से ही वाहन का गतिमान और सुरक्षित होना संभव है। ठीक इसी तरह हमारा जीवन है। यह केवल रोकने से नहीं चलेगा। उसी तरह गति से भी नहीं चलेगा। यह संतुलन के सौंदर्य से ही सुगंधित होता है।
-दयाशंकर मिश्र