विष्णु नागर

एक किराएदार के कड़वे-मीठे अनुभव
02-Sep-2020 2:05 PM
एक किराएदार के कड़वे-मीठे अनुभव

-विष्णु नागर

किराए के घर बदलने का सबका अपना- अपना एक दिलचस्प इतिहास होता है। मेरा भी है।

शाजापुर में तो जैसा भी था, अपना मकान था, घर था। घर बदलना क्या होता है, किराएदार होना क्या होता है, इसका कोई अनुभव नहीं था। वहाँ ज्यादातर दोस्तों के अपने मकान थे। कुछ के पिता छोटे-मोटे अफसर थे, उनके पिता का स्थाानांंतरण होता रहता था, इसलिए वे किराए के मकानों मेंं रहते थे मगर दोस्त खुद तब किराएदार-मकानमालिक संबंधों के बारे में कुछ जानते न रहे होंगे। कभी यह विषय हमारी बातचीत में आया नहीं। वहाँ उस समय वैसे किराएदार मिल जाना ही बड़ी बात थी, तो तंग भी कौन करता! हमारे कच्चे मकान में भी आठ, दस और पाँच रुपये महीने के तीन किराएदार थे मगर मेरी माँँ ने उन्हें कभी तंग किया, यह याद नहीं।

दिल्ली आने के बाद ही मैं किराएदार बना, घर पर घर बदले। उनकी गिनती करने बैठूँगा तो शायद गड़बड़ा जाऊँ। बहुत आरंभ मेंं करीब एक महीने तक नार्थ एवेन्यू के एक फ्लैट की छत पर रात को सोनेभर की सुविधा मिली। नित्यकर्म की सुविधा भी वहाँ नहीं थी लेकिन कडक़ी के दिनों में सोने का ठिकाना मुफ्त में मिला तो शिकायत कैसी? शुक्रिया सर्वेश्वरजी, शुक्रिया कमलेशजी। आप दोनों इस दुनिया में नहीं हैं तो क्या हुआ, शुक्रिया।

उसके बाद हमारी सवारी किराए के मकान के लिए पहली बार यमुना पार के लिए चली।तब कहावत थी कि सारे दुखिया जमना पार।हम कौनसे तब सुखिया थे, सो उधर ही चल पड़े। ऐसे ही घूमते -घामते ,पूछते एक गली के एक छोटे दूकानदार के पास पहुँचे। उसने अभी-अभी कुछ एक-एक कमरे किराए पर देने के लिए बनाए थे। मेरे सीमित साधनों की दृष्टि से वह कमरा अच्छा लगा।टीमटाम कुछ था नहीं अपने पास। दिन में तो सब वहाँ सुहावना था। रात को वहाँ भयंकर मच्छर थे। उनसे बचाव का अपने पास कोई साधन नहीं था। दो दिन में वह घर बदला। उसका किराया था- तब 30 रुपये महीना। मकान मालिक से शिकायत की तो उस भले आदमी ने कहा, एक और कमरा है मेरे पास खाली पर यह उससे छोटा है। किराया 20 रुपये महीने।सीधे दस रुपये महीने की बचत मुझे हो रही थी। रहे होंगे उस कमरे में कोई छह महीने या शायद ज्यादा। अस्थायी रूप से आर्थिक स्थिति कुछ सुधरी तो एक बेहतर जगह छत पर एक कमरा और किचन ले लिया। इस बीच माँ को भी ले आया। इस बार किराया था 60 या पैंसठ रुपये। मकान मालिक- खासकर मालकिन काफी भली औरत थी। मुझे बहुत सीधा-अच्छा लडक़ा मानती थी, जो मैं था भी (मियांमि_ू) मगर सारा गड़बड़झाला मकान मालिक की लडक़ी ने किया। वह तब रही होगी- कोई चौदह-पंद्रह साल की। मैं इक्कीस का। उसकी बड़ी बहन एक और किराएदार से प्रेम करती थी। वह छोटामोटा व्यापारी था। उसकी माँ को भी इस प्रेम का पता था। वह खुद भी चाहती थी, यह मामला बढ़े और शादी तक पहुँचे। दोनों परिवार पंजाबी थे।

इधर उसकी छोटी बहन को भी बड़ी से प्रेम करने की प्रेरणा प्राप्त हुई होगी। उसे मैं इसका सुपात्र नजर आया। वह मेरी अनुपस्थिति में मेरी माँ का हालचाल लेने के बहाने आई और किताबों के बीच प्रेमपत्र रख गई। शाम को आया तो देखा।

अब अपना सीधापन एक न एक दिन गायब होना ही था। प्रेम घर चलकर आए तो हम भी कैसे रुक सकते थे! इतने भी सीधे, इतने भी बेवकूफ नहीं थे। अपनी और उसकी प्रेम करने में योग्यता-अयोग्यता, खतरे और संभावना पर विचार कौन करता तब!

उसी फ्लोर पर एक और शादीशुदा, दो बच्चोंवाले परिवार का मुखिया हमारे इस बढ़ते प्रेम का दुश्मन बना हुआ था। वह अपने कमरे के दरवाजे और खिडक़ी को हल्का सा उघड़ा रखता था। प्रेमिका ने इन दिनों छत पर कपड़े सुखाने की जिम्मेदारी ले रखी थी। वह आती और हम उसके नजदीक जाकर कुछ कहने की कोशिश करते तो वह हरामी खाँसखुँस कर रेड अलर्ट जारी कर देता। अरे भई तू शादीशुदा, तेरी बीवी सुंदर, तेरे दो बच्चे हैं। उम्र तेरी कोई बत्तीस-पैंतीस साल। मकान मालिक की तीन में से कोई लडक़ी, उस नाटे खूसट से प्रेम करे, इसकी कोई संभावना नहीं। तू भी किराएदार, हम भी किराएदार। तो तू काहे को दालभात में मूसलचंद बना हुआ है! ईष्र्या हो रही हो तो बीवी से ज्यादा प्रेम कर, बच्चों पर ध्यान दे और अपनी दुकान पर जा, खा-पी, मौज कर। पर नहीं साहब। जासूसी में लगे हुए हैं। उसे इस काम पर मकान मालिक ने लगानहीं रखा था, फिर भी स्वयंसेवक बने हुए हैं, चौकीदार बने हुए हैं।

उस चौकीदार ने हालत यह कर दी कि हम उसके हाथ भी क्या दो चार उँगली को जरा सा छूने से आगे न बढ़ सके।बस खतोकिताबत तक मामला सिमटकर रह गया। वह उस लडक़ी की माँ को भी भड़ाकाता था मगर हमारा उन पर इंप्रेशन इतना अच्छा था कि इसका उन पर कोई असर नहीं हो रहा था,यह बाद में पता चला। वह मान ही नहीं सकती थी कि मैं यानी यह नौजवान ऐसी ‘नीच’ हरकत भी कर सकता है!भली औरतों के ऐसे भोलेपन की अभ्यर्थना ही की जा सकती है।

मामला प्रेमपत्रों का हो और लंबा चले तो एक न एक दिन भांडा फूट ही जाता है पर इस सत्य का ज्ञान तब नहीं था। ज्ञान होता भी तो ज्ञानी बने रहना संभव नहीं था। एक दिन बालिका नहा रही थी। बाथरूम का ऊपर का हिस्सा हमेशा से खुला रहता था। इतनी ही हिम्मत थी कि प्रेमपत्र फेंकने का साहस किया। बालिका की उस पर नजर नहीं पड़ी। पत्र बाथरूम में पड़ा रहा और बालिका नहाकर बाहर आ गई।बस जी हमारे भलेपन की शामत आ गई। मकान मालकिन ने होहल्ला मचाना रणनीतिक दृष्टि से उचित नहीं समझा। वह मेरे पास आईं और धमकाया कि जान बचाना हो तो आज ही मकान ढूँढ कर सामान ले जा। इसके बाप को पता लगा तो तुझे काट डालेगा। और मैं तुझे सीधा समझती थी, यह तो दोहराया ही और बताया भी कि तेरी शिकायत तो मिली थी पर मैंने विश्वास नहीं किया। हम प्रेम में कटने-मरने तो आए नहीं थे दिल्ली। फौरन रणजीत नगर में नया मकान ढूँढा, सामान समेटा। वहाँ फायदा यह था कि पास ही शादीखामपुर में नेत्रसिंह रावत रहते थे, मेरे अभिन्न। उनके यहाँ जाना-मिलना आसान हो गया।

कान पकड़े कि अब से मकानमालकिन की लडक़ी या पड़ोसन से प्रेम नहीं करेंगे और इस एक प्रतिज्ञा पर हम अटल रहे। रंजीत नगर में एक कमरा -किचन था। शायद किराया 80 रुपये था।पास में एक और परिवार रहता था। उसका मुखिया एक दर्जी था। उसकी दो लड़कियाँ थीं। बड़ी कर्कशा थी, छोटी बेहद सीधी सादी, डरपोक। छोटी स्कूल जाती थी, बड़ी नहीं मगर छोटी बहन पर बहुत हुकुम चलाती थी। छोटी बेचारी जवाब नहीं दे पाती थी। सहती रहती थी। छोटी पर दया आती थी और प्रेम भी उमड़ता था। आँखों-आँखों में वह शायद समझ भी गई होगी मगर हमने इस बार कोई रिस्क नहीं ली। दूध के जले थे, तो हमने छाछ को फूँक-फूँक कर पीना भी मुनासिब नहीं समझा। छाछ को छुआ तक नहीं। प्रेम के क्षेत्र में कायर बने रहे क्योंकि पहले प्रेम के प्रेमपत्र के अलावा कुछ पल्ले नहीं पड़ा था।कुल ठोस उपलब्धि यही थी।

फिर शायद कम किराए के मकान के चक्कर में उसी इलाके में दूसरा कमरा लिया, उसमें किचन नहीं था। कुछ महीने ही रहे होंगे कि टाइम्स ऑफ इंडिया समूह में प्रशिक्षु पत्रकार की नौकरी के लिए बंबई प्रस्थान किया। दिलचस्प बात यह थी कि आखिरी दिन हमारे सामने रहनेवाली किसी अधेड़ औरत को पता चला कि हम सबकुछ छोड़छाड़ दिल्ली से जा रहे हैं। माँ भी मेरे साथ थी तो घर में कुछ सामान भी था। अचानक उसका हमारे प्रति प्रेम और सहानुभूति उमड़ पड़ी। वह मदद के लिए आ गई और जो भी हमारे पास छोडक़र जाने लायक सामान था, वह गरीब औरत माँगकर ले गई। एक तरह से उसने हमारी समस्या कम की।
ये था किस्सा आजतक। इंतजार करें कल तक।...


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