सुनील कुमार

हिंदी हो या अंग्रेजी; हर भाषा में छिपी है औरतों के साथ हो रही नाइंसाफी
28-Aug-2020 9:46 PM
हिंदी हो या अंग्रेजी; हर भाषा में छिपी है औरतों के साथ हो रही नाइंसाफी

अंग्रेजी में मैन से शुरू होने वाले शब्द बड़ी संख्या में मिलते हैं। वुमन से शुरू होने वाले शब्द ढूंढ़ें तो गिने-चुने ही निकलेंगे।

जब कभी किसी को इंसान का जिक्र करना हो, तो उसकी जगह पुरुष या मर्द का जिक्र करना काफी मान लिया जाता है। और तो और बहुत सी पढ़ी-लिखीं और सामाजिक कार्यकर्ता महिलाओं को भी बतलाने पर भी यह बात समझ नहीं आती कि उनकी जुबान में औरतों के साथ नाइंसाफी हो रही है।

ब्लॉग-न्यूज18 : सुनील कुमार

इन दिनों मीडिया के अच्छे-खासे जानकार लोग भी टीवी पर जिस तरह की जुबान बोलते हैं, और जैसी भाषा में लिखते हैं, उसमें अगर उनका नाम और चेहरा साथ न भी रहे, तब भी यह जाना जा सकता है कि लिखने वालों में मर्द अधिक हैं। लेकिन ऐसा भी नहीं कि लड़कियों और महिलाओं की जुबान में कोई बहुत बड़ा फर्क हो। जब कभी किसी को इंसान का जिक्र करना हो, तो उसकी जगह पुरूष या मर्द का जिक्र करना काफी मान लिया जाता है। और तो और बहुत सी पढ़ी-लिखीं और सामाजिक कार्यकर्ता महिलाओं को भी बतलाने पर भी यह बात समझ नहीं आती कि उनकी जुबान में औरतों के साथ बेइंसाफी हो रही है।

दरअसल सदियां या हजारों बरस से महिलाओं को किसी भाषा में कोई जगह ही नहीं दी गई है। यह सिलसिला दुनिया के अधिकतर देशों के आजाद होने, वहां कानून या संविधान लागू हो जाने, महिलाओं को बराबरी का दर्जा देने और इक्कीसवीं सदी आ जाने के बाद भी जारी है। जब इंसान कहना हो, तो आदमी कहना काफी मान लिया जाता है। किसी का ध्यान दिलाएं, तो भी उनका यह मानना रहता है कि आदमी का मतलब तो आदमी और औरत दोनों ही होता है। एक किस्म से यह सोचना गलत इसलिए नहीं है कि हिन्दुस्तान जैसे देवियों वाले देशों में देवी पूजा के सैकड़ों या हजारों बरस बाद जो संविधान बना, और जो कानून बना, कानून की धाराएं बनीं, उनमें कहीं भी औरत के लिए अलग से संबोधन नहीं है। कानून भारतीय नागरिक के लिए अंग्रेजी का ‘ही’ शब्द इस्तेमाल करता है, और उसे पुल्लिंग की तरह ही लिखता है। भारत का नागरिक कहीं जाता है, खाता है, रहता है, न कि भारत की नागरिक कहीं जाती है, खाती है, या रहती है।

आदमी का जिक्र इस तरह से किया गया है कि मानो धरती पर पहले आदमी ही आया। शरीर विज्ञान यह कहता है कि औरत से मर्द ने जन्म लिया, न कि मर्द से औरत ने (जैसा कि अभी हाल के बरसों में चिकित्सा वैज्ञानिकों ने जरूर कर दिखाया है)। नतीजा यह हुआ कि मानव में स्त्री और पुरुष दोनों आ सकते थे, लेकिन पुरुष के भीतर स्त्री को मानो गिन ही लिया है।

भाषा की लैंगिक बेईमानी देखें, तो जंगल में कोई शेर नरभक्षी हो सकता है, आदमखोर हो सकता है, मैनईटर हो सकता है, और मानो वह हिंदी जुबान में नारीभक्षी नहीं हो सकता, उर्दू में औरतखोर नहीं हो सकता, और अंग्रेजी में वुमैनईटर नहीं हो सकता। हालांकि जानवरों का जेंडर-इंसाफ इंसानों के मुकाबले बहुत बेहतर है, और वे आदमी और औरत को बिना भेदभाव निशाना बनाते हैं। खुद जानवरों की, पशु-पक्षियों की बिरादरी को देखें तो वहां आमतौर पर मादा को रिझाने के लिए नर मेहनत करते हैं, उनके लिए तोहफे लेकर आते हैं, कुल मिलाकर वे इंसानों से बेहतर होते हैं।

भाषा को अनायास ही नहीं गढ़ लिया गया। जिस भाषा के व्याकरण की एक-एक बारीकी को लेकर ज्ञानी लोगों ने बड़ी मेहनत की, और फिर जिसे समाज पर इस तरह लादा गया कि कम पढ़े-लिखे लोग हमेशा ही भाषा की शुद्धता में कमजोर बने रहें, जिस भाषा को सामाजिक गैरबराबरी के लिए एक औजार की तरह ढाला गया, उस भाषा को हमेशा से ही औरत के खिलाफ भी बनाया गया। दूसरी भाषाओं के कहावत और मुहावरे तो मैं अधिक नहीं जानता, लेकिन भारत की हिंदी, और हिंदी की क्षेत्रीय भाषाओं-बोलियों की कहावतें देखें, मुहावरे देखें, तो वे औरतों के लिए एक बड़ी हिकारत से गढक़र बनाई गई हैं। औरतों की जिक्र वाली अधिकतर कहावतें उन्हें बुरी, अपशकुनी, बदचलन बताने वाली होती हैं। शायद ही कोई सकारात्मक बात औरतों के बारे में लिखी गई है, और यह भी तब है जब औपचारिक हिंदी शुरू होने के पहले से, उसके सैकड़ों बरस पहले से इस देश में देवी-पूजा होती आई है।

भाषा का सामाजिक अन्याय देखें तो उसके सुबूत पाना बड़ा आसान है। अंग्रेजी में मैन से शुरू होने वाले शब्द अगर ढूंढ़े जाएं, तो बड़ी संख्या में सामने आ जाएंगे। वुमन से शुरू होने वाले शब्द ढूंढ़ें तो गिने-चुने ही निकलेंगे। हिन्दुस्तान ही नहीं, दुनिया के बाकी देशों में भी जहां अंग्रेजी में बोर्ड लगाए जाते हैं, वहां सडक़ बनाती हुई महिला मजदूरों के आसपास भी मैन एट वर्क के बोर्ड देखने मिल जाएंगे, महिला मजदूर का तो कोई अस्तित्व ही नहीं होता। अंग्रेजी भाषा में महिलाओं के साथ बेइंसाफी को लेकर अधिक हैरानी नहीं होती। हिन्दुस्तान में आजादी के बाद से पहले चुनाव से ही महिलाओं को वोट देने का हक मिला, जो अंग्रेजी बोलने वाले कई बड़े-बड़े देशों में नहीं था। जहां सरकार चुनने के लिए महिलाओं को वोट देने का हक न हो, वहां की भाषा उनके साथ इंसाफ करे यह बात अटपटी होती।

जो अमेरिका अपने लोकतंत्र को ढाई सौ बरस से अधिक पुराना बताता है, उस लोकतंत्र में 1920 तक महिलाओं को वोट डालने का हक नहीं था। जो ब्रिटेन अपने आपको लोकतंत्र की जननी कहता है, उस लोकतंत्र में भी सैकड़ों बरस के संसदीय इतिहास के बाद जाकर 1918 और 1928 में दो कानून बनाकर महिलाओं को वोट का हक दिया गया था। अंग्रेजी भाषा तो इन दोनों ही देशों में इसके सैकड़ों बरस पहले से बन चुकी थी, इसलिए उसमें तो किसी इंसाफ की गुंजाइश थी नहीं।हम हिन्दुस्तान के कई महान लोगों को देख लें, जिनका अधिकतर लिखा और कहा किताबों में दर्ज भी है। वे सिर्फ आदमी, पुरूष, आता, जाता, खाता, की जुबान लिखते थे या हैं। आने वाली सदियों को लेकर उनकी महान सोच थी, वे सामाजिक न्याय की बात भी करते थे, लेकिन उनकी भाषा में नागरिक के रूप में, इंसान के रूप में औरत कहीं भी नहीं दिखती। ऐसे दूरदर्शी, ऐसे विचारक भी कुछ दशक बाद के नारीवादी-आंदोलन की कल्पना नहीं कर पाए थे, उसके मुद्दों की कल्पना नहीं कर पाए थे। सच तो यह है कि गांधी और अंबेडकर के रहते हुए ही इंग्लैंड और अमेरिका में महिला अधिकारों को लेकर बड़े-बड़े आंदोलनों का इतिहास बन चुका था, लेकिन ऐसे महान लोग भी भाषा की बेइंसाफी को या तो समझ नहीं पाए थे, या उसे समझकर भी जारी रखना उन्हें ठीक लगा था। पल भर के लिए याद करें कि गांधी के विशाल प्रभाव के दौर में जब भारत की संविधान सभा इस देश के लोकतंत्र की शब्दावली भी गढ़ रही थी, तब भी राष्ट्रपति, राज्यसभा के उपसभापति जैसे शब्द बनाते हुए उन्होंने इन ओहदों को क्या कभी किसी महिला के साथ सोचा था?

आज भी गांवों से लेकर शहरी फुटपाथ तक, और महानगरों में बहुत पढ़ी-लिखी महिलाओं तक, अगर गंदी गालियां देना तय करती हैं, तो उनकी सौ फीसदी गालियां ठीक महिलाओं पर वार करने वाली रहती हैं, जिस तरह कोई मर्द गालियां देता है। मर्द भी मां, बहन, और बेटी के नाम की गालियां देता है, और औरत भी गाली देने पर उतरती है, तो वह भी ये ही तमाम गालियां इस्तेमाल करती हैं। भाषा के सबसे हिंसक पहलू, गंदी गालियों के पीछे की लैंगिक राजनीति को ज्यादातर महिलाएं समझ नहीं पातीं।

हिन्दी के बड़े-बड़े दिग्गज लेखक, अखबारनवीस, या दूसरे माध्यमों के मीडियाकर्मी अपनी भाषा में औरत के अस्तित्व को समझ ही नहीं पाते। फिल्मी दुनिया में जहां कई अभिनेत्रियां लगातार महिलाओं के हक के लिए सार्वजनिक रूप से लड़ती हैं, उन्होंने कभी इस बात का विरोध नहीं किया कि फिल्मी दुनिया में मिलने वाले पुरस्कार और सम्मान किस तरह एक्ट्रेस शब्द को खो चुके हैं, और अब वे एक्टर तबके के भीतर ही गिनी जा रही हैं। अभी कुछ बरस पहले तक तो फिल्मी पुरस्कारों में अभिनेता और अभिनेत्री, एक्टर-एक्ट्रेस जैसे तबके होते थे, जो कि अब खोकर महज एक्टर-मेल, और एक्टर-फीमेल हो गए हैं। एक्ट्रेस शब्द कहां गया, किसी को पता नहीं।

भाषा की इस इंसाफी की कहानी अंतहीन है, महिलाओं के साथ यह बेइंसाफी उसी किस्म की है जिस किस्म की बेइंसाफी भाषा में गरीबों के लिए, पति खो चुकी महिलाओं के लिए, बीमारों और गरीबों के लिए, जानवरों के लिए, बूढ़ों के लिए रहती है। भाषा की इस राजनीति का विरोध करने की जरूरत है। जिस किसी को लिखने और बोलने में जहां इंसान के लिए मर्द का इस्तेमाल दिखे, वहां जागरूक लोगों को उसके बारे में तुरंत ही लिखना चाहिए, फिर चाहे बहस के मुद्दा कुछ भी हों, बोलने के मुद्दा कुछ भी हों। आज सोशल मीडिया की मेहरबानी से लोगों को दूसरों के लिखे एक-एक शब्द पर रोकने-टोकने की सहूलियत हासिल है, और उसका इस्तेमाल करना चाहिए। (hindi.news18)

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