सुदीप ठाकुर

शहर की नब्ज पर था हाथ
13-Aug-2020 1:03 PM
शहर की नब्ज पर था हाथ

दो दिन पहले राजनांदगांव से दोस्त संजय अग्रवाल ने शरद कोठारी जी पर केंद्रित किताब के छपने की सूचना के साथ उसमें संकलित मेरे संस्मरण की तस्वीर खींचकर भेजी। शरद कोठारी छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश के लोगों के लिए जाना पहचाना नाम है। 1950 के दशक में अविभाजित मध्य प्रदेश की राजधानी नागपुर में कॉलेज की पढ़ाई के दौरान वह गजानन माधव मुक्तिबोध के संपर्क में आए थे। संभवत: पढ़ाई के दौरान ही वह मुक्तिबोध के साथ नया खून अखबार से भी जुड़ गए थे। 1958 में जब राजनांदगांव रियासत की पूर्व महारानी सूर्यमुखी देवी ने शहर में कॉलेज शुरू करने का इरादा जताया तो नांदगांव शिक्षण समिति का गठन किया गया, जिसमें बुद्धिजीवी, साहित्यकार, वकील इत्यादि शामिल थे। बताते हैं कि उसी दौरान पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी, बल्देव प्रसाद मिश्र के साथ ही मुक्तिबोध को इस कॉलेज से जोडऩे का फैसला किया गया। मुक्तिबोध को राजनांदगांव लाने में शरद कोठारीजी की बड़ी भूमिका थी। खुद कोठारीजी ने 1956 में सबेरा के नाम से एक पाक्षिक शुरू किया, जिसे बाद में सबेरा संकेत के नाम से दैनिक कर दिया गया। 1987-88 में कॉलेज की पढ़ाई करने के बाद मैंने भी सबेरा संकेत में करीब तीन महीने तक काम किया था। इसी 14 अगस्त को वे 85 वर्ष के हो जाते। गणेशशंकर शर्माजी ने कई वर्षों के परिश्रम और समर्पण के साथ उन पर यह संस्मरण ग्रंथ तैयार किया है। यह कहने में संकोच नहीं है कि मेरे पिता रविभूषण ठाकुर के सहपाठी और मेरे बड़े बाबूजी (ताऊ जी) के प्रिय शिष्यों में शुमार रहे शरद कोठारी जी की कालांतर की पत्रकारिता से कुछ असहमतियां रही हैं। मगर सबेरा संकेत एक समय राजनांदगांव की धडक़न हुआ करता था...। करीब चार वर्ष पहले मैंने यह संस्मरण लिखा था, तबसे बहुत कुछ बदल गया है.... आदरणीय शरद कोठारीजी को नमन....

-सुदीप ठाकुर

अभी बर्लिन की दीवार का गिरना बाकी थी। मिखाइल गोर्बाचेव के पेरेस्त्रोइका और ग्लासनोस्त का उत्तर अध्याय शुरू नहीं हुआ था। सोवियत संघ का टूटना बाकी था। आर्थर डंकल के मसौदे पर संघर्ष जारी था। दुनिया भर में विश्व व्यापार मंच (डब्ल्यूटीओ) अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ), विश्व बैंक (वल्र्ड बैंक) जैसी शब्दावलियों को बोलचाल का हिस्सा बनना बाकी था। नर्मदा बांध के खिलाफ मेधा पाटकर का अनथक संघर्ष जारी था। अंतत: इस लड़ाई को बांध की ऊंचाई तक सिमट जाना बाकी था। बी पी मंडल की सिफारिशों पर अमल बाकी था, और सोमनाथ से अयोध्या तक आडवाणी की रथयात्रा का निकलना बाकी था। अभी पी वी नरसिंह राव और मनमोहन सिंह की जोड़ी का देश को आर्थिक उदारीकरण के उस हाई वे पर ले जाना बाकी था, जहां से लौटने का कोई रास्ता दूर-दूर तक नजर नहीं आता था!

1980 के दशक के आखिरी वर्षों में ऐसे ही घटनाक्रमों की पृष्ठभूमि में 1987-88 में मैंने कॉलेज की पढ़ाई पूरी की थी। भविष्य को लेकर तस्वीर बहुत साफ नहीं थी। रायपुर में एकाध नौकरी भी कर ली थी, मन लगा नहीं सो छोड़ आया था।

तारीख याद नहीं, शायद सितंबर का महीना था, जब मैं राजनांदगांव के रामाधीन मार्ग स्थित सबेरा संकेत के दफ्तर पहुंच गया था। सुबह का समय था। शरद कोठारीजी सामने ही बैठे अखबार पलट रहे थे। मैंने कहा, आपके अखबार में काम करना चाहता हूं। थोड़े से औपचारिक सवालों के बाद उन्होंने कहा, कब से शुरू करोगे। मेरा जवाब था, जब आप कहें। बस उसी वक्त सबेरा संकेत की नौकरी शुरू हो गई। मैंने शायद तीन महीने भी सबेरा संकेत में काम नहीं किया था। लेकिन किसी अखबार के दफ्तर में काम करने का यह मेरा पहला अनुभव था।

शरद कोठारीजी पर कुछ लिखने के लिए मैं खुद को योग्य इसलिए नहीं पाता क्योंकि सिर्फ उम्र, ही नहीं, अनुभव के लंबे फासले के साथ ही वह मेरे दिवंगत पिता रविभूषण ठाकुर के स्कूल (स्टेट हाई स्कूल) के सहपाठी भी थे।

शरद कोठारीजी और सबेरा संकेत दरअसल एक ही सिक्के के दो पहलू कहे जा सकते हैं। हालांकि उनके व्यक्तित्व का यह सिर्फ एक आयाम था। सच यह है कि मैं राजनांदगांव की उस पीढ़ी से ताल्लुक रखता हूं जो उस दौर में बड़ी हुई, जब कोई कुछ भी हासिल कर लेता था, तो उसकी प्रामाणिकता तब तक संदिग्ध होती थी, जब तक कि वह सबेरा संकेत में नुमाया न हो जाए! सबेरा संकेत के दूसरे और आखिरी पन्ने में न जाने कितने लोगों को ‘नगर का गौरव’ होने का सौभाग्य मिला। राजनीतिक आंदोलन हो, साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधियां हो या किसी की पीएचडी पूरी हो, यदि उसकी खबर सबेरा संकेत में न छपे तो मानो उस पर कोई यकीन ही न करे। किसी कस्बानुमा शहर से निकलने वाले अखबार की ऐसी विश्वसनीयता बहुतों को हतप्रभ कर सकती है।

पिछले दिनों विधानसभा चुनावों के दौरान केरल की राजधानी तिरुवनंतपुरम से चुनाव लड़ रहे क्रिकेटर श्रीसंत ने एक साक्षात्कार के दौरान मुझसे कहा था कि अब वे अखबार पढऩे की शुरुआत स्पोर्ट्स पेज के बजाय फ्रंट पेज से करते हैं। मुझे लगता है कि सबेरा संकेत के आखिरी और दो नंबर पेज (मुझे पता नहीं कि अब इसका प्रोफाइल किस तरह का है) से शुरुआत करने वाले लोग अधिक होंगे, क्योंकि उसमें नगर से संबंधित खबरें छपती हैं। यह एक शहर से एक अखबार के जुड़ाव का सबसे बड़ा प्रमाण है। मैं खुद इसके अंतिम पृष्ठ का एक सजग पाठक रहा हूं। सबेरा संकेत के पाठकों को शरद कोठारीजी का आखिरी पेज पर छपने वाला कॉलम नगर दर्पण भी याद होगा। नगरवासी के नाम से लिखा जाने वाला यह कॉलम सिर्फ उनकी रोचक भाषा-शैली ही नहीं, बल्कि शहर की नब्ज पर उनका हाथ होने का भी प्रमाण था।

जैसा कि मैंने शुरू में कहा कि मैं उस दौर में पत्रकारिता में आया जब नई आर्थिक नीतियां लागू नहीं हुई थीं। 1991 के बाद उदारीकरण की प्रक्रिया लागू होने के बाद पत्रकारिता का भी पूरा परिदृश्य बदल गया। सबेरा संकेत की सबसे बड़ी सफलता यही है कि उस दौर में जब बड़े शहरों और राजधानियों से निकलने वाले अखबारों ने अपना कलेवर बदल लिया, जिला और तहसील स्तर तक के परिशिष्ट अलग से निकालने लगे तब भी वह कायम है।

दुनिया भर में अखबारों के भविष्य को लेकर बहसें हो रही हैं। पश्चिम के अमीर देशों में अखबारों का मर्सिया तक पढ़ा जा रहा है। अमेरिका का प्रतिष्ठित अखबार ‘न्यूयॉर्क टाईम्स’ का हाल यह है कि आज वह दुनिया भर में अपना कंटेंट बेचने को मजबूर हो गया है। उसकी सिंडिकेट सेवा हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं को अपना माल बेचने को मजबूर हो गई है। हालांकि भारत में परिदृश्य अभी इतना भयावह नहीं है। यहां आज भी अखबार फल-फूल रहे हैं, बेशक यह सवाल उठ सकता है कि उसमें से कितने ‘पीत’ और ‘प्रीत’ पत्रकारिता कर रहे हैं।

पत्रकारिता के सामने असल चुनौती अब गति की है। खबरिया टीवी चैनलों की चुनौतियों को तो अखबारों ने झेल लिया, लेकिन वेब पत्रकारिता और खासतौर से मोबाइल फोन पर खबरों के सिमट आने की वजह से मुश्किलें आने वाले समय में बढ़ेंगी। पूंजी भी अपने साथ चुनौतियां लेकर आ रही है। वह अखबारों को अपनी प्रतिबद्धताओं से दूर कर रही है?

तब रास्ता क्या होगा? तब सबेरा संकेत जैसे क्षेत्रीय अखबारों के लिए संभावनाएं बढ़ेंगी।

कुछ वर्ष पूर्व मुझे दिल्ली में हुए वान आइफ्रा (वल्र्ड एसोसिएशन ऑफ न्यूज पेपर्स ऐंड न्यूज पब्लिसर्श) के एक सम्मेलन और कार्यशाला में हिस्सा लेना का मौका मिला था। यह सम्मेलन युवा पाठकों पर केंद्रित था। वहां ब्राजील से निकलने वाले एक अखबार जीरो होरा (यानी जीरो ऑवर) की एक संपादक एंजेला रावाजोलो ने एक रोचक किस्सा बताया था। उसने बताया कि एक विश्व कप फुटबॉल के दौरान अर्जेंटीना और ब्राजील के बीच मुकाबला था। जीरो होरा ने फ्रंट पेज पर अर्जेंटीना की टीम की जर्सी का फोटो लगाया और कैप्शन लिखा, अर्जेंटीना के लिए चियर्स मत करना! और यह मैच ब्राजील जीत गया।

पाठकों से ऐसा जुड़ाव ही तो अखबार की ताकत है। सबेरा संकेत तो यह काम कर ही रहा है।

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