सुनील कुमार

यादों का झरोखा-11 : ...न पहले कोई इतना महान मजदूर नेता हुआ, न बाद में
09-Aug-2020 3:51 PM
यादों का झरोखा-11 :  ...न पहले कोई इतना महान मजदूर नेता हुआ, न बाद में

शंकर गुहा नियोगी पर कल अनायास ही लिखना शुरू कर दिया था, और अखबार के बाकी तमाम काम के बोझ के बीच बिना पुरानी जानकारी की मदद लिए जो-जो याद पड़ता है, बस वही लिखना मकसद भी था। रिकॉर्ड लिखने को तो बहुत से लोग किताबें लिख सकते हैं, और लिखते हैं। 

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कल शंकर गुहा नियोगी की हत्या की बात लिखी, और अपना यह मलाल लिखा कि उसके कुछ घंटे पहले ही दो-तीन दूसरे दोस्तों के साथ नियोगी भी मेरे पहुंचने की राह देख रहा था, लेकिन अपनी समझ बढ़ाने का वह एक मौका मेरे हाथ से ऐसा चूका कि अब कभी दुबारा आ नहीं सकता। 

नियोगी की हत्या इतनी बड़ी घटना थी, कि उसकी सीबीआई जांच एक स्वाभाविक बात थी। राज्य में भाजपा की सरकार थी, और दोनों ही बड़ी पार्टियों, भाजपा और कांग्रेस के नियोगी के खिलाफ होने की बात जगजाहिर थी। ऐसे में 48 बरस के इस शहीद की हत्या की सीबीआई जांच की मांग पीयूसीएल सहित अनगिनत संगठनों ने देश भर से की, और बाकी दुनिया से भी बहुत से संगठनों ने भारत सरकार को इसके बारे में लिखा। पटवा सरकार पर एक दबाव बना, और सीबीआई जांच की घोषणा की गई। 

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छत्तीसगढ़ में दोनों बड़ी पार्टियों और सीपीआई के लोग  पीयूसीएल और राजेन्द्र सायल के बड़े खिलाफ थे क्योंकि यह संगठन सत्ता में चली आ रही यथास्थिति को तोडऩे के लिए कुछ न कुछ करता था, और दोनों पार्टियों के पक्ष-विपक्ष में रहते हुए जो सबसे कमजोर तबका सबसे बेजुबान रहता था, उस तबके के हक के लिए पीयूसीएल लड़ता था। ऐसे में इन दोनों पार्टियों के लोगों को सीबीआई जांच को पीयूसीएल की तरफ मेड़ देना बड़ा आकर्षक लगा। तरह-तरह की जुर्म की कहानियां फैलाई गईं कि छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा के भीतर की लड़ाई के चलते राजेन्द्र सायल इस हत्या के पीछे हो सकते हैं। लोगों ने सारा हिसाब चुकता करने का यह एक अच्छा मौका ढूंढा। लेकिन सारे लोग इस हत्या से बेदाग रहे, और सीबीआई ने सिम्पलेक्स उद्योग समूह से जुड़े हुए उसी परिवार के चन्द्रकांत शाह और भाड़े के एक हत्यारे पल्टन मल्लाह को कत्ल का कुसूरवार ठहराया, और सजा दी। 

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चूंकि मौत के कुछ घंटे पहले शंकर गुहा नियोगी राजेन्द्र सायल, एन.के. सिंह के साथ तो थे ही, होटल के कमरे से पीबीएक्स से होते हुए प्रेस के मेरे नंबर पर भी फोन आए थे, इसलिए जांच में मुझसे भी पूछा गया कि मेरे पास फोन क्यों आए थे। उसका सच और आसान जवाब यही था कि मैं भी वहां आमंत्रित था। बात आई-गई हो गई, और पीयूसीएल विरोधियों ने आरोप लगाने में अपनी जो हसरत पूरी की थी, वह धरी की धरी रह गई। 

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नियोगी के बारे में एक बड़ी घटना लिखना कल छोड़ दिया था, और वह थी दल्लीराजहरा में नियोगी के आंदोलन के चलते हुए अधिक बरस नहीं हुए थे, और उनका आंदोलन बहुत जोरों पर था। ठेकेदारों के खिलाफ नियोगी का मजदूर संगठन अपने हक की लड़ाई लड़ रहा था। ऐसे में 1977 में परेशान ठेकेदारों की मदद करने के लिए पुलिस नियोगी को गिरफ्तार करने देर रात पहुंची। एक जीप में नियोगी को उठाकर पुलिस भाग निकली, लेकिन दूसरी जीप को मजदूरों ने घेर लिया और नियोगी की रिहाई पर अड़ गए। मजदूरों से भिड़ चुकी पुलिस ने गोलियां चलाईं जिनमें 7 मजदूर मारे गए थे। लेकिन फिर भी मजदूरों ने पुलिस को नहीं छोड़ा। अगले दिन बहुत सी पुलिस और पहुंची, और अपने साथियों को छुड़ाकर लाने के संघर्ष में कुछ और मजदूरों को गोलियों से भूना। लेकिन आंदोलन टूटा नहीं, और जेल में बंद अपने नेता की गैरमौजूदगी में भी बड़ी मजबूती के साथ यह आंदोलन चलते रहा। 

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नियोगी एक तरफ तो अपनी खुद की जिंदगी को एक आदर्श की तरह सामने रखते थे जिनकी पत्नी खुद सिर पर लौह अयस्क टोकरी में ढोती थी। दूसरी तरफ वे दुनिया के महानतम मजदूर सिद्धांतों, मशीनीकरण के खतरों को भरपूर पढ़े हुए नेता थे, और वे मौजूदा खतरे के अलावा आने वाले खतरे को भी समझ सकते थे। फिर नियोगी में यह खूबी दिखी कि वे मजदूर अधिकार से परे मजदूर-कल्याण को समाज सुधार की सीमा तक ले जाने की ताकत रखते थे, और उन्होंने अपने मजदूरों से शराब छुड़वाने के लिए एक बड़ी मुहिम छेड़ी थी जिससे शराब ठेकेदार भी परेशान थे, और शराब बनाने वाली कंपनियों के लोग भी। नतीजा यह था कि कारखानेदारों और ठेकेदारों के असर में भोपाल की सरकारें, और छत्तीसगढ़ की तमाम पार्टियां नियोगी के खिलाफ थीं। लेकिन नियोगी का आभा मंडल इतना बड़ा था कि उनके नक्सली होने, सीआईए एजेंट होने की तोहमतें भी हवा में अधिक टिक नहीं पाती थीं। 

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नियोगी के संगठन का बनाया हुआ दल्लीराजहरा का शहीद अस्पताल एक आदर्श है कि एक मजदूर संगठन अपने सदस्यों और उनके परिवारों के लिए क्या कर सकता है, उसे क्या करना चाहिए। बच्चों की पढ़ाई के लिए भी नियोगी ने एक अभियान सा छेड़ा, और उनका मजदूर संगठन उस पूरे इलाके में एक जनकल्याणकारी प्रशासन की तरह काम कर रहा था। हिन्दुस्तान में किसी भी दूसरी जगह अगर मजदूर आंदोलन ने इतना व्यापक विस्तार किया भी होगा, तो भी वह  कम से कम इस पल मुझे याद नहीं पड़ रहा। 

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शंकर गुहा नियोगी ने मजदूर संगठन का नाम छत्तीसगढ़ खदान मजदूर संघ रखा था, और राजनीतिक दल का नाम छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा। इन दोनों के सिलसिले में नियोगी का रायपुर आकर अखबारों से बात करना लगे रहता था। वह एक साधारण जीप में चलता था, और मीडिया के आम समझ के लोगों को राजनीति, अर्थशास्त्र, और मजदूर आंदोलन के जटिल पहलुओं को सरल तरीके से समझाता था। 

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कांग्रेस और सीपीआई से जुड़े हुए मजदूर संगठनों की साख नियोगी के सामने फीकी पड़ रही थी, और मजदूरों के बीच उनकी पकड़ भी खत्म होते चल रही थी, इसलिए इन सबका यह कहना था कि यह एक व्यक्तिवादी मजदूर आंदोलन है जो कि नियोगी के साथ ही खत्म हो जाएगा। लेकिन ऐसी तमाम भविष्यवाणियों के खिलाफ नियोगी की हत्या पर भी उनके शव के साथ चलते लाख मजदूरों ने अपना आपा नहीं खोया, और आज तक यह मजदूर संगठन अपने सालाना जलसे में उसी शांति के साथ इकट्ठा होता है। आज भी संगठन छत्तीसगढ़ का सबसे मजबूत मजदूर संगठन है, और यह नियोगी का एक बड़ा योगदान था जो उन्होंने अपने न रहने के दिन भी संगठन के चलने और मजबूत रहने की मजबूती उसे दी थी। 

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जिन लोगों ने नियोगी को देखा है वे जानते हैं कि ऐसा कोई मजदूर नेता इस प्रदेश में पहले हुआ नहीं, और अब नियोगी को गए 30 बरस हो रहे हैं, इन 30 बरसों में भी नियोगी के पासंग बैठने वाला भी कोई नेता छत्तीसगढ़ ने नहीं देखा है। नियोगी से जुड़े किस्से और भी बहुत कुछ हैं, लेकिन आज एक साप्ताहिक कॉलम, आजकल, लिखने का भी दिन है, इसलिए आज इससे अधिक और कुछ नहीं। बाकी फिर कभी। छत्तीसगढ़ के इस सबसे बड़े शहीद को सलाम। 

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-सुनील कुमार

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