सुनील कुमार

यादों का झरोखा-3 : कुएं के मेंढक सरीखे तरूण चटर्जी, ध्यान रखें यह गाली नहीं तारीफ है..
01-Aug-2020 2:06 PM
यादों का झरोखा-3 : कुएं के मेंढक सरीखे तरूण चटर्जी,  ध्यान रखें यह गाली नहीं तारीफ है..

राजनीति, सार्वजनिक जीवन, और शासन-प्रशासन में रहते हुए कोई व्यक्ति किस तरह कुएं का मेंढक हो सकता है, यह देखना हो तो रायपुर के महापौर, विधायक, और छत्तीसगढ़ की पहली सरकार के मंत्री रहे हुए तरूण चटर्जी को देखना चाहिए। कुएं का मेंढक लिखने मतलब किसी भी तरह तरूण चटर्जी, या मेंढक का अपमान करना नहीं है, इन दोनों को इस मिसाल पर आपत्ति हो सकती है, लेकिन तरूण चटर्जी के मिजाज का बखान करने के लिए इससे कम शब्दों में इससे बेहतर कोई मिसाल नहीं हो सकती। इसलिए तरूण चटर्जी की आत्मा, और उनके वक्त के कुएं के मेंढकों के आज के वंशज दोनों कृपया बुरा न मानें।

तरूण चटर्जी की सारी की सारी जिंदगी रायपुर म्युनिसिपल की सरहद, और उनकी अपनी विधानसभा सीट तक सीमित थी। भाजपा के 13 विधायकों को लेकर वे दल-बदल करके जोगी सरकार में शामिल हुए थे, और थोक के इस सौदे में उन्हें मंत्री बनना नसीब हुआ था। लेकिन पूरे प्रदेश के मंत्री रहते हुए भी उनके दिमाग के टॉवर की रेंज उनके विधानसभा क्षेत्र की सरहद पर खत्म हो जाती थी। अपने साम्राज्य में वे एक-एक गली-नाली को जानते थे, लेकिन बाहर के किसी को नहीं पहचानते थे। यह उनकी खामी नहीं थी, उनकी खूबी थी कि वे टेबिल लैम्प की रौशनी की तरह अपना सारा ध्यान फोकस रखते थे, अपने वोटरों तक सीमित रखते थे। 

तरूण चटर्जी ने विद्याचरण शुक्ल के साथ राजनीति शुरू की थी, और बढ़ते-बढ़ते वे अपने दम पर अपनी लोकप्रियता से महापौर चुने गए। एक महापौर का जितना ध्यान म्युनिसिपल की बुनियादी जिम्मेदारियों पर रहना चाहिए, उतना पूरे का पूरा ध्यान तरूण चटर्जी का रहता था। और वे दिन खासे मुश्किल के भी थे। छत्तीसगढ़ में दशकों तक विद्याचरण शुक्ल की मर्जी कांग्रेस पार्टी के अधिकतर लोगों के लिए हुक्म सरीखी रहती थी। फिर तरूण तो विद्या भैया के खेमे के थे, उनकी मर्जी से परे कुछ सोच नहीं सकते थे। और छत्तीसगढ़ की उस वक्त राजधानी न बने हुए रायपुर में हर कोई अपने काम को लेकर विद्याचरण तक पहुंच रखते थे। नतीजा यह था कि मेयर के लायक कोई काम भी अगर वीसी शुक्ला से होते हुए आता था, तो हैरानी नहीं होती थी। ऐसे में वीसी की मर्जी के साथ-साथ चलते हुए म्युनिसिपल को चलाना, और जनता के छोटे-छोटे काम करना, तरूण चटर्जी के पहले, और उनके बाद वैसा कोई दूसरा मेयर नहीं हुआ। 

उन दिनों राजधानी भोपाल रहती थी। मेयर को किसी भी काम के लिए भोपाल में मंत्री और सचिव के पास, और डायरेक्ट्रेट में जाकर डेरा डालना पड़ता था। तरूण चटर्जी तेज थे, वे अपने साथ अपने टाइपिस्ट और टाईपराईटर को लेकर जाते थे, और वहां मंत्रालय-सचिवालय, वल्लभ भवन, के बाहर पेड़ के नीचे टाईपिस्ट का डेरा डलवा देते थे। भीतर दफ्तरों में तरूण चटर्जी से जिस बात का प्रस्ताव बनाकर भेजने के लिए कहा जाता था, वह प्रस्ताव वे घंटे भर में लेकर वापिस सिर पर चढ़ बैठते थे। लोगों के साथ उनकी बातचीत का लहजा अपने साम्राज्य की जरूरतों से तय होता था, और वे किसी भी सीमा तक नरमी बरतते हुए मंत्री या अफसर के हाथ जोड़ लेते थे, और उनका यह मानना रहता था कि किसी निर्वाचित और पद पर बैठे नेता की अकेली इज्जत होने वाला काम रहता है, और कुछ नहीं। 

म्युनिसिपल की राजनीति में जितना जोड़तोड़ करना होता है, जितना छोटा-छोटा ख्याल रखना होता है, उसमें तरूण चटर्जी बहुत ही माहिर थे। एक गैरछत्तीसगढ़ी समुदाय के रहते हुए भी वे किसी भी स्थानीय जाति और समुदाय के बाशिंदे के मुकाबले अधिक छत्तीसगढ़ी, और अधिक स्थानीय थे। किसी को डांटकर, किसी को फटकार कर, किसी को पुचकार कर, और जरूरत रहे तो किसी की मुसाहिबी भी करके वे काम निकालते थे। 

राजनीति में तरूण चटर्जी ने कांग्रेस छोडक़र भाजपा में जाना तय किया क्योंकि उन्हें अपने इलाके का और अपना भला उस वक्त भाजपा में दिख रहा था। भाजपा से विधायक बनने के बाद उन्होंने रातोंरात 13 विधायकों के साथ भाजपा तोड़ी, मुख्यमंत्री निवास के रास्ते में नाम के लिए शायद एक कोई नई पार्टी बनाई, और कांग्रेस में चले गए। वे बुनियादी रूप से कांग्रेसी सोच के नेता थे, लेकिन उससे भी ऊपर वे गरीबों के नेता थे। उनके म्युनिसिपल इलाके में, और उनके चुनाव क्षेत्र में गरीबों का जितना भला हुआ, उतना शायद प्रदेश के किसी भी दूसरे विधानसभा क्षेत्र में नहीं हुआ होगा। तमाम गंदी बस्तियों और झुग्गी-झोपडिय़ों को बसाना, वहां बुनियादी सुविधाएं जुटाना, जमीन के पट्टे दिलवाना, रिक्शों का मालिकाना हक दिलवाना, एकबत्ती कनेक्शन दिलवाना, राशन कार्ड बनवाना, उनका रोज का काम था। मंत्री बनने के पहले तक कलेक्ट्रेट, म्युनिसिपल, और अनगिनत सरकारी दफ्तरों में वे जुलूस लेकर पहुंचते रहते थे, या प्रतिनिधि मंडलों के साथ जाकर अफसरों से गरीबों का काम करवाते थे। 

बहुत पुराने गांधीवादी सांसद केयूर भूषण को छोड़ दें, तो बाद की पीढ़ी में तरूण चटर्जी, और उनके एक दूसरे साथी नेता बलबीर जुनेजा जो बाद में मेयर भी बने, यही दो ऐसे नेता थे जो आए दिन कुष्ठरोगियों की बस्ती में जाते रहते थे, उनके साथ बैठते थे, उनके काम निपटाते थे। तरूण चटर्जी मोटे तौर पर गरीबों की राजनीति करते थे, उनके बुनियादी काम निपटाने के लिए किसी से भी भिड़ जाते थे, और हिकमतअमली से काम निकलवा लेते थे। 

उनके परिवार से राजनीति में किसी की दखल नहीं रही, और वे कुनबे के अकेले नेता बनकर रहे, और चले गए। राजनीति के इमरजेंसी के बाद से शुरू वे ऐसे दिन थे जब छत्तीसगढ़ में कांग्रेस और जनसंघ, या भाजपा के बीच कोई निजी कटुता नहीं रहती थी, और पक्ष-विपक्ष की अपनी-अपनी जगह दोनों एक-दूसरे के साथ सहअस्तित्व में जी लेते थे। तरूण चटर्जी की चर्चा जरूरी इसलिए है कि स्थानीय संस्थाओं की राजनीति में अपनी निजी महत्वाकांक्षा से, आत्मसम्मान और दंभ से ऊपर जाकर कैसे जनहित के काम करवाए जा सकते हैं, तरूण चटर्जी इसकी एक बड़ी मिसाल रहे। अपने वोटरों और आम लोगों के बीच एक जुझारू और कामयाब नेता की छवि के पीछे उनकी चतुराई भी थी, मेहनत भी थी, और कामयाबी भी थी। आज के वक्त जब छत्तीसगढ़ राज्य बन चुका है, और मेयर होने का मतलब मुख्यमंत्री का करीबी होना हो जाता है, तब वैसे जुझारूपन और वैसे संघर्ष के दिन लद गए। तरूण चटर्जी की कल्पना करने के लिए उनके वक्त का होना जरूरी है, उस वक्त तो उनके इलाके में हर कोई उन्हें अच्छी तरह जानते ही थे।

तरूण चटर्जी के लिए जिंदगी में एक बड़ी शिकस्त रही अपने ही घर के वार्ड से म्युनिसिपल का चुनाव हारना। वे इसके पहले मेयर रह चुके थे, विधायक रह चुके थे, लेकिन बड़े नेता हो जाने के बाद फिर मेयर बनने के लिए उन्होंने वार्ड का चुनाव लड़ा, और एक साधारण समझे जाने वाले नेता से हार गए। यह एक अलग बात है कि हार का विश्लेषण करने वाले लोगों ने इसकी वजह ढूंढ निकाली और कहा कि भाजपा के एक राष्ट्रीय स्तर के बड़े नेता सिकंदर बख्त रायपुर आए थे, और तरूण चटर्जी उन्हें प्रचार के लिए अपने वार्ड ले गए थे जहां की मुस्लिम आबादी भरपूर थी। उनकी चतुराई धरी रह गई दो मायनों में, एक तो यह कि बड़े नेता को छोटा चुनाव नहीं लडऩा चाहिए, दूसरी यह कि अतिआत्मविश्वास में मुस्लिम आबादी में भाजपा के बड़े नेता को वे ऐसे वक्त ले गए जब बाबरी मस्जिद गिरने के जख्म ताजा थे। बाकी कुछ और लोगों की चर्चा के दौरान तरूण चटर्जी के बारे में कुछ और बातें।

-सुनील कुमार

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