अपनी ओर देखना, मन पर जमा होने वाली धूल को साफ करते रहना मुश्किल तो नहीं लेकिन आसान भी नहीं। भीतर से इसके प्रति सजग नहीं होने के कारण हम इससे दूर ही रहते हैं!
होश संभालने से लेकर बड़े होने और जीवन के अंतिम चरण में प्रवेश करने तक हम अपनी ओर कितना कम ध्यान देते हैं। इसका शायद ही हमें कभी ख्याल रहता हो। हमारा पूरा ध्यान दूसरों पर ही केंद्रित रहता है। यहां जोर देकर कहना चाहूंगा कि यहां ‘आपके’ अतिरिक्त हर कोई दूसरा है। अपनी ओर देखना, मन पर जमा होने वाली धूल को साफ करते रहना मुश्किल तो नहीं, लेकिन आसान भी नहीं। भीतर से इसके प्रति सजग नहीं होने के कारण हम इससे दूर ही रहते हैं!
सबसे मुश्किल काम है अपनी ओर सहजता से देखते रहना। हर छोटी-छोटी बात पर हमारे आसपास जो तनाव गहरा होता जा रहा है, उसकी जड़ में सबसे अधिक एक दूसरे को सुनने की कमी के साथ ही प्रेम का सूखते जाना भी है। हमारे भीतर प्रेम केवल दूसरों के कारण ही कम नहीं होता। यह हमारे प्रति हमारी अपनी लापरवाही से भी कम होता जाता है! अपनी ही ओर से हम ध्यान हटा लेते हैं। सारा ध्यान दूसरे पर जो लगा रहता है!
थोड़ा ठहरकर सोचिए। सबसे अधिक परेशान क्या करता है। मन को सबसे अधिक नुकसान क्या पहुंचाता है। अपने ही विचार और भावना पर नियंत्रण नहीं होना हमारी सबसे बड़ी समस्या है। इस समस्या को हम हमेशा दूसरों की ओर धकेलते रहते हैं। हर चीज़ के लिए दूसरों की ओर देखते रहते हैं। अपनी ओर से एकदम संतुष्ट होकर हम दूसरों की ओर चीज़ों को उछलते रहते हैं। इस तरह हमारे आसपास समस्याएं बढ़ती जाती हैं, लेकिन समाधान कहीं नहीं होता। क्योंकि वह बाहर कहीं है ही नहीं।
कोरोना के कारण आर्थिक और मानसिक संकट दोनों गहरे हुए। जैसे एक तेज रफ्तार में चलती हुई रेलगाड़ी अचानक रुक जाए। चलते रहने से सब कुछ गति में होता है लेकिन अचानक ठहर जाने से जोर का झटका लगता है। उसके बाद भले ही थोड़ी देर रेलगाड़ी फिर अपनी गति को प्राप्त तकिया जाए, लेकिन मन में संदेह बढ़ जाता है। कोरोना के बाद अब चीजें पटरी पर लौटने की ओर बढ़ रही हैं, लेकिन संदेह बना हुआ है। हमारा स्वभाव ऐसा है कि संदेह आसानी से मन में बैठ जाते हैं, लेकिन विश्वास को जमने में वक्त लगता है।
इसलिए कोरोना के कारण रिश्तो में बहुत अधिक उठा-पटक देखी जा रही है। संदेह, दुविधा और अहंकार की टकराहट बढ़ती जा रही है। इसके लिए दूसरे कारणों के साथ अपनी ओर न देख पाना भी शामिल है। बल्कि इसे इस तरह से समझना चाहिए कि यह सभी कारणों से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है। एक छोटी सी कहानी से मैं अपनी बात समाप्त करूंगा। इससे संभव है मेरी बात अधिक स्पष्ट हो सकेगी।
एक राजा को इस बात का बहुत अधिक अभिमान था कि वह बहुत अधिक विनयशील है। सबसे मिलता भी वह बड़े ही प्रेम से था। उसकी विनम्रता और व्यवहार के किस्से बड़े ही मशहूर थे। एक दिन उसे पता चल कि बड़े प्रतिष्ठित, सिद्ध महात्मा के गांव से गुजरने वाले हैं। वह तुरंत उनकी सेवा में उपस्थित हो गया। राजा ने संत से कहा, ‘मैंने अपने सारे सुख त्याग दिए जनता के लिए। बहुत ही सादा जीवन जीता हूं।’ संत ने उसकी बात काटते हुए कहा, ‘यहां आकर आपने मेरे ऊपर कृपा नहीं की है! यहां लोभ में ही आए हो।’
संत की बात सुनकर राजा का चेहरा गुस्से से लाल हो गया। उनका हाथ कमर में टंगी तलवार तक पहुंच गया। संत ने खिलखिलाते हुए कहा, ‘राजन! अपनी ओर भी ध्यान देना है।’ अहंकार हर चीज के लिए घातक है। भले ही वह विनयशीलता, परोपकार का क्यों ना हो। तुमने इतना अधिक ध्यान दूसरों पर लगा दिया कि अपने ही मन से दूर हो गए!’ हमें देखना चाहिए कि हम भी क्या इसी ओर बढ़ रहे हैं।
-दयाशंकर मिश्र