दयाशंकर मिश्र
अपने कष्ट और दुख में अंतर करने से हम सुख को कहीं बेहतर ढंग से समझ पाएंगे। शरीर का संबंध कष्ट से है। मन का संबंध दुख से है। हमें दोनों को अलग-अलग तरह से समझना पड़ेगा।
सुख को हम कितनी ही चीजों से तौलते रहते हैं। तलाशते रहते हैं। सुखी होने के अवसर खोजना किसी राही के कड़ी धूप में इस जिद पर अड़ा रहने सरीखा है कि वह केवल बरगद के नीचे ही विश्राम करेगा। घनी छांव के बिना वह कहीं नहीं ठहरेगा! जबकि संभव है, उस रास्ते बरगद मिले ही नहीं! हम सब जाने अनजाने कुछ इसी तरह का जीवन जीते चले जाते हैं।
एक मित्र के दांत में बहुत तेज दर्द था। डॉक्टर को दिखाया गया, दवाई दी गई। लेकिन वह बार-बार यही कहते दर्द ठीक हो जाए, तो मैं सुखी हो जाऊंगा। मैंने उनसे निवेदन किया, जब दांत का दर्द नहीं था, तो आप पूरी तरह सुखी थे! वह कुछ सोच-विचार में पड़ गए। इसी तरह एक मित्र को कुत्ते ने काट लिया, तो उनके परिजन ने कहा, बड़ा दुख हो गया। कुत्ते ने अमुक जगह की जगह कहीं और काटा होता, तो ठीक होता!
मित्र से कहा, अपने ही शरीर के अंगों से इतना भेदभाव ठीक नहीं! ईश्वर की बड़ी कृपा है कि पांव में काटा। हाथ में काटता तो अधिक कष्ट होता। काटा, लेकिन इस तरह नहीं काटा कि कामकाज में समस्या आ जाए। यहां जीवन को ऐसे ही देखने की परंपरा है। दांत के दर्द वाले मामले हमारे बीच बहुत सारे हैं और हमारे सुखी होने की राह में आए दिन बाधा पहुंचाते हैं। अगर दांत का दर्द नहीं था और उसके पहले आप सुखी नहीं थे, तो यह जो कष्ट आया है, उसके जाने के बाद भी आप सुखी हो जाएंगे, इसकी कोई गारंटी नहीं!
सुखी होने के बारे में बड़ी सुंदर बात मुझे एक लघु कहानी में मिली। एक बार एक राजा बहुत परेशान होकर एक साधु के पास पहुंचा और उससे कहा, सब कुछ है, लेकिन सुख नहीं। साधु ने कहा, सुखी होना मुश्किल नहीं है। लेकिन, अभी होना होगा! सुख अगर कहीं है, तो वह इसी क्षण में है। अभी है। अभी सुखी हो जाओ, अगले क्षण का क्या भरोसा! जब हमारा जीवन इतना अनिश्चित है, तो सुख का क्या भरोसा। सुख को कुछ घटने से मत जोडक़र देखो!
मुझे यह बात बहुत प्रीतिकर लगती है। अभी, सुखी हो जाना! अपने किए गए परिश्रम और प्रयास के परिणाम से सुख-दुख की आशा करना हमारा स्वभाव तो है, लेकिन इससे जीवन में सुख नहीं उतरता। महाभारत में पांडवों की कहानी से बढक़र दूसरा सुख का उदाहरण नहीं। वे प्रयास कर रहे हैं, परिश्रम कर रहे हैं। यात्रा कर रहे हैं। गलतियां कर रहे हैं, लेकिन कृष्ण निरंतर उनके मन को कोमल और सुखी बनाने का प्रयास कर रहे हैं। शक्तिशाली तो वे हैं ही, कृष्ण केवल उनको सुख को समझाने का प्रयास कर रहे हैं। जिससे मन में आनंद का भाव बना रहे। निराशा से कुंठा प्रबल न हो जाए।
पांडव कितनी ही गलतियां कर रहे हैं, लेकिन वह अपने सुख-दुख के लिए स्वयं को ही जिम्मेदार मानते हैं। यह महाभारत की बड़ी शिक्षा है। अपने कष्ट और दुख में अंतर करने से हम सुख को कहीं बेहतर ढंग से समझ पाएंगे।
शरीर का संबंध कष्ट से है। मन का संबंध दुख से है। हमें दोनोंं को अलग-अलग तरह से समझना पड़ेगा। कष्ट और दुख एक नहीं हैं। पैर में चोट लगने पर कष्ट तो हो सकता है, लेकिन दुख नहीं। इसी तरह किसी के प्रवचन से हमें दुख होता है, कष्ट नहीं!
इस अंतर को गहराई से मन के स्वीकार करते ही हम अनेक प्रकार के मानसिक संकटों से बाहर निकल आते हैं। इस अंक में फिलहाल इतना ही। इस पर हम विस्तार से बात जारी रखेंगे! (hindi.news18.com)
-दयाशंकर मिश्र