कोई चालीस दिनों से देश के एक कोने में चल रहे आंदोलन, कड़कती ठंड के बीच भी किसानों, महिलाओं और बच्चों की मौजूदगी, अश्रु गैस के गोले और पानी की बौछारें, हरेक दिन हो रही एक-दो मौतें और इतने सब के बावजूद सरकार की अपने ही नागरिकों की बात नहीं मानने की हठधर्मी और अहंकारी-आत्मविश्वास के पीछे कारण क्या हो सकते हैं?
पहला कारण तो सरकार का यह मानना हो सकता है कि गलती हमेशा नागरिक करता है, हुकूमतें नहीं। दूसरा यह कि जनता सब कुछ स्वीकार करने के लिए बाध्य है। वह कोई विरोध नहीं करती ऐसी ही उसे उसके पूर्व-अनुभवों की सीख भी है। नोटबंदी, आपातकाल की तरह ही, राष्ट्र के नाम एक संदेश के साथ आठ नवम्बर 2016 को लागू कर दी गई थी ।तब के वित्त मंत्री अरुण जेटली ने बाद में दावा किया कि सिर्फ़ तीन बैंक कर्मियों और एक ग्राहक समेत कुल चार लोगों की इस दौरान मौतें हुईं। विपक्ष ने नब्बे से ज़्यादा लोगों की गिनती बताई। करोड़ों लोगों ने तरह-तरह के कष्ट और अपमान चुपचाप सह लिए। सरकार की आत्मा पर कोई असर नहीं हुआ। उसका सीना और चौड़ा हो गया।
कोरोना के बाद देश भर में अचानक से लॉक डाउन घोषित कर दिया गया। लाखों प्रवासी मज़दूरों को भूखे-प्यासे और पैदल ही अपने घरों की तरफ़ निकलना पड़ा। वे रास्ते भर लाठियाँ खाते रहे, अपमान बर्दाश्त करते रहे। सरकार के ख़िलाफ़ कहीं कोई नाराज़गी नहीं ज़ाहिर हुई। सरकार का सीना और ज़्यादा फूल गया। संसद के सत्र छोटे कर दिए गए अथवा ग़ायब कर दिए गए। विपक्ष की असहमति की आवाज़ दबा दी गई। जनता की ओर से कहीं कोई शिकायत नहीं दर्ज कराई गई। सरकार ने मान लिया कि जनता सिर्फ़ उसी के साथ है। जो लोग आंदोलनकारियों के साथ हैं वह जनता ही नहीं है। सरकार अब जो चाहेगी वही करेगी। वह ज़रूरत समझेगी तो देश को युद्ध के लिए भी तैयार कर सकती है।
किसान आंदोलन को लेकर सरकार के रवैये में व्यक्त हो रहे एकतंत्रवादी स्वरों की आहटें अगर 2014 में ही ठीक से सुन ली गईं होतीं तो आज स्थितियाँ निश्चित ही भिन्न होतीं।मई 2014 में पहली बार सत्ता में आने के केवल कुछ महीनों बाद ही (दिसम्बर 2014) मोदी सरकार ने भूमि अधिग्रहण से सम्बंधित एक अध्यादेश जारी कर दिया था। उसका तब ज़बरदस्त विरोध हुआ था और उसे किसान-विरोधी बताया गया। अध्यादेश के चलते सरकार की छवि ख़राब हो रही थी फिर भी वह उसे वापस लेने को तैयार नहीं थी। कारण तब यह बताया गया कि ऐसा करने से प्रधानमंत्री की एक मज़बूत और दृढ़ नेतृत्व वाले नेता की उस छवि को झटका लग जाएगा जिसके दम पर वे इतने ज़बरदस्त बहुमत के साथ सत्ता में आए हैं।
विधेयक को क़ानून की शक्ल देने के लिए सरकार डेढ़ वर्ष तक हर तरह के जतन करती रही। विधेयक को दो बार संसद में पेश किया गया, तीन बार उससे सम्बंधित अध्यादेश लागू किया गया, कई बार उस संसदीय समिति का कार्यकाल बढ़ाया गया जो उसकी समीक्षा के लिए गठित की गई थी, तमाम विरोधों के बावजूद उसे लोकसभा में पारित भी करवा लिया गया। पर राज्य सभा में बहुमत न होने के कारण यह सम्भव नहीं हो सका कि उसे क़ानूनी शक्ल दी जा सके।
देश को जानकारी है कि जो सरकार एक किसान-विरोधी एक विधेयक को 2016 में क़ानून में तब्दील नहीं करवा पाई उसने 2020 आते-आते कैसे एक पत्रकार उपसभापति के मार्गदर्शन में तीन विधेयकों को राज्य सभा में आसानी से पारित करवा लिया। कहा नहीं जा सकता कि जिस किसान-विरोधी विधेयक को सत्ता में आने के कुछ महीनों बाद ही सरकार ने अपनी नाक का सवाल बना लिया था पर वह उसे क़ानून में नहीं बदलवा पाई वह आगे किसी नए अवतार में प्रकट होकर पारित भी हो जाए। अब तो स्थितियाँ और भी ज़्यादा अनुकूल हैं।
सरकार ने पिछले चार वर्षों के दौरान अपनी छवि को लेकर सभी तरह के सरोकारों से अपने आपको पूरी तरह आज़ाद कर लिया है।प्रधानमंत्री ने जैसे ‘अपने’ और ‘अपनी जनता’ के बीच उपस्थित तमाम व्यक्तियों और संस्थाओं को समाप्त कर सीधा संवाद स्थापित कर लिया है, वे उसी तरह कृषि क़ानूनों के ज़रिए किसानों और कार्पोरेट ख़रीददारों के बीच से तमाम संस्थाओं और व्यक्तियों को अनुपस्थित देखना चाहते हैं। अगर 2014 का अध्यादेश राष्ट्रीय स्तर पर नाक का सवाल बन गया था तो 2020 के कृषि क़ानून अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सरकार की प्रतिष्ठा के सवाल बना दिए गए हैं।
लोगों ने पूछना प्रारम्भ कर दिया है कि आगे क्या होगा ? क्या सब कुछ ऐसे ही चलता रहेगा? हो सकता है ऐसा ही हो। सब कुछ ऐसे ही चलता रहे। अब आठवें दौर की बातचीत होने वाली है। उसके बाद नौवें, दसवें और ग्यारहवें दौर की चर्चाएँ होंगी। फिर ‘गणतंत्र दिवस’ की परेड होगी ।सलामी ली जाएगी। किसानों की भी ट्रैक्टर परेड निकलेगी? सरकार के सामने आर्थिक, सामाजिक और कृषि सहित सैंकड़ों सुधारों की लम्बी-चौड़ी फ़ेहरिस्त पड़ी है। किसान या आम नागरिक अब उसकी पिक्चर में नहीं है। आधुनिक भारत के उसके सिंगापुरी सपने में फटेहाल किसान और शाहीन बाग़ फ़िट नहीं होते।
किसानों ने जिस लड़ाई की शुरुआत कर दी है वह इसलिए लम्बी चल सकती है कि उसने व्यवस्था के प्रति आम आदमी के उस डर को ख़त्म कर दिया है जो पिछले कुछ वर्षों के दौरान दिलों में घर कर गया था। जनता का डर अब सरकार का डर बनता जा रहा है। लड़ाई किसानों की माँगों के दायरे से बाहर निकल कर व्यापक नागरिक अधिकारों के प्रति सरकार के अहंकारी रवैये के साथ जुड़ती जा रही है। आंदोलन का एक निर्णायक समापन किसान-विरोधी क़ानूनों का भविष्य ही नही यह भी तय करने वाला है कि नागरिकों को देश में अब कितना लोकतंत्र मिलने वाला है। लोग समझने लगे हैं कि ज़िंदा रहने के लिए केवल कोरोना की वैक्सीन ही नहीं, लोकतंत्र का टीका भी ज़रूरी है।
नए साल का स्वागत हमें खुशियाँ मनाते हुए करना चाहिए या कि पीड़ा भरे अश्रुओं के साथ? लोगों की ताजा और पुरानी याददाश्त में भी कोई एक साल इतना लंबा नहीं बीता होगा कि वह खत्म होने का नाम ही नहीं ले! इतना लंबा कि जैसे उसके काले और घने साये आने वाली कई सुबहों तक पीछा नहीं छोडऩे वाले हों। याद कर-करके रोना आ रहा है कि एक अरसा हुआ जब ईमानदारी के साथ हंसने या खुश होकर तालियाँ बजाने का दिल हुआ होगा।
यह जो उदासी छाई हुई है वह हरेक जगह मौजूद है, दुनिया के ज़्यादातर हिस्सों, कोनों और दिलों में। काफी कुछ टूट या दरक गया है इस बीच। जिन जगहों पर बहुत ज़्यादा रोशनी होने का भ्रम हो रहा है हो सकता है वहाँ भी अंदर ही अंदर घुटता कोई अव्यक्त अंधेरा ही मौजूद हो। कई बार ऐसा होता है कि अंधेरों में जिंदगियाँ हासिल हो जाती है और उजाले सन्नाटे भरे मिलते हैं। चेहरों के जरिए प्रसन्नता की खोज के सारे अवसर वर्तमान पीड़ाओं ने जबरदस्ती करके हमसे हड़प लिए हैं।
मुमकिन है इस नए साल की सुबह हर बार की तरह बहुत सारे लोगों से मिल या बातें नहीं कर पाए हों। हम जानते हैं कि खिलखिला कर खुशियाँ बिखेरने वाली कुछ आत्मीय आवाजें अब हम अपने बीच लगातार अनुपस्थित महसूस करने वाले हैं। उपस्थित प्रियजनों को नए साल की शुभकामनाएँ देते समय भी हमारे गले उस अव्यक्त संताप से भरे हो सकते हैं जो पीछे तो गुजर चुका है पर उसके आगे का डर अभी खत्म नहीं हुआ है। चमकीली उम्मीदें जरूर आसमान में क़ायम हैं।
नए साल के ‘गणतंत्र दिवस’ पर हमेशा की तरह ही दिल्ली के भव्य ‘राजपथ’ पर चाँदनी चौक और उससे सटे ग़ालिब के ‘बल्ली मारान’ की गलियों की उदासियों के बीच राष्ट्र के वैभव का भव्य प्रदर्शन देखने वाले हैं। दुनिया को बताने वाले हैं कि हम व्यक्तियों की व्यक्तिगत उदासियों को राष्ट्र की सार्वजनिक मुस्कान पर हावी नहीं होने देते हैं। एक विदेशी मेहमान की मौजूदगी में हम अपनी सामरिक क्षमता और सांस्कृतिक विरासत का दुनिया भर की आँखों के सामने प्रदर्शन करेंगे। हो सकता है हमारे कोरोना के आँकड़े तब तक सवा करोड़ और उससे मरने वालों की संख्या डेढ़ लाख से ऊपर और दुनिया भर में बीस लाख के नज़दीक पहुँच जाए। खबरें डराती हैं कि महामारी अमेरिका में हर बारह मिनट एक व्यक्ति को निगल रही है। वहाँ अब तक करीब साढ़े तीन लाख लोगों की जानें जा चुकी हैं। पर हम अब मृत्यु के प्रति भय पर भी काबू पाते जा रहे हैं। इन उम्मीदों से भरे हुए जीना चाहते है कि बीते साल के साथ ही वह सब कुछ भी जिसे हम व्यक्त नहीं करना चाह रहे हैं, अब अंतिम रूप से गुजर चुका है।
ब्रिटेन के राजकुमार प्रिन्स हैरी की पत्नी मेगन मार्केल ने पिछले दिनों अमेरिकी अखबार ‘न्यूयॉर्क टाईम्स’ के लिए एक भावपूर्ण घटना का चित्रण करते हुए संस्मरण लिखा था। किशोरावस्था के दौरान मेगन एक टैक्सी की पिछली सीट पर बैठी हुई न्यूयॉर्क के व्यस्ततम इलाके मैन्हैटन से गुजर रहीं थीं। टैक्सी से बाहर की दुनिया का नजारा देखते हुए उन्होंने एक अनजान महिला को फोन पर किसी से बात करते हुए आंसुओं में डूबे देखा। महिला पैदल चलने के मार्ग पर खड़ी थी और अपने निजी दु:ख को सार्वजनिक रूप से व्यक्त कर रही थी।
मेगन ने टैक्सी ड्रायवर से पूछा कि अगर वह गाड़ी रोक दे तो वे उतरकर पता करना चाहेंगीं कि क्या महिला को किसी मदद की जरूरत है! ड्रायवर ने किशोरी मेगन को भावुक होते देख विनम्रतापूर्वक जवाब दिया कि न्यूयॉर्क के लोग अपनी निजी जिंदगी शहर की सार्वजनिक जगहों पर ही जीते हैं। हम शहर की सडक़ों ही पर प्रेम का इजहार कर लेते हैं, सडक़ों पर ही आंसू बहा लेते हैं, अपनी व्यथाएँ व्यक्त कर लेते हैं, और हमारी कहानियाँ सभी के देखने के लिए खुली होती हैं। चिंता मत करो! सडक़ के किसी कोने में खड़ा कोई न कोई शख्स उस आंसू बहाती महिला के पास जाकर पूछ ही लेगा—‘सब कुछ ठीक तो है न,’ टैक्सी ड्रायवर ने मेगन से कहा।
कुछ ऐसा अद्भुत हुआ है कि पिछले नौ-दस महीनों के दौरान सारी दुनिया ने भी बिना कहीं रुके और किसी से उसके सुख-दु:ख के बारे पूछताछ किए जीना सीख लिया है। हम याद भी नहीं करना चाहेंगे कि आखिरी बार किस शव-यात्रा अथवा फिर शहर के किस अस्पताल या नर्सिंग होम में अपने किस निकट के व्यक्ति की तबीयत का हाल-चाल पूछने पहुँचे थे! शहरों के कई मुक्तिधामों में अस्थिकलशों के ढेर लगे हुए हैं और पवित्र नदियों के घाट उनके प्रवाहित किए जाने की प्रतीक्षा में सूने पड़े हैं।
खुशखबरी यह है कि इतनी उदासी के माहौल के बीच भी लोगों ने मुसीबतों के साथ लडऩे के अपने जज़्बे में कमी नहीं होने दी है। लोग संकटों से लड़ भी रहे हैं और और न्यूयॉर्क के उस टैक्सी ड्रायवर के कहे मुताबिक कोई ना कोई उनसे पूछ भी रहा है-‘सब कुछ ठीक तो है न’! अगर लडऩे का जज़्बा क़ायम नहीं होता तो लाखों की संख्या में हजारों-लाखों भूखे-प्यासे प्रवासी मजदूर अपने घरों को पैदल चलते हुए कैसे वापस पहुँच पाते? वे हजारों लोग जो महामारी से संघर्ष में अस्पतालों के निर्मम और मशीनी एकांतवास को लम्बे अरसे तक भोगते रहे हैं वापस अपनी देहरियों पर कैसे लौट पाते?और अब ये जो हजारों की तादाद में किसान अपने सारे दु:ख-दर्द भूलकर कडक़ती ठंड में देश की राजधानी की सडक़ों पर डेरा डाले हुए हैं वे भी तो कुछ उम्मीदें लगाए हुए होंगे कि नए साल में सब कुछ ठीक होने वाला है। उनके लिए यह भी क्या कम है कि देश की जनता उनसे बार-बार पूछ रही है -‘सब कुछ ठीक तो है न’! नए साल में ख़ुश रहने के लिए अब हमें किसी का इतना भर पूछ लेना भी काफी मान लेना होगा कि-‘नया साल मुबारक, सब कुछ ठीक तो है न!’
देश में सबसे अधिक शिक्षित माने जाने वाले राज्य केरल में कोट्टायम स्थित एक कैथोलिक कॉन्वेंट की सिस्टर अभया को उनकी नृशंस तरीके से की गई हत्या के 28 साल और 9 महीने बाद क्रिसमस की पूर्व संध्या पर ‘न्याय’ मिल गया। अभया की लाश अगर कॉन्वेंट परिसर के कुएँ से नहीं मिलती तो वे इस समय 47 वर्ष की होतीं और आज क्रिसमस के पवित्र त्यौहार पर किसी गिरजाघर में आँखें बंद किए हुए अपने यीशु की आराधना में लीन होतीं। सिस्टर अभया की हत्या किसी विधर्मी ने नहीं की थी! वे अगर अपनी ही जमात के दो पादरियों और एक ‘सिस्टर’ को 27 मार्च 1992 की अल सुबह कॉन्वेंट के किचन में आपत्तिजनक स्थिति में देखते हुए पकड़ नहीं ली जातीं तो निश्चित ही आज जीवित होतीं।
दोनों पादरियों और आपत्तिजनक आचरण में सहभागी ‘सिस्टर’ ने मिलकर अभया की कुल्हाड़ी से हत्या कर दी और उनकी लाश को कुएँ में धकेल दिया। अभया तब केवल उन्नीस वर्ष की थीं और इतनी सुबह अपनी बारहवीं कक्षा की परीक्षा की पढ़ाई करने बैठने के पहले पानी पीने के लिए किचन में पहुँचीं थीं।केवल एक औरत को न्याय मिलने में लगभग तीन दशक लग गए। इस दौरान वह सब कुछ हुआ जो हो सकता था। जैसा कि कठुआ, उन्नाव, हाथरस और अन्य सभी जगह हो रहा है। एक जघन्य हत्या को आत्महत्या में बदलने की कोशिशों से लगाकर समूचे प्रकरण को बंद करने के दबाव। इनमें तीन-तीन बार नई जाँच टीमों का गठन भी शामिल है। तीनों आरोपियों को अभया की हत्या में संलिप्तता के आरोप में नवम्बर 2008 में गिरफ्तार भी कर लिया गया था पर सिर्फ दो महीने बाद ही सब ज़मानत पर रिहा हो गए और पिछले 11 वर्षों से आजाद रहते हुए चर्च की सेवा में भी जुटे हुए थे।
विडम्बना इतनी ही नहीं है कि एक 19 वर्षीय ईसाई सिस्टर की इतनी निर्ममता के साथ हत्या कर दी गई, बल्कि यह भी है कि अभया को जब हत्या के इरादे से ‘पवित्र पुरुषों ‘और उनकी सहयोगी ‘सिस्टर’ द्वारा भागते हुए पकड़ा गया होगा तब वे या तो चीखी-चिल्लाई ही नहीं होंगी या फिर उनकी चीख कॉन्वेंट में मौजूद कोई सवा सौ रहवासियों द्वारा, जिनमें कि कोई बीस ‘नन्स’ भी शामिल रही होंगी, अनसुनी कर दी गई जैसे कि इस तरह की आवाजें ‘आई रात ‘ की बात हो। इस बात का शक इससे भी होता है कि कुएँ से अभया की लाश के प्राप्त होने के बाद भी कॉन्वेंट में कोई असामान्य किस्म की बेचैनी या असुरक्षा की भावना महसूस नहीं की गई। सार्वजनिक तौर पर तो उन सिस्टरों द्वारा भी नहीं जो अभया की साथिनें रही होंगी। पादरियों द्वारा यीशु की अच्छाई के सारे उपदेश भी इस दौरान यथावत जारी रहे।अभया की हत्या की रात कॉन्वेंट में ताम्बे के तारों की चोरी के इरादे से घुसे एक शख्स की गवाही और एक गरीब सामाजिक कार्यकर्ता की लगभग तीन दशकों तक धार्मिक माफिया के खिलाफ लड़ाई अगर अंत तक कायम नहीं रही होती तो किसी भी अपराधी को सजा नहीं मिलती। थिरुवनंथपुरम की सी बी आई अदालत ने एक पादरी और ‘सिस्टर’ को उम्रकैद की सजा सुनाई है पर आगे सब कुछ होना संभव है।
एक अनुमान के मुताबिक, लगभग डेढ़ करोड़ की आबादी वाले कैथोलिक समाज में पादरियों और ननों की संख्या डेढ़ लाख से अधिक है। कोई पचास हजार पादरी हैं और बाकी नन्स हैं।ऊ परी तौर पर साफ-सुथरे और महान दिखने वाले चर्च के साम्राज्य में कई स्थानों पर नन्स के साथ बंधुआ मजदूरों या गुलामों की तरह व्यवहार होने के आरोप लगाए जाते हैं। ईश्वर के नाम पर होने वाले अन्य भ्रष्टाचार अलग हैं। दुखद स्थिति यह भी है कि चर्च से जुड़ी अधिकांश नन्स या सिस्टर्स सब कुछ शांत भाव से स्वीकार करती रहती हैं। अगर कोई कभी विरोध भी करता है तो उसे अपनी लड़ाई अकेले ही लडऩी पड़ती है जैसा कि एक अन्य प्रकरण में केरल में ही पिछले दो वर्षों से हो रहा है। यौन अत्याचार की शिकार एक नन आरोपित पादरी के खिलाफ अकेले लड़ रही है। केरल के ही एक विधायक ने तो संबंधित नन को ही ‘प्रोस्टिट्यूट’ तक कह दिया था। पीडि़त नन के साथ चर्च की महिलाएँ भी नहीं हैं। यीशु अगर पादरी नहीं बने और एक साधारण व्यक्ति ही बने रहे तो उसके पीछे भी जरूर कोई कारण अवश्य रहा होगा।
उक्त प्रकरण पर केंद्रित दो वर्ष पूर्व प्रकाशित एक आलेख की शुरुआत मैंने अपनी एक कविता से की थी- ‘वह अकेली औरत कौन है जो अपने चेहरे को हथेलियों में भींचे और सिर को टिकाए हुए घुटनों पर उस सुनसान चर्च की आखिरी बैंच के कोने पर बैठी हुई सुबक-सुबक कर रो रही है? वह औरत कोई और नहीं है हाड़-माँस का वही पुंज है जो यीशु को उनके ‘पुरुष शिष्यों’ के द्वारा अकेला छोड़ दिए जाने के बाद उनकी ढाल बनकर अंत तक उनका साथ देती रही जो उनके ‘पुनरुज्जीवन’ के वक्त भी उपस्थित हुई उनके साथ और वही औरत आज उन्हीं ‘पुरुष शिष्यों’ के बीच सर्वथा असुरक्षित है और हैं अनुपस्थित यीशु भी!’
हमें केवल वृंदावन के आश्रमों में कष्टपूर्ण जीवन व्यतीत करने वाली परित्यक्ताओं अथवा किसी जमाने की देवदासियों के दारुण्यपूर्ण जीवन की कहानियाँ या फिर महिलाओं के लिए निर्धारित मनुस्मृति में उद्धृत ‘उचित स्थान’ के वर्णन ही सुनाए जाते हैं। उन तथाकथित सभ्य प्रतिष्ठानों में महिलाओं और बच्चों के साथ होने वाले शोषण के बारे में बाहर ज़्यादा पता नहीं चलता, जिन्हें सबसे अधिक सुरक्षित समझा जाता है। आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि उच्च पदस्थ धर्म गुरुओं द्वारा किए जाने वाले सभी तरह के यौन दुराचारों के किस्से इस समय दुनिया भर के देशों में उजागर हो रहे हैं।
‘अभया’ को अंतिम रूप से न्याय मिल गया है यह उसी तरह का भ्रम है जैसा कि ‘निर्भया’ या उसके जैसी हजारों-लाखों बच्चियों और महिलाओं को इस ‘पित्र-सत्तात्मक’ समाज में प्राप्त होने वाले न्याय को लेकर बना हुआ है। ‘निर्भया’ और ‘अभया’ दोनों के ही शाब्दिक अर्थ भी एक जैसे हैं और व्यथाएँ भी!
-श्रवण गर्ग
सरकार ने अब अपने ही नागरिक भी चुनना प्रारम्भ कर दिया है। सत्ताएँ जब अपने में से ही कुछ लोगों को पसंद नहीं करतीं और मजबूरीवश उन्हें देश की भौगोलिक सीमाओं से बाहर भी नहीं धकेल पातीं तो उन्हें अपने से भावनात्मक रूप से अलग करते हुए अपने ही नागरिकों का चुनाव करने लगती है।बीसवीं सदी के प्रसिद्ध जर्मन कवि, नाटककार और नाट्य निर्देशक बर्तोल्त ब्रेख़्त की 1953 में लिखी गई एक सर्वकालिक कविता की पंक्तियाँ हैं :’ सत्रह जून के विप्लव के बाद /लेखक संघ के मंत्री ने /स्तालिनाली शहर में पर्चे बाँटे/ कि जनता सरकार का विश्वास खो चुकी है /और तभी पा सकती है यदि दोगुनी मेहनत करे/ ऐसे मौक़े पर क्या यह आसान नहीं होगा /सरकार के हित में / कि वह जनता को भंग कर कोई दूसरी चुन ले !’’ ऐसा ही हो भी रहा है। लगभग सभी स्थानों पर।
समाचार हैं कि सरकार ने अब अपने किसान संगठन भी खड़े कर लिए हैं। मतलब कुछ किसान अब दूसरे किसानों से अलग होंगे ! जैसे कि इस समय देश में अलग-अलग नागरिक तैयार किए जा रहे हैं। धर्म को परास्त करने के लिए धर्म और नागरिकों को परास्त करने के लिए नागरिकों का उपयोग किया जाता है। किसानों को भी किसानों के ज़रिए ही कमज़ोर किया जाएगा। लोहा ही लोहे को काटता है की तजऱ् पर। अब ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ नाम की कोई बात नहीं बची। नागरिकता क़ानून का मूल स्वर यही स्थापित करना था कि देश का ‘असली’नागरिक किसे माना जाएगा !
पड़ौसी मुल्कों से आने वाले कुछ ख़ास धर्मों के शरणार्थियों को ही नागरिकता दी जा सकेगी और बाक़ी को नहीं। नागरिकता के अभाव में किन और कितने लोगों को देश छोडऩा पड़ेगा, साफ़ नहीं किया गया है।और यह भी कि देश छोडक़र जाने वालों को अपने लिए नयी ज़मीन कहाँ तलाशना होगी !
हरेक चीज़ को पालों और हदों में बांटा जा रहा है। एक पाले में वे तमाम लोग हैं जो हरेक परिस्थिति में तत्कालीन सत्ता प्रतिष्ठानों के साथ जुड़े रहते हैं। दूसरे वे हैं जो हर किस्म की हदों से अपने को बाहर रखते हैं और इसी को वे अपनी नियति भी मानते हैं। अब तीसरे वे हैं जिनके पाले सत्ताएँ तय कर रही हैं।हरेक चीज और इबारत का ‘ब्लैक एंड व्हाइट’ में दिखाई देना ज़रूरी कर दिया गया है। चाहे नागरिक हों, मीडिया हो अथवा अदालतें हों। सत्ताओं के साथ नहीं होने का अर्थ नई व्यवस्था में देश और धर्म विरोधी करार दिया गया है। नागरिकता क़ानून के बाद भाजपा-शासित राज्यों में धर्मांतरण, लव जिहाद आदि को लेकर बनने वाले क़ानूनों के तेवर नागरिकों को क़बीलाई संस्कृति में बाँटने के ही नए उपक्रम माने जा सकते हैं किसी आधुनिक भारत के निर्माण के लिए मील के पत्थर नहीं।कहा जा सकता है कि अब ‘ऑनर किलिंग’ की सुपारी कट्टरपंथी खाप पंचायतों अथवा परिवारों के हाथों से निकालकर सत्ताओं के हाथों में पहुँच गई है।
कोरोना महामारी के चलते न सिफऱ् कई नागरिक अधिकारों पर आरोपित ‘स्वैच्छिक’ रोक लग गई है, न्यायपालिका को भी सार्वजनिक रूप से सलाह दी जा रही है कि उसे अपने फ़ैसलों के ज़रिए ऐसा कोई कार्य करने से बचना चाहिए जिससे कार्यपालिका के मार्ग में अवरोध उत्पन्न हों।संसद के शीतकालीन सत्र को स्थगित कर दिया गया है पर सरकारी पार्टी की धार्मिक संसदें चालू हैं। हालात ऐसे ही रहे तो एक दिन स्थिति ऐसी भी आ सकती है कि लोग संसद की ज़रूरत के प्रति ही संज्ञा शून्य हो जाएँ, वे संसद की ओर कान लगाकर कुछ सुनने के बजाय उसकी नई इमारत की ओर आँखें गाडक़र उसके वास्तु सौंदर्य के गुणगान करने लगें।
जमाने लद गए हैं जब चीन ,रूस, उत्तरी कोरिया आदि देशों में लोकतंत्र की कमी और एक पार्टी की शासन व्यवस्था को लेकर चिंतित होते हुए हम अपने देश के भरपूर लोकतंत्र के प्रति गर्व महसूस किया करते थे। इस समय हमें न सिफऱ् यह बताया जा रहा है कि देश की तरक्क़ी में लोकतंत्र का आधिक्य न सिफऱ् बाधक बन रहा है यह भी ‘समझाया’जा रहा है हमारे यहाँ जैसे आंदोलन अगर वहाँ होते तो उनके साथ कैसा सलूक किया जाता। कृषि क़ानूनों के पक्ष में सरकार की तरफ़दारी करते हुए अंग्रेज़ी दैनिक ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ में हाल में प्रकाशित आलेख में आर्थिक विषयों के जानकार स्वामीनाथन अंक्लेसरिया अय्यर ने डराया है कि चीन जैसी एकतंत्रीय व्यवस्थाओं में ऐसे आंदोलनों को तबाह कर दिया जाता है पर लोकतंत्र ऐसे आंदोलनकारियों को ‘शूट’ नहीं करते।आलेख के शीर्षक की प्रधानमंत्री को यही सलाह है वे मख़मली दस्ताने पहनकर इस्पाती हाथों से किसान आंदोलन से निपटें।
भारत की धर्मप्राण राजनीतिक प्रयोगशाला में इस समय प्रयोग यह चल रहा हैं कि बहुसंख्यक नागरिकों को लोकतंत्र की ज़रूरत के प्रति कैसे संवेदनशून्य कर दिया जाए। उनके मन में लोकतंत्र और नागरिक अधिकारों की आवश्यकता के प्रति इतनी धिक्कारपूर्ण भावना पैदा करदी जाए कि वे उसे सरकार के ‘सुशासन’ के मार्ग में बाधा मानने लगें। दूसरे अर्थों में कहें तो नागरिकों को ही विपक्ष का विपक्षी बना दिया जाए।किसी सशक्त राजनीतिक विपक्ष की अनुपस्थिति में नागरिकों को भी विपक्ष की भूमिका निभाने से रोकने के लिए उन्हें भी आपस में बाँट दिया जाए और वे एक दूसरे पर हमला करने को ही असली राष्ट्रीयता मानने लगें।
कडक़ती ठंड में भी राजधानी दिल्ली की सडक़ों पर जमा कुछ हज़ार नागरिकों की मौजूदगी से 135 करोड़ नागरिकों की मालिक सरकार पिछले छह वर्षों में पहली बार इतनी चिंतित और डरी हुई नजऱ आ रही है कि उनसे हाथ जोडक़र अपने घरों को लौटने की अपील कर रही है। देश में ‘कुछ ज़्यादा लोकतंत्र’ को क़ायम रखने की जि़म्मेदारी जब जनता सरकार और कमज़ोर विपक्ष से छीनकर अपने कंधों पर लेने लगती है तब ऐसा ही होता है।
नीति आयोग के मुख्य कार्यकारी अधिकारी अमिताभ कांत (भारतीय प्रशासनिक सेवा के 1980 बैच के अधिकारी) का कहना है कि भारत में कड़े सुधारों को लागू करना बहुत मुश्किल है। हमारे यहां लोकतंत्र कुछ ज़्यादा ही है। राष्ट्रीय स्तर की सर्वोच्च संस्था से जुड़ा व्यक्ति जब इस आशय की कोई बात कहता है और वह भी ठीक उस समय जब कृषि क़ानूनों को लेकर किसानों का राष्ट्र्व्यापी विरोध चल रहा हो तो निश्चित ही उसके ‘पीछे’ काफ़ी वज़न होना चाहिए। माना जाना चाहिए कि बात एक व्यक्ति नहीं बल्कि ऐसी संस्था की ओर से कही जा रही है जिसे ‘भारत को बदलने के लिए राष्ट्रीय संस्थान’ के रूप में पैंसठ साल पुराने ‘योजना आयोग’ को ख़त्म करके बनाया गया था।
देश की तरक़्क़ी के लिए अगर हक़ीक़त में ही तेज रफ़्तार वाले सुधारों की ज़रूरत है और मौजूदा ‘कुछ ज़्यादा ही ‘लोकतंत्र उसमें बाधक बन रहा है तो फिर 93 साल पुराने संसद भवन के स्थान पर लगभग हज़ार करोड़ खर्च करके नई इमारत बनाने की ज़रूरत नहीं होनी चाहिए। इतनी बड़ी धन राशि का उपयोग तो नए कारावासों के निर्माण, पुरानों की क्षमता बढ़ाने और कुछ खुली जेलों की स्थापना के लिए भी किया जा सकता है।
लोकतंत्र की ज़रूरत जैसे-जैसे कम होती जाती है, कारावासों, न्यायालयों और अस्पतालों, आदि की मांग बढ़ने लगती है। एक स्थिति के बाद तो पूरा देश ही एक खुली जेल में बदल जाता है जैसी कि स्थिति हमारे कुछ नज़दीकी मुल्कों में है। इनमें वे भी शामिल हैं जिनसे हम आर्थिक विकास के क्षेत्र में टक्कर लेना चाहते हैं। नागरिक जब लोकतंत्र को कम किए जाने का विरोध करने लगते हैं उनके साथ वैसा ही व्यवहार होता है जैसा वर्तमान में चीन द्वारा हांग कांग में लोकतंत्र-समर्थकों के साथ किया जा रहा है। हमारी नज़रें इस समय चीन द्वारा की जा रही तेज रफ़्तार आर्थिक प्रगति पर ही है वहां हो रही लोकतंत्र की समाप्ति पर नहीं।
कहा तो यह भी जा सकता है कि लोकतंत्र, नागरिक अधिकारों, संवैधानिक संस्थानों की स्वायत्तता, बोलने की आज़ादी और धार्मिक स्वतंत्रता जैसे मुद्दों पर नागरिक भी ‘फुगावे’ में हैं। फुगावे से मतलब उस तरह के भ्रम से है जैसा आर्थिक सम्पन्नता के दावों को लेकर हर्षद मेहता के साम्राज्यवाद ने पैदा कर दिया था। नक़ली ‘बबल’ के फूटते ही लाखों लोग और घर तबाह हो गए थे। अभी अनुमान आना बाक़ी है कि कृषि सम्बन्धी क़ानूनों के कारण किसान-आत्महत्याओं के आँकड़ों में कमी आ जाएगी या वे और बढ़ जाएंगे ! पता नहीं कि किसानों के साथ आढ़तिए और छोटे अनाज व्यापारी भी आंकड़ों में शामिल हो जाएँगे !
जब अमिताभ कांत भारत में ज़्यादा लोकतंत्र होने की बात करते हैं तो यह नहीं बताते कि वह हक़ीक़त में कितना अधिक है ! मसलन, स्वीडन स्थित संस्था वी-डेम इंस्टीट्यूट द्वारा दुनिया के अलग-अलग देशों में लोकतंत्र की स्थिति को लेकर जारी की गई रिपोर्ट में जो कुछ कहा गया है उसे अमिताभ कांत के नज़रिए में विश्वसनीय नहीं माना जाना चाहिए। रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में लोकतंत्र कमज़ोर पड़ रहा है। संस्थान द्वारा तैयार 179 मुल्कों की सूची के उदार लोकतंत्र सूचकांक में हमें नब्बे वें स्थान पर रखा गया है।
स्वीडिश संस्थान के तरीक़े की रपटों अथवा प्रतिकूल टिप्पणियों से हम न सिर्फ़ अप्रभावित रहते हैं, उन्हें दृढ़तापूर्वक ख़ारिज भी कर देते हैं। नागरिक अधिकारों की अवमानना अथवा सीमित होती धार्मिक आज़ादी की घटनाओं को लेकर प्रतिष्ठित अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों की रपटों में की जाने वाली आलोचनाओं को देश के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप बताया जाता है। हम केवल विदेशी पूंजी निवेश के ‘हस्तक्षेप’ का ही खुली बाहों के साथ स्वागत करना चाहते हैं, बाक़ी किसी क्षेत्र में नहीं। देश की जनता कोरोना की महामारी से संघर्ष करती हुई जिस समय अपनी जानें बचाने में जुटी हुई है, सरकार भी उसी समय अपने सारे सुधारों के खेत बो लेना चाहती है।
पिछले दिनों मनाए गए ‘संविधान दिवस’ के अवसर पर वेंकैया नायडू के कथन को उद्धृत करते हुए प्रकाशित एक समाचार के अनुसार, उपराष्ट्रपति ने कहा था कि न्यायपालिका द्वारा विधायिका और कार्यपालिका के क्षेत्र में हस्तक्षेप किया जा रहा है, ऐसी चिंताएं हैं। सालिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कुछ माह पूर्व कोरोना के संदर्भ में विचार व्यक्त किया था कि देश के उच्च न्यायालयों के ज़रिए कुछ लोग समानांतर सरकार चला रहे हैं।
देश में इस समय जो कुछ भी चल रहा है और प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष तरीक़े से उसे व्यक्त किया जा रहा है उस सब का सीधा सम्बंध लोकतंत्र से है। नीति आयोग के एक प्रमुख व्यक्ति (सीईओ) के विवादास्पद कथन पर आश्चर्यजनक रूप से सत्ता के किसी भी कोने से कोई बेचैनी नहीं प्रकट हुई। प्रधानमंत्री नीति आयोग के अध्यक्ष हैं। एक मित्र ने आपातकाल के दौरान तब के एक वरिष्ठ कांग्रेस नेता शशिभूषण द्वारा इंदिरा गांधी के बचाव में की गई टिप्पणी की ओर ध्यान दिलाया है कि : 'देश में एक सीमित तानाशाही ज़रूरी है।’ नीति आयोग के शीर्ष पुरुष जब लोकतंत्र की अधिकता से विचलित होते दिखाई पड़ते हैं तो सोचना पड़ेगा वे किस बात की तरफ़ संकेत कर रहे हैं। वे भी कहीं शशि भूषण की तरह ही सीमित अधिनायकवाद के वास्तुकार की भूमिका तो नहीं अदा कर रहे हैं?
कांग्रेस के भविष्य को लेकर इस समय सबसे ज़्यादा चिंता व्याप्त है। यह चिंता भाजपा भी कर रही है और कांग्रेस के भीतर ही नेताओं का एक समूह भी कर रहा है। दोनों ही चिंताएँ ऊपरी तौर पर भिन्न दिखाई देते हुए भी अपने अंतिम उद्देश्य में एक ही हैं। सारांश में यह कि पार्टी की कमान गांधी परिवार के हाथों से कैसे मुक्त हो ? आज की परिस्थिति में कांग्रेस को बचाने का आभास देते हुए उसे ख़त्म करने का सबसे अच्छा प्रजातांत्रिक तरीक़ा भी यही हो सकता है। जहां भाजपा की राष्ट्रीय मांग देश को कांग्रेस से मुक्त करने की है। कांग्रेस पार्टी के एक प्रभावशाली तबके की मांग फ़ैसलों की ज़िम्मेदारी किसी व्यक्ति (परिवार !) विशेष के हाथों में होने के बजाय सामूहिक नेतृत्व के हवाले किए जाने की है। सामूहिक फ़ैसलों की मांग में मुख्य रूप से यही तय होना शामिल माना जा सकता है कि विभिन्न पदों पर नियुक्ति और राज्य सभा के रिक्त स्थानों की पूर्ति के अधिकार अंततः किसके पास होने चाहिए !
एक सौ पैंतीस साल पुरानी कांग्रेस को ‘प्रजातांत्रिक’ बनाने की लड़ाई एक ऐसे समय खड़ी की गई है कि वह न सिर्फ़ ‘प्रायोजित’ प्रतीत होती है, उसके पीछे के इरादे भी संदेहास्पद नज़र आते हैं। कांग्रेस-मुक्त भारत की स्थापना की दिशा में इसे पार्टी के कुछ विचारवान नेताओं का सत्तारूढ़ दल को ‘गुप्तदान’ भी माना जा सकता है। राजनीति में ऐसा होता ही रहता है। बेरोज़गार बेटों को मां-बाप से शिकायतें हो ही सकती है कि वे कमाकर नहीं ला रहे हैं इसीलिए घर में ग़रीबी है।
क्या किसी प्रकार का शक नहीं होता कि बंगाल चुनाव के ठीक पहले बिहार में उम्मीदवारों की हार को मुद्दा बनाकर जिस समय वरिष्ठ नेता कांग्रेस नेतृत्व को घेर रहे हैं,भाजपा के निशाने पर भी वही एक दल है ? दो विपरीत ध्रुवों वाली शक्तियों के निशाने पर एक ही समय पर एक टार्गेट कैसे हो सकता है ? इसी कांग्रेस के नेतृत्व में जब दो साल पहले तीन राज्यों में चुनाव जीतकर सरकारें बन गईं थीं तब तो वैसी आवाज़ें नहीं उठीं थीं जैसी आज सुनाई दे रही हैं!
एक देश, एक संविधान और एक चुनाव की पक्षधर भाजपा के लिए राष्ट्रीय स्तर पर केवल एकमात्र राजनीतिक दल के रूप में पहचान स्थापित करने के लिए ज़रूरी है कि कांग्रेस को एक क्षेत्रीय पार्टी की हैसियत तक सीमित और दिल्ली की तरफ़ खुलने वाली राज्यों की खिड़कियों को पूरी तरह से सील कर दिया जाए। जो प्रकट हो रहा है वह यही है कि सोनिया गांधी की अस्वस्थता को देखते हुए उनकी उपस्थिति में ही पार्टी-नेतृत्व का बँटवारा कर लेने की मांग उठाई जा रही है। राहुल गांधी ने सवाल भी किया था कि तेईस लोगों ने चिट्ठी उस वक्त ही क्यों लिखी जब सोनिया गांधी का अस्पताल में इलाज चल रहा था ?
स्पष्ट है कि जिस समय कांग्रेस को ही अपनी कमजोरी से निपटने के लिए इलाज की ज़रूरत है, नेतृत्व से जवाब-तलबी की जा रही है कि वह भाजपा की टक्कर में दौड़ क्यों नहीं लगा पा रही है ! सारे सवाल कांग्रेस को लेकर ही हैं। निर्वाचन आयोग द्वारा मान्यता प्राप्त राष्ट्रीय दलों में कांग्रेस और भाजपा के अतिरिक्त छह और भी हैं पर उनकी कहीं कोई चर्चा नहीं है ! वे सभी दल क्षेत्रीय पार्टियाँ बन कर रह गए हैं।
इसमें शक नहीं कि एक मरणासन्न विपक्ष को इस समय जिस तरह के नेतृत्व की कांग्रेस से दरकार है वह अनुपस्थित है।ऐसा होने के कई कारणों में एक यह भी है कि कोरोना प्रबंधन के पर्दे में न सिर्फ़ नागरिकों की गतिविधियों को सीमित कर दिया गया है, विपक्षी दलों और उनकी सरकारों की चिंताओं की सीमाएँ भी तय कर दी गईं हैं। किसान आंदोलन के रूप में जो प्रतिरोध व्यक्त हो रहा है उसे बजाय किसानों की वास्तविक समस्याओं को लेकर फूटे आक्रोश के रूप में देखने के केंद्र के ख़िलाफ़ पंजाब की अमरिंदर सिंह सरकार द्वारा समर्थित राजनीतिक चुनौती के रूप में देखा जा रहा है। अगर यह सही है तो फिर कांग्रेस के बग़ावती नेता इसे पार्टी के जनता के साथ जुड़ने की ओर कदम भी मान सकते हैं जिसकी कि शिकायत उन्हें वर्तमान नेतृत्व से है।
भारतीय जनता पार्टी के एकछत्र शासन के मुक़ाबले देश में एक सशक्त (या कमज़ोर भी) राष्ट्रीय विपक्ष की ज़रूरत के कठिन समय में कांग्रेस नेतृत्व को अंदर से ही कठघरे में खड़ा करने की कोशिशें कई सवालों को जन्म देती हैं। चूंकि इस तरह की परिस्थितियाँ कांग्रेस के लिए पहला अनुभव नहीं है, लोग यह अनुमान भी लगाना चाहते हैं कि इंदिरा गांधी आज अगर होतीं तो मौजूदा संकट से कैसे निपटतीं और उनकी बहू होने के नाते सोनिया गांधी को ऐसा क्या करना चाहिए जो वे नहीं कर पा रही हैं? क्या उनके द्वारा तमाम बग़ावती नेताओं को यह सलाह नहीं दी जा सकती कि वे भी ममता, शरद पवार और संगमा की तरह ही विद्रोही कांग्रेसियों की एक और पृथक ‘कांग्रेस’ बना लें ? बाक़ी छह राष्ट्रीय दलों में तीन तो इन्हीं लोगों की बनाई हुई ‘कांग्रेस’ ही हैं। बाक़ी तीन में दो साम्यवादी दल और बसपा है। इनमें किसी की भी हालत देश से छुपी हुई नहीं है।
और अंत में : कांग्रेस के एक राष्ट्रीय प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला द्वारा प्रधानमंत्री की इस बात के लिए आलोचना किए जाने कि दिल्ली में किसानों के आंदोलन के वक्त वे कोरोना वैक्सीन के प्रयोग स्थलों की यात्रा पर थे अगले ही दिन पार्टी के दूसरे प्रवक्ता और वरिष्ठ नेता आनंद शर्मा ने मोदी की तारीफ़ करते हुए ट्वीट किया कि उनका (प्रधानमंत्री का) यह कदम भारतीय वैज्ञानिकों के प्रति सम्मान की अभिव्यक्ति है। इससे अग्रिम पंक्ति के कोरोना योद्धाओं का मनोबल बढ़ेगा। आनंद शर्मा का नाम उन तेईस लोगों में शामिल है जो कांग्रेस में शीर्ष नेतृत्व को लेकर सवाल खड़े कर रहे हैं। हालांकि शर्मा ने बाद में अपना फैलाया हुआ रायता समेटने की कोशिश भी की पर तब तक देर हो चुकी थी।
-श्रवण गर्ग
यह जो ज़रा-ज़रा सी बात पर दुखी होकर आत्महत्या करने का चलन बढ़ता जा रहा है, उसके प्रति सजग रहें, अपने मन का ख्याल रखें. जीवन में दुखी होने के अवसर बहुत से मिल जाते हैं, लेकिन प्रेम, स्नेह से साथ रहने के मौके कम मिलते हैं.
जब खूब बुरा लगे. सामने वाले की बात सुनकर शरीर थर-थर कांपने लगे. जब लगे की उसकी सारी बातें अप्रिय हैं. ऐसा तो आपने सोचा ही नहीं. कभी आपके विचार में ऐसा कुछ आया नहीं! उसके बाद भी यह व्यक्ति आपके ऊपर अपना कचरा फेंके ही जा रहा है. ऐसे में खूब गुस्सा होना, मन को बुरा लगना सहज और स्वाभाविक है. कुछ तो लगेगा ही! लेकिन कितना, यह हम पर ही निर्भर करता है. यात्रा में खूब सारे स्पीड-ब्रेकर मिलते हैं. बड़े खराब-खराब. हम स्पीड-ब्रेकर की नहीं, अपनी गाड़ी की चिंता करते हैं, गाड़ी एकदम धीमी कर लेते हैं. इतनी कि कभी-कभी बंद भी हो जाती है, लेकिन हमारा पूरा ध्यान इस पर रहता है कि गाड़ी को नुकसान न पहुंचे.
हम गति, स्पीड-ब्रेकर की चिंता नहीं करते, उसे चुनौती नहीं देते. सावधानी से गाड़ी निकालकर आगे बढ़ जाते हैं. भले ही स्पीड ब्रेकर कितने ही बेतरतीब क्यों न बने हों. खराब और बुरे अनुभवों से हमें ऐसे ही गुजरना है.
'जीवन संवाद' जीवन के लिए है, उसकी मुश्किलों के लिए नहीं. मुश्किलें तो आती-जाती रहेंगी, स्थायी केवल जीवन है! पिछले कुछ दिनों में कम से कम दो बार ऐसा हुआ, जब मुझे लगा कि दूसरे की वजह से, उनके वक्तव्यों की वजह से मुझे बहुत खराब महसूस हुआ. उस वक्त मैंने केवल यही सोचा, भले ही यह मेरे समझाने पर मेरी बात सुनने को राजी न हों, लेकिन मुझे अपने सोचने का तरीका नहीं बदलना है.
जीवन संवाद: कोरोना और शादी!
भीतर से खराब लगने पर भी स्वयं को संभालने की कला जितनी फूल में होती है, उतनी दूसरों में नहीं! धूल हमेशा कोशिश करती है कि फूल के चेहरे पर बैठ जाए. उसे अपने रंग में रंग ले, लेकिन फूल कोमलता नहीं छोड़ते. बहुत बुरा लगने पर भी नहीं! हमें भी इसका अभ्यास करना है. दूसरे के जैसा होते जाने से हम जीवन में अपने लिए कुछ बाकी नहीं रख पाएंगे.
महात्मा बुद्ध का बहुत सुंदर प्रसंग है. एक व्यक्ति एक बार बुद्ध के पास आए. बुद्ध को खूब सारी गालियां दीं. अपशब्द कहे उनके परिवार को. उनके विचार और सोच को. उनके शिष्य आनंद खूब क्रोधित हुए, तो बुद्ध ने इतना ही कहा, इन्होंने आने में जरा देर कर दी. दस साल पहले आते तो खूब मजा आता (उस समय तक बुद्ध को संन्यास लिए दस वर्ष ही हुए थे). जरा देर से आए. हमने गाली लेनी बंद कर दी है! इसका मौसम जा चुका है. अब तुम इन्हें इनके घर ले जाओ. बहुत बीमार हैं. दया आती है, इन पर. मैं इनसे कुछ भी नहीं ले सकता. वह कितना ही क्रोध, हिंसा हमारी ओर आमंत्रित करें, हमें चाहिए ही नहीं. मुफ्त के भाव भी नहीं!
हमें भी बुद्ध और फूल के रास्ते ही जाना है. अपनी जिंदगी को दूसरों के अनुसार नहीं अपने स्वाद के अनुसार आगे बढ़ाना है. जीवन के प्रति आस्थावान बनना है. यह जो ज़रा-ज़रा सी बात पर दुखी होकर आत्महत्या करने का चलन बढ़ता जा रहा है. उसके प्रति सजग रहें, अपने मन का ख्याल रखें. जीवन में दुखी होने के अवसर बहुत से मिल जाते हैं, लेकिन प्रेम, स्नेह से साथ रहने के मौके कम मिलते हैं. हमें अपना ध्यान ऐसे अवसरों पर केंद्रित करना चाहिए. (hindi.news18.com)
-दयाशंकर मिश्र
मुस्लिम नेता असदुद्दीन ओवैसी देश की चुनावी राजनीति में जो कुछ भी कर रहे हैं वह यह कि लगातार संगठित और मजबूत होते हिंदू राष्ट्रवाद के समानांतर अल्पसंख्यक स्वाभिमान और सुरक्षा का तेज़ी से ध्रुवीकरण कर रहे हैं। यह काम वे अत्यंत चतुराई के साथ संवैधानिक सीमाओं के भीतर कर रहे हैं। मुमकिन है उन्हें कांग्रेस सहित अन्य राजनीतिक दलों के उन उन अल्पसंख्यक नेताओं का भी मौन समर्थन प्राप्त हो जिन्हें हिंदू राष्ट्रवाद की लहर के चलते इस समय हाशियों पर डाला जा रहा है। बिहार के चुनावों में जो कुछ प्रकट हुआ है उसके अनुसार, ओवैसी का विरोध अब न सिर्फ भाजपा के हिंदुत्व तक ही सीमित है, वे तथाकथित धर्म निरपेक्ष राजनीति को भी अल्पसंख्यक हितों के लिए ख़तरा मानते हैं। बिहार चुनाव में भाजपा के खिलाफ विपक्षी गठबंधन को समर्थन के सवाल पर वे इस तरह के विचार व्यक्त कर भी चुके हैं।
पृथक पाकिस्तान के निर्माता मोहम्मद अली जिन्ना के अविभाजित भारत की राजनीति में उदय को लेकर जो आरोप तब कांग्रेस पर लगाए जाते रहे हैं वैसे ही इस समय ओवैसी को लेकर भाजपा पर लग रहे हैं। जिन्ना की तरह ओवैसी अल्पसंख्यकों के लिए किसी अलग देश की माँग तो निश्चित ही नहीं कर सकेंगे पर देश के भीतर ही उनके छोटे-छोटे टापू खड़े करने की क्षमता अवश्य दिखा रहे हैं। कहा जा सकता है कि जिन्ना के बाद ओवैसी मुस्लिमों के दूसरे बड़े नेता के रूप में उभर रहे हैं। जिन्ना की तरह ही ओवैसी ने भी विदेश से पढ़ाई करके देश की मुस्लिम राजनीति को अपना कार्यक्षेत्र बनाया है। ओवैसी ने भी क़ानून की पढ़ाई लंदन के उसी कॉलेज ( Lincoln's Inn London) से पूरी की है जहां से जिन्ना बैरिस्टर बनकर अविभाजित भारत में लौटे थे। ओवैसी का शुमार दुनिया के सबसे प्रभावशाली पाँच सौ मुस्लिम नेताओं में है। उनकी अभी उम्र सिर्फ इक्यावन साल की है । भारत में नेताओं की उम्र देखते हुए कहा जा सकता है कि ओवैसी एक लम्बे समय तक मुस्लिम राजनीति का नेतृत्व करने वाले हैं।
बिहार में मुस्लिम-बहुल क्षेत्रों की पाँच सीटें जीतने के बाद ओवैसी के पश्चिम बंगाल के चुनावों में भाग लेने के फैसले से ममता बनर्जी का चिंतित होना ज़रूरी है पर वह बेमायने भी हो गया है। क्योंकि ओवैसी बंगाल में वही करना चाह रहे हैं जो ममता बनर्जी इतने सालों से करती आ रहीं थीं और अब अपने आपको को मुक्त करने का इरादा रखती हैं। ओवैसी तृणमूल नेता को बताना चाहते हैं कि बंगाल के अल्पसंख्यकों का उन्होंने यकीन खो दिया है। इसका फायदा निश्चित रूप से भाजपा को होगा पर उसकी ओवैसी को अभी चिंता नहीं है।भाजपा ने ममता की जो छवि 2021 के विधान सभा चुनावों के लिए प्रचारित की है वह यही कि राज्य की मुख्यमंत्री मुस्लिम हितों की संरक्षक और हिंदू हितों की विरोधी हैं।इस तर्क के पक्ष में वे तमाम निर्णय गिनाए जाते हैं जो राज्य की सत्ताईस प्रतिशत मुस्लिम आबादी के लिए पिछले सालों में ममता सरकार ने लिए हैं।
देखना यही बाक़ी रहेगा कि बंगाल के मुस्लिम मतदाता ओवैसी के साथ जाते हैं या फिर वैसा ही करेंगे जैसा वे पिछले चुनावों में करते रहे हैं। मुस्लिम मतदाता ऐसी परिस्थितियों में ऐसे किसी भी उम्मीदवार के पक्ष में अपना वोट डालते रहें हैं जिसके कि भाजपा या उसके द्वारा समर्थित प्रत्याशी के विरुद्ध जीतने की सबसे ज़्यादा सम्भावना हो वह चाहे ग़ैर-मुस्लिम ही क्यों न हो।बिहार के मुस्लिम मतदाताओं ने 2015 के चुनाव में ओवैसी के बजाय नीतीश का इसलिए समर्थन किया था कि वे तब भाजपा के खिलाफ राजद के साथ मिलकर चुनाव लड़ रहे थे। उन्होंने इस बार विपक्षी महगठबंधन का भी इसलिए समर्थन नहीं किया कि उसमें शामिल कांग्रेस ने नागरिकता कानून, तीन तलाक और मंदिर निर्माण आदि मुद्दों को लेकर अपना रुख़ स्पष्ट नहीं किया।
भाजपा को ओवैसी जैसे नेताओं की उन तमाम राज्यों में जरूरत रहेगी जहां मुस्लिम आबादी का एक निर्णायक प्रतिशत उसके विपक्षी दलों के वोट बैंक में सेंध लगा सकता है।इनमें असम सहित उत्तर-पूर्व के राज्य भी शामिल हो सकते हैं। ओवैसी अपने कट्टरवादी सोच के साथ मुस्लिम आबादी का जितनी तीव्रता से ध्रुवीकरण करेंगे उससे ज़्यादा तेजी के साथ भाजपा को उसका राजनीतिक लाभ पहुँचेगा।भाजपा सहित किसी भी बड़े राजनीतिक दल ने अगर बिहार में चुनाव प्रचार के दौरान ओवैसी के घोषित-अघोषित एजेंडे पर प्रहार नहीं किए तो उनकी राजनीतिक मजबूरियों को समझा जा सकता है। ममता बनर्जी मुस्लिम मतदाताओं से खुले तौर पर यह नहीं कहना चाहेंगीं कि वे अगर तृणमूल के उम्मीदवारों के ख़िलाफ़ ओवैसी की पार्टी को वोट देंगे तो वे फिर से मुख्यमंत्री नहीं बन पाएंगी और इससे उनके ही (मुस्लिमों के) हितों पर चोट पड़ेगी।
बिहार में अपने उम्मीदवारों की जीत के बाद ओवैसी ने कहा था कि नतीजे उन लोगों के लिए संदेश है जो सोचते हैं कि उनकी पार्टी को चुनावों में भाग नहीं लेना चाहिए।’क्या हम कोई एन.जी.ओ. हैं कि हम सिर्फ सेमीनार करेंगे और पेपर पढ़ते रहेंगे ?हम एक राजनीतिक पार्टी हैं और सारे चुनावों में भाग लेंगे।’ अत: अब काफी कुछ साफ हो गया है कि ओवैसी का एजेंडा भाजपा के खिलाफ मुस्लिमों द्वारा उस विपक्ष को समर्थन देने का भी नहीं हो सकता जो अल्पसंख्यक मतों को बैसाखी बनाकर अंतत: बहुसंख्यक जमात की राजनीति ही करना चाहता है। कांग्रेस के कमजोर पड़ जाने का बुनियादी कारण भी यही है। बंगाल चुनावों के नतीजे ना सिर्फ भाजपा का ही भविष्य तय करेंगे, तृणमूल कांग्रेस की कथित अल्पसंख्यक परक नीतियों और सबसे अधिक तो ओवैसी की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के लिए निर्णायक साबित होंगे। भाजपा अगर एक विपक्ष-मुक्त भारत के निर्माण में लगी है तो उसमें निश्चित ही ओवैसी की पार्टी को शामिल करके नहीं चल रही होगी !
-श्रवण गर्ग
अभी भी भारत में आने वाली शादियों के लिए बड़ी संख्या में रेल टिकट बुकिंग से लेकर शादी हॉल, खानपान की व्यवस्था देखकर कहीं नहीं लग रहा कि कोरोना का अस्तित्व बचा भी है!
अमेरिका से आज खबर आई है कि वहां एक शादी में 55 लोग शामिल हुए. इनमें से कोई एक कोरोना पॉजिटिव था. उनसे 177 लोगों में संक्रमण फैला, जिसके कारण उन 7 लोगों की मौत हो गई, जो उस विवाह का हिस्सा नहीं थे. यह अमेरिका की बात है, इसलिए इस पर हर कहीं चर्चा हो रही है, लेकिन हमारे अपने देश में अब हालात कहीं अधिक खराब होने की तरफ बढ़ रहे हैं. भारत में शादी-ब्याह को लेकर जितनी अधिक भावुकता है, दुनिया के दूसरे देशों में ऐसा कम देखने/पढ़ने को मिलता है. इस बारे में हमारे ऐसे पाठक अधिक बता सकते हैं, जिनको दुनिया की यात्रा का अनुभव है. दिल्ली से लेकर मध्य प्रदेश तक मेरे खुद के अनुभव विचित्रतापूर्ण, विविधतापूर्ण और सबसे बढ़कर हैरान, परेशान करने वाले रहे हैं. उम्र में छोटे और बड़े दोनों को ही कोरोना की गंभीरता समझा पाना बहुत मुश्किल है. सबको यही लग रहा है कि संकट उन पर नहीं है. उनको कैसे कोरोना हो सकता है! यह सनक, भावुकता जीवन पर भारी पड़ रही है. जिन पर हम आगे विस्तार से बातचीत करेंगे.
हम दिल्ली में शादी और निजी उत्सवों में 200 लोगों की अनुमति का परिणाम देख चुके हैं. दिल्ली में कोरोना के कारण हर दिन बड़ी संख्या में लोग अपनी जान गंवा रहे हैं. यह विशुद्ध रूप से समाज की लापरवाही से हो रही मौतें हैं. कैसा समाज है, जो हर मौत पर संवेदनशील होने की जगह रस्म अदायगी में जुटा हुआ है. दिल्ली से बाहर तो हालत और अधिक खराब होते जाएंगे, क्योंकि दिल्ली से हम जैसे-जैसे दूर निकलते जा हैं, कोरोना वायरस हमारी चिंता से वैसे वैसे बाहर होता जाता है.
इन दिनों शादी-ब्याह के निमंत्रण हम सभी को मिल रहे हैं, लेकिन सबसे खतरनाक बात यह है कि कोई इस पर बात नहीं करना चाहता. मेरी जिन लोगों से भी बात हुई है इस तरह के निमंत्रण को लेकर, उन सभी में लोगों का जोर कार्यक्रम में आने को लेकर अधिक है, न कि सेहत को लेकर.
मास्क को लेकर भारतीय समाज का रवैया हमारी वैज्ञानिक समझ को स्पष्टता से रेखांकित करने वाला है. दिल्ली से जैसे जैसे दूर होते जाते हैं, चेहरे से मास्क की दूरी बढ़ती चली जाती है. मुझे स्वयं मास्क के प्रति आग्रह के कारण कई जगह अपमानित होना पड़ा, लेकिन उसके बाद भी मैंने अपनी ओर से आग्रह नहीं छोड़ा है. आप भी मत छोड़िएगा! माता-पिता, रिश्तेदार संभव है, कुछ समय के लिए नाराज रहें, लेकिन उनकी नाराजगी से कहीं अधिक जरूरी है, उनका स्वस्थ जीवन! हमें उनके जीवन की रक्षा करनी चाहिए.
मास्क और कोरोना को लेकर सबसे खतरनाक है, युवा मन की लापरवाही, साथ ही उत्सव, शादी-ब्याह में हिस्सेदारी के प्रति बुजुर्गों के पुराने आग्रह का कम न होना! जीवन के प्रति इस लापरवाही से हम अपनों की मदद नहीं कर रहे, बल्कि उन्हें संकट में डाल रहे हैं! सामाजिकता से हम दूर नहीं जा सकते, लेकिन इसके लिए अपने और दूसरों के जीवन को दांव पर लगाना जीवन के प्रति आस्था की कमी बताने वाला है!
अभी भी भारत में आने वाली शादियों के लिए बड़ी संख्या में रेल टिकट बुकिंग से लेकर शादी हॉल, खानपान की व्यवस्था देखकर कहीं नहीं लग रहा कि कोरोना का अस्तित्व बचा भी है! यह एक तरह का सामाजिक मनोविकार है, जिसमें हम देख करके भी संकट की ओर से आंखें मूंदे हुए हैं. ऐसा करने से संकट घटता नहीं है, बढ़ता ही चला जाता है. हमें उम्मीद करनी चाहिए कि युवा इस मामले में विरोध सह करके भी अपने लोगों की फिक्र करेंगे और रस्म-रिवाज की जगह मनुष्य के जीवन को महत्व देंगे. (hindi.news18.com)
-दयाशंकर मिश्र
कोरोना ने हमारे बीच रिश्तों की कमजोर नींव को उजागर किया है. जीवन में संकट आते जाते रहते हैं. कोरोना वायरस भी जाएगा ही, लेकिन इसने हमारे जीवन के जिन गंभीर संकटों पर प्रश्न किए हैं, हमें उन्हें समय रहते सुलझाना चाहिए.
हम एक-दूसरे के साथ रहते हुए भी एक-दूसरे से दूर होते जाएं, तो इससे हमारी निकटता दूरी में बदलती जाती है. देशभर में कोरोना के आगमन के बाद हम लोग एक नए तरीके के जीवन में प्रवेश कर गए हैं. पहले हम कहते थे, एक-दूसरे के लिए समय नहीं. अब स्थिति यह हो गई है कि एक-दूसरे से दूरी के लिए छटपटाने लगे हैं. रिश्तों में कितनी ही निकटता क्यों न हो, लेकिन फिर भी निजता का ख्याल बहुत ही कोमल और जरूरी है. कोरोना ने हमारे बहुत सारे मिथक तोड़ दिए हैं. कोरोना ने हमें बता दिया है कि एक-दूसरे से बहुत अधिक निकटता के परिणाम कितने घातक हो सकते हैं. देशभर में जिस तरह से पारिवारिक अदालतों में घर के विवाद सामने आए हैं वह चौंकाने वाले तो हैं, लेकिन आश्चर्यचकित नहीं करते. बहुत-सी चीजों पर हम पर्दा डालते रहते हैं, लेकिन पर्दा डालते रहने से कुछ समय तक उससे नजर हटाई जा सकती है, लेकिन समस्या तो भीतर ही भीतर बढ़ती जाती है. हमारे परिवार और समाज में संवाद की कमी पर लंबे समय से ऐसे ही कुछ पर्दे डाले हुए थे.
परिवार में आर्थिक विषयों, संकट को लेकर पुरुषों का रवैया, महिलाओं की आर्थिक विषयों से दूरी इनमें से प्रमुख है. जीवन संवाद को इस बारे में देशभर से संदेश प्राप्त हुए हैं. जहां, पढ़े-लिखे और जागरूक परिवारों में भी यह देखा गया कि पुरुष आर्थिक संकट से खराब तरीके से जूझ रहे हैं, लेकिन इसे अपने जीवनसाथी से साझा करने में उन्हें शर्म महसूस होती है!
कोरोना के कारण लंबे समय तक घर में रहने से बहुत-सी बातचीत अनजाने में सार्वजनिक हो गई. इससे घर में तनाव बढ़ा. आर्थिक मामलों में भारतीय पुरुष स्वयं को बहुत अधिक जानकार मानने का भ्रम रखते हैं, जबकि स्थिति ठीक इसके उलट होती है.
मुझे यह कहने में बिल्कुल भी संकोच नहीं कि अधिकांश भारतीय परिवारों की खराब आर्थिक स्थिति का कारण पति-पत्नी में घर की अर्थव्यवस्था के प्रति पारदर्शिता की कमी और अपनी आर्थिक स्थिति का दिखावा करने की धारणा है. हम दूसरों से तुलना में इतने अधिक व्यस्त हो जाते हैं कि अपनी असली स्थिति से बहुत दूर चले जाते हैं. एक छोटा-सा उदाहरण मैं आपसे साझा करता हूं, संभव है इससे मेरी बात अधिक स्पष्ट हो सके.
मेरे एक परिचित ने दोपहर में मुझे फोन किया. उनकी आवाज में थोड़ी चिंता थी, उन्होंने मुझसे कुछ वित्तीय सहायता मांगते हुए कहा कि उनकी पत्नी अस्पताल में हैं और कुछ रुपयों की आवश्यकता है. उनके द्वारा मांगी गई रकम मेरी सीमा के भीतर थी और मैंने तुरंत उन्हें उपलब्ध कराई. कुछ समय बाद मुझे पता चला कि उन्हें यह रकम सरलता से उनके अपने आस-पड़ोस से मिल सकती थी, लेकिन उन्होंने ऐसा इसलिए नहीं किया ताकि उनकी छवि एक मजबूत व्यक्ति की बनी रहे. इतना ही नहीं वह अनेक वर्षों से कर्ज लेकर खर्च कर रहे हैं, लेकिन उनकी पत्नी को इसकी कोई जानकारी नहीं थी. उनकी पत्नी बहुत सुलझी हुई महिला हैं. संयोगवश एक दिन हमारा मिलना हुआ, तो उन्होंने मुझसे कहा कि अगर कभी किसी तरह के वित्तीय सहयोग की जरूरत हो, तो मैं उन्हें जरूर बताऊं! मेरे साथ एक मित्र थे. उन्होंने हिम्मत करके सारा किस्सा उनसे बयान कर दिया, क्योंकि वह भी मित्र-मंडली का हिस्सा हैं. उसके बाद परिचित ने कहा कि वह अपनी छवि के प्रति बहुत सतर्क हैं. आसपास में प्रतिष्ठा बनी रहे, इसलिए उन्होंने उनसे मदद नहीं ली.
कोरोना ने हमारे बीच रिश्तों की कमजोर नींव को उजागर किया है. जीवन में संकट आते जाते रहते हैं. कोरोना वायरस भी जाएगा ही, लेकिन इसने हमारे जीवन के जिन गंभीर संकटों पर प्रश्न किए हैं, हमें उन्हें समय रहते सुलझाना चाहिए. (hindi.news18.com)
-दयाशंकर मिश्र
रिश्तों की सेहत के प्रति सजगता होनी जरूरी है. पेड़ को बचाए रखने के लिए पत्तियों में नहीं, जड़ों में पानी देना होता है. रिश्ते हमारी जिंदगी की जड़ हैं. यही जिंदगी को ताज़ा बनाए रखते हैं. रोशनी बख्शते हैं.
क्या रिश्ते भी बासी हो सकते हैं! संभव है, बहुत से पाठक इस शीर्षक से सहमत न हों, लेकिन इससे इनकार नहीं किया जा सकता. जिस किसी चीज से जीवन में प्रेम छूटता जाता है, समय और स्नेह छूटता जाता है. वह बासी होती जाती है! हमारी जिंदगी में बासी होते रिश्ते इसकी गवाही दे रहे हैं. जिंदगी को प्रेम की धूप दीजिए! थोड़ा इत्मिनान दीजिए! स्मार्टफोन आने के बाद से जिंदगी में सबसे ज्यादा उथल-पुथल हुई है. पहली बार टेलीविजन की जिंदगी में आने पर समय की कमी महसूस हुई. उसके बाद स्मार्ट टीवी जब कमरे-कमरे में लगते गए, तो लगा कुछ घट रहा है. अब जब स्मार्टफोन है और असीमित इंटरनेट, तो जहां एक तरफ हम निजता का उत्सव मनाने में व्यस्त हैं, वहीं मन के किसी कोने में अकेलापन बढ़ रहा है. जो मन को खुरदरा बनाता जाता है!
हम रो नहीं रहे. भावुक नहीं होते. बस हमारे दिल में बेचैनी और उदासी के दौर गहरे होते जा रहे हैं. इंटरनेट के कंधे पर सवार होकर, स्मार्टफोन के रास्ते हमारे मन में अनियंत्रित और सुनियोजित हिंसा परोसी जा रही है. टीवी ने जिस काम की शुरुआत की थी, वेबसीरीज के साथ हम सही मायने में बुद्धू बक्से के सामने बैठे रहते हैं. टेलीविजन ने हमारी सोचने समझने की शक्ति को कमजोर करने की दिशा में धीरे-धीरे कदम बढ़ाया. अब स्मार्टफोन और व्हाट्सएप ने हमारी जिंदगी के समानांतर एक ऐसी दुनिया बना दी है, जिसमें गहरी शून्यता और अकेलापन है.
'गैंग्स ऑफ वासेपुर-2' का नायक फैजल पूरी फिल्म में गहरी उदासी में है. जब फिल्म/ उसकी जिंदगी अंतिम पड़ाव की ओर पर बढ़ रही होती है, तो संभवत: एक ही दृश्य में उसे रोते हुए दिखाया गया है. इसमें उसकी उदासियों का ब्यौरा है. जिंदगी कहां से कहां चली गई, इस दृश्य में उसकी कहानी है! रिश्ते के एक छोटे से छल ने उसकी आत्मा पर सबसे बड़ा बोझ लाद दिया था!
ऐसे छोटे-छोटे छल हमारी जिंदगी में बहुत बड़ा असर डाल देते हैं. रिश्तों की सेहत के प्रति सजगता होनी जरूरी है. पेड़ को बचाए रखने के लिए पत्तियों में नहीं, जड़ों में पानी देना होता है. रिश्ते हमारी जिंदगी की जड़ हैं. यही जिंदगी को ताज़ा बनाए रखने हैं. रोशनी बख्शते हैं.
बुद्ध का एक सुंदर प्रसंग है. बुद्ध के पास एक प्रौढ़ व्यापारी आता है. जिसकी पीड़ा बस इतनी है कि उसे कटु अनुभवों से मुक्ति नहीं मिल रही. वह जीवन को समाप्त करने की बात करता है. बुद्ध कहते हैं, समाप्ति से कुछ नहीं होगा. जो कल हो गया है उसे आज में लाने से बचना होगा. हर दिन पुरानी स्मृति से ही आगे बढ़ना होगा. सूरज अगर हर दिन के बादलों के बारे में सोचने लगे, तो वह अपनी यात्रा जारी ही नहीं रख पाएगा. धर्म अगर कुछ है तो वह केवल इतना है कि प्रकृति की तरह जीवन के प्रति आस्थावान बने रहना. एक-दूसरे को छोटी-छोटी चीजों के लिए क्षमा करते रहने का अभ्यास मन को मजबूत बनाता है. मन में काई जमने से रोकता है. मन को नरम, उदार बनाए रखने के लिए कोमलता के बीज बोते रहिए. अपेक्षा नहीं केवल स्नेह पर जोर दीजिए!
हर दिन नई यात्रा आरंभ करने का खुद से वादा, अतीत की गलियों में भटकने से रोकता है. किसी यात्री की तरह. यात्री हर दिन की यात्रा से सबक लेते हैं, लेकिन थमते नहीं हैं! जीवन में अलग-अलग मोड़ पर अलग-अलग तरह के रिश्ते मिलते हैं. उनके प्रति सही दृष्टिकोण, दूसरों के प्रति करुणा और स्नेह से ही जीवन को गतिमान बनाया जा सकता है. रिश्तों को प्रेम की धूप जितनी अधिक मिलेगी, जिंदगी उतनी ही रोशन होगी. (hindi.news18.com)
-दयाशंकर मिश्र
रिश्तों की सेहत के प्रति सजगता होनी जरूरी है. पेड़ को बचाए रखने के लिए पत्तियों में नहीं, जड़ों में पानी देना होता है. रिश्ते हमारी जिंदगी की जड़ हैं. यही जिंदगी को ताज़ा बनाए रखते हैं. रोशनी बख्शते हैं.
क्या रिश्ते भी बासी हो सकते हैं! संभव है, बहुत से पाठक इस शीर्षक से सहमत न हों, लेकिन इससे इनकार नहीं किया जा सकता. जिस किसी चीज से जीवन में प्रेम छूटता जाता है, समय और स्नेह छूटता जाता है. वह बासी होती जाती है! हमारी जिंदगी में बासी होते रिश्ते इसकी गवाही दे रहे हैं. जिंदगी को प्रेम की धूप दीजिए! थोड़ा इत्मिनान दीजिए! स्मार्टफोन आने के बाद से जिंदगी में सबसे ज्यादा उथल-पुथल हुई है. पहली बार टेलीविजन की जिंदगी में आने पर समय की कमी महसूस हुई. उसके बाद स्मार्ट टीवी जब कमरे-कमरे में लगते गए, तो लगा कुछ घट रहा है. अब जब स्मार्टफोन है और असीमित इंटरनेट, तो जहां एक तरफ हम निजता का उत्सव मनाने में व्यस्त हैं, वहीं मन के किसी कोने में अकेलापन बढ़ रहा है. जो मन को खुरदरा बनाता जाता है!
हम रो नहीं रहे. भावुक नहीं होते. बस हमारे दिल में बेचैनी और उदासी के दौर गहरे होते जा रहे हैं. इंटरनेट के कंधे पर सवार होकर, स्मार्टफोन के रास्ते हमारे मन में अनियंत्रित और सुनियोजित हिंसा परोसी जा रही है. टीवी ने जिस काम की शुरुआत की थी, वेबसीरीज के साथ हम सही मायने में बुद्धू बक्से के सामने बैठे रहते हैं. टेलीविजन ने हमारी सोचने समझने की शक्ति को कमजोर करने की दिशा में धीरे-धीरे कदम बढ़ाया. अब स्मार्टफोन और व्हाट्सएप ने हमारी जिंदगी के समानांतर एक ऐसी दुनिया बना दी है, जिसमें गहरी शून्यता और अकेलापन है.
'गैंग्स ऑफ वासेपुर-2' का नायक फैजल पूरी फिल्म में गहरी उदासी में है. जब फिल्म/ उसकी जिंदगी अंतिम पड़ाव की ओर पर बढ़ रही होती है, तो संभवत: एक ही दृश्य में उसे रोते हुए दिखाया गया है. इसमें उसकी उदासियों का ब्यौरा है. जिंदगी कहां से कहां चली गई, इस दृश्य में उसकी कहानी है! रिश्ते के एक छोटे से छल ने उसकी आत्मा पर सबसे बड़ा बोझ लाद दिया था!
ऐसे छोटे-छोटे छल हमारी जिंदगी में बहुत बड़ा असर डाल देते हैं. रिश्तों की सेहत के प्रति सजगता होनी जरूरी है. पेड़ को बचाए रखने के लिए पत्तियों में नहीं, जड़ों में पानी देना होता है. रिश्ते हमारी जिंदगी की जड़ हैं. यही जिंदगी को ताज़ा बनाए रखने हैं. रोशनी बख्शते हैं.
बुद्ध का एक सुंदर प्रसंग है. बुद्ध के पास एक प्रौढ़ व्यापारी आता है. जिसकी पीड़ा बस इतनी है कि उसे कटु अनुभवों से मुक्ति नहीं मिल रही. वह जीवन को समाप्त करने की बात करता है. बुद्ध कहते हैं, समाप्ति से कुछ नहीं होगा. जो कल हो गया है उसे आज में लाने से बचना होगा. हर दिन पुरानी स्मृति से ही आगे बढ़ना होगा. सूरज अगर हर दिन के बादलों के बारे में सोचने लगे, तो वह अपनी यात्रा जारी ही नहीं रख पाएगा. धर्म अगर कुछ है तो वह केवल इतना है कि प्रकृति की तरह जीवन के प्रति आस्थावान बने रहना. एक-दूसरे को छोटी-छोटी चीजों के लिए क्षमा करते रहने का अभ्यास मन को मजबूत बनाता है. मन में काई जमने से रोकता है. मन को नरम, उदार बनाए रखने के लिए कोमलता के बीज बोते रहिए. अपेक्षा नहीं केवल स्नेह पर जोर दीजिए!
हर दिन नई यात्रा आरंभ करने का खुद से वादा, अतीत की गलियों में भटकने से रोकता है. किसी यात्री की तरह. यात्री हर दिन की यात्रा से सबक लेते हैं, लेकिन थमते नहीं हैं! जीवन में अलग-अलग मोड़ पर अलग-अलग तरह के रिश्ते मिलते हैं. उनके प्रति सही दृष्टिकोण, दूसरों के प्रति करुणा और स्नेह से ही जीवन को गतिमान बनाया जा सकता है. रिश्तों को प्रेम की धूप जितनी अधिक मिलेगी, जिंदगी उतनी ही रोशन होगी.
-दयाशंकर मिश्र
हम अक्सर करुणा और प्रेम की शक्ति को कमतर मानते हैं, लेकिन जिन्होंने इसे महसूस किया है, वह मानते हैं कि इससे जीवन की किसी भी कठिनाई का सामना किया जा सकता है!
हमारे जीवन से एक बरस की यात्रा अब थोड़ी-सी दूरी पर है. यह साल अपनी यात्रा पूरी ही करने वाला है. त्योहार भारतीय जीवन पद्धति का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं. मेरा ख्याल है कि हम सबको अपने आसपास मौजूद लोगों के प्रति थोड़ी अधिक उदारता दिखानी चाहिए. फेसबुक पर इन दिनों एक वीडियो वायरल हो रहा है, जिसमें पंजाब की बहुत ही भावुक कहानी है. कोरोना और लॉकडाउन के कारण बढ़ती बेरोजगारी में अपनी तरह से स्थितियों से लोहा लेने का काम अपना छोटा-सा कारोबार संभालने वाली पूजा करती हैं. पूजा अपने साथियों को इस तरह से संभालती हैं कि उन्हें बड़े-बड़े लोग पूजा दीदी कहने लगते हैं. इस विज्ञापन का शीर्षक भी पूजा दीदी ही है. इसे देखने वाले बड़ी मुश्किल से अपनी आंखों की नमी रोक पाते हैं. इस कहानी में पूजा बहुत बड़ा काम नहीं कर रहीं, लेकिन वह आगे बढ़कर समाज का दुख और परेशानी कम करना चाहती हैं. अपने हिस्से की सुविधा को थोड़ा कम करते हुए.
यह जो पूजा का किरदार है, हमारा पुराना वाला भारत यही है. थोड़ा पीछे जाकर हम देखते हैं, तो पाते हैं कि अपने यहां मुश्किल दिनों में भी लोगों को नौकरी से निकालने का तरीका जितना इधर पंद्रह- बीस वर्षों में फैला है, उतना पहले नहीं था.
हम धीरे-धीरे सारे सपने केवल अपने लिए बुनने लगे हैं. ऐसी आंखें जिनके सपने की सीमा बहुत सीमित होती है, वह अपने जीवन को विस्तार नहीं दे पातीं. अपने साथ थोड़ा दूसरों के लिए सोचना, जिंदगी को सुकून, आनंद और सुख देता है. एक-दूसरे का साथ देते हुए जिंदगी में आगे बढ़ने के लिए हुनर से अधिक हौसले और करुणा की जरूरत होती है. हम अक्सर करुणा और प्रेम की शक्ति को कमतर मानते हैं, लेकिन जिन्होंने इसे महसूस किया है, वह मानते हैं कि इससे जीवन की किसी भी कठिनाई का सामना किया जा सकता है.
'जीवन संवााद' के सभी पाठकों को दीपावली और नववर्ष की शुभकामना. मैं आप सभी से अनुरोध करना चाहता हूं कि अपनी जिंदगी में थोड़ी-थोड़ी उदारता बढ़ाएं. एक-दूसरे की गलतियों को अनदेखा करना हमारी कमजोरी नहीं है. असल में एक-दूसरे को सहना है. एक-दूसरे को बर्दाश्त किए बिना जिंदगी बहुत मुश्किल हो जाएगी! अपनी-अपनी परेशानी और कमजोरियों के बाद भी जिंदगी मुमकिन है. इसका साथ बहादुरी और बड़े दिल के साथ करने से बड़े-बड़े बोझ हल्के होते जाते हैं!
-दयाशंकर मिश्र
तनाव के पलों में हर पल जीतने के उन्माद से मुक्त होकर हम अपना जीवन सुकून से जी सकते हैं. हमेशा अपने को सही साबित करने से बचें, इससे जिंदगी में केवल तनाव बढ़ता है, और कुछ नहीं.
जीवन के अनेक संकट अपने आप ही दूर हो जाएं, अगर हम हर बात पर जीतने की ज़िद छोड़ दें. हारने को राजी हो जाएं. किसी एक दिन सोचकर देखें कि बस आज जीतने की ज़िद नहीं करेंगे. आज हारकर ही काम चला लेंगे. इस वादे को निभाया जा सके, तो आप पाएंगे कि दिन बड़ा ही खूबसूरत हो जाता है. दिन खूबसूरत होते ही जिंदगी पर उसका असर देखा जा सकता है.
मेरा बचपन खूब सारी कहानियों के बीच गुजरा. इनमें से एक कहानी बहुत पसंद है, जिसे आपसे साझा करने जा रहा हूं. एक बार एक राजा ने कहा कि किसी सुखी व्यक्ति को खोजकर लाओ. बहुत सारे लोग राजा के सामने खड़े कर दिए गए, लेकिन उसके चतुर मंत्री के सामने कोई भी ऐसा न टिक पाता, जिसे कोई दुख न हो. असल में लोग इनाम के लालच में सुख के मुखौटे लगाकर दरबार में आते थे. राजा और उसका मंत्री कुछ ही देर में उनकी असलियत समझ जाते.
कई दिन तक यह खेल चलता रहा. कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं मिला जिसके बारे में कहा जा सके कि वह सुखी है. एक दिन राजा ने इनाम की घोषणा करते हुए कहा, जो कोई भी किसी सुखी व्यक्ति को ले आएगा उसे भी इनाम दिया जाएगा. अब तक तो बात यह थी कि सुखी आदमी को इनाम मिलेगा, लेकिन अब तो सुखी आदमी को खोजने वाले को भी इनाम की घोषणा हो गई.
गांव के किनारे रहने वाला एक गरीब आदमी एक ऐसे व्यक्ति को जानता था, जो हमेशा अपनी मौज में रहता था. वह उसके पास पहुंचा और कहा कि आप मेरी गरीबी दूर करें. पहले तो वह राजी न हुआ, लेकिन उस जरूरतमंद की मदद के लिहाज से वह तैयार हो गया. राजा ने उससे पूछा, क्या तुम सच में सुखी हो! सुख का राज क्या है? उसने मुस्कराते हुए कहा, जीतने से मुक्ति, लेकिन केवल इससे सुख नहीं मिल जाता. मैं तो बिना लड़े ही हारने को तैयार हूं. उससे पूछा गया, क्या उसने कभी दुख को महसूस किया! उसने बड़ा सुंदर उत्तर दिया, मैंने कभी भी सुख को समझने की कोशिश नहीं की. सुख-दुख अलग-अलग नहीं हैं. एक को खोजने जाएंगे, तो दूसरा मिल ही जाएगा.
अपनी बात स्पष्ट करते हुए उसने कहा, मेरा कोई अपमान नहीं कर पाया, क्योंकि मैंने कभी अपने सम्मान की व्यवस्था नहीं की. मैं सबसे पीछे खड़े रहने को तैयार हूं. मुझे कौन पीछे करेगा. जो सबसे पीछे रहने को तैयार है, उसे कौन पीछे छोड़ेगा! राजा ने अंततः मान लिया कि सबसे सुखी व्यक्ति उसे मिल गया है.
हर दिन की भागदौड़ भरी जिंदगी में, तनाव के पलों में हर पल जीतने के उन्माद से मुक्त होकर हम अपना जीवन सुकून से जी सकते हैं. हमेशा अपने को सही साबित करने से बचें, इससे जिंदगी में केवल तनाव बढ़ता है, और कुछ नहीं. (hindi.news18.com)
-दयाशंकर मिश्र
हमने बाहरी चीज़ों पर सुख की निर्भरता इतनी अधिक बढ़ा दी है कि अगर वह नहीं है तो भी हमें उसे दिखाना है. जो नहीं है, उसको दिखाने का काम ही मुखौटा करता है.
खुद को सुखी और प्रसन्न रखना अच्छी बात है, लेकिन भीतर से ऐसा नहीं होते हुए केवल वैसा प्रदर्शित करना कुछ ऐसा है जैसे एक मकान बाहर से चमकदार है, लेकिन भीतर से कमजोर और खोखला होता जा रहा है. बाहर तो मकान में जमकर रंग-रोगन किया गया है, लेकिन भीतर उसे लगातार जर्जर होने दिया जा रहा है.
दीपावली, निकट है. इसलिए, मकान का उदाहरण अधिक प्रासंगिक है. हमने बाहरी चीज़ों पर सुख की निर्भरता इतनी अधिक बढ़ा दी है कि अगर वह नहीं हैं, तो भी हमें उन्हें दिखाना है. जो नहीं है उसको दिखाने का काम ही मुखौटा करता है.
असुविधा, संकट और दुख अलग-अलग होने के साथ ही हमारे जीवन के निकट संबंधी हैं. इनसे ऐसा व्यवहार नहीं करना चाहिए कि मानो यह अपरिचित हों. इनका सामना करने में शर्मिंदगी का भाव अपने मन को कमजोर बनाने सरीखा है.
एक बार शहर के एक बड़े उद्योगपति मनोचिकित्सक के पास पहुंचे. उन्होंने कहा, 'सबकुछ होने के बाद भी मैं सुखी महसूस नहीं कर पाता. हमेशा डर बना रहता है, कहीं सबकुछ खत्म ना हो जाए'. मनोचिकित्सक ने उनसे कहा, 'क्या आप कभी दुखी दिखते हैं. किसी से कह पाते हैं कि आप दुखी हैं'. उन्होंने कहा, ' नहीं, समाज में मेरी बहुत प्रतिष्ठा है. मुझे हर हाल में खुद को खुश और सबसे आगे दिखाना होता है'. बुजुर्ग मनोचिकित्सक ने जवाब देते हुए कहा, 'यह सब बाहरी आवरण है. मन में काई जमी रहेगी, तो बाहर से उस पर प्रसन्नता के फूल खिलाने का कोई अर्थ नहीं.'
इस बात को समझना जरूरी है कि भीतर से हम कैसा महसूस करते हैं. दुनिया की सारी प्रतिष्ठा और कामयाबी मनुष्य के जीवन से बढ़कर नहीं है. जैसे ही हम किसी भी चीज को जीवन से बढ़कर मान लेते हैं, हमारा जीवन दोयम दर्जे का होता चला जाता है.
इसलिए हमें सबसे पहले असफलता को स्वीकार करने की ओर बढ़ना होगा. रेलगाड़ी के गुजर जाने के बाद प्लेटफार्म उसकी याद में बैठे नहीं रहते. उनको तो हर क्षण नई रेलगाड़ी का स्वागत करने के लिए तैयार रहना होता है. हमें भी जीवन में इसी तरह की सतत तैयारी रखनी होती है. अपने स्वभाव को हम जितना सहज और सामान्य रहने देंगे, मन पर उतनी ही कम मैल जमेगी.
जापान में इन दिनों एक सुंदर प्रयोग हो रहा है. विज्ञान और तकनीक से वहां के समाज की निकटता इतनी अधिक हो गई कि लोग अपनी भावनाएं प्रकट करना भूल गए. इसलिए वहां रोने का अभ्यास कराया जा रहा है. भावनाओं को प्रकट करने पर जोर दिया जा रहा है. अच्छी बात है कि हमारा समाज अभी उस स्थिति में नहीं पहुंचा है, लेकिन हम बस उसी ओर जा रहे हैं, इसलिए स्वभाव के मुखौटे के प्रति सावधान रहिए. सुखी हैं तो कहिए और अगर किसी कारण से मन उदास है. उस पर दुखी छाया पड़ रही है, तो भी कहने से पीछे मत हटिए. (hindi.news18.com)
-दयाशंकर मिश्र
हम उतने ही अधिक असुरक्षित होते जा रहे हैं, जितने ज्यादा सुरक्षा के इंतजाम करते जा रहे हैं! यह कुछ-कुछ ऐसा है, जैसे पेड़ का ख्याल रखने के नाम पर हम केवल फूल और पत्तियों को पानी देते रहें, जड़ को भूल ही जाएं!
हम सब इसी डर से जिए जा रहे हैं कि किस तरह से खुद को सुरक्षित कर लिया जाए. कहीं ऐसा न हो कि कोई ऐसी स्थिति आए जहां हम असुरक्षित पाए जाएं. यह ऐसा विचार है, जिसमें अमेरिका जैसे शक्तिशाली राष्ट्र से लेकर जनसामान्य तक शामिल हैं. कितनी मजेदार बात है कि हर कोई खुद को सुरक्षित करने के फेर में असुरक्षित होता जा रहा है. कॉलोनी के बाहर भारी-भरकम दरवाजों की उपस्थिति से आगे बढ़े, तो घर के बाहर लोगों ने छोटे-छोटे दुर्ग बना लिए हैं. सुरक्षा के बड़े तगड़े इंतजाम हैं. हम उतने ही अधिक असुरक्षित होते जा रहे हैं, जितने ज्यादा सुरक्षा के इंतजाम करते जा रहे हैं!
यह कुछ-कुछ ऐसा है, जैसे पेड़ का ख्याल रखने के नाम पर हम केवल फूल और पत्तियों को पानी देते रहें, जड़ को भूल ही जाएं! हम पेड़ की जड़ों की अनदेखी करके उनको नहीं बचा सकते. अपने जीवन के साथ भी हम कुछ ऐसा ही कर रहे हैं. हम स्वस्थ होने पर उतना अधिक ध्यान नहीं देते, जितना हमारा ध्यान बीमार पड़ने की तैयारी के लिए होता है. हमारा ध्यान स्वस्थ चित्त की जगह बीमारी का उपचार करने पर है. हम पहले से अधिक स्वस्थ नहीं हो रहे हैं. हां, बीमार पड़ते ही हमारे पास इलाज के बहुत सारे साधन जरूर इकट्ठे हो गए हैं. थोड़ा ध्यान देकर देखेंगे, तो पाएंगे हमारे घर, अपार्टमेंट और कॉलोनियां डर से कांप रहे हैं. सुरक्षा के एक से बढ़कर एक इंतजाम, लेकिन उसके बाद भी चैन की नींद नहीं. हमें इस बात का ख्याल करना चाहिए कि सीसीटीवी कैमरे पर हमने अपने पड़ोसी से कहीं अधिक भरोसा कर लिया है. इससे हुआ यह कि पड़ोसी छूट गए और सीसीटीवी कैमरे बढ़ते गए.
टूटते घर, परिवार और समाज की कहानी से अलग नहीं हैं. हर कोई थोड़ी-सी आर्थिक स्थिति मजबूत होते ही असुरक्षित महसूस करने लगा. अपने ही भाइयों और परिवार से. रांची से जीवन संवाद की पाठक रुचि वर्मा लिखती हैं, 'जैसे ही संयुक्त परिवार में कोई एक व्यक्ति दूसरों के मुकाबले आर्थिक रूप से मजबूत होता जाता है, वह अपना प्रभाव जमाने की कोशिश करने लगता है. वह अपने वक्तव्य देने लगता है. बाकी लोगों को कमतर मानने लगता है.' रुचि ने परिवार के मनोविज्ञान की सही रग पर हाथ रखा है. असल में हर कोई अपना प्रभाव जमाना चाहता है. उसे लगता है, वही सही है. दूसरे (अपने अतिरिक्त हर कोई) उसकी हासिल संपदा का महत्व समझने को राजी नहीं. यहीं से परिवार में एक-दूसरे के खिलाफ मनमुटाव और विरोध शुरू हो जाता है. विरोध सही गलत का नहीं होता. मन के अहंकार का होता है. असुरक्षा की दीवार बहुत तेजी से बढ़ने लगती है. एक बार दीवार उठ गई, तो फिर उसे तोड़ना बड़ा मुश्किल हो जाता है.
पूरी दुनिया असल में वैसी ही है, जैसे हम हैं! उतनी ही नेक, हमदर्द और ईमानदार. जितने हम हैं. दुनिया के सारे युद्ध असुरक्षित मन के युद्ध हैं. गलत व्याख्या के युद्ध हैं. जीवन को असुरक्षा और गलत व्याख्या से बचाए रखना अपने ही प्रति सबसे बड़ा प्रेम है! अपने मन को हमें थोड़ा भरोसा देने की जरूरत है. प्यार और विश्वास देने की जरूरत है. खुद को असुरक्षित होने से ऐसे ही बचाया जा सकता है. (hindi.news18.com)
-दयाशंकर मिश्र
युवाओं के बीच एक चीज बहुत तेजी से लोकप्रिय हो रही है. किसी भी कीमत पर अपनी हैसियत कम न बताना. अपनी सामाजिक हैसियत को कर्ज के सहारे चमकदार बनाने की चाहत ने हमें गहरे संकट में डाल दिया है.
कोरोना के हमारे जीवन में प्रवेश के बीच हमारी नजर कुछ ऐसे संकटों पर भी पड़ रही है, जिन पर पहले हमारा ध्यान ही नहीं था. कुछ दिन पहले क्रेडिट कार्ड से जुड़ी एक संस्था ने अपनी रिपोर्ट जारी करते हुए बताया है कि क्रेडिट कार्ड से कर्ज लेने वालों की संख्या पिछले छह महीने में कई गुना बढ़ गई. इतना ही नहीं अब छोटे और मध्यम दर्जे के शहरों में भी क्रेडिट कार्ड लोकप्रिय होते जा रहे हैं. इनसे जुड़ी कंपनियों के लिए निश्चित रूप से अच्छी खबर हो सकती है, लेकिन बढ़ता हुआ कर्ज व्यक्तियों के लिए बहुत संकटकारी है. युवाओं के बीच एक चीज बहुत तेजी से लोकप्रिय हो रही है. किसी भी कीमत पर अपनी हैसियत कम न बताना. दूसरों के पास जो चीजें हैं, उसे किसी भी तरह अपने पास ही रखना, जिससे सामाजिक हैसियत चमकदार बनी रहे. भले ही बुनियाद खोखली होती जाए.
मनोवैज्ञानिक इसे टेंपरेरी मैडनेस (अस्थाई पागलपन) कहेंगे. याद रहे, गुस्से को भी मनोविज्ञान की भाषा में टेंपरेरी मैडनेस ही कहा जाता है. जब यह अस्थायी भाव, स्थायित्व की ओर बढ़ने लगे, तो हमें स्वीकार करना होगा कि हम संकट वाली सुरंग में प्रवेश कर गए हैं. जंगल में टहलना अलग बात है और भटक जाना दूसरी बात. अपने जीवन-मूल्यों की निरंतर उपेक्षा के कारण हम जीवन के रास्ते में भटक गए हैं. बड़ी संख्या में कर्ज पर निर्भरता जिंदगी की बुनियाद को कमजोर करने वाली है.
आप सोच रहे होंगे गुस्से और कर्ज से अपनी झूठी शान बघारने को मैं जोड़ क्यों रहा हूं! यह इसलिए, क्योंकि दोनों के ही मूल में उलझन है. हम सुलझने के रास्ते पर नहीं हैं. हमारी चेतना और मन रास्ते से भटककर उलझ गए हैं. जो कर्ज में डूबता जा रहा है, उसे ख्याल ही नहीं कि तैर नहीं रहा है, बल्कि डूब रहा है. डूबने वाले को कभी नहीं लगता कि वह डूब रहा है. उसे हमेशा यही लगता है कि उसे डुबोया जा रहा है. हम खुद को बहुत अधिक मासूम और भोला समझते हैं. दूसरों पर हंसते हुए. उनकी निंदा करते हुए. उनका मजाक उड़ाते हुए हमें ख्याल ही नहीं रहता कि हम किस दिशा में जा रहे हैं!
मैं अपने अनुभव की बात करूं, तो पिछले 6 महीने में मैं कम से कम ऐसे 10 लोगों से मिल चुका हूं, जो आर्थिक संकट के कारण जीवन समाप्त करने की कगार तक पहुंच चुके थे. जीवन से इतने अधिक निराश हो गए थे कि कोई रास्ता ही नहीं दिखता था. सब तरफ से केवल अंधेरा था. असल में यह सब बहुत अधिक आशावादी लोग थे. इतनी अधिक आशा ओढ़ ली थी इन्होंने कि उसके बाद निराशा ही बाकी थी. जब हमने इनसे बात शुरू की तो देखा पिछले कई वर्षों से इन सबके जीवन में कर्ज बढ़ता ही जा रहा था. व्यापारिक कौशल, सूझबूझ की कमी के कारण यह नुकसान इतना अधिक नहीं हुआ जितना झूठी शान-शौकत और बहुत अधिक वैभव के प्रदर्शन में हुआ. जिसको आजकल 'स्टेटस मेंटेन' करना भी कहते हैं.
आपसे इसके बारे में एक बात और साझा करना चाहता हूं कि इनमें से अधिकांश पुरुष थे और उन्होंने कभी अपनी जीवनसाथी से आर्थिक संकट का जिक्र नहीं किया, क्योंकि इससे उनके अहंकार को चोट पहुंचती थी. संभव है अब आप अहंकार, गुस्से और कर्ज के आपसी संबंध को समझ पाएं. अहंकार का अर्थ ही हुआ कि हम स्वीकार नहीं करेंगे! मानेंगे ही नहीं कि हम गलत हैं. हम भला गलत कैसे हो सकते हैं. गुस्सा इसलिए, क्योंकि जैसे ही कोई हमसे बात शुरू करता है, हमारी कमजोरी पर हम भड़क जाते हैं. अब इसको कर्ज़ से जोड़िए. जो विनम्र हैं, संभव है भावुक होकर अपने परिवार से अपना कष्ट कह दें. जो विनयशील हैं, उनके भीतर खुद के छोटा दिखने का डर नहीं रहता. वह भी अपना संकट परिवार से कह देते हैं, लेकिन जो गुस्से और अहंकार से भर गए हैं, वह संकट में भी खुद को खोल नहीं पाते. कर्ज की खाई में धंसते ही जाते हैं! इसलिए जरूरी है कि हम अपनी अर्थव्यवस्था के प्रति जागरूक बनें. अपने नजरिए रवैया को विनम्र और पारदर्शी बनाएं. इससे जीवन को सुलझाने में मदद मिलेगी. इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि लोग आपके बारे में क्या सोचते हैं. फर्क इससे पड़ता है कि आपका परिवार और आप संकट से कैसे खुद को बचाते हैं!
(hindi.news18.com)
-दयाशंकर मिश्र
जब तक दूसरों के मुकाबले सुख को देखना हम बंद नहीं करेंगे। हम भटकते ही रहेंगे। बाजार का उपयोग हमें करना है, वह हमारा इस्तेमाल करने लगा। इससे बचने की जिम्मेदारी हमारी है।
यह पता करना मुश्किल नहीं है कि महत्वाकांक्षा ने हमें सुखी करने की जगह कहीं गहरे में जाकर दुखी किया है! हमारी नजर केवल उन चीजों पर टिकी रहती है, जो बहुत अधिक चमकदार हैं, जबकि हमें कहीं अधिक ध्यान देने की जरूरत है उस ओर जहां मुलायम और कोमल हिस्सा है। आज संवाद की शुरुआत एक छोटी-सी कहानी से करते हैं।
किस्सा नदी के किनारे बसे गांव का है। गांव में बाढ़ आ गई। सबका बहुत नुकसान हुआ। एक आदमी चिंतित होकर बैठा है। गहरी सोच में डूबा हुआ। उसका घर, पशु, जरूरी सामान और खेत सब कुछ बाढ़ में नष्ट हो गए। तभी उसके पास उसका पड़ोसी पहुंचा और उसने बताया कि गांव में किसी का कुछ नहीं बचा। उस व्यक्ति का भी नहीं, जो गांव में सबसे अधिक सक्षम था। उसका भी नहीं जो गांव में हमारा शत्रु था। किसी का कुछ नहीं बचा सबका सब कुछ तबाह हो गया है। कुछ देर तक वह व्यक्ति सूचना देता रहा कि क्या-क्या नष्ट हो गया है किस-किस का। थोड़ी देर बाद चिंतित आदमी उठ खड़ा हुआ और उसने कहा कि असल में सवाल यह नहीं था कि मेरा सब बह गया। सवाल यह भी था कि किसका क्या क्या बचा रह गया! अब तुम कह रहे हो कि सबका सब कुछ नष्ट हो गया, तो अब हम सब बराबरी पर हैं। कहीं कोई दिक्कत नहीं। कोई बड़ा-छोटा नहीं। कोई सबसे पहले नहीं। अब सब बराबरी पर हैं!
सोचने-समझने का तरीका कुछ इसी तरह से हमारे दिमाग में बैठा हुआ है। इससे कोई अंतर नहीं पड़ता कि जीवन के आंगन में सुख उतरा है। दुख आया है। दिमाग में केवल यही है कि किसके हिस्से कितना आया।
दूसरे से मुकाबला करते हुए हम निरंतर हारते ही रहते हैं। इस मुकाबले को बंद करना होगा। इससे जि़ंदगी में कोमलता कम हो रही है। नमी केवल आंखों से कम नहीं होती, वह तो भीतर से सूखती है। जब तक दूसरों के मुकाबले सुख को देखना हम बंद नहीं करेंगे। हम भटकते ही रहेंगे। बाजार का उपयोग हमें करना है, वह हमारा इस्तेमाल करने लगा। इससे बचने की जिम्मेदारी हमारी है। भटकाव की यात्रा पर हमें हर कोई ले जाने को तैयार है।
‘जीवन संवाद’ को रिश्तों, करियर और रोजमर्रा की जिंदगी से जुड़े हर दिन ऐसे अनुभव मिलते हैं जिनमें हर कोई इसलिए दुखी नहीं है कि उसके जीवन में सुख नहीं है। वह दुखी ही केवल इसलिए है, क्योंकि उसके मुकाबले लोग बहुत आगे निकल गए हैं। असल में लोग भी कहीं दूर नहीं निकले हैं बस यही उनका भ्रम है। आगे निकले हुए लोगों से इत्मिनान से बात करने पर समझ में आएगा कि वह तो उसके लिए तरसते हैं जो पीछे छूट गया है!
हमारे जीवन में बढ़ता हुआ कर्ज, हर कीमत पर खुद को सबसे बड़ा दिखाने की इच्छा, हमें ऐसी बंद गली की ओर ले जा रहे हैं, जहां से आगे का रास्ता बहुत साफ नहीं दिखाई देता।
इससे पहले कि यह रास्ते हमेशा के लिए बंद हो जाएं, हमें समय रहते रोशनदान बनाने की जरूरत है।
-दयाशंकर मिश्र
अपने भीतर कोमलता और रिक्तता को बनाए रखना बहुत जरूरी है। दूसरों के लिए मन में जगह बनाए बिना अपने लिए भी प्रेम को बचाए रखना मुश्किल हो जाएगा!
हम अक्सर ऐसी स्मृतियों को मिटाने की कोशिश में रहते हैं जो हमारे अंतर्मन को परेशान करती रहती हैं। किसी को भी खत्म करने की कोशिश असल में उसके बहुत सारे रूपों को जिंदा करने जैसी है। पूरी तरह किसी भी चीज का होना बड़ा ही मुश्किल है। जीवन, केवल आंकड़ों में बंटा हुआ नहीं है। केवल आंकड़ों के आधार पर जिंदगी को समझना संभव नहीं। हम कोशिश तो जरूर करते हैं, लेकिन जीवन के अतिरिक्त दूसरे क्षेत्रों में ही ऐसा कर पाना संभव होता है। जिंदगी में हमेशा आर या पार जैसा कुछ नहीं होता। कुछ ऐसा होता है, जो दोनों के बीच अटका रहता है।
जीवन को थामने वाली बहुत सी चीजें हमसे छूटकर भी नहीं छूटतीं। मन से स्मृतियों की धूल तो झाड़ी जा सकती हैं, लेकिन कुछ गहरे निशान ऐसे होते हैं, जो हमेशा साथ रहते हैं। उनको मिटाना संभव नहीं होता। हां, भुलाने की ओर बढ़ा जा सकता है। इसके लिए पहले हमें यह स्वीकार करना ही होगा कि इसे मिटाया नहीं जा सकता। हां, धीरे-धीरे विस्मृत किया जा सकता है। आहिस्ता-आहिस्ता उससे बाहर जाया जा सकता है!
प्रकृति के अलावा किसी में पूर्णता नहीं। न तो बुद्धि में पूर्णता है, न ही बुद्धि से बाहर। एक छोटा-सा किस्सा सुनिए!
बचपन में मेरे साथ एक बड़ा अनूठा सहपाठी था। एक बार शिक्षक महोदय ने उसकी पिटाई कर दी। माहौल ही कुछ ऐसा रहता था कि शिक्षक की पिटाई के लिए वह छात्र ही सबसे उपयुक्त था। उसके माता-पिता का स्पष्ट विचार था कि बच्चों को ऐसे ही ठीक किया जा सकता है। शारीरिक रूप से वह काफी तंदुरुस्त था। इसलिए छोटी-मोटी हिंसा को सरलता से झेल जाता था। एक दिन गुरुजी का मन कुछ बदला हुआ था। वह पिटाई करने के ‘मूड’ में नहीं थे। उन्होंने उससे कहा, ‘तुम पूरी तरह गधे हो!’ हमारे मित्र का मूड भी कुछ दूसरा था, ‘उसने कहा था, ‘’ाप मेरी झूठी तारीफ न करें। आप ही तो कहते हैं संसार में कुछ भी पूर्ण नहीं! तो मैं पूरी तरह गधा कैसे हुआ! आप मेरी झूठी तारीफ मत कीजिए!’
उसके इस बोधवाक्य से कक्षा में हंगामा हो गया। उस दिन के बाद गुरु जी ने कई दिन बिना बात के ही अपना हिसाब-किताब बराबर किया। संभव है, वह हमारे बीच स्थापित करना चाहते हों कि केवल वही पूर्ण हैं! हम सब तो इस बात को जानते थे, केवल उन्हें ही भ्रम था!
पूर्णता का भ्रम, हमारे जीवन के सबसे कठिन, खतरनाक भ्रम में से एक है। पूरी जिंदगी हम इसमें उलझे रहते हैं। कभी हमें लगता है कि हमें किसी की ओर देखने की जरूरत नहीं। न सुनने, न समझने की। जीवन में इस तरह एक किस्म की कठोरता घर करती जाती है। हमारा रास्ता अकेला और कठोर होता चला जाता है। इसलिए, अपने भीतर कोमलता और रिक्तता को बनाए रखना बहुत जरूरी है। दूसरों के लिए मन में जगह बनाए बिना, अपने लिए प्रेम को बचाए रखना मुश्किल हो जाएगा! (hindi.news18.com)
-दयाशंकर मिश्र
अपने प्रेम को अगर हम केवल फेसबुक लाइक, शेयर और रीट्वीट के सहारे छोड़ देंगे, तो हमारी जिंदगी कागज के फूलों के आसपास ही सिमटकर रह जाएगी। जाहिर है, जीवन की सुगंध से हम दूर होते चले जाएंगे!
कागज पर कितने ही सुंदर फूल खिला लिए जाएं, खुशबू के लिए तो असली फूल लाने ही होंगे। आभास अलग बात है, खुशबू का सामने होना अलग अनुभव है। सोशल मीडिया की भीड़ में हम इस अंतर को भूलते ही जा रहे हैं। हम एक-दूसरे से इतने अधिक दूर होते जा रहे हैं कि इस बात को समझना लगभग मुश्किल होता जा रहा है कि हमें एक-दूसरे की कितनी परवाह है। हमारे मन कभी नदी के किनारों सरीखे थे। दूर थे, लेकिन इतने नहीं कि नजर न आ सकें। एक-दूसरे की आंखों के सामने आए बिना भी मिले रहते थे। अब दूरी इतनी बढ़ती जा रही है कि हमारे लिए एक-दूसरे को बर्दाश्त करना लगभग मुश्किल होता जा रहा है। जिंदगी में तकनीक को हम इसलिए लेकर आए थे कि थोड़ा वक्त बचा जा सकें। जिंदगी को दुलार और प्रेम के लिए अतिरिक्त समय मिल सके, लेकिन कहानी दूसरी दिशा में मुड़ गई। स्मार्टफोन, इंटरनेट हमारे मन और दिमाग के लिए सबसे बड़ी चुनौती बनते जा रहे हैं। करोड़ों युवा अपनी रचनात्मकता और जिंदगी को किसी सार्थक दिशाा में ले जाने की जगह मोबाइल पर सतही और दिमाग को बोझिल बनाने वाली सामग्री में उलझे हुए हैं।
मदद करने वाले की जगह हम तमाशा खड़ा करने, देखने वाले समाज के रूप में बदलते जा रहे हैं। सडक़ किनारे घायलों की मदद करने वालों की जगह उनका वीडियो बनाने वालों की बढ़ती संख्या यह संकेत कर रही है कि समाज में प्रेम और सद्भाव चिंताजनक स्तर तक पहुंच गए हैं।
हम वही शिकायत कर रहे हैं, जैसा खुद दूसरों के साथ कर रहे हैं। इस बात को समझना बहुत जरूरी है कि जो कुछ भी हम हासिल करते हैं, वह अंतत: हमसे ही चिपका रहेगा। हम तक ही सिमटा रहेगा। दूसरों को जो दिया जाना है, असल में केवल वही प्रेम है। अनुराग है। कागज के फूल कभी बाग के फूलों के मुकाबले नहीं टिक सकते। हमने इंटरनेट को जिंदगी में इतना महत्व दे दिया कि माता-पिता, बच्चे और भाई-बहन सब पीछे छूटते जा रहे हैं। हम प्रेम करना नहीं चाहते, लेकिन प्रेम करते हुए दिखना चाहते हैं। सहायता नहीं करना चाहते, लेकिन तस्वीरों के फ्रेम इस तरह रचते हैं कि सब ओर हम ही दिखें। हम दूसरों की जगह अपने अहंकार के प्रेम में उलझे हुए हैं। एक छोटी-सी कहानी कहता हूं-
एक बार शहर के सबसे अमीर आदमी की तबीयत खराब हुई। बहुत कोशिश हुई, लेकिन उसका मन ठीक न हो सका। तब एक दिन उसके वैद्य ने कहा कि उसे किसी मन के जानकार से मिलना चाहिए। उस समय तक मनोचिकित्सा जैसी विधा सामने नहीं आई थी, लेकिन मन भी था और उसका इलाज भी!
बुजुर्ग वैद्यजी ने थोड़ी देर सेठ जी से बात करने के बाद कहा, ‘अपनी ओर से जोडऩा बंद कर दो, सब ठीक हो जाएगा’! सेठ जी को बात समझ में नहीं आई। बुजुर्ग वैद्य जी ने प्यार से समझाया, ‘जब हम किसी से प्रेम करते हैं, तो उसके प्रेम में डूबते ही जाते हैं। उसके अवगुण भी गुण में बदलते जाते हैं। ठीक इसी तरह जब किसी से नाराज होते हैं, उससे मन खट्टा होता है, तो उसमें भी अपनी ओर से खटाई जोड़ते जाते हैं। इससे मन की सेहत बिगड़ती जाती है, क्योंकि प्रेम तो हम कम लोगों से ही करते हैं, लेकिन घृणा, नफरत और नाराजगी अनेक लोगों से रखते हैं, इसलिए मन का संतुलन बिगड़ता जाता है।
सोशल मीडिया के समय भी वैद्य जी की सीख पुरानी नहीं पड़ती। हम प्रेम के पुल कम बना रहे हैं, दूसरों के प्रति नाराजगी, घृणा और नफरत की जगह हर दिन बढ़ाते जा रहे हैं।
अपने प्रेम को अगर हम केवल फेसबुक लाइक, शेयर और रीट्वीट के सहारे छोड़ देंगे, तो हमारी जिंदगी कागज के फूलों के आसपास ही सिमटकर रह जाएगी। जाहिर है, जीवन की सुगंध से हम दूर होते चले जाएंगे!
-दयाशंकर मिश्र
अपनी ओर देखना, मन पर जमा होने वाली धूल को साफ करते रहना मुश्किल तो नहीं लेकिन आसान भी नहीं। भीतर से इसके प्रति सजग नहीं होने के कारण हम इससे दूर ही रहते हैं!
होश संभालने से लेकर बड़े होने और जीवन के अंतिम चरण में प्रवेश करने तक हम अपनी ओर कितना कम ध्यान देते हैं। इसका शायद ही हमें कभी ख्याल रहता हो। हमारा पूरा ध्यान दूसरों पर ही केंद्रित रहता है। यहां जोर देकर कहना चाहूंगा कि यहां ‘आपके’ अतिरिक्त हर कोई दूसरा है। अपनी ओर देखना, मन पर जमा होने वाली धूल को साफ करते रहना मुश्किल तो नहीं, लेकिन आसान भी नहीं। भीतर से इसके प्रति सजग नहीं होने के कारण हम इससे दूर ही रहते हैं!
सबसे मुश्किल काम है अपनी ओर सहजता से देखते रहना। हर छोटी-छोटी बात पर हमारे आसपास जो तनाव गहरा होता जा रहा है, उसकी जड़ में सबसे अधिक एक दूसरे को सुनने की कमी के साथ ही प्रेम का सूखते जाना भी है। हमारे भीतर प्रेम केवल दूसरों के कारण ही कम नहीं होता। यह हमारे प्रति हमारी अपनी लापरवाही से भी कम होता जाता है! अपनी ही ओर से हम ध्यान हटा लेते हैं। सारा ध्यान दूसरे पर जो लगा रहता है!
थोड़ा ठहरकर सोचिए। सबसे अधिक परेशान क्या करता है। मन को सबसे अधिक नुकसान क्या पहुंचाता है। अपने ही विचार और भावना पर नियंत्रण नहीं होना हमारी सबसे बड़ी समस्या है। इस समस्या को हम हमेशा दूसरों की ओर धकेलते रहते हैं। हर चीज़ के लिए दूसरों की ओर देखते रहते हैं। अपनी ओर से एकदम संतुष्ट होकर हम दूसरों की ओर चीज़ों को उछलते रहते हैं। इस तरह हमारे आसपास समस्याएं बढ़ती जाती हैं, लेकिन समाधान कहीं नहीं होता। क्योंकि वह बाहर कहीं है ही नहीं।
कोरोना के कारण आर्थिक और मानसिक संकट दोनों गहरे हुए। जैसे एक तेज रफ्तार में चलती हुई रेलगाड़ी अचानक रुक जाए। चलते रहने से सब कुछ गति में होता है लेकिन अचानक ठहर जाने से जोर का झटका लगता है। उसके बाद भले ही थोड़ी देर रेलगाड़ी फिर अपनी गति को प्राप्त तकिया जाए, लेकिन मन में संदेह बढ़ जाता है। कोरोना के बाद अब चीजें पटरी पर लौटने की ओर बढ़ रही हैं, लेकिन संदेह बना हुआ है। हमारा स्वभाव ऐसा है कि संदेह आसानी से मन में बैठ जाते हैं, लेकिन विश्वास को जमने में वक्त लगता है।
इसलिए कोरोना के कारण रिश्तो में बहुत अधिक उठा-पटक देखी जा रही है। संदेह, दुविधा और अहंकार की टकराहट बढ़ती जा रही है। इसके लिए दूसरे कारणों के साथ अपनी ओर न देख पाना भी शामिल है। बल्कि इसे इस तरह से समझना चाहिए कि यह सभी कारणों से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है। एक छोटी सी कहानी से मैं अपनी बात समाप्त करूंगा। इससे संभव है मेरी बात अधिक स्पष्ट हो सकेगी।
एक राजा को इस बात का बहुत अधिक अभिमान था कि वह बहुत अधिक विनयशील है। सबसे मिलता भी वह बड़े ही प्रेम से था। उसकी विनम्रता और व्यवहार के किस्से बड़े ही मशहूर थे। एक दिन उसे पता चल कि बड़े प्रतिष्ठित, सिद्ध महात्मा के गांव से गुजरने वाले हैं। वह तुरंत उनकी सेवा में उपस्थित हो गया। राजा ने संत से कहा, ‘मैंने अपने सारे सुख त्याग दिए जनता के लिए। बहुत ही सादा जीवन जीता हूं।’ संत ने उसकी बात काटते हुए कहा, ‘यहां आकर आपने मेरे ऊपर कृपा नहीं की है! यहां लोभ में ही आए हो।’
संत की बात सुनकर राजा का चेहरा गुस्से से लाल हो गया। उनका हाथ कमर में टंगी तलवार तक पहुंच गया। संत ने खिलखिलाते हुए कहा, ‘राजन! अपनी ओर भी ध्यान देना है।’ अहंकार हर चीज के लिए घातक है। भले ही वह विनयशीलता, परोपकार का क्यों ना हो। तुमने इतना अधिक ध्यान दूसरों पर लगा दिया कि अपने ही मन से दूर हो गए!’ हमें देखना चाहिए कि हम भी क्या इसी ओर बढ़ रहे हैं।
-दयाशंकर मिश्र
सात माह बाद खुला अचानकमार अभयारण्य
'छत्तीसगढ़' संवाददाता
बिलासपुर, 1 नवंबर। अचानकमार टाइगर रिजर्व आज से पर्यटकों के लिये खोल दिया गया है। कोरोना संक्रमण काल के कारण इसे बीते अप्रैल माह से ही बंद कर दिया गया था।
अचानकमार में वन विभाग द्वारा एक 20 सीटर बस और सात जिप्सियों की व्यवस्था भ्रमण के लिये तय की गई है। यहां के विश्रामगृह और वाहनों का आरक्षण ऑनलाइन भी कराया जा सकता है। इसके लिये http://www.tigersofachanakmar.org लिंक पर जाना होगा।
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-श्रवण गर्ग
नीतीश कुमार के ख़िलाफ़ इस समय एक ज़बरदस्त माहौल है।कहा जा रहा है कि इस बार तो उनकी पार्टी काफ़ी सीटें हारने वाली है और वे चौथी बार मुख्यमंत्री नहीं बन पाएँगे।प्रचारित किया जा रहा है कि ‘सुशासन’ बाबू ने बिहार को अपने राज के पंद्रह सालों में ‘कुशासन’ के अलावा और कुछ नहीं दिया।(हालाँकि भाजपा नेता सुशील मोदी भी इस दौरान एक दशक से ज़्यादा समय तक उनके ही साथ उप-मुख्यमंत्री रहे हैं)।क्या ऐसा तो नहीं है कि मतदाताओं, जिनमें कि लाखों की संख्या में वे प्रवासी मज़दूर भी शामिल हैं, जो अपार अमानवीय कष्टों को झेलते हुए हाल ही में बिहार में अपने घरों को लौटे हैं, की नाराज़गी की बारूद का मुँह मोदी सरकार की ओर से हटाकर नीतीश की तरफ़ किया जा रहा है ? नीतीश के मुँह पर भाजपा से गठबंधन का मास्क चढ़ा हुआ है और वे इस बारे में कोई सफ़ाई देने की हालत में भी नहीं हैं।
सवाल इस समय सिर्फ़ दो ही हैं : पहला तो यह कि आज अगर बिहार में राजनीतिक परिस्थितियाँ पाँच साल पहले जैसी होतीं और मुक़ाबला जद (यू)-राजद के गठबंधन और भाजपा के बीच ही होता तो चुनावी नतीजे किस प्रकार के हो सकते थे ? दूसरा सवाल यह कि नीतीश को देश में ग़ैर-कांग्रेसी और ग़ैर-भाजपाई विपक्ष के किसी सम्भावित राजनीतिक गठबंधन के लिहाज़ से क्या कमज़ोर होते देखना ठीक होगा ?और यह भी कि क्या तेजस्वी यादव ( उनके परिवार की ज्ञात-अज्ञात प्रतिष्ठा सहित ) नीतीश के योग्य राजनीतिक उत्तराधिकारी माने जा सकते हैं ?
पहला सवाल दूसरे के मुक़ाबले इसलिए ज़्यादा महत्वपूर्ण है कि मई 2014 में हिंदुत्व की जिस 'विराट' लहर पर सवार होकर मोदी पहली बार संसद की चौखट पर धोक देने पहुँचे थे, उसके सात महीने बाद पहले दिल्ली के चुनावों और फिर उसके आठ माह बाद 2015 के अंत में बिहार के चुनावों में भाजपा की भारत-विजय की महत्वाकांक्षाएँ ध्वस्त हो गई थीं। इस समय तो हालात पूरी तरह से बेक़ाबू हैं, भाजपा या मोदी की कोई लहर भी नहीं है , मंदिर-निर्माण के भव्य भूमि पूजन के बाद भी। वर्ष 2018 के अंत और उसके बाद हुए विधानसभा चुनावों में कई राज्यों में ग़ैर-भाजपा सरकारों का बनना और हाल के महीनों में महाराष्ट्र का घटनाक्रम भी काफ़ी कुछ साफ़ कर देता है। पिछले चुनाव में जद (यू)-राजद गठबंधन की जीत के बाद शिवसेना ने नीतीश कुमार को ‘महानायक’ बताया था। उस समय तो शिवसेना एनडीए का ही एक हिस्सा थी।
मुद्दा यह भी है कि नीतीश के ख़िलाफ़ नाराज़गी कितनी ‘प्राकृतिक’ है और कितनी ‘मैन्यूफ़्रैक्चर्ड’ ।और यह भी कि भाजपाई शासन वाले राज्यों के मुक़ाबले बिहार की स्थिति कितनी ख़राब है ?किसी समय मोदी के मुक़ाबले ग़ैर-कांग्रेसी विपक्ष की ओर से प्रधानमंत्री पद के विकल्प माने जाने वाले नीतीश कुमार को इस वक्त हर कोई हारा हुआ क्यों देखना चाहता है ! इस समय तो एनडीए में शामिल कई दल भाजपा का साथ छोड़ चुके हैं।क्या ऐसा नहीं लगता कि जद(यू) की भाजपा के मुक़ाबले कम सीटों की गिनती या तो नीतीश को मोदी के ख़िलाफ़ ग़ैर-कांग्रेसी विपक्ष की ओर से आ सकने वाली किसी भी चुनौती को समाप्त कर देगी या फिर ‘सुशासन बाबू’ को बिहार का उद्धव ठाकरे बना देगी ?
कोई भी यह नहीं पूछ रहा है कि बिहार में नीतीश कुमार का कमज़ोर होना, क्या दिल्ली में नरेंद्र मोदी सरकार को 2024 के (या उसके पूर्व भी) चुनावों के पहले और ज़्यादा ‘एकाधिकारवादी’ तो नहीं बना देगा ? भाजपा चुनावों के ठीक पहले ‘चिराग़’ लेकर बिहार में क्या ढूँढ रही है ? चिराग़ ने सिर्फ़ नीतीश की पार्टी के उम्मीदवारों के ख़िलाफ़ ही अपने लोग खड़े किए हैं, भाजपा के ख़िलाफ़ नहीं। चिराग़ अपने आपको मोदी का ‘हनुमान’ बताते हुए नीतीश को रावण साबित करना चाह रहे हैं और प्रधानमंत्री मौन हैं। चिराग़ की पार्टी भी एनडीए में है और नीतीश की भी।
चुनाव परिणाम आने के बाद अगर नीतीश भाजपा को चुनौती दे देते हैं कि या तो वे (नीतीश) एनडीए में रहेंगे या फिर चिराग़ तो मोदी क्या निर्णय लेना चाहेंगे ? प्रधानमंत्री ने जब 23 अक्टूबर को रोहतास ज़िले के सासाराम से अपने चुनावी अभियान की शुरुआत ही अपने ‘प्रिय मित्र’ राम विलास पासवान को श्रद्धांजलि देते हुए की, तब उनके साथ मंच पर बैठे हुए नीतीश कुमार ने कैसा महसूस किया होगा ? क्या ऐसा होने वाला है कि बिहार में जीत गए तो मोदी के ‘नाम’ के कारण और हार गए तो नीतीश के ‘काम’ के कारण ?
बिहार में राजनीतिक दृष्टि से इस समय जो कुछ भी चल रहा है, वह अद्भुत है, पहले कभी नहीं हुआ होगा ! वह इस मायने में कि भाजपा का घोषित उद्देश्य और अघोषित एजेंडा दोनों ही अलग-अलग दिखाई दें ! घोषित यह कि नीतीश ही हर हाल में मुख्यमंत्री होंगे (‘चाहे हमें ज़्यादा सीटें मिल जाएँ तब भी’- जे.पी.नड्डा )। और अघोषित यह कि तेजस्वी के मार्फ़त लालू की हर तरह की वापसी को भी रोकना है और नीतीश पर निर्भरता को भी नियंत्रित करना है। इसमें यह भी शामिल हो सकता है कि भाजपा, नीतीश की राजनीतिक ज़रूरत बन जाए जो कि अभी उल्टा है।
नीतीश कुमार की तमाम कमज़ोरियों, विफलताओं और मोदी के शब्दों में ही गिनना हो तो ‘अहंकार’ के बावजूद इस समय उनका (नीतीश का) राष्ट्रीय पटल पर एक राजनीतिक ताक़त के रूप में बने रहना ज़रूरी है।अगर अतीत के लालू-पोषित ‘जंगल राज’ के ख़ौफ़ से मतदाताओं को वे मुक्त कर पाएँ तब भी तेजस्वी यादव केवल नीतीश के ‘परिस्थितिजन्य’ अस्थायी बिहारी विकल्प ही बन सकते हैं ‘आवश्यकताजन्य’ राष्ट्रीय विकल्प नहीं। इस समय ज़रूरत एक राष्ट्रीय विकल्प की है, जो कि ममता का उग्रवाद नहीं दे सकता। नीतीश को राजनीतिक संसार में मोदी का एक ग़ैर-भाजपाई, ग़ैर-कांग्रेसी प्रतिरूप माना जा सकता है।
दस नवम्बर के बाद बिहार में बहुत कुछ बदलने वाला है।इसमें राजनीतिक समीकरणों का उलट-फेर भी शामिल है। याद किया जा सकता है कि संघ प्रमुख मोहन भागवत द्वारा पिछली बार बिहार में अंतिम चरणों के मतदान के ठीक पहले आरक्षण के ख़िलाफ़ व्यक्त किए गए विचारों ने नतीजों को भाजपा के विरुद्ध और नीतीश के पक्ष में प्रभावित कर दिया था।अच्छे से जानते हुए भी कि आरक्षण को लेकर संघ और भाजपा के विचार पिछले चुनाव के बाद से बदले नहीं हैं ,केवल गठबंधनों के समीकरण बदल गए हैं ,नीतीश कुमार ने भाजपा को नाराज करते हुए अगर आबादी के अनुसार आरक्षण देने का इस समय मुद्दा उठा दिया है तो उन्होंने ऐसा उसके राजनीतिक परिणामों पर विचार करके ही किया होगा।चुनावी नतीजों के बाद हमें उनके राजनीतिक परिणामों की भी प्रतीक्षा करना चाहिए।
बांध बनाने के बाद हम अपने तालाब, कुओं की उपेक्षा करने लग जाएं, तो पानी, पर्यावरण कैसे बचेगा! रिश्तों पर भी यही बात लागू होती है। जीवन और प्रकृति एक-दूसरे के सहयात्री हैं, विरोधी नहीं!
हम जीवन में जिसकी ओर मुड़े होते हैं, उसके अतिरिक्त दूसरे पक्ष के प्रति हमारी संवेदनशीलता धीरे-धीरे खत्म होती जाती है। हम अपने को दूसरे से जब इतना अधिक जोड़ लेते हैं कि उसके अतिरिक्त किसी और की ओर देखना संभव नहीं होता, तो ऐसी दशा में हमारे फैसले केवल किसी खास व्यक्ति के आसपास सिमटकर रह जाते हैं। इसे इस तरह भी समझ सकते हैं कि हम एक ही रिश्ते में बंधकर रह जाते हैं। ऐसा करना कभी भी मन और जीवन की सेहत के लिए हितकारी नहीं हो सकता है।
यह कुछ ऐसा है, मानिए बांध बनाने के बाद हम अपने तालाब, कुओं की उपेक्षा करने लग जाएं, तो पानी, पर्यावरण कैसे बचेगा! रिश्तों पर भी यही बात लागू होती है। जीवन और प्रकृति एक-दूसरे के सहयात्री हैं, विरोधी नहीं! गांव में किसी एक के साथ निर्भरता का संकट उतना नहीं, जितना शहरों में है। गांव में कोई कितना भी सबल हो, उसका अकेले चलना संभव नहीं। गांव की बुनियाद सहयोग, निर्भरता पर आधारित है। शहर में सारे नियम धीरे-धीरे उलटते चले गए, क्योंकि यहां एक नई चीज ने जन्म ले लिया- ‘उपयोग करो और फेंक दो’! पहले वस्तु, उसके बाद यही नियम हमने मनुष्यों पर लागू कर दिया। हम खुद को अंधेरे की ओर धकेलते जा रहे हैं, जहां से जीवन के रोशनदान दूर होते जा रहे हैं। जीवन के नियम बहुत स्पष्ट हैं, अब यह हम पर है कि हम उन्हें कैसे देखते हैं!
‘जीवन संवाद’ को हर दिन एक-दूसरे से छल, साथ छोड़ देने और मुश्किल में किनारा कर लेने के बारे में संदेश मिलते रहते हैं। हम जब यह शिकायत कर रहे होते हैं कि जिंदगी में किसी ने हमारा साथ नहीं दिया, तो ऐसा करते हुए हम भूल जाते हैं कि जब मौके आए, छोटे ही सही, तो हमने किसी की मदद की? मदद करने का हमारा रिकॉर्ड कैसा है!
मदद, साथ देने के मायने हमेशा यही नहीं होते कि आप किसी डूबते को हिंद महासागर से बचाएं। मदद के मायने हमेशा किसी की आर्थिक मदद के लिए तत्पर रहना नहीं होता। मदद, एक-दूसरे का साथ बहुत छोटी-छोटी चीजों, ख्याल रखने से दिया जा सकता है। लगातार बातचीत, नियमित आत्मीयता, शरद पूर्णिमा के चंद्रमा की तरह मन को शीतल करते हैं। हम छोटी-छोटी कोशिश को इसलिए महत्व नहीं देते, क्योंकि हमारा मन बड़ी-बड़ी योजना बुनता रहता है। हम भूल जाते हैं कि बड़े-बड़े जंगल, बाग भी छोटे-छोटे पौधरोपण से ही अपनी यात्रा आरंभ करते हैं। इसलिए कोशिश होनी चाहिए कि रिश्तों की हरियाली किसी एक जंगल पर केंद्रित न हो। हमारे नायक, चाहे वह ऐतिहासिक हों या धाार्मिक, उनकी जीवन यात्रा हमें यही समझाती है कि संकट की नदी को केवल एक पुल के सहारे पार नहीं किया जा सकता। उसके लिए अनेक छोटे रास्तों और अस्थायी पुलों की जरूरत होती है।
अपने जीवन में झांकिए। देखिए अगर रिश्तों की खिडक़ी एक ही आंगन में खुलती है, तो खिडक़ी न सही, रोशनदान ही बनवा लीजिए। इससे एक रिश्ते पर निर्भरता कम होगी, जीवन कहीं संतुलित गति से आगे बढ़ेगा।
-दयाशंकर मिश्र
हमारे बुजुर्गों के पास जीवन को जानने-समझने का गहरा, विविधतापूर्ण अनुभव रहा है, लेकिन हमने उसे नकार दिया। कोरोना जैसे ही संकट हमारे पहले की पीढिय़ों ने देखे। उन्होंने कहीं अधिक कुशलता से इनका सामना किया था।
इस समय जिस तरह से वातावरण में कोरोना का डर बैठा हुआ है। ऐसे में बहुत जरूरी है कि अपने मन को मजबूत बनाया जाए। मुश्किल स्थितियों का सामना करने योग्य बनाया जाए। कोरोना पर मुझे सबसे अधिक ऊर्जा उस समय मिलती है, जब मैं अपने बुजुर्गों से बात करता हूं। ऐसे लोगों से बात करता हूं, जिनके पास 75 से लेकर 85 वर्ष तक के जीवन का अनुभव है। वह सभी एक ही बात दोहराते हैं, ऐसे संकट पहले भी आए हैं। बस, घबराना नहीं है। जब उनसे पूछा जाता है कि पहले के संकट और इस संकट में अंतर क्या है? तो यही कहते हैं कि अंतर संकट में नहीं, सामना करने वालों के मन में होता है! पहले मन की घबराहट इतनी नहीं होती थी। धैर्य, भरोसा और एक-दूसरे का साथ गहरा था। बुजुर्ग कह रहे हैं कि बाहर तो सब ठीक हो जाएगा, पहले अपने मन को ठीक रखो!
मेरी दादी को प्रकृति ने सुंदर, सुदीर्घ, स्वस्थ जीवन दिया, जिसमें पर्याप्त कठिनाइयां थीं, लेकिन आशा के बीज भी उतने ही गहरे थे। मैं जब छोटा था, तो उनसे कहता, ‘चाय के प्याले इतने नाजुक क्यों हैं। जऱा-सी ठेस लगते ही टूट जाते हैं!’ वह बड़ा सुंदर जवाब देतीं, ‘प्याले नाज़ुक नहीं हैं, तुम्हारे हाथ से इसलिए टूट जाते हैं, क्योंकि तुम्हें इनका अभ्यास नहीं’।
‘जीवन संवाद’ को सारी ऊर्जा उनके साथ की गई यात्राओं से ही मिलती है। यात्रा करने वालों में व्यक्तियों को पहचानने और आशा रखने का गुण निरंतर निखरता रहता है। दादी साक्षर नहीं थीं, लेकिन जीवन को समझने और उसमें आस्था रखने में वह बहुत अधिक शिक्षित थीं। जब आशा के उजाले दिमाग के जालों को पार करके मन की गहराई तक पहुंच जाते हैं, तो उन्हें किसी शिक्षा की जरूरत नहीं होती। उनकी एक और सीख बहुत भली मालूम होती है। वह हमेशा कहती थी, ‘झगड़ा कितना भी कर लो, लेकिन दो चीजें कम नहीं करनी हैं। समय पर भोजन करना और बात करना’।
हमारे बुजुर्गों के पास जीवन को जानने समझने का गहरा, विविधतापूर्ण अनुभव रहा है, लेकिन हमने उसे नकार दिया। कोरोना जैसे ही संकट हमारे पहले की पीढिय़ों ने देखे। उन्होंने कहीं अधिक कुशलता से इनका सामना किया था, लेकिन अगर आप यथासंभव उपलब्ध आत्महत्या, तनाव और अवसाद के अध्ययनों से गुजरेंगे, तो पाएंगे कि कोरोना और आर्थिक संकट से निपटने में वास्तविक संकट से अधिक हमारी मानसिक कमजोरी सामने आई है।
हमारा मन कर्ज और बीमारी से उतना अधिक नहीं टूट रहा है, जितना अधिक इस बात से बिखर रहा है कि न जाने आगे क्या होगा? आगे का तो छोडि़ए, हमारे पास अगले कल तक का हिसाब नहीं है। ऐसे में जरूरी है कि हम अपनी वित्तीय और शारीरिक स्थितियों के प्रति सतर्क तो जरूर रहें, लेकिन उनकी चिंता में न घुलें। चिंता में घुलना, चिंतित होते चले जाना, एक तरीके के अकेलेपन की शुरुआत है, जिसमें हम कहानियां बुनने लगते हैं। एकतरफा कहानियां! जिसमें अतीत की कड़वाहट और भविष्य की आशंका मिलकर हमारे वर्तमान को तंग करने लगती हैं। मन कमजोर होने की तरफ बढऩे लगता है। मन को कमजोर होने से बचाना है। उसे लड़ाकू और जीवन में आस्था रखने वाला बनाना है। यकीन मानिए, ऐसा करना बहुत मुश्किल नहीं है, बस जीवन के प्रति विश्वास बना रहे! (hindi.news18.com)
-दयाशंकर मिश्र
अपने कष्ट और दुख में अंतर करने से हम सुख को कहीं बेहतर ढंग से समझ पाएंगे। शरीर का संबंध कष्ट से है। मन का संबंध दुख से है। हमें दोनों को अलग-अलग तरह से समझना पड़ेगा।
सुख को हम कितनी ही चीजों से तौलते रहते हैं। तलाशते रहते हैं। सुखी होने के अवसर खोजना किसी राही के कड़ी धूप में इस जिद पर अड़ा रहने सरीखा है कि वह केवल बरगद के नीचे ही विश्राम करेगा। घनी छांव के बिना वह कहीं नहीं ठहरेगा! जबकि संभव है, उस रास्ते बरगद मिले ही नहीं! हम सब जाने अनजाने कुछ इसी तरह का जीवन जीते चले जाते हैं।
एक मित्र के दांत में बहुत तेज दर्द था। डॉक्टर को दिखाया गया, दवाई दी गई। लेकिन वह बार-बार यही कहते दर्द ठीक हो जाए, तो मैं सुखी हो जाऊंगा। मैंने उनसे निवेदन किया, जब दांत का दर्द नहीं था, तो आप पूरी तरह सुखी थे! वह कुछ सोच-विचार में पड़ गए। इसी तरह एक मित्र को कुत्ते ने काट लिया, तो उनके परिजन ने कहा, बड़ा दुख हो गया। कुत्ते ने अमुक जगह की जगह कहीं और काटा होता, तो ठीक होता!
मित्र से कहा, अपने ही शरीर के अंगों से इतना भेदभाव ठीक नहीं! ईश्वर की बड़ी कृपा है कि पांव में काटा। हाथ में काटता तो अधिक कष्ट होता। काटा, लेकिन इस तरह नहीं काटा कि कामकाज में समस्या आ जाए। यहां जीवन को ऐसे ही देखने की परंपरा है। दांत के दर्द वाले मामले हमारे बीच बहुत सारे हैं और हमारे सुखी होने की राह में आए दिन बाधा पहुंचाते हैं। अगर दांत का दर्द नहीं था और उसके पहले आप सुखी नहीं थे, तो यह जो कष्ट आया है, उसके जाने के बाद भी आप सुखी हो जाएंगे, इसकी कोई गारंटी नहीं!
सुखी होने के बारे में बड़ी सुंदर बात मुझे एक लघु कहानी में मिली। एक बार एक राजा बहुत परेशान होकर एक साधु के पास पहुंचा और उससे कहा, सब कुछ है, लेकिन सुख नहीं। साधु ने कहा, सुखी होना मुश्किल नहीं है। लेकिन, अभी होना होगा! सुख अगर कहीं है, तो वह इसी क्षण में है। अभी है। अभी सुखी हो जाओ, अगले क्षण का क्या भरोसा! जब हमारा जीवन इतना अनिश्चित है, तो सुख का क्या भरोसा। सुख को कुछ घटने से मत जोडक़र देखो!
मुझे यह बात बहुत प्रीतिकर लगती है। अभी, सुखी हो जाना! अपने किए गए परिश्रम और प्रयास के परिणाम से सुख-दुख की आशा करना हमारा स्वभाव तो है, लेकिन इससे जीवन में सुख नहीं उतरता। महाभारत में पांडवों की कहानी से बढक़र दूसरा सुख का उदाहरण नहीं। वे प्रयास कर रहे हैं, परिश्रम कर रहे हैं। यात्रा कर रहे हैं। गलतियां कर रहे हैं, लेकिन कृष्ण निरंतर उनके मन को कोमल और सुखी बनाने का प्रयास कर रहे हैं। शक्तिशाली तो वे हैं ही, कृष्ण केवल उनको सुख को समझाने का प्रयास कर रहे हैं। जिससे मन में आनंद का भाव बना रहे। निराशा से कुंठा प्रबल न हो जाए।
पांडव कितनी ही गलतियां कर रहे हैं, लेकिन वह अपने सुख-दुख के लिए स्वयं को ही जिम्मेदार मानते हैं। यह महाभारत की बड़ी शिक्षा है। अपने कष्ट और दुख में अंतर करने से हम सुख को कहीं बेहतर ढंग से समझ पाएंगे।
शरीर का संबंध कष्ट से है। मन का संबंध दुख से है। हमें दोनोंं को अलग-अलग तरह से समझना पड़ेगा। कष्ट और दुख एक नहीं हैं। पैर में चोट लगने पर कष्ट तो हो सकता है, लेकिन दुख नहीं। इसी तरह किसी के प्रवचन से हमें दुख होता है, कष्ट नहीं!
इस अंतर को गहराई से मन के स्वीकार करते ही हम अनेक प्रकार के मानसिक संकटों से बाहर निकल आते हैं। इस अंक में फिलहाल इतना ही। इस पर हम विस्तार से बात जारी रखेंगे! (hindi.news18.com)
-दयाशंकर मिश्र