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नरेंद्र मोदी तीस मई को अपने प्रधानमंत्री काल के सात वर्ष पूरे कर लेंगे। कहा यह भी जा सकता है कि देश की जनता प्रधानमंत्री के रूप में मोदी के साथ अपनी यात्रा के सात साल पूरे कर लेगी। कोरोना महामारी के प्रकोप और लगातार हो रही मौतों के शोक में डूबा हुआ देश निश्चित ही इस सालगिरह का जश्न नहीं मना पाएगा। सरकार और सत्तारूढ़ दल के पास तो ऐसा कुछ कर पाने का वैसे भी कोई नैतिक अधिकार नहीं बचा है।
कहा जा रहा है कि मरने वालों के आँकड़े जैसे-जैसे बढ़ रहे हैं, नदियों के तटों पर बिखरी हुई लाशों के बड़े-बड़े चित्र दुनिया भर में प्रसारित हो रहे हैं , प्रधानमंत्री की लोकप्रियता का ग्राफ भी उतनी ही तेज़ी से गिर रहा है। इस गिरावट को लेकर आँकड़े अलग-अलग हैं पर इतना तय बताया जाता है कि उनकी लोकप्रियता इस समय सात सालों के अपने न्यूनतम स्तर पर है। प्रधानमंत्री की लोकप्रियता का सर्वेक्षण करने वाली एक एजेन्सी के अनुसार ,सर्वे में शामिल किए गए लोगों में सिर्फ़ 37 प्रतिशत ही इस समय प्रधानमंत्री के कामकाज से संतुष्ट हैं ( पिछले साल 65 प्रतिशत लोग संतुष्ट थे )। भाजपा चाहे तो इसे इस तरह भी पेश कर सकती है कि मोदी के ख़िलाफ़ इतने ‘दुष्प्रचार’ के बावजूद 37 प्रतिशत जनता अभी भी उनके पक्ष में खड़ी हुई है। और यह भी कि इतने विपरीत हालात में भी इतने समर्थन को ख़ारिज नहीं किया जा सकता।
विश्व बैंक के पूर्व आर्थिक सलाहकार और ख्यात अर्थशास्त्री कौशिक बसु के इस कथन से सहमत होने के लिए हो सकता है देश को किसी और भी बड़े पीड़ादायक अनुभव से गुजरना पड़े जिसका कि मोदी मौक़ा नहीं देने वाले हैं :’’ लगभग सभी भारतीय, जो अपने देश से प्रेम करते हैं, 2024 की उसी तरह से प्रतीक्षा कर रहे हैं जिस तरह की प्रतीक्षा उन्होंने 1947 में की थी।’’ शक है मोदी उस क्षण को कभी जन्म भी लेने देंगे। हम अपने प्रधानमंत्री की क्षमता को अगर बीते सात वर्षों में भी नहीं परख पाए हैं तो अगले तीन साल उसके लिए बहुत कम पड़ेंगे। हम उस शासन तंत्र की निर्मम ताक़त से अभी भी अपरिचित हैं जो एकाधिकारोन्मुख व्यवस्थाओं के लिए अभेद्य कवच का काम करती है।
अमेरिका में डॉनल्ड ट्रम्प की लोकप्रियता को लेकर लगातार किए जाने वाले सर्वेक्षणों में भी तब काफ़ी गिरावट दिखाई गई थी। वहाँ राष्ट्रपति चुनावों (नवम्बर 2020) के पहले तक कोरोना से दुनिया भर में सबसे ज़्यादा (पाँच लाख ) लोगों की मौतें हो चुकीं थीं। अर्थव्यवस्था ठप्प पड़ गई थी। बेरोज़गारी चरम पर थी। इस सबके बावजूद बाइडन के मुक़ाबले ट्रम्प की हार केवल सत्तर लाख के क़रीब (पॉप्युलर) मतों से ही हुई थी। ट्रम्प आज भी अपनी हार को स्वीकार नहीं करते हैं। उनका आरोप हैं कि उनसे जीत चुरा ली गई। ट्रम्प फिर से 2024 के चुनावों की तैयारी में ताक़त से जुटे हैं। ट्रम्प की रिपब्लिकन पार्टी से उन तमाम लोगों को ‘मार्गदर्शक मंडल’ में पटका जा रहा है जो उनकी हिंसक, नस्लवादी और विभाजनकारी नीतियों का विरोध करने की हिम्मत करते हैं।
एंड्रयू एडोनिस एक ब्रिटिश राजनीतिक पत्रकार हैं। उन्हें पत्रकार राजनेता भी कह सकते हैं। वे ब्रिटेन की लेबर पार्टी से जुड़े हैं और प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर की सरकार में पाँच वर्ष मंत्री भी रहे हैं। उनकी कई खूबियों में एक यह भी है कि वह भारत की राजनीति पर लिखते रहते हैं। एडोनिस ने पिछले दिनों अपने एक आलेख में बड़ा ही कठिन सवाल पूछ लिया कि असली मोदी कौन है और क्या हैं ? इसके विस्तार में वे घूम-फिरकर तीन सवालों पर आ जाते हैं : मोदी अपने आपको किस देश का नेतृत्व करते हुए पाते हैं ? भारत का या किसी हिंदू भारत का ? मोदी भारत में प्रजातंत्र की रक्षा कर रहे हैं या उसका नाश कर रहे हैं ? क्या मोदी, जैसा कि वे अपने आपको एक सच्चा आर्थिक नवोन्मेषी बताते हैं, वैसे ही हैं या फिर कट्टरपंथी धार्मिक राष्ट्रवादी, जो आधुनिकीकरण को अपनी सर्वोच्चता स्थापित करने का हथियार बनाकर अपने प्रस्तावित सुधारों का लाभ एक वर्ग विशेष को पहुंचाना चाहता है? एंड्रयू एडोनिस ने मोदी के प्रधानमंत्रित्व को लेकर जो सवाल पूछे हैं उनसे कठिन सवाल उस समय पूछे गए थे जब वे एक दशक से अधिक समय तक गुजरात के मुख्यमंत्री रहे थे। उन सवालों के जवाब कभी नहीं मिले।
मोदी ने भाजपा को 1975 से 1984 के बीच की भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में बदल दिया है जिसमें देवकांत बरुआ जैसे चारणों ने इंडिया को इंदिरा और इंदिरा को इंडिया बना दिया था। पिछले सात सालों में भाजपा में बरुआ के लाखों-करोड़ों क्लोन खड़े कर दिए गए हैं। स्थिति यह है कि समूची व्यवस्था पर कब्जा जमा लेने वाले इन लोगों के जीवन-मरण के लिए मोदी ऑक्सिजन बन गए हैं। इनमें सबसे बड़ी और प्रभावी भागीदारी बड़े औद्योगिक घरानों, मीडिया प्रतिष्ठानों, मंत्रियों और अधिकारियों के अपवित्र गठबंधन की है। इस गठबंधन के लिए ज़रूरी हो गया है कि वर्तमान व्यवस्था को किसी भी कीमत पर सभी तरह और सभी तरफ़ से नाराज़ जनता के कोप से बचाया जाए। लाशों को ढोते-ढोते टूटने के कगार पर पहुँच चुके लोगों से यह गठबंधन अंत में यही एक सवाल करने वाला है कि वे हिंसक अराजकता और रक्तहीन एकदलीय तानाशाही के बीच किसे चुनना पसंद करेंगे?
प्रधानमंत्री अपने सात साल के सफ़र के बाद अगर किसी एक बात को लेकर इस समय चिंतित होंगे तो वह यही हो सकती है कि हरेक नागरिक कोरोना से उपजने वाली प्रत्येक परेशानी और जलाई जाने वाली हरेक लाश के साथ उनके ही बारे में क्यों सोच रहा है ? ऐसा पहले तो कभी नहीं हुआ ! यह एक ऐसी एंटी-इंकम्बेन्सी है जिसमें इंडिया तो राजनीतिक विपक्ष-मुक्त है पर महामारी ने जनता को ही विपक्ष में बदल दिया है। प्रधानमंत्री जनता का दल-बदल नहीं करवा सकते। महसूस किया जा सकता है कि प्रधानमंत्री इस समय काफ़ी असहज दिखाई पड़ते हैं। वे मौजूदा हालात को लेकर चाहे जितना भी भावुक दिखना चाह रहे हों, उन पर यक़ीन नहीं किया जा रहा है।
कोरोना की तीसरी लहर की चिंता हमें छोड़ देनी चाहिए। हो सकता है इसके बाद हमें किसी चौथी और पांचवी लहर को लेकर डराया जाए। हमें अब लहरों और उनके ‘पीक’ की गिनती नहीं करना चाहिए। ऐसा इसलिए कि मरने वालों के सही आंकड़े बताने में देश और दुनिया को धोखा दिया जा रहा है। हम पर राज करने वाले लोगों ने हमारा भरोसा और यकीन खो दिया है। इतनी तबाही के बाद भी जो भक्त गांधारी मुद्राओं में अपने राजाओं का समर्थन कर रहे हैं उन्हें एक सभ्य देश का ‘नागरिक’ मानने के बजाय व्यवस्था की ‘नगर सेना’ मान लिया जाना चाहिए।
हमें असली चिंता उस लहर की करनी चाहिए जो कोरोना का टीका पूरी जनता को लग जाने और वैज्ञानिक तौर पर महामारी के समाप्त हो जाने की घोषणा के बाद भी हमारे बीच कायम रहने वाली है। ध्यान रखना होगा कि इस सेटेलाइट युग में भी मौतों के सही आँकड़े छुपाने के असफल और संवेदनहीन प्रयासों की तरह ही उस लहर से उत्पन्न होने वाले संताप और मौतों को भी ख़ारिज किया जाएगा जिसकी कि हम बात करने जा रहे हैं। इस लहर की लाशें नदियों और जलाशयों में शमशानों को तलाशती नहीं मिलेंगी। बात आगे बढ़ाने से पहले एक सच्ची कहानी :
शहर इंदौर के एक चौराहे (खजराना) पर दस मई की एक रात एक युवक ने एक युवती का पर्स लूट लिया था। खबर के मुताबिक, पर्स में बत्तीस सौ रुपए, मोबाइल और दस्तावेज थे। युवती के शोर मचाने पर इलाके में गश्त कर रही पुलिस ने आरोपी युवक को पकड़ लिया। पूछताछ में युवक ने बताया कि लॉकडाउन के कारण मजदूरी न मिलने से घर में खाने को कुछ भी नहीं बचा था इसलिए जीवन में ‘पहली बार’ यह अपराध करना पड़ा। पुलिस की जाँच में युवक की बात सच निकली। युवक के घर किराना और अन्य जरूरत का सामान भेजा गया। यह केवल एक उदाहरण उस दूसरी लहर का नतीजा है जो अभी चल रही है। तीसरी का आना अभी शेष है।
कोरोना की पहली लहर का नतीजा लाखों (या करोड़ों?) अप्रवासी मजदूरों की घरवापसी था। उनमें से कुछ की सडक़ों और रेल की पटरियों पर कुचलकर मर जाने की खबरें थीं। कहा जाता है कि जो मजदूर उस समय अपने घरों को लौटे थे उनमें से कोई एक चौथाई काम-धंधों के लिए दोबारा महानगरों की ओर रवाना ही नहीं हुए। और अब दूसरी लहर के बाद तो लाखों लोग एक बार फिर अपने घरों में पहुँच गए हैं। ये लोग वे हैं जिनके लिए न शहरों में अस्पताल और ऑक्सीजन है और न ही उनके गाँवों में। पहली लहर में तो सिर्फ नौकरियों और काम-धंधों से ही हाथ धोना पड़ा था। इस समय बात जान पर भी आन पड़ी है। इन लोगों के लिए टीका भी सिर्फ माथे पर लगाने वाला रह गया है।तीसरी लहर के परिणामों का अन्दाज लगाया जा सकता है।
एक अनुमान है कि महामारी के दौरान गरीबी की रेखा (यानी 375 रुपए प्रतिदिन से कम की आय पर जीवन-यापन) से नीचे जीवन जीने वालों की संख्या में 23 करोड़ लोग और जुड़ गए हैं। अस्पतालों में ऑक्सीजन की व्यवस्था भी हो जाएगी ,बिस्तरों की संख्या भी बढ़ जाएगी, नदियों में तैरती हुई लाशों के पोस्ट मोर्टम और अंतिम संस्कार भी हो जाएँगे, टीके भी एक बड़ी आबादी को लग जाएँगे पर जो नहीं हो सकेगा वह यह कि कोरोना की प्रत्येक नई लहर करोड़ों लोगों को बेरोजगार और बाकी बहुतेरों को जिंदा लाशों में बदल कर गायब हो जाएगी !
जिन लहरों से हम अब मुख़ातिब होने वाले हैं उनका ‘पीक’ कभी भी शायद इसलिए नहीं आएगा कि वह नागरिक को नागरिक के ख़िलाफ़ खड़ा करने वाली साबित हो सकती है। जो नागरिक अभी व्यवस्था के खिलाफ खड़ा है वही महामारी का संकट खत्म हो जाने के बाद अपने आपको उन नागरिकों से लड़ता हुआ पा सकता है जिनके पास खोने के लिए अपने जिस्म के अलावा कुछ नहीं बचा है। घर में खाने का इंतजाम करने के लिए किसी का भी पर्स छीनकर अपना ‘पहला अपराध’ करने की घटनाएँ केवल किसी एक चौराहे या बंद गली में ही नहीं हो रही हैं या होने वाली हैं। ये कई स्थानों पर अलग-अलग स्वरूपों में हो रही हैं।
मृत शरीरों से कफन निकालकर उन्हें साफ-सुथरा कर फिर से बेचने, मरीजों का सामान चुरा लेने गो कि एक मानवीय त्रासदी के दौरान भी अमानवीय कृत्यों से समझौता कर लेने की मजबूरी को महामारी से उत्पन्न हुए जीवन-यापन के संघर्ष से जोडक़र देखने का सरकारी अर्थशास्त्र अभी विकसित होना बाकी है। शवों को गंगा में फेंक दिया जाना वह भी हजारों की संख्या में किसी अचानक से आए भूकम्प में जीवित लोगों के जमीन में दफन हो जाने की प्राकृतिक आपदा से भी ज़्यादा भयावह है। वह इस मायने में कि इसके मार्फत व्यवस्था के चेहरे से वह नकाब उतर रहा है जो किसी विदेशी शासन प्रमुख की उपस्थिति में गंगा तट पर मंत्रोच्चारों के बीच होने वाली आरती में नजर नहीं आता। महामारी की दूसरी लहर के दौरान ही हम जिस तरह के दु:ख और मानव-निर्मित यातनाओं से रूबरू हैं, कल्पना ही कर सकते हैं कि आगे आने वाली कोई भी नई लहर हमें अंदर से किस हद तक तोड़ सकती है।
हमारे दु:ख का कारण यह नहीं है कि एक राष्ट्र के रूप में हम में तकलीफों से मुकाबला करने की क्षमता नहीं बची है। कारण यह है कि हमारे शासक हमें संकटों के प्रति गुमराह करते रहते हैं। हरेक सच को व्यवस्था और नेतृत्व के प्रति षड्यंत्र का हवाला देकर नागरिकों से छुपाया जाता है। सरकारें जब सीमाओं के हिंसक युद्धों में प्राप्त होने वाली सैन्य सफलताओं को राजनीतिक सत्ताएँ हासिल करने का हथियार बनाने लगतीं हैं तब वे भीतरी अहिंसक संघर्षों में भी नागरिकों के हाथों पराजय को स्वीकार करने का साहस नहीं जुटा पातीं। इस समय यही हो रहा है। हमें न बीते हुए कल का सच बताया जा रहा है और न ही आने वाले संकट और उससे निपटने की तैयारियों के बारे में कुछ कहा जा रहा है। हमारी मौजूदा स्थिति को लेकर अगर पश्चिम के सम्पन्न राष्ट्रों में बेचैनी है और वे सिहर रहे हैं तो उसके कारणों की तलाश हम अपने आसपास के चौराहों पर भी कर सकते हैं। पूछा तो यह जाना चाहिए कि नागरिकों को अब किस तरह की लहर से लड़ाई के लिए अपनी तैयारी करना चाहिए ?
जिस समय देश के करोड़ों-करोड़ नागरिकों के लिए एक-एक पल और एक-एक साँस भारी पड़ रही है, सरकारें महीने-डेढ़ महीने थोड़ी राहत की नींद ले सकतीं हैं। यह भी मान सकते हैं कि जनता चाहे कृत्रिम साँसों के लिए संघर्ष में लगी हो देश के नियंताओं को कम से कम किसी एक कोने से तो ताज़ा हवा नसीब हो गई है। कोरोना चिकित्सा के क्षेत्र में चीजों को तुरंत प्रभाव से दुरुस्त करने की हिदायतें देकर न्यायपालिका एक महीने से अधिक समय के लिए ग्रीष्मावकाश पर चली गई है। (सुप्रीम कोर्ट में 10 मई से 27 जून तक अवकाश रहेगा। इसी प्रकार उच्च न्यायालयों में भी कम से कम एक माह के लिए छुट्टी रहेगी)
अंग्रेजों के जमाने में वर्ष 1865 से लम्बे अवकाशों की उक्त सुविधाएँ माननीय न्यायाधीशों को तत्कालीन परिस्थितियों में प्रदान की गईं थीं। इनका लाभ आज़ादी के बाद भी आज तक उन्हें परम्परा के आधार पर प्राप्त है। यह अवकाश इस समय ज़्यादा चर्चा में इसलिए है कि अभूतपूर्व संकट की घड़ी में अदालतें ही नागरिक-हितों की रक्षा के काम में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहीं हैं। देश के कई उच्च न्यायालय तो अपनी न्यायिक सक्रियता को लेकर आरोप भी बर्दाश्त कर रहे हैं कि वे अपनी समानांतर सरकारें चला रहे हैं। पुराने आक्षेप और बहस अपनी जगह क़ायम हैं कि न्यायपालिका द्वारा कार्यपालिका और विधायिका के अधिकार क्षेत्रों में ग़ैर-ज़रूरी दखल दिया जा रहा है।
देश इस समय असाधारण परिस्थितियों से गुज़र रहा है। नागरिकों को सुरक्षा प्रदान करने के मामले में राजनीतिक नेतृत्व पूरी तरह से अक्षम साबित हो चुका है। प्रशासनिक व्यवस्थाएँ भी नाकाफ़ी सिद्ध हो रही हैं और रोजाना सैंकड़ों लोगों की जानें जा रहीं हैं। दुनिया के प्रतिष्ठित मेडिकल जर्नल ‘लांसेट’ ने अगस्त महीने तक भारत में कोई दस लाख लोगों की मौत होने की आशंका जताई है। 'लांसेट' ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि अगर ऐसा हो जाता है तो इस स्व-आमंत्रित तबाही के लिए कोई और नहीं बल्कि मोदी सरकार ही ज़िम्मेदार होगी। हम केवल ईश्वर से प्रार्थना कर सकते हैं कि ‘लांसेट’ द्वारा जताई जा रही आशंका पूरी तरह से ग़लत साबित हो। पर ‘अगर सच हो गई तो’ की पीड़ा के साथ ही तैयारियाँ भी करनी पड़ेंगी और डरते-डरते समय भी बिताना होगा।
आज देश का हरेक आदमी लाम पर है। हालांकि युद्ध इस समय सीमाओं पर नहीं बल्कि देश के भीतर ही चल रहा है और मदद सीमा पार से भी मिल रही है। नागरिकों की जानें नागरिक ही हर तरह से सहायता करके बचा रहे हैं। यह ऐसा दौर है जिसमें नागरिकों के पास अपनी पीड़ा व्यक्त करने के लिए केवल अदालतों की सीढ़ियाँ ही बचीं हैं।और यह भी उतना ही सच है कि सरकारें इस समय चिताओं की आग से कम और अदालती आक्रोश से ज़्यादा झुलस रही हैं। उच्च न्यायालयों के हाल के दिनों के कुछ निर्णयों और टिप्पणियों से सरकारों की भूमिका से निराश हो रहे नागरिकों को काफ़ी सम्बल मिला है और व्यवस्थाएँ कुछ हद तक सुधरी भी हैं।
चिंता का मुद्दा यहाँ यह है कि स्वास्थ्य और चिकित्सा के क्षेत्र में उपजी मौजूदा आपातकालीन परिस्थितियों में जब देश का प्रत्येक नागरिक साँसों की लड़ाई लड़ रहा है, तब क्या न्यायपालिका को एक दिन के लिए भी अवकाश पर जाना चाहिए ? न्यायपालिका के इस परम्परा-निर्वाह से सरकारों को निश्चित तौर पर कोई आपत्ति नहीं हो सकती और न ही उनकी ओर से उक्त कदम के विपरीत किसी निवेदन की ही अपेक्षा की जा सकती है।
मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के एक वरिष्ठ अधिवक्ता बी एल पावेचा ने पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट और मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीशों को पत्र लिखकर निवेदन किया था कि महामारी के इस कठिन समय में न्यायपालिका को इस वर्ष तो अपना अवकाश स्थगित कर देना चाहिए। श्री पावेचा ने उल्लेख किया कि न्यायपालिका का अवकाश पर जाना एक औपनिवेशिक विलासिता है। देश की पराधीनता के दौर में जब उच्च न्यायालयों की स्थापना हुई थी, तब अंग्रेज जजों के लिए चालीस से पचास डिग्री गर्मी में काम करना कठिन होता था। उस समय न तो बिजली होती थी और न ही पंखे। उस परिस्थिति में अंग्रेज जज स्वदेश चले जाते थे। आज वैसी कोई कठिनाइयाँ नहीं हैं। अदालतों में प्रकरणों के अंबार लगे हुए हैं। नए प्रकरणों को स्वीकार नहीं किया जाए तब भी लम्बित प्रकरणों को ही निपटाने में कोई पच्चीस से तीस साल लग जाएँगे।
श्री पावेचा ने पत्र में कहा है कि अदालती अवकाश के दौरान दो अथवा तीन न्यायाधीशों की उपस्थिति में सप्ताह में केवल दो दिन ज़मानतों आदि के आवेदनों सहित अति महत्वपूर्ण प्रकरणों की सुनवाई की जाती है जो कि वर्तमान की असाधारण परिस्थितियों में अपर्याप्त है। न्यायपालिका का लम्बे अवकाश पर जाना न्यायसंगत तो कतई नहीं होगा, बल्कि इससे नागरिकों में संदेश जाएगा कि इस दुःख की घड़ी में उसे प्रजातंत्र के उस महत्वपूर्ण स्तम्भ की ओर से जरूरी सहारा नहीं मिल रहा है जो उसकी आशा की अंतिम किरण है।
दुख की आपातकालीन घड़ी में न्यायपालिका के अवकाश को लेकर व्यक्त की जा रही चिंता का इसलिए सम्मान किया जाना चाहिए कि इस समय समूचा देश चिकित्सा सेवा की गिरफ़्त में है। लोग अस्पतालों में ही नहीं, घरों में भी बंद हैं। नागरिकों को इस क़ैद से रिहाई के लिए चौबीसों घंटे अदालतों की निगरानी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित टास्क फ़ोर्स की अपनी सीमाएँ हैं। वह अदालतों की तरह सरकारों में ख़ौफ़ नहीं पैदा कर सकता। इस समय तो निरंकुश हो चुकी राजनीतिक व्यवस्था से उसकी जवाबदेही के लिए लगातार पूछताछ किए जाने की ज़रूरत है और यह काम केवल न्यायपालिका ही कर सकती है। न्यायपालिका के लिए भी यह सबसे महत्वपूर्ण क्षण और अवसर है। ऐसे कठिन समय में न्यायाधीशों का लम्बे समय के लिए ग्रीष्मकालीन अवकाश पर जाना संवेदन शून्यता का संदेश देता है।
-श्रवण गर्ग
आज़ादी के बाद की स्मृतियों में अब तक के सबसे बड़े नागरिक संकट के बीच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी क्या संवेदनात्मक रूप से उतने ही विचलित हैं जितने कि उनके करोड़ों देशवासी हैं ? क्या प्रधानमंत्री के चेहरे पर अथवा उनकी भाव-भंगिमा में ऐसा कोई आक्रोश या पश्चाताप नज़र आता है कि उनके नेतृत्व में कहीं कोई बड़ी चूक हो गई है जिसकी क़ीमत शवों की बढ़ती हुई संख्या के रूप में नागरिक श्मशान घाटों पर चांडालों को चुका रहे हैं ? संसद की बैठकों की अनुपस्थिति में सरकार के ख़िलाफ़ निंदा प्रस्ताव पारित करने के आरोप में सजा कितने लोगों को दी जा सकेगी ? पूरे देश को ही जेलों में डालना पड़ेगा ! अभी अस्पताल छोटे पड़ रहे हैं फिर जेलें कम पड़ जाएँगी !
देश को पहली बार महसूस हो रहा है कि प्रधानमंत्री के रूप में मोदी जैसे-जैसे ताकतवर होते जा रहे हैं ,नागरिक स्वयं को उतना ही कमजोर और खोखला महसूस कर रहे हैं जबकि ऐसा होना नहीं चाहिए । राष्ट्राध्यक्ष के साथ देश बाहरी तौर पर मज़बूत होता नज़र आए पर अंदर से उसका नागरिक अपने आप को टूटा हुआ और असहाय महसूस करने लगे, यक़ीन करने जैसी बात नहीं है पर हो रहा है। इस समय जो कुछ महसूस हो रहा है वह राष्ट्र के हित में स्वैच्छिक ‘रक्तदान’ करने के बाद लगने वाली कमजोरी से काफ़ी अलग है।
किसी भी ऐसे राष्ट्राध्यक्ष का, जो प्रजातांत्रिक व्यवस्थाओं के पालन में ‘राष्ट्रधर्म’ जैसा यक़ीन रखता हो, मज़बूत रहना निश्चित ही ज़रूरी भी है। जितना बड़ा राष्ट्र, मज़बूती की ज़रूरत भी उतनी ही बड़ी। इस मज़बूती का सम्बन्ध उम्र से कम और मन की बात और मन की अवस्था से ज़्यादा है। हाल ही में अमेरिका के नए राष्ट्रपति अपने विशेष विमान की सीढ़ियाँ चढ़ते हुए दो-तीन बार लड़खड़ा गए थे।वे गिरे नहीं। अपनी अठहत्तर साल की उम्र के बावजूद ऐसा नहीं लगने दिया कि वे अशक्त हैं। सीढ़ियां चढ़ ऊपर पहुँचने के बाद उन्होंने अपने चिर-परिचित आत्म विश्वास के साथ पीछे मुड़कर उन लोगों का अभिवादन किया जो उन्हें विदा देने पहुँचे थे।
सत्ता किसी भी तरह की अशक्तता को सार्वजनिक रूप से व्यक्त नहीं होने देती। राष्ट्राध्यक्ष जैसे-जैसे ऊपर चढ़ते जाते हैं उनके नागरिकों के मन में उनकी ताक़त और कमज़ोरियों को लेकर जिज्ञासा और शंकाएँ भी उतनी ही बढ़ती जाती हैं।उस स्थिति में नागरिक अपने शासनाध्यक्ष के पद और उसके अंदर के व्यक्ति के बीच फ़र्क़ करना प्रारम्भ कर देते हैं ।पर चतुर शासनाध्यक्ष अपनी ओर से इस फ़र्क़ को उजागर नहीं होने देते।
बहुत कम लोगों ने कभी इस बारे में भी सोचा होगा कि उन्हें अब एक व्यक्ति के रूप में भी अपने प्रधानमंत्री के बारे में कुछ ऐसा जानना चाहिए जो मार्मिक हो, अंतरंग हो, ऐसा निजी हो जिसे साहस के साथ सार्वजनिक रूप से व्यक्त और स्वीकार किया गया हो। कुछ जानने की इच्छा का बहुत सारा सम्बन्ध इस बात से भी होता है कि आम नागरिक अपने नायक को लेकर किस तरह की आसक्ति अथवा भय का भाव रखते हैं। इसके उलट यह भी है कि नायक की आँखों और उसके हाव-भाव में ऐसा क्या है जो उसकी एक क्रूर अथवा नाटकीय शासक की छवि से भिन्न हो सकता है !
उदाहरण के तौर पर जवाहर लाल नेहरू की भारत के प्रधानमंत्री के रूप में, गांधी जी के साथ बैठे कांग्रेस के नेता या फिर चीनी हमले में हुई पराजय से हताश सेनापति के रूप में जो छवियां दस्तावेज़ों में इधर-उधर बिखरी पड़ी हैं वे उनके उस आंतरिक व्यक्तित्व से भिन्न हैं जो उनके निधन के साढ़े पाँच दशकों से अधिक समय के बाद भी लोगों के दिलों पर राज कर रही हैं। इस व्यक्तित्व में नेहरू द्वारा जेल में लिखी गई ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ और बेटी इंदिरा के नाम लिखे गए पत्र हैं, निधन के वक्त बिस्तर के पास पाई गई अंग्रेज कवि रॉबर्ट फ़्रॉस्ट की कविता है, छोड़ी गई वसीयत के अंश हैं, सिगरेट से धुआँ उगलती तस्वीर है, एडवीना के साथ अंतरंगता को ज़ाहिर करते हुए फोटोग्राफ़्स हैं। उनके इर्द-गिर्द ऐसा क्या नहीं है जो उन्हें अपने समकालीन राष्ट्राध्यक्षों से अलग नहीं करता हो ? अटलजी को लेकर भी उत्पन्न होने वाली भावनाएँ उन्हें एक प्रधानमंत्री से अलग भी कुछ अन्य कोमल छवियों में प्रस्तुत करती हैं। युद्ध तो अटल जी ने भी जीता है।
नरेंद्र मोदी में निश्चित ही किसी नेहरू की तलाश नहीं की जा सकती। की भी नहीं जानी चाहिए। पर उस नरेंद्र मोदी की तलाश अवश्य की जानी चाहिए जिसके बचपन से प्रारम्भ होकर प्रधानमंत्री बनने तक की लम्बी कहानी के बीच के बहुत सारे पात्र और क्षण छूटे हुए होंगे। भारत के राष्ट्रीय पक्षी मोर को उनके सानिध्य में बिना किसी भय अथवा संकोच के खड़े हुए देखकर उनके अनछुए व्यक्तित्व के प्रति दो तरह की जिज्ञासाएँ उत्पन्न होती हैं: पहली तो यह कि प्रधानमंत्री का पशु-पक्षियों के प्रति प्रेम क्या प्राकृतिक है ? क्या वह पहले भी कभी इसी प्रकार से व्यक्त या अभिव्यक्त हो चुका है ? दूसरा यह कि अपनी दूसरी तमाम व्यस्तताओं के बीच इस तरह का समय पक्षियों के लिए कैसे निकाल पाते होंगे ?
मोदी को काम करने की जिस तरह की आदत और अभ्यास है उसके बीच प्रधानमंत्री निवास में मोरों को दाना चुगाने या केवड़िया में तोतों को अपने नज़दीक आमंत्रित करने का उपक्रम उनके वास्तविक व्यक्तित्व को लेकर चौंकाने वाले भ्रम उत्पन्न करता है ; क्योंकि उनके प्रशंसक इसके बाद यह भी जानना चाहेंगे कि प्रधानमंत्री ने आख़िरी फ़िल्म कब और कौन सी देखी थी, कौन सी किताब पढ़ी थी, वे जब अकेले होते हैं कौन सा संगीत सुनते हैं और यह भी कि उनकी पसंदीदा सिने तारिका कौन रही है। उनके मन में कभी किसी के प्रति कोई प्रेम उपजा था क्या ?और क्या उसके कारण किसी अवसाद में भी डूबे थे कभी ?
देश और दुनिया की बदलती हुई परिस्थितियों में नागरिकों के लिए अब ज़रूरी हो गया है कि वे अपने नायकों की राजनीतिक प्रतिबद्धताओं से अलग उनके/उनमें मानवीय गुणों और संवेदनाओं की तलाश भी करें। ऐसा इसलिए कि अब जो निश्चित है वह केवल नागरिकों का कार्यकाल ही है, शासकों का नही। शासकों ने तो इच्छा-सत्ता का स्व-घोषित वरदान प्राप्त कर लिया है। नागरिक जब अपने शासकों को उनकी पीड़ाओं, संघर्षों , आकांक्षाओं और महत्वाकांक्षाओं की परतें उघाड़कर जान लेते हैं तो वे अपने आपको उस भविष्य के साथ जीने अथवा न जीने के लिए तैयार करने लगते हैं जो व्यवस्था के द्वारा तय किया जा रहा है ।क्योंकि नागरिकों को अच्छे से पता है कि ऑक्सिजन की कमी या साँसों का अभाव सिर्फ़ उनके ही लिए है, शासक तो बड़े से बड़े संकट से भी हमेशा सुरक्षित बाहर निकल आते हैं।वर्तमान संकट का समापन भी ऐसा ही होने वाला है।
हमारी ही जमात के एक सीनियर और किसी जमाने में साथ भी काम कर चुके पत्रकार ने हाल में एक विवादास्पद माँग सोशल मीडिया प्लेटफार्म ‘ट्वीटर’ के जरिए हवा में उछाली है और उस पर बहस भी चल पड़ी है। एक ऐसे कठिन समय में जब महामारी से त्रस्त लोगों को अस्पतालों में ऑक्सीजन के जरिए कृत्रिम साँसें भी उपलब्ध कराने में नाकारा साबित हुई सरकार चारों ओर से आरोपों में घिरी हुई है, मीडिया की बची-ख़ुची साँसों पर भी ताले जड़ देने की माँग दुस्साहस का काम ही माना जाना चाहिए। दुस्साहस भी इस प्रकार का कि मीडिया के अंधेरे कमरे में जो थोड़े-बहुत दीये टिमटिमा रहे हैं उनके मुँह भी बंद कर दिए जाएँ।
पत्रकार का नाम जान-बूझकर नहीं लिख रहा हूँ। उसके पीछे कारण हैं। पहला तो यही कि जो माँग की गई है वह केवल एक ही व्यक्ति का निजी विचार नहीं हो सकता। उसके पीछे किसी बड़े समूह, ‘थिंक टैंक’ का सोच भी शामिल हो सकता है। एक ऐसा समूह जिसके लिए इस समय दांव पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से भी कोई और बड़ी चीज लगी हुई है। जिसके तार उन अति-महत्वपूर्ण लोगों के सोच के साथ जुड़े हुए हैं जो खुले आम मुनादी करते घूम रहे हैं कि इस समय देश में जरूरत से ज़्यादा लोकतंत्र है और उसे इसलिए कम किए जाने की जरूरत है कि हमें जबरदस्त तरीके से आर्थिक प्रगति करते हुए ऐसे मुल्कों से मुकाबला करना है, जहां किसी तरह की कोई आजादी ही नहीं है।
कुख्यात आपातकाल के दौरान अभिव्यक्ति की आजादी के लिए इंदिरा गांधी की तानाशाह हुकूमत से लड़ाई लडऩे वाले यशस्वी सम्पादक राजेंद्र माथुर का अपने आपको सहयोगी बताने वाले तथा प्रेस की आज़ादी को कायम रखने के लिए स्थापित की गई प्रतिष्ठित संस्था ‘एडिटर्स गिल्ड’ में प्रमुख पद पर रहे इस भाषाई-पत्रकार ने अंग्रेजी में जो माँग की है उसका हिंदी सार यह हो सकता है- ‘एक ऐसे समय जब कि देश गम्भीर संकट में है अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकारों को कुछ महीनों के लिए निलंबित कर गैर-जिम्मेदार नेताओं ,दलों और मीडिया के लोगों के बयानों पर रोक क्यों नहीं लगाई जा सकती’? माँग में यह सवाल भी उठाया गया है कि ‘क्या अदालतों और सरकार के पास इस संबंध में संवैधानिक शक्तियाँ नहीं हैं?’
जो माँग की गई है वह कई मायनों में खतरनाक है।पहली तो यह कि इस समय मुख्य धारा का अधिकांश मीडिया, जिसमें कि प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक दोनों शामिल हैं, बिना किसी घोषित-अघोषित सरकारी अथवा अदालती हुक्म के ही अपनी पूरी क्षमता के साथ सत्ता के चरणों में चरणों की तरह बिछा पड़ा है। अत: इस जग-जाहिर सच्चाई के बावजूद मीडिया पर रोक की माँग का सम्बंध उन छोटे-छोटे दीयों को भी कुचल दिए जाने से हो सकता है जो अपने रिसते हुए जख्मों के साथ भी सूचना संसार में व्याप्त अंधकार में रोशनी करने के काम में जुटे हैं। जब हरेक तरह की रोशनी ही व्यवस्था की आँखों को चुभने लगे तो मान लिया जाना चाहिए कि मीडिया की ही कुछ ताक़तें देश को ‘प्रजातंत्र के प्रकाश से तानाशाही के अंधकार की ओर’ ले जाने के लिए मचल रही हैं।
आपातकाल के दौरान मीडिया की भूमिका को लेकर लालकृष्ण आडवाणी ने एक महत्वपूर्ण टिप्पणी की थी।उन्होंने कहा था कि तब मीडिया से सिर्फ झुकने के लिए कहा गया था पर वह घुटनों के बल रेंगने लगा। आडवाणीजी निश्चित ही वर्तमान समय की राजनीतिक और मीडियाई दोनों ही तरह की हकीकतों को लेकर कोई टिप्पणी करने से परहेज करना चाहेंगे।वे खूब जानते हैं कि केवल मुख्यधारा का मीडिया ही नहीं बल्कि राजनीतिक नेतृत्व भी बिना कोई झुकने की माँग के भी रेंग रहा है।
पत्रकार की माँग इस मायने में ज्यादा ध्यान देने योग्य है कि उसमें आने वाले दिनों के ख़तरे तलाशे जा सकते हैं और अपने आपको (अगर चाहें तो ) उनका सामना करने अथवा अपने को समर्पित करने के लिए तैयार किया जा सकता है।माँग ऐसे समय बेनकाब हुई है जब ऑक्सिजन की कमी के कारण जिन लोगों का दम घुट रहा है और जानें जा रही हैं उनमें मीडियाकर्मी भी शामिल हैं। माँग यह की जा रही है कि सरकारी अक्षमताओं को उजागर नहीं होने देने के लिए अस्पतालों के बाहर बची हुई अभिव्यक्ति की आजादी का भी दम घोंट दिया जाना चाहिए। क्या आश्चर्यजनक नहीं लगता कि किसी भी बड़े राजनीतिक दल या राजनेता ने पत्रकार की माँग का संज्ञान लेकर कोई भी टिप्पणी करना उचित नहीं समझा! कांग्रेस के ‘आपातकालीन’ अपराध-बोध को तो आसानी से समझा जा सकता है।
कोरोना संकट से निपटने के सिलसिले में एक बड़ी चिंता दुनियाभर के प्रजातांत्रिक हलकों में यह व्यक्त की जा रही है कि महामारी की आड़ में तानाशाही मनोवृत्ति की हुकूमतें नागरिक अधिकारों को लगातार सीमित और प्रतिबंधित कर रहीं हैं।अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को संरक्षण प्रदान करने वाली संवैधानिक व्यवस्थाओं को निलंबित किया जा रहा है। जिन देशों में प्रजातंत्र पहले से ही नहीं है वहाँ तो स्थिति और भी चिंताजनक है। कम्बोडिया जैसे देश को लेकर ख़बर है कि वहाँ लॉकडाउन /कफ्र्यू का उल्लंघन करने पर ही बीस साल के कारावास का प्रावधान लागू कर दिया गया है।
अभिव्यक्ति की आजादी पर नियंत्रण करने की माँग इसलिए उठाई जा रही है कि ऑक्सिजन की तरह ही उसकी उपलब्धता भी सीमित मात्रा में है जबकि जरूरत भी इसी समय सबसे ज़्यादा है।दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जाएगा कि प्रत्येक तत्कालीन सत्ता के साथ ‘लिव-इन रिलेशनशिप’ में रहने वाले मीडिया संस्थानों और मीडियाकर्मियों की संख्या में न सिफऱ् लगातार वृद्धि हो रही है, नागरिक-हितों पर चलने वाली बहसें भी निर्लज्जता के साथ या तो मौन हो गईं हैं या फिर मौन कर दी गईं हैं।
अब जैसे किसी साधु, पादरी, मौलवी, ब्रह्मचारी अथवा राजनेता को किसी महिला या पुरुष के साथ नाजायज मुद्रा में बंद कमरे में पकड़ लिए जाने पर ज़्यादा आश्चर्य व्यक्त नहीं किया जाता या नैतिकता को लेकर कोई हाहाकार नहीं मचता वैसे ही मीडिया और सत्ता प्रतिष्ठानों के बीच चलने वाले ‘सहवास’ को भी नाजायज़ संबंधों की पत्रकारिता के कलंक से मुक्त मान लिया गया है। ऐसी परिस्थितियों में मीडिया के बचे-ख़ुचे टिमटिमाते हुए हुए दीयों को अपनी लड़ाई न सिर्फ सत्ता की राजनीति से बल्कि उन जहरीली हवाओं से भी लडऩा पड़ेगी जो उन्हें बुझाने के लिए खरीद ली गईं हैं।
देश इस समय एक अभूतपूर्व संकट से गुजर रहा है।इसे हमारे राजनीतिक नेतृत्व की खूबी ही माना जाना चाहिए कि जो कुछ भी चल रहा है उसके प्रति लोग स्थितप्रज्ञ अवस्था को प्राप्त हो गए हैं। अर्थात असीमित दुखों की प्राप्ति पर भी मन में किसी भी प्रकार का कोई उद्वेग नहीं उत्पन्न हो रहा है। कछुए की तरह जनता ने भी अपने सभी अंगों को समेट लिया है। दुनिया की कोई भी हुकूमत ऐसी समर्पित प्रजा पाकर अपने आपको धन्य और कृतार्थ महसूस कर सकती है।
इसे कोई दैवीय चमत्कार ही माना जा सकता है कि जो जनता किसी समय आलू-प्याज़ की अस्थायी क़िल्लत भी बर्दाश्त करने को तैयार नहीं होती थी, वही आज एक-एक साँस के लिए स्वयं से ही संघर्ष करते हुए अपनी जानें दे रही है।कहीं भी कोई हल्ला या शोर नहीं है।देखते ही देखते सब कुछ बदल गया है। यह भी नहीं बताया जा सकता कि जो और भी गंभीर संकट भविष्य के पेट में छुपे हुए हैं उनसे निपटने के लिए वे लोग कितनी तैयारी से जुटे हैं जिन्हें नागरिकों ने अपना सर्वस्व सौंप रखा है। चारों ओर डर व्याप्त है कि जो कर्णधार सिर्फ़ बंगाल की हुकूमत पर क़ब्ज़ा करने के लिए तीन साल से ज़बर्दस्त तैयारियों में जुटे थे उन्हें भनक तक नहीं लग पाई कि इधर समूचा देश केवल एक साल के भीतर ही हारने लगेगा और वे मरने वालों गिनती करते रह जाएँगे।
राज्यों को हिदायत दी गई है कि वे अपनी मेडिकल ऑक्सीजन की ज़रूरत को क़ाबू में रखें।उन्हें आगाह किया गया है कि अगर कोरोना के मामले ऐसे ही अनियंत्रित तरीक़े से बढ़ते रहे तो इससे देश के चिकित्सा ढाँचे पर बड़ा असर पड़ेगा।’ हम राज्य सरकारों के साथ खड़े हैं, लेकिन उन्हें माँग को नियंत्रण में लाना होगा और कोविड को रोकने के लिए ठोस कदम उठाने होंगे।’ एक चिकित्सक केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री डॉ. हर्षवर्धन नहीं बल्कि रेलवे मंत्री पीयूष गोयल ने अपने एक ट्वीट में कहा है कि :’पेशेंट को जितनी ज़रूरत है उतनी ही ऑक्सीजन लगाना चाहिए। कई जगह से वेस्टेज के साथ ही पेशेंट को ज़रूरत न होते हुए भी ऑक्सीजन लगाने की ख़बर आ रही है।’
पीयूष गोयल मुंबई जैसे अत्याधुनिक महानगर से हैं और उनसे पूछा जा सकता है क्या ऐसा मुमकिन है कि किसी भी मरीज़ को उसके फेफड़ों की क्षमता और ज़रूरत से ज़्यादा ऑक्सिजन दे दी जाए और फिर भी वह स्वस्थ बच जाए ? इस सवाल का इंटरनेट पर अंग्रेज़ी में जो उत्तर उपलब्ध है उसका एक पंक्ति में हिंदी सार यह है कि ज़रूरत से ज़्यादा ऑक्सीजन के इस्तेमाल से फेफड़ों और शरीर के अन्य अवययों को क्षति पहुँच सकती है।
ऑक्सीजन के इस्तेमाल को लेकर केंद्रीय मंत्री की चिंता या चेतावनी का गलती से एक क्रूर अर्थ यह भी लगाया जा सकता है कि ज़रूरत से अधिक आपूर्ति के ज़रिए कोरोना मरीज़ों की सेहत को जानते-बूझते नुक़सान पहुँच रहा है या पहुँचाया जा रहा है।मनुष्य के फेफड़े आलू-प्याज़ की तरह ऑक्सीजन की जमाख़ोरी नहीं कर सकते। देश के नीति-निर्धारकों में अपने ही चिकित्सकों की योग्यता-क्षमता और नागरिकों के फेफड़ों की ऑक्सीजन-क्षमता को लेकर जानकारी का अभाव होना दुर्भाग्यपूर्ण है। इस समय हकीकत तो यह है कि ज़रूरत के मुक़ाबले कम आपूर्ति को देखते हुए मरीजों को ऑक्सीजन कम या सीमित मात्रा में दी जा रही है।
अपने किसी पुराने आलेख में मैंने भारतीय रिज़र्व बैंक के पूर्व गवर्नर डी सुब्बाराव के एक लेख का किसी और संदर्भ में ज़िक्र किया था। सुब्बाराव के लेख में प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान यहूदियों पर हुए नाज़ी अत्याचारों को लेकर 1982 में बनी एक बहुचर्चित फ़िल्म ‘Sophie’s Choice ’ का उल्लेख था। फ़िल्म में पोलैंड की एक यहूदी माँ के हृदय में मातृत्व को लेकर चलने वाले इस द्वंद्व का वर्णन है कि वह अपने दो बच्चों में से किसे तो तुरंत मौत के ‘गैस चेम्बर ‘ में भेजने की अनुमति दे और किसे नाज़ियों के ‘यातना शिविर’ (Labour camp) में ले जाए जाने की। सुब्बाराव ने फ़िल्म के कथानक का उल्लेख इस संदर्भ में किया था कि सरकार के सामने भी यहूदी माँ की तरह ही संकट यह है कि वह उपलब्ध दो में से पहले किस विकल्प को चुने —लोगों की रोज़ी-रोटी बचाने का या उनकी ज़िंदगियां बचाने का। दुर्भाग्यपूर्ण यह रहा कि सरकार एक भी विकल्प पर ईमानदारी नहीं बरत सकी।
ऑक्सीजन और अन्य जीवन-रक्षक चिकित्सकीय संसाधनों की उपलब्धता और उनके न्यायपूर्ण उपयोग को लेकर राष्ट्रीय नेतृत्व के द्वारा जिस तरह से चेताया जा रहा है उससे तो यही लगता है कि हालात ऐसे ही अनियंत्रित होकर ख़राब होते रहे तो नागरिक एक ऐसी स्थिति में पहुँच सकते हैं जब उनसे पूछा जाने लगे कि वे ही तय करें कि परिवार में पहले किसे बचाए जाने की ज़्यादा ज़रूरत है। विकल्प जब सीमित होते जाते हैं तब स्थितियाँ भी वैसी ही बनती जाती है। टीकों की सीमित उपलब्धता को लेकर भी ऐसा ही हुआ था कि अभियान ‘पहले किसे लगाया जाए’ से प्रारम्भ किया गया।शुरुआत अग्रिम पंक्ति के स्वास्थ्य कर्मियों से हुई थी ।एक सौ पैंतीस करोड़ की आबादी वाले देश में अब तक सिर्फ़ दस-ग्यारह करोड़ को ही टीके लग पाए हैं।
पिछले वर्ष इन्हीं दिनों जब योरप के देशों में कोरोना की महामारी ज़ोरों पर थी और हम अपनी ‘इम्यूनिटी’ पर गर्व कर रहे थे, सोशल मीडिया प्लेटफ़ार्म ‘ट्वीटर’ पर बेल्जियम की एक नब्बे वर्षीय महिला का किसी अस्पताल के कमरे के साथ चित्र जारी हुआ था। महिला सूज़ेन ने निधन से पहले अपने इलाज के लिए वेंटिलेटर का उपयोग करने से इसलिए इनकार कर दिया था कि मरीज़ों की संख्या के मुक़ाबले वे काफ़ी कम उपलब्ध थे। सूज़ेन ने डॉक्टरों से कहा था :’मैंने अपना जीवन जी लिया है, इसे (वेंटिलेटर को) जवान मरीज़ों के लिए सुरक्षित रख लिया जाए।’
प्रसिद्ध अंतरराष्ट्रीय पत्रिका ‘द इकॉनामिस्ट’ द्वारा रूस के संदर्भ में लिखे गए एक सम्पादकीय का मैंने एक बार ज़िक्र किया था कि लोगों का पेट जैसे-जैसे तंग होने लगता है, सरकारों के पास उन्हें देने के लिए ‘राष्ट्रवाद’ और ‘विषाद’ के अलावा और कुछ नहीं बचता। जो सरकारें अपनी जनता के ख़िलाफ़ भय का इस्तेमाल करती हैं, वे अंततः खुद भी भय में ही रहने लगती हैं।ऐसा दिख भी रहा है ।पहली बार नज़र आ रहा है कि हुकूमत हक़ीक़त में भी डरी हुई है ,डरे होने का अभिनय नहीं कर रही है।कहा नहीं जा सकता है कि यह डर जनता के स्वास्थ्य की चिंता को लेकर है या अपनी सत्ता के स्वास्थ्य को लेकर !
ऑक्सीजन और रेमडेसिवीर इंजेक्शनों की माँग का सम्बन्ध इस बात से भी है कि व्यवस्था के प्रति लोगों का यकीन समाप्त होकर मौत के भय में बदलता जा रहा है। सबसे ज़्यादा दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति तो तब होगी जब ज़िम्मेदार पदों पर बैठे हुए लोग सांत्वना के दो शब्द कहने के बजाय जनता में व्याप्त मौजूदा भय को व्यवस्था के प्रति कोई सुनियोजित षड्यंत्र बताने लगेंगे। कोरोना की लड़ाई को महाभारत जैसा युद्ध बताया गया था। मौतें भी कुरुक्षेत्र के मैदान जैसी ही हो रही हैं।
बात कोरोना महामारी को लेकर है। शुरुआत गुजरात से की जानी चाहिए। गुजरात के कथित ‘विकास मॉडल’ को ही अपने मीडिया प्रचार की सीढ़ी बनाकर नरेंद्र मोदी सात साल पहले एक मुख्यमंत्री से देश के प्रधानमंत्री बने थे। गुजरात उच्च न्यायालय ने हाल में कोरोना के इलाज की बदहाली पर एक स्व-प्रेरित याचिका को आधार बनाकर पहले तो यह टिप्पणी की कि राज्य ‘स्वास्थ्य आपातकाल’ की ओर बढ़ रहा है और बाद में उसने प्रदेश सरकार के इस दावे को भी खारिज कर दिया कि स्थिति नियंत्रण में है।बात इसी महीने की है।
गुजरात उच्च न्यायालय ने ठीक एक साल पहले भी कोरोना इलाज को लेकर ऐसी ही एक स्व-प्रेरित जनहित याचिका पर संज्ञान लेते हुए टिप्पणी की थी कि राज्य की हालत एक डूबते हुए टायटेनिक जहाज़ जैसी हो गई है। तब उच्च न्यायालय ने अपने 143 पेज के आदेश में राज्य के सबसे बड़े अहमदाबाद स्थित सिविल अस्पताल की हालत को एक कालकोठरी या उससे भी बदतर स्थान निरूपित किया था।
गुजरात उच्च न्यायालय के कथन को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और देश के आपदा प्रबंधन प्रभारी तथा गृह मंत्री अमित शाह के गृह राज्य में कोरोना के इलाज को लेकर एक साल की विकास यात्रा का ‘श्वेत पत्र’ भी माना जा सकता है। इसके बहाने देश के अन्य स्थानों पर कोरोना के इलाज की मौजूदा स्थिति का भी अंदाज लगाया जा सकता है। हालांकि देश की मौजूदा हालत के बारे में सुप्रीम कोर्ट द्वारा गुजरात उच्च न्यायालय के जैसा कोई संज्ञान लिया जाना अभी शेष है। बताया जाता है कि प्रधानमंत्री के निर्वाचन क्षेत्र वाराणसी में संक्रमण की दर मुंबई और दिल्ली से भी अधिक है।
कोरोना महामारी का प्रकोप शुरू होने के साल भर बाद भी देश उसी जगह और बदतर हालत में खड़ा कर दिया गया है जहां से आगे बढ़ते हुए महाभारत जैसे इस युद्ध पर तीन सप्ताहों में ही जीत हासिल कर लेने का दम्भ भरा गया था। गर्व के साथ गिनाया गया था कि हमारे यहाँ महामारी से प्रभावित होने वालों और मरने वालों की संख्या दुनिया के दूसरे मुल्कों के मुक़ाबले कितनी कम है! हाल-फिलहाल उन आँकड़ों की बात न भी करें जो कि कथित तौर पर बताए नहीं जा रहे हैं तो भी संक्रमित होने वाले नए मरीज़ों की अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उपलब्ध संख्या में भारत विश्व में इस समय सबसे आगे बताया गया है। सरकारी आँकड़ों के मुताबिक, कोरोना से होने वाली मौतों में हम ब्राज़ील के बाद दूसरे क्रम पर हैं।शवों का जिस तरह से अंतिम संस्कार हो रहा है ,सच्चाई कुछ और भी हो सकती है।
अस्पतालों में मरीज़ों के इलाज के लिए बिस्तरे तो हैं ही नहीं, अब अंतिम संस्कार के लिए शवदाह गृहों में भी स्थान नहीं बचे हैं। खबरें यहां तक हैं कि अब सार्वजनिक स्थलों पर अंतिम क्रियाएँ की जा रहीं हैं। पिछली बार जब लाखों प्रवासी मज़दूर अपने घरों को लौट रहे थे तब उनके झुंड के झुंड सड़कों पर पैदल चलते हुए नज़र आ जाते थे। इस समय सड़कें ख़ाली हैं, मज़दूर अपने घरों को लौट भी रहे हैं पर देश को नज़र कुछ भी नहीं आ रहा है।
अमेरिका के प्रसिद्ध अख़बार ‘वाशिंगटन पोस्ट’ ने एक संस्था ‘कैसर फ़ैमिली फ़ाउंडेशन’ के साथ मिलकर हाल ही में वहाँ के राज्यों के उन 1300 अग्रिम पंक्ति स्वास्थ्य कर्मियों (फ़्रंट लाइन हेल्थ वर्कर्स) से बातचीत की जो इस समय कोरोना मरीज़ों की चिकित्सा सेवा में जुटे हुए हैं। बातचीत चौंकाने वाली सिर्फ़ इसलिए मानी जा सकती है कि जो उजागर हुआ है वह न सिर्फ़ हमारे यहाँ के अग्रिम पंक्ति के कोरोना स्वास्थ्यकर्मियों बल्कि आम नागरिकों के संदर्भ में भी उतना ही सही और परेशान करने वाला है।
बातचीत में बताया गया है कि ये चिकित्साकर्मी इस समय तरह-तरह की चिंताओं और काम की थकान से भरे हुए हैं। चौबीसों घंटे डर सताता रहता है कि या तो वे स्वयं संक्रमित हो जाएँगे या फिर उनके कारण परिवार के अन्य लोग अथवा मरीज़ प्रभावित हो जाएँगे। पूरे समय पीपीइ (पर्सनल प्रोटेक्टिव इक्विपमेंट) पहने रहने से ज़िंदगी में सब कुछ बदल गया है। चेहरे पर लगी रहने वाली मास्क ने इतनी निष्ठुरता उत्पन्न कर दी है कि ख़ुशी के क्षणों में मरीज़ों के चेहरों की मुस्कान और पीड़ा के दौरान उनके चेहरों पर दर्द के भाव नहीं पढ़ पाते हैं। बुरी से बुरी ख़बर भी अपने चेहरों को मास्क के पीछे छुपाकर उन्हें देना पड़ रही है।
क्या आश्चर्यजनक नहीं लगता कि इस समय हमारे शासक अपने ही नागरिकों से हरेक चीज़ या तो छुपा रहे हैं या फिर ‘अर्ध सत्य’ बाँट रहे हैं। धोखे में रखा जा रहा है कि किसी भी चीज़ की कोई कमी नहीं है। वैक्सीन, ऑक्सीजन, रेमडेसिवीर इंजेक्शन, अस्पतालों में बेड्स, डाक्टर्स आदि का कोई अभाव नहीं है।फिर भी लोग मारे जा रहे हैं। थोड़े दिनों में कहा जाएगा कि देश में शवदाह गृहों की कोई कमी नहीं है। राजनीतिक दल सत्ता प्राप्ति के लिए हज़ारों-लाखों लोगों की चुनावी रैलियाँ और रोड शो कर रहे हैं, धर्मप्राण जनता पवित्र स्नानों में जुटी है और बाक़ी देश को महामारी से लड़ने के लिए आत्मनिर्भर कर दिया गया है।आगे चलकर कह दिया जाएगा कि कोरोना का संक्रमण इलाज की व्यवस्था में कमियों, चुनावी रैलियों और लाखों के पुण्य स्नानों से नहीं बल्कि लोगों के द्वारा आपस में आवश्यक दूरी बनाए रखने और मास्क लगाकर रखने के अनुशासन का ठीक से पालन नहीं करने से फैल रहा है।
चुनावी रैलियों और धार्मिक जमावड़ों पर किसी भी तरह की रोक इसलिए नहीं लगाई जा सकती कि लोगों को उनकी धार्मिक आस्थाओं के आधार पर आपस में बाँटकर आबादी के एक बड़े समूह को सत्ता-प्राप्ति का साधन बना दिया गया है। इस समूह को नाराज़ करके सत्ता में टिके नहीं रहा जा सकता। इसीलिए पीड़ित जनता चुपचाप देख रही है कि जो लोग कोरोना के ख़िलाफ़ लड़ाई का नेतृत्व कर रहे हैं वे ही किस तरह से उसके संक्रमण को बढ़ावा भी दे रहे हैं।
इतने सालों के बाद अब लगता है कि ‘विकास का गुजरात मॉडल’ जैसी कोई चीज कभी रही ही नहीं होगी। अगर होती तो प्रधानमंत्री और गृह मंत्री के गृह राज्य की हालत आज जैसी गई गुजरी नहीं होती। जैसे जनता के पैसों से वेंटिलेटरों के नाम पर अनुपयोगी चिकित्सा उपकरण सफलतापूर्वक ख़रीद लिए गए वैसा ही कुछ विकास के मॉडल के साथ भी हुआ लगता है। स्थिति ऐसे ही बिगड़ती रही तो हो सकता है किसी दिन सुप्रीम कोर्ट को भी कहना पड़े कि देश एक स्वास्थ्य आपातकाल की ओर बढ़ रहा है और उसकी हालत एक डूबते हुए टायटेनिक जहाज़ जैसी हो गई है। शासक अभी चुनावी पानी के अंदर ही हैं और उनका शाही स्नान ख़त्म होना बाक़ी है। अब मौतों की इस ‘तांडव’ सिरिज पर रोक की माँग कौन करेगा?
देश में बंगाल के बाहर बड़ी संख्या में ऐसे लोग भी हैं जो इस सच्चाई के बावजूद ममता बनर्जी को जीतता हुआ देखना चाहते हैं कि उनके मन में तृणमूल कांग्रेस की नेत्री के प्रति कई वाजिब कारणों से ज़्यादा सहानुभूति नहीं है। वे ममता की हार केवल इसलिए नहीं चाहते कि नरेंद्र मोदी की जीत उन्हें ज़्यादा असहनीय और आक्रामक लगती है। उनके मन में ऐसी कोई दिक़्क़त केरल और तमिलनाडु को लेकर नहीं है। असम को लेकर भी कोई ज़्यादा परेशानी नहीं हो रही है। इन राज्यों के चुनावी भविष्य पर ‘कोऊ नृपु होय, हमें का हानि’ वाली स्थिति है। सभी की नजरें बंगाल पर हैं।
नाराज़गी ममता और मोदी दोनों से है पर दूसरे के प्रति ज़्यादा है जो पहले के लिए सहानुभूति पैदा रही है। इसका कारण मुख्यमंत्री का ‘एक अकेली महिला’ होना भी हो सकता है। ममता अगर बंगाल में अपनी सत्ता बचा लेती हैं तो उसे उनके प्रति जनता के पूर्ण समर्थन के बजाय मोदी के प्रति बंगाल के हिंदू मतदाताओं में सम्पूर्ण समर्पण का अभाव ही माना जाएगा। कहा भी जा रहा है कि मोदी की जीत के लिए बंगाल के सभी हिंदुओं (आबादी के सत्तर प्रतिशत) के वोट अथवा पड़ने वाले कुल मतों के साठ प्रतिशत से अधिक के शेयर की ज़रूरत होगी। लोक सभा चुनावों (2019) में भाजपा 40.64 प्रतिशत के वोट शेयर तक तो पहुँच गई थी।
बंगाल में ऐसा पहली बार होने जा रहा है कि एंटी-इनकम्बेंसी तो मौजूदा सरकार के प्रति है पर उसका स्थान वह पार्टी नहीं ले रही है जो ममता के पहले कोई साढ़े तीन दशकों तक राज्य की सत्ता में थी यानी माकपा (और उसके सहयोगी दल)। सवाल यह है कि ममता के ख़िलाफ़ भाजपा के सफल धार्मिक ध्रूवीकरण का मुख्य कारण अगर वर्तमान मुख्यमंत्री की कथित मुस्लिम तुष्टिकरण की नीतियाँ हैं तो क्या राज्य के हिंदू मतदाता घोर नास्तिक माने जाने वाले मार्क्सवादियों की हुकूमत में पूरी तरह से संतुष्ट थे? क्या मार्क्सवादी ज़्यादा हिंदू परस्त थे और राज्य के मुस्लिमों का उनके प्रति वही नज़रिया था जो भाजपा का है? ऐसा होता तो सत्ता में वापसी की सम्भावनाएँ वामपंथी-कांग्रेस गठबंधन की बनना चाहिए थीं; एक ऐसी पार्टी की क़तई नहीं जो बंगाल की राजनीति में कभी प्रभावी तौर पर मौजूद ही नहीं थी और जिसे दूसरी पार्टियों से उम्मीदवारों की ‘खरीद-फ़रोख़्त’ करके चुनाव लड़ना पड़ रहा हो। बाद में बंगाल के हिंदुओं ने ही मार्क्सवादियों को सत्ता से बाहर रखने में ममता का दस सालों तक साथ दिया। बंगाल के अचानक से दिखने वाले इस चरित्र परिवर्तन, जिसे प्रधानमंत्री ‘आसोल पोरीबोरतन’ बता रहे हैं, के पीछे कोई और बड़ा कारण होना चाहिए।
एक अन्य सवाल यह है कि ममता अगर वापस से सत्ता में आ जाती हैं तो क्या वे अपने विरोधियों के प्रति ज़्यादा सहिष्णु हो जाएँगी? अधिक लोकतांत्रिक बन जाएँगी? अभिव्यक्ति की आज़ादी को लेकर ज़्यादा उदार भाव अपनाने लगेंगी? अल्पसंख्यकों को पहले की तरह ही अपने साथ लेकर चलती रहेंगी? शायद नहीं। अंदेशा इस बात का अधिक है कि उनकी वापसी के बाद बंगाल में हिंसा ज़्यादा होने लगेगी, वे अपने सभी तरह के विरोधियों के ख़िलाफ़ प्रतिशोध की भावना से काम करेंगी। प्रतिशोध की राजनीति ही तृणमूल की मूल ताक़त भी रही है।
इसके उलट, अगर भाजपा सत्ता में आ गई तो क्या एक स्वच्छ और ईमानदार सरकार उन लोगों की भागीदारी और नेतृत्व में बंगाल में क़ायम हो सकेगी जो अपने विरुद्ध कथित तौर पर भ्रष्टाचार के आरोपों अथवा अन्य ग़ैर-राजनीतिक कारणों के चलते इतनी बड़ी संख्या में तृणमूल और अन्य दलों से छिटककर उसके साथ जुड़ने को तैयार हो गए? राज्य की तीस प्रतिशत मुस्लिम आबादी, जो पिछले लोक सभा चुनावों के बाद से ही कथित तौर पर ममता को अल्पसंख्यक विरोधी और हिंदू तुष्टिकरण की नीतियों पर चलने वाली मानने लगी थी, क्या भाजपा के शासन में अपने आपको ज़्यादा सुरक्षित महसूस करने लगेगी?
तो क्या यह मानकर चला जाए कि बंगाल की बहुसंख्य जनता किसी अज्ञात समय से किसी ऐसी पार्टी के प्रवेश की चुपचाप प्रतीक्षा कर रही थी जो कि मार्क्सवादियों से भी अलग हो और तृणमूल कांग्रेस भी नहीं हो। बंगाल के मतदाता की नज़रों में ममता की पार्टी कांग्रेस से टूटकर ही बनी थी इसलिए उसे अब किसी भी तरह की कांग्रेस नहीं चाहिए। वर्ष 2015 के प्रारम्भ में दिल्ली विधान सभा के चुनावों में ऐसा ही हुआ था। डॉ. मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यू पी ए सरकार के ख़िलाफ़ नाराज़गी शीला दीक्षित सरकार को तो ले डूबी पर उसके स्थान पर दिल्ली में दूसरे क्रम पर स्थापित पार्टी भाजपा सत्ता में नहीं आ पाई। ऐसा इस तथ्य के बावजूद हुआ कि उसके कुछ महीनों पहले ही मोदी भारी बहुमत के साथ संसद में पहुँचे थे। मोदी का जादू न सिर्फ़ 2015 में ही काम नहीं आया ,2020 में भी नहीं चला।
बंगाल चुनावों को लेकर चिंता का निपटारा केवल इसी बहस पर सिमट नहीं जाना चाहिए कि कुछ लोगों की सहानुभूति मोदी के मुक़ाबले ममता के प्रति ज़्यादा क्यों है या कितनी होना चाहिए। एक दूसरे महत्वपूर्ण कारण पर भी गौर करना ज़रूरी है।सवेंदु अधिकारी इस बार भाजपा के टिकट पर ममता के ख़िलाफ़ नंदीग्राम में चुनाव लड़ रहे हैं। चुनावों के पहले तक वे ममता के नज़दीकी साथियों में एक थे और तृणमूल के टिकट पर ही नंदीग्राम से ही पिछला चुनाव जीते थे। वे उसी इलाक़े के रहने वाले भी हैं। ममता को हराकर भाजपा की सरकार बनने की स्थिति में सवेंदु मुख्यमंत्री पद के दावेदार भी हो सकते है। तृणमूल छोड़कर भाजपा में जाते ही अपने स्वयं के चुनाव क्षेत्र को लेकर उनका नज़रिया सफ़ेद से केसरिया हो गया।
चुनाव आयोग ने आठ मार्च को सवेंदु अधिकारी को उसे प्राप्त एक शिकायत के आधार पर नोटिस जारी किया था। नोटिस के अनुसार, सवेंदु द्वारा अपने चुनाव क्षेत्र नंदीग्राम में 29 मार्च को दिए भाषण में कथित तौर पर जो कहा गया उसका अनुवादित सार यह हो सकता है :’अगर आप बेगम को वोट दोगे तो एक मिनी पाकिस्तान बन जाएगा। आपके इलाक़े में एक दाऊद इब्राहिम आ गया है।’ चुनाव-परिणामों से उपजने वाली चिंता हक़ीक़त में तो यह होनी चाहिए कि क्या ममता के हार जाने की स्थिति में पहले नंदीग्राम और फिर बंगाल के दूसरे इलाक़ों में मिनी पाकिस्तान चिन्हित किए जाने लगेंगे? बंगाल के और कितने विभाजन होना अभी शेष हैं? और फिर देश का क्या होने वाला है?
लोगों की यह जानने की भारी उत्सुकता है कि बंगाल चुनावों के नतीजे क्या होंगे ? ममता बनर्जी हारेंगी या जीत जाएँगी ? सवाल वास्तव में उलटा होना चाहिए। वह यह कि बंगाल में नरेंद्र मोदी चुनाव जीत पाएँगे या नहीं? बंगाल में चुनाव ममता और मोदी के बीच हो रहा है। वहाँ पार्टियाँ गौण हैं। किसी भी राज्य में ऐसा पहली बार हो रहा है कि एक प्रधानमंत्री किसी मुख्य मंत्री के ख़िलाफ़ चुनाव का नेतृत्व कर रहा हो।
अगर भाजपा बंगाल में वर्ष 2016 की अपनी तीन सीटों की संख्या को बढ़ाकर (अमित शाह के मुताबिक़) दो सौ पार पहुँचा देगी तो भारत के संसदीय इतिहास का सबसे बड़ा अजूबा हो जाएगा। ऐसा हो गया तो फिर मान लेना होगा कि भाजपा अगले साल न सिर्फ़ उत्तर प्रदेश में 2017 को दोहराएगी, साल 2024 में लोक सभा की साढ़े चार सौ सीटें प्राप्त करना चाहेगी। भाजपा ने बंगाल के चुनावों को जिस हाई पिच पर लाकर 2014 के लोक सभा चुनावों जैसी सनसनी पैदा कर दी है उसमें अब ज़्यादा महत्वपूर्ण मोदी हो गए हैं।
ज़ाहिर यह भी हो गया है कि बंगाल के चुनाव परिणाम जिस भी तरह के निकलें, दो मई के बाद देश में विपक्ष की राजनीति भी एक नई करवट ले सकती है। इस नई करवट का नया आयाम यह होगा कि अभी तक केवल उत्तर भारत के राजनीतिक दाव-पेचों पर ही केंद्रित रहने वाली केंद्र की राजनीति में अब दक्षिण की सक्रिय भागीदारी भी सुनिश्चित होने वाली है।वे तमाम लोग, जो हाल के सालों में विपक्ष के नेतृत्व की तलाश राहुल गांधी, मायावती, अखिलेश यादव आदि में ही कर-करके थके जा रहे थे, विधान सभा चुनावों के दौरान उत्पन्न हुए घटनाक्रमों में कुछ नई संभावनाएं ढूँढ सकते हैं।
इतना स्पष्ट है कि पाँच राज्यों में चुनावों बाद जिस नए विपक्ष का उदय सम्भावित है उसका नेतृत्व कांग्रेस नहीं कर पाएगी। उसके पीछे के कारण भी सबको पता हैं। ग़ैर-भाजपाई विपक्ष में ऐसी कई पार्टियाँ हैं कांग्रेस जिनके ख़िलाफ़ चुनाव लड़ती रहती है। मसलन बंगाल और केरल में अभी ऐसा ही हो रहा है। कहा यह भी जा सकता है कि सामूहिक नेतृत्व वाला कोई विपक्ष वर्ष 1977 की तरह अगले साल उत्तर प्रदेश में होने वाले विधान सभा चुनावों के पहले आकार ग्रहण कर ले। ममता बनर्जी ही नहीं, उद्धव ठाकरे, पी विजयन, एम के स्टालिन, जगन मोहन रेड्डी, के. चंद्रशेखर राव, अमरिंदर सिंह, हेमंत सोरेन, अरविंद केजरीवाल, तेजस्वी यादव, महबूबा मुफ़्ती आदि कई मुख्यमंत्री और नेता इस समय मोदी के साथ टकराव की मुद्रा में हैं।
नंदीग्राम में होने वाले दूसरे चरण के मतदान के पहले ही अगर ममता ने सभी प्रमुख विपक्षी नेताओं को चिट्ठी लिखकर भाजपा के ख़िलाफ़ एकजुट होने का आह्वान कर दिया, तो उसके पीछे कोई बड़ा कारण होना चाहिए। ऐसी कोई पहल ममता ने न तो 2016 के विधान सभा चुनावों और न ही 2019 के लोक सभा चुनावों के दौरान या बाद में की थी। पिछले लोक सभा चुनावों में तो ममता की ज़मीन ही भाजपा ने खिसका दी थी। भाजपा ने लोक सभा की कुल 42 में से 18 सीटें प्राप्त कर अपना वोट शेयर चार गुना कर लिया था। यह एक अलग मुद्दा है कि ममता ने उसके बाद भी कोई सबक़ नहीं सीखा। विपक्षी नेताओं को लिखे पत्र में ममता ने भाजपा पर देश में एक-दलीय शासन व्यवस्था क़ायम करने का आरोप लगाया है।
बंगाल चुनावों से मुक्त होते ही ममता बनर्जी भाजपा के ख़िलाफ़ विपक्षी राज्य सरकारों और जनता के बीच बढ़ रही नाराज़गी को किसी बड़े आंदोलन में परिवर्तित करने के काम में जुटने का इरादा रखती हैं। राज्य में द्वितीय चरण के मतदान के पहले ही उन्होंने घोषणा भी की कि :’अभी एक पैर पर बंगाल जीतूँगी और फिर दो पैरों पर दिल्ली।’ पर सवाल यह है कि तृणमूल अगर चुनावों के बाद बंगाल में सरकार नहीं बना पाती है तो क्या ममता के लिए बंगाल से बाहर निकल पाना सम्भव हो पाएगा ? वैसी स्थिति में तो बची-खुची तृणमूल भी समाप्त कर दी जाएगी। एक क्षेत्रीय पार्टी तृणमूल को मूल से समाप्त करना भाजपा के लिए इस समय पहली राष्ट्रीय ज़रूरत बन गई है। कांग्रेस-मुक्त भारत अभियान पीछे छूट गया है।
इस बात पर थोड़ा आश्चर्य व्यक्त किया जा सकता है कि राहुल और प्रियंका गांधी ने बंगाल में अपनी पार्टी के प्रत्याशियों के पक्ष में असम, केरल और तमिलनाडु की तरह चुनाव प्रचार क्यों नहीं किया। कांग्रेस बंगाल में 92 सीटों पर चुनाव लड़ रही है। बाक़ी सीटें संयुक्त मोर्चे के घटकों -वाम पार्टियों और आइ एस एफ (इंडियन सेक्युलर फ़्रंट) -को दी गईं है। दोनों ही नेता चार अप्रैल की शाम ही बाक़ी राज्यों के चुनाव प्रचार से मुक्त भी हो गए थे। बंगाल में अभी भी पाँच चरणों का मतदान बाक़ी है।देखना दिलचस्प होगा कि राहुल और प्रियंका बंगाल में प्रवेश करते हैं या नहीं। कांग्रेस को पिछले विधान सभा चुनाव में 44 सीटें प्राप्त हुईं थीं। चुनाव परिणामों के बाद ही पता चल सकेगा कि कांग्रेस बंगाल के चुनावों में वास्तव में किसे फ़ायदा पहुँचाने के लिए मैदान में थी। यह भी गौर करने लायक़ है कि प्रधानमंत्री अथवा शाह ने बंगाल में अपने चुनाव प्रचार के दौरान ज़्यादातर हमले ममता पर ही किए।
भाजपा के ख़िलाफ़ विपक्षी एकता के सवाल को लेकर लिखी गई ममता की चिट्ठी पर आम आदमी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल ,राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी , नेशनल कांफ्रेंस, सपा आदि ने सकारात्मक प्रतिक्रिया व्यक्त की है पर कांग्रेस अभी मौन है। याद किया जा सकता है कि पिछले साल सोनिया गांधी द्वारा बुलाई गई विपक्षी नेताओं की बैठक में ममता ने भाग नहीं लिया था। दो मई के बाद विपक्ष की राजनीति में जो भी परिवर्तन आए, सम्भव है उसमें अधिक नुक़सान कांग्रेस का ही हो। वह इस मायने में कि बदली हुई परिस्थितियों में विपक्षी एकता की धुरी और उसका मुख्यालय बदल सकता है। समझना मुश्किल नहीं है कि बंगाल फ़तह को भाजपा ने अपना राष्ट्रीय मिशन क्यों बना रखा है! ममता को किसी भी क़ीमत पर दिल्ली का रुख़ नहीं करने देना है! क्या ऐसा सम्भव हो पाएगा ? बंगाल में अब सब कुछ सम्भव है।
कोलकाता से निकलने वाले अंग्रेज़ी के चर्चित अख़बार ‘द टेलिग्राफ’ के सोमवार (29 मार्च,20121) के अंक में पहले पन्ने पर एक ख़ास ख़बर प्रकाशित हुई है। ख़बर गुवाहाटी की है और उसका सम्बन्ध 27 मार्च को असम में सम्पन्न हुए विधान सभा चुनावों के पहले चरण के मतदान से है। असम में मतदान तीन चरणों में होना है। दूसरे चरण का मतदान एक अप्रैल और तीसरे व अंतिम का छह अप्रैल को होने वाला है।
टेलिग्राफ के मुताबिक़, असम के नौ प्रमुख समाचार पत्रों (सात असमी, एक अंग्रेज़ी और एक हिंदी ) में प्रथम चरण के मतदान के ठीक अगले दिन पहले पन्ने पर सबसे ऊपर एक कोने से दूसरे कोने तक फैली एक ‘ख़बर ‘प्रमुखता से छापी गई है।सभी में एक जैसे चौंकाने वाले शीर्षक के साथ छपी कथित ख़बर वस्तुतः विज्ञापन है। ‘ख़बर’ के बाईं ओर भाजपा का नाम और उसका चुनाव चिन्ह भी दिया गया है। इन सभी समाचार पत्रों ने ख़बर के मुखौटे में एक जैसा जो कुछ छापा है (‘BJP TO WIN ALL CONSTITUENCIES OF UPPER ASSAM’) उसके मुताबिक भाजपा ऊपरी असम इलाक़े की वे सभी सैंतालिस सीटें जीतने जा रही है जहां कि प्रथम चरण में मतदान हुआ है।
उक्त प्रकाशन के ज़रिए हुए चुनाव आचार संहिता के कथित उल्लंघन के मुद्दे पर असम के विपक्षी दलों ने एफ आइ आर दर्ज करवाई है और अन्य कार्रवाई भी की जा रही है। पर हमारा सवाल अलग है। वह यह कि : क्या समाचार पत्रों के सम्पादकों ने यह काम अनजाने में किया (या होने दिया) और उन्हें इस बात की जानकारी नहीं थी कि पाठकों के साथ निष्पक्ष पत्रकारिता के नाम पर ‘धोखाधड़ी’ की जा रही है ? या फिर किन्ही दबावों के चलते सब कुछ जानते-बूझते होने दिया गया ? आचार संहिता के हिसाब से इस तरह की कोई भी जानकारी, अनुमान अथवा सर्वेक्षण चुनाव सम्पन्न हो जाने तक प्रकाशित/प्रसारित नहीं किए जा सकते।
रवीश कुमार की गिनती देश के ईमानदार और प्रतिष्ठित सम्पादकों में होती है। वे और उनके जैसे ही कई अन्य पत्रकार तादाद में ज़्यादा न होते हुए भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए लगातार लड़ रहे हैं। रवीश अपनी चर्चाओं में बार-बार दोहराते हैं कि लोगों को ‘गोदी’ मीडिया देखना (और पढ़ना) बंद कर देना चाहिए। ’गोदी' मीडिया से उनका मतलब निश्चित ही उस मीडिया से है जो पूरी तरह से व्यवस्था की गोद में बैठा हुआ है और जान-बूझकर ‘संजय’ की बजाय ‘धृतराष्ट्र’ की मुद्रा अपनाए हुए है।
रवीश कुमार यह नहीं बताते (या बताना चाहते ) कि जिस तरह का मीडिया इस समय खबरों की मंडी में बिक रहा है उसमें दर्शकों और पाठकों को क्या देखना और पढ़ना चाहिए ? ‘क्या देखना अथवा पढ़ना चाहिए’ को बता पाना एक बहुत ही मुश्किल और चुनौती भरा काम है, ख़ासकर ऐसी स्थिति में जब कि लगभग सभी बड़े कुओं में वफ़ादारी की भांग डाल दी गई हो।आपातकाल के दौरान मीडिया सेन्सरशिप के बावजूद काफ़ी कुछ कुएँ बाक़ी थे जिनके पानी पर भरोसा किया जा सकता था।
आपातकाल की बात चली है तो उस समय के निडर समाचारपत्रों में एक ‘इंडियन एक्सप्रेस’ के सम्पादकों और पत्रकारों का काफ़ी नाम था (सौभाग्य से मैं भी उस दौरान वहीं काम करता था) ।इंदिरा गांधी के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ने वाले इस अंग्रेज़ी अख़बार ने हाल में वर्ष 2021 के देश के सबसे ज़्यादा ताकतवर सौ लोगों की सूची जारी की है। पूरी सूची में एक सौ पैंतीस करोड़ लोगों के देश में पूरब से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण तक एक भी ‘ताकतवर’ सम्पादक या पत्रकार का नाम नहीं है। क्या यक़ीनी तौर पर ऐसी ही दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति उत्पन्न हो गई है कि इस समय कोई एक भी ताकतवर पत्रकार/सम्पादक देश में बचा ही नहीं ? या फिर सूची में शामिल सौ लोग इतने ज़्यादा ताकतवर हो गए हैं कि उनके बीच किसी भी क्रम पर कोई पत्रकार या सम्पादक अपनी जगह बना ही नहीं सकता था ?
रवीश कुमार और उन जैसे सौ-पचास या हज़ार-दो हज़ार ज्ञात-अज्ञात पत्रकारों या ‘एडिटर्स गिल्ड’ जैसी कुछेक संस्थाओं की बात छोड़ दें जो हर तरह के हमले बर्दाश्त करते हुए भी अभिव्यक्ति की आज़ादी के काम में जुटी हुईं हैं तो क्या कोई पूछना नहीं चाहेगा कि देश में लाखों की संख्या में जो बाक़ी पत्रकार और सम्पादक हैं वे इस समय हक़ीक़त में क्या काम कर रहे होंगे ?किस अख़बार और किस चैनल में किस तरह की खबरों के लिए वे अपना खून-पसीना एक कर रहे होंगे ?
पत्रकारिता समाप्त हो रही है और पत्रकार बढ़ते जा रहे हैं! खेत समाप्त हो रहे हैं और खेतिहर मज़दूर बढ़ते जा रहे हैं, ठीक उसी तरह। खेती की ज़मीन बड़े घराने ख़रीद रहे हैं और अब वे ही तय करने वाले हैं कि उस पर कौन सी फसलें पैदा की जानी हैं। मीडिया संस्थानों का भी कार्पोरेट सेक्टर द्वारा अधिग्रहण किया जा रहा है और पत्रकारों को बिकने वाली खबरों के प्रकार लिखवाए जा रहे हैं। किसान अपनी ज़मीनों को ख़रीदे जाने के ख़िलाफ़ संघर्ष कर रहे हैं। मीडिया की समूची ज़मीन ही खिसक रही है पर वह मौन हैं। गौर करना चाहिए है कि किसानों के आंदोलन को मीडिया में इस समय कितनी जगह दी जा रही है ? दी भी जा रही है या नहीं ? जबकि असली आंदोलन ख़त्म नहीं हुआ है। सिर्फ़ मीडिया में ख़त्म कर दिया गया है।
असम के कुछ अख़बारों में जो प्रयोग हुआ है वह देश के दूसरे अख़बारों और चैनलों में अपने अलग-अलग रूपों में वर्षों से लगातार चल रहा है। वह ठंड, गर्मी बरसात की तरह दर्शकों और पाठकों को कभी-कभी महसूस ज़रूर होता रहता है पर ईश्वर की तरह दिखाई नहीं पड़ता।आपातकाल किसी भी तरह का हो, जनता बाद में डरना प्रारम्भ करती है। मीडिया का एक बड़ा तबका तो डरने की ज़रूरत के पैदा होने से पहले ही कांपने लगता है। सरकारें जानती हैं कि मीडिया पर नियंत्रण कस दिया जाए तो फिर देश को चलाने के लिए जनता के समर्थन की ज़रूरत भी एक बड़ी सीमा तक अपने आप ‘नियंत्रित’ हो जाती है।आप भी सोचिए कि आख़िर क्यों ‘द टेलिग्राफ़’ जैसा समाचार कहीं और पढ़ने या देखने को नहीं मिल पाता है !
कांग्रेस के भविष्य को लेकर इस समय सबसे ज़्यादा चिंता व्याप्त है। यह चिंता भाजपा भी कर रही है और कांग्रेस के भीतर ही नेताओं का एक समूह भी कर रहा है। दोनों ही चिंताएँ ऊपरी तौर पर भिन्न दिखाई देते हुए भी अपने अंतिम उद्देश्य में एक ही हैं। सारांश में यह कि पार्टी की कमान गांधी परिवार के हाथों से कैसे मुक्त हो ? आज की परिस्थिति में कांग्रेस को बचाने का आभास देते हुए उसे ख़त्म करने का सबसे अच्छा प्रजातांत्रिक तरीक़ा भी यही हो सकता है। जहां भाजपा की राष्ट्रीय मांग देश को कांग्रेस से मुक्त करने की है। कांग्रेस पार्टी के एक प्रभावशाली तबके की मांग फ़ैसलों की ज़िम्मेदारी किसी व्यक्ति (परिवार !) विशेष के हाथों में होने के बजाय सामूहिक नेतृत्व के हवाले किए जाने की है। सामूहिक फ़ैसलों की मांग में मुख्य रूप से यही तय होना शामिल माना जा सकता है कि विभिन्न पदों पर नियुक्ति और राज्य सभा के रिक्त स्थानों की पूर्ति के अधिकार अंततः किसके पास होने चाहिए !
एक सौ पैंतीस साल पुरानी कांग्रेस को ‘प्रजातांत्रिक’ बनाने की लड़ाई एक ऐसे समय खड़ी की गई है कि वह न सिर्फ़ ‘प्रायोजित’ प्रतीत होती है, उसके पीछे के इरादे भी संदेहास्पद नज़र आते हैं। कांग्रेस-मुक्त भारत की स्थापना की दिशा में इसे पार्टी के कुछ विचारवान नेताओं का सत्तारूढ़ दल को ‘गुप्तदान’ भी माना जा सकता है। राजनीति में ऐसा होता ही रहता है। बेरोज़गार बेटों को मां-बाप से शिकायतें हो ही सकती है कि वे कमाकर नहीं ला रहे हैं इसीलिए घर में ग़रीबी है।
क्या किसी प्रकार का शक नहीं होता कि बंगाल चुनाव के ठीक पहले बिहार में उम्मीदवारों की हार को मुद्दा बनाकर जिस समय वरिष्ठ नेता कांग्रेस नेतृत्व को घेर रहे हैं, भाजपा के निशाने पर भी वही एक दल है ? दो विपरीत ध्रुवों वाली शक्तियों के निशाने पर एक ही समय पर एक टार्गेट कैसे हो सकता है ? इसी कांग्रेस के नेतृत्व में जब दो साल पहले तीन राज्यों में चुनाव जीतकर सरकारें बन गईं थीं तब तो वैसी आवाज़ें नहीं उठीं थीं जैसी आज सुनाई दे रही हैं!
एक देश,एक संविधान और एक चुनाव की पक्षधर भाजपा के लिए राष्ट्रीय स्तर पर केवल एकमात्र राजनीतिक दल के रूप में पहचान स्थापित करने के लिए ज़रूरी है कि कांग्रेस को एक क्षेत्रीय पार्टी की हैसियत तक सीमित और दिल्ली की तरफ़ खुलने वाली राज्यों की खिड़कियों को पूरी तरह से सील कर दिया जाए। जो प्रकट हो रहा है वह यही है कि सोनिया गांधी की अस्वस्थता को देखते हुए उनकी उपस्थिति में ही पार्टी-नेतृत्व का बँटवारा कर लेने की मांग उठाई जा रही है। राहुल गांधी ने सवाल भी किया था कि तेईस लोगों ने चिट्ठी उस वक्त ही क्यों लिखी जब सोनिया गांधी का अस्पताल में इलाज चल रहा था ?
स्पष्ट है कि जिस समय कांग्रेस को ही अपनी कमजोरी से निपटने के लिए इलाज की ज़रूरत है, नेतृत्व से जवाब-तलबी की जा रही है कि वह भाजपा की टक्कर में दौड़ क्यों नहीं लगा पा रही है ! सारे सवाल कांग्रेस को लेकर ही हैं। निर्वाचन आयोग द्वारा मान्यता प्राप्त राष्ट्रीय दलों में कांग्रेस और भाजपा के अतिरिक्त छह और भी हैं पर उनकी कहीं कोई चर्चा नहीं है ! वे सभी दल क्षेत्रीय पार्टियाँ बन कर रह गए हैं।
इसमें शक नहीं कि एक मरणासन्न विपक्ष को इस समय जिस तरह के नेतृत्व की कांग्रेस से दरकार है वह अनुपस्थित है।ऐसा होने के कई कारणों में एक यह भी है कि कोरोना प्रबंधन के पर्दे में न सिर्फ़ नागरिकों की गतिविधियों को सीमित कर दिया गया है, विपक्षी दलों और उनकी सरकारों की चिंताओं की सीमाएँ भी तय कर दी गईं हैं। किसान आंदोलन के रूप में जो प्रतिरोध व्यक्त हो रहा है उसे बजाय किसानों की वास्तविक समस्याओं को लेकर फूटे आक्रोश के रूप में देखने के केंद्र के ख़िलाफ़ पंजाब की अमरिंदर सिंह सरकार द्वारा समर्थित राजनीतिक चुनौती के रूप में देखा जा रहा है। अगर यह सही है तो फिर कांग्रेस के बग़ावती नेता इसे पार्टी के जनता के साथ जुड़ने की ओर कदम भी मान सकते हैं जिसकी कि शिकायत उन्हें वर्तमान नेतृत्व से है।
भारतीय जनता पार्टी के एकछत्र शासन के मुक़ाबले देश में एक सशक्त (या कमज़ोर भी) राष्ट्रीय विपक्ष की ज़रूरत के कठिन समय में कांग्रेस नेतृत्व को अंदर से ही कठघरे में खड़ा करने की कोशिशें कई सवालों को जन्म देती हैं। चूंकि इस तरह की परिस्थितियाँ कांग्रेस के लिए पहला अनुभव नहीं है, लोग यह अनुमान भी लगाना चाहते हैं कि इंदिरा गांधी आज अगर होतीं तो मौजूदा संकट से कैसे निपटतीं और उनकी बहू होने के नाते सोनिया गांधी को ऐसा क्या करना चाहिए जो वे नहीं कर पा रही हैं ? क्या उनके द्वारा तमाम बग़ावती नेताओं को यह सलाह नहीं दी जा सकती कि वे भी ममता, शरद पवार और संगमा की तरह ही विद्रोही कांग्रेसियों की एक और पृथक ‘कांग्रेस’ बना लें ? बाक़ी छह राष्ट्रीय दलों में तीन तो इन्हीं लोगों की बनाई हुई ‘कांग्रेस’ ही हैं। बाक़ी तीन में दो साम्यवादी दल और बसपा है। इनमें किसी की भी हालत देश से छुपी हुई नहीं है।
और अंत में : कांग्रेस के एक राष्ट्रीय प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला द्वारा प्रधानमंत्री की इस बात के लिए आलोचना किए जाने कि दिल्ली में किसानों के आंदोलन के वक्त वे कोरोना वैक्सीन के प्रयोग स्थलों की यात्रा पर थे अगले ही दिन पार्टी के दूसरे प्रवक्ता और वरिष्ठ नेता आनंद शर्मा ने मोदी की तारीफ़ करते हुए ट्वीट किया कि उनका (प्रधानमंत्री का) यह कदम भारतीय वैज्ञानिकों के प्रति सम्मान की अभिव्यक्ति है। इससे अग्रिम पंक्ति के कोरोना योद्धाओं का मनोबल बढ़ेगा।आनंद शर्मा का नाम उन तेईस लोगों में शामिल है जो कांग्रेस में शीर्ष नेतृत्व को लेकर सवाल खड़े कर रहे हैं। हालांकि शर्मा ने बाद में अपना फैलाया हुआ रायता समेटने की कोशिश भी की पर तब तक देर हो चुकी थी।
-सुदीप ठाकुर
यह होली के मौके पर लिखा कोई व्यंग्य नहीं है। फिर भी शीर्षक देखकर बुरा मत मानिएगा। प्रतिष्ठित अंग्रेजी अखबार इंडियन एक्सप्रेस ने 2021 के सबसे प्रभावशाली सौ लोगों की सूची जारी की है। आप इन्हें सौ सबसे ताकतवर भारतीय या सौ सबसे रसूखदार भारतीय भी कह सकते हैं। इंडियन एक्सप्रेस पिछले कुछ वर्षों से ऐसी सूची जारी करता रहा है। इसके चयन की प्रक्रिया तो पता नहीं, मगर इंडियन एक्सप्रेस की अपनी एक साख है, बावजूद इसके कि इस सूची को अपोलो स्टील पाइप्स ने प्रायोजित किया है।
तो क्या खास है इस बार? जरा ठहरिये। सूची में पहले, दूसरे, तीसरे और चौथे नंबर पर क्रमश: प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी, गृहमंत्री अमित शाह, संघ प्रमुख मोहन भागवत और भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा के नाम हैं, इससे किसी को हैरत नहीं होगी। पांचवे स्थान पर देश के सबसे बड़े उद्योगपति का नाम होने पर भी हैरत नहीं होनी चाहिए। किसी विपक्षी नेता को अग्रिम पंक्ति में स्थान मिला है तो वे हैं महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे। पंजाब के मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह कांग्रेस नेताओं में सबसे आगे हैं, मगर वह हैं पद्रहवें स्थान पर। उनके बाद छब्बीसवें स्थान पर दूसरे कांग्रेस नेता छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल हैं। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी, राहुल गांधी और प्रियंका गांधी क्रमश: चौतीसवें, उनचालीसवें और इकतालीसवें स्थान पर हैं। सचिन पायलट सौवें स्थान पर हैं। कांग्रेस के कुछ और नेता भी हैं,लेकिन यह महत्वपूर्ण नहीं है। और इस सूची में प्रवर्तन निदेशालय के निदेशक संजय मिश्रा और एनआई के निदेशक योगेश चंद मोदी के नाम पर भी हैरत नहीं होनी चाहिए।
यह बताने की जरूरत नहीं है कि इसमें भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्री और अनेक केंद्रीय मंत्री शामिल हैं। एनसीपी अध्यक्ष शरद पवार और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल भी हैं।
अमूमन इस सूची में खेल से जुड़ी हस्तियां भी होती हैं। मगर इस बार यह सौभाग्य सिर्फ भारतीय क्रिकेट टीम के कप्तान विराट कोहली को मिला है और वह भी तिरासिवें स्थान पर! ध्यान रहे उनसे ऊपर उनसठवें स्थान पर बीसीसीआई के सचिव जय शाह हैं।
हैरत है, इस सूची में एक भी फिल्मी हस्ती नहीं है, कंगना रनौत भी। क्या अब इसकी जरूरत ही नहीं रही। आपको हैरत न हो पर विचार जरूर करना चाहिए कि इस सूची में एक भी पत्रकार नहीं है। इस सूची में पहले रवीश कुमार भी नुमाया हो चुके हैं। क्या पत्रकार प्रभावशाली नहीं रहे। यह अलग बात है कि कई मीडिया संस्थानों के मालिक मुकेश अंबानी तो हैं ही।
देश के पाँच राज्यों में हो रहे विधानसभा चुनावों के ठीक पहले जारी हुए दो सर्वेक्षणों में बताया गया है कि पश्चिम बंगाल की काँटे की लड़ाई में ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस वर्ष 2016 के मुकाबले कम सीटें प्राप्त करने के बावजूद फिर अपनी सरकार बना लेगी। ए बी पी-सी वोटर के सर्वे में तृणमूल को कुल 294 सीटों में से कम से कम 152 और भाजपा को ज़्यादा से ज़्यादा 120 सीटें बताईं गईं हैं। कांग्रेस-वाम दलों के गठबंधन को 26 सीटें मिल सकतीं हैं। इसी प्रकार टाईम्स नाउ-सी वोटर सर्वे में ममता की पार्टी को 160 और भाजपा को 112 सीटें बताई गईं हैं। यानी दोनों ही सर्वेक्षणों में दोनों दलों को मिल सकने वाली सीटों के अनुमानों में ज़्यादा फर्क नहीं है।
उक्त सर्वेक्षण इसलिए गलत भी साबित हो सकते हैं कि गृह मंत्री अमित शाह के मुताबिक भाजपा को दो सौ से अधिक सीटें मिलने वाली हैं और सरकार भी उनकी पार्टी की ही बनेगी। पहली कैबिनेट मीटिंग का पहला निर्णय किस विषय पर होगा यह भी उन्होंने बताया है। गृह मंत्री के इस आत्मविश्वास के पीछे निश्चित ही कोई ठोस कारण भी होना चाहिए। 26 फरवरी को निर्वाचन आयोग द्वारा जारी चुनाव-कार्यक्रम में बंगाल के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ कि वहां सबसे ज़्यादा आठ चरणों में मतदान हो रहा है ।अपने राज्य में 27 मार्च से प्रारंभ हुए और 29 अप्रैल तक चलने वाले मतदान कार्यक्रम की घोषणा पर ममता बनर्जी की पहली प्रतिक्रिया यही थी कि तारीखें शायद प्रधानमंत्री और गृह मंत्री की सुविधानुसार तय की गईं हैं। ममता का यह भी मानना था कि इससे भाजपा को देश की एकमात्र महिला मुख्यमंत्री के खिलाफ व्यापक चुनाव प्रचार का लाभ मिलेगा।
कहा जा रहा है कि भाजपा द्वारा तय किए गए ‘जीतने की संभावना वाले’ उम्मीदवारों में आधे से अधिक वे हैं जो तृणमूल सहित दूसरे दलों से आए हैं। इसे दूसरे नजरिए से देखें तो ऐसा होना ममता के लिए सुकून की बात होना चाहिए क्योंकि ये ही लोग अगर चुनाव जीतने के बाद भाजपा में जाते तो बंगाल भी मध्यप्रदेश बन जाता। सीटों को लेकर भाजपा के दावों पर थोड़ा असमंजस इसलिए हो सकता है कि वर्ष 2018 में जब तीन राज्यों (मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़) में चुनाव हुए थे तब पार्टी के सारे अनुमान गड़बड़ा गए थे। अमित शाह ने तब भी दावा किया था कि भाजपा को मध्य प्रदेश में दो सौ सीटें मिलेंगी। तीनों ही राज्यों में तब भाजपा की सरकारें नहीं बन पाईं थीं। तब तो न कोरोना था, न ही लॉक डाउन, न लाखों मजदूरों का पलायन, न इतनी बेरोजगारी और महंगाई। कोई ‘दीदी’ भी नहीं थी किसी राज्य में। परंतु अमित शाह ने ही जब 2019 के लोक सभा चुनावों के पहले दावा किया कि भाजपा को तीन सौ से ज़्यादा सीटें मिलेंगी तो वह साबित भी हो गया। ममता का कहना कुछ हद तक सही माना जा सकता है कि बंगाल में 2024 के लोकसभा चुनावों का सेमी फाइनल खेला जा रहा है।
जिस एक आशंका को लेकर कोई भी दो मई की मतगणना के पहले चर्चा नहीं करना चाहता वह यह है कि बंगाल में चुनावों को प्रतिष्ठा का सवाल बना लेने और अपने समस्त संसाधन वहाँ झोंक देने के बावजूद अगर चुनावी सर्वेक्षण सही साबित हो जाते हैं तो देश और बंगाल के लिए उसके राजनीतिक परिणाम क्या होंगे? देश में पंचायती राज की स्थापना के ज़रिए ग्राम स्वराज चाहे गाँव-गाँव तक नहीं पहुँच पाया हो, चुनाव प्रचार के दौरान साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण और राजनीतिक वैमनस्य बंगाल के घर-घर तक पहुँचा दिया गया है।
बंगाल के चुनावी परिदृश्य पर नजदीक से नजर रखने वाले लोगों के अनुसार ,ममता बनर्जी इस प्रकार की आक्रामक मुद्रा में हैं जैसे किसी बाहरी (‘बोहिरा गावटो’) आक्रांताओं से बंगाल की संस्कृति को बचाने की लड़ाई लड़ रही हों। दूसरी ओर ,भाजपा जैसे कि बंगाल से ‘विदेशियों’ को बाहर निकालकर एक हिंदू -बहुल राज्य की स्थापना के यज्ञ में जुटी हुई हो। बंगाल में लगभग सत्ताईस प्रतिशत आबादी अल्पसंख्यकों की है। भाजपा अगर सत्ता में आई तो उसका पहला फैसला राज्य में नागरिकता कानून को लागू करना होगा।राज्य में भाजपा के पक्ष में हिंदू मतों का ध्रुवीकरण किस सीमा तक हो चुका है इसका अंदाज केवल इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि पिछले चुनाव (2016) में उसे सिर्फ तीन सीटें मिलीं थीं और इस बार सर्वेक्षणों में उसे सवा सौ के करीब सीटें मिलने की संभावना जताई जा रही है।
बंगाल चुनावों के सिलसिले में यह सवाल अभी कोने में पड़ा हुआ है कि अगर कांग्रेस और वाम दल दोनों की नाराजगी भी भाजपा से ही है तो वे ममता के खिलाफ क्यों लड़ रहे हैं? दो में से एक सर्वेक्षण में कांग्रेस-वाम गठबंधन को केवल 18 से 26 और दूसरे में 22 सीटें दीं गईं हैं। इन दलों को उम्मीद हो सकती है कि ममता को पूर्ण बहुमत नहीं मिलने की स्थिति में तृणमूल को सशर्त समर्थन की पेशकश कर सत्ता में भागीदारी की जा सकती है। एक अन्य अर्थ यह भी लगाया जा रहा है कि ममता से नाराजगी रखने वाले सारे वोट बजाय भाजपा को जाने के वाम-कांग्रेस-इंडियन सेक्युलर फ्रंट को मिल जाएँगे और इस तरह तृणमूल ज़्यादा सुरक्षित हो जाएगी। नंदीग्राम में भी इसीलिए एक वामपंथी उम्मीदवार को खड़ा करके मुकाबला त्रिकोणीय बना दिया गया है जिससे कि ममता सुरक्षित हो सकें।
बंगाल चुनावों में इस समय जो कुछ भी चल रहा है उस पर न सिर्फ विभिन्न राजनीतिक दल, विपक्षी सरकारें, चार महीनों से आंदोलनरत किसान और तमाम ‘आंदोलनजीवी’ ही अपनी नजरें टिकाए हुए हैं, वे लोग भी उत्सुकता से देख रहे हैं जो कथित तौर पर भाजपा के अंदर होते हुए भी बाहर जैसे ही हैं। कहना कठिन है कि एन डी ए में ऐसे कितने घटक होंगे जिनकी रुचि भाजपा के वर्तमान शीर्ष नेतृत्व को और अधिक मजबूत होता हुआ देखने में होगी।
अंत में गौर किया जा सकता है कि ममता बनर्जी इतनी डरी हुईं, घबराई हुईं और आशंकित पिछले एक दशक में कभी नहीं देखी गईं। वे अभी तक तो कोलकाता में बैठकर ही दिल्ली को ललकारती रहीं हैं पर अब दिल्ली स्वयं उनके दरवाजे पर है और चुनौती भी दे रही है। बंगाल में कुछ भी हो सकता है!
बातचीत की शुरुआत यहाँ से करते हैं कि तीस जनवरी 1948 के दुर्भाग्यपूर्ण दिन राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की हत्या एक कट्टर हिंदू नाथूराम गोडसे के बजाय किसी मुस्लिम सिरफिरे ने कर दी होती तो दुनिया की आत्मा को झकझोर कर देने वाली इस आतंकी घटना के केवल 168 दिन पहले गुलामी की कोख में जन्म लेकर विभाजन के पालने में पले आजाद भारत की तस्वीर आज किस तरह की होती! क्या वह वैसी ही बदहवास होती जैसी कि आज दिखाई पड़ रही है अथवा कुछ भिन्न होती ?
देश की राजधानी दिल्ली की नाक के नीचे बसे गाजियाबाद जिले के एक गाँव डासना में स्थित देवी के मंदिर में पानी की प्यास बुझाने के लिए प्रवेश करने वाले एक मासूम तरुण की जबर्दस्त तरीके से पिटाई की जाती है; उसे बेरहमी के साथ मारने वाला अपने क्रूर कृत्य का साहसपूर्वक वीडियो बनवाता है और उसे सोशल मीडिया पर वायरल भी कर देता है। बच्चे का कुसूर सिर्फ इतना होता है कि वह उक्त मंदिर पर लगे बोर्ड को नहीं पढ़ पाता है कि वह हिंदुओं का पवित्र स्थल है। वहाँ मुसलमानों का प्रवेश वर्जित है। शायद यह कुसूर भी हो कि बच्चा पास के ही गाँव में रहने वाले एक गरीब मुस्लिम का बेटा है।
इस शर्मनाक घटना पर देश की संसद में कोई सवाल नहीं पूछा जाता। कांग्रेस पार्टी की तरफ से भी नहीं ! न ही सरकार के किसी मंत्री को महात्मा गांधी के ‘वैष्णव जन ‘ का हवाला देते हुए घटना पर दु:ख प्रकट करने की ज़रूरत पड़ती है। उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री गर्व के साथ कहते हैं कि ‘सेकूलरिज्म’ शब्द सबसे बड़ा झूठ और भारत के लिए सबसे बड़ा खतरा है। जो भी इसकी वकालत करते हैं उन्हें राष्ट्र से माफी माँगनी चाहिए।
इसी दौरान, सुदूर इंग्लैंड की प्रसिद्ध ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में एक भारतीय छात्रा के साथ हुई कथित जातिवादी घटना पर राज्यसभा में सवाल उठ गए। यूनिवर्सिटी की छात्रसंघ का अध्यक्ष बन जाने के बाद छात्रा को अपनी कुछ पुरानी सोशल मीडिया पोस्ट्स की आलोचनाओं का शिकार होकर पद से इस्तीफा देना पड़ा। राजसभा में सभी पक्षों के सांसदों ने ऑक्सफोर्ड में भारतीय छात्रा के साथ हुई कथित जातिवादी घटना की आलोचना की। विदेश मंत्री जयशंकर ने कहा कि महात्मा गांधी का देश होने के नाते भारत जातिवाद को लेकर कहीं पर भी होने वाली घटना की अनदेखी नहीं कर सकता। गाजियाबाद के डासना में हुई जातिवाद की घटना गांधी के देश की जमीन से बाहर की मान ली जाती है।
दो महीने पहले (जनवरी में) अमेरिका के नॉर्थ केरोलिना राज्य के डेविस शहर में कुछ असामाजिक तत्वों द्वारा गांधी की एक बड़ी कांस्य प्रतिमा को क्षतिग्रस्त कर दिया गया था। भारत की ओर से माँग उठाई गई कि पूरे मामले की गहन रूप से जाँच की जाए और इस घिनौने कृत्य के दोषियों के विरुद्ध उचित कार्रवाई की जाए। पिछले साल जून में जब राजधानी वॉशिंगटन में भी इसी तरह की घटना हुई थी तब भी इसी तरह से भारत के द्वारा विरोध व्यक्त किया गया था। जनवरी में ही हमारे यहाँ ग्वालियर में एक हिंदूवादी संगठन के द्वारा गोडसे ज्ञानशाला की सार्वजनिक रूप से शुरुआत की गई। कहा गया कि इसमें बच्चों को गोडसे का जीवन चरित्र पढ़ाया जाएगा तथा देश के विभाजन के ‘सच’ से उन्हें अवगत कराया जाएगा।कहीं कोई हल्ला नहीं मचा।
दो साल पहले गांधी पुण्य तिथि पर अलीगढ़ में गांधी के पुतले पर गोलियाँ चलाने, उसे जलाने और फिर गोडसे की तस्वीर पर माल्यार्पण कर मिठाई बाँटने की घटना का वीडियो वायरल हो चुका है।हमारे लिए दुनिया में प्रचारित किए जाने वाले गांधी और देश में बर्ताव किए जाने वाले राष्ट्रपिता के चेहरे अलग-अलग हैं! देश के भीतर गांधी की बार-बार हत्या की जा रही है और बाहर उन्हें बचाया जा रहा है। कोई बताना नहीं चाहता कि गांधी को जब एक ही बार में अच्छे से मारा जा चुका है तो अब बार-बार उनकी हत्या क्यों की जा रही है ? और जिसे गांधी के नाम पर बचाया जा रहा है वह हकीकत में कौन है ?
साल 1956 यानी अभी से कोई साढ़े छह दशक पहले देश के सिनेमाघरों में एक फिल्म रिलीज हुई थी जिसका नाम था ‘जागते रहो’। अगस्त 1947 के सिर्फ नौ साल बाद ही प्रदर्शित हुई इस फिल्म ने उन सपनों की धज्जियाँ उड़ा दीं थीं जो आजादी की प्राप्ति के साथ हमारे नेताओं के द्वारा जनता की आँखों में काजल की तरह भरे गए थे।
‘जागते रहो’ का नायक ‘मोहन’ गाँव से कलकत्ता महानगर में नौकरी की तलाश में आता है। सडक़ों पर भटकते-भटकते उसका गला सूखने लगता है और वह कहीं पानी की तलाश करता है। तभी उसकी नजर एक इमारत के अहाते में लगे नल से टपकती हुई पानी की बूँदों पर पड़ जाती है। मोहन जैसे ही पानी पीने के लिए अपने हाथ आगे बढ़ाता है एक कुत्ता अचानक से भौंकने लगता है और उसी के साथ वहाँ का चौकीदार भी ‘चोर-चोर’ का शोर मचा देता है। पुलिस की दहशत से मोहन इमारत के एक फ्लैट से दूसरे फ्लैट में भागना शुरू कर देता है।मोहन का इमारत में एक जगह से दूसरी जगह भागते रहने का सिलसिला पूरी रात चलता रहता है और इस दौरान उसका सामना हर फ्लैट में एक से बढक़र एक चोर और बेईमान से होता है।
पैंसठ सालों के बाद आज भी ‘मोहन’ पानी की तलाश में इधर से उधर भटक रहा है। फर्क बस यह हुआ है कि बदली हुई परिस्थितियों में स्क्रिप्ट की माँग के चलते ‘मोहन’ अब ‘आरिफ’ हो गया है। डासना के मंदिर में पानी की तलाश में पहुँचे मुस्लिम बच्चे पर भी वही आरोप लगाया गया है कि वह चोरी के इरादे से घुसा था। ‘चोर-चोर’ की आवाजें लगाने वाले भी समाज में वैसे ही मौजूद हैं बस उनकी शक्लें और उन्हें बचाने वाले बदल गए हैं। ‘जागते रहो’ में तो मोहन लोगों के हाथों पिटने से बच गया था , पर आरिफ नहीं बच पाया। और अंत में यह कि असली नाम तो गांधी का भी मोहन ही था। देश मोहन को नहीं बचा पाया, ‘आरिफ’ को कैसे बचाया जा सकेगा?
देश इस समय एक नए किस्म की व्यवस्था की स्थापना के प्रयोग से गुजर रहा है! व्यवस्था यह है कि नागरिकों को शासन के निर्णयों, उसके कामों और उसके द्वारा दी जाने वाली सजाओं पर किसी भी तरह के सवाल नहीं उठाना है, कोई भी हस्तक्षेप नहीं करना है। फिर एक राष्ट्र के रूप में शासन किसी भी अन्य देश की हुकूमत के द्वारा उसके अपने नागरिकों के अधिकारों पर किए वाले प्रहारों, और उन्हें दी जाने वाली सज़ाओं को लेकर भी कोई विरोध या हस्तक्षेप नहीं व्यक्त करेगा। ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की अब यही नई परिभाषा बनने वाली है !
हमारे पड़ोसी देश म्यांमार (बर्मा) में इन दिनों उथल-पुथल मची हुई है। वहाँ लोकतंत्र की बहाली को लेकर सैन्य हुकूमत की तानाशाही के खिलाफ आंदोलनकारियों ने सडक़ों को पाट रखा है। उन पर गोलियाँ चलाईं जा रही है। हजारों लोगों को गिरफ्तार किया जा चुका है और डेढ़ सौ मारे जा चुके हैं। नोबेल शांति पुरस्कार विजेता तथा भारत की अभिन्न मित्र आंग सान सू की भी किसी अज्ञात स्थान पर कैद हैं। एक फरवरी को वहाँ हुई तख्ता पलट की कार्रवाई के बाद सेना ने सत्ता पर कब्जा कर लोकतंत्र को समाप्त कर दिया था। कहने की जरूरत नहीं कि बर्मा भारत के अति-संवेदनशील उत्तर-पूर्व इलाके में हमारी सीमा से लगा हुआ देश है। दोनों देशों के बीच उत्तर में चीन से लगाकर दक्षिण में बांग्लादेश तक कोई पंद्रह सौ किलोमीटर लंबी सीमा है। पर खबर इतनी भर ही नहीं है।
म्यांमार की घटना पर भारत की ओर से एक संतुलित प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए इतना भर कहा गया कि-‘कानून के राज और प्रजातांत्रिक प्रक्रिया को बरकरार रखा जाना चाहिए।’ यह भी कहा गया कि ‘भारत म्यांमार की स्थिति पर नज़दीकी से नजर रखे हुए है।’ बर्मा में लोकतंत्र की समाप्ति और सैन्य तानाशाही पर कुछ भी विपरीत टिप्पणी करना शायद राजनयिक/कूटनीतिक कारणों से उचित नहीं समझा गया। दोनों देशों के बीच सैंकड़ों साल पुराने संबंध हैं। कोई साढ़े पाँच करोड़ की आबादी वाले पड़ोसी देश में भारतीय मूल के नागरिकों की संख्या करीब दस लाख बताई जाती है। ज्यादा भी हो सकती है। कहा जाता है कि सत्ता पलट के बाद इनमें से कोई तीन लाख ने म्यांमार छोड़ दिया।
म्यांमार में लोकतंत्र की बहाली को लेकर चले पिछले आंदोलन को हमारी सरकार का समर्थन और उसमें भारतीय नागरिकों की भागीदारी रही है।म्यांमार के अलावा पड़ोस में दो और जगह-हांगकांग और थाईलैंड-में भी लोकतंत्र की माँग को लेकर लंबे अरसे से आंदोलन चल रहे हैं। हांगकांग में चीनी सैनिक निहत्थे आंदोलनकारियों पर तरह-तरह के अत्याचार कर रहे हैं। दोनों ही जगहों पर बड़ी संख्या में भारतीय मूल के नागरिक रहते हैं। पर खबर यह भी नहीं है।
खबर यह है कि क्या दुनिया के सबसे बड़े प्रजातांत्रिक राष्ट्र की सरकार और उसके नागरिक अपने ही पड़ौसी मुल्कों में लोकतंत्र पर होने वाले हमलों और वहाँ के नागरिकों की अहिंसक लड़ाई और उनके उत्पीडऩ के प्रति पूरी तरह से खामोशी साध सकते हैं? ऐसा पहले तो नहीं था! सोचा जा सकता है कि अगर बौद्ध धर्मगुरु दलाई लामा जवाहर लाल नेहरू की हुकूमत के दौरान वर्ष 1959 में तिब्बत से भागकर भारत में सम्मानपूर्वक शरण लेने के बजाय हाल के दिनों में प्रवेश करना चाहते होते तो चीन के साथ हमारे तनावपूर्ण संबंधों और सरकार द्वारा उसकी नाराजगी की परवाह के चलते क्या उनके लिए ऐसा करना सम्भव हो पाता? पिछले साल पाँच मई को लद्दाख में हुए चीनी हस्तक्षेप और फिर 15 जून को गलवान घाटी की झड़प के बाद ऐसा पहली बार हुआ था कि दलाई लामा के जन्मदिन छह जुलाई पर प्रधानमंत्री की ओर से उन्हें कोई बधाई संदेश भी नहीं भेजा गया।
जाहिर है कि हम अन्य मुल्कों में लोकतंत्र पर होने वाले प्रहारों, बढ़ते अधिनायकवाद और विपक्ष की आवाज़ को दबाने वाली घटनाओं पर इरादतन चुप रहना चाहते हैं। ऐसा इसलिए कि जब इसी तरह की घटनाएँ हमारे यहाँ हों तो हमें भी किसी बाहरी सत्ता या नागरिक का हस्तक्षेप बर्दाश्त नहीं होगा। किसी के द्वारा ऐसा किया गया तो उसे हमारे आंतरिक मामलों में अनधिकृत हस्तक्षेप माना जाएगा। इतना ही नहीं, इस बाहरी हस्तक्षेप में किसी भी भारतीय नागरिक की अहिंसक भागीदारी को भी देशद्रोह और राष्ट्र के खिलाफ युद्ध करार दिया जाएगा। ऐसा हो भी रहा है।
एक पॉप सिंगर और एक अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त जलवायु कार्यकर्ता के किसान आंदोलन को शाब्दिक समर्थन भर से इतने बड़े और मजबूत राष्ट्र की प्रजातांत्रिक बुनियादें हिल गईं ! यह प्रक्रिया अभी जारी है और जारी रहेगी भी। ऐसा इसलिए कि अदालतें भी इस पर कब तक लगाम लगा पाएँगीं? अत: मानकर यही चलना चाहिए कि जो कुछ भी घटित हो रहा है उसे नागरिकों का भी पूरा समर्थन प्राप्त है और सत्ता प्रतिष्ठान की हरेक कार्रवाई में उनकी भी बराबरी की भागीदारी है। यानी देश में ही बहुत सारे नागरिक अपने ही लोगों के खिलाफ खड़े हैं या कर दिए गए हैं।
यह एक नई तरह का वैश्वीकरण (globalization) है कि हमें विदेशी पूँजी निवेश तो इफऱात में चाहिए, आयातित तकनीकी चाहिए, अत्याधुनिक हथियार, जीवन-रक्षक दवाएँ, डीजल-पेट्रोल आदि सब कुछ चाहिए पर किसी भी आशय का बाहरी वैचारिक निवेश अमान्य है। ऐसी किसी भी परिस्थिति में पलक झपकते ही हमारी ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ (सम्पूर्ण धरती ही परिवार है) की घोषणाएँ एक संकीर्ण राष्ट्रवाद में परिवर्तित हो जाएँगीं। एक राष्ट्र तब विश्व से भी विराट बन जाएगा !
इसके बाद सब कुछ एक शृंखला की तरह काम करने लगता है। एक राष्ट्र जब दूसरे राष्ट्र में होने वाले नागरिक उत्पीडऩ के प्रति मौन रहता है तो फिर उसकी प्रतिध्वनि देश में आंतरिक स्तरों पर भी सुनाई पडऩे लगती है। एक राज्य सरकार दूसरे राज्य की पीड़ाओं में अपनी भागीदारी सीमित कर देती है। ऐसा ही तब नागरिक भी करने लगते हैं। एक प्रदेश में होने वाले नागरिक अत्याचारों के प्रति दूसरे राज्य के नागरिकों के मानवीय सरोकार गुम होने लगते हैं। ऐसा फिर एक राज्य में ही उसके अलग-अलग शहरों के बीच भी होने लगता है। और अंत में इसका प्रकटीकरण एक ही शहर या गाँव के नागरिकों के बीच आपसी संबंधों में देखने को मिलता है। एक नागरिक दूसरे के दु:ख में अपनी भागीदारी को सीमित या स्थगित कर देता है। राष्ट्रों की तरह व्यक्ति भी पर पीड़ा के प्रति एक तमाशबीन बन जाता है। और यही क्षण ऐसे शासकों के लिए गर्व करने का होता है जो अपने ही नागरिकों, शहरों और राज्यों को आपस में बाँटकर अपनी हुकूमतों को स्थायी और मजबूत करना चाहते हैं।
हम चाहें तो उस दुखद क्षण के आगमन की डरते-डरते इसलिए प्रतीक्षा कर सकते हैं कि हमें न सिर्फ म्यांमार, हांगकांग, थाईलैंड अथवा दुनिया के ऐसे ही किसी अन्य स्थान पर चल रही लोकतंत्र की लड़ाई के बारे में जानने में कोई रुचि नहीं है, हममें अपने ही देश में लगभग चार महीनों से चल रहे किसानों के संघर्ष को लेकर भी कोई बेचैनी नहीं है। हम खुश हो सकते हैं कि हमारे शासक हमारी कमजोरियों को बहुत अच्छे से जान गए हैं।
कोलकाता के ब्रिगेड मैदान की सभा में उपस्थित लाखों के जनसमूह को देखकर अगर प्रधानमंत्री ने यह कहा कि उन्होंने अपने जीवन में कई रैलियों को सम्बोधित किया है पर इतनी बड़ी रैली पहली बार देख रहे हैं तो यह भी कहा जा सकता है कि हर तरह की कोशिशों के बावजूद भी अगर भाजपा बंगाल में सरकार नहीं बना पाती है तो उसे उनकी सबसे बड़ी हार भी मान लिया जाना चाहिए। वैसे, हाल के एक चुनाव-पूर्व सर्वेक्षण में कहा गया है कि पश्चिम बंगाल और केरल में वर्तमान सरकारें फिर से सत्ता में आ सकतीं हैं। हालांकि यह क़तई ज़रूरी नहीं कि चुनाव-पूर्व किए गए या करवाए जाने वाले सभी सर्वेक्षण खरे ही उतरें। ग़लत भी साबित हो सकते हैं। ऐसा कई बार हो भी चुका है।
डॉ. राम मनोहर लोहिया कहते थे कि ज़िंदा क़ौमें पाँच साल इंतज़ार नहीं करतीं। लोहिया का इशारा हुकूमतें बदलने को लेकर जनता के धैर्य की समय-सीमा रेखांकित करने की तरफ़ था। मोदी के साम्राज्य में लोहिया की परिभाषा बदल दी गई है-भाजपा, विपक्षी सरकारें गिराने के लिए पाँच साल प्रतीक्षा नहीं कर सकती और इस काम के लिए उसे जनता की भी ज़रूरत नहीं है। चुने हुए विधायकों की वफ़ादारियों में सेंध लगाकर ही इस ‘पोरीबोर्तन’ को अंजाम दिया जा सकता है। तमाम प्रयासों के बावजूद महाराष्ट्र और राजस्थान में प्रयोग विफल हो गए पर मध्य प्रदेश में सफलता मिल ही गई। बंगाल में सरकार को पलटने के पहले तृण मूल को तिनका-तिनका किया जा रहा है और इस उपलब्धि की गर्व भाव कोलकाता की सड़कों पर प्रदर्शनी भी लगाई जा रही है।
पश्चिम बंगाल की राजनीति में इस समय जो कुछ भी उथल-पुथल चल रही है उसे लेकर दो सवाल प्रमुखता से चर्चा में हैं : पहला यह कि राहुल गांधी की कांग्रेस, वामपंथी दलों और मुस्लिम संगठनों सभी का घोषित उद्देश्य जब भाजपा के ‘प्रभाव’ को रोकना है तो फिर वे चुनावी संघर्ष को त्रिकोणीय बनाकर उसके (भाजपा के) ‘पराभव’ को रोकने में मददगार की भूमिका क्यों निभा रहे हैं ? इतना ही नहीं, नंदीग्राम में अपने ऊपर साज़िशन हमले का आरोप लगाकर पैरों से चोटिल ममता जब कोलकाता के अस्पताल में इलाज के लिए पहुँची तो कांग्रेस के अग्रणी और मुँहफट नेता अधीररंजन चौधरी ने भाजपा का काम हल्का करते हुए तुरंत प्रतिक्रिया पेश कर दी कि मुख्यमंत्री को इस तरह की नौटंकी करने की आदत है।
कांग्रेस इस समय शरद पवार की राकपा और उद्धव की शिव सेना के साथ महाराष्ट्र की सरकार में भागीदारी कर रही है। भाजपा वहाँ ‘कॉमन एनिमी’ है। पर बंगाल में पवार और उद्धव तो ममता के साथ खड़े हैं और कांग्रेस उनके विरोध में है। ममता ने कांग्रेस से अलग होकर ही तृण मूल बनाई थी और नंदीग्राम आंदोलन के ज़रिए ही तीन दशकों से चले आ रहे वामपंथियों के साम्राज्य को ध्वस्त किया था। इसलिए दोनों ही दलों की नाराज़गी ममता से है। दोनों ही मिलकर तृण मूल के ख़िलाफ मैदान में हैं। कांग्रेस ने ऐसी ही हाराकीरी बिहार में भी की थी । राजद के साथ गठबंधन कर नीतीश के ख़िलाफ़ चुनाव तो लड़ा पर इतनी ज़्यादा सीटों पर ज़बरदस्ती अपने उम्मीदवार खड़े कर दिए कि न तो वे स्वयं जीत पाए और न ही उन्होंने तेजस्वी की सरकार बनने दी। बंगाल में भी तेजस्वी और अखिलेश यादव दोनों ही ममता के साथ खड़े हैं। कांग्रेस इस समय हर जगह खलनायक की भूमिका में है। कहा जा रहा है कि 294 में से कम से कम सौ सीटें ऐसी हैं जहां त्रिकोणीय संघर्ष निर्णायक साबित हो सकता है।
दूसरा महत्वपूर्ण सवाल यह है कि क्या तृण मूल छोड़कर भाजपा में शामिल होने वाले तमाम सांसद और विधायक अंतिम रूप से यह मान चुके हैं कि ममता बनर्जी हारने ही वाली हैं और भाजपा की सरकार बनने जा रही है? या फिर उनके दल बदलने का कारण यह है कि तृण मूल पार्टी में ममता की कथित तानाशाही को लेकर असंतोष इतना बढ़ गया था कि तमाम भगोड़े तुलनात्मक दृष्टि से थोड़ी कम तानाशाह और अपेक्षाकृत ज़्यादा प्रजातांत्रिक व्यवस्था में प्रवेश करने के किसी अवसर की साँस रोककर प्रतीक्षा कर रहे थे? याद किया जा सकता है कि दिनेश त्रिवेदी जैसे साफ़ छवि के व्यक्ति को भी ममता के कोप के कारण ही यू पी ए सरकार में अपना मंत्री पद छोड़ना पड़ा था।
कांग्रेस को छोड़ दें तो देश के बाक़ी विपक्ष ने इस समय अपना भविष्य ममता के साथ नत्थी कर रखा है। पंजाब के किसान भी भाजपा के ख़िलाफ़ प्रचार करने कोलकाता, नंदीग्राम और बंगाल में धान की खेती वाले इलाक़ों में पहुँच चुके हैं। भाजपा ने बंगाल को राष्ट्रीय चुनावों जैसा महत्वपूर्ण बना दिया है। माना जा सकता है कि बंगाल के नतीजे न सिर्फ़ ममता का ही भविष्य तय करेगे बल्कि यह भी तय करेंगे कि देश को किसी भी तरह के विपक्ष की ज़रूरत बची है या नहीं? बहस प्रारम्भ की जा सकती है कि अब किसी स्कूटी के बजाय एक व्हील चेयर पर सवार होकर प्रचार करने के लिए मैदान में उतरने वाली ‘घायल ममता’ तमाम अवरोधों के बावजूद अगर चुनाव जीत जाती हैं तो राज्यों में विपक्षी दलों की सरकारों को लेकर प्रधानमंत्री के अगले कदम क्या हो सकते हैं ? ममता की हार से उत्पन्न होने वाले परिणामों पर तो किसी भी तरह की बहस की ज़रूरत ही नहीं बची है।
राहुल गांधी के लिए जरूरी कर दिया गया था कि देश की वर्तमान हालत पर कोई भी नई टिप्पणी करने या पुरानी को दोहराने से पहले वे उस घोषित ‘इमरजेंसी’ को सार्वजनिक रूप से जलील करें जिसे इंदिरा गांधी ने कोई साढ़े चार दशक पूर्व देश पर थोपा था। राहुल गांधी ने सभी अपने पराए विपक्षियों को भौचक्क करते हुए ऐसा करके दिखा भी दिया। ज्ञातव्य है कि राहुल बार-बार आरोप लगा रहे हैं कि देश इस समय ‘अघोषित आपातकाल’ से गुजर रहा है। राहुल ने बिना साँस रोके और पानी का घूँट पीए अर्थशास्त्री कौशिक बसु के साथ हुए इंटरव्यू में कह दिया कि उनकी दादी द्वारा 1975 में लगाई गई इमरजेंसी एक गलती थी। राहुल ने पाँच राज्यों में हो रहे चुनावों के ठीक पहले ऐसा कहकर अपने विरोधियों के लिए कुछ और नया सोचने का संकट पैदा कर दिया है।
कुख्यात ‘इमरजेंसी या आपातकाल’ को लेकर राहुल की स्वीकारोक्ति बड़े साहस का काम है। ऐसा करके उन्होंने उच्च पदों पर बैठे लोगों के लिए बड़ी चुनौती खड़ी कर दी है। वह यूँ कि अब वे भी अपनी कम से कम किसी एक गलती को तो स्वीकार करके खेद व्यक्त करें और साहस का काम इसलिए कि जून 1975 में जब आपातकाल लगाया गया तब राहुल केवल पाँच साल के थे। उनके पिता राजीव गांधी विदेश से प्रशिक्षण लेकर लौटने के बाद उस एयर इंडिया का विमान चला रहे थे जिसे बेचने के लिए इस समय खरीददार तलाशे जा रहे हैं। राजीव की आज के जमाने के नेता-पुत्रों की तरह न तो राजनीति करने में कोई रुचि थी और न ही क्रिकेट की किसी सल्तनत पर कब्जा करने में।
राहुल गांधी ने कौशिक बसु के साथ साक्षात्कार में और जो कुछ कहा है वह भी महत्वपूर्ण है। उनके इस मंतव्य का कि वर्तमान का आपातकाल ‘अघोषित’ है, यह अर्थ भी निकाला जा सकता है कि ‘घोषित आपातकाल’ के समाप्त होने की तो अनिश्चितकाल तक प्रतीक्षा की जा सकती है, लेकिन ‘अघोषित’ कभी समाप्त ही नहीं होता। एक प्रतीक्षा के बाद वह ‘इच्छामृत्यु’ को प्राप्त हो जाता है। ‘महाभारत’ सीरियल वाले भीष्म पितामह की छवि याद करें तो उन्हें मिले ‘इच्छामृत्यु’ के वरदान का स्मरण स्वत: ही हो जाएगा।
राहुल ने दूसरी बात यह कही कि कांग्रेस अगर भाजपा को हरा दे तब भी उससे मुक्त नहीं हो पाएगी। वह इसलिए कि संघ की विचारधारा वाले लोगों का पूरे व्यवस्था-तंत्र पर कब्जा हो चुका है। राहुल के मुताबिक, कांग्रेस ने न तो कभी संस्थागत ढाँचे (institutional framework) पर कब्जा करने की कोशिश की और न ही उसके पास ऐसा कर पाने की क्षमता ही रही। राहुल के कथन की पुष्टि इस तरह के आरोपों से हो सकती है कि कांग्रेस की कतिपय भ्रष्ट सरकारों के समय भाजपा से जुड़े लोगों के काम आसानी से हो जाते थे जो कि इस वक्त उनकी अपनी ही हुकूमतों में नहीं हो पा रहे हैं। राहुल का अभी यह स्वीकार करना बाकी है कि संघ समर्थकों ने अपनी शाखाएँ कांग्रेस संगठन के भीतर भी खोल ली हैं और उनके नेतृत्व को अब अंदर से भी चुनौती दी जा रही है।
पैंतालीस साल पहले के आपातकाल और आज की राजनीतिक परिस्थितियों के बीच एक और बात को लेकर फर्क किए जाने की जरूरत है। वह यह कि इंदिरा गांधी ने स्वयं को सत्ता में बनाए रखने के लिए सम्पूर्ण राजनीतिक विपक्ष और जे पी समर्थकों को जेलों में डाल दिया था पर आम नागरिक मोटे तौर पर बचे रहे। शायद यह कारण भी रहा हो कि जनता पार्टी सरकार का प्रयोग विफल होने के बाद जब 1980 में फिर से चुनाव हुए तो इंदिरा गांधी और भी बड़े बहुमत के साथ सत्ता में वापस आ गईं। इस समय स्थिति उलट है। विपक्ष जेलों से बाहर है और निशाने पर सिविल सोसाइटी से जुड़े नागरिक और मीडिया के लोग हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो ‘देशद्रोह’ अथवा ‘राष्ट्र के खिलाफ युद्ध’ जैसे आरोपों के तहत सबसे ज़्यादा मुकदमे और गिरफ्तारियां राजनीतिक कार्यकर्ताओं की होतीं। सरकार के पास यह जानकारी निश्चित रूप से होगी कि इस समय सबसे ज्यादा नाराजगी नागरिकों के बीच ही है।
अगर अपनी माँ को कथित तौर पर ‘आपातकाल’ लगाने की सलाह देने वाले संजय गांधी की असमय मौत नहीं हुई होती तो संभव है राजीव गांधी को राजनीति में प्रवेश करना ही नहीं पड़ता। राहुल और प्रियंका भी कुछ और कामकाज कर रहे होते। तब देश का नक्शा भी कुछ अलग ही होता। आपातकाल के दौरान हुई दिल्ली के तुर्कमान गेट की घटना और देश भर में की गई जबरिया नसबंदी के प्रयोगों के मद्देनजर यह अनुमान भी लगाया जा सकता है कि संजय गांधी की उपस्थिति में भारत काफी कुछ हिंदू राष्ट्र बन चुका होता। राहुल गांधी को कठघरे में खड़ा करके जो सवाल आज पूछे जा रहे हैं और उन्हें जिनके जवाब देने पड़ रहे हैं, तब वही सवाल किसी और ‘युवा गांधी’ से किए जा रहे होते। कौशिक बसु अगर इस आशय का कोई सवाल राहुल गांधी से अपने इंटरव्यू में कर भी लेते तो निश्चित ही किसी तरह की स्वीकारोक्ति उन्हें प्राप्त नहीं होती और तब उनके साथ देश को भी निराश होना पड़ता।
सरकार अगर अचानक से घोषणा कर दे कि परिस्थितियाँ अनुकूल होने तक अथवा किन्ही अन्य कारणों से विवादास्पद कृषि क़ानूनों को वापस लिया जा रहा है और कृषि क्षेत्र के सम्बन्ध में सारी व्यवस्थाएँ पहले की तरह ही जारी रहेंगी तो आंदोलनकारी किसान और उनके संगठन आगे क्या करेंगे ? महीनों से दिल्ली की सीमाओं पर जमे हज़ारों किसान और उत्तर प्रदेश के पश्चिमी इलाक़ों में महापंचायतें आयोजित कर रहे आंदोलनकारी जाट क्या सरकार की जय-जयकार करते हुए अपने ट्रेक्टरों के साथ घरों को लौट जाएँगे या फिर कुछ और भी हो सकता है? राकेश टिकैत ने तो किसानों से अपने ट्रेक्टरों में ईंधन भरवाकर तैयार रहने को कहा है। उन्होंने चालीस लाख ट्रेक्टरों के साथ दिल्ली में प्रवेश कर संसद को घेरने की धमकी दी है। अतः साफ़ होना बाक़ी है कि क्या बदलती हुई परिस्थितियों में भी किसान नेताओं का एजेंडा कृषि क़ानूनों तक ही सीमित है या कुछ आगे बढ़ गया है?
अहमदाबाद में नए सिरे से निर्मित और श्रृंगारित दुनिया के सबसे बड़े स्टेडियम का नाम उद्घाटन के अंतिम क्षणों तक रहस्यमय गोपनीयता बरतते हुए बदलकर एक ऐसी शख़्सियत के नाम पर कर दिया गया जो राजनीतिक संयोग के कारण इस समय देश के प्रधानमंत्री हैं। इसी तरह के संयोगों के चलते और भी लोग पूर्व में समय-समय पर प्रधानमंत्री रह चुके हैं पर उनके पद पर बने रहते हुए ऐसा नामकरण पहले कभी नहीं हुआ होगा। स्टेडियम के दो छोरों में एक ‘रिलायंस एंड’ और दूसरा ‘अडानी एंड‘ कर दिया गया है।ज़ाहिर है प्रधानमंत्री के नाम वाले इस राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्टेडियम में भविष्य के सारे खेल अब इन दो छोरों के बीच ही खेले जाने वाले हैं। कृषि क़ानून इन खेलों का सिर्फ़ एक छोटा सा हिस्सा भर है। प्रधानमंत्री ने साफ़ भी कर दिया है कि सरकार का काम व्यापार करना नहीं है। एक-एक करके जब सभी मूलभूत नागरिक ज़रूरतों और सुविधाओं को निजी हाथों में सौंपा जा रहा है, किसी उचित अवसर पर शायद यह भी स्पष्ट कर दिया जाएगा कि सरकार और संसद के ज़िम्मे अंतिम रूप से क्या काम बचने वाले हैं। और जब ज़्यादा काम ही करने को नहीं बचेंगे तो फिर लगभग दोगुनी क्षमतावाला नया संसद भवन बनाने की भी क्या ज़रूरत है?
इसमें कोई दो मत नहीं कि किसान-आंदोलन के कारण अभी तक सुन्न पड़े विपक्ष में कुछ जान आ गई है और उसने सरकार के प्रति डर को न सिर्फ़ कम कर दिया है, राजनीति भी हिंदू-मुस्लिम के एजेंडे से बाहर आ गई है। इसे कोई ईश्वरीय चमत्कार नहीं माना जा सकता कि गो-मांस और पशुओं की तस्करी आदि को लेकर आए-दिन होने वाली घटनाएँ और हत्याएँ इस वक्त लगभग शून्य हो गई हैं।ऐसा कोई नैतिक पुनरुत्थान भी नहीं हुआ है कि मॉब-लिंचिंग आदि भी बंद है। स्पष्ट है कि या तो पहले जो कुछ भी चल रहा था वह स्वाभाविक नहीं था या फिर अभी की स्थिति अस्थाई विराम है। यह बात अभी विपक्ष की समझ से परे है कि किसी एक बिंदु पर पहुँचकर अगर किसान आंदोलन किन्ही भी कारणों से ख़त्म हो जाता है तो जो राजनीतिक शून्य उत्पन्न होगा उसे कौन और कैसे भरेगा। किसान राजनीतिक दलों की तरह पूर्णकालिक कार्यकर्ता तो नहीं ही हो सकते। और यह भी जग-ज़ाहिर है कि कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ चल रहे आंदोलन को विपक्षी दलों का तो समर्थन प्राप्त है, किसानों का समर्थन किस दल के साथ है यह बिलकुल साफ़ नहीं है। टिकैत ने भी अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को सार्वजनिक तौर पर उजागर नहीं किया है।
बड़ा सवाल अब यह है कि एक लम्बे अरसे के बाद देश में पैदा हुआ इतना बड़ा प्रतिरोधात्मक आंदोलन अगर किन्ही भी कारणों से समाप्त होता है या शिथिल पड़ता है तो क्या ऐसा होने से पहले किसान अपने मंच विपक्षी दलों के साथ साझा करते हुए लड़ाई को किसी अगले बड़े मुक़ाम पर ले जाने का साहस दिखा पाएँगे? तीन महीने पहले प्रारम्भ हुए किसान आंदोलन के बाद से नागरिकों के स्तर पर भी ढेर सारे सवाल जुड़ गए हैं और लड़ाई के मुद्दे व्यापक हो गए हैं। इन सवालों में अधिकांश का सम्बन्ध देश में बढ़ते हुए एकतंत्रवाद के ख़तरे और लोकतंत्र के भविष्य से है।
अहमदाबाद के क्रिकेट स्टेडियम में चौबीस फ़रवरी को जो कुछ भी हुआ वह केवल एक औपचारिक नामकरण संस्कार का आयोजन भर नहीं था जिसे कि राष्ट्र के प्रथम नागरिक की प्रतिष्ठित उपस्थिति में सम्पन्न करवाया गया। जो हुआ है वह देश की आगे की ‘दिशा’ का संकेत है जिसमें यह भी शामिल हो सकता है कि नए स्टेडियम के नाम के साथ और भी कई चीजों के बदले जाने की शुरुआत की जा रही है। यानी काफ़ी कुछ बदला जाना अभी बाक़ी है और नागरिकों को उसकी तैयारी रखनी चाहिए। केवल सड़कों, इमारतों, शहरों और स्टेडियम आदि के नाम बदल दिए जाने भर से ही काम पूरा हो गया है ऐसा नहीं समझ लिया जाए। सोशल मीडिया के उपयोग को लेकर जारी किए गए ताज़ा कड़े निर्देशों को भी इसी बदलाव की ज़रूरतों में शामिल किया जा सकता है। सरकारों के लिए परिवर्तन एक निरंतर चलने वाली प्रकिया है। इस प्रक्रिया के पूरा करने की कोशिश में कई बार व्यक्ति को ही राष्ट्र बन जाना पड़ता है। स्टेडियम का नया नाम भी उसी ज़रूरत का एक हिस्सा हो सकता है। व्यक्तिवादी व्यवस्थाओं का काम उन स्थितियों में और भी आसान हो जाता है जब बहुसंख्यक नागरिक अपनी जाने बचाने के लिए टीके का इंतज़ाम करने में जुटे हुए हों या किसी दीर्घकालिक योजना के तहत जोत दिए गए हों।
इससे पहले कि देखते ही देखते सब कुछ योजनाबद्ध और आक्रामक तरीक़े से बदल दिया जाए, आवश्यकता इस बात की है कि या तो किसान अपने शांतिपूर्ण आंदोलन में विपक्ष को भी सम्मानपूर्ण जगह देकर सार्वजनिक तौर पर भागीदार बनाएँ या फिर वे स्वयं ही एक सशक्त और आक्रामक विपक्ष की भूमिका अदा करें। आंदोलन समाप्त हो सकते हैं पर लोकतंत्र को बचाए रखने के लिए एक प्रभावशाली विपक्ष की स्थायी उपस्थिति ज़रूरी है।
हुकूमतों को अगर गिलहरियों की हलचल से भी ख़तरा महसूस होने लगे तो समझ लिया जाना जाना चाहिए कि हालात कुछ ज़्यादा ही गम्भीर हैं और नागरिकों को अपनी सुरक्षा को लेकर चिंतित हो जाना चाहिए। ‘जलवायु परिवर्तन’ (climate change) के क्षेत्र से जुड़ी इक्कीस साल की युवा कार्यकर्ता दिशा रवि को तेरह फऱवरी से पहले तक कोई नहीं जानता होगा या फिर उनके मूल राज्य कर्नाटक में भी गिने-चुने लोग ही जानते होंगे। ’किसान आंदोलन’ से जुड़ी कोई ‘टूलकिट’ अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त जलवायु नेत्री ग्रेटा थुंबर्ग के साथ साझा करने और उसे सम्पादित करने के आरोप में दिशा को दिल्ली पुलिस के साइबर प्रकोष्ठ ने बंगलुरू से हिरासत में ले लिया था। दिशा के दो और युवा साथीनिकिता जैकब और इंजीनियर शान्तनु मुलुक भी प्रकरण में आरोपित हैं।
इस विश्लेषण को दिशा अथवा उनके साथियों तक इसलिए सीमित नहीं रखा जाना चाहिए कि हो सकता है मौजूदा प्रकरण में देश-विदेश के और भी नाम जुड़ते जाएँ और नई गिरफ्तारियाँ भी हों। इस तरह के प्रकरणों में चर्चा अक्सर नए घटनाक्रम और व्यक्तियों पर सिमट जाती है और जो लोग सत्ता-विरोध अथवा अन्य कारणों से पहले से जेलों में डाल गए हैं उनके चेहरे नागरिक स्मृतियों से गुम होने लगते हैं। हमें इस समय इस बात का ठीक से अनुमान भी नहीं होगा कि कितने नागरिक अथवा ‘कार्यकर्ता’ किन-किन आरोपों के तहत कहाँ-कहाँ बंद हैं और उनकी मौजूदा शारीरिक-मानसिक दशा कैसी है। अत: हम यहाँ चर्चा दिशा को संदर्भ बनाकर एक व्यापक विषय पर केंद्रित करना चाहते हैं!
क्या नागरिक स्तर पर ऐसी किसी आपसी बातचीत या अफवाह से इनकार किया जा सकता है कि अलग-अलग कारणों के चलते व्यवस्था या सरकार के प्रति नाराजगी रखने वाले वर्गों और समुदायों का दायरा बढ़ता ही जा रहा है। और यह भी कि ऐसे सभी लोग राष्ट्र-विरोधी अथवा देश-विरोधी गतिविधियों में संलग्न नहीं करार दिए जा सकते। सरकार को भी पता होगा ही कि मुखर विरोध व्यक्त करने का साहस दिखाने वाले लोगों के अलावा भी ऐसे नागरिकों की तादाद कहीं अधिक होगी जो सडक़ के दोनों तरफ भीड़ के बीच खड़े तो हैं पर वे न तो अपने हाथ ऊँचे करके अभिवादन कर रहे हैं और न ही मुस्कुरा रहे हैं।
अल्पसंख्यक मुसलमान, दलित, प्रवासी मजदूर, किसान, छोटे व्यापारी, आढ़तिये, ‘आंदोलनजीवी’, ‘बुद्धिजीवी’, बेरोजगार, आदि तो पहले से ही गिनती में थे। पूछा जा सकता है कि जिस ‘युवा मन’ की आँखों में ‘डिजिटल इंडिया’ के सपने काजल की तरह रोपे गए थे वे भी क्यों ‘नाराजियों’ की भीड़ में शामिल होने दिए रहे हैं ? जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, अलीगढ़ यूनिवर्सिटी, जामिया मिलिया, जाधवपर यूनिवर्सिटी, शांति निकेतन, बीएचयू आदि-क्या ये सारे कैम्पस अब उन युवाओं को तैयार नहीं कर रहे हैं जिनकी कि देश को सम्पन्न बनाने के लिए जरूरत है ? अगर ऐसा ही है तो वे तमाम प्रतिभाशाली भारतीय कहाँ से निकले होंगे जो इस समय दुनिया भर के मुल्कों में उच्च पदों पर आसीन होकर नाम भी कमा रहे हैं और हमारा विदेशी मुद्रा का भंडार भी बढ़ा रहे हैं? क्या अचानक ही कुछ हो गया है कि राष्ट्रभक्तों का उत्पादन करने वाले शैक्षणिक संयंत्र देशद्रोही उगलने लगे हैं?(ताजा संदर्भों में प्रधानमंत्री का यह कथन महत्वपूर्ण है कि दुनिया में जो आतंक और हिंसा फैला रहे हैं उनमें भी कई अत्यधिक कुशल, काफी प्रबुद्ध और उच्च-स्तरीय शिक्षा प्राप्त लोग हैं। दूसरी तरफ, ऐसे लोग हैं जो कोरोना महामारी से मुक्ति दिलाने के लिए अपनी जान की बाजी लगा देते हैं, प्रयोगशालाओं में जुटे रहते हैं।)
छह जनवरी को अमेरिका की राजधानी वाशिंगटन में ट्रम्प-समर्थकों ने कैपिटल हिल पर जिस समय हिंसक हमला किया था उपराष्ट्रपति पेंस की उपस्थिति में चुनाव परिणामों की पुष्टि के लिए सीनेट की बैठक चल रही थी। हमला इतना हिंसक और आक्रोश भरा था कि पेंस सहित सभी सीनेटरों को जान बचाने के लिए सुरक्षित स्थानों पर शरण लेनी पड़ी थी। भारतीय भक्तों के लिए यह शोध का विषय हो सकता है कि अमेरिका के संसदीय इतिहास की इस सबसे शर्मनाक घटना के बाद कितने लोगों के खिलाफ देशद्रोह या राजद्रोह के मुक़दमे दायर किए गए हैं और हजारों हमलावरों में से कितने लोगों की अब तक गिरफ्तारियां हो चुकी हैं।
एक प्रजातांत्रिक व्यवस्था में अगर नागरिकों के शांतिपूर्ण तरीके से विरोध व्यक्त करने के अधिकार छीन लिए जाएँगे तो फिर साम्यवादी/तानाशाही देशों और हमारे बीच फर्क की सारी सीमाएँ समाप्त हो जाएँगी। एक प्रजातंत्र में नागरिक आंदोलनों से निपटने की सरकारी ‘टूलकिट’ भी प्रजातांत्रिक ही होनी चाहिए। ट्विटर, फेसबुक आदि लोकप्रिय सोशल मीडिया प्लेटफाम्र्स पर इस समय जो नकेलें कसी जा रही हैं उन्हें भी नागरिक आजादी पर बढ़ते जा रहे प्रतिबंधों के परिप्रेक्ष्य में ही देखा जाना चाहिए। यह मुद्दा अलग से चिंता का विषय हो सकता है कि आर्थिक विकास के आक्रामक प्रयासों के साथ-साथ प्रजातांत्रिक मूल्यों के ह्रास के जिस प्रयोग को अंजाम दिया जा रहा है वह अन्तरराष्ट्रीय जगत में हमारी इज्जत बढ़ा रहा है या नैतिक रूप से हमें कमजोर कर रहा है! निजीकरण केवल सार्वजनिक उपक्रमों का ही किया जा सकता है; सार्वजनिक प्रतिरोधों, संवेदनाओं और व्यथाओं का नहीं।
दिशा रवि पर आरोप है कि ‘टूलकिट’ को ग्रेटा थुंबर्ग के साथ साझा करने के पीछे मकसद किसान आंदोलन को विश्व स्तर पर खड़ा करके देश का माहौल बिगाडऩा था। सवाल यह है कि क्या दिशा या उनके कुछ साथियों की गिरफ्तारी के बाद आंदोलन का सर्वव्यापी होना रुक जाएगा?
अगर सरकार ऐसा मानकर चल रही है तो उसे अपने सारे सलाहकारों को बदल देना चाहिए। हकीकत यह है कि दुनिया की कोई भी ताक़त अभी तक कोई ऐसा ‘टूलकिट’ नहीं बना पाई है जो निहत्थे नागरिकों के अहिंसक प्रतिकार को विश्वव्यापी होने से रोक सके। सर्वशक्तिमान अंग्रेज भी गांधी के खिलाफ ऐसा नहीं कर पाए थे। किसान आंदोलन की आवाज को अहिंसक तरीके से दुनिया के कानों तक पहुँचने का दिशा रवि का प्रयास अगर देश के खिलाफ युद्ध छेडऩे की श्रेणी में आता है तो उन्हें सजा मिलनी ही चाहिए।
प्रियंका गांधी को संजीदगी से बताए जाने की ज़रूरत है कि जनता इस सम्मोहन से ‘लगभग’ बाहर आ चुकी है कि उसे उनमें अभी भी इंदिरा गांधी की छवि नज़र आती है। ‘लगभग’ शब्द का इस्तेमाल कांग्रेस नेत्री को इस शंका का लाभ देने की गरज से किया गया है कि चमत्कार तो किसी भी उम्र और मुहूर्त में दिखाए जा सकते हैं। ‘मौनी अमावस्या’ के पवित्र दिन प्रियंका प्रयागराज में थीं। भाई राहुल गांधी जिस समय हिंदुत्व की छवि के प्रतीक प्रधानमंत्री पर लोकसभा में हमले की तैयारी कर रहे थे, प्रियंका संगम में डुबकी लगाकर हिंदुत्व का स्नान कर रहीं थीं, भगवान सूर्य की पूजा कर उन्हें अर्ध्य दे रहीं थीं। हो सकता है कि प्रियंका ने शक्ति के प्रतीक सूर्य से प्रार्थना की हो कि निस्तेज पड़ी कांग्रेस में जान डालने का कोई उपाय बताएँ।
ट्रैजेडी यह है कि जिस समय नरेंद्र मोदी साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के ज़रिए भाजपा को हिंदू हितों की संरक्षक पार्टी के रूप में प्रतिष्ठित करने के अभियान में जुटे थे, कांग्रेसी के नेता अल्पसंख्यकों के लिए आरक्षण की माँग कर उनके (प्रधानमंत्री के) हाथ और मज़बूत कर रहे थे। और अब, जब किसान आंदोलन ने साबित कर दिया है कि भाजपा का आक्रामक हिंदुत्व सिर्फ़ बीस-पच्चीस करोड़ मुसलमानों को ही डराने की सामर्थ्य रखता है, दो करोड़ सिखों को नहीं तो कांग्रेस के बड़े नेता संदेश देना चाह रहे हैं कि वे केवल निजी आस्थाओं में ही नहीं, सार्वजनिक जीवन में भी समर्पित हिंदू-सेवक और पक्के जनेऊधारी हैं।
भाजपा और संघ को किसी समय पूरा यक़ीन रहा होगा कि हिंदुत्व की विचारधारा और संगठन ने इतनी मज़बूती हासिल कर ली है कि राष्ट्रवादी सरकार के पक्ष में किसी भी बड़े से बड़े आंदोलन का मुक़ाबला किया जा सकता है। यह यक़ीन अब एक भ्रम साबित हो चुका है। वह इस मायने में कि ‘आंदोलनजीवियों’ का सारा जमावड़ा भाजपा के राजनीतिक आधिपत्य वाले राज्यों की ज़मीन पर ही हो रहा है और ग़ैर-भाजपाई दलों की सल्तनतों में सन्नाटा है। हरियाणा में तो मुख्यमंत्री अपने खुद के क्षेत्र में ही सम्मेलन करने नहीं पहुँच पाए! ‘आंदोलनजीवियों’ से मुक़ाबले के लिए प्रायोजित किए जाने वाले सारे सरकारी किसान आंदोलन फ़्लॉप हो गए। भाजपा को पता ही नहीं चल पाया कि उसकी सारी तैयारियाँ केवल राजनीतिक और धार्मिक आंदोलनों से निपटने तक ही सीमित हैं, उनमें ग़ैर-राजनीतिक जन-आंदोलनों से मुक़ाबले की कूवत बिलकुल नहीं है । सत्तारूढ़ दल को यह भी समझ में आ गया कि ईमानदार जन-आंदोलनों का साम्प्रदायिक विभाजन नहीं किया जा सकता।
प्रियंका गांधी ने काफ़ी ‘ना-नुकर’ के बाद ही कांग्रेस की सक्रिय राजनीति में भाग लेने का फ़ैसला लिया था। उन्होंने इस तरह का भ्रम या आभास उत्पन्न कर दिया था कि उनके प्रवेश के साथ ही कांग्रेस में सब कुछ बदल जाएगा, क्रांति आ जाएगी। पिछले लोक सभा चुनाव के समय संभावनाएं यह भी ज़ाहिर की गईं थीं कि वे प्रधानमंत्री के ख़िलाफ़ वाराणसी में नामांकन पत्र भरने का साहस दिखाएंगी। ऐसा नहीं हुआ। वे शायद पराजय की परम्परा के साथ अपनी राजनीति की शुरुआत नहीं करना चाहती थीं।प्रियंका के इनकार से दुखी हुए उनके प्रशंसकों का तब मानना था कि वाराणसी में हार से भी पार्टी में नए जोश का संचार हो जाता। उनकी हार से उपजी सहानुभूति प्रधानमंत्री की बड़ी जीत को भी छोटा कर देती।
जिस तरह देश में सार्वजनिक क्षेत्र में उद्योगों की स्थापना और उनके विस्तार का श्रेय कांग्रेस को दिया जाता है उसी तरह धार्मिक रूप से भी उसकी व्यापक पहचान धर्म-निरपेक्षता या सर्व धर्म समभाव को मानने वाली पार्टी के रूप में रही है। इस समय धर्म के क्षेत्र में जिस ‘हिंदुत्व’ को स्थापित किया जा रहा है उसकी औद्योगिक परिभाषा ‘प्रायवेट सेक्टर’ या ‘निजी क्षेत्र’ का विस्तार करने के रूप में समझी जा सकती है। सरकार धर्म और औद्योगिक क्षेत्र दोनों में ही यह कर रही है : सार्वजनिक क्षेत्र को सरकार निजी हाथों में बेच रही है और सर्व धर्म समभाव या धर्म निरपेक्षता का हिंदूकरण किया जा रहा है।
कांग्रेस का सार्वजनिक रूप से संगम स्नान इस ग़लतफ़हमी का शिकार हो सकता है कि प्रधानमंत्री बदलती हुई राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों में भी केवल धर्म और भावनाएँ बाँटकर अपना काम चलाने वाले हैं। मोदी इस समय भाजपा को एक परिष्कृत कांग्रेसी संस्करण में परिवर्तित कर उसे सार्वदेशिक बनाने में जुटे हैं। भिन्न-भिन्न दलों से प्रतिभाशाली और वाचाल लोगों का राजनीतिक ‘अपहरण’ कर उनके गलों में भाजपा के प्रतीक चिन्ह लटका देना इसके ताज़ा उदाहरण हैं। मोदी के पास ताज़ा जानकारी यह भी है कि अभिन्न मित्र ट्रम्प का आक्रामक ‘सवर्ण राष्ट्रवाद’ तमाम प्रयत्नों और गोरी चमड़ी वाले समर्थकों की हिंसा के बावजूद एक समर्पित कैथोलिक ईसाई बायडन की अल्पसंख्यक धर्म निरपेक्षता के सामने अंततः कमजोर ही साबित हुआ। अमेरिका के ‘ब्लैक लाइव्ज़ मैटर’ को सिंघू बॉर्डर के किसान आंदोलन' में ढूँढा जा सकता है।
प्रयागराज के बाहर जिस महान भारत की आत्मा बसी हुई है वह इस समय किसान आंदोलन के समानांतर ही एक चुनौतीपूर्ण राजनीतिक अहिंसक आंदोलन की प्रतीक्षा कर रहा है। ऐसा इसलिए कि किसान आंदोलन अपने मंच पर कांग्रेस को राजनीतिक सवारी नहीं करने देगा। ऐसा हुआ भी तो उसका मंच कांग्रेस के बोझ से ही चरमरा जाएगा। किसानों के सामने इस वक्त चुनौती कांग्रेस की बंजर होती ज़मीन को खाद-पानी देने की नहीं बल्कि अपने ही लहलहाते खेतों की बचाने की है। हमें पता नहीं सूर्य को अर्ध्य देते समय प्रियंका ने कांग्रेस को किसी बड़े आंदोलन में परिवर्तित करने की प्रार्थना की थी या नहीं। गंगा में नौका विहार करने के बाद ख्यात कवि सोहनलाल द्विवेदी की कविता की दो पंक्तियाँ उन्होंने अवश्य ट्वीट की हैं ।पंक्तियों के अर्थ निकालने के लिए उनके कांग्रेसी भक्त स्वतंत्र हैं :’ लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती / कोशिश करने वालों की हार नहीं होती। प्रियंका जानती हैं कि गंगा प्रयागराज से ही मोक्षदायिनी नगरी काशी (वाराणसी) भी पहुँचती है।
कांग्रेस के तेईस बड़े नेताओं ने जब पार्टी में सामूहिक नेतृत्व के सवाल पर अस्पताल में इलाज करवा रहीं सोनिया गांधी को चिट्ठी लिखी और चुपके से उसे मीडिया को जारी भी कर दिया तब दो चिंताएँ ही प्रमुखता से प्रचारित की गईं या करवाई गईं थीं। पहली यह कि नेतृत्व के मुद्दे को लेकर एक सौ छत्तीस साल पुरानी पार्टी में व्यापक असंतोष है। और दूसरी यह कि ‘गांधी-नेहरू परिवार’ पार्टी पर अपना आधिपत्य छोड़कर ‘सामूहिक नेतृत्व’ की माँग को मंज़ूर नहीं करना चाहता जिसके कारण कांग्रेस लगातार पराजयों का सामना करते हुए विनाश के मार्ग पर बढ़ रही है।
कथित तौर पर इन ‘ग़ैर-मैदानी’ और ‘राज्यसभाई’ नेताओं की सोनिया गांधी को लिखी गई चिट्ठी के बाद जिन तथ्यों का प्रचार नहीं होने दिया गया वे कुछ यूँ थे : पहला, इतने ‘परिवारवाद’ के बावजूद कांग्रेस में अभी भी इतना आंतरिक प्रजातंत्र तो है कि कोई इस तरह की चिट्ठी लिखने की हिम्मत कर सकता है और उसके बाद भी वह पार्टी में बना रह सकता है। इतना ही नहीं, बजट सत्र में पार्टी की तरफ़ से राज्यसभा में बोलने वालों में वे ग़ुलाम नबी आज़ाद और आनंद शर्मा भी शामिल थे जो सोनिया गांधी को चिट्ठी लिखने वालों में प्रमुख थे।
दूसरा यह कि क्या ऐसी कोई आज़ादी दुनिया के सबसे बड़े राजनीतिक दल भारतीय जनता पार्टी में उपलब्ध है ? उसके अनुमानित अठारह करोड़ सदस्यों में क्या कोई यह सवाल पूछने की हिम्मत कर सकता है कि पार्टी और सरकार हक़ीक़त में कैसे चल रही हैं ? क्या उस ‘परिवार’ की भी कोई भूमिका बची है जिसे यह देश बतौर ‘संघ परिवार’ जानता है ? कांग्रेस की तरह सत्तारूढ़ दल में भी क्या ‘सामूहिक नेतृत्व’ की माँग या उसकी कमी को लेकर कोई चिट्ठी कभी लिखी जा सकती है और फिर ऐसा व्यक्ति पार्टी की मुख्य धारा में बना भी रह सकता है ? लोगों को कुछ ऐसे नामों की जानकारी हो सकती है जिन्होंने कभी चिट्ठी लिखने का साहस किया होगा पर उनकी आज क्या स्थिति और हैसियत है, अधिकारपूर्वक नहीं बताया जा सकता।
क्या कोई पूछना चाहेगा कि एक सौ पैंतीस करोड़ देशवासियों के भविष्य से जुड़े फ़ैसले इस वक्त कौन या कितने लोग, किस तरह से ले रहे हैं ? हम शायद अपने आप से भी यह कहने में डर रहे होंगे कि देश इस समय केवल एक या दो व्यक्ति ही चला रहे हैं। संयोग से उपस्थित हुए इस कठिन कोरोना काल ने इन्हीं लोगों को सरकार और संसद बना दिया है। किसानों के पेट से जुड़े क़ानूनों को वापस लेने का निर्णय अब उस संसद को नहीं करना है जिसमें उन्हें विवादास्पद तरीक़े से पारित करवाया गया था बल्कि सिर्फ़ एक व्यक्ति की ‘हाँ’ से होना है। किसानों के प्रतिनिधिमंडल से बातचीत भी कोई अधिकार सम्पन्न समिति नहीं बल्कि एक ऐसा समूह करता रहा है जिसमें सिर्फ़ दो-तीन मंत्री हैं और बाक़ी ढेर सारे नौकरशाह अफ़सर।
कोई सवाल नहीं करना चाहता कि इस समय बड़े-बड़े फ़ैसलों की असली ‘लोकेशन’ कहाँ है ! देश को सार्वजनिक क्षेत्र के मुनाफ़ा कमाने वाले उपक्रमों की ज़रूरत है या नहीं और उन्हें रखना चाहिए अथवा उनसे सरकार को मुक्त हो जाना चाहिए, इसकी जानकारी बजट के ज़रिए बाद में मिलती है और संकेत कोई बड़ा पूर्व नौकरशाह पहले दे देता है। हो सकता है आगे चलकर यह भी बताया जाए कि राष्ट्र की सम्पन्नता के लिए सरकार को अब कितने और किस तरह के नागरिकों की ज़रूरत बची है। किसान कांट्रेक्ट पर खेती के क़ानूनी प्रावधान के ख़िलाफ़ आंदोलन कर रहे हैं और सरकार में वरिष्ठ पदों पर नौकरशाहों की कांट्रेक्ट पर भरती हो रही है। फ़ैसलों की कमान अफ़सरशाही के हाथों में पहुँच रही है और वरिष्ठ नेता हाथ जोड़े खड़े ‘भारत माता की जय’ के नारे लगा रहे हैं।
स्वर्गीय ज्ञानी ज़ैल सिंह ने वर्ष 1982 में राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी के सिलसिले में कथित तौर पर इतना भर कह दिया था : ’मैं अपनी नेता का हर आदेश मानता हूँ। अगर इंदिरा जी कहेंगीं तो मैं झाड़ू उठाकर सफ़ाई भी करूँगा', और देश में तब के विपक्ष ने बवाल मचा दिया था। आज खुलेआम व्यक्ति-पूजा की होड़ मची है जिसमें न्यायपालिका की कतिपय हस्तियाँ भी शामिल हो रही हैं।
माहौल यह है कि हरेक आदमी या तो डरा हुआ है या फिर डरने के लिए अपने आपको राज़ी कर रहा है। इसमें सभी शामिल हैं यानी सभी राजनीतिक कार्यकर्ता, नौकरशाह, मीडिया के बचे हुए लोग, व्यापारी, उद्योगपति, फ़िल्म इंडस्ट्री। और, अगर सोमवार को संसद में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर प्रधानमंत्री का उदबोधन सुना गया हो तो, तमाम ‘आंदोलनजीवी’ और ‘परजीवी’भी। संभवतः देश के सकल घरेलू उत्पाद यानी जी डी पी में वृद्धि की ‘दर’ को इसी ‘डर’ के बूते दो अंकों में पहुंचाया जाएगा।
पुरानी भारतीय फ़िल्मों में एक ऐसी माँ का किरदार अक्सर शामिल रहता था जो अचानक प्राप्त हुए किसी सदमें के कारण जड़ हो जाती है, कुछ बोलती ही नहीं। डॉक्टर बुलाया जाता है। वह नायक को घर के कोने में ले जाकर सलाह देता है,: ‘इन्हें कोई बड़ा सदमा पहुँचाहै। इन्हें दवा की ज़रूरत नहीं है, बस किसी तरह रुला दीजिए। ये ठीक भी हो जाएँगी और बोलने भी लगेंगीं ‘! देश भी इस समय जड़ और किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया है। उसे भी ठीक से रुलाए जाने की ज़रूरत है जिससे कि बोलने लगे। दिक़्क़त यह है कि देश की फ़िल्म में नायक और डॉक्टर दोनों ही नदारद हैं।
देश को डराने की पहली जरूरत यही हो सकती है कि सबसे पहले उस मीडिया को डराया जाए जो अभी भी सत्ता की वफ़ादारी निभाने से इनकार कर रहा है ! सीनियर सम्पादकों के ख़िलाफ़ मुक़दमों के साथ-साथ युवा फ़्रीलान्स पत्रकारों की गिरफ़्तारी आने वाले दिनों का वैसा ही ‘मीडिया सर्वेक्षण’ है जैसा कि बजट के पहले ‘आर्थिक सर्वेक्षण’ पेश किया जाता है। यह ‘आपातकाल’ से भी आगे वाली ही कुछ बात नज़र आती है। विडम्बना है कि हाल-फ़िलहाल तक तो किसान आंदोलन को मीडिया के सहारे की ज़रूरत थी,अब मीडिया को ही उसके नैतिक समर्थन की ज़रूरत पड़ गई है।
सरकार ने अपने मंत्रालयों के दरवाज़े पत्रकारों के लिए काफ़ी पहले इसलिए ‘बंद’ कर दिए थे कि वे वहाँ से खबरें ढूँढकर जनता तक नहीं पहुँचा पाएँ। इसकी शुरुआत निर्मला सीतारमण के वित्त मंत्रालय से हुई थी। अब, जब पत्रकार सड़कों से भी खबरें ढूँड़ कर लोगों तक पहुँचा रहे हैं, उन्हें ही ‘बंद’ किया जा रहा है। जनता समझ ही नहीं पा रही है कि हक़ीक़त में कौन किससे डर रहा है !
देश में जैसे लोकतंत्र की ‘ज़रूरत से ज़्यादा’ उपलब्धता को लेकर सवाल खड़े किए जा रहे हैं वैसा ही कुछ-कुछ मीडिया को उपलब्ध ‘ज़्यादा आज़ादी’ के संदर्भ में भी चल रहा है। माना जा रहा है कि सरकार को अपने आर्थिक सुधारों को एक-दलीय व्यवस्था वाले चीन के मुक़ाबले तेज़ी से लागू करने के लिए स्वतंत्र मीडिया की ज़रूरत ही नहीं है। गौर किया जा सकता है कि कोरोना से बचाव के सिलसिले में प्राथमिकता के आधार पर जिन्हें ‘फ़्रंट लाइन वारियर्स’ मानकर टीके लगाए जा रहे हैं उनमें मीडिया के लोग शामिल नहीं हैं। शायद मान लिया गया है कि वे तो देश और सरकार के लिए वैसे ही अपनी जानें क़ुर्बान करने के लिए होड़ में लगे रहते हैं।
नागरिक समाज में लोग जो धृतराष्ट्र की भूमिका में उपस्थित हैं वे भी बिना किसी संजय की मदद के देख पा रहे हैं कि ‘मेन स्ट्रीम' या ‘मुख्य धारा’ के लगभग सम्पूर्ण ‘हाथी मीडिया’ पर इस समय व्यवस्था के महावत ही क़ाबिज़ हैं। परिणाम यह हो यह रहा है कि इस ‘हाथी मीडिया’ की ‘ब्रेकिंग’ या ‘एक्सक्लूसिव न्यूज़’ को भी दर्शक और पाठक ‘एक और सरकारी घोषणा’ की तरह ही अविश्वसनीय मानकर ख़ारिज करते जा रहे हैं। यही वह मीडिया भी है जो उच्च पदों पर आसीन बड़े-बड़े लोगों की आम जनता के बीच लोकप्रियता के ‘ओपीनियन पोल्स’ और चुनावों की स्थिति में उसके कारण मिल सकने वाली सीटों की अतिरंजित भविष्यवाणियाँ मतदाताओं में बाँटकर सत्ताओं के पक्ष में माहौल तैयार करता नहीं थकता।
इस सबके बीच भी सांत्वना देने वाली बात यह है कि कुछ पत्रकार अभी भी हैं जो तमाम अवरोधों और व्यवधानों के बावजूद मीडिया की आज़ादी के लिए काम कर पा रहे हैं। चीजों का अभी साम्यवादी मुल्कों की तरह क्रूरता और दमन के शिखरों तक पहुँचना बाक़ी है।हो यह रहा है कि खेती की ज़मीन को बचाने की लड़ाई का नेतृत्व अब जिस तरह से छोटे किसान कर रहे हैं, मीडिया की ज़मीन को बचाने की लड़ाई भी छोटे और सीमित संसाधनों वाले पत्रकार ही कर रहे हैं। ये ही वे पत्रकार हैं जिन्हें छोटी-छोटी जगहों पर सबसे ज़्यादा अपमान, तिरस्कार और सरकारी दमन का शिकार होना पड़ता है। हत्याएँ भी इन्हीं की होती हैं।
किसान ‘कांट्रेक्ट फ़ार्मिंग’ से लड़ रहे हैं और पत्रकार ‘कांट्रेक्ट जर्नलिज़्म’ से। व्यवस्था ने हाथियों पर तो क़ाबू पा लिया है पर वह चींटियों से डर रही है। ये पत्रकार अपना काम उस सोशल मीडिया की मदद से कर रहे हैं जिसके माध्यम से ट्यूनिशिया और मिस्र सहित दुनिया के कई देशों में बड़े अहिंसक परिवर्तन हो चुके हैं। पर डर यह है कि सोशल मीडिया भी प्रतिबंधों की मार से कब तक बचा रहेगा ! गृह मंत्रालय और क़ानून प्रवर्तन एजेंसियों की माँग पर ट्विटर ने हाल ही में कोई ढाई सौ अकाउंट्स पर रोक लगा दी है। बताया गया है कि इन अकाउंट्स को बंद करने की माँग किसान आंदोलन के चलते क़ानून-व्यवस्था की स्थिति न बिगड़ने देने के प्रयासों के तहत की गई थी।इसी आधार पर आगे चलकर और भी बहुत कुछ बंद करवाया जा सकता है।
प्रधानमंत्री के ‘एक फ़ोन कॉल की दूरी' के आमंत्रण के ठीक बाद ही सिंधू, ग़ाज़ीपुर, टिकरी बार्डर्स पर किसानों के राजधानी में प्रवेश को रोकने के लिए दीवारें खड़ी कर दी गईं हैं। सड़कों की छातियों को नुकीले कीलों से छलनी कर दिया गया है। तो क्या अब खबरें भी इन प्रतिबंधों के ताबूतों में क़ैद हो जाएँगी? शायद नहीं ! अब तो युवा पत्रकार मनदीप पूनिया भी जमानत पर बाहर आ गया है। सरकार दीवारें कहाँ-कहाँ खड़ी करेगी ? लोकतंत्र की सड़क भी बहुत लम्बी है। कीलें ही कम पड़ जाएँगी। सरकार खुद की नब्ज पर अपने ही हाथ को रखे हुए ऐसा मान रही है कि देश की धड़कनें ठीक से चल रही है और सब कुछ सामान्य है। हक़ीक़त में ऐसा नहीं है। इंदिरा गांधी ने भी बस यही गलती की थी पर उसे सिर्फ़ अट्ठारह महीने और तीन सप्ताह में दुरुस्त कर लिया था। अभी तो सात साल पूरे होने जा रहे हैं ! ‘जन-जन के बीच’ की जिस दीवार को बर्लिन की दीवार की तरह ढहा देने की बात प्रधानमंत्री ने सवा दो साल पहले ‘गुरु पर्व' के अवसर पर कही थी वह तो अब और ऊँची की जा रही है!
अमेरिका में हुए उलट-फेर पर भारत के सत्ता प्रतिष्ठान का पूरी तरह से सहज होना अभी बाक़ी है। किसान आंदोलन के हो-हल्ले में इस ओर ध्यान ही नहीं दिया गया कि बाइडन की उपलब्धि पर भाजपा और संघ सहित राष्ट्रवादी संगठनों की तरफ़ से कोई उत्साहपूर्ण प्रतिक्रिया नहीं हुई है। संदेश ऐसा गया जैसे अमेरिका में वोटों की गिनती अभी पूरी ही नहीं हुई है। ऐसे मौक़ों पर मुखर रहने वाले लोगों के एक बड़े तबके ने भी, जिसमें विदेशी मामलों पर सबसे पहले प्रतिक्रिया देने वाले बुद्धिजीवी शामिल हैं, सन्नाटे का मास्क ताने रखा। माहौल कुछ ऐसा है जैसे तमाम पूजा-पाठों और हवन-यज्ञों के बावजूद अमेरिका में कोई अनहोनी घट गई जिसके कारण आने वाले सालों के लिए पहले से तय खेलों के मंडप बिगड़ गए हैं।
क्या आश्चर्यजनक नहीं लगता कि महिला सशक्तिकरण के क्षेत्र में घटी एक ऐसी अंतरराष्ट्रीय घटना, जिसकी जड़ें ‘भारत माता’ के चरणों की मिट्टी से सनी हैं, को लेकर भी न तो अयोध्या में दीये जलाए गए और न ही नागपुर में कोई आतिशबाजी की गई? दो सौ से अधिक वर्षों के अमेरिकी संसदीय इतिहास में पहली बार एक महिला और भारतीय मूल की विद्वान मां की प्रतिभावान अश्वेत बेटी कमला हैरिस के उप-राष्ट्रपति पद की शपथ लेने को भी किसी अन्य मुल्क का अंदरूनी मामला होने जैसा मानकर निपटा दिया गया।
बाइडन के व्हाइट हाउस में प्रवेश को लेकर भारत का सत्ता प्रतिष्ठान अंतरराष्ट्रीय राजनीति की ज़रूरतों के मान से कुछ ज़्यादा ही चौकन्ना हो गया लगता है। 'अबकी बार, ट्रम्प सरकार’ के दूध से जली नई दिल्ली की कूटनीति अब ठंडी छाछ को भी फूंक-फूंककर पी रही है। संदेश ऐसा जा रहा है कि अमेरिकी प्रजातंत्र के जीवन में उपस्थित हुए महान क्षण का भारतीय गणतंत्र के लिए भी बड़ा अवसर बनना न सिर्फ़ शेष है बल्कि वह और दूर खिसक गया है। जिस तरह अमेरिकी नागरिक दो भागों में बंटकर ट्रम्प की वापसी की आशंकाओं से डरे-सहमे हुए हैं, शायद उसी तरह नई दिल्ली का साउथ ब्लॉक (विदेश मंत्रालय) भी चौकन्ना नज़र आ रहा है !
संयोग कुछ ऐसा रहा कि जनसंघ-भाजपा के नेताओं को डेमोक्रेटिक राष्ट्रपतियों के साथ काम करने के अवसर रिपब्लिकन ट्रम्प के मुक़ाबले कम अवधि के मिले और उनकी स्मृतियाँ भी मधुर नहीं रहीं। अटलजी के जनता पार्टी शासन (1977-1979) में विदेश मंत्री बनने के केवल दो माह पूर्व ही जिम्मी कार्टर (डेमोक्रेटिक) राष्ट्रपति बने थे। जनता पार्टी सरकार ही लम्बी नहीं चल पायी और अपने अंतर्विरोधों के चलते अट्ठाईस महीनों में ही गिर गई। अटलजी के प्रधानमंत्रित्व (1998-2004) में पहले क्लिंटन (डेमोक्रेटिक) और फिर बुश (रिपब्लिकन) वहाँ राष्ट्रपति रहे। क्लिंटन की मार्च 2000 में भारत यात्रा की पूर्व संध्या पर कश्मीर में अनंतनाग ज़िले के छत्तीसिंहपुरा गाँव में जघन्य सिख हत्याकांड हो गया। बुश के कार्यकाल के दौरान फ़रवरी 2002 में गुजरात में गोधरा कांड हो गया। तब नरेंद्र मोदी गुजरात में मुख्यमंत्री थे। भाजपा के किसी राष्ट्रीय नायक का सबसे लम्बा सफ़र मोदी के रूप मे रिपब्लिकन पार्टी के ट्रम्प के साथ ही गुज़रा है और अधिकांश मुद्दों पर दोनों नेताओं के बीच कमोबेश सहमति भी रही।
बराक ओबामा(डेमोक्रेटिक) के कार्यकाल में मोदी ने दो साल से कुछ अधिक तक उनसे मित्रता निभाई पर उस दौरान उल्लेखनीय कुछ भी नहीं हुआ। जब जनवरी, 2015 में ओबामा भारत यात्रा पर आए तब मोदी को दिल्ली पहुँचे साल भर भी नहीं हुआ था। अपनी यात्रा की समाप्ति के बाद सऊदी अरब रवाना होते समय ओबामा ने अपनी इस अपील से सनसनी पैदा कर दी कि-‘एक ऐसे देश में, जहां हिंदुओं और अल्पसंख्यकों में संघर्ष का इतिहास रहा हो, धार्मिक स्वतंत्रता की रक्षा की जानी चाहिए।’ ओबामा ने इसे भारत का संवैधानिक दायित्व भी निरूपित किया। राष्ट्रपति पद छोड़ने के दो वर्ष बाद (2017) जब ओबामा एक मीडिया हाउस के कार्यक्रम में भाग लेने भारत आए तो फिर कह गए-‘भारत के लिए ज़रूरी है कि वह अपनी मुस्लिम आबादी का ठीक से ख़याल रखे। यह आबादी भारत में एकाकार हो चुकी है और अपने आपको भारतीय ही मानती है।’
आश्चर्य नहीं अगर बाइडन के पदारोहण को नई दिल्ली में ओबामा की ही वैचारिक वापसी के रूप में देखा जा रहा हो। याद रहे कि ओबामा ने बाइडन के चुनाव प्रचार में पूरा ज़ोर लगा दिया था और बाइडन ने भी ओबामा के कई सहयोगियों को अपनी टीम में शामिल किया है। दूसरी ओर, कमला हैरिस को भी मानवाधिकारों के मामलों में वामपंथी विचारों की पोषक और पाकिस्तान के प्रति सहानुभूतिपूर्ण रुख़ रखने वाली नेता समझा जाता है। सब कुछ ठीक चले तो यह भी मुमकिन है कि बाइडन राष्ट्रपति पद के दूसरे कार्यकाल की अपनी दावेदारी छोड़ दें और हैरिस को ही राष्ट्रपति पद का चुनाव लड़ने का मौका दे दें।
बाइडन ने राष्ट्रपति का पद सम्भालने के बाद पहले फ़ोन कॉल्स अपने उन दो पड़ौसी देशों (कनाडा और मेक्सिको) के प्रमुखों को किए जिनके साथ ट्रम्प के रिश्ते ज़्यादा मधुर नहीं थे। भारत समेत दुनिया के बाक़ी राष्ट्र भी प्रतीक्षा में होंगे। ओबामा ने 2009 में राष्ट्रपति बनने के बाद डॉ.मनमोहन सिंह को अपने पहले राजकीय अतिथि के रूप में वाशिंगटन आमंत्रित किया था। देखना दिलचस्प होगा कि कोरोना पर क़ाबू पा लेने के बाद अमेरिका और भारत दोनों ही देशों में पहला विदेशी मेहमान कौन बनता है !
डोनाल्ड ट्रम्प भारत की राजनीति को एक ऐसे स्वप्नलोक की यात्रा पर ले जा रहे थे जिसमें केवल स्वर्ग की सम्पन्नता के ही नज़ारे थे ; ख़ाली जगहें सिर्फ़ देशों, समाजों और नागरिकों के बीच दीवारें खड़ी करने के उपयोग के लिए सुरक्षित थीं। इसीलिए ट्रम्प ने वाशिंगटन छोड़ने के पहले आख़िरी यात्रा उस दीवार को देखने के लिए टेक्सास राज्य की की जिसे वे मेक्सिको के नागरिकों को अमेरिका में प्रवेश से रोकने के लिए बनवा रहे थे। बाइडन ने अपना काम सम्भालने के पहले ही दिन ट्रम्प प्रशासन के जिन तमाम बड़े फ़ैसलों को उलटा उनमें उक्त दीवार का काम रोकना भी शामिल है। बाइडन ने दीवारों को गिराने का काम अभी अमेरिका में ही शुरू किया है और आश्चर्य है कि उसके मलबे के कतरे इतनी दूर भी आँखों में चुभ रहे हैं।
दो महीने से चल रहे किसान आंदोलन को अब कहाँ के लिए किस रूट पर आगे चलना चाहिए? छह महीने के राशन-पानी और चलित चोके-चक्की की तैयारी के साथ राजधानी दिल्ली की सीमाओं पर पहुँचे किसान अपने धैर्य की पहली सरकारी परीक्षा में ही असफल हो गए हैं ,क्या ऐसा मान लिया जाए? लगभग टूटे हुए मनोबल और अनसोची हिंसा के अपराध-भाव से ग्रसित किसानों के पैर क्या अब एक फ़रवरी को संसद की तरफ़ उत्साह के साथ बढ़ पाएँगे? या बढ़ने दिए जाएँगे?
जैसी कि आशंका थी, चीजें दिल्ली की फेरी लगाकर वापस सुप्रीम कोर्ट के दरवाज़े पहुँच गई हैं। सरकार के लिए ऐसा होना ज़रूरी भी हो गया था। दोनों पक्षों के बीच बातचीत की तारीख़ अब अदालत की तारीख़ों में बदल सकती है। तो आगे क्या होने वाला है ? सरकार ऊपरी तौर पर सफल होती हुई ‘दिख’ रही है। पर यह ‘दृष्टि-भ्रम’ भी हो सकता है। किसान असफल होते ‘नज़र’ आ रहे हैं। यह भी एक ‘तात्कालिक भ्रांति’ हो सकती है। असली हालात दोनों ही स्थितियों के बीच कहीं ठहरे हुए हैं।
सरकारें हमेशा ही जनता से ज़्यादा चतुर, आत्मनिर्भर और दूरदृष्टि वाली होती हैं। इसलिए वर्तमान स्थिति में सरकार यही मानकर चल रही होगी कि केवल एक रणनीतिक चूक के चलते ही किसान अपना आंदोलन बिना किसी नतीजे के ख़त्म नहीं करने वाले हैं। नतीजा भी किसानों को स्वीकार होना चाहिए।सरकार के ‘स्वीकार्य’ का किसानों को पता है। छब्बीस जनवरी के बाद फ़र्क़ केवल इतना हुआ है कि समस्या के निराकरण की तारीख़ आगे खिसक गई है। ’गणतंत्र दिवस’ की घटना के काले सायों ने ‘स्वतंत्रता दिवस’ के पहरों को ज़्यादा ताकतवर बना दिया है।
किसान जानते हैं कि जाँचें अब उनके सत्तर साथियों की मौतों को लेकर नहीं बल्कि 86 पुलिसकर्मियों के घायल होने को लेकर ही बैठाईं जाने वाली हैं। और, अगर किसी ने बताया हो तो, यह भी कि किसानों को अपने आगे के संघर्ष के साथियों और सारथियों का उसी तरह से चयन करना पड़ेगा जैसा प्रयोग महात्मा गांधी ने कोई सौ साल पहले किया था।
पाँच फ़रवरी 1922 को उत्तर प्रदेश के चौरी चोरा नामक स्थान पर गांधी जी के ‘असहयोग आंदोलन’ में भाग लेने वाले प्रदर्शनकारियों के एक बड़े समूह से पुलिसकर्मियों की भिड़ंत हो गई थी। जवाबी कार्रवाई में प्रदर्शनकारियों ने एक पुलिस चौकी में आग लगा दी थी जिसके कारण बाईस पुलिसकर्मी और तीन नागरिक मारे गए थे।हिंसा की इस घटना से व्यथित होकर गांधी जी ने अपने ‘असहयोग आंदोलन’ को रोक दिया था।पर उन्होंने अपनी माँगों को लेकर किए जा रहे संघर्ष पर विराम नहीं लगाया; उसमें बड़ा संशोधन कर दिया।
गांधी ने अपनी रणनीति पर विचार पुनर्विचार किया। ’नमक सत्याग्रह’ (1930) के सिलसिले में उन्होंने अहमदाबाद स्थित साबरमती आश्रम से चौबीस दिनों के लिए 378 किलो मीटर दूर दांडी तक यात्रा निकाली तो उसमें सिर्फ़ अस्सी अहिंसक सत्याग्रही थे। एक-एक व्यक्ति का चयन गांधी ने स्वयं किया और उसमें समूचे भारत का प्रतिनिधित्व था। ज़्यादातर सत्याग्रहियों की उम्र सोलह से पच्चीस वर्ष के बीच थी। इसीलिए जब गांधी ने दांडी पहुँचकर नमक का कानून तोड़ा तो समूची अंग्रेज़ी हुकूमत हिल गई।
किसान आंदोलन को तय करना होगा कि उसकी अगली ‘यात्रा’ में कितने और कौन लोग मार्च करने वाले हैं ! उनका नेतृत्व और उन्हें चुनने का काम कौन करने वाला है? गांधी चाहते तो उनके दांडी मार्च में केवल अस्सी के बजाय अस्सी हज़ार लोग भी हो सकते थे। पर उन्होंने ऐसा नहीं किया। सबसे बड़ा सवाल अब यह है कि आंदोलनकारियों के बीच ऐसा ‘गांधी’ कौन है जिसका कि कहा सभी किसान मानने वाले हैं ? क्या कोई दिखाई पड़ रहा है?
अभी अंतिम रूप से स्थापित होना बाक़ी है कि डॉनल्ड ट्रम्प हक़ीक़त में भी राष्ट्रपति पद का चुनाव हार गए हैं। इस सत्य की स्थापना में समय भी लग सकता है जो कि वैधानिक तौर पर निर्वाचित बायडन के चार वर्षों का कार्यकाल 2024 में ख़त्म होने तक जारी रह सकता है।संयोग से भारत में भी उसी साल नई लोकसभा के चुनाव होने हैं और मुमकिन है तब तक हमारी राजधानी के ‘रायसीना हिल्स’ इलाक़े में नए संसद भवन की भव्य इमारत बनकर तैयार हो जाए।ट्रम्प अभी सिर्फ़ सत्ता के हस्तांतरण के लिए राज़ी हुए हैं ,बायडन को अपनी पराजय सौंपने के लिए नहीं।ट्रम्प अपनी लड़ाई यह मानते हुए जारी रखना चाहते हैं कि उनकी हार नहीं हुई है बल्कि उनकी जीत पर डाका डाला गया है।मुसीबतों के दौरान ख़ुफ़िया बंकरों में पनाह लेने वाले तानाशाह अपनी पराजय को अंत तक स्वीकार नहीं करते हैं।
वर्ष 2020 के आख़िर में हुए अमेरिकी चुनावों को दुनिया भर में दशकों तक याद रखा जाएगा।वह इसलिए कि ऐसा पहली बार हो रहा है जब हारने वाला व्यक्ति अपने करोड़ों समर्थकों के लिए एक ‘पूर्व राष्ट्रपति’ नहीं बल्कि एक ‘विचार’ बनने जा रहा है।कल्पना करना कठिन नहीं कि एक हारने वाला उम्मीदवार अगर अपने हिंसक समर्थकों की ताक़त पर देश की संसद को बंधक बना लेने की क्षमता रखता है तो हक़ीक़त में भी जीत जाने पर दुनिया की प्रजातांत्रिक व्यवस्थाओं को वह किस तरह की आर्थिक ग़ुलामी में धकेल सकता था।
ट्रम्प ने पहला ऐसा राष्ट्रपति बनने का दर्जा हासिल कर लिया जिसने दुनिया की सबसे बड़ी महाशक्ति को ‘विचारपूर्वक’ दो फाड़ कर दिया। ट्रम्प ने अमेरिका में ही अपने लिए एक नए देश का निर्माण कर लिया—उस अमेरिका से सर्वथा भिन्न जिसकी 528 साल पहले खोज वास्तव में तो भारत की तलाश में समुद्री मार्ग से निकले क्रिस्टोफ़र कोलंबस ने की थी। ट्रम्प की हार का बड़ा कारण यह बन गया कि उनके सपनों के अमेरिका में जगह सिर्फ़ गोरे सवर्णों के लिए ही सुरक्षित थी।उनके सोच में अश्वेतों, मुस्लिमों, ग़रीबों, महिलाओं ,नागरिक अधिकारों और मानवीय उत्पीड़न के लिए कोई गुंजाइश नहीं थी।
ट्रम्प ने अपने राष्ट्रवाद के नारे को राजनीतिक उत्तेजना के इतने ऊँचे शिखर पर प्रतिष्ठित कर दिया है कि किन्ही कमज़ोर क्षणों में वे उससे अगर अपने को आज़ाद भी करना चाहेंगे तो उनके भक्त समर्थक ऐसा नहीं होने देंगे।इसीलिए अमेरिकी प्रशासन में इस समय सबसे ज़्यादा ख़ौफ़ इस आशंका को लेकर व्यक्त किया जा रहा है कि अपने शेष बचे बारह दिनों के बीच निवृत्तमान राष्ट्रपति कोई ऐसा कदम नहीं उठा लें जो देश की सुरक्षा को ही ख़तरे में डाल दे। इन आशंकाओं में उनके हाथ परमाणु बटन पर चले जाना भी शामिल है।
ट्रम्प अगर मानकर चल रहे थे कि उनका विजयी होना तय है तो उसमें अतिशयोक्तिपूर्ण कुछ भी नहीं था।अमेरिका में बसने वाले कोई पचास लाख भारतीयों में अधिकांश की गिनती हार-जीत का ठीक से अनुमान लगाने वालों में की जाती है।ये अप्रवासी भारतीय अगर ट्रम्प की जीत के प्रति आश्वस्त नहीं होते तो देश के अड़तालीस राज्यों से पचास हज़ार की संख्या में ह्यूस्टन पहुँचकर ‘अबकी बार ,फिर से ट्रम्प सरकार ‘ का नारा लगाने की जोखिम नहीं मोल लेते।उप राष्ट्रपति पद के लिए कमला हैरिस के नाम की घोषणा होने के पहले तक तो डेमोक्रेटिक पार्टी भी बायडन की उम्मीदवारी को लेकर पूरी तरह से आश्वस्त नहीं थी।
ट्रम्प की विजय सुनिश्चित थी अगर वे अपने प्रथम कार्यकाल में ही सभी लोगों को एकसाथ दुश्मन नहीं बना लेते। कुछेक लोगों और संस्थाओं को दूसरे कार्यकाल के लिए सुरक्षित रख लेते ; फिर से सत्ता में आने तक के लिए बचा लेते।सत्ता में आते ही उन्होंने ‘वैश्वीकरण’ का मज़ाक़ उड़ाते हुए ‘राष्ट्रवाद’ को अमेरिका का भविष्य घोषित कर दिया।जनता ने तालियाँ बजाते हुए स्वीकार कर लिया।अमेरिकियों के रोज़गार को बचाने के लिए उनके वीज़ा प्रतिबंधों का भी किसी ने विरोध नहीं किया।अवैध तरीक़ों से अमेरिका में प्रवेश करने वालों के लिए मेक्सिको के साथ सीमा पर दीवार खड़ी करने को भी मंज़ूरी मिल गई।कुछ मुस्लिम देशों के लोगों के अमेरिका आने पर लगी रोक का भी आतंकी हमले की स्मृति में जनता द्वारा स्वागत कर दिया गया।
पर हरेक तानाशाह की तरह ट्रम्प भी अपने अतिरंजित आत्म-विश्वास के चलते ग़लतियाँ कर बैठे।वे पूर्व राष्ट्रपति ओबामा की ग़रीबों को मदद करने वाली ‘हेल्थ केयर योजना’ पर ताला लगाने में जुट गए ; देश के मीडिया को निरकुंश तरीक़े से तबाह करने लगे ;चुनावी साल होने के बावजूद क्रूरतापूर्ण तरीक़े से बर्दाश्त कर लिया कि किस तरह एक गोरे पुलिस अफ़सर ने बिना किसी अपराध के एक अश्वेत नागरिक की गर्दन को अपने घुटने के नीचे आठ मिनट से ज़्यादा तब तक दबाकर रखा जब तक कि उसकी मौत नहीं हो गई ।और उसके बाद उठे अश्वेत नागरिकों के देशव्यापी आंदोलन से उभरे क्रोध ने ट्रम्प को ‘व्हाइट हाउस’ में ज़मीन के भीतर बने बंकर में मुँह छुपाने के लिए बाध्य कर दिया।इतना ही नहीं, अपनी जीत के प्रति पूरी तरह से निश्चिंत राष्ट्रपति ने कोरोना से बचाव के सिलसिले में लाखों लोगों की जान की भी कोई परवाह नहीं की।वे अपने समर्थकों को मास्क न पहनने और किसी भी तरह के अनुशासन का पालन न करने के लिए भड़काते रहे।कहा जा सकता है कि ट्रम्प ने अपने ही समर्थकों को हरा दिया।
अमेरिका की प्रजातांत्रिक संस्थाएं और दुनिया के बचे-ख़ुचे प्रजातंत्र इसे अपने लिए तात्कालिक तौर पर सौभाग्य का विषय मान सकते हैं कि ट्रम्प जिस राष्ट्रवाद की स्थापना करना चाहते थे वह हिटलर के जर्मनी की तरह संगठित नहीं था।ट्रम्प के राष्ट्रवाद की अंदर की परतों में छुपी हुई हिंसा का ‘कैपिटल हिल’ पर हमले के रूप में शर्मिंदगीपूर्ण तरीक़े से दुनिया की आँखों के सामने विस्फोट हो गया।इस विस्फोट ने न सिर्फ़ आम अमेरिकी नागरिक को बल्कि ट्रम्प की पार्टी के लोगों को भी हिलाकर रख दिया।
ट्रम्प को बायडन के लिए विशाल ‘व्हाइट हाउस’ अंततः ख़ाली करना पड़ेगा।वे उसके बाद कहाँ रहने जाएँगे किसी को कोई जानकारी नहीं है ।पर वे जहां भी जाएँगे अपने लिए कोई न कोई बंकर ज़रूर तलाश कर लेंगे।पर तब तक के लिए तो दुनिया को अपनी साँसे रोककर ‘एक बीमार’ राष्ट्रपति के आख़िरी कदम की प्रतीक्षा करनी ही पड़ेगी।