- हुसैन अयाज
राहत इंदौरी कल यानी 11 अगस्त को एक लंबा और मुशायरों के शोर-शराबे से भरा जीवन गुज़ार कर चले गए। वो जिस कम-उम्री में, आम सी शक्ल-ओ-सूरत और ग़ैर-रिवायती हाव-भाव के साथ मुशायरों की दुनिया में आए थे उस वक़्त किसी के लिए यह अंदाज़ा लगाना भी मुश्किल रहा होगा कि ये शख़्स एक समय में इस दुनिया का बे-ताज बादशाह होगा और मुशायरागाह में उसका नाम पुकारे जाते ही श्रोताओं के दिलों की धड़कनें तेज़ होने लगेंगी।
राहत जिस समय मुशायरों में बिल्कुल नए थे उस वक़्त की एक महफ़िल को याद करते हुए विख्यात साहित्यकार रिफ़अत सरोश ने लिखा है,
'शाहगंज के मुशायरे में राहत इंदौरी से पहली बार मिलने का इत्तिफ़ाक़ हुवा। मैं मुशायरे की निज़ामत कर रहा था। मेरे सामने एक बिल्कुल नया नाम आया ‘राहत इंदौरी’। मैंने मुख़्तसर तआरुफ़ के बाद उन्हें दावत-ए-कलाम दी। राहत माईक पर आए। एक-आध फ़िक़रा मेरी तरफ़ उछाला, कुछ अपने बारे में कहा। और फिर ऐसा लगा जैसे किसी तेज़ शराब की बोतल का काग उड़ गया हो और शराब उबलने लगी हो, सामईन उसके नशे में बहते चले गए।'
मुशायरों में लोकप्रियता और नवाज़े जाने का ये सिलसिला राहत के साथ उनके इब्तिदाई दिनों से ही शुरू हो गया था। और धीरे-धीरे श्रोताओं पर बरसने वाली उनकी ये शराब और तेज़ होती चली गई।
राहत की चुभती हुई शायरी, शेर सुनाने के ड्रामाई अंदाज़ और मौके़-मौके़ पर उनकी तरफ़ से फेंके जाने वाले लतीफ़ों और जुमलेबाज़ी ने उन्हें एक दूसरे ही जहान का शायर बना दिया था। वो माईक पर आते ही मुशायरे की ख़ामोशी को दाद-ओ-तहसीन की गर्मी से ऐसा पिघलाते थे कि देर तक मुशायरा अपने मामूल पर नहीं रह पाता था।
सैकड़ों मुशायराबाज़ शायरों के बीच राहत इंदौरी की ये ख़ूबी रही कि उन्होंने मुशायरों के गिरते मयार के बावजूद भी अच्छी शायरी के लिए जगह बनाए रखी। उनमें वो रचनात्मक हौसला पूरी तरह मौजूद था जो ख़ुद अपनी शायरी में अच्छे और बुरे को साफ़ तौर पर पहचानने में सहायक होता है। जिन लोगों को राहत को मुशायरे में सुनने का मौक़ा मिला है उन्हें ये बात अच्छी तरह याद होगी कि राहत शेर पढ़ते हुए बताते जाते थे कि कब वो अच्छा शेर सुना रहे हैं और कब ‘चूर्ण’ बेच रहे हैं या ‘धंधा’ कर रहे हैं। राहत ख़ुद अपने मुशायरा टाइप शेरों के लिए इस तरह के शब्द इस्तिमाल करते थे।''
उर्दू के प्रसिद्ध शायर और साहित्यकार मुज़फ़्फ़र हनफ़ी ने कानपुर के एक मुशायरे को याद करते हुए लिखा है,
“मैं सदारत की सूली पर लटका हुआ था। राहत ने माईक पर आकर कहा, सर मैं आपके मयार की चीज़ें पढूँगा तो सामईन (श्रोता) मुझे हूट करेंगे। प्लीज़ मुझे ‘धंधा’ करने की इजाज़त दीजिए।”
राहत अपनी शायरी और मुशायरे में अपने काम को लेकर पूरी तरह मुतमइन थे। उन्हें अच्छी तरह अंदाज़ा था कि वो कब क्या कर रहे हैं और लोगों की उनके बारे में क्या प्रतिक्रियाएं हैं।
राहत इंदौरी को सिर्फ़ मुशायरों के तनाज़ुर में देखना और उनके फ़नकाराना क़द का अंदाज़ा लगाना ग़लत होगा। राहत मुशायरों के दूसरे शायरों से बहुत अलग क़िस्म के शायर थे। उनके विषय अलग थे, उनको शायरी में बरतने का अंदाज़ और तेवर अलग था। भाषा की तराश अलग थी। देखा जाये तो राहत की सरिश्त बुनियादी तौर पर ख़ालिस रचनात्मक व्यक्ति और फ़नकार की थी। उन्होंने अपने तख़्लीक़ी जीवन की शुरूआत पेंटर के तौर पर की लेकिन धीरे-धीरे शायरी की तरफ़ आ गए और शेर कहने लगे। मुशायरे उनके जीवन और फ़नकाराना शख़्सियत की पहचान ज़रूर बने लेकिन इसके पीछे उनकी रचनात्मक जरूरतों से ज़्यादा आर्थिक और अन्य दूसरे कारण थे। यही वजह है कि राहत मुशायरों के स्टेज से भी बराबर अपनी ख़ालिस शायराना पहचान के लिए आवाज़ उठाते रहे।
राहत के मित्र और सैकड़ों मुशायरों में उनके साथ रहे उर्दू के नामवर शायर मुनव्वर राना ने राहत पर लिखे अपने एक लेख में ऐसे लोगों से कई सख़्त सवाल किए हैं जो राहत को सिर्फ़ मुशायरों तक महदूद रखकर देखते हैं और उनकी शायरी को मुशायरों की शायरी कह कर नज़र-अंदाज करते हैं। इसी हवाले से एक जगह वे लिखते हैं,
“ज़िंदगी के मसाइल, घर की मुँह ज़ोर ज़रूरतें, अहबाब की बेरुख़ी, रिश्तों की टूट-फूट, दिहात की उजड़ी दोपहरें, शहर की कर्फ़्यू-ज़दा रातें, सियासी बे-एतदाली, फ़िरक़ा-परस्ती की गर्म हवा, नुमाइश की तरह सजे हुए मज़हबी रहनुमा और उन मज़हबी रहनुमाओं के मुँह से निकले हुए भोंडे नारों पर शायरी के ज़रिए से ज़िंदा तन्क़ीद करने को अगर मुशायरे की शायरी कहा जाता है तो मैं ऐसी शायरी को सलाम करता हूँ और मुबारक देता हूँ इस शायरी के शायर को…''
मुनव्वर राना के ये जुमले राहत के प्रतिद्वंदियों के लिए एक सबक़ तो हैं ही, साथ ही राहत के रचनात्मक संसार का भरपूर परिचय भी कराते हैं। राहत हमेशा अपनी शायरी के ज़रिए सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों से बर-सर-ए-पैकार रहे। समाज और सियासत में फैली ग़लाज़तों पर तंज़ कसे, धर्म के नाम पर होने वाली राजनीति और मसनद पर बैठे सियासतदानों को बेधड़क निशाना बनाया। अपनी पहचान और अस्तित्व को स्वीकार कराने के लिए लड़ते रहे।
अगर क़रीब से देखा जाये तो राहत की शायरी जैसा तंज़, तान, शिकवा और एहतिजाज उनके समकालीन शायरों में दूर-दूर तक किसी के यहां नज़र नहीं आता। इसका कारण तलाश करना और उसे विस्तार में समझना अपने आप में ख़ुद राहत पर एक शोध का विषय है।
राहत का जन्म 1950 की जनवरी को इंदौर में हुआ था। वहीं परवरिश हुई। घर में शिक्षा का माहौल ज़रूर था लेकिन ऐसी कोई रिवायत नहीं थी जो उन्हें शायरी की तरफ़ मुतवज्जे करती। ये तो बस एक संयोग था कि वो शेर कहने लगे और राहत क़ुरैशी से राहत इंदौरी हो गए। और ख़ुद उनके साथ एक शहर भी उनसे वाबस्ता हो कर लाखों लोगों की याददाश्त में शामिल हो गया।
मरहूम राहत के मरहूम दोस्त अनवर जलालपुरी ने लिखा है कि एक वक़्त था अगर राहत का नाम किसी मुशायरे में नहीं होता था तो वो मुशायरा ‘ऑल इंडिया मुशायरा’ नहीं समझा जाता था। आज राहत हमारे बीच नहीं हैं। उनके जाने से उर्दू की साहित्यिक दुनिया में कोई ‘खला’ पैदा हुआ हो या न हुआ हो। हाँ इतना ज़रूर है कि उर्दू मंचों की वो रौनक़ जो राहत के होते होती थी अब ना होगी और कोई मुशायरा अब ‘ऑल इंडिया मुशायरा’ नहीं रहेगा। (blog.rekhta.org)