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'आखिर परसाईजी को आपातकाल का पाखंड क्यों नहीं दिखा!'
10-Aug-2020 11:54 AM
'आखिर परसाईजी को आपातकाल का पाखंड क्यों नहीं दिखा!'

हिंदी के सर्वश्रेष्ठ व्यंग्यकार कहे जाने वाले हरिशंकर परसाई पर यह आलेख जनसत्ता के पूर्व संपादक प्रभाष जोशी ने 'पवन के खंबे का कुछ और मलबा' शीर्षक से लिखा था

खबर तो सबेरे ही मिल गई थी. लिखना भी मुझे ही चाहिए था. खबर के साथ नहीं तो कागद कारे में. लेकिन आजकल अपने किसी के जाने पर पत्रकारीय काम करने से अपने को रोकता हूं. यह नहीं कि तात्कालिकता के दबाव में किए गए काम को हल्का या गलत मानने लगा हूं. अपना विश्वास दृढ़ है कि जो पिंड में है वही ब्रह्मांड में है और जो तत्काल में है वही शाश्वत में है.

लेकिन पिछले चार वर्षों में अपने जीवन की कई बालू की भीत, पवन के खंबे ढह गए हैं. एक और खंबा ढह गया तो टटोलता रहा कि जान लूं कि क्या-क्या गिर गया है. उसे महसूस कर लूं और ठीक से देख लूं कि अब अपने भवन के क्या हाले गए हैं. फिर बताऊं कि क्या हुआ?

परसाई जी से मिलना बरसों से नहीं हुआ था. मध्यप्रदेश का पहला शरद जोशी सम्मान तय करने की बैठक में कहा था कि व्यंग्य का पहला सम्मान तो हरिशंकर परसाई को ही जाना चाहिए. वही हिंदी व्यंग्य के प्रथम पुरुष हैं और भले ही शरद जोशी उनके बाद आए और पहले चले गए हों सम्मान तो परसाई जी को ही जाएगा. समितियों की बैठकों में इस तरह बोला नहीं जाता. जानता हूं. लेकिन समिति के सभी सदस्य मेरी बात से एकदम और शत-प्रतिशत सहमत थे.

हिचक एक ही थी. पता नहीं परसाई जी सम्मान लेंगे या नहीं. जब सभी कोणों से विचार हो गया तो मैंने कहा कि कोई बात नहीं. बताए जाने पर अगर वे थोड़ी भी उदासीनता दिखाएं तो मुझे तत्काल सूचित किया जाए. आजकल जबलपुर विमान तो नहीं जाता लेकिन मैं कैसे भी जाऊंगा और मनाऊंगा. हम तय करें कि पहला सम्मान परसाई जी का ही होगा.

इतना भरोसा था मुझे परसाई जी पर हालांकि तब भी उनसे मिले बीस से ज्यादा साल हो गए थे. हिचक यह थी कि परसाई शरद जोशी से कम से कम सात साल बड़े थे. व्यंग्य लिखना भी उनने शरद जोशी के पहले शुरू किया था. व्यंग्यकार के नाते प्रतिष्ठित भी वही पहले हुए और व्यंग्य को एक विधा के रूप में स्थापित भी उन्हीं ने किया.

शरद जोशी उनके बाद में आए और पहले चले गए इसलिए उनके नाम पर सम्मान पहले शुरू हुआ. इस में कोई क्या कर सकता था. यमराज हर एक की डेट ऑफ़ बर्थ देखकर तो वरिष्ठता के अनुसार लोगों को उठाते नहीं. अपने से छोटे शरद जोशी के नाम पर चले सम्मान को स्वीकार करने में कहीं परसाई जो को संकोच तो नहीं होगा?

ऐसे संकेत पर लोग समझेंगे कि हो न हो दोनों में प्रतिद्वंदिता रही होगी और शायद बड़े छोटे की भावना भी रही हो. लेकिन परसाई जी से तो अपना तो मिलना ही शरद जोशी के कारण और उनके जरिये हुआ था. दोनों के व्यक्तित्व की बनावट भिन्न जरुर थी और परसाई जैसी राजनैतिकता शरद जोशी में नहीं थी. लेकिन अपने को याद नहीं कि दोनों में खटपट हुई हो या सामान रूप से व्यंग्य लेखक होने के कारण प्रतिद्वंदिता रही हो. बल्कि अपन तो दोनों को साथ ही जानते थे और अपने मन में यह कभी नहीं कि आया गड़बड़ है.

भोपाल छोड़ देने के बाद भी शरद जोशी से तो तार जुड़ा रहा लेकिन परसाई जी से तो बस उनके लिखे को पढ़ने का संबंध रह गया. जनसत्ता निकलने के बाद एकाध छोटा सा पत्र उनने लिखा जरुर लेकिन मिलना नहीं हुआ. मुझे लग रहा था ‘शरद जोशी सम्मान’ स्वीकार करने से वे इनकार कर दें तो मैं जबलपुर जा कर उनसे मिलूं. मालूम था कि वे आजकल उठते नहीं. लगभग सारे काम बिस्तर से ही होते हैं.

लेकिन परसाई जी ने निराश किया. उनने सम्मान लेना नामंजूर नहीं किया और इस तरह अपने जबलपुर जाने की नौबत ही नहीं आई. जब उनका नाम तय हो रहा था तभी किसी ने कहा था कि वे कहीं आ जा नहीं सकते. तो कोई बात नहीं, उनका सम्मान उनके घर जाकर ही करेंगे – ऐसा कहते हुए भी उम्मीद थी कि समिति के सदस्य और मित्र होने के नाते सम्मान समारोह में अपने को बुलाया जाएगा.

बाद में भोपाल के अखबारों में पढ़ा कि राष्ट्रपति शासन के दौरान राज्यपाल ने जबलपुर उनके घर जा कर उन्हें ‘शरद जोशी सम्मान’ दे दिया. अपन फिर बुलाए जाने का रास्ता देखते हुए टापते रह गए. किसी ने पूछा तक नहीं. बाद में पता ही नहीं चला कि उस समिति का क्या हुआ हालांकि परसाई जी के बाद जो दो नाम हमने सम्मान के लिए तय किये थे उनमें से एक को तो गए साल वह मिला ही है.

आप पूछ सकते हैं परसाई जी से मिलने जाने के इतने बहाने ढूंढने की जरुरत क्यों पड़नी चाहिए? तो मन में एक बोल्डर ठसा हुआ था. जब अपन नई दुनिया के साहित्य संपादक हुआ करते थे तब परसाई जी का एक कॉलम ‘सुनो भई साधो’ छापा करते थे. वह हमें जबलपुर से मिला करता था जहां की नई दुनिया में वह पहले छपता था. उस नई दुनिया को मायाराम सुरजन निकाला करते थे जो तब नई दुनिया के एक भागीदार हुआ करते थे. और मायाराम सुरजन जैसा कि आप अब तक कहीं न कहीं पढ़ चुके होंगे परसाई जी के अनन्य मित्रों में से एक थे.

‘सुनो भई साधो’ तब हमारी नई दुनिया का बड़ा लोकप्रिय कॉलम हुआ करता था. अपन ने तो वही कॉलम दुबारा छापकर परसाई जी को जानना शुरू किया. कॉलेज की पढ़ाई छोड़कर गांव-गांव घूमने और गांधी-विनोबा का काम करने और विनोबा को रिपोर्ट करते हुए पत्रकार हो जाने वाला प्रभाष जोशी बेचारा परसाई जी के व्यंग्य का पात्र ही हो सकता था.

वह कॉलम पढ़ते यानी उसका प्रूफ पढ़ते हुए अपने को कई बार लगता कि मखौल तो अपना ही उड़ाया गया है. लेकिन तब तक अपन एंटन चेखव काफी पढ़ चुके थे और जानते थे कि असली व्यंग्य के मूल में सहानुभूति होती है, करुणा होती है. बड़ा व्यंग्यकार व्यंग्य में अपने को सूली पर टांगता है और फिर अपनी ही कमजोरियों पर कीलें ठोकता है. अपना क्रुसीफिकेशन किए बिना कोई महान ही नहीं अच्छा व्यंग्य भी नहीं लिख सकता. दूसरी भारतीय भाषाओं में लिखा व्यंग्य अपन ने ज्यादा पढ़ा नहीं. लेकिन अंग्रेजी के अच्छे से अच्छे व्यंग्यकार के सामने हमारे परसाई जी बित्ता भर ऊंचे ही निकलेंगे, ऐसा विश्वास तब भी अपने को था.

परसाई ऐसे आदमी नहीं थे कि जिनसे संपादक-लेखक का औपचारिक संबंध रह सके. फिर अपन तो सिर्फ साहित्य संपादक थे और परसाई जी की मित्रता के दावेदार भी नहीं हो सकते थे. इतने छोटे थे. लेकिन पहले छोटे-छोटे पत्रों से और बाद में सामने सीधी मुठभेड़ से परसाई जी से ऐसे सम्बन्ध हो गए कि जब अपना ब्याह होना तय हुआ और उनको अपन ने एक निजी पत्र लिखा आने के लिए.

ब्याह होता उसके पहले ही उनका पत्र आ गया. उनके पत्र अब अपने पास नहीं हैं. किसी के नहीं हैं. लेकिन वह याद है. परसाई जी ने लिखा कि आता जरूर, लेकिन तुम उस स्थिति से बाहर निकल गए हो जब मेरी सलाह किसी काम आ सकती है. लेकिन शरद जोशी भोपाल से आए, फिर कहा-जिसे फांसी लगनी होती है उसे भी दोस्त लोग इतनी दूर छोड़ने आते हैं. शादी में भी यहीं तक छोड़ने आ सकते हैं. इसके आगे और इसके बाद अपनी आप जानो. कोई काम नहीं आएगा.

तब नई दुनिया में- घर की दुनिया- यानी महिलाओं का कॉलम वीणा नागपाल देखा करती थीं. उनके पति ओम नागपाल क्रिश्चियन कॉलेज में राजनीति विज्ञान पढ़ाया करते थे और जब-तब नई दुनिया में लिखते भी थे. परसाई जी तब तक बहुत पीने लग गए थे. लेकिन उनकी कीर्ति तो थी ही और हम इंदौर वालों के लिए तो वे विभूति थे. वीणा नागपाल ने उन्हें भोजन के लिए अपने घर बुलाया.

हमारे साथ उस भोजन पर और कौन-कौन बुलाए गए थे यह तो अब याद नहीं है लेकिन रज्जू बाबू (राजेंद्र माथुर) सपत्नीक और अपन भी सपत्नीक निमंत्रित थे. उस भोज में क्या हुआ उसका पूरा वर्णन तो नहीं करूंगा. लेकिन चूंकि तब परसाई जी प्रातःकाल की मंगल बेला से पीना शुरू कर देते थे इसलिए इतने पिए हुए आए कि सूफी लोगों की उस कंपनी में उनका मुख्य अतिथि बने रहना संभव नहीं था. वह भोजन लगभग हुआ ही नहीं.

ये वे दिन थे जब हम लोग- यानी शरद जोशी, रज्जू बाबू और अपन इस चक्कर में रहा करते कि परसाई जी का विवाह करवा दिया जाए. इंदौर के एक कॉलेज में हिंदी साहित्य पढ़ाने वाली प्राध्यापिका हमारी नजर में थीं. उनकी भी काफी उम्र हो गई थी और वे भी परसाई जी की तरह कुंआरी रह गई थीं. परसाई जी की पहले मां चल बसी थीं फिर पिता. पांच भाई-बहनों में वे सबसे बड़े थे. परिवार का भार उन्हीं पर था इसलिए वे पहले बहनों की शादी करना चाहते थे. सबसे बड़ी बहन की शादी की और फिर अपनी करने की सोचते उसके पहले वे विधवा हो गईं. उनका परिवार पालने में परसाई जी कुंआरे रह गए.

हमें जाने क्यों भरोसा था कि प्राध्यापिका को दिखा कर हम परसाई जी को शादी के लिए तैयार कर लेंगे. मालूम नहीं नागपालों के दिए गए उस भोज में वे प्राध्यापिका निमंत्रित थीं या नहीं. लेकिन वहां अगर उनने परसाई जी को देखा होता तो कम से कम वे तो तैयार नहीं होतीं. न हुए उस भोज से हमारी निराशा दुहरी थी. एक तो पहली बार परसाई जी को ऐसे रूप में देखा जिसमें कभी देखा नहीं था, न देखना बर्दाश्त कर सकते थे. अपने संस्कारों में उलाल होने वाले आदमी के लिए सम्मान टिक पाना मुश्किल था. प्रेम शायद फिर भी बच रहता. लेकिन उनके पिए होने की स्थिति और भोज के बिगड़ने ने हमें उतना अपसेट नहीं किया जितना इस बात ने कि इसके बाद परसाई जी के ब्याह की बात चलाने की हिम्मत नहीं रही. फिर कभी कोशिश नहीं की कि परसाई जी को उस स्थिति के परे ले जाते जहां उनकी सलाह उन्हीं के काम न आती.

अब पीछे मुड़ कर देखता हूं तो लगता है कि उस भोज के बाद मेरे मन में जो हुआ वह बचकाना था. मुझे मालूम नहीं था कि आदमी क्यों पीता है और ऐसी बुरी तरह क्यों पीता है? अनुभव से इतना बालक था कि ऐसे पीने को आम बात मान नहीं सकता था. ऐसा नहीं था कि परसाई जी को ऐसे ओटाले पर बैठा रखा था कि उन्हें देखकर मन में उनकी मूर्ति टूट गई हो. मालूम था कि वे खुद ही मूर्ति भंजक हैं. फिर भी सच कहूं-उस भोजन के बाद जैसे उनके अपने बीच का दूध फट गया.

फिर अपन भोपाल आए और वहां से दिल्ली आ गए. परसाई जी का लिखा तो पढ़ने मिल जाता लेकिन यह भी सुनने को मिलता कि वे बहुत काम करवाने लगे हैं. हर किसी की मदद करना, हर किसी के लिए चिट्ठी लिख देना, हर किसी की पैरवी करना तो उनके स्वभाव और उनकी बनावट में था. हमारे मन्ना (भवानी प्रसाद मिश्र) भी इसी तरह किसी का भी काम करवाने को तैयार रहते थे और फिर उलझन में पड़ जाते थे.

दोनों में यह समानता थी. शायद इसलिए कि दोनों होशंगाबाद जिले के नजदीक गांवों में जन्मे थे. मन्ना टिकरिया में और परसाई जमानी में. मनोहर नायक ने बताया परसाई जी अपने को मन्ना वाले अखाड़े का ही पट्ठा मानते थे. ‘हम लोग एक ही मिट्टी पर कुश्ती लड़के निकले हैं.’ हालांकि भवानी बाबू परसाई जी से कोई ग्यारह साल बड़े थे. लेकिन एक ही अखाड़ा दोनों का रहा होगा यह जानने के लिए तो भवानी बाबू की कविता और परसाई जी का व्यंग्य पढना ही काफी है. शायद उस अखाड़े में ‘जिस तरह हम बोलते हैं उस तरह तू लिख और उसके बाद भी हमसे बड़ा तू दिख’ की सहज ललक थी इसीलिए किसी की भी मदद में लग जाते थे.

लेकिन परसाई जी के बारे में जो बात सबसे परेशान कर गई वह दिल्ली में यह सुनना कि वे काम करवाने के पैसे भी ले लेते हैं. अपने को मालूम नहीं, न अपने को भरोसा होता लेकिन इंदौर, भोपाल, जबलपुर आदि का कोई परिचित आता तो ऐसे किस्से सुनाता. परसाई जो को छुटभैया नेताओं, विधायकों जैसा काम करवाने वाला मानना अपने लिए संभव नहीं था. शरद जोशी को सत्ता से छड़क पड़ती थी. परसाई जी सत्ता के आसपास रहने का बुरा नहीं मानते थे. लेकिन किसी सत्ताधारी की वे तारीफ़ करें या उससे वे कोई काम करवा लें ऐसा हो नहीं सकता.

मेरे लिए यह अचरज की बात थी कि व्यंग्य लेखक और हिंदी के-शायद भारत के- सबसे अच्छे व्यंग्यकार होते हुए वे इमरजेंसी और सेंसरशिप जैसी दमनकारी कार्रवाई का समर्थन कैसे कर सकते थे?

इसलिए अपन ने किसी आने जाने वाले से पूछना ही बंद कर दिया. नई दुनिया और इंदौर में रहते हुए जिन परसाई जी को जाना था उन्हीं को सुरक्षित रखने की शायद यह कोशिश थी. इसीलिए उनके बाथरूम में गिर जाने, रीढ़ की हड्डी टूट जाने, इलाज करवाने के बावजूद ठीक से चल न पाने की ख़बरें मिलने पर उनसे मिलने दौड़ जाने की इच्छा नहीं हुई.

लेकिन दूर रहने का एक और बड़ा कारण था. परसाई जी ने इमरजेंसी का समर्थन किया था. मालूम था कि वे जेपी का मखौल उड़ाने वाले लेखक थे लेकिन ऐसे लोग तो सर्वोदय आंदोलन में भी थे. यह भी मालूम था कि वे इंदिरा गांधी के प्रशंसकों में थे. भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने तो इमरजेंसी का समर्थन किया ही था और परसाई जी भी करते तो अचरज नहीं होना चाहिए था.

लेकिन परसाई अगर सिर्फ भाकपाई होते तो कुछ नहीं होते. वे पहले और हमेशा लेखक थे. उसमें भी व्यंग्य लेखक और हिंदी के- शायद भारत के - सबसे अच्छे व्यंग्यकार. वे इमरजेंसी और सेंसरशिप जैसी दमनकारी कार्रवाई का समर्थन कैसे कर सकते थे? राजनैतिक पाखंड, वैचारिक पाखंड और व्यवहार के पाखंड के धुर्रे बिखेरने वाला परसाई जी से प्रखर कोई लेखक अपनी भाषा में नहीं हुआ. उन्हें इमरजेंसी का पाखंड क्यों नहीं दिखा? जो लोग जेपी के विरोधी थे उन्हें भी इमरजेंसी रास नहीं आई. फिर हमारे हरिशंकर परसाई को क्या हो गया था?

अपने पास इसका कोई उत्तर और औचित्य नहीं है. लेकिन इसके बावजूद अपने परसाई अपने अंदर अभी सुरक्षित हैं. मैंने कहा कि अपना एक और पवन का खंबा गिर गया और जीवन खंडहर में और मलबा जम गया. अपन इस मलबे में कुछ और दब गए हैं. थोड़ी ऑक्सीजन दो, थोड़ा सा पानी मुंह में डाल दो. नहीं, गंगाजल अभी नहीं. (satyagrah.scroll.in)

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