आजकल
टेक्नालॉजी ने दुनिया से निजता छीन ली है। अब बहुत कम प्राइवेट रह गया है, और प्राइवेसी शब्द सिर्फ शब्द के रूप में ही मायने रखता है, बाकी कोई प्राइवेसी रह नहीं गई। जो लोग मोबाइल फोन, इंटरनेट, कम्प्यूटर, और दूसरे तरह के हार्डवेयर-सॉफ्टवेयर इस्तेमाल करते हैं, वे कदम-कदम पर अपने पदचिन्ह छोड़ते जाते हैं, जिनकी मदद से सरकारी एजेंसियां तो उन तक पहुंचती ही हैं, अब हत्यारे और जीवनसाथी भी लोगों पर नजर रखने में इन सबका इस्तेमाल करने लगे हैं।
अभी अमरीका से यह खबर आई कि एप्पल कंपनी के एक सबसे छोटे सामान, एयरटैग से एक महिला ने अपने प्रेमी का पीछा कर लिया, उसे एक दूसरी महिला के साथ रंगे हाथों पकड़ लिया, और फिर प्रेमी को उसने अपनी कार के नीचे कुचलकर मार डाला। यह एयरटैग एक छोटी सी की-रिंग सरीखा होता है जिसे किसी सामान के साथ जोडक़र रखा जा सकता है, और बाद में वह सामान न मिलने पर अपने एप्पल फोन के मार्फत उस एयरटैग तक पहुंचा जा सकता है। इस महिला ने अपनी प्रेमी की कार में ऐसा एक एयरटैग रख दिया था, और फिर अपने फोन पर उसकी लोकेशन देखते हुए वह उस शराबखाने तक पहुंच गई जहां प्रेमी एक दूसरी महिला के साथ था।
यह काम तो बाजार में कानूनी रूप से मिलने वाले छोटे से मासूम, की-रिंग या बैग तलाशने के उपकरण की तरह मौजूद है, जिसे बनाने वालों ने इसके मार्फत कत्ल की कल्पना शायद नहीं की होगी। लेकिन आज महज कुछ हजार रूपयों के ऐसे एयरटैग का इस्तेमाल करके दुनिया में कहीं भी लोग अपने भागीदारों, जीवनसाथियों, या प्रेमियों पर नजर रख सकते हैं। दो दिन पहले की इस खबर और उसके बाद आज उस पर लिखी गई इस बात के बाद सभी लोगों को कुछ अधिक सावधानी बरतनी चाहिए, क्योंकि एक जूठा सेब भी आज जासूसी कर रहा है।
यह खतरा कत्ल तक तो अभी पहुंचा है, लेकिन पिछले कुछ महीनों से एप्पल पर निजता भंग करने का उपकरण बनाने की तोहमतें लग ही रही थीं। जो लोग किसी के साथ कोई जुर्म करना चाहते हैं वे लोग भी किसी के सामान में, या गाड़ी में एयरटैग डालकर उन पर निगरानी रख रहे हैं। अब ऐसी जासूसी कर रहे एयरटैग को पकडऩे के लिए इंटरनेट पर ट्रैकर डिटेक्ट नाम का एप्लीकेशन आ गया है, और मुफ्त का यह एप्लीकेशन डाउनलोड करके लोग यह पता लगा सकते हैं कि उनके अगल-बगल में ऐसे कोई एयरटैग काम कर रहे हैं क्या जो कि अपने मालिक से कुछ देर से अलग हैं। इसके बाद ऐसे एयरटैग का बीपर शुरू करके उस तक अपना हाथ भी पहुंचाया जा सकता है, और उसकी बैटरी निकालकर फेंककर उसे बंद भी किया जा सकता है। इससे लोग अपनी की जा रही जासूसी को बंद कर सकते हैं।
अब सवाल यह है कि यह तो बात एक पूरी तरह से कानूनी उपकरण की हुई है जो कि बड़ी आसानी से दुकानों में उपलब्ध है, या ऑनलाईन ऑर्डर करके किसी आईफोन की तरह ही खरीदा जा सकता है। लेकिन गैरकानूनी तौर पर बिकने वाली ऐसी बहुत सी अघोषित चीजें बाजार में हैं जिनसे लोग दूसरों पर नजर रख सकते हैं। अभी दुनिया भर से आने वाली रिपोर्ट बताती हैं कि जब बड़ी-बड़ी कंपनियों को अपने कर्मचारियों से घरों से ही काम करवाना पड़ा, तो उन्होंने कम्प्यूटर और ऑनलाईन पर उनके कंपनी के काम पर नजर रखने के लिए दुनिया के ऑनलाईन जासूसों का सहारा लिया, और यह निगरानी रखी कि लोग किस जगह से काम कर रहे हैं, कितने घंटे काम कर रहे हैं, और ऑफिस के काम के अलावा क्या-क्या कर रहे हैं। ऐसी निगरानी रखने वाली, और अपने को साइबर-सुरक्षा कंपनी बताने वाली एजेंसियों ने इसी दौरान अपना कारोबार बहुत बढ़ा लिया है।
लेकिन कंपनियों से परे, जैसा कि अमरीका के इस ताजा कत्ल में हुआ है, लोग अपने करीबी लोगों के मोबाइल फोन से भी उन पर तरह-तरह की नजर रख सकते हैं। कुछ पल के लिए किसी से उनका फोन मांगकर गूगल मैप की हिस्ट्री देखकर यह जाना जा सकता है कि पिछले दिनों में वे किस वक्त कहां-कहां गए हैं। लोगों के फोन और लैपटॉप पर दर्ज वाईफाई पासवर्ड देखकर भी वे जगहें तलाशी जा सकती हैं जहां वह वाईफाई काम करता है। किसी के फोन पर लोकेशन शेयर करने में कुछ पल ही लगते हैं, और उसके बाद आप बैठकर अपने फोन पर दूसरों की लोकेशन देख सकते हैं।
जुर्म के ये तरीके जानना और समझना इसलिए जरूरी नहीं है कि जुर्म कैसे किया जाए। इन तरीकों से वाकिफ लोग ऐसे जुर्म के शिकार होने से भी बच सकते हैं, और अनजान रहकर वे ऐसे जाल में फंस सकते हैं। ट्रैकिंग डिवाइसों का यह सिलसिला एप्पल ने शुरू नहीं किया है, बरसों पहले से जापान में बच्चों के स्कूल बैग में ट्रैकिंग डिवाइस लगाने का काम चल रहा है ताकि मां-बाप अपने फोन पर देख सकें कि किसी वक्त पर उनके बच्चे कहां हैं। अब तो एप्पल की मामूली सी घड़ी ऐसी आ गई है जिसे पहनने वाले अगर अचानक कहीं गिर जाएं, तो पहले से तय किए हुए नंबरों पर उनके गिरने का एसएमएस चले जाए, और शायद लोकेशन भी।
बहुत से उपकरण लोगों की जिंदगियों को बचाने वाले हैं, लेकिन बहुत से उपकरण निगरानी रखने वाले, और जुर्म में मददगार भी हैं। टेक्नालॉजी अच्छी नीयत से बनाई जाती है, लेकिन वह आगे जाकर किन हाथों में पहुंचेगी, इसकी नियति तय नहीं की जा सकती है। आत्मरक्षा के नाम पर खरीदी गईं बंदूकें अमरीका में आज सामूहिक हत्याओं के काम आ रही हैं। इसलिए कारोबारी भागीदार हो, या पारिवारिक जीवनसाथी, प्रेमी हो या सरकार हो, सबसे सावधान रहने की जरूरत है क्योंकि जिनकी पहुंच आपकी गाड़ी, आपके घर-दफ्तर तक और आपके फोन-कम्प्यूटर तक है, वे आप पर नजर रखने की सबसे अधिक ताकत भी रखते हैं। जब तक आप फोन, इंटरनेट, और उपकरणों से परे हैं, तब तक आप बेफिक्र रह सकते हैं, लेकिन उसके बाद टेक्नालॉजी के साथ बढ़ाया हुआ आपका हर कदम आपको अधिक खतरे में डालने वाला रहता है।
जैसा कि किसी भी चौकन्नी सरकार को समझ आना चाहिए था, हिन्दुस्तान में कल शुक्रवार को, जुमे की नमाज के बाद कई शहरों में पथराव हुआ क्योंकि दो भाजपा प्रवक्ताओं ने टीवी की बहसों पर जिस तरह से मोहम्मद पैगंबर के खिलाफ ओछी और गैरजरूरी बातें कहीं, उनका विरोध तो होना ही था। हालांकि इन बातों को कहे हुए काफी दिन हो गए, और उसके बाद एक जुम्मा हो भी चुका था, लेकिन इस बार मुस्लिम देशों के दबाव में भारत सरकार कुछ सुनने के लिए तैयार हुई थी, और उसी दबाव के चलते देश के भीतर के मुस्लिमों को भी ऐसा लगा कि उन्हें भी कुछ कहने का हक है। नतीजा यह हुआ कि पिछले जुम्मे जो नहीं हो पाया था, वह इस जुम्मे हुआ, और लोगों की प्रतिक्रिया पत्थरों की शक्ल में सामने आई। कई प्रदेशों और दर्जन भर शहरों में मस्जिद से निकलते लोगों ने पत्थर चलाए, यह कोई अभूतपूर्व हिंसा तो नहीं थी, लेकिन इसने लोगों से लड़ाई का एक लोकतांत्रिक औजार छीन लिया, और इन्हें भाजपा प्रवक्ताओं के मुकाबले का हिंसक और हमलावर साबित कर दिया।
एक किसी समझदार ने सोशल मीडिया पर लिखा है कि देश की राजनीतिक ताकतों ने जो पिच तैयार की, जाहिल मुस्लिम उस पिच पर खुशी-खुशी बल्लेबाजी करने लगे। मोहम्मद पैगंबर की इज्जत के नाम पर वे पत्थर चलाकर अपने आपको उन लोगों से भी अलग-थलग कर चुके हैं जो कि अभी कल सुबह तक उनके हिमायती थे, और उनकी तरफदारी कर रहे थे। जो मजहबी जख्मों को लेकर मुस्लिमों का साथ दे रहे थे, उनके हमदर्द थे, वे भी आज अलग-थलग हो चुके हैं कि पत्थरबाजों का किस तरह साथ दें? और जिन लोगों ने मुस्लिमों के इस तबके को पत्थर चलाने के लिए उकसाया है, और एक हिसाब से बेबस किया है, वे बहुत खुश हैं कि अब भाजपा प्रवक्ताओं के खिलाफ कोई तर्क बाकी नहीं रह गया। पत्थरों के बाद जो रही-सही कसर थी, वह उन फतवों ने दूर कर दी जिन्होंने भाजपा प्रवक्ता को चौराहे पर फांसी देने को कहा, उसका सिर काटने को कहा, उसकी जीभ काटने पर एक करोड़ रूपये का ईनाम रखा। इन सारी बातों के बाद अब मुस्लिम भावनाओं की हिफाजत में, तरफदारी में कुछ कहने की जुबान नहीं रह गई, और आम लोगों की जुबान में हिसाब चुकता हो गया।
जिस तरह भारत सरकार ने इस्लामिक दुनिया के सामने यह साबित करने की कोशिश की है कि मोहम्मद पैगंबर पर ओछी बात कहने वाले भाजपा प्रवक्ता हिन्दुस्तान में फ्रिंज इलेमेंट है, उसी तरह मुस्लिम समाज के एक तबके ने, या उसके फ्रिंज इलेमेंट ने बाजी उनके हाथ से छीन ली है जो कि अमन के लिए खेली जा रही थी। अब फ्रिंज इलेमेंट शब्द को लेकर सोशल मीडिया पर जितने तरह की व्याख्या चल रही है वह अपने आपमें अद्भुत है। कोई इसका मतलब तुच्छ लोग बता रहे हैं, तो कुछ दूसरे लोग इसे शरारती या छिछोरा बता रहे हैं। इसका शाब्दिक अर्थ बहुत आसान शायद नहीं है, लेकिन सरकार इसे मूलधारा से अलग के महत्वहीन लोग साबित करते दिख रही थी, और सरकार क्या सोचती है, और क्या साबित करते दिखती है, इसका विरोधाभास इस एक मामले से बढक़र और भला किस मामले में दिख सकता था?
खैर, आज यह वक्त हिन्दुस्तान के मुस्लिमों को यह याद दिलाने का है कि जब हिन्दू समाज के भी बहुत से लोग मुस्लिमों से इस देश में चल रही ज्यादती के खिलाफ लगातार बोल और लिख रहे हैं, तो फिर ऐसे हिमायती लोगों की कोशिशों पर पत्थर चलाना ठीक नहीं है। पत्थर चलाने से सरकार का मकसद ही पूरा होता है, और उसके बाद उसके किए हुए जुल्म भी जायज साबित करना मुश्किल नहीं रह जाता। जुम्मे की नमाज से निकलने के तुरंत बाद जगह-जगह चलाए गए पत्थरों से न इस्लाम की इज्जत बढ़ी है, न मुस्लिमों की। इनसे बिल्कुल अलग उन तमाम लोगों की इज्जत मटियामेट हुई है जो कि मुस्लिमों पर ढहाए जा रहे जुल्म के खिलाफ खड़े हुए हैं, खुद मुस्लिम न होते हुए भी। आज हिन्दुस्तान के मुस्लिमों को यह बात समझने की जरूरत है कि उनकी खुद की आवाज तो इस हद तक बेमायना हो चुकी है कि टीवी के पर्दों पर मोहम्मद पैगंबर के खिलाफ कही गई बातों को भी सरकार ने बुरा नहीं माना था। यह तो बुरा हो तेल के कुओं के मालिक उन देशों का जिन्होंने भारत सरकार से जमकर विरोध किया, अभूतपूर्व विरोध किया, और तब अचानक सरकार को यह पता लगा कि सत्तारूढ़ पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता तुच्छ और शरारती लोग हैं, फ्रिंज इलेमेंट हैं। इसलिए इस देश के मुस्लिमों को पत्थरों का सहारा लेने के पहले यह याद रखना चाहिए कि दुनिया के मुस्लिम देश उनके पत्थरों का बचाव करने के लिए नहीं आएंगे, वे मोहम्मद पैगंबर के सम्मान के लिए तो सामने आए थे, हिन्दुस्तानी मुस्लिम लोगों को भी बचाने के लिए आगे आना उनकी कोई प्राथमिकता नहीं रहेगी। हिन्दुस्तानी मुस्लिमों को यह भी समझ लेना चाहिए कि दुनिया के मुस्लिम और इस्लामिक देश चीन के भीतर मुस्लिमों के मानवाधिकार हनन और उनके साथ हो रहे जुल्म के खिलाफ मुंह भी नहीं खोलते हैं। इसलिए मोहम्मद पैगंबर के सम्मान से परे किसी और मुद्दे पर मुस्लिम देश हिन्दुस्तानी मुस्लिमों के साथ नहीं रहेंगे। ऐसे में आज भारत सरकार शतरंज की बिसात पर घोड़े की तरह ढाई घर पीछे आई हुई तो दिख रही है, लेकिन देश में चलने वाले हर पत्थर पर यहां के मुस्लिमों को कितने मामले-मुकदमे झेलने पड़ेंगे, इसे भी याद रखने की जरूरत है।
आज हिन्दुस्तानी मुस्लिम पत्थर उठाकर उन्हीं साजिशों के बनाए गए किरदार निभा रहे हैं, जो कि मुस्लिमों को खलनायक दिखाना चाहते हैं। हम इस देश में हिन्दू-मुस्लिम एकता और सद्भावना के हिमायती हैं, इसलिए इस नाजुक मौके पर भी मुसलमानों के लिए सलाह की एक बात कह रहे हैं। अंतरराष्ट्रीय दबाव की वजह से भारत में आज सरकार ने अपनी पार्टी के जिन गलत कामों को चूक भी मंजूर कर लिया है, उस नौबत को जारी रहने देना चाहिए, पत्थर उठाकर उस जुर्म का हिसाब चुकता नहीं करना चाहिए।
भारत सरकार की विज्ञापनों पर नजर रखने वाली संस्था, एडवरटाइजिंग स्टैंडड्र्स कौंसिल ऑफ इंडिया (एएससीआई) ने अभी एक बॉडी स्प्रे के इश्तहार को बहुत ही आपत्तिजनक मानकर उस पर रोक लगाई है। सरकार ने ट्विटर और यू-ट्यूब से भी कहा है कि इस विज्ञापन को अपने प्लेटफॉर्म से हटाए। इसकी खबरें आते ही लोगों ने इंटरनेट पर इसे ढूंढना शुरू किया, और पाया कि महिला से बलात्कार की तरफ इशारा करने वाला यह इश्तहार बहुत सोच-समझकर बनाया गया है, और इसका वीडियो हैरान करता है कि सामानों की कौन सी कंपनी, और कौन सी विज्ञापन एजेंसी इस दर्जे का घटिया और हिंसक काम कर सकती हैं? लेकिन जाहिर है कि ऐसा विज्ञापन बना है, एक अभियान की तरह एक से अधिक वीडियो इसके बनाए गए हैं, और देश के जिम्मेदार लोग इसे धिक्कार रहे हैं।
ये विज्ञापन किसी एक लडक़ी के साथ गैंगरेप की तरफ इशारा करते हुए लडक़ों की टोली पर बनाया गया है, और जो बतलाता है कि 21वीं सदी के 22वें बरस में भी हिन्दुस्तान में बाजार बलात्कार को बेचने का सामान मान रहा है, और पूरी बेशर्मी और हिंसा से यह काम कर रहा है।
वैसे तो पूरी दुनिया में इश्तहारों के बाजार में यह चलन रहा है कि उन्हें तरह-तरह से विवादास्पद बनाकर, खबरों में लाकर, बदनामी की भी कीमत पर उनका फायदा उठाया जाए। बाजार में यह आम सोच रहती है कि बदनाम हुए तो क्या नाम न हुआ? इंटरनेट पर ढूंढें तो प्रतिबंधित विज्ञापनों का अम्बार लगा हुआ है। और ये भी ऐसे देशों से हैं जहां पर सार्वजनिक जीवन के सांस्कृतिक मूल्य कई पैमानों पर हिन्दुस्तान के मुकाबले अधिक उदार हैं। वहां पर बदन का उघड़ा होना, शब्दों में कुछ अश्लीलता होना, इन सबको अधिक बर्दाश्त किया जाता है। इसके बावजूद इस बर्दाश्त को पार करके बनने वाले अधिक नग्न और अधिक अश्लील इश्तहारों पर अलग-अलग देशों में रोक लगती है, और फिर ऐसे प्रतिबंधित विज्ञापनों का एक अलग तबका रहता है जो कि इंटरनेट पर जगह पाता है, और लोग इनका मजा लेते हैं।
दरअसल यह पूरा सिलसिला शुरू इसी से होता है कि लोग बलात्कार पर भी लतीफों का मजा लेते हैं। लोग महिला, उसके बदन, उसके मिजाज से जुड़ी हुई हर बात पर मजा लेते हैं। लोगों की सोच ऐसी है कि मर्द तो मर्द, औरत भी जब गालियां देने का हौसला रखती हैं, तो मां-बहन की ही गालियां देती हैं। मतलब यह कि औरत बाजार से लेकर समाज तक लगातार निशाने पर रहती है, और मर्द तो तकरीबन तमाम ही इसका मजा लेते हैं। पौराणिक कहानियों में द्रोपदी के अपमान से लेकर कई दूसरे किस्म की ऐसी घटनाओं का जिक्र रहता है, और हिन्दुस्तान के संसदीय इतिहास में तमिलनाडु विधानसभा में जयललिता की साड़ी भी खींची गई थी। ऐसे समाज में एक बॉडी स्प्रे बेचने के लिए अगर औरत के साथ गैंगरेप, और रेप के मुकाबले को लतीफे की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है, तो वह गैरकानूनी चाहे जो हो, सजा के लायक चाहे क्यों न हो, वह अधिकतर लोगों को मजा देने वाला तो रहता है। और ऐसे ही मजे पर भरोसा करते हुए यह इश्तहार बना है, और यह गैरजरूरी सामान बेचा जा रहा है।
सोशल मीडिया की मेहरबानी से ऐसी हिंसा तुरंत ही नजरों में आती है, और उसका विरोध शुरू हो जाता है। सत्तारूढ़ पार्टियों को अगर इन पर प्रतिबंध लगाने से कोई सीधा नुकसान नहीं होता, तो उनकी सरकारें भी जल्द जाग जाती हैं, और अपने आपको औरतों का हिमायती साबित करते हुए इन पर तेजी से रोक लगाती हैं। इस ताजा इश्तहार-अभियान के साथ यही हुआ है, और आनन-फानन सरकार को कार्रवाई करनी पड़ी है, दिल्ली के महिला आयोग ने भी एक नोटिस जारी किया है, और सार्वजनिक जीवन के बहुत से प्रमुख लोगों ने खुलकर इसके खिलाफ लिखा है। लेकिन हो सकता है कि इस कंपनी और इसकी विज्ञापन कंपनी को इस अंत का अंदाज रहा होगा, और उन्होंने सोच-समझकर ब्रांड को चर्चा में लाने के लिए यह काम किया होगा।
अब सोशल मीडिया के तमाम चौकन्नेपन के बावजूद इस बात का कोई अंदाज नहीं है कि ऐसे सामान, ऐसी कंपनी, और ऐसी विज्ञापन कंपनी के बहिष्कार के फतवे का कोई असर होगा या नहीं? अगर कोई समाज जागरूक हैै तो वह ऐसे कारोबारी लोगों का जीना हराम कर सकता है, लेकिन हिन्दुस्तानी समाज अगर जागरूक होता, तो आज हिन्दुस्तान ऐसा क्यों होता? इसलिए यह मानने का भी हौसला नहीं होता कि यह समाज जो नफरत के खतरों के प्रति जागरूक नहीं है, वह बलात्कार के लतीफों के खिलाफ जागरूक हो सकेगा। फिर भी सोशल मीडिया की मेहरबानी से आज लोगों के सामने यह एक मौका है कि वे ऐसा अभियान छेड़ सकते हैं, और देख सकते हैं कि इसे कहां तक ले जाया जा सकता है। आखिर दुनिया के इतिहास का हर बड़ा आंदोलन कभी तो किसी एक इंसान से ही शुरू हुआ होगा, और बाद में लोग उससे जुड़ते चले गए होंगे।
बलात्कार का मजा लेने वाले, उसके लतीफों को गढऩे और फैलाने वाले लोगों को अपने परिवार को इन इश्तहारों में रखकर देखना चाहिए कि क्या वे अपनी मां-बहन-बेटी को इस जगह रखकर असल जिंदगी में इतना ही मजा लेंगे जितना कि वे इस इश्तहार को बनाकर या इसे देखकर पा रहे हैं? सरकार को महिला के खिलाफ ऐसा हिंसक नजरिया रखने वाले ऐसे अश्लील विज्ञापनों के खिलाफ जुर्म भी दर्ज करना चाहिए, और सजा दिलवाने की कोशिश करनी चाहिए।
एक तरफ दुनिया आर्थिक संकट, मंदी, बेरोजगारी, महंगाई, और भुखमरी से गुजर रही है, दूसरी तरफ ऑक्सफेम नाम की संस्था की नई रिपोर्ट बतलाती है कि कोरोना और लॉकडाउन के इस दौर में दुनिया में हर तीस घंटे में एक अरबपति बना है, और दस लाख लोग गरीब हो गए हैं। दुनिया के कामकाज पर खतरा टलने का नाम नहीं ले रहा है, कोरोना ने लोगों का काम छीना, परिवार पर आर्थिक बोझ डाला, और देश-प्रदेश की सरकारों की कमर टूट गई। इलाज और टीकाकरण पर अंधाधुंध खर्च हुआ, और टैक्स की कमाई मारी गई। इससे दुनिया उबर नहीं पाई थी कि रूस यूक्रेन पर टूट पड़ा, और दुनिया की आर्थिक बदहाली की आग में मानो रूसी पेट्रोल पड़ गया। इसी के समानांतर चीन में कोरोना-लॉकडाउन इतना भयानक रहा कि करोड़ों की आबादी वाला शंघाई शहर पूरा का पूरा महीनों से सील किया हुआ है, और इस शहर में दुनिया का सबसे बड़ा बंदरगाह है, और जहाज लंगर डाले खड़े हैं। चीन से पुर्जे और कच्चा माल न निकल पाने की वजह से दुनिया भर में सामान बनना धीमा हो गया है, और यह नौबत कब सुधरेगी इसका कोई ठिकाना नहीं है।
ऐसे में स्विटजरलैंड में अभी वल्र्ड इकॉनामिक फोरम की बैठक के दौरान बाहर ऑक्सफेम की रिपोर्ट पेश हुई जिसने बताया कि पिछले दो सालों में दुनिया में 573 नए अरबपति बने हैं। मतलब यह कि महामारी हो, या भुखमरी, कुछ लोगों की कमर टूटती है, और कुछ लोगों का बाहुबल बढ़ता है। हर मुसीबत दुनिया के कुछ लोगों के लिए मौका लेकर आती है, और उनको भारी मुनाफा देकर जाती है। हिन्दुस्तान में इन बरसों में करोड़ों लोगों का रोजगार गया, लेकिन सरकार के पसंदीदा समझे जाने वाले देश के दो सबसे बड़े उद्योगपतियों की दौलत एक-दूसरे से मुकाबला करते हुए, जंगली हिरण की तरह छलांग लगाते हुए आगे बढ़ रही है, और वह फीसदी में नहीं, गुना में बढ़ रही है।
किसी भी तरह की मुसीबत दुनिया में गैरबराबरी को बढ़ाने का काम करती है। गरीबी और अमीरी के बीच का फासला बढऩा एक बात रही, दूसरी बात यह भी रही कि दुनिया के जिस देश में मुसीबत जितनी बड़ी रही, वहां पर लोकतंत्र के भीतर भी राजा और प्रजा कहे जाने वाले दो तबकों के बीच फासला उतना ही बढ़ गया। दुनिया के कई देशों में महामारी और लॉकडाउन के इस दौर को देखने पर पता चलता है कि वहां के शासकों के मिजाज और कामकाज में तानाशाही बढ़ गई, और लोगों के बुनियादी अधिकार घट गए। जब महामारी जैसी मुसीबत रहती है, तो फिर लोग अपने से परे किसी और के किसी हक की परवाह भी नहीं करते, फिर चाहे वह बुनियादी लोकतांत्रिक हक हों, या कि समाज के व्यापक मानवाधिकार हों। लोगों को, लोकतांत्रिक देशों के बहुसंख्यक लोगों को मुसीबत के वक्त देश में ऐसे शासक पसंद आते हैं जो कि कड़़े फैसले बिना किसी दुविधा के ले लेते हैं, फिर चाहे वे फैसले गलत, बुरे, और नुकसानदेह ही क्यों न हों। जब देश मुसीबत से गुजरते रहता है, तो लोग मुसीबत अपने दरवाजे तक पहुंचने से रोकने के लिए शासक को और अधिक ताकत देकर उस पर जिम्मा डाल देना चाहते हैं। इसलिए दुनिया के कई देशों में पिछले दो बरसों में शासक अधिक तानाशाह हुए हैं। इस तरह देखें तो परेशानी और मुसीबत के इस दौर में एक तरफ गरीबी और अमीरी का फासला बढ़ा है, दूसरी तरफ लोकतांत्रिक देशों के शासन में तानाशाह तौर-तरीके भी बढ़े हैं।
लोगों को याद होगा कि कारोबार को लेकर हमेशा से एक बात चलन में रही है कि पैसा पैसे को खींचता है। जब किसी नए कारोबार, या मुसीबत से पैदा हुए नए कारोबार की गुंजाइश निकलती है, तो रातोंरात पूंजीनिवेश करने की गुंजाइश रखने वाले कारोबारी को ही शुरूआती फायदा मिलता है। मुकाबले में दूसरे कारोबारी जब तक पूंजी का इंतजाम करते हैं, तब तक धनसंपन्न कारोबारी उस संभावना पर एकाधिकार सा जमा चुके रहते हैं। यह भी एक बड़ी वजह है कि पिछले दो सालों में 573 नए अरबपति पैदा हुए हैं। ये वे लोग रहे होंगे जो पहले से कारोबार में थे, और जिनके पास रातोंरात अपने कारोबार को बढ़ाने की ताकत रही होगी, और वे दो बरस के इस दौर में करोड़पति से अरबपति हो गए।
लेकिन पूंजी की इस अंतरिक्ष यात्रा के बीच यह एक विसंगति दुनिया के सामने है कि आज बहुत से देशों में लोगों के पास खाने को नहीं रह गया है, और अंतरराष्ट्रीय समाजसेवी संस्थाओं के पास उन्हें देने के लिए अनाज नहीं रह गया है। आज दुनिया के कुछ देशों में अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं अपनी मदद को हर किसी को बांटने के बजाय सीमित आबादी को जिंदा रखने के लिए पर्याप्त अनाज दे रही हैं, ताकि तमाम लोगों के मरने के बजाय कम से कम कुछ लोग तो बच जाएं, और बाकी लोगों के बारे में उन्होंने मान लिया है कि उन्हें उनके हाल पर छोड़ देने के अलावा और कोई चारा नहीं है। लोगों को याद होगा कि पुलित्जर पुरस्कार प्राप्त एक अमरीकी फोटोग्राफर ने एक अफ्रीकी बच्चे की फोटो ली थी, जो जमीन पर से कुछ उठाकर खाते हुए जिंदगी के आखिरी दिन या घंटे गुजार रहा था, और उसके ठीक पीछे एक गिद्ध आकर इंतजार करते बैठ गया था। बाद में इस तस्वीर को लेकर बड़ा बवाल हुआ था, और फोटोग्राफर की किसी और वजह से की गई आत्महत्या इसी तस्वीर से उपजे मानसिक अवसाद से जोड़ी गई थी।
आज भी दुनिया में लोगों के बीच अनाज बांटते हुए काम करते अंतरराष्ट्रीय संगठनों के लोगों के बीच ऐसी ही दिमागी हालत पैदा होते जा रही है क्योंकि उन्हें आबादी के एक हिस्से को अनाज देना बंद कर देना पड़ रहा है, ताकि जिंदा रहने की थोड़ी संभावना वाले दूसरे हिस्से को जिंदा रखा जा सके।
आज जब दुनिया को यह भी समझ नहीं आ रहा है कि उसका सबसे बुरा वक्त अभी आ चुका है, या अगले कई महीनों तक इससे बुरा वक्त आते रहेगा, तब अगर दुनिया की कुछ कंपनियों के शेयरों के दाम लगातार बढ़ते चल रहे हैं, कुछ कारोबारी अरबपति हो रहे हैं, कुछ अरबपति से खरबपति हो रहे हैं, तो इसका श्रेय दुनिया पर आई हुई मुसीबत को जाता है जो कि ऐसी अभूतपूर्व और विकराल संभावनाएं खड़ी कर रही हैं। जलती लाशों के बदन पर रोटी सेंकने के इस कारोबार में बहुत नया कुछ भी नहीं है, सिवाय इस बार के उसके बढ़ते विकराल आकार के! (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
उत्तरप्रदेश की एक मस्जिद को लेकर यह ऐतिहासिक विवाद चल रहा है कि क्या एक मंदिर को तोडक़र इसे बनाया गया है? देश की कई अदालतें इस सवाल के अलग-अलग पहलुओं से जूझ रही हैं, और देश के कुछ अलग-अलग कानून एक-दूसरे के सामने खड़े किए जा रहे हैं कि किस कानून के मुताबिक क्या होना चाहिए। हिन्दू और मुस्लिम दो तबके अदालत में एक-दूसरे के सामने खड़े हैं, और अदालत का सिलसिला कुछ पहलुओं पर शक से घिरा हुआ है, और इसी के चलते अदालत को अपनी मातहत अदालत का तैनात किया गया एक जांच कमिश्नर हटाना भी पड़ा है। लेकिन यह एक जटिल मामला है जिस पर यहां लिखने के बजाय किसी लेख में उसके साथ अधिक इंसाफ हो सकता है। यहां आज इस कानूनी विवाद पर लोगों की लिखी जा रही बातों पर लिखने की नीयत है।
जब मस्जिद में जांच के दौरान अदालत से तैनात एक हिन्दू जांच कमिश्नर वकील ने अदालत को रिपोर्ट देने के बजाय यह सार्वजनिक बवाल खड़ा करना शुरू किया कि मस्जिद में पानी की एक टंकी में शिवलिंग मिला है, तो इस पर देश भर से लोगों ने सोशल मीडिया पर लिखना शुरू किया। टीवी समाचार चैनलों को रोजी-रोटी मिली, और वे भी स्टूडियो में एक-दूसरे से पहले साम्प्रदायिक दंगा करवाने के गलाकाट मुकाबले में उतर पड़े। सोशल मीडिया पर लिखने वालों में दिल्ली विश्वविद्यालय के इतिहास के एक प्रोफेसर रतनलाल भी थे, जिनके खिलाफ हिन्दू धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने की पुलिस रिपोर्ट की गई, जुर्म दर्ज हुआ, और आनन-फानन उनकी गिरफ्तारी भी हो गई। खबरों से पता लगा कि रतनलाल एक दलित हैं, और उनकी पोस्ट पर विवाद होने के बाद उन्होंने जोर देकर यह कहा कि उन्होंने बहुत जिम्मेदारी के साथ लिखा था।
जैसा कि जाहिर है शिवलिंग से हिन्दू धर्मालुओं की भावनाएं जुड़ी हुई हैं, और शिवलिंग एक प्रतीक के रूप में किसी दूसरे धर्म की भावनाओं को चोट पहुंचाने का काम भी नहीं करता। इसलिए मस्जिद में मिला हुआ पत्थर शिवलिंग है या नहीं, यह अदालत के तय करने की बात है, उस पत्थर को शिवलिंग कहकर किसी दूसरे धर्म पर चोट पहुंचाने का काम नहीं हो रहा था। किसी जगह पर किसी एक धर्म के दावे का झगड़ा था, जो कि अभी निचली अदालत में है, और 25-50 बरस बाद वह हिन्दुस्तान की सबसे बड़ी अदालत से तय हो सकता है, लेकिन तब तक उस पत्थर को लेकर कोई झगड़ा नहीं था। वह पत्थर भी किसी का नुकसान नहीं कर रहा था। वह सैकड़ों बरस से उसी जगह पर पानी में डूबे हुए था, वहां से नमाज पढऩे के पहले लोग हाथ और चेहरा धोने को पानी लेते थे, और अगर बहस के लिए यह मान लें कि वह शिवलिंग ही है, तो भी सैकड़ों बरस के लाखों नमाजियों के हाथ लगते हुए भी उस शिवलिंग को कोई दिक्कत नहीं थी।
ऐसे में सोशल मीडिया पर प्रोफेसर रतनलाल के अलावा भी हजारों लोगों ने साम्प्रदायिकता का विरोध करने के लिए शिवलिंग का विरोध करना शुरू कर दिया, या अधिक बेहतर यह कहना होगा कि उन्होंने उस पत्थर के शिवलिंग न होने के दावे करने शुरू कर दिए, और ऐसा करते हुए लोग तरह-तरह से शिवलिंग के अपमान पर चले गए। यह अपमान उस पत्थर को शिवलिंग मानकर उसकी उत्तेजना फैलाने की साजिश का होता, तो भी ठीक होता। इस मामले में पहली नजर में दिखता है कि अदालत के तैनात जिस जांच कमिश्नर को रिपोर्ट सीलबंद लिफाफे में अदालत को ही देनी थी, उसने एक घोर हिन्दुत्ववादी की तरह हमलावर अंदाज में एक पत्थर के शिवलिंग होने का दावा करते हुए मीडिया में बयानबाजी शुरू कर दी, और उसके तौर-तरीकों से, और उसके दावों से बिना सुबूत सहमत होते हुए निचली अदालत ने मुस्लिमों के नमाज पढऩे के पहले वुजू करने, हाथ धोने की उस जगह को सील कर दिया। अब यह मौका एक छोटी अदालत के जज, और अदालत के जांच-कमिश्नर वकील को लेकर कुछ लिखने का था, और लोगों ने शिवलिंग का मखौल उड़ाना शुरू कर दिया। अभी तो यह तय भी नहीं हुआ था कि वहां मिला वह पत्थर सचमुच ही शिवलिंग है, लेकिन एक धार्मिक प्रतीक शिवलिंग को लेकर इतनी ओछी और अश्लील बातें लिखी जाने लगीं, कि मानो शिवलिंग खुद ही त्रिशूल लेकर हिंसा कर रहा हो।
यह मौका अदालत के जांच कमिश्नर और जज के पक्षपात या पूर्वाग्रह, उनके न्यायविरोधी रवैये को साबित करने का था, हिन्दुस्तानी मीडिया ने जिस तरह एक हिन्दुत्ववादी वकील के उछाले हुए शिवलिंग शब्द को लपककर पूरे देश में साम्प्रदायिकता और धर्मान्धता फैलाना शुरू किया, मीडिया के उस रूख के बारे में लोगों को बात करनी थी, लेकिन यह पूरी बहस इस बात पर आकर सिमट गई कि कुछ कथित धर्मनिरपेक्ष लोग किस तरह शिवलिंग का मजाक उड़ा रहे हैं, हिन्दुओं की धार्मिक भावनाओं को चोट पहुंचा रहे हैं।
मेरी तरह के परले दर्जे के नास्तिक, और धर्मनिरपेक्ष को भी धार्मिक प्रतीक का गंदी जुबान और गंदी मिसाल के साथ मखौल उड़ाना न सिर्फ नाजायज लगा बल्कि यह देश में साम्प्रदायिक ताकतों के हाथ मजबूत करना भी लगा। जिस वक्त देश की बहस को असल मुद्दों से भटकाकर भावनाओं में उलझाने की राष्ट्रीय स्तर की साजिशें लगातार चल रही हैं, उसी वक्त अगर देश के असली या कथित धर्मनिरपेक्ष लोग भी अनर्गल, अवांछित, और नाजायज बकवास करके देश की बहस को गैरमुद्दों में उलझाने का काम करेंगे, तो यह धर्मनिरपेक्षता नहीं है, यह साम्प्रदायिक ताकतों के हाथ में उसी तरह खेलना है, जिस तरह देश के कई टीवी स्टूडियो खेल रहे हैं। हिन्दुस्तानी लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर अगर पूरी तरह से नाजायज बातों को जायज ठहराने की कोशिश होगी, तो उससे अभिव्यक्ति की जरूरी और जायज स्वतंत्रता की शिकस्त होगी। जब यह देश अपने आजाद इतिहास के सबसे खतरनाक दौर से गुजर रहा है, जब उसके सामने असली और गंभीर चुनौतियां जानलेवा दर्जे की हो चुकी हैं, तो यह वक्त अपनी गैरजिम्मेदार और फूहड़ बातों से दुश्मन के हाथ मजबूत करने का नहीं है। जिन लोगों को यह लगता है कि वे शिवलिंग का मखौल उड़ाकर मुसलमानों के हाथ मजबूत कर सकते हैं, उनसे अधिक गैरजिम्मेदार आज कोई नहीं होंगे क्योंकि इससे हिन्दू लोगों में से सबसे अधिक हिंसक और साम्प्रदायिक लोगों के हाथ मजबूत होने के अलावा और कुछ नहीं हो रहा। जो लोग हिन्दुस्तान में सभी धर्मों को बराबरी दिलाना चाहते हैं, कुचले जा रहे धर्म को बचाना चाहते हैं, उनमें से कुछ लोग अगर धर्मान्ध-साम्प्रदायिक लोगों के हाथ अपने बयानों के हथियार थमा रहे हैं, तो यह धर्मनिरपेक्षता का काम नहीं है, यह साम्प्रदायिकता का काम है।
किसी व्यक्ति के धर्म, उसकी जाति, उसके वर्ग की वजह से उसकी सार्वजनिक बातों को रियायत नहीं दी जा सकती, खासकर ऐसे व्यक्ति को जिनकी पढ़ाई-लिखाई और समझदारी में कोई कमी नहीं है। ऐसे लोग अगर किसी एक गंभीर और व्यापक सोच के चलते हुए भी किसी धर्म के प्रतीक का मखौल उड़ाना जायज समझते हैं, तो वे लोग हिन्दुस्तान में आज असल मुद्दों पर बहस को बंद करवाने का काम कर रहे हैं, और ऐसे नुकसानदेह लोगों को बढ़ावा देकर देश में साम्प्रदायिक ताकतों को और मजबूत नहीं करना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
पिछले हफ्ते सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश वाली तीन जजों की एक बेंच ने मध्यप्रदेश के एक एबीवीपी पदाधिकारी को हाईकोर्ट से मिली जमानत रद्द कर दी, और हफ्ते भर में सरेंडर करने के लिए कहा। जबलपुर में एक छात्रा से बलात्कार के आरोपी अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के एक नेता को जब हाईकोर्ट से जमानत मिली थी, तो शहर में ‘भैय्या इज बैक’ के बैनर-होर्डिंग लगाए गए थे। इस पर बलात्कार-पीडि़ता छात्रा की ओर से जमानत रद्द करने के लिए सुप्रीम कोर्ट में याचिका लगाई गई थी, तो वहां पर मुख्य न्यायाधीश ने इस पर भारी नाराजगी के साथ आरोपी के वकील से कहा था कि क्या आप जश्न मना रहे हैं? अदालत ने यह माना था कि बैनरों पर जिस तरह का महिमामंडन किया गया है, और जैसे नारे लिखे गए हैं, उससे समाज में अभियुक्त की ताकत का अंदाज लगता है। इससे शिकायतकर्ता के मन में डर पैदा होना स्वाभाविक है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि कम से कम दस साल की सजा वाले इस अपराध में इस तरह के बेशर्म बर्ताव ने शिकायतकर्ता के मन में डर पैदा किया है, इससे निष्पक्ष सुनवाई की संभावना खत्म होती है, और गवाहों को प्रभावित करने की संभावना पैदा होती है।
अदालत का यह एक शानदार रूख है जो कि देश में अंधाधुंध ताकत रखने वाले मुजरिमों का बेशर्म हौसला घटाता है, और कमजोर तबके के पीडि़तों के मन में एक उम्मीद जगाता है। इस अखबार में हम लगातार इस बारे में लिखते हैं कि जब मुजरिम किसी बड़े ओहदे पर बैठा हुआ हो, सामाजिक या राजनीतिक ताकत वाला हो, उसके पास बहुत सी दौलत हो, तो उसके जुर्म पर अधिक बड़ी सजा का इंतजाम होना चाहिए। फिर अगर ऐसे ताकतवर मुजरिम के जुर्म के शिकार कमजोर लोग हों, गरीब या महिलाएं हों, प्रकृति या जानवर हों, तो भी उनके लिए ऐसी जुर्म की आम सजा के मुकाबले अधिक कड़ी सजा का इंतजाम रहना चाहिए। यह बात समझने की जरूरत है कि कानून की नजर में सबको एक बराबर देखने और रखने की गलती खत्म की जानी चाहिए। कानून को मुजरिम की ताकत को घटाने का काम भी करना चाहिए, और समाज से गैरबराबरी को हटाने का काम भी करना चाहिए। हमने पहले इसी जगह यह लिखा है कि अगर ताकतवर और संपन्न तबके के किसी मुजरिम से किसी गरीब को नुकसान होता है, तो कानून को इस तरह बदलना चाहिए कि बाकी सजा के साथ-साथ उसकी संपन्नता का एक हिस्सा भी गरीब को मिले। मिसाल के तौर पर अगर कोई अरबपति या करोड़पति किसी गरीब लडक़ी से बलात्कार करे, तो जब वह साबित हो जाए, तब उसकी दौलत का एक हिस्सा, एक बड़ा हिस्सा उस लडक़ी को मिलना चाहिए। भारत के कानून में ऐसे फेरबदल की जरूरत है। आज किसी जुर्म के लिए किसी गरीब को जितनी सजा होती है, किसी अरबपति को भी उतनी ही सजा होती है, जबकि पैसे वाले के पास पुलिस और गवाह को खरीदकर, सुबूत और जज को खरीदकर बच निकलने की बड़ी गुंजाइश रहती है, और बड़ी दौलत शायद ही कभी सजा पाने देती है।
अब हिन्दुस्तान की संसद से यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि वह संपन्न तबके के खिलाफ इस तरह का कोई कानून बनाएगी। इसकी पहली वजह तो यह है कि पिछले दशकों में संसद और विधानसभाओं में घोषित रूप से करोड़पति लोगों का अनुपात बढ़ते-बढ़ते अब आसमान पर पहुंच गया है। अब संसद में एक तबका तो अरबपति सांसदों का भी है, और ऐसा ताकतवर तबका, या कि देश की ताकतवर नौकरशाही ऐसा कानून बनने नहीं देगी जो कि उनके वर्गहितों के खिलाफ रहेगा। किसी नौकरशाह को उसके बलात्कार पर अधिक कड़ी सजा हो, अधिक बड़ा जुर्माना देना पड़े, ऐसे कानून को बनाने की पहल वह नौकरशाही क्यों करेगी? संपन्नता के साथ यह एक बड़ी दिक्कत रहती है कि वह अपने आपमें एक वर्ग का बाहुबल बन जाती है, और कमजोर तबकों के खिलाफ सामंती मिजाज से जुल्म तेज करने लगती है।
लेकिन सुप्रीम कोर्ट में कभी-कभी ऐसे मुख्य न्यायाधीश भी आते हैं जो कि संविधान के प्रति अपनी जिम्मेदारी को अपने बुढ़ापे के इंतजाम से अधिक महत्वपूर्ण मानते हैं। रिटायर होने के बाद बरसों तक सहूलियतों को जारी रखने का लालच जिन्हें नहीं रहता है, वैसे ही जज सरकार की मर्जी के खिलाफ भी कोई फैसले दे पाते हैं। ऐसे ही किसी जज को इस किस्म के मुद्दे को उठाना चाहिए कि एक गरीब और एक अमीर, एक कमजोर और एक ताकतवर को किसी जुर्म पर एक सरीखी सजा कैसे दी जा सकती है? और यह भी कि जुर्म करने वाले संपन्न की दौलत का एक बड़ा हिस्सा जुर्म के शिकार को क्यों न दिया जाए?
भारत जैसे गैरबराबरी वाले समाज में वैसे भी किसी ताकतवर या संपन्न के कटघरे तक पहुंचने की संभावना बहुत कम रहती है। ऐसे में जब बिना किसी शक के अदालत ऐसे किसी को सजा के लायक पाए, तो उसकी संपन्नता की सारी हेकड़ी भी निकाल देनी चाहिए, और उसकी दौलत की ताकत का बेहतर इस्तेमाल पीडि़त परिवार या समाज के लिए होना चाहिए। कानून की नजर में बराबरी ऐसी ही सोच से साबित हो सकती है, न कि हर किसी को एक बराबर सजा देने से कोई बराबरी साबित होगी। दौलत को दी गई सजा से मुजरिम का बाकी परिवार भी प्रभावित होगा, और संपन्नता की बददिमागी को घटाने के लिए यह जरूरी भी है।
देश में एक ऐसी संसद की जरूरत है जो कि अलग-अलग किस्म के जुर्म पर संपन्न मुजरिम की दौलत का एक अनुपात जुर्माने के रूप में जब्त और वसूल करने का कानून बना सके। बलात्कार साबित होने पर कैद के साथ-साथ एक चौथाई दौलत बलात्कार की शिकार को मिले, या हत्यारा साबित होने पर संपन्न की आधी दौलत पीडि़त परिवार को मिले, तो ही कोई इंसाफ हो सकेगा।
इंसाफ की देवी को आंखों पर पट्टी बंधी हुई दिखाया जाता है, लेकिन कानून को इतना अंधा भी नहीं होना चाहिए कि वह संपन्नता की बददिमागी को सजा देने की न सोच पाए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
कांग्रेस पार्टी के एक बड़े नेता, भूतपूर्व केन्द्रीय मंत्री, और देश के एक कामयाब वकील पी.चिदम्बरम अभी जब एक मामले की सुनवाई में कलकत्ता हाईकोर्ट पहुंचे, तो उन्हें दर्जनों वकीलों के विरोध का सामना करना पड़ा। वे जिस मामले में वहां एक कंपनी की तरफ से अदालत में खड़े हुए थे, उस कंपनी के खिलाफ बंगाल कांग्रेस अध्यक्ष अधीर रंजन चौधरी ने यह मुकदमा किया हुआ है, और यह कंपनी इस मामले में बंगाल की तृणमूल सरकार के साथ एक कारोबार में है। इस तरह चिदम्बरम न सिर्फ एक कांग्रेस नेता के दायर किए मुकदमे के खिलाफ वकील थे, बल्कि वे एक किस्म से तृणमूल कांग्रेस के साथ सौदे में शामिल कंपनी के भी वकील थे, यानी तृणमूल कांग्रेस के भी हिमायती थे।
कलकत्ता हाईकोर्ट में जिन वकीलों ने चिदम्बरम का विरोध किया उनके खिलाफ नारे लगाए, और बदसलूकी करते हुए कहा कि वे चिदम्बरम पर थूकते हैं। अगर इस विरोध-प्रदर्शन का वीडियो देखें, तो उसमें एक जगह अदालत के अहाते से निकलते हुए चिदम्बरम अचानक अपने कपड़ों को देखते हुए दिखते हैं, यानी विरोध कर रहे किसी वकील ने उन पर थूका भी होगा। यह जाहिर है कि ऐसा विरोध-प्रदर्शन करने वाले वकील कांग्रेस से जुड़े हुए होंगे, और इसीलिए उन्हें कांग्रेस का केन्द्रीय मंत्री रहा हुआ एक वकील पार्टी के नेता की पिटीशन के खिलाफ लड़ते हुए खटका होगा, और यह विरोध हुआ।
अदालतों के बारे में यह माना जाता है कि सबसे बुरे मुजरिमों को भी वकील पाने का हक रहता है। कई मामलों मेें ऐसा होता है कि किसी बहुत छोटे बच्चे से बलात्कार और उसकी हत्या करने वाले मुजरिम के लिए खड़े होने के लिए वकील नहीं मिलते क्योंकि उस शहर के तमाम वकील तय कर लेते हैं कि कोई उसका बचाव नहीं करेंगे। ऐसे में दूसरे शहर से वकील लाए जाते हैं, और ऐसे वकीलों का कोई खास विरोध स्थानीय वकील नहीं करते। लेकिन एक मामला कुछ बरस पहले जम्मू का ऐसा आया था जिसमें एक मुस्लिम खानाबदोश बच्ची के साथ एक मंदिर में पुजारी से लेकर पुलिस तक बहुत से हिन्दुओं ने बलात्कार किया था, और उसे मार डाला था। जब इस मामले की सुनवाई हुई तो इस बच्ची की तरफ से खड़ी होने वाली एक हिन्दू महिला वकील का हिन्दू समाज ने जमकर विरोध किया था, और बहुत से वकीलों ने भी उसे धमकियां दी थीं, उसके खिलाफ प्रदर्शन हुए थे, क्योंकि प्रदर्शनकारियों को यह लग रहा था कि एक मुस्लिम खानाबदोश बच्ची से रेप, और उसके कत्ल के लिए इतने हिन्दुओं को सजा क्यों होनी चाहिए। लोगों को याद होगा कि इन प्रदर्शनकारियों में भाजपा के बड़े नेता भी शामिल थे, और देश का राष्ट्रीय झंडा लेकर जुलूस निकाले गए थे, जिनमें बड़ी संख्या में महिलाएं भी शामिल थीं, और भारत माता की जय सहित कई किस्म के हिन्दू धार्मिक नारे भी लगाए गए थे।
अब अगर चिदम्बरम के मुद्दे पर लौटें, तो देश के राजनीतिक दलों में ऊंचे ओहदों पर रहने वाले और सत्तासुख भोगने वाले बहुत से ऐसे वकील रहते हैं जिनके लड़े गए मुकदमे उनकी पार्टी के लिए असुविधा का सामान बनते हैं। कई मामलों में जहां देश मेें धार्मिक और साम्प्रदायिक भावनाओं का ध्रुवीकरण चलते रहता है, उनमें कांग्रेस के कुछ बड़े नेता-वकील जब अल्पसंख्यक तबकों के वकील बनते हैं, तो भी वकालत का उनका यह फैसला उनकी पार्टी के खिलाफ प्रचार में इस्तेमाल किया जाता है, यह साबित किया जाता है कि यह पार्टी बहुसंख्यक समाज के खिलाफ है। ऐसे बहुत से मामले पिछले बरसों में सुप्रीम कोर्ट में आए हैं जिनमें कांग्रेस से जुड़े हुए वकीलों ने गैरहिन्दुओं से जुड़े हुए मामले लड़े, और उन्हें लेकर कांग्रेस को हिन्दूविरोधी साबित करने की कोशिश हुई।
लोगों को याद होगा कि इमरजेंसी के बाद जब जनता पार्टी बनी, और उसमें दूसरे कई विपक्षी दलों के साथ-साथ जनसंघ का भी विलय हुआ था। इसके बाद जनता पार्टी की सरकार बनी, और वह चल रही थी कि पार्टी के भीतर यह मुद्दा उठा कि जिन लोगों की प्रतिबद्धता या संबद्धता आरएसएस के साथ है, वे लोग जनता पार्टी छोड़ दें। ऐसे में जनसंघ के नेताओं ने यह तय किया कि आरएसएस कोई राजनीतिक संगठन नहीं है कि इसे दोहरी सदस्यता माना जाए, और ऐसी बंदिश मानने से उन्होंने इंकार कर दिया। इसके बाद ये नेता जनता पार्टी से बाहर हुए, और वह सरकार कार्यकाल के बीच ही गिर गई।
हम यहां पर किसी राजनीतिक या गैरराजनीतिक संगठन की सदस्यता, या उसके प्रति प्रतिबद्धता को लेकर दोहरी सदस्यता वाली बात तो नहीं कह रहे हैं, लेकिन इतना जरूर सोच रहे हैं कि पार्टी के बड़े नेता रहे वकीलों को क्या अपने पेशे के अदालती मामले छांटते हुए पार्टी के सार्वजनिक हित, उसकी सोच, और उसके दीर्घकालीन फायदों के बारे में भी सोचना चाहिए? कुछ लोग इसे पेशे की व्यक्तिगत आजादी मानेंगे, और इसे छीनने की बात कहने पर पार्टी को ही छोड़ देने को बेहतर कहेंगे, ठीक वैसे ही जैसे कि जनसंघ के नेताओं ने जनता पार्टी छोड़ दी थी। सैद्धांतिक और वैचारिक प्रतिबद्धता का जब किसी पेशे से टकराव हो, तो लोगों को क्या तय करना चाहिए? अभी तक किसी राजनीतिक दल की ऐसी आचार संहिता सामने नहीं आई है जिसमें अपने सदस्य वकीलों के लिए ऐसी कोई सलाह लिखी गई हो, लेकिन क्या पार्टी के हित में बड़े वकील कुछ मामलों को छोड़ सकते हैं? कुछ किस्म के मामलों से परहेज कर सकते हैं? जो वकील जिंदा रहने की लड़ाई लड़ रहे हैं, वे तो किसी भी किस्म का मामला लडऩे के लिए आजाद होने चाहिए, लेकिन चिदम्बरम, कपिल सिब्बल, रविशंकर, जैसे करोड़पति वकीलों पर क्या वैचारिक प्रतिबद्धता को प्राथमिकता देने जैसी बात पार्टी लागू कर सकती है, या वे खुद इसे मान सकते हैं?
इस बारे में कोई बात सुझाना आज यहां का मकसद नहीं है, लेकिन इस चर्चा को छेडऩा मकसद जरूर है क्योंकि इससे लोगों के बीच इस बारे में बात होगी। मुम्बई की कोई एक्ट्रेस कैसे कपड़े पहन रही है, या नहीं पहन रही है, उस पर बहस के बजाय इस मुद्दे पर बहस होना बेहतर होगा। लोगों को पेशे की अपनी आजादी, और अपने संगठन के प्रति वैचारिक प्रतिबद्धता के बीच खींचतान होने पर क्या करना चाहिए, इस पर लोगों को सोच-विचार जरूर करना चाहिए।
ब्रिटेन की सत्तारूढ़ कंजरवेटिव पार्टी के एक सांसद नील पेरिश को एक संसदीय जांच का सामना करना पड़ रहा था जिसमें उनके खिलाफ दूसरी महिला सांसदों की यह शिकायत थी कि वे संसद की कार्रवाई के दौरान अपनी सीट पर बैठे हुए मोबाइल फोन पर पोर्नोग्राफी देख रहे थे। अब जब संसद की जांच आगे बढ़ रही थी, और उनसे अधिक बारीक सवाल-जवाब अधिक खुलासे से होने जा रहे थे, तो उन्होंने यह कहते हुए इस्तीफा दे दिया कि उन्होंने एक क्षणिक पागलपन (मूमेंट ऑफ मैडनेस) में यह गलत काम किया था। और उन्होंने यह भी मंजूर किया कि एक बार ऐसा करने के बाद दूसरे बार फिर वैसा ही करना उनकी जिंदगी की सबसे बड़ी गलती थी। उन्होंने कहा कि पहली बार तो यह एक हादसा था, लेकिन दूसरी बार यह अक्षम्य अपराध था।
65 बरस के इस निर्वाचित संसद सदस्य को पार्टी ने इन आरोपों के सामने आने के बाद निलंबित कर दिया था, और 12 बरस का उनका संसदीय जीवन खतरे में पड़ गया था। पार्टी ने उनके इस्तीफे का स्वागत किया है।
ब्रिटिश पार्लियामेंट तरह-तरह के विवादों का सामना कर रही है। अभी कुछ ही हफ्ते हुए हैं जब ब्रिटिश पुलिस ने अपनी जांच में यह पाया कि प्रधानमंत्री निवास पर पीएम बोरिस जॉनसन का जन्मदिन मनाते हुए उन्होंने खुद और उनके साथियों ने कोरोना-लॉकडाउन के प्रतिबंध तोड़े थे, और पुलिस ने इस पर इन सब पर जुर्माना भी लगाया है। इस मुद्दे को लेकर भी प्रधानमंत्री से इस्तीफे की मांग की जा रही थी। इसके बाद वित्तमंत्री, भारतवंशीय ऋषि सुनाक पर यह आरोप लगा कि उनकी पत्नी गैरब्रिटिश नागरिक के रूप में अपनी कमाई दूसरे देशों में बताकर ब्रिटेन में टैक्स बचा रही है, और यह ब्रिटेन का नुकसान है। यह विवाद आगे बढ़ा तो उनकी पत्नी अक्षता मूर्ति ने बिना रियायत पूरा टैक्स खुद होकर पटाने की घोषणा की। उनकी यह ‘कानूनी’ टैक्स बचत पति ऋषि सुनाक के मंत्री दर्जे के लिए भी असुविधा की थी, और दूसरी तरफ भारत में सबसे अधिक साख वाले कारोबारी, उनके पिता नारायण मूर्ति के लिए भी अप्रिय थी जो कि किसी भी विवाद से परे रहते हैं। ऋषि सुनाक ने अपने खुद के अमरीकी रिश्तों को लेकर एक विवाद खड़ा होने पर उसकी जांच की मांग खुद होकर प्रधानमंत्री से की है।
एक दूसरा मामला जो अधिक विवादास्पद है वह संसद में विपक्ष की उपनेता एंजेला रेयनर को लेकर है जिन पर ऐसे आरोप लगाए गए हैं कि वे प्रधानमंत्री के भाषण के दौरान ठीक सामने दूसरी तरफ बैठे हुए अपने पैरों को एक के ऊपर एक चढ़ाते और हटाते हुए अपनी टांगों की तरफ प्रधानमंत्री का ध्यान खींचकर उन्हें विचलित करने की कोशिश ठीक उसी तरह करती हैं जिस तरह एक अमरीकी फिल्म बेसिक इंस्टिंक्ट में एक अभिनेत्री का विख्यात सीन है। इस बात को कई लोगों ने ब्रिटिश संसद में महिलाओं के लिए अपमानजनक भी माना, और जिस अखबार डेली मेल ने ऐसी रिपोर्ट छापी थी उसे संसद ने नोटिस भेजकर बयान देने बुलाया भी है। यह अलग बात है कि अखबार ने संसद के इस नोटिस पर जाने से इंकार कर दिया है, लेकिन ब्रिटिश संसद में महिला की टांगों के ऐसे कथित इस्तेमाल का एक विवाद खड़ा तो हुआ ही है।
अब जिस ब्रिटिश संसद की तर्ज पर हिन्दुस्तानी संसद काम करती है, वहां के निर्वाचित सदन की सीटों के रंग की सीटें हिन्दुस्तानी निर्वाचित सदन, लोकसभा में है, और ब्रिटिश मनोनीत सदन की सीटों के रंग की सीटें हिन्दुस्तानी उच्च सदन, राज्यसभा में है। जहां बड़ी छोटी-छोटी सी बातों की नकल की गई है, वहां पर एक बात का बड़ा फर्क है। प्रधानमंत्री निवास पर वहां पर उस वक्त काम कर रहे लोगों के बीच केक कटना भी पुलिस जांच का मुद्दा हो गया, और प्रधानमंत्री सहित उनके सहकर्मियों पर जुर्माना ठोंका गया। क्या हिन्दुस्तान में कोई प्रधानमंत्री, या किसी प्रदेश के मुख्यमंत्री के बारे में यह कल्पना भी की जा सकती है, कि उनकी कोई मामूली सी जांच भी ऐसी शिकायतों पर हो सकती है? आमतौर पर तो हिन्दुस्तान में पुलिस से यही उम्मीद की जाती है कि पीएम हाऊस से लेकर सीएम हाऊस तक अगर किसी लाश को ठिकाने लगाना हो तो वफादार पुलिस उसमें हाथ बंटाएगी। भारत में ही एक प्रदेश की विधानसभा में ढेर से विधायक पोर्नो देखते मिले थे, और सब अपनी जगह पर कायम हैं। यह तो संसद में सवाल पूछने को लेकर रिश्वत लेते हुए लोग स्टिंग ऑपरेशन के कैमरों पर कैद थे, इसलिए कुछ सांसदों की सदस्यता गई, वरना भारतीय संसद और विधानसभाओं में किसी सदस्य के खिलाफ कोई कार्रवाई होते किसी को याद नहीं। और यह भी कि नैतिक आधार पर इस्तीफे वाली परंपरा को हिन्दुस्तानी लोग ब्रिटिश संसद से लाए जरूर थे, लेकिन बाद के दशकों में हिन्दुस्तानी संसदीय व्यवस्था ने ऐसी परंपरा को देशद्रोही करार देकर देश निकाला दे दिया था।
आज जब दुनिया के सभ्य लोकतंत्रों में नैतिकता के पैमाने बढ़ते जा रहे हैं, उन पर अमल बढ़ते जा रहा है, तब भारतीय राजनीति नैतिकता से पूरी तरह आजाद हो चुकी है। लोकतंत्र की इस नाजायज औलाद से तकरीबन तमाम पार्टियों और तकरीबन तमाम सदनों ने छुटकारा पा लिया है, किसी ने इसे पास के घूरे पर फेंक दिया है, किसी ने इसे करीब के गटर में डाल दिया है। यह सिलसिला भारतीय संसदीय राजनीति को स्तरहीन और घटिया बनाते चल रहा है। और जहां तक घटियापन का सवाल है, उसमें हमेशा ही और नीचे गिरने की गुंजाइश रहती है, और वह गिरना अभी जारी है।
ब्रिटिश संसद के इन ताजा विवादों को देखें, तो वे अपने आपमें खराब हैं, लेकिन संसदीय व्यवस्था और राजनैतिक नैतिकता का हाल यह है कि वे इनमें से किसी भी मुद्दे को दबा-छुपाकर नहीं रख रहे हैं, बल्कि उनसे जूझ रहे हैं, उन्हें मंजूर कर रहे हैं, और सुधार की कोशिश कर रहे हैं। जब तक इंसान रहेंगे, तब तक गलतियां और गलत काम दोनों ही होते रहेंगे, इंसान के बेहतर बनने का सुबूत यही होता है कि वे किस तरह अपनी गलतियों और गलत कामों से उबरते हैं। हिन्दुस्तानी लोग अपने-अपने प्रदेशों और पूरे देश के विधायकों और सांसदों से जुड़े हुए विवाद याद करके देखें कि उन पर उन नेताओं, और उनकी पार्टियों का क्या रूख रहा। किसी देश का संसदीय विकास 20 हजार करोड़ के नए संसद परिसर से नहीं होता है, बल्कि संसदीय परंपराओं के अधिक गरिमामय होने, और अधिक लोकतांत्रिक होने से होता है। बहस के बजाय बहुमत के ध्वनिमत की गूंज को संभालने के लिए 20 हजार करोड़ की छत कुछ महंगी नहीं है?
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जब अमिताभ बच्चन की शुरुआती कुछ फिल्में आईं तो उनमें अमिताभ के किरदार देखकर मीडिया ने उन्हें एंग्री यंग मैन का लेबल लगा दिया, और फिर वह उनके साथ लंबे समय तक चलते रहा। किसी को स्वप्नसुंदरी कहा गया, किसी को चॉकलेटी हीरो, और किसी को कुछ और। मानो बिना लेबल लगाए काम नहीं चलता। ऐसा राजनीति में भी बहुत होता है, जैसे ही कोई मजबूत सत्ता पर काबिज हो जाते हैं, वे युवा हृदय सम्राट हो जाते हैं। ऐसे सम्राट शहर-शहर देखने-सुनने मिलते हैं, फिर इनमें से कोई हमलावर हिन्दुत्व का झंडा बरदार हो, तो उसे हिन्दू युवा हृदय सम्राट का खिताब मिल जाता है। और भी नेता तरह-तरह से ऐसे जुमले खुद उछालते हैं, या मीडिया उनके बारे में उनका इस्तेमाल करने लगता है। अभी छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल खुद अपने बारे में स्टेज से एक जुमला कहने लगे हैं- कका अभी जिंदा हे...। अब इसे सुनकर राजधानी रायपुर में एक बड़ी सी कार ने अपने पिछले शीशे पर प्रेस के साथ-साथ कका अभी जिंदा हे भी लिखवा लिया है। अब प्रेस और मुख्यमंत्री के नारे का भला क्या जोड़ हो सकता है?
खैर, मीडिया का खुद का काम जुमलों का मोहताज हो गया है। हिन्दुस्तान के हिन्दी समाचार चैनल देखें तो ऐसा लगता है कि उत्तर कोरिया के तानाशाह से लेकर मंगल ग्रह के अंतरिक्ष निवासियों तक हर कोई मोदी से कांपते हैं, और पुतिन से लेकर बाइडन तक मोदी से फोन पर सलाह करके ही कोई फैसले लेते हैं। पाकिस्तान हर दो-चार दिन में मोदी के नाम से कांपने लगता है, और चीन के छक्के छूटते ही रहते हैं, फिर भले ही वह हिन्दुस्तानी जमीन पर काबिज भी हो, और इस बारे में मोदी ने आज तक उसका नाम भी न लिया हो। जब मीडिया के पास तथ्य नहीं रह जाते, तब विशेषणों से काम चलाना एक बड़ा आसान जरिया रहता है, और इसी के चलते हुए मीडिया तरह-तरह के जुमले गढ़ लेता है, और फिर बच्चों की ड्राइंग की किताब की तरह उन जुमलों में रंग भरते रहता है।
सरकार और सत्तारूढ़ पार्टी की तो यह जिम्मेदारी रहती है कि सरकार किसी इलाके में किसी योजना की मंजूरी दे, तो उसे उस इलाके के लिए सौगात लिखा जाए ताकि सत्तारूढ़ नेता और पार्टी को वाहवाही मिले। लेकिन जब मीडिया इसी पर उतारू हो जाता है, और आम सरकारी योजनाओं की मंजूरी को किसी इलाके को मुख्यमंत्री की दी गई सौगात की तरह पेश किया जाता है, तो ऐसे मीडिया को पढऩे और देखने वाले लोग भी धीरे-धीरे ऐसी सामंती सोच का शिकार हो जाते हैं, और वे भी अपना हक मिलने के बजाय अपने को सौगात मिलने की जुबान में सोचने लगते हैं। धीरे-धीरे यह सौगाती सोच और आगे बढ़ते चलती है, और फिर सत्ता और जनता के बीच खैराती रिश्ता होने लगता है, मानो जनता के पैसों से उसे हक मिलना कोई खैरात है।
लेकिन मीडिया के जुमले गढऩे और उन्हें रात-दिन दुहराने का कोई अंत नहीं रहता। और कोई जुमले सामंती सोच बतलाते हैं, कोई बताते हैं कि मीडिया की सामाजिक समझ शून्य है, या उसके भी नीचे गिरकर नकारात्मक है। बलात्कार की खबर में पूरे ही वक्त छपते रहता है कि किसी लडक़ी की आबरू लूट ली गई, किसी महिला की इज्जत लुट गई। अब सवाल यह है कि बलात्कार जैसा जुर्म करने वाला इंसान अपनी इज्जत नहीं खोता, और उसके जुर्म की शिकार लडक़ी या महिला अपनी इज्जत खो बैठती है! यह सोच एक सामाजिक इंसाफ की समझ से पूरी तरह आजाद है, और जो धीरे-धीरे लोगों को यह बताने लगती है कि बलात्कार की शिकार महिला इज्जत खो चुकी है, और अब वह किसी इज्जत के लायक नहीं है, अब उसकी कोई इज्जत नहीं है। किसी बलात्कारी के बारे में लोग इस भाषा में बात नहीं करते कि इस जुर्म को करके वह अपनी इज्जत खो चुका है, अपने परिवार की इज्जत खो चुका है।
रोजाना ही कई खबरों में छपता है कि बेरहमी से हत्या कर दी गई। हत्या की खबर अपने आपमें सब कुछ बतला देती है। किसने, किसे, किस तरह, कहां पर, और क्यों मारा, आमतौर पर ये बातें हत्या के तुरंत बाद की खबर में, या मुजरिम की शिनाख्त होने पर आ जाती हैं। लेकिन इतने किस्म के विशेषण मीडिया ऐसी खबर में जोड़ देता है कि यह सोचने पर मजबूर होना पड़ता है कि अगर यह हत्या बेरहम थी, अमानवीय तरीके से थी, तो क्या रहमदिली और मानवीय तरीके से भी कोई हत्या हो सकती है?
भाषा से परे मीडिया की लोकतांत्रिक सोच भी कमजोर रहती है, और सत्ता के लगातार करीब रहते हुए मीडिया आदतन सत्ता के चारण और भाट की तरह काम करने लगती है। नेताओं और अफसरों की छोटी-छोटी सी फूहड़ बातों को महान जानकारी की तरह पेश करके मीडिया का कम से कम एक हिस्सा ताकतवर कुर्सियों पर बैठे ऐसे लोगों की बददिमागी बढ़ाते चलता है, और इसके लिए भी ऐसी भाषा का इस्तेमाल होता है जिससे लोगों की लोकतांत्रिक चेतना कमजोर होती चले। किसी बड़े नेता या बड़े अफसर ने खुद उठकर एक गिलास पानी ले लिया हो तो उसे विनम्रता की प्रतिमूर्ति करार देते हुए मीडिया उनके पैर आसमान पर ही रखता है। ऐसे में कोई हैरानी की बात नहीं रहती कि चापलूस मीडिया के चढ़ाए हुए ताकतवर ओहदों के लोग लगातार चने के झाड़ पर चढ़े रहते हैं, और वहां से उन्हें नीचे की धरती के लोग बड़े छोटे-छोटे दिखते हैं। नेताओं को खुद लगे या न लगे, चापलूस मीडिया उन्हें यह अहसास कराते रहता है कि वे कितने महत्वपूर्ण हैं, उनकी मामूली और गैरजरूरी जानकारी को मिनट-टू-मिनट कार्यक्रम की जुबान में पेश किया जाता है, मानो उनके कार्यक्रम न हों, बल्कि इसरो का रॉकेट छूटने वाला हो। उनकी सुरक्षा में थोड़ी सी कमी रहे तो चापलूस मीडिया बवाल खड़ा कर देता है कि वीआईपी सुरक्षा में बड़ी सेंध लगी, प्रोटोकॉल टूटा।
मीडिया में जिनके पास न जानकारी रहती, न तथ्य रहते, न किसी विश्लेषण की समझ रहती, उनके लिए यह बड़ा आसान रहता है कि वे जुमलों की आड़ में अपने अज्ञान को छुपा लें, और तरह-तरह की चापलूसी से सत्ता का घरोबा पा लें। इस चक्कर में जिला स्तर के पत्रकार किसी कलेक्टर के आने पर उसके इंटरव्यू को टूट पड़ते हैं, और उसके बाद सुर्खी लगती है- नये कलेक्टर ने अपनी प्राथमिकताएं गिनाईं।
क्या सचमुच ही कोई अफसर अपनी प्राथमिकताएं तय करने का हक रखते हैं? प्राथमिकताएं तय करना तो निर्वाचित सरकार का काम होता है, जो लोग चुनकर आते हैं, और बहुमत से सत्ता पर पहुंचते हैं, वे प्राथमिकताएं तय करते हैं। अफसरों का काम तो सिर्फ उन पर अमल करना और करवाना रहता है। लेकिन मीडिया चापलूसी की अपनी आदत के चलते हुए थानेदार तक की प्राथमिकताएं पूछने लगता है, और फिर उनके भी पांव जमीन पर पडऩा बंद हो जाता है।
सत्ता से परे भी मीडिया के जुमले खत्म नहीं होते हैं। दो बालिग युवक-युवती अगर शादी करने बाहर चले जाते हैं ताकि उनके परिवार अड़ंगा न डाल सकें, तो ऐसी खबरों में आमतौर पर लिखा जाता है कि लडक़ी घर छोडक़र भागी। घर छोडक़र जाने का फैसला दोनों अलग-अलग लेते हैं, और युवती भी अपना घर छोडक़र जाती है, लेकिन उसके जाने को भागना कहा जाता है, और युवक के जाने को जाना। मीडिया में काम करने वाले अधिकतर लोगों की औरत-मर्द की समानता की समझ कहावत और मुहावरे गढ़े जाने के युग की रहती है जिसमें औरत के लिए हजार किस्म की गालियां गढ़ी जाती हैं, दलितों को दुत्कार के लायक माना जाता है, दूसरे धर्मों के लोग म्लेच्छ गिने जाते हैं, और मनुवादी जाति व्यवस्था राज करती है। ऐसी सोच जब जुमलेबाजी के साथ मिलकर काम करती है, तो मीडिया की जुबान लोकतंत्र शुरू होने के भी पहले के दौर में चली जाती है। अपनी-अपनी जिंदगी में रोज अखबार पलटते, या पलटे न जा सकने वाले टीवी न्यूज बुलेटिन देखते हुए सोचें कि उनमें समाचारों के नाम पर कौन सा सामाजिक अन्याय परोसा जा रहा है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
इंटरनेट पर कांग्रेस सांसद शशि थरूर का एक वीडियो मौजूद है जिसमें वे ब्रिटेन के एक सबसे बड़े विश्वविद्यालय में एक विषय पर वाद-विवाद करते दिख रहे हैं। उन्होंने ऑक्सपोर्ड विश्वविद्यालय के एक मशहूर वाद-विवाद में अपने इस तर्क को सामने रखा कि ब्रिटिश राज में किस तरह भारतीय अर्थव्यवस्था को चौपट किया। यह बहस 2015 में ऑक्सपोर्ड में हुई थी, जिसकी एक पुरानी गौरवशाली परंपरा है। लेकिन इस ब्रिटिश विश्वविद्यालय की बहस की इस गौरवशाली परंपरा वाला गौरव हिन्दुस्तान के ब्रिटिश राज में नहीं था, और अंग्रेजों ने सोच-समझकर भारत का औद्योगिकीकरण रोका और तबाह किया था ताकि भारत ब्रिटिश कारखानों के सामानों का मोहताज रहे। इस बहस के अपने तर्कों को आगे बढ़ाते हुए थरूर ने एक किताब भी लिखी जिसे अंग्रेजी राज की कटु आलोचना कहा जा सकता है।
लेकिन उस 2015 की बहस पर लिखना आज का मकसद नहीं है। अभी इसी पखवाड़े एक मेडिकल अध्ययन का नतीजा सामने रखा गया है जिसका मानना है कि आज के हिन्दुस्तानी, बांग्लादेशी, और पाकिस्तानी, डायबिटीज का अधिक खतरा रखते हैं, और इसका जिम्मेदार इस इलाके पर रहा ब्रिटिश राज है। इतिहास बताता है कि ईस्ट इंडिया कंपनी और ब्रिटिश राज के दौरान इन तीनों देशों के लोगों को इतने अधिक अकालों का सामना करना पड़ा कि लोगों के बदन भूख का शिकार हो-होकर डीएनए या जींस में ऐसा फेरबदल करते चले गए कि आने वाली पीढिय़ों को जब जो खाने मिला, उन्होंने खाना शुरू कर दिया कि पता नहीं कब खाना मिलना बंद हो जाए।
एक रिपोर्ट बतलाती है कि भारतीय उपमहाद्वीप ने ईस्ट इंडिया कंपनी और अंग्रेजी राज के शासन में 31 अकाल झेले, जिनमें से अकेले बंगाल के अकाल में 30 लाख लोग भूख से मारे गए थे। आज पश्चिम के एक बड़े विश्वविद्यालय के अध्ययन का नतीजा बतला रहा है कि दक्षिण एशिया के लोगों को डायबिटीज का खतरा बाकी दुनिया के मुकाबले 6 गुना अधिक है। यह अध्ययन बताता है कि भूख से मौत तक पहुंचते हुए ऐसे बदन अगली पीढ़ी तक जो जींस दे जाते हैं, वे जींस एक भूखे इंसान को बनाते हैं जो कि खाने को कुछ मिलते ही पेट भर लेने के चक्कर में रहते हैं। नतीजा यह होता है कि अमरीकियों के मुकाबले बहुत कम खाने वाले हिन्दुस्तानी भी बिना वजन अधिक हुए डायबिटीज के शिकार अधिक होते हैं। वैज्ञानिकों का यह निष्कर्ष है कि अविभाजित भारत के इन तीनों देशों की आबादी का बदन अपने भीतर चर्बी को बचाए रखता है, जमा करते रहता है कि जाने कब भूखे रहने की नौबत आ जाए, और उस वक्त यही चर्बी बदन को कुछ वक्त चलाने के काम आएगी, और इसी का एक नतीजा यह है कि लोग डायबिटीज के शिकार होते हैं।
हिन्दुस्तान के जो लोग आज भी अंग्रेजों की छोड़ी गई सामंती प्रथा को पोशाक और खानपान में, सामाजिक रीति-रिवाजों में ढो रहे हैं, उन्हें यह याद रखना चाहिए कि जिस गोरी नस्ल की छोड़ी गई ऐसी गंदगी का टोकरा वे सिर पर ढोते हैं, उस गोरी सरकार ने इन देशों की आबादी को पीढ़ी-दर-पीढ़ी तबाह करके छोड़ा है।
लेकिन इस मामले पर भी हम आज बात को खत्म करना नहीं चाहते हैं। आज की दूसरी खबर यह है कि दुनिया की डबलरोटी की टोकरी कही जाने वाला यूक्रेन आज रूसी हमले के बाद एक जंग में फंसकर अनाज बाहर भेजने का अपना कारोबार खो बैठा है, और बाजार में अनाज की कीमतें कई गुना बढ़ चुकी हैं। गेहूं और मक्का जैसे अनाज यूक्रेन और रूस से ही सबसे अधिक निर्यात होते हैं, और आज वहां से कारोबार बंद हो चुका है। इसका जो असर यूक्रेन पर पडऩा है वह तो अलग है, लेकिन दुनिया से बहुत से भूखे देशों में यूक्रेन से आया हुआ अनाज जाता था, जो कि आज अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों को भी नहीं मिल रहा है। नतीजा यह है कि अफ्रीका के गरीब और भूखे, कुपोषण के शिकार देशों में अंतरराष्ट्रीय मदद से दिया जाने वाला अनाज भूखों तक आधा दिया जा रहा है। जो पहले से कुपोषण के शिकार थे, उन्हें मिलने वाला अनाज अब आधा हो गया है, और आगे जाकर यह कितना मिल पाएगा इसका कोई ठिकाना नहीं है क्योंकि रूस को कमजोर करने की नीयत से पश्चिमी देश यूक्रेन को किस हद तक हथियार देते रहेंगे इसका कोई ठिकाना नहीं है, और इन हथियारों के चलते यूक्रेन कब तक रूस के सामने डटा रहेगा, इसका भी कोई ठिकाना नहीं है। नतीजा यह है कि जब तक रूस के हमले के सामने यूक्रेन को डटाए रखा जा सकता है, तब तक पश्चिम अपनी जेब खाली करके भी रूस को कमजोर करना जारी रखेंगे, फिर चाहे इसके लिए यूक्रेन के आखिरी नागरिक का खून भी बह जाए।
यह बड़ी अजीब बात है कि दुनिया में भूख और रंग का इतना गहरा रिश्ता दिखता है। अफ्रीका के जो देश सबसे अधिक काले लोगों के हैं, वे भूख और कुपोषण के सबसे बुरे शिकार भी हैं। हिन्दुस्तान में भी अगर देखें तो अधिक गरीब लोग अधिक काले रंगों के हैं। अब दुनिया के और मानव जाति के इतिहास के अधिक जानकार लोग शायद इस बात को बेहतर जानते हों कि इंसानों के बदन के रंग का उनकी गरीबी से क्या इस तरह का कोई रिश्ता सचमुच ही है, या फिर आज हमें ही सदियों से अकाल के शिकार चले आ रहे देशों के काले लोगों को देख-देखकर यह बात सूझ रही है?
ये बातें टुकड़ा-टुकड़ा हैं, लेकिन जब कभी दुनिया का इतिहास लिखा जाएगा तो उसमें इन्हें जोडक़र शायद ही लिखा जाएगा, जंग को लेकर मौतों के आंकड़े अलग लिखे जाएंगे, और भूख से, कुपोषण से मौतों के आंकड़े अलग लिखे जाएंगे। लेकिन अविभाजित हिन्दुस्तान पर विदेशी हमलों की वजह से, और विदेशी हुकूमत के मातहत जीते हुए जिस तरह दसियों लाख लोग भूख से मरे, और उनके बाद दसियों करोड़ लोग पुरखों की उस भूख के चलते डायबिटीज के शिकार पीढ़ी-दर-पीढ़ी होते चल रहे हैं, उसका रिश्ता कम ही लोग कायम करेंगे। आज यूक्रेन या रूस से अनाज बाहर न निकलने की वजह से यमन, इथोपिया जैसे बहुत से देशों में अनाज की सप्लाई बहुत बुरी तरह गिरी है, और इसी अनुपात में वहां पर इंसानों की सांसें भी गिरेंगी। जंग से मौतों के साथ इन मौतों को भी जोडक़र देखने की जरूरत है, और जंग की लागत गिनते हुए भुखमरी से मौतों की इन इंसानी जिंदगियों की कीमत भी जोडऩा चाहिए।
ब्रिटिश राजघराने के राजकुमार प्रिंस हैरी और उनकी गैर गोरी पत्नी मेगन मार्कल ने जब राजघराने से अलग होने की घोषणा की, जब ब्रिटेन से बाहर जाकर अमरीका में बसने की घोषणा की, अपनी राजकीय उपाधियां लौटा दीं, तो वे लोगों को कुछ अलग लगे थे। किसी ने ऐसा सोचा नहीं था कि शाही शान-शौकत को छोडक़र कोई महज संपन्न और आम इंसान की तरह दूसरे देश में जाकर रहना पसंद करेंगे, लेकिन उन्होंने ऐसा कर दिखाया। वैसे भी यह शादी अपने आपमें अटपटी थी क्योंकि मेगन मार्कल पहले एक बार शादीशुदा रह चुकी थीं, और अश्वेत भी थीं, ये दोनों बातें ब्रिटेन की शाही परंपराओं के साथ माकूल नहीं बैठती थीं। लेकिन इस शाही जोड़े ने और भी कई बातों में आम लोगों की तरह रहना तय किया था, और अपनी संपन्न जिंदगी के बावजूद वे राजघराने की सामंती जिंदगी से परे अमरीका के कैलिफोर्निया में रह रहे हैं। लेकिन अभी एक ऐसी बात हुई जिससे इनके गैरसामंती मिजाज पर एक सवाल उठ खड़ा हुआ है।
मेगन मार्कल ने अभी अमरीकी सरकार में एक अर्जी दी है कि वे अपने पॉडकास्ट के लिए आर्कटाइप (Archetypes) नाम छांट रही हैं, और इस शब्द का इस्तेमाल और लोगों के लिए प्रतिबंधित किया जाए। इस शब्द का मतलब दुनिया भर में समझा जाने वाला एक ऐसा प्रतीक या शब्द, या ऐसा बर्ताव होता है जिसकी कि और लोग नकल करते हैं। यह शब्द आमतौर पर पौराणिक कथाओं से निकली मिसालों में इस्तेमाल होता है। अब मेगन मार्कल ने अपने ऑडियो प्रसारण के पॉडकास्ट के लिए यह नाम छांटा है जो कि प्राचीन ग्रीक भाषा से आया हुआ है, और अंग्रेजी में सन् 1540 से जिसके इस्तेमाल का रिकॉर्ड मिलता है। अब मेगन की अर्जी के मुताबिक बाकी तमाम लोगों को इस शब्द का इस्तेमाल करने से रोका जाए, और इसका ट्रेड मार्क अधिकार उसे दिया जाए।
अमरीका की कारोबारी दुनिया में इस किस्म के कानूनी दावे और उनको मिलने वाली चुनौतियां बहुत आम बात है। लेकिन आर्कटाइप शब्द तो कई दूसरी अमरीकी कंपनियों के नाम में है, उनके सामानों के नाम में है। कुछ कंपनियों के ट्रेडमार्क में यह शब्द पहले से चले आ रहा है, और उनका यह हक बनता है कि वे मेगन मार्कल की इस अर्जी को चुनौती दें। इस बात की जिक्र करने का आज का मकसद महज यह है कि जो नौजवान जोड़ा एक तरफ तो सामंती जिंदगी से बाहर आ चुका है, और दूसरी ओर सैकड़ों बरस से प्रचलन में चले आ रहे एक आम शब्द पर इस तरह का दावा करना कुछ ऐसा ही है कि मानो हिन्दुस्तान में कोई खट्टा-मीठा नमकीन नाम का एक ब्रांड उतार दे, और फिर ऐसे पेटेंट का दावा करे कि कोई और प्रोडक्ट खट्टा-मीठा या नमकीन शब्द का इस्तेमाल न कर सकें।
राजघराने की शान-शौकत से अपने आपको अलग कर लेना भी कोई छोटी बात नहीं थी। दुनिया का सबसे पुराना और सबसे बड़ा राजघराना, उसके परंपरागत ओहदों के साथ इतनी अहमियत जुड़ी हुई है कि उन्हें छोडऩा शायद ही किसी के बस का रहता हो। फिर भी प्रिंस हैरी और मेगन मार्कल ने ऐसा कर दिखाया। लेकिन उनका यह नया दुराग्रह उनके कारोबारी हितों के हिसाब से तो ठीक है क्योंकि अपनी ऑडियो रिकॉर्डिंग को इंटरनेट पर पॉडकास्ट की शक्ल में देने के एवज में इस भूतपूर्व शाही जोड़े को सैकड़ों करोड़ रूपए मिलने जा रहे हैं। इसके लिए जो कारोबारी अनुबंध हुआ है, किसी आवाज के लिए उतना बड़ा अनुबंध कभी हुआ नहीं था। ऐसे में इनका मैनेजमेंट देखने वाले एजेंट तो ऐसा जरूर चाहेंगे कि इनके कार्यक्रम का जो नाम है, उस नाम का इस्तेमाल कोई और न करे, लेकिन जब उसमें हैरी-मेगन की सहमति हो जाती है, तो फिर यह सवाल भी उठता है कि एकाधिकार की ऐसी सामंती चाह क्या जायज है? सैकड़ों बरस से अंग्रेजी भाषा में जो शब्द बना हुआ है, उस शब्द के इस्तेमाल पर इस किस्म के एकाधिकार की सोच भी नाजायज है। हर देश में नामों के इस्तेमाल को लेकर तरह-तरह के रजिस्ट्रेशन होते हैं, अखबारों और पत्रिकाओं के नाम, टीवी चैनलों और वेबसाइटों के नाम अलग-अलग रजिस्टर होते हैं। लेकिन ऐसा कहीं नहीं होता कि किसी एक प्रचलित आम शब्द को लेकर हर किस्म का रजिस्ट्रेशन किसी एक के नाम कर दिया जाए। खासकर तब जबकि उस नाम से पहले ही कुछ कंपनियां चल रही हैं, और कुछ प्रोडक्ट उस नाम से बाजार में हैं।
आज दुनिया का कारोबार इस किस्म की बहुत सी तिकड़मों का रहता है। अमरीका में जहां पर कानून का पालन बड़ा कड़ा है, वहां पर बड़ी-बड़ी कंपनियों को भी अपनी छोटी-छोटी टेक्नालॉजी, डिजाइन, और सामान को लेकर पेटेंट दफ्तर जाना पड़ता है, और जरा-जरा सी चीज का पेटेंट करवाना पड़ता है। चूंकि वहां पर इस कानून को तोडऩे पर बड़े लंबे जुर्माने का नियम है, इसलिए लोग इसे तोडऩे से बचते हैं, और इसीलिए लोग तरह-तरह के पेटेंट करवाने में भी लगे रहते हैं ताकि उससे होने वाला हर किस्म का कारोबारी फायदा उन्हें अकेले ही मिले। लेकिन सैकड़ों बरस पुराने आम प्रचलन के एक शब्द पर कारोबारी एकाधिकार कुछ अधिक ही सामंती मांग है, और इससे यह भी तय होगा कि अमरीका का कानून ऐसे दूसरे मामलों में भी क्या रूख रखेगा।
चिकित्सा वैज्ञानिकों ने यह पाया है कि लोग बाहर से जो जूते-चप्पल पहनकर आते हैं, अगर उन्हें पहनकर वे घर भर में घूमते रहते हैं तो घर में बीमारियां आने का खतरा अधिक रहता है। बाहर सडक़ें और सार्वजनिक जगहें आमतौर पर साफ नहीं रहती हैं, और जूते-चप्पल के साथ कई किस्म की गंदगी आती है, जो कि घरों में किसी और तरह से नहीं आ सकती है। इसलिए कई किस्म के कीटाणु और रोगाणु घर में लेकर आने का काम जूते-चप्पलों से होता है। इसलिए न सिर्फ हिन्दुस्तान के परंपरागत रीति-रिवाजों में, बल्कि जापान, चीन, और रूस जैसे बहुत से देशों में भी जूते-चप्पल बाहर उतारने का रिवाज है, फिर लोग चाहें तो घरों के भीतर के लिए अलग रखी हुई चप्पलें पहन लें। हिन्दुस्तान में कई दुकानों और दफ्तरों में भी ऐसा लागू किया जाता है, बाहर नोटिस लगा दिया जाता है कि जूते-चप्पल बाहर उतारें, लेकिन जूते या सैंडल खोलते हुए उनमें लगने वाले हाथ धोने का इंतजाम शायद ही कहीं रहता है, मंदिरों तक में नहीं रहता है, और लोग ऐसे गंदे हाथों से ही भीतर जाते हैं, कहीं फूल चढ़ाते हैं, कहीं प्रसाद पाते हैं, या किसी के घर-दुकान में सामने परोसे गए नाश्ते को उन्हीं हाथों से खाते हैं। कुल मिलाकर मतलब यह है कि अगर जूते-चप्पल बाहर उतरवाने हों, तो उन्हें उतारने-पहनने के बाद हाथ धोने का कोई इंतजाम होना चाहिए, वरना वह न उतारने से भी अधिक नुकसानदेह हो सकता है।
भारत में भी अब शहरीकरण और संपन्नता बढऩे के साथ-साथ लोग घर के कालीन पर भी लोगों का जूतों सहित आना उनके गर्मजोशी से स्वागत का एक हिस्सा मानते हैं। फिर चाहे ऐसा कालीन महीनों तक साफ न होता हो, और जूतों की लाई गंदगी उनमें समाई रहे। लोगों को धार्मिक भावना से नहीं, सेहत की भावना से यह ध्यान रखना चाहिए क्योंकि अभी तो पिछले दो बरस से कोरोना की मार चल रही है, और आने वाले बरसों में हो सकता है कि गंदगी से फैलने वाली बीमारियां फैलने लगें, और उस दिन जूते-चप्पल की आदत बड़ा नुकसान कर जाए।
इस छोटी सी बात पर लिखने की जरूरत इसलिए लग रही है कि आज जिंदगी में बीमारियों का खतरा और इलाज का खर्च जिस रफ्तार से बढ़ते चल रहे हैं उन्हें देखते हुए बचाव ही अधिकतर लोगों के लिए अकेला इलाज हो सकता है। लोगों को रोज की जिंदगी में साफ-सफाई, सेहतमंद बने रहने के आसान प्राकृतिक तरीके, खानपान की सावधानी, तनावमुक्त जिंदगी जैसी कई बातों का ध्यान रखना चाहिए ताकि वे कम बीमार पड़ें, और इलाज की नौबत न आए। आज भी हम अपने आसपास के लोगों को देखें तो किसी भी उम्र के लोगों को जितने किस्म की महंगी बीमारियां हो रही हैं, उनका खर्च कितना होता होगा, उनके काम का कितना हर्ज होता होगा, इसका अंदाज बाकी लोगों को हिला सकता है।
दुनिया के दो विकसित देशों में एक बात एक सरीखी है। चीन और जापान इन दोनों में लोग सुबह नहीं नहाते, वे काम से लौटने के बाद घर पहुंचकर नहाते हैं। इसका तर्क बड़ा आसान है कि दिन भर घर के बाहर रहकर काम करके लोग तरह-तरह के प्रदूषण के साथ लौटते हैं, और संक्रमण के खतरे के साथ भी। इसके बाद इसी तरह खाकर सो जाने से वह प्रदूषण और संक्रमण बदन पर करीब चौबीस घंटे ही बने रहता है। इससे बेहतर यह है कि बाहर से घर लौटने पर नहाया जाए, और फिर अगले दिन घर के बाहर जाने पर प्रदूषण और संक्रमण का सामना शुरू होने तक तो कम से कम साफ-सुथरे रहें। एक चिकित्सा विशेषज्ञ का यह भी कहना है कि लोग बाहर से जब आते हैं, तो वे हवा में तैरते पराग कणों को भी अपने साथ ले आते हैं, और उनके बदन और कपड़ों से वे पराग कण घर के सोफे या बिस्तर पर भी चले जाते हैं, और परिवार के उन दूसरे लोगों को भी परेशान करते हैं जिन्हें उनसे एलर्जी है। इसलिए बाहर से आकर नहाने और कपड़े बदल लेने में ही सेहत के लिए एक बड़ी समझदारी है।
अब रोज के कामकाज को अगर देखें, तो अधिकतर लोगों को हर दिन घंटे भर का वक्त मिल सकता है, योग-ध्यान, प्राणायाम, कसरत, या सैर करने के लिए। गरीब से लेकर अमीर तक अलग-अलग लोगों के लिए इनकी संभावनाएं अलग-अलग हो सकती हैं लेकिन सबसे गरीब लोग भी किसी खुली जगह पर या आसपास के बगीचे में घंटे भर पैदल चल सकते हैं, और इससे सेहतमंद बने रहने में मदद मिलती है जिससे कि कई किस्म की बीमारियों का खतरा कुछ कम होता है। गरीब की जिंदगी में खतरा कम होना ही सबसे बड़ी बचत है क्योंकि आज जिस रफ्तार से बीमारियां बढ़ रही हैं, उसी रफ्तार से इलाज और दवाएं भी बढ़ रही हैं, और लोग कर्ज लेकर भी इलाज तो कराते ही हैं। लोगों को यह भी सोचना चाहिए कि जब वे सेहतमंद बने रहने के लिए, बीमारियों से बचने के लिए रोजाना इस तरह के बचाव की जीवनशैली अपनाते हैं, तो वे बिना कहे हुए अपनी अगली पीढ़ी के लिए एक मिसाल भी बन जाते हैं, और अपने बच्चों को वे विरासत में सावधानी दे जाते हैं। फिटनेस के लिए महंगे जिम जरूरी नहीं हैं, मामूली चप्पल-जूतों के साथ भी किसी खुली जगह पर, किसी सडक़ के किनारे सुबह-शाम की सैर की जा सकती है, या खाली हाथों भी कसरत की जा सकती है जिसके लिए कोई मशीनें नहीं लगतीं।
बचाव के ही सिलसिले में एक बात और लिखने को रह जाती है कि लोगों को सिगरेट-तम्बाकू, शराब जैसी आदतों से बचना चाहिए क्योंकि इनमें न सिर्फ इस्तेमाल के पहले खरीदने का भारी खर्च होता है, बल्कि इस्तेमाल के बाद कई किस्म की बीमारियों की गारंटी रहती है, जिनसे इलाज हो पाना हर बार मुमकिन भी नहीं होता। परिवार में एक किसी को कैंसर हो जाए तो मामूली कमाई वाला तो पूरा परिवार ही तबाह हो जाता है। इसलिए दोनों किस्म के खर्च बचाने के लिए, सेहत ठीक रखने के लिए, और परिवार को मुसीबत में न डालने के लिए लोगों को इन बुरी आदतों से पूरी तरह बचना चाहिए। यह बात इसलिए भी जरूरी है कि बुरी आदतों वालों के बच्चे भी इन आदतों का खतरा रखते हैं, और किसी भी समझदार या जिम्मेदार को अपनी अगली पीढिय़ों को ऐसी विरासत नहीं देनी चाहिए।
आज जब चारों तरफ बहुत से जलते-सुलगते मुद्दे हैं, तब भी जिंदगी के इन बुनियादी मुद्दों पर लिखने की जरूरत इसलिए है कि हर वक्त आसपास अनगिनत लोगों को बचाने की जरूरत तो बनी ही रहती है। ये बातें सावधानी की फेहरिस्त की कुछ बातें ही हैं, लोग बाकी बातें खुद सोच सकते हैं, या किसी से पूछ सकते हैं। एक बार जब मिजाज सावधानी का हो जाता है, तो दिल-दिमाग जिंदगी के बाकी पहलुओं को भी तौलने-परखने लगते हैं। तो चलिये कुछ बातों से तो सावधानी शुरू करें, जूते-चप्पल घर के बाहर उतारें, और मुमकिन हो तो काम खत्म करके लौटने पर नहा लें।
इंसान की मुस्कुराहट के क्या मायने हो सकते हैं, इसका एक नया नजरिया दिल्ली के हाईकोर्ट के एक जज ने अभी एक बहुत ही संवेदनशील मामले की सुनवाई के दौरान सामने रखा है। दिल्ली दंगों से जुड़े हुए एक मामले की सुनवाई जस्टिस चंद्रधारी सिंह की अदालत में चल रही है, और इसमें सीपीएम सांसद रहीं बृंदा करात ने मोदी सरकार के एक मंत्री अनुराग ठाकुर के एक बयान पर यह मुकदमा किया है। अनुराग ठाकुर ने दिल्ली विधानसभा चुनाव प्रचार के दौरान भाजपा प्रत्याशी के वोट मांगते हुए मंच से नारा लगाया था- देश के गद्दारों को..., और इसके बाद उन्होंने आम सभा की भीड़ को इसे पूरा करने का मौका दिया था जिसने आवाज लगाई थी-गोली मारो सालों को।
यह वीडियो चारों तरफ खूब फैला था, और इसे लेकर बीते दो बरसों में यह मामला अदालत में चल रहा है और उसकी सुनवाई के दौरान जस्टिस चंद्रधारी सिंह ने कहा कि अगर मुस्कुराते हुए कोई बात कही जाए तो उसके पीछे आपराधिक भावना नहीं रहती, लेकिन अगर कोई बात तल्ख लहजे में कही जाए तो उसके पीछे की मंशा आपराधिक हो सकती है। उन्होंने आगे यह भी कहा कि चुनाव के समय दी गई स्पीच को आम समय में कही बात से नहीं जोड़ा जा सकता। चुनाव के समय अगर कोई बात ही है तो वह माहौल बनाने के लिए होती है, लेकिन आम समय में यह चीच नहीं होती, उस दौरान माना जा सकता है कि आपत्तिजनक टिप्पणी माहौल को भडक़ाने के लिए कही गई थी।
जस्टिस चंद्रधारी सिंह ने एक मुस्कुराहट को जिस तरह की रियायत दी है वह हैरान करने वाली है, और भयानक है। लोगों को याद होगा कि हिन्दी फिल्मों के बहुत से खलनायकों के नामी किरदार हत्या से लेकर बलात्कार तक हँसते-हँसते करते आए हैं। दुनिया की सबसे हिंसक फिल्मों में भी कई ऐसी रही हैं जिनमें ऐतिहासिक हिंसक पात्र दिल हिला देने वाली हिंसा हँसते-मुस्कुराते करते दिखे हैं। एक अमरीकी फिल्म में एक मानवभक्षी आदमी पुलिस हिरासत में रहते हुए भी पुलिस की जरा सी चूक से एक पुलिस वाले पर कब्जा कर लेता है और उसे मारकर खा लेता है। वह भी फिल्म के कई हिस्सों में मुस्कुराते हुए दिखता है। इसलिए देश में घोर साम्प्रदायिक नफरत फैलाने वाली, हिंसा फैलाने वाली बातें अगर चुनावी भाषणों में की जाती हैं, और जिनके असर से इस देश में कमजोर मुस्लिमों के कत्ल का माहौल बनता है, उन्हें देश का गद्दार करार दिया जाता है, तो ऐसे फतवों को भी एक मुस्कुराहट की वजह से मंजूरी देने वाली जज की यह बात बहुत ही भयानक है, और उनकी कमजोर समझ, और बेइंसाफ सोच को उजागर करती है। इंटरनेट पर उनका परिचय बताता है कि वे छत्तीसगढ़ में भाजपा सरकार के वक्त सरकार द्वारा मनोनीत अतिरिक्त महाधिवक्ता बनाए गए थे।
दो दिन पहले बृंदा करात के दायर किए गए मुकदमे में जस्टिस चंद्रधारी सिंह ने फैसला सुरक्षित रखा है और यह सवाल किया है कि इस भाषण में साम्प्रदायिक नीयत कहां है? जज के खड़े किए हुए कई और सवाल भी लोकतंत्र पर भरोसा करने वालों को विचलित करने वाले हैं क्योंकि वे देश की बुनियादी धर्मनिरपेक्ष व्यवस्था को खारिज करने वाली बातों को एक मुस्कुराहट का फायदा दे रहे हैं। अगर उनकी यह बात उनके लिखित फैसले में किसी तरह आती है, और अगर उसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जा सकती है, तो इंसाफ की हमारी सीमित बुनियादी समझ यह कहती है कि जस्टिस चंद्रधारी सिंह की इस व्याख्या पर सुप्रीम कोर्ट नहीं मुस्कुराएगा। पता नहीं जस्टिस सिंह ने फिल्म शोले देखी थी या नहीं जिसमें गब्बर अपने आधे जुर्म हँसते हुए करता है, अपने साथियों को गोली मारने सहित। अब अगर वह फिल्म न होती और मामला आज का होता तो गब्बर अपनी हँसी और मुस्कुराहट को लेकर आज संदेह का लाभ पाने का हकदार रहता।
जब देश की बड़ी अदालतों के जज कानून की ऐसी व्याख्या करने लगें, तो हिंदुस्तानी लोकतंत्र के लिए बहुत बड़ी फिक्र खड़ी हो जाती है। इस मामले में और कुछ न सही, जस्टिस चंद्रधारी सिंह को कम से कम यह तो देखना था कि इस चुनावी भाषण को लेकर जनवरी 2020 में चुनाव आयोग ने अनुराग ठाकुर को देश के गद्दारों को वाले नारे के लिए नोटिस जारी किया था और आयोग ने नोटिस में यह लिखा था कि पहली नजर में यह टिप्पणी साम्प्रदायिक सद्भाव को बिगाडऩे का खतरा रखने वाली दिखती है और भाजपा सांसद ने आदर्श चुनाव संहिता और चुनाव कानून का उल्लंघन किया है। जस्टिस चंद्रधारी सिंह को कम से कम यह तो सोचना था कि चुनाव प्रचार के दौरान का भडक़ाऊ भाषण न सिर्फ साम्प्रदायिक सद्भाव को बिगाडऩे का खतरा रखता है, बल्कि वह लोकतंत्र के फैसले को भी गलत तरीके से मोडऩे का खतरा रखता है।
हिंदुस्तान की न्यायपालिका का हाल के कुछ बरसों का रूख दिल बैठा देने वाला रहा है। बहुत से ऐसे हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट जज रहे हैं जिनके फैसले, आदेश, या जिनकी टिप्पणियां लोकतंत्र को कुचलने वालों को संदेह का लाभ देने वाली रही हैं, और लोकतंत्र का हौसला पस्त करने वाली रही हैं।
यह भी एक दिलचस्प बात है कि आज जब हिंदुस्तान में दिल्ली हाईकोर्ट के ये जज इस मामले में फैसला सुरक्षित रखकर बैठे हैं, उस वक्त अमरीका में सुप्रीम कोर्ट की जज बनाने के लिए राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत एक काली महिला की संसदीय समिति के सामने सुनवाई चल रही है। अमरीका में किसी के सुप्रीम कोर्ट जज बनने के पहले सभी पार्टियों के सदस्यों को मिलाकर बनाई गई कमेटी इस संभावित जज से कई-कई दिनों तक खुली सुनवाई में उसकी पूरी जिंदगी, सोच, विचार, उसके फैसले, सभी के बारे में सैकड़ों सवाल करती है और यह माना जाता है कि यह दुनिया की सबसे कड़ी पूछताछ में से एक रहती है। अमरीका में देश और समाज के जो जलते-सुलगते मुद्दे रहते हैं, उन पर भी ऐसे संभावित जजों की सोच पूछी जाती है, धर्म, राजनीति, समाज से लेकर गर्भपात पर तक उनके पिछले बयानों को लेकर उनसे खूब पूछताछ होती है।
हिंदुस्तान में जब-जब हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जज अपनी ऐसी असाधारण सोच सामने रखते हैं, तो लगता है कि क्या इस देश में भी किसी को बड़ा जज बनाने के पहले उससे उसकी जिंदगी, उसकी सोच, उसके पिछले कामकाज के बारे में सार्वजनिक पूछताछ नहीं होनी चाहिए? आज अमरीका में इस काली महिला से चल रही पूछताछ का जीवंत प्रसारण चल रहा है, और हर अमरीकी को यह जानने का हक है कि उनके राष्ट्रपति ने देश की बड़ी अदालत में जज बनाने के लिए किस तरह के व्यक्ति को मनोनीत किया है, और ऐसी खुली सुनवाई में कौन से सांसद कौन से सवाल कर रहे हैं? लोकतंत्र इसी तरह की खुली पारदर्शिता का नाम है।
हिंदुस्तान में अब बड़े जज रिटायर होने के बाद कोई किसी राजभवन चले जाते हैं, तो कोई राज्यसभा। रिटायर होने के ठीक पहले के सूरजमुखी फैसलों के बाद इस तरह का वृद्धावस्था-पुनर्वास न्यायपालिका की साख को वैसे भी चौपट कर चुका है। आज हिंदुस्तान में भी जरूरत है कि किसी के हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट जज बनाने जाने के पहले उनकी ऐसी ही खुली सुनवाई हो, जैसी कि अमरीका में हर जज की होती ही है।
दिल्ली हाईकोर्ट के जस्टिस चंद्रधारी सिंह की टिप्पणी पर देश के एक चर्चित मुस्लिम सांसद असदुद्दीन ओवैसी ने तंज कसा है-तेरा मुस्कुराना गजब हो गया...।
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दुनिया में खुशी की सालाना रिपोर्ट का यह दसवां साल है। हर बरस यह रिपोर्ट बनती है कि किस देश के लोग सबसे अधिक खुश हैं। पिछले कई बरसों से लगातार यह देखने में आता है कि योरप के स्कैंडेनेवियाई कहे जाने वाले देश सबसे अधिक खुशहाल देश हैं। और यह बात महज संपन्नता से जुड़ी हुई नहीं है, यह संपन्नता के साथ-साथ वहां के लोगों की मानसिक स्थिति और सामाजिक वातावरण जैसे कई पैमानों को भी बताती है। लिस्ट में सबसे ऊपर योरप के देशों का ही बोलबाला है, फिनलैंड सबसे ऊपर है, फिर डेनमार्क, आइसलैंड, स्विटजरलैंड, और नीदरलैंड्स हैं। लेकिन इस लिस्ट में भारत का हाल देखें तो वह दुनिया के देशों में 139वें नंबर पर है। 2018 में वह एक 133वें नंबर पर था, अब वह 139वें पर आ गया है। यह देखना भी दिलचस्प होगा कि 2013 में जब यूपीए सरकार थी तब लोगों की खुशी के पैमाने पर भारत दुनिया में 111वें नंबर पर था, और अब वह फिसलकर 139वें पर पहुंचा है, मतलब यह कि लोग अब खुश नहीं हैं।
दूसरी तरफ यह भी देखने की जरूरत है कि हिन्दुस्तान किन देशों के आसपास खड़ा हुआ है। हिन्दुस्तान के आसपास की लिस्ट देखें तो उसके तुरंत बाद के देशों में तमाम देश अफ्रीका के हैं, यमन और अफगानिस्तान जैसे बदहाल देश हैं जो कि भुखमरी की कगार पर हैं। हिन्दुस्तान के पड़ोस के सारे ही देश हिन्दुस्तान से अधिक खुशहाल जिंदगी जीने वाले पाए गए हैं, कम से कम वहां की आबादी हिन्दुस्तान के मुकाबले अधिक खुश है। इस लिस्ट में पाकिस्तान 103 नंबर पर है, नेपाल उसके भी ऊपर 85 नंबर पर है, चीन 82 नंबर पर है, और हिन्दुस्तान के दूसरे पड़ोसी बांग्लादेश 99 नंबर पर है, इराक 109 नंबर पर है, इरान 116 नंबर पर है, म्यांमार 123 नंबर पर है, श्रीलंका 126 पर है। इतने तमाम देश के लोग अपने आपको हिन्दुस्तानियों के मुकाबले अधिक खुश पाते और बताते हैं।
इस रिपोर्ट को दुनिया में लोगों की खुशी और खुशहाली को आंकने का एक सबसे अच्छा औजार माना जा रहा है, इसमें किसी देश का दर्जा तय करते हुए प्रति व्यक्ति, सामाजिक सुरक्षा, औसत उम्र, जिंदगी में पसंद की आजादी, उदारता, और भ्रष्टाचार के प्रति नजरिया जैसी बातों पर आंकलन किया जाता है। इस लिस्ट में भारत की भारी गिरावट की कई वजहें पाई गई हैं। यह देश दुनिया के दवा-उद्योग की राजधानी माना जाता है, यहां दुनिया भर से चिकित्सा-पर्यटन पर लोग आते हैं, लेकिन यह अपने नागरिकों को इलाज मुहैया कराने में, औसत उम्र के मामले में दुनिया में 104 नंबर पर है। इस लिस्ट में सबसे आखिरी 146वें नंबर पर अफगानिस्तान हैं, और बदहाली की इस लिस्ट में हिन्दुस्तान उससे बस 10 सीढ़ी बेहतर है।
अब इन आंकड़ों का क्या मतलब निकाला जाए? 2013 में जब यूपीए सरकार थी, उस वक्त अगर हिन्दुस्तान दुनिया के 110 देशों से बदहाल था, तो आज वह 136 देशों से अधिक बुरी हालत में है। लोग खुश क्यों नहीं है? लोगों को तो आज एक उग्र राष्ट्रवाद मिला हुआ है, जिसकी वजह से एक साकार या निराकार दुश्मन को देखते हुए उनका कलेजा अधिक ठंडा होना चाहिए था, लेकिन वैसा दिख नहीं रहा है। आज हिन्दुस्तानियों की जिंदगी में धर्म जिस तरह घोल-घोलकर पिला दिया गया है, उससे भी लोगों को भारी खुश रहना चाहिए था, लेकिन वे वैसे खुश दिख नहीं रहे हैं। यह भी एक अजीब बात है कि योरप के जो देश इस लिस्ट में सबसे अधिक खुश दिख रहे हैं, उन देशों में धर्म का महत्व घटते चले जा रहा है, चर्च के भूखों मरने की नौबत आ गई है, और लोग धर्म से परे की जिंदगी में बहुत खुश हैं। तो क्या हिन्दुस्तान में आज का धार्मिक उन्माद लोगों की जिंदगी की खुशियों को बढ़ाने के बजाय घटा रहा है?
इस रिपोर्ट को भी और बहुत सी अंतरराष्ट्रीय रिपोर्ट की तरह खारिज किया जा सकता है कि यह भारत को बदनाम करने की साजिश है। लेकिन क्या यह हकीकत नहीं है कि धार्मिक उन्माद में लगे हुए आबादी के एक छोटे हिस्से की वजह से बाकी तमाम आबादी एक नाजायज तनाव और खतरे से गुजर रही है, और उसकी जिंदगी की खुशियां कम हो गई हैं? यह बात समझने के लिए तो किसी अंतरराष्ट्रीय रिपोर्ट की जरूरत भी नहीं है, और भारतीय समाज के अमन-पसंद लोगों की बहुतायत से बात करके ही इसको समझा जा सकता है। एक तरफ धार्मिक उन्माद, धर्मान्धता, नफरत, और उसके साथ-साथ बेरोजगारी, गरीबी, महंगाई। कोई हैरानी नहीं है कि हिन्दुस्तान में पहले से अधिक लोगों में खुशी पहले से कम है।
आज जब धर्म के नाम पर इस देश को बांटा जा रहा है, लोगों को नफरत सिखाई जा रही है, और आबादी का एक छोटा लेकिन नारेबाज हिस्सा लगातार भडक़ाऊ और हिंसक बातें पोस्ट कर रहा है, तब यह उन्माद किसी में खुशी नहीं भर सकता। किसी तबके, धर्म या जाति से नफरत का मतलब खुशी नहीं हो सकता, उन्माद और हिंसा का मतलब खुशी नहीं हो सकता। हाल के बरसों में हिन्दुस्तान ने अभूतपूर्व धर्मोन्माद देखा है, असाधारण साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण देखा है, ऐसा उग्र राष्ट्रवाद हिन्दुस्तान ने कभी देखा नहीं था, लेकिन ऐसा लगता है कि इन सबने मिलकर भी इस देश को खुशी नहीं दिला पाई है। यह देश तमाम सामाजिक और आर्थिक पैमानों पर, लोकतांत्रिक और मानवाधिकार के पैमानों पर दुनिया के कम से कम सौ देशों के काफी नीचे है।
हिन्दी के एक सबसे बड़े साहित्यकार विनोद कुमार शुक्ल अपनी रचनाओं से परे एक बार खबरों में हैं। पहले सोशल मीडिया पर एक अभिनेता-लेखक से बातचीत में उनकी कही यह तकलीफ सामने आई कि देश के दो बड़े प्रकाशन समूहों से उन्हें अविश्वसनीय रूप से कम रॉयल्टी मिल रही है। उनकी यह शिकायत भी सामने आई कि उनसे बिना पूछे इन दोनों प्रकाशकों ने उनकी किताबों के ई-बुक संस्करण छापे हैं। उन्होंने कहा कि वे इतने सालों से ठगे जा रहे हैं, और वे अब इन दोनों प्रकाशकों से स्वतंत्र होना चाहते हैं। उनके बताए गए जो आंकड़े सामने आए हैं उसके मुताबिक इन दोनों प्रकाशकों से उन्हें सालभर में कुल 14 हजार रूपए मिले हैं जबकि इन दोनों से उनकी पौन दर्जन किताबें छपी हैं जो कि हिन्दी की सबसे चर्चित किताबें रही हैं।
लेकिन सुबूतों के बिना यह कहना मुश्किल है कि प्रकाशकों की यह बात गलत है कि वे सीमित संख्या में ही किताबें प्रकाशित करते हैं जिन्हें लेखक कभी भी आकर जांच सकते हैं, और विनोद कुमार शुक्ल के साथ उन्होंने कोई बेईमानी नहीं की है, उन्हें पूरा हिसाब-किताब भेजा है, और उन्हें अनुबंध के मुताबिक भुगतान किया है। विनोद कुमार शुक्ल का कहना है कि प्रकाशक उन्हें कम रॉयल्टी देकर ठग रहे हैं, और नए संस्करणों की जानकारी भी उन्हें तब दी जाती है जब वे प्रकाशित होकर आ जाते हैं। इस विवाद पर कई और लोगों ने कई बातें कही हैं जो कि लेखक और प्रकाशक के बीच वैचारिक और कारोबारी मतभेद भी बताती हैं, और लेखकों का असंतुष्ट होना भी। इस कारोबार को जानने वाले लोगों का कहना है कि हिन्दी के लेखक को प्रकाशक की तरफ से अधिकतम दस फीसदी रॉयल्टी दी जाती है।
हिन्दी साहित्य की किताबों के कारोबार को अगर समझें तो लेखकों का बड़ा बुरा हाल सुनाई पड़ता है। कुछ दर्जन सबसे कामयाब लेखकों को अगर छोड़ दें, तो अधिकतर लेखक प्रकाशक को भुगतान करके कुछ सौ किताबें छपवाते हैं, और उन्हें 25-50 किताबें अपने करीबी लोगों में बांटने के लिए मिल जाती हैं, और बाकी किताबें प्रकाशक सरकारी या लाइब्रेरी खरीदी के अपने नेटवर्क में खपाने की कोशिश करते हैं। लेखक के संपर्क अगर अधिक होते हैं तो उनकी किताबों की कहीं-कहीं चर्चा हो जाती है, और इन दिनों सोशल मीडिया पर अपनी किताबों का अंधाधुंध प्रचार करके भी हिन्दी के सबसे अधिक चर्चित लेखक भी कुछ हजार किताबों की बिक्री में कामयाब होते हैं। लेकिन रॉयल्टी पाने वाले लेखकों में भी पांच-दस फीसदी रॉयल्टी का मतलब बड़ी छोटी रकम है, जो कि किसी भी लेखक के लिए गुजारे का सामान नहीं है।
यह किसी प्रकाशक ने किसी लेखक से कहा भी नहीं है कि उनकी जिंदगी किताबों की कमाई के भरोसे चल जाएगी, और लेखक भी दूसरों के तजुर्बे से यह बात जानते ही हैं। हम किसी एक लेखक के किसी एक प्रकाशक के साथ अनुबंध की शर्तों के पूरे न होने के बारे में यहां पर नहीं लिख रहे, हम व्यापक तौर पर इस कारोबार के बारे में लिख रहे हैं ताकि हम कारोबार से आगे बढक़र पाठक तक की बात कर सकें।
हिन्दी के बड़े से बड़े लेखक-प्रकाशक की किताबें शायद 30-35 फीसदी कमीशन पर दुकानदार बेचते आए हैं। वह भी तब जब किताबें बिक जाएं। किताब में पहला पूंजीनिवेश वक्त और प्रतिभा का लेखक का होता है, और उसके बाद प्रकाशक का। अच्छे प्रकाशक किताब का संपादन करते हैं, गलतियां सुधारते हैं, लेखक से अनुबंध करके किताब की छपाई करते हैं, मीडिया में किताब के बारे में छपवाने की कोशिश करते हैं, कहीं पुस्तक मेले में या किसी और जगह किताबों का प्रमोशन करते हैं, और दुकानदारों या पुस्तकालयों को उधार में मोटे कमीशन पर किताबें पहुंचाते हैं। यह कारोबार कुछ कच्चा कारोबार है। किसी भी जगह किताबें मौसम या दीमक की शिकार हो सकती हैं, डिलिवरी के दौरान खराब हो सकती हैं, किसी मामले-मुकदमे में फंस सकती हैं, या प्रतिबंधित हो सकती हैं। इन सबका बोझ भी कुल मिलाकर प्रकाशक पर ही पड़ता है। हो सकता है कि इससे परे भी प्रकाशक पर कुछ और बोझ होते हों, और लेखक पर भी कुछ और बोझ होते हों।
अब हम एक पाठक के नजरिए से इस कारोबार को देखें तो लगता है कि प्रकाशक-मुद्रक के स्तर पर सौ रूपए में तैयार होने वाली किताब दुकान के स्तर पर तीन सौ से छह सौ रूपए में जब बिकती है, तो उसके खरीददार कम ही रह जाते हैं। हिन्दी के आम पाठकों की साहित्यिक चेतना और उसके साहित्यिक सरोकार शायद ऐसे नहीं रहते कि जिंदगी के दूसरे खर्चों को कम करके कुछ किताबें खरीदी जाएं। यही वजह है कि हिन्दी के सबसे चर्चित लेखकों में से एक विनोद कुमार शुक्ल की किताबें भी सैकड़ों में ही बिकती हैं, और उनकी सालाना कमाई पन्द्रह हजार रूपए भी नहीं हो पाती है। साहित्य के बजाय राजनीतिक और विवादास्पद मुद्दों पर लिखने वाले हिन्दी लेखकों की कमाई इसके मुकाबले कुछ या कई गुना अधिक हो सकती है, लेकिन वह भी किसी के गुजारे के लिए काफी नहीं हो सकती।
अब सवाल यह है कि जिस लेखन-प्रकाशन कारोबार का सारा दारोमदार एक खरीददार-पाठक पर टिका होता है, वही अगर दो-चार हजार तक भी नहीं पहुंचता, तो यह एक बड़ा नाजुक कारोबार है, फल या सब्जी के धंधे जैसा, या उससे भी अधिक नाजुक। इतने सीमित खरीददारों के भरोसे लेखक भी क्या कर ले, और प्रकाशक भी क्या कर ले? और इन दोनों के बीच की खींचतान जिस छोटी सी कमाई पर टिकी है, वह अपने आपमें बड़ी सीमित और छोटी है। अगर उसमें बेईमानी हो रही है, लेखक का शोषण हो रहा है, तो वह रूपयों की शक्ल में एक छोटा शोषण है।
जब इस देश की आबादी का तकरीबन आधा हिस्सा हिन्दी बोलने वाला माना जाता है, पचास करोड़ से अधिक लोग हिन्दीभाषी हैं, तो उनके बीच हिन्दी साहित्य की किताब हजार-दो हजार भी न बिक पाना कई सवाल खड़े करता है। पहला सवाल तो यही है कि क्या लोग हिन्दी साहित्य खरीदना नहीं चाहते, या फिर वह उनकी पहुंच से दूर है? एक सवाल यह भी है कि क्या हिन्दी साहित्य की किताबों की लागत, और उनकी कीमत का अनुपात सही है? क्या किताबों के दाम काफी कम हो जाने से उनके पाठक-ग्राहक बढ़ सकते हैं? मेरा यह मानना है कि हिन्दी साहित्य की किताबों के दाम इतने अधिक रखे जाते हैं कि लोगों ने धीरे-धीरे उन्हें अपनी सीमा से बाहर मान लिया, और खरीदना बंद कर दिया, शायद धीरे-धीरे पढऩा भी बंद कर दिया। क्या किताबों को सस्ता छापकर, कम कमीशन के रास्ते बेचकर, उनकी अधिक संख्या में बिक्री हो सकती है? यह एक सवाल मुझे बार-बार सताता है कि क्या लेखक प्रकाशकों के चले आ रहे ढर्रे से परे भी कुछ कर सकते हैं ताकि उनकी किताबें कम दाम पर बिकें, और ग्राहक-पाठक बढ़ें?
हिन्दी और क्षेत्रीय भाषाओं की किताबों को लेकर सस्ते प्रकाशन के कुछ प्रयोग हुए भी हैं, और जब-जब किताबें कम दाम पर लोगों को मिलती हैं, वे अधिक संख्या में खरीदते हैं, अधिक लोग खरीदते हैं, और अधिक पढ़ते भी हैं। अधिक दाम और सीमित संख्या किसी कारोबार के लिए तो अधिक माकूल हो सकते हैं, लेकिन क्या यह सचमुच ही लेखक के हित में है कि उसका लिखा बस कुछ हजार लोगों तक पहुंचकर सीमित रह जाए?
अब सवाल यह भी है कि प्रकाशक का किताबों की बिक्री का एक नेटवर्क होता है, और वह नेटवर्क किसी एक किताब के लिए खड़ा नहीं किया जा सकता, उसके लिए कई किताबों के प्रकाशक ही कामयाब हो सकते हैं। ऐसे में लेखक अपनी किताब खुद प्रकाशित करे, और उसे बेचे यह भी मुमकिन नहीं लगता। लेकिन प्रकाशकों को खुद अपने हित में भी बहुत कम दाम और कमाई वाली किताबें छापनी चाहिए, ताकि ग्राहक बढ़ सकें, पाठक बढ़ सकें। जब तक ग्राहक-पाठक की यह बुनियाद चौड़ी नहीं होगी, यह कारोबार एक खंभे पर खड़े हुए बड़े से होर्डिंग जैसा रहेगा जिसे वक्त की आंधी कभी भी गिरा देगी।
आज विनोद कुमार शुक्ल की तकलीफ की खबरों से यह लिखने का मौका मिला है, और मेरी यह साफ-साफ सोच है कि समझदार लेखक-प्रकाशक को अखबारी कागज जैसे सस्ते कागज पर, बिना पु_े वाले कवर में किताब छापनी चाहिए, उसे कम कमीशन पर इंटरनेट पर बेचना चाहिए, और अधिक पाठकों को ग्राहक बनाने की कोशिश करनी चाहिए। महंगी छपाई, महंगी जिल्द से किसी के लिखे हुए की इज्जत नहीं बढ़ती, उसे कितने अधिक लोग पढ़ते हैं, लिखे हुए कि कितने अधिक लोग तारीफ करते हैं, उससे लेखक की इज्जत बढ़ती है। महंगी छपाई और महंगी जिल्द प्रकाशन के कारोबार का एक हिस्सा है, वह लेखन का हिस्सा नहीं है। लेखक को अपनी सीमित किताबें दिखने में खूब अच्छी पाने का लोभ छोडऩा चाहिए। ऐसा सुना है कि इंटरनेट पर अमेजान कुल सत्रह फीसदी कमीशन पर लेखक-प्रकाशक के पते से किताब उठाता है, और देश भर में कहीं भी डिलीवर करता है। इसमें भुगतान भी चार-छह दिनों के भीतर ही हो जाता है। मतलब यह कि यह किताब दुकानों को दिए जाने वाले कमीशन से आधा ही है।
लेखकों को अपने स्तर पर यह सोचना चाहिए कि परंपरागत प्रकाशकों का कोई विकल्प हो सकता है क्या, जो कि उनका (लेखकों का) अधिक भला कर सके? प्रकाशकों को भी सीमित ग्राहकों को महंगी किताब बेचने से परे के विकल्प सोचने चाहिए कि पढऩे की आदत बनाए रखने के मुताबिक कम दाम पर किताबें बेची जाएं, ताकि वे अधिक संख्या में बिकें, और प्रकाशन का कारोबार अधिक संख्या में लोगों पर टिका रहे, अधिक भरोसे का रहे।
किताब को छापने और बेचने का मेरा एक अलग तजुर्बा रहा है जो कि बताता है कि आज के बाजार की हिन्दी साहित्य की अधिकतर किताबें एक चौथाई बाजार भाव पर आ सकती हैं, अगर लेखक-प्रकाशक गैरजरूरी महंगी क्वालिटी के चक्कर में न पड़ें। पूरी दुनिया में आज हर कारोबार सीमित कमाई और असीमित ग्राहकों के मामूली समझ वाले फॉर्मूले पर काम कर रहा है, और जमे हुए प्रकाशक अगर ऐसा करना नहीं चाहते तो कुछ जनसंगठनों को भी इस धंधे में उतरना चाहिए।
न सिर्फ हिन्दुस्तान में बल्कि पूरी दुनिया में इन दिनों मीडिया को लेकर एक असमंजस बना हुआ है कि किसे मीडिया गिना जाए, और किसे नहीं। जो लोग अखबारों के वक्त के पुराने बुजुर्ग सोच के लोग हैं, वे आज के इलेक्ट्रॉनिक और डिजिटल मीडिया को लेकर अक्सर उसे नीची नजरों से देखते हैं कि यह कोई पत्रकारिता नहीं है। बात सही भी है, पत्रकारिता शब्द पत्र से बना हुआ है जिसका मतलब समाचार पत्र होता था। एक समाचार पत्र को तैयार करने में धातू के बने हुए टाईप, एक-एक अक्षर, और एक-एक मात्रा को जोडक़र एक-एक वाक्य ढाला जाता था, और बड़ी मुश्किल से एक पेज तैयार हो पाता था। आज मोबाइल फोन या कम्प्यूटर पर बोलकर घंटे भर में उतना टाईप किया जा सकता है, और पल भर में उसे किसी वेबसाईट पर पोस्ट किया जा सकता है। छपे हुए शब्दों को मिटाना मुमकिन नहीं था, और इसलिए लिखने और छपने के बीच खासी फिक्र की जाती थी, बड़ी सावधानी बरती जाती थी। आज अगर कोई गलत बात भी पोस्ट हो जाती है तो उसे पल भर में, कम से कम आम लोगों के लिए तो, मिटाया जा सकता है, उसे बदला जा सकता है।
यह दौर छपे हुए शब्द और बिना छपाई महज इंटरनेट पर पोस्ट किए गए शब्द के बीच मुकाबले का दौर है, और ऐसे में एक परंपरागत विश्वसनीयता, और टेक्नालॉजी की सहूलियत से हासिल लापरवाही के मुकाबले का दौर भी है। सरकारें अधिक से अधिक लोगों को खुश करने के लिए हर उस वेबसाईट को मीडिया मानने पर आमादा हैं जिन्हें घर बैठे कोई भी दो-चार हजार रूपए की लागत से शुरू कर सकते हैं, और उसके बाद उस पर लिखने या पोस्ट करने वाली किसी भी बात के लिए वे तब तक किसी के लिए जवाबदेह नहीं रहते जब तक कि कोई उनके खिलाफ पुलिस या अदालत तक न जाए, या कि सरकार उनमें से किसी को अपने निशाने पर न लें। यह सिलसिला कुछ अटपटा इसलिए है कि अभी हाल में चल रहे चुनावों के बीच भी कम से कम एक राज्य में ऐसी वेबसाईटों को मीडिया मानने को लेकर एक बड़ी पार्टी ने कई किस्म के वायदे भी किए हैं, और दूसरे कई राज्यों में बिना किसी पत्रकारिता के चलने वाली वेबसाईटों को भी मीडिया का दर्जा देने का काम किया गया है। एक समाचार वेबसाईट बनाना, और उस पर राशिफल-भविष्यफल से लेकर अश्लील वीडियो तक पोस्ट करके हिट जुटाना सरकारों की तकनीकी परिभाषा में एक कामयाब मीडिया हो गया है, और पत्रकारिता के जो परंपरागत नीति-सिद्धांत अखबारों के वक्त, अखबारों के मामले में इस्तेमाल होते थे, वे कूड़ेदान में चले गए हैं।
यह सरकारों और राजनीतिक दलों की अधिक से अधिक लोगों को खुश करने की कोशिश का नतीजा है कि आज घर बैठे, कुछ हजार रूपयों में हर कोई मीडिया बन सकते हैं, और उसके बाद वे मीडिया के लिए तय की गई सरकारी सहूलियतों से लेकर अभिव्यक्ति की आजादी की परिभाषा का इस्तेमाल भी कर सकते हैं। इसे लेकर पहले भी इसी जगह पर हमने कई बार लिखा है कि कम से कम अखबारों को तो मीडिया नाम की इस वटवृक्ष सरीखी विशाल छतरी के बाहर आ जाना चाहिए, और जो लोग अपने आपको मीडिया कहना या कहलाना चाहते हैं उन्हें उनके हाल और उनकी मर्जी पर छोड़ देना चाहिए।
एक वक्त महज प्रेस शब्द इस्तेमाल होता था क्योंकि अखबार प्रेस में छपा करते थे। बाद में धीरे-धीरे जब मीडिया के नाम पर टीवी और दूसरे किस्म के माध्यम जुड़े, तो प्रेस शब्द पता नहीं कब मीडिया बन गया। आज इस शब्द का जितना बेजा इस्तेमाल हो रहा है, और कहीं मीडिया अपनी आत्मा बेचने की तोहमत पा रहा है, तो कहीं गिरोहबंदी करके किसी नेता या सरकार को बढ़ाने की, तो ऐसे में पुरानी फैशन के उस प्रेस को अपने अलग अस्तित्व के बारे में सोचना चाहिए और लौटकर अपनी इज्जत बचाने की कोशिश करनी चाहिए।
ऐसा इसलिए भी है क्योंकि अलग-अलग टेक्नालॉजी की वजह से अलग-अलग किस्म के समाचार या विचार-माध्यम के तौर-तरीके अलग-अलग तय होते हैं। और पुराने अंदाज के छपने वाले अखबारों के तौर-तरीके कभी भी सिर्फ वेबसाईटों पर चलने वाले मीडिया की तरह नहीं हो सकते। बुरे से बुरे और छोटे से छोटे अखबार को भी अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए खासी मेहनत करनी पड़ती थी, और यह मेहनत उनके मिजाज और चरित्र में एक गंभीरता लाती थी। वह पूरा सिलसिला आज के मीडिया नाम के विकराल दायरे में खो गया है। और यही वजह है कि अखबारों को अखबार बनकर रहना चाहिए, अपने आपको वापिस प्रेस की परिभाषा के भीतर सीमित रखना चाहिए। सरकारें अपनी मर्जी से जैसा चाहें वैसा करें, लेकिन अखबारों को अपने नीति-सिद्धांतों की उस पुरानी परंपरा पर लौटना चाहिए, क्योंकि उसके बिना न उनकी कोई इज्जत है, और न ही उन्हें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का कोई दावा करने का कोई हक है।
जैसा कि दुनिया में अधिकतर कीमती चीजों के साथ होता है, मोती समंदर की गहराई में मिलते हैं, सतह पर तैरते हुए नहीं, हीरों की तलाश करनी पड़ती है, सोना गहरी खदानों में मिलता है, समझ लंबे तजुर्बे से हासिल होती है, मजबूत इमारती लकड़ी देने वाले पेड़ को तैयार होने में सौ-पचास बरस लगते हैं, ठीक वैसे ही अच्छे सामाजिक सरोकार वाले इज्जतदार माध्यम बनने में अखबारों को सौ-पचास बरस तो लगे ही थे। बड़ी मुश्किल से हासिल इज्जत और महत्व का वह दर्जा, और सामाजिक सरोकार की वह भूमिका आसानी से नहीं खोनी चाहिए, और पत्रकारिता को आज की कैमराकारिता, या वेबकारिता से अलग अपने तौर-तरीके तय करना चाहिए।
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पिछले कुछ बरसों से दुनिया में एक प्रयोग चल रहा है, और उस पर बहस भी चल रही है। पुलिस के कामकाज को आसान और असरदार बनाने के लिए एक ऐसा कम्प्यूटर सॉफ्टवेयर तैयार किया गया है जिसमें खतरे में पड़े हुए, या खतरनाक लोगों की जानकारी डाली जाती है। इसके अलावा शहरों की उन जगहों की शिनाख्त भी की जाती है जहां पर जुर्म होने का खतरा अधिक है, और उन जगहों को भी शहरी नक्शे पर दर्ज किया जाता है। फिर ऐसी जगहों और ऐसे लोगों के बारे में और अधिक जानकारी जुटाई जाती है, और कम्प्यूटर अपना अंदाज बताता है कि किन लोगों के आसपास, किन जगहों पर जुर्म होने की आशंका अधिक है। इनमें जुर्म करने वाले लोग भी हो सकते हैं, और जुर्म का शिकार होने वाले लोग भी। पिछले करीब दस बरस से अमरीका में इस किस्म का प्रयोग चल रहा है, और इसे वहां की पुलिस काम का भी पा रही है। लेकिन पुलिस से परे के कुछ जानकार विशेषज्ञ इस कार्यक्रम के खतरे भी देखते हैं। इसके तहत जिन लोगों को खतरनाक या खतरे में पाया जाता है, उनसे पुलिस सौ किस्म के सवाल करती है। और ये सवाल उनकी शुरुआती जिंदगी में इस हद तक चले जाते हैं कि अगर उनके मां-बाप का तलाक हुआ था, तो उस वक्त वे किस उम्र के थे।
यह बात एक सामाजिक हकीकत हो सकती है कि विभाजित परिवारों के बच्चों की जिंदगी में खतरे कुछ अधिक हो सकते हैं, और हो सकता है कि पुलिस के रिकॉर्ड यह साबित करने वाले हों कि ऐसे बच्चे समाज के लिए दूसरे बच्चों के मुकाबले कुछ अधिक खतरा ला सकते हैं। लेकिन ऐसी जानकारी जब कानून लागू करने वाली एजेंसियों के हाथ रहेगी तो उनका इस्तेमाल करने वाले लोगों के मन में एक मजबूत पूर्वाग्रह बन जाने का खतरा रहेगा कि कुछ रंगों के लोग, कुछ धर्मों के लोग, कुछ जातियों के लोग, कुछ विभाजित परिवारों के लोग पुलिस की खुर्दबीनी निगाह के नीचे रहेंगे। और ऐसा करने पर यह हो सकता है कि उनके कानून तोडऩे के मामले पुलिस की नजरों में तुरंत आ जाएं, और वे आसानी से मुजरिम साबित किए जा सकें क्योंकि उन पर पहले से नजर रखी जा रही थी, और उनके खिलाफ सुबूत आसानी से जुटे हुए हैं। लेकिन अगर कानून लागू करने वाली एजेंसियां कम्प्यूटर सॉफ्टवेयर पर आधारित इस किस्म के सामाजिक पूर्वाग्रह से भरी रहेंगी, तो वे एक सामाजिक हिंसा का सबब भी बनी रहेंगी।
लोगों को याद होगा कि अमरीका में हर बरस एक से अधिक ऐसे भयानक चर्चित मामले आंदोलन की बुनियाद बनते हैं जिनमें गोरों के नजरिए से काम करने वाली पुलिस कालों पर हिंसा करती है, उन्हें कुचलती है, उनके हक छीनती है। ऐसी हिंसा के खिलाफ समय-समय पर अमरीकी राष्ट्रपतियों ने भी अफसोस जाहिर किया है। अब अपराध की भविष्यवाणी करने वाली ऐसी प्रिडिक्टिव पुलिसिंग के कम्प्यूटर प्रोग्राम को अगर भारत पर लागू करके देखें, तो यहां तो आज बहुत से प्रदेश ऐसे हैं जो मुस्लिम अल्पसंख्यकों, दलितों, आदिवासियों को लेकर वैसे भी एक हिंसक पुलिस बना चुके हैं। कई राज्यों में पुलिस घोर साम्प्रदायिक हो चुकी है, और सत्ता ने भी जब धार्मिक आधार पर जमकर भेदभाव चला रखा है, तो सत्ता के हाथों नकेल वाली पुलिस के लिए यह आम बात ही है कि वह सत्ता के तलुए सहलाने के लिए उसके राजनीतिक एजेंडे को लागू करे। आज अगर जुर्म करने का खतरा अधिक रखने वाले लोगों की एक लिस्ट पुलिस के हाथ रहेगी तो यह जाहिर है कि वह उसमें से पसंदीदा लोगों को पकडऩे और जेल भेजने के आसान काम में लगी रहेगी। जिस अमरीका को लेकर आज की यह चर्चा शुरू की गई है उस अमरीका का हाल यह है कि वहां के एक बड़े शहर में 2013 में जब यह लिस्ट बनाई गई थी तो उसमें खतरनाक या खतरे में पांच सौ लोगों से कम के नाम थे, और आज दस बरस के भीतर ही ये नाम बढक़र चार लाख से अधिक हो चुके हैं। मतलब यह कि खतरे में, या खतरनाक लोगों का एक ऐसा डेटाबेस पुलिस के हाथ तैयार है जिसे वह अपने नस्लभेदी, रंगभेदी नजरिए के साथ मनमाने तरीके से इस्तेमाल कर सकती है।
फिर लौटकर हिन्दुस्तान की बात पर आएं तो यह समझने की जरूरत है कि यहां नागरिकों की जितने किस्म की जानकारी सरकार रोजाना ही इकट्ठा कर रही है, उससे लोगों की जिंदगी की निजता भी खत्म हो रही है, और वे एक सुनियोजित साजिश का खतरा भी अधिक झेल रहे हैं। इसे इस तरह समझें कि आज किसी जुर्म में पकड़े गए किसी इंसान के आधार कार्ड से पल भर में यह जानकारी निकाली जा सकती है कि उसके परिवार के बाकी लोगों के आधार कार्ड नंबर क्या हैं। इनके अलावा उन नंबरों से इन लोगों के फोन नंबर, एटीएम नंबर, गाड़ी के नंबर, ड्राइविंग लाइसेंस को भी निकाला जा सकता है, और मुजरिम के परिवार के और लोगों को भी खतरनाक मानते हुए उनकी निगरानी की जा सकती है। मतलब यह होगा कि एक मुजरिम के परिवार के बेकसूर लोग भी पुलिस की गैरजरूरी और नाजायज निगरानी के घेरे में रहेंगे, और उनसे कोई गलती होने पर भी उसे गलत काम साबित करने की सहूलियत पुलिस के पास रहेगी, और ऐसे लोग दूसरे नागरिकों के मुकाबले कानूनी एजेंसी का खतरा अधिक झेलेंगे। जब सत्ता एक बड़े और व्यापक पूर्वाग्रह के साथ आज भी काम करते दिख रही है, तो नागरिकों की ऐसी प्रोफाइलिंग लोकतंत्र को पूरी तरह से खत्म कर देने का हथियार रहेगी। आज जो आधार कार्ड और दूसरे शिनाख्त-कागजात सरकार एक औजार की तरह पेश कर रही है, वे आज ही हथियार भी बनाए जा चुके हैं, और सरकारें उन्हें नापसंद लोगों के खिलाफ इस हथियार का इस्तेमाल कर सकती हैं, और कर रही हैं। इसे एक दूसरी बात से भी जोडक़र देखा जा सकता है कि पेगासस जैसे खुफिया घुसपैठिया साइबर-हथियार का इस्तेमाल पूरी आबादी के खिलाफ तो नहीं हो सकता इसलिए किन लोगों के खिलाफ इसे इस्तेमाल करना है वह लिस्ट तैयार करने में सरकार अपने बाकी पूर्वाग्रही जानकारी के साथ-साथ ऐसी प्रोफाइलिंग का इस्तेमाल कर सकती है।
टेक्नालॉजी तो बहुत सारी बातों को मुमकिन कर रही है, लेकिन यह भी समझने की जरूरत है कि उसका इस्तेमाल कब उसे औजार से हथियार बना देता है, उसका अंदाज लगाए बिना, उसका अध्ययन किए बिना उसका इस्तेमाल शुरू ही नहीं करना चाहिए। लोगों को यह मिसाल भूलनी नहीं चाहिए कि अमरीकी वैज्ञानिकों ने हाइड्रोजन बम बनाने का एक औजार बनाया था, लेकिन उसे जापान के हिरोशिमा-नागासाकी के लोगों पर गिराना है यह फैसला तो अमरीकी सरकार ने उसे एक हथियार बनाकर लिया था। कुछ ऐसा ही हाल पेगासस से लेकर आधार कार्ड तक बहुत सी तकनीक का है, जिसे आतंकियों को पकडऩे से लेकर सरकारी काम की सहूलियत तक के नाम पर बनाया गया, लेकिन जो आज हथियार ही हथियार बनकर रह गई हैं। इसलिए जुर्म और मुजरिम की भविष्यवाणी करने वाले पुलिस के कम्प्यूटर सॉफ्टवेयर या प्रोग्राम के खतरों को समझने की जरूरत अधिक है क्योंकि इससे इतनी अधिक निजी जानकारी कुछ उंगलियों पर आ जाती है, जिनमें से कुछ उंगलियां समाज के कुछ धर्मों, कुछ रंगों, कुछ जातियों का गला घोंटने के लिए बेताब रहती हैं। तकनीक के अंधाधुंध विकास को जायज ठहराने के बहुत से तरीके हो सकते हैं, लेकिन समाज वैज्ञानिकों को इनके खतरे सामने रखना चाहिए, और लोकतंत्रों में अदालतों को सरकार के तर्कों से परे भी कुछ समझने के लिए तैयार रहना चाहिए। हिन्दुस्तान में तो संसद भी सरकार से पेगासस पर एक शब्द नहीं उगलवा पाई थी, यह तो सुप्रीम कोर्ट ही था जिसने हिन्दुस्तानी सरकार द्वारा अपने ही नागरिकों के खिलाफ इस घुसपैठिया फौजी सॉफ्टवेयर के हमले के आरोपों की जांच करवाना शुरू किया है। पुलिस की प्रोफाइलिंग के खतरे कम नहीं हैं, इस बात को लोगों को समझना चाहिए, और यह एक नए किस्म का टेक्नालॉजी आधारित रंगभेद रहेगा, या हिन्दुस्तान जैसे संदर्भ में यह एक नवसाम्प्रदायिकता रहेगी।
अपने आसपास बहुत से लोग हमें ऐसे देखने मिलते हैं जिन्हें अक्सर ही जिंदगी की किसी न किसी, या हर किसी, बात से शिकायत रहती है। नतीजा यह निकलता है कि उनके पास शिकायत, मलाल, या नाराजगी के अलावा आसपास के लोगों को देने के लिए और कुछ नहीं रहता। शायद ऐसे ही लोगों को ध्यान में रखते हुए अभी दुनिया में एक जगह एक ऐसा महीना मनाया गया जिसमें हिस्सा लेने वाले लोगों के लिए यह शर्त रखी गई कि वे इस पूरे महीने को बिना कोई शिकायत किए हुए गुजारेंगे। ऐसी कोशिश करने वाले लोगों के पास मनोवैज्ञानिकों का यह निष्कर्ष था कि लोग जब शिकायत करते हैं तो उनका दिमाग स्ट्रेस हार्मोन रिलीज करता है जो कि दिमाग के उन हिस्सों को नुकसान पहुंचाता है जो परेशानी का इलाज ढूंढने का काम करते हैं।
इस प्रोजेक्ट को डिजाइन करने वालों के पास यह वैज्ञानिक तथ्य भी है कि दिमाग के इस हिस्से को उस वक्त भी नुकसान पहुंचता है जब वे लगातार अनुपातहीन तरीके से दूसरों की शिकायत सुनते रहते हैं। इस विषय पर लिखी गई एक किताब में लेखक ने यह लिखा था कि शिकायतों से होने वाली परेशानी पैसिव स्मोकिंग जैसा नुकसान करती है जिसमें सिगरेट कोई और पी रहे हैं, लेकिन आसपास के लोगों को भी नुकसान पहुंचता है। ऐसे प्रयोग में शामिल होने वाले लोगों ने अपने तजुर्बे लिखे हैं जिन्हें पढऩा और सुनना दिलचस्प हो सकता है।
लोग अपने आसपास के लोगों से बहुत बुरी तरह प्रभावित होते हैं। बहुत से लोगों का यह मानना रहता है कि कोई व्यक्ति उतने ही अच्छे हो सकते हैं जितनी अच्छाई उनके आसपास के सबसे करीबी पांच लोगों की औसत अच्छाई होती है। सयाने बड़े बुजुर्ग हमेशा संगत के बारे में कहते आए हैं कि संगत अच्छी रखनी चाहिए। यह बात दुनिया की अलग-अलग संस्कृतियों और भाषाओं में अलग-अलग शब्दों में कही गई है, और चूंकि पुरूषवादी भाषा का हमेशा से बोलबाला रहा है इसलिए दार्शनिक बातें भी मानो महज पुरूषों के लिए कही जाती हैं, और कहा गया था- अ मैन इज नोन बाइ द कंपनी ही कीप्स। मतलब यह कि महिला तो अच्छी या बुरी तरह की संगत के लायक भी नहीं है, और महिला कैसे लोगों के साथ रहती है, या कैसे लोगों को साथ रखती है उससे भी कोई मायने नहीं रखता।
लेकिन आज के मुद्दे की बात पर लौटें, तो लोगों को बारीकी से यह सोचना चाहिए कि वे तमाम जिंदगी से और तमाम लोगों से अपनी शिकायतों को कम कैसे कर सकते हैं? जिस तरह एक गिलास में आधे भरे पानी को देखकर आधी खाली ग्लास पर अफसोस भी किया जा सकता है, और आधे भरे पानी की खुशी भी मनाई जा सकती है, उसी तरह असल जिंदगी भी रहती है। लोग अंबानी की दौलत से अपनी तुलना करें, तो नवीन जिंदल भी बाकी पूरी जिंदगी मलाल मनाते काट सकता है, और नहीं तो जिनका पैर टूट गया है वे भी यह देखते हुए तसल्ली से जी सकते हैं कि जिन लोगों के दोनों पैर कट चुके हैं वे लोग भी जिंदा रहते हैं, और नकली पांवों के साथ एवरेस्ट भी जीतकर आ जाते हैं।
लोगों को दुनिया में नकारात्मकता कम करने के लिए सबसे पहले अपनी सोच को सकारात्मक बनाना चाहिए और स्थायी रूप से चौबीसों घंटे मलाल का गमी का जलसा मनाना बंद करना चाहिए। ऐसा करने पर लोगों को यह समझ में आएगा कि जिंदगी की बहुत सी तकलीफें तो अपनी ही सोच से पैदा होती है, और अपनी कुछ तकलीफों के बारे में पूरे वक्त सोचने और लोगों से बार-बार कहने की वजह से उन तकलीफों की गूंज अपने ही दिल-दिमाग में भर जाती हैं, और कई गुना अधिक तकलीफ देती हैं। अपनी जिंदगी से हताश-निराश लोग मानो दुनिया की शिकायत करते हुए अपने ही बारे में इतना बुरा बोलने लगते हैं कि धीरे-धीरे उनके शब्द उन पर ही खरे उतरकर यह साबित करने लगते हैं कि अगर यही बात उन्हें इतनी पसंद है, तो फिर यही सही। वैसे भी किसी समझदार इंसान ने कभी कहा था कि अपने खुद के बारे में भी कभी बहुत बुरा नहीं बोलना चाहिए क्योंकि बंद घड़ी का बताया वक्त भी हर दिन दो बार तो सही निकलता ही है।
फिर यह बात भी समझना चाहिए कि शिकायतों से लिपटे हुए जीने वाले लोगों से आसपास के समझदार लोग भी थककर कतराने लगते हैं। सिर्फ वे ही लापरवाह लोग आसपास रह जाते हैं जिन्हें इस नकारात्मकता से खुद को होने वाले नुकसान की फिक्र नहीं रहती। जबकि संक्रामक रोग की तरह शिकायती जिंदगी लगातार लोगों को और शिकायतों का अहसास कराती चलती है, और यह सिलसिला अपने भीतर भी बढ़ते चलता है, और अपने इर्द-गिर्द भी। इसलिए समझदार लोगों को शिकायतों के इस जाल में फंसने से बचना चाहिए, चाहे यह खुद की कही जा रही शिकायतें हों, या कि दूसरों से सुनी गई शिकायतें हों। शिकायतों को सुनना भी तभी चाहिए जब किसी सरकारी या निजी नौकरी के तहत शिकायतों को सुनने और दर्ज करने के लिए तनख्वाह मिलती हो। जब तक रोजी-रोटी न जुड़ी हो, लोगों को लगातार शिकायतें सुनने से भी मना कर देना चाहिए क्योंकि हर शिकायत का इलाज तो उस कथित ईश्वर के पास भी नहीं है जिसे कि सब कुछ जानने वाला सर्वज्ञ कहा जाता है।
कुल मिलाकर एक महीना ऐसा गुजारकर देखें जिसमें जिंदगी से, लोगों से, दुनिया से कोई शिकायत न रहे, और हो सकता है कि महीना गुजरने तक आपको यह अहसास होने लगे कि आप एक बेहतर दुनिया में, बेहतर लोगों के बीच, एक बेहतर जिंदगी जी रहे हैं। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
जो चीन दशकों से एक बच्चे की नीति पर चल रहा था और वहां के शादीशुदा जोड़ों को दूसरा बच्चा पैदा करने की इजाजत नहीं थी, उसने अभी 2016 में ही दूसरे बच्चे की इजाजत दी थी और 5 बरस के भीतर आज नौबत यह आ गई है कि वहां के सरकारी मीडिया ने एक सम्पादकीय लिखा है कि सत्तारूढ़ कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्यों को तीसरा बच्चा पैदा करना ही होगा, और एक या दो बच्चे रखने का कोई बहाना नहीं चलेगा। सरकार ने अभी-अभी वहां पर आबादी बढ़ाने के लिए तीसरे बच्चे पर कई तरह की टैक्स छूट और सब्सिडी की घोषणा भी की है। लोगों को बढ़ावा दिया जा रहा है कि वे कम से कम 3 बच्चे तो पैदा करें। जिस चीन में कई दशक से सरकार एक बच्चे की नीति को पूरी ताकत से लागू किए हुए थी, वह अब तीन बच्चों के लिए बढ़ावा देने की नौबत में आ गई है क्योंकि वहां की अर्थव्यवस्था में, वहां की आबादी बड़ा योगदान दे रही है, और सरकार को यह लगता है कि अगर आबादी गिरती चली जाएगी तो चीन की अर्थव्यवस्था को संभालना भी मुश्किल होगा। आज वहां पर लोगों की दिलचस्पी अधिक बच्चे पैदा करने में नहीं रह गई है, और दुनिया भर के जनसंख्या विशेषज्ञों में यह माना जाता है कि एक जोड़े के दो बच्चे अगर होते चलें तो ही देश की आबादी उतनी बनी रह सकती है।
दूसरी तरफ हिंदुस्तान में आबादी एक बहुत बड़ा मुद्दा है। इस देश में सत्ता और राजनीति से जुड़े हुए, अर्थव्यवस्था जुड़े हुए बहुत से लोग यह मानते हैं कि हिंदुस्तान की आबादी बहुत बड़ी समस्या है, और आबादी घटाए बिना यहां का काम नहीं चलेगा। इस जगह हमने बरसों से यह बात बार-बार लिखी है कि आबादी किसी देश के लिए बोझ तभी बनती है जब वहां की सत्ता उस आबादी के उत्पादक उपयोग की योजनाएं नहीं बना पाती। वरना एक इंसान, और खासकर मजदूर दर्जे के गरीब इंसान जितनी खपत करते हैं, उससे अधिक पैदा करते हैं। उन्हें जमीन पर खेती करने मिल जाए तो भी वह साल भर में जितना खाते हैं, उससे अधिक उगाते हैं। वे शहरों में, कारखानों में, कंस्ट्रक्शन में, मेहनत करते हैं तो भी वे अपने खाने से अधिक उत्पादकता देश की अर्थव्यवस्था में जोड़ते हैं। इसलिए आबादी को जो लोग बोझ मानते हैं वे इस बात को अनदेखा करते हैं कि वहां देश प्रदेश की सरकारों ने अपनी जिम्मेदारी पूरी नहीं की है, और ऐसी योजनाएं नहीं बनाई हैं कि लोगों को रोजगार मिले, लोग काम कर सकें, और उनकी उत्पादकता राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में जुड़ सके।
मिसाल के तौर पर छत्तीसगढ़ में लोग गोबर बेचकर भी कुछ कमा रहे हैं, और गोबर का खाद बनाकर भी। लेकिन देशभर में जो काम बड़े पैमाने पर होना चाहिए वह ग्रामीण रोजगार और स्वरोजगार का है जिसके तहत तरह-तरह के पशु-पक्षी पालना, शहद और रेशम का काम करना, लाख की खेती करना, मशरूम उगाना, खेतों की उपज को मशीनों से प्रोसेस करके उन्हें बड़े शहरों के कारखानों तक भेजना, कपड़े बुनना, दोना-पत्तल बनाना, जैसे कई हजार किस्म के काम हो सकते हैं जो अलग-अलग इलाकों में वहां के जंगलों, खेतों और वहां की तरह-तरह की उपज के आधार पर तय हो सकते हैं। ऐसे कोई भी काम करने वाले लोग किसी भी तरह से उस देश पर बोझ नहीं हो सकते। देश पर बोझ तो दरअसल सत्ता पर बैठे हुए वे लोग हैं जो कि लोगों को स्वरोजगार देने की योजना बनाने की क्षमता नहीं रखते, लेकिन सत्ता पर आ जाते हैं, और वहां बने रहते हैं।
भारत और बांग्लादेश अभी पौन सदी पहले तक एक ही देश थे। फिर वह हिस्सा पाकिस्तान बना, और बाद में भारत के बनवाए हुए बांग्लादेश बना। उसने राजनीतिक अस्थिरता, फौजी हुकूमत, और हिंसा का बहुत लंबा दौर देखा। बाढ़ का बहुत बड़ा नुकसान झेला। उसका विकास हिंदुस्तान के मुकाबले बहुत पीछे होना चाहिए था। लेकिन गरीबी, धार्मिक कट्टरता, अशिक्षा, और राजनीतिक अस्थिरता के बावजूद बांग्लादेश आज सकल राष्ट्रीय उत्पादन में भारत के आगे निकल गया है। दुनिया के खेल-कूद और फैशन के कोई ऐसे बड़े ब्रांड नहीं हैं, जिनके कपड़े और जूते, फुटबॉल और दूसरे सामान बांग्लादेश में ना बनते हों। वहां की आम आबादी ने बड़ी-बड़ी महंगी और आयातित मशीनों पर तरह-तरह की सिलाई करना सीख लिया है और बांग्लादेश पूरी दुनिया के लिए एक दर्जी की तरह काम कर रहा है। उसने अपनी अर्थव्यवस्था को भारत की प्रति व्यक्ति की अर्थव्यवस्था के भी ऊपर पहुंचा दिया है। अब इस बात में, इस काम में ऐसी कौन सी चीज है जिसे हिंदुस्तानी नहीं कर सकते थे? यह देश तो बड़े-बड़े शैक्षणिक संस्थानों का देश है, आईआईटी और आईआईएम का देश है जहां से निकले हुए लोग दुनिया की सबसे बड़ी कंपनियां हांक रहे हैं। ऐसे लोग तैयार करने वाला यह देश अपने मामूली मजदूरों को सिलाई का वह काम भी नहीं सिखा पाया जिसके चलते बांग्लादेश विदेशी मुद्रा कमाने वाला छोटा सा, लेकिन बड़ा देश हो गया है। अब यह तो देशों की सरकारों पर रहता है कि वे अपने लोगों को कितना उत्पादक बना सकती हैं। बांग्लादेश की तरह अपने लोगों को हुनर सिखाकर, उनके लिए रोजगार जुटाकर, उनके लिए मशीनें लगाकर, दुनिया भर का कारोबार लाकर जो सरकार इस ट्रेन को पटरी पर दौड़ा सकती है, उसे फिर आगे फिक्र करने की जरूरत नहीं रहती कि उसकी आबादी बढ़ रही है। बांग्लादेश में इस तरह का रोजगार करने वाले लोग हिंदुस्तान के आम लोगों के मुकाबले बहुत अधिक कमाई कर रहे हैं और उनके हुनर में ऐसी कोई बात नहीं है जिसे हिंदुस्तानी नहीं सीख सकते थे। हिंदुस्तानी बाजार में बिक रहे सबसे बड़े अंतरराष्ट्रीय फैशन ब्रांड देखें, तो उनके भीतर लेबल लगा दिखता है, बांग्लादेश, वियतनाम और दूसरे छोटे-छोटे देशों में उनके बनने का। यह काम हिंदुस्तान में क्यों नहीं हो सकता था?
इसलिए जिस तरह आज चीन अपनी आबादी बढ़ाने पर आमादा है और वहां के लोग अधिक बच्चों का खर्च नहीं उठा पा रहे हैं, लेकिन देश की सरकार लगी हुई है कि लोग कम से कम 3 बच्चे तो पैदा करें ही। आज हिंदुस्तान में बच्चे कम पैदा करने की जो मुहिम चल रही है और हर बात के लिए जिस तरह अधिक आबादी को जिम्मेदार ठहरा दिया जाता है उस सोच को सुधारने की जरूरत है। आबादी को हुनर सिखाकर, काम से लगाकर, इस देश की अर्थव्यवस्था को आसमान पर पहुंचाया जा सकता है। लेकिन जब सरकारों की दिलचस्पी बड़े-बड़े कारखानों तक सीमित रह जाती है और आम जनता को स्वरोजगार के काम मुहैया कराने में कोई दिलचस्पी नहीं रहती, तो वैसे ही देश में आबादी बोझ हो सकती है। चीन में आज इतना काम है, और बाकी दुनिया से जुटाया हुआ इतना काम है कि एक-एक कारखाना कामगार को ओवरटाइम करना पड़ता है, उन्हें कोई छुट्टी नहीं मिल पाती है। हम उनके काम के हालात या उनके मानवाधिकार की बात नहीं कर रहे हैं, लेकिन उनके पास काम कितना है इसकी बात कर रहे हैं, जिसकी वजह से वहां के कारखानेदार, और वहां की सरकार, इन दोनों को वहां के कामगार से ओवरटाइम करवाना पड़ रहा है। दूसरी तरफ हिंदुस्तान महज सपना देखते बैठा है कि वह चीन से बड़ी अर्थव्यवस्था हो जाएगा और इस सपने को पूरा करने के लिए उसके पास जमीन पर कोई कोशिश नहीं है। जब तक किसी देश की राष्ट्रीय उत्पादकता गिनी-चुनी कंपनियों तक सीमित रहेगी और आम जनता की उत्पादकता का उसमें योगदान बढ़ाने की फिक्र नहीं की जाएगी तब तक ही आबादी बोझ बनी रहेगी। वरना कुदरत ने इंसानों को ऐसा बनाया है कि वे अपनी जरूरत से बहुत अधिक पैदा करने के लायक हैं। हिंदुस्तान और चीन के मॉडल सामने रखकर समझने की जरूरत है, और हिंदुस्तान और बांग्लादेश की तुलना करके भी हिंदुस्तान कुछ सीख सकता है। आबादी अधिक होने से देश पर पडऩे वाले बोझ का रोना फिजूल की बात है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
सुप्रीम कोर्ट के एक बड़े वकील और छत्तीसगढ़ से राज्यसभा में कांग्रेस की तरफ से भेजे गए एडवोकेट केटीएस तुलसी ने कल बिलासपुर में एक व्याख्यान में कई बड़े दिलचस्प तथ्य रखे। हिंदुस्तान में यह तो माना जाता है कि अदालतें बहुत धीमी रफ्तार से काम करती हैं, लोगों को फैसला पाने में पूरी जिंदगी लग जाती है, लेकिन ऐसा क्यों होता है इसकी एक बड़ी वजह एडवोकेट तुलसी ने कल अपने व्याख्यान में बताई। उन्होंने कहा कि कई देशों में जैसे ही थानों में किसी जुर्म की या हादसे की जानकारी के लिए फोन जाता है तो वॉइस रिकॉर्डिंग शुरू हो जाती है, और उसी को एफआईआर माना जाता है। भारत में भी एफआईआर का हिंदी प्रथम सूचना रिपोर्ट होना तो ऐसा ही चाहिए, लेकिन होता नहीं है कई बार तो एफआईआर लिखने के लिए महीनों तक लोगों को धक्के खाने पड़ते हैं, और पुलिस के बारे में कहा जाता है कि वह आमतौर पर एफआईआर लिखने के लिए उगाही भी कर लेती है।
एडवोकेट तुलसी ने बताया कि दुनिया के बेहतर इंतजाम वाले देशों में टेलीफोन पर मिली शिकायत या जानकारी को कई थानों के लोग सुनते हैं, तुरंत सक्रिय हो जाते हैं, पुलिस के साथ ही फॉरेंसिक मोबाइल टीम भी चली जाती है और आधे घंटे में ही फिंगरप्रिंट बगैर इक_े कर लिए जाते हैं। इन सबके चलते हुए सुबूत विश्वसनीय रहते हैं, मददगार रहते हैं, और अदालती सुनवाई और फैसलों में देर नहीं लगती। हिंदुस्तान के बारे में उन्होंने बताया कि यहां पर छोटे अपराधों में चालान पेश करने के लिए 60 दिन और बड़े मामलों में 90 दिन का समय मिलता है लेकिन अक्सर इतने वक्त में भी चालान पेश नहीं होते, नतीजा यह होता है कि भारत सजा दिलवाने का प्रतिशत सिर्फ 2.9 है जबकि कई देशों में यह 48 फीसदी या उससे अधिक है। उन्होंने कहा कि यहां एक-एक मजिस्ट्रेट या जज के पास हर दिन करीब 60 मामले आते हैं, और किसी के लिए यह मुमकिन नहीं होता कि 60 अलग-अलग मामलों की फाइलों को देखकर पढ़ सकें, इसलिए एक केस में सिर्फ दो-तीन मिनट का समय मिलता है। नतीजा यह है कि जेलों में भी भयानक भीड़ है, जहां 80 फीसदी विचाराधीन कैदी हैं, और सुनवाई में देरी के कारण उन्हें एक निश्चित समय सीमा में जमानत का फायदा भी नहीं मिलता।
अभी जब हिंदुस्तान की फिल्म इंडस्ट्री के सबसे बड़े नाम शाहरुख खान के बेटे आर्यन खान को एक सही या गलत मामले में गिरफ्तार किया गया तो उसकी जमानत के लिए मानो धरती और आसमान को एक कर दिया गया। सुप्रीम कोर्ट के सबसे दिग्गज और शायद हिंदुस्तान के सबसे महंगे वकीलों में से एक को लाकर खड़ा कर दिया गया जिसने नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो के केस की धज्जियां उड़ा दीं। केस को इतना कमजोर साबित कर दिया कि जज को कहना पड़ा कि आर्यन के खिलाफ किसी तरह का कोई सबूत नहीं दिख रहा है. और यह मामला उस अफसर के बनाए केस का है जो बड़ा नामी-गिरामी है, और जिसने हिंदुस्तान के ऐसे बहुत बड़े-बड़े फिल्म कलाकारों को नशे के मामलों में घेरा हुआ है। उसका बनाया हुआ केस इतना कमजोर साबित हुआ कि न सिर्फ हाई कोर्ट ने जमानत दी बल्कि नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो की कार्यवाही की धज्जियां भी उड़ा दीं। अब सवाल यह है कि यह केस सच्चा था या गढ़ा हुआ था, जो भी था, यह इतना कमजोर बना था कि यह जमानत के स्तर पर भी नहीं टिक पाया, जमानत की सुनवाई में ही इसकी बुनियादी कमजोरियां उजागर हो गईं। दूसरी तरफ पुलिस के आम मामलों में हाल यह रहता है कि पुलिस सच्चे गवाहों के साथ-साथ कुछ पेशेवर गवाहों को भी मामले में जोड़ देती है क्योंकि उसका यह मानना रहता है कि सच्चे गवाह अदालत में मुजरिम के वकील के सवालों के सामने टिक नहीं पाते, लडख़ड़ा जाते हैं, और वैसे में घिसे और मंजे हुए पेशेवर गवाह ही पुलिस के मामले को साबित कर पाते हैं। अब यह कैसी न्याय व्यवस्था है जिसकी शुरुआत ही झूठ से और फरेब से होती और जिससे इंसाफ की उम्मीद की जाती है?
दूसरी तरफ हिंदुस्तान की जेलों की हालत को देखें तो वहां बहुत अमानवीय हालत में लोग फंसे हुए हैं, उन्हें अदालतों में पेश करने के लिए पुलिस कम पड़ती है, और पुलिस बार-बार अदालत से अगली पेशी मांगती है कि पुलिस बल की कमी है। एक दूसरी बात जिसे समझने की जरूरत है, जेल और अदालत, इनका एक-दूसरे से इतने दूर रहना भी ठीक नहीं है। फिर जो पुलिस जुर्म की जांच करती है, उस पुलिस के जिम्मे सौ किस्म के दूसरे काम डालना भी ठीक नहीं है। इसके लिए विदेश को देखने की जरूरत नहीं है हिंदुस्तान में ही कुछ प्रदेशों में जुर्म की जांच का काम पुलिस के अलग लोगों के हवाले रहता है, और कानून-व्यवस्था को कायम रखने का काम दूसरे पुलिसवालों के हवाले रहता है। वरना होता यह है कि थाने के इलाके में कोई मंत्री, मुख्यमंत्री पहुंचने वाले हैं तो वहां की पुलिस पूरे-पूरे एक-दो दिन उसी इंतजाम में लग जाती है, और उसकी तमाम किस्म की जांच धरी रह जाती है। वैसे दिनों पर पुलिस अदालत में भी सुबूत या डायरी लेकर पेश नहीं हो पाती, सरकारी वकील के पास नहीं जा पाती। इन सबको देखते हुए पुलिस के दो हिस्से साफ-साफ बना देना जरूरी है, एक हिस्सा जिसे जुर्म की जांच करना है, उसे किसी भी किस्म के दूसरे काम से अलग रखना चाहिए। भारत में जहां-जहां ऐसा बंटवारा कर दिया गया है वहां पर जुर्म की बेहतर जांच होती है। वरना थानों की पुलिस के हवाले जब जांच रहती है तो जब वहां कोई धरना प्रदर्शन नहीं रहता, जब वहां कोई जुलूस नहीं निकलते रहता, जब वहां कोई धार्मिक त्यौहार नहीं मनाया जाता, जब वहां किसी मंत्री या नेता का दौरा नहीं रहता, तब पुलिस कभी-कभी जांच भी कर लेती है। यह सिलसिला खत्म होना चाहिए।
एडवोकेट तुलसी ने जो बात की है उसका एक और पहलू या तो उनके भाषण में नहीं आया है या भाषण की खबर में नहीं आया है। हिंदुस्तान में हाल के बरसों में बहुत सी जांच एजेंसियां लोगों को घेर कर रखती हैं, और उन पर ऐसे कड़े कानून लगाती हैं कि उनकी जमानत ना हो सके। इसके बाद उनकी जमानत को रोकने के लिए ही पूरा दमखम लगा देती हैं। भीमा कोरेगांव का केस हो या शाहीन बाग का केस हो, या दिल्ली के किसी दूसरे प्रदर्शन का केस हो, जहां कहीं भी लोगों को निशाने पर लेकर उन्हें प्रताडि़त करने की सरकार की नीयत रहती है, वहां जांच एजेंसियां उन्हें जमानत ना मिलने देकर तरह-तरह से प्रताडि़त करती हैं, और मामले की सुनवाई भी शुरू नहीं हो पाती और लोगों के कई बरस कैद में निकल जाते हैं।
छत्तीसगढ़ के जिस बिलासपुर हाईकोर्ट के वकीलों के बीच एडवोकेट तुलसी का यह व्याख्यान हुआ है वहीं पर वकालत करने वाली सुधा भारद्वाज को भीमा कोरेगांव केस में बंद हुए बरसों हो रहे हैं, और सरकारी एजेंसी उनकी जमानत नहीं होने दे रही। अब इतने बरसों की कैद के बाद अगर वे बेकसूर भी साबित हो जाती हैं, तो भी क्या होगा?सामाजिक कार्यकर्ताओं, छात्र नेताओं, पत्रकारों का एक अलग ऐसा तबका है जो कि सरकार से अपनी असहमति की वजह से उसके निशाने पर रहता है और सरकार की एजेंसियां जिनके खिलाफ ऐसे कड़े कानून के तहत केस दर्ज करती हैं कि उनकी जमानत ना हो सके।
अब हिंदुस्तान के भीतर राजद्रोह और देशद्रोह के मामले बड़ी आसानी से लोगों के खिलाफ दर्ज कर दिए जा रहे हैं, लेकिन बरसों के बाद जाकर अदालत को समझ आता है कि इस मामले में कोई सुबूत नहीं है, कोई दम नहीं है, और तब जाकर लोगों की जमानत हो पाती है। अभी जब यह लिखा ही जा रहा है उसी वक्त यह खबर आई है कि जेएनयू के एक पूर्व छात्र और शाहीन बाग में सीएए-एनआरसी के खिलाफ प्रदर्शन करने वाले शरजील इमाम को इलाहाबाद हाईकोर्ट से कल जमानत मिली है। वे साल भर से गिरफ्तार करके जेल में रखे गए थे और उन पर यह आरोप था कि उन्होंने उत्तर पूर्वी राज्यों को भारत के बाकी हिस्सों से अलग होने के लिए उकसाया। इस मामले में शरजील के खिलाफ मणिपुर, असम, और अरुणाचल की पुलिस ने भी एफआईआर दर्ज की थी, और असम, और अरुणाचल के मामलों में उन्हें पहले ही जमानत मिल चुकी थी। फिलहाल यह छात्र नेता दिल्ली की तिहाड़ जेल में बंद है, और उस पर देशद्रोह के आरोप लगाए गए हैं।
अब एडवोकेट तुलसी ने जिन मामलों की भीड़ के बारे में कहा है उससे परे यह अलग किस्म का रुझान हाल के वर्षों में हिंदुस्तान में सामने आया है जब लोगों की जमानत रोककर लंबे समय तक कैद में रखा जाता है, और उसे कैद कहा भी नहीं जाता। यह सिलसिला भी खत्म होना चाहिए क्योंकि इससे भी जेलों में भीड़ बढ़ रही है, अदालतों में मामले बढ़ रहे हैं, पुलिस और जांच एजेंसियों पर बोझ बढ़ रहा है, और लोगों का जमानत पाने का जायज हक छीना जा रहा है। इस किस्म की बहुत सी बातों पर सुप्रीम कोर्ट को भी गौर करना चाहिए। क्योंकि ऐसा किसी एक मामले में ही हो रहा हो ऐसा नहीं है, यह देश भर में केंद्र और राज्य सरकारों की तरह-तरह की एजेंसियां सत्ता को नापसंद लोगों के खिलाफ बड़े पैमाने पर कर रही हैं, इस पर भी रोक लगनी चाहिए। देखते हैं कि एडवोकेट तुलसी की छेड़ी गई बात कहां तक आगे बढ़ती है।
हाल के महीनों में हिंदुस्तान में सुप्रीम कोर्ट ने बहुत से ऐसे फैसले दिए हैं जिनसे केंद्र और राज्य सरकारों को झटका लगा है, और जिनसे नागरिक स्वतंत्रता का हक दमदारी से फिर से कायम होते दिख रहा है। लेकिन कभी-कभी बहुत तकनीकी आधार पर दो बड़ी अदालतों के बीच में इस तरह का टकराव होता है कि उसमें नीचे की अदालत का रुख अधिक सकारात्मक दिखता है, और सुप्रीम कोर्ट उसे एक तकनीकी आधार पर पलट देता है। ऐसा ही एक मामला अभी कलकत्ता हाई कोर्ट के एक फैसले को लेकर आया जिसने राज्य में मनाए जाने वाले काली पूजा, दिवाली, छठ पूजा, गुरु नानक जयंती, क्रिसमस, और नए साल के त्योहारों पर पटाखों के इस्तेमाल पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले को खारिज कर दिया और कहा कि सुप्रीम कोर्ट पहले ही पटाखों के उपयोग को प्रतिबंधों के साथ छूट दे चुका है, और पटाखों पर पूर्ण प्रतिबंध नहीं लगाया जा सकता। सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला 1 नवंबर को आया था और उसके तुरंत बाद आई दिवाली पर दिल्ली की हवा में इतना जहर घुल गया है कि आज दिवाली के तीसरे दिन भी दिल्ली में सांस लेना महफूज नहीं है।
देश की सबसे बड़ी पर्यावरण संस्था सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट की एक रिपोर्ट कहती है कि ‘केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) की ओर से पार्टिकुलेट मैटर (पीएम) 2.5 और पीएम 10 के स्तर की 24 घंटे निगरानी करने वाले केंद्रीय नियंत्रण कक्ष (सीसीआर) ने 5 नवंबर, 2021 की रात 9.30 बजे के बाद अपडेट देना बंद कर दिया है। दीवाली की रात से 5 नवंबर के रात 9.30 बजे तक यानी कुल 32 घंटे तक पीएम 2.5 हवा में आपात स्तर (300 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर) पर ही बना रहा।’ सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला है कि प्रदूषण का स्तर एक सीमा से अधिक बढऩे पर एक आपात योजना लागू की जाए जिसके तहत कई किस्मों के काम दिल्ली में बंद कर दिए जाएं। लेकिन एक तरफ दिल्ली के आसपास खेतों में फसलों के ठूंठ जलाए जा रहे हैं, और दूसरी तरफ पटाखे इतनी बड़ी संख्या में छोड़े गए कि दिल्ली में सुप्रीम कोर्ट के आदेश को किसी ने भी नहीं माना।
कलकत्ता हाईकोर्ट का आदेश बिल्कुल इसी बात को सोचते हुए दिया गया था कि पटाखों और ग्रीन पटाखों में फर्क कर पाना प्रशासन के लिए संभव नहीं होगा, क्योंकि पटाखा बनाने वाले लोग उन पर ग्रीन पटाखे का लेबल लगाकर बेच रहे हैं, और सरकारी अधिकारी कर्मचारी इसकी कोई शिनाख्त नहीं कर सकते। हकीकत भी यही है कि सुप्रीम कोर्ट की नजरों के सामने, सुप्रीम कोर्ट के जजों के फेफड़ों को प्रभावित करते हुए दिल्ली के इलाके में दिवाली पर जितने पटाखे फोड़े गए, उन पर अदालत का, या सरकार का कोई भी जोर नहीं चला। बहुत सी बातें ऐसी रहती हैं जिनको एक फैसले में तो लिखा जा सकता है, लेकिन इन पर अमल का कोई जरिया नहीं रहता। करने के लिए तो सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में थाने के स्तर तक के पुलिस अफसर की शिनाख्त कर दी थी कि जिस इलाके में 2 घंटे के बाद पटाखे फोड़े जाएंगे या प्रतिबंधित पटाखे फोड़े जाएंगे उन इलाकों के थाना प्रभारी भी जिम्मेदार रहेंगे, लेकिन उस बात का क्या हुआ? न तो कहीं पर शासन-प्रशासन ने इस बात को दर्ज किया, न ही कोई केस दर्ज हुआ। इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने एक तकनीकी आधार पर हाईकोर्ट के आदेश को खारिज तो कर दिया कि पटाखों पर पूर्ण प्रतिबंध नहीं लगाया जा सकता, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने देश में प्रदूषण की खतरनाक हालत को जरा भी ध्यान में नहीं रखा, जिसे सोचते हुए, यह जिसका हवाला देते हुए, उसने खुद पहले एक लंबा चौड़ा आदेश जारी किया था।
हम पिछले दस दिनों में दो बार इस मुद्दे पर इसी जगह पर लिख चुके हैं, और फिर लिखने की बात इसलिए महसूस कर रहे हैं कि दिवाली के बाद भी जिस तरह दिल्ली में प्रदूषण का स्तर एकदम जहरीला बना हुआ है, और उसमें पटाखों का जितना बड़ा योगदान रहा है उसे देखते हुए सुप्रीम कोर्ट को अगले साल के लिए अभी से आदेश जारी करना चाहिए ताकि पटाखा उद्योग और कारोबारी अगले साल फिर यह रोना न रोएं कि उनका धंधा प्रभावित होगा। अदालत को यह भी देखना चाहिए कि जिस पुलिस के भरोसे वह बहुत से आदेशों को जारी करने की सोचती है क्या उस पुलिस के पास सचमुच ऐसा कोई खली वक्त है कि वह आबादी के बड़े हिस्से से टकराव मोल ले, दिवाली मना रहे लोगों के खिलाफ जुर्म दर्ज करे, उसके सुबूत रिकॉर्ड करे, और उन्हें अदालतों में साबित करे? न पुलिस के पास इतना वक्त है, और न अदालतों के पास. इन दोनों के जिम्मे पहले से जितना बोझ पड़ा हुआ है वह उसी से नहीं निपट पा रहे हैं, पुलिस अधिकतर मामलों की समय पर जांच नहीं कर पाती, और अदालत से तो शायद ही किसी मामले का समय पर निपटारा हो सकता है। तो ऐसी हालत में ऐसे अमूर्त किस्म के (अनइन्फोरसिएबल), आदेश या फैसले सुप्रीम कोर्ट को या किसी दूसरी अदालत को नहीं देने चाहिए, जिन पर अमल नहीं हो सकता।
देश की हकीकत यह है कि केंद्र सरकार और उत्तर प्रदेश की राज्य सरकार के देखते हुए भी लोगों की भीड़ ने जब बाबरी मस्जिद गिरा दी थी तब भी यही तर्क सामने आया था कि अगर इतनी भीड़ पर पुलिस कार्यवाही की गई होती तो सैकड़ों लोग मारे गए होते। इसलिए जो कुछ हो सकता था वह समय के पहले ही हो सकता था। पटाखों को लेकर जो प्रतिबंध लागू हो सकते हैं वे दिवाली के काफी पहले से ही लागू किए जा सकते हैं वह उनके बनाने और बिकने पर ही लागू किए जा सकते हैं एक बार लोगों के घर अगर पटाखे पहुंच गए तो उसके बाद कोई प्रतिबंध लागू नहीं हो सकते। हिंदुस्तान की कोई पुलिस अपने शहर की आबादी के एक बड़े हिस्से से टकराव नहीं ले सकती। एक-एक पुलिस सिपाही क्या पटाखे जला रहे सैकड़ों लोगों को किसी भी तरह से रोक सकते हैं ?
फिर सुप्रीम कोर्ट की इस सोच में भी हमको एक खामी दिखती है कि पटाखों पर पूर्ण प्रतिबंध नहीं लगाया जा सकता। आज जब ब्रिटेन में ग्लास्गो शहर में दुनिया भर से 20,000 से अधिक लोग इकट्ठे होकर पर्यावरण को बचाने की बात सोच रहे हैं, और लगातार यह फि़क्र की जा रही है कि धरती को कैसे बचाया जाए, कैसे प्रदूषण को कम किया जाए, कैसे मौसम की मार को बढऩे से रोका जाए, तो ऐसे में अगर हिंदुस्तान का सुप्रीम कोर्ट पटाखों पर रोक को लेकर एक दकियानूसी और परंपरागत सोच को आगे बढ़ाता है कि पटाखों पर पूरी रोक नहीं लगाई जा सकती, तो उसकी यह सोच गलत है। जिस सामान से केवल हवा प्रदूषित हो, हवा में असहनीय शोर गूंजे, उसमें जहर फैले, उसे जलाने या फोडऩे का हक किसी को कैसे दिया जा सकता है? जब हिंदुस्तान में पटाखों का इस्तेमाल शुरू हुआ था तब लोकतंत्र नहीं था, और उस वक्त कोई ऐसे कानून नहीं थे कि वे दूसरों को नुकसान पहुंचाने वाले सामानों पर रोक लगाएं। लेकिन वक्त के साथ-साथ ऐसे नुकसान को नापने के वैज्ञानिक पैमाने सामने आए. आज प्रदूषण को नापने के ठोस तरीके मौजूद हैं।
आज यह तक मौजूद है कि किस तरह प्रदूषण के चलते हुए अकेले दिल्ली शहर में पिछले 1 बरस में कितने हजार अतिरिक्त लोगों की मौत हुई है. तो ऐसे में पटाखों पर पूरी रोक क्यों न लगाई जाए? किसी के अपनी खुशी मनाने के ऐसे जहरीले तरीके को दूसरों की सेहत को बर्बाद करने की छूट क्यों दी जाए? और फिर पटाखे कौन सी धार्मिक परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं? धार्मिक परंपरा तो तालाबों और नदियों में मूर्तियों के विसर्जन करने की भी रही है, जिन पर हाल के वर्षों में अदालतों ने और नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने तरह-तरह की रोक लगाई ही है। नदियों में जिस तरह से अंतिम संस्कार का काम होता था, उस पर कानून ने रोक लगाई ही है। इसलिए वक्त को देखते हुए, आज की हिंदुस्तानी आबादी की सेहत को देखते हुए, पटाखों पर पूरी की पूरी रोक लगानी चाहिए, और यह रोक अभी समय रहते लगा देनी चाहिए ताकि कुछ महीने बाद पटाखा निर्माता या कारोबारी आकर अदालत में खड़े ना हो जाए कि उनके बनाए हुए पटाखों का क्या होगा?
सुप्रीम कोर्ट को इस हकीकत को याद रखना होगा कि देश में पटाखों का सबसे बड़ा इस्तेमाल साल में एक-दो दिनों के कुछ घंटों में ही होता है और यही सबसे घने प्रदूषण की वजह है, लेकिन बाकी वक्त भी जब पटाखे फोड़े जाते हैं तो उस वक्त अंधाधुंध शोर होता है, छोटे बच्चों से लेकर बुजुर्गों तक, और बीमारों से लेकर सोए हुए लोगों तक को भारी तकलीफ होती है, फायदा किसी का भी नहीं होता है। किसी को भी अपनी खुशी मनाने के लिए ऐसे हिंसक तरीकों को इस्तेमाल करने की छूट नहीं दी जानी चाहिए जो कि सौ-पचास बरस पहले की हल्की आबादी में तो चल जाते थे, लेकिन आज जब चारों तरफ इमारतें हैं, तब उनके बीच में ये पटाखे अधिक शोर करते हैं, अधिक नुकसान करते हैं।
कोलकाता हाई कोर्ट का फैसला एकदम ही सही था, वह शासन प्रशासन के ऊपर से एक अनावश्यक सार्वजनिक दबाव को भी घटाने वाला था, और अगर सुप्रीम कोर्ट अपने कमरे में बैठकर यह सोचता है कि उसके फैसले को लागू करवाने की पूरी ताकत शासन-प्रशासन में है तो बहुत से फैसलों पर यह बात लागू नहीं होती है। इसलिए सुप्रीम कोर्ट को अपने इस फैसले पर पुनर्विचार करना चाहिए। पर्यावरण के नुकसान रोकने के लिए जो संस्थाएं काम कर रही हैं, उन्हें अदालत तक जाकर फिर से पिटीशन लगाना चाहिए और अगले बरस के लिए, अगले बरस तक के लिए, और उसके बाद के लिए, एक ऐसा आदेश पाने की कोशिश करनी चाहिए जो देश में पटाखों को पूरी तरह से बंद करे।
अगर खुशी मनाने का यही एक तरीका रह गया है तो यह तरीका आज हिंसक साबित हो चुका है. जहां तक धार्मिक परंपराओं की बात है तो कई बरस पहले इस देश में सती प्रथा को भी धार्मिक माना जाता था, और बाल विवाह को भी धार्मिक माना जाता था, देवदासी भी धार्मिक थी, और तीन तलाक भी धार्मिक था। लेकिन वक्त के साथ-साथ इन सभी में बदलाव किया गया, नए कानून बने, कई अदालतों ने फैसले दिए, तो कहीं सरकार ने संसद से, और विधानसभाओं से कानून बनवाए, और धार्मिक व सार्वजनिक मनमानी को खत्म किया। इसलिए परंपरा का नाम लेकर हिंसा को जारी नहीं रखा जाना चाहिए, और कोलकाता हाई कोर्ट का एकदम सही फैसला पूरे देश में लागू होना चाहिए, और क्योंकि इस बारे में सुप्रीम कोर्ट फैसला दे चुका है, और वह खुद ही देख चुका है कि एक हफ्ते के भीतर ही किस तरह उसके फैसले को हर गली-मोहल्ले में फाडक़र फेंक दिया गया, इसलिए अब उसे एक ऐसा फैसला देना चाहिए जिस पर अमल हो सके। अभी से यह फैसला आने से देश का संगठित और असंगठित पटाखा उद्योग अपने आपको संभाल सकेगा और केंद्र और राज्य सरकारों को ऐसे काम में लगे हुए लोगों के लिए वैकल्पिक रोजगार तुरंत ही उपलब्ध कराना चाहिए जिसके लिए सरकारों के पास दर्जनों योजनाएं हैं। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
मध्य प्रदेश के भाजपा विधायक रामेश्वर शर्मा आज बड़े निराश होंगे। कल से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की वेटिकन जाकर पोप से मुलाकात की तस्वीरें चारों तरफ छाई हुई हैं, और खुद प्रधानमंत्री के ट्विटर और फेसबुक जैसे पेज लगातार इन तस्वीरों को पोस्ट कर रहे हैं। वे पोप से गले मिल रहे हैं, उनके गाल से गाल सटा रहे हैं, और बाइबल को उठाकर सिर पर रख रहे हैं। यह एक अलग बात है कि हिंदुस्तान में गोवा में चुनाव होने जा रहे हैं जहां ईसाई बहुतायत है, लेकिन रामेश्वर शर्मा को इस वजह से भी राहत मिलने वाली नहीं है। अभी कुछ ही समय तो हुआ है जब उन्होंने एक कार्यक्रम में वीडियो कैमरे के सामने कहा था कि हिंदुओं को फादर और चादर से दूर रहना चाहिए। फादर तो जाहिर है ईसाई के लिए कहा जाता है, और चादर जाहिर है कि मुस्लिम महिलाओं के ओढ़ने के कपड़े को कहा जाता है। उन्होंने दशहरा के कार्यक्रम में मंच से भाषण देते हुए कहा था कि फादर और चादर तुम्हें बर्बाद कर देंगे, यह पीर बाबा तुम्हारे मंदिर जाने में बाधा हैं, पीरों को पूजने वालों को कह दो कि तुम जमीन में दफन करने में भरोसा रखते हो, और हम दुनिया को जलाने वालों पर भरोसा रखते हैं, जो बजरंगबली हैं. इस तरह की बहुत सी बातें वह हिंदुत्व को लेकर अपनी हमलावर सोच के तहत करते रहते हैं, इसलिए उनका यह हक भी बनता है कि पोप से इस तरह गले मिलते, लिपटते नरेंद्र मोदी को देखकर वह निराश हो जाएं।
लेकिन ऐसे विधायक की ऐसी बातों को छोड़ भी दें तो भी लोगों का धर्म से जुड़े लोगों के बारे में तजुर्बा बड़ा गड़बड़ रहता है। अभी जाने-माने फिल्म निर्देशक प्रकाश झा की एक वेब सीरीज 'आश्रम' की शूटिंग के दौरान मध्यप्रदेश में बजरंग दल ने प्रकाश झा पर हमला किया, क्योंकि यह वेब सीरीज 'आश्रम' नाम वाली है, और इसमें किसी बाबा के कुकर्मों का जिक्र है। जब इस हमले की खबर चारों तरफ फैली तो लोगों ने सोशल मीडिया पर बजरंग दल से पूछा कि अगर हमला ही करना था तो आसाराम और राम रहीम जैसे बाबाओं के आश्रम पर क्यों नहीं किया जो कि बलात्कार ही कर रहे थे, और आश्रम में ही कर रहे थे। अब अगर ऐसे आश्रमों वाले देश में आश्रम पर एक वेब सीरीज बन रही है तो उस पर हमले से क्या सुधरेगा? खैर धर्म के कुकर्मों की बात कोई नई नहीं है, और आज इस मुद्दे पर यहां लिखने का एक मकसद यही है कि टेक्नोलॉजी दुनिया में एक ऐसा काम करने जा रही है जिससे कि हो सकता है धर्म के कुछ कुकर्म कम हो जाएं।
जर्मनी में अभी कुछ ईसाई चर्चों में एक रोबो पादरी का इस्तेमाल शुरु हुआ है जो कि अलग-अलग 5 भाषाओं में बाइबल के प्रवचन पढ़ सकता है, नसीहत में दे सकता है, आशीर्वाद दे सकता है, और धार्मिक संस्कार करवा सकता है। आज से 500 बरस पहले ईसाई धर्म में यूरोप भर में मार्टिन लूथर ने एक सुधारवादी आंदोलन शुरू किया था, और उसके 500 बरस पूरे होने के मौके पर यह रोबो प्रयोग के तौर पर कई चर्चों में इस्तेमाल किया जा रहा है। जाहिर है कि चर्च जाने वाले लोगों की प्रतिक्रिया इस पर मिली-जुली हो सकती है, लेकिन चर्च के ढांचे के भीतर काम करने वाले पादरियों में इसे लेकर बेचैनी है। उन्हें लग रहा है कि उनके पेट पर लात पड़ने वाली है और उनका रोजगार छिनने वाला है। हालांकि हकीकत यह है कि पूरे यूरोप में पादरियों की कमी चल रही है, और चर्चों में धार्मिक संस्कार कराने को वे कम पड़ रहे हैं। ऐसे में यह पादरी रोबो 5 भाषाओं में संस्कार भी करवा सकता है, और जब हाथ उठाकर आशीर्वाद देता है तो उससे प्रकाश की किरण भी निकलकर श्रद्धालुओं पर पड़ती है। हालांकि यह पूरी तरह मौलिक प्रयोग नहीं है क्योंकि कुछ बरस पहले चीन के एक बौद्ध मंदिर में एक रोबो भिक्षु का उपयोग शुरू किया गया था, जो कि मंत्र पढ़ता था, और धर्म की बुनियादी बातों को बोलता था।
अब यह रोबो जब तक किसी आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस से लैस ना हो जाए, और जब तक जिंदा पादरियों से यह कुछ बुरी बातें सीख न ले, तब तक तो यह भक्त जनों के लिए अच्छा साबित हो सकता है, क्योंकि आज दुनिया भर के चर्चों में पादरियों को बच्चों के यौन शोषण के आरोप झेलने पड़ रहे हैं. यूरोप के विकसित लोकतंत्रों में ऐसी घटनाएं लाखों में हुई हैं, यह बात खुद चर्च द्वारा करवाई गई जांच में सामने आई है न कि किसी चर्च विरोधी के लगाए गए आरोपों में। इसलिए फिलहाल तो ऐसे रोबो पादरियों से यह खतरा नहीं है कि वे बच्चों का यौन शोषण भी करेंगे लेकिन हो सकता है कि कभी इन्हें आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस दिया जाए, और उसके बाद ये असल पादरियों से सभी तरह की बातों को सीखें, और तब जाकर ये बच्चों के लिए खतरनाक भी साबित हो सकते हैं। लेकिन फिलहाल इससे चर्च के भक्तों के बच्चों को एक सुरक्षित धार्मिक माहौल मिल सकता है।
अभी चर्च से जुड़े हुए पहलुओं में यह बहस चल रही है कि क्या धार्मिक संस्कारों का इस तरह मशीनीकरण करना ठीक है? अब हिंदुस्तान में अगर देखें तो यहां बहुत से हिंदू मंदिरों में बिजली की मशीनों से चलने वाले नगाड़े और ढोल मंजीरे इस्तेमाल होने लगे हैं, जो कि बिना भक्तों के भी अकेले पुजारी शुरू कर लेते हैं, और माहौल बन जाता है। हालांकि अभी पुजारी का विकल्प किसी रोबो में सामने नहीं आया है, लेकिन ढोल-मंजीरा बजाने वाले भक्तों का विकल्प तो मशीन में आ गया है। अब धीरे-धीरे यह भी हो सकता है कि जिस तरह किसी कॉमेडी शो में टीवी प्रसारण के पहले हंसने की आवाज, खिलखिलाने की, और तालियों की आवाज जोड़ दी जाती है, उसी तरह धर्म स्थलों में भी भक्तों की आवाजें जोड़ दी जाएं ताकि कम रहने पर भी वह बाहर से भक्तों की अधिक संख्या का झांसा दे सके। इसमें बुराई कुछ नहीं है क्योंकि धर्म कुल मिलाकर बहुत से लोगों को वैसे ही झांसा देता है, और अगर यह एक और झांसा देकर अधिक भीड़ का नजारा पेश करने लगे तो भी वह कोई पहला झांसा नहीं रहेगा।
अब वेटिकन गए हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पोप को भारत आने का न्योता दिया है, और ऐसी कोई वजह नहीं है कि पोप भारत ना आएं क्योंकि यहां बड़ी संख्या में ईसाई आबादी है, और बड़ी संख्या में और लोगों को भी ईसाई बनाया जा सकता है, या कि वह बन सकते हैं, क्योंकि आज के उनके धर्म में उन्हें पावों का दर्जा देकर रखा गया है, और हो सकता है कि चर्च में उन्हें चर्च में थोड़ी बराबरी का मौका मिल जाए। अब यह देखना दिलचस्प होगा कि प्रधानमंत्री की पार्टी पूरे देश में जगह जगह हिंदुओं के धर्मांतरण का जो आरोप लगाती है और जो जाहिर तौर पर चर्च पर लगाया जाता है, उसके मुखिया पोप का हिंदुस्तान आना कैसा माना जाएगा? खैर अगले कुछ बरस तो पोप को बुढ़ापे में भी दुनिया भर का दौरा करना पड़ेगा, और उसके बाद एक विकसित हो रही नई तकनीक मेटावर्स की मेहरबानी से लोग होलोग्राम की शक्ल में दुनिया में कहीं भी पहुंच सकेंगे, और वहां पर लोगों के बीच बैठकर किसी कार्यक्रम में शामिल भी हो सकेंगे। उस दिन हो सकता है कि पोप को हिंदुस्तान न आना पड़े, और उनके होलोग्राम से गले मिलकर मोदी उसका स्वागत कर सकें, या फिर यह भी हो सकता है कि मोदी का होलोग्राम जाकर पोप के होलोग्राम का गले लगकर स्वागत कर सके। और होलोग्राम आकर, जाकर स्वागत करेगा, तो उससे फादर से दूर रहने का मध्य प्रदेश के भाजपा विधायक का फतवा भी निभा जाएगा क्योंकि मोदी को पोप से सीधे गले नहीं मिलना पड़ेगा। फिलहाल तो धर्म में टेक्नोलॉजी के उपयोग को लेकर लोगों के बीच उत्सुकता से भरी जो बहस है जर्मनी से शुरू हुई है, उसे देखना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
हिंदुस्तान में पिछले कुछ दिनों से सावरकर को लेकर एक बहस चल रही है। विनायक दामोदर सावरकर जिन्हें कुछ लोग वीर सावरकर भी कहते हैं और उन्हें वीर मानते हैं। दूसरी तरफ बहुत से दूसरे लोग हैं जिनका यह मानना है कि सावरकर अपनी जिंदगी के शुरू के हिस्से में तो स्वतंत्रता सेनानी रहे, लेकिन जैसे ही वे अंग्रेजों द्वारा गिरफ्तार करके अंडमान में काला पानी की सजा में भेजे गए उन्होंने तुरंत ही अंग्रेज सरकार से रहम की अपील करना शुरू कर दिया, और कुछ महीनों के भीतर उन्होंने ऐसी अर्जियां भेजना शुरू किया जो कि शायद कुल मिलकर पौन दर्जन तक पहुंचीं। इस बारे में अलग-अलग लेखों में बहुत कुछ लिखा जा चुका है, इसलिए उन पूरी बातों को यहां दोहराने का कोई मतलब नहीं है, क्योंकि आज की बात केवल सावरकर पर नहीं लिखी जा रही बल्कि इस बात पर लिखी जा रही है कि लोगों की जिंदगी को एक साथ, एक मुश्त देखकर उन पर एक अकेला लेबल लगाना कई बार मुमकिन नहीं होता है। गांधी के लिए जरूर ऐसा हो सकता था कि उनके पूरे जीवन को एक साथ देखकर भी उन्हें महात्मा लिखा जाए, लेकिन सावरकर को यह सहूलियत हासिल नहीं थी। उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा लिया, अंग्रेजों के खिलाफ मुहिम में शामिल रहे, लेकिन गिरफ्तारी के बाद जिस तरह उन्होंने लगातार माफी मांगी, लगातार रहम की अर्जी दायर की, और आखिर रहम मांगते हुए ही वे जेल से छूटे, और इतिहासकारों ने लिखा है कि उन्हें अंग्रेजों से हर महीने आर्थिक मदद भी मिली। अब ऐसे में जो लोग उनको वीर कहते हैं वह इतिहास के कुछ नाजुक पन्नों को कुरेद भी देते हैं जो उन्हें वीर साबित नहीं करते।
सावरकर का यह ताजा सिलसिला देश के सूचना आयुक्त उदय माहुरकर की सावरकर पर लिखी गई एक किताब के विमोचन के मौके पर शुरू हुआ जब रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने कहां कि सावरकर ने रहम की अपील गांधीजी के कहे हुए लिखी थी। बहुत से इतिहासकारों ने उसके बाद लगातार यह लिखा कि जिस वक्त सावरकर ने रहम की अर्जियां भेजना शुरू कर दिया था, उस वक्त तो गांधी से सावरकर की मुलाकात भी नहीं हुई थी, गांधी हिंदुस्तान लौटे भी नहीं थे, वह दक्षिण अफ्रीका में ही थे, उस वक्त उनका भारत के स्वतंत्रता आंदोलन से भी कोई लेना देना नहीं था, और सावरकर को तो वे जानते भी नहीं थे। लेकिन इतिहास लेखन जब वक्त की सहूलियत के हिसाब से होता है तो उसमें कई तरह की सुविधाजनक बातों को लिख दिया जाता है और कानों को मधुर लगने वाले तथ्य गढ़ दिए जाते हैं। राजनाथ सिंह ने यह बात उदय माहुरकर की किताब को पढक़र नहीं कही थी क्योंकि उस किताब में इस बारे में कुछ जिक्र नहीं है, उन्होंने सावरकर पर अलग से यह बात कही।
यह सोचने समझने की जरूरत है कि जब लोगों की जिंदगी के अलग-अलग पहलू सकारात्मक और नकारात्मक, अलग-अलग किस्मों के होते हैं, उनमें कहीं खूबियां होती हैं और कहीं खामियां होती हैं, तो उनकी महानता को तय करना थोड़ा मुश्किल होता है। नायक और खलनायक के बीच में घूमती हुई ऐसी जिंदगी कोई एक लेबल लगाने की सहूलियत नहीं देती, और ऐसा करना भी नहीं चाहिए। अब जैसे हिंदुस्तान के ताजा इतिहास को ही लें, तो कम से कम दो ऐसे बड़े पत्रकार हुए जो अखबारनवीसी में नामी-गिरामी थे, जिनके लिखे हुए की लोग तारीफ करते थे, और जिनके संपादन वाले अखबार या पत्रिका की भी तारीफ होती थी, लेकिन जब अपनी मातहत महिलाओं से बर्ताव की बात थी तो इसमें से एक संपादक ने अपनी एक मातहत कम उम्र लडक़ी के साथ जैसा सुलूक किया, उससे मामला अदालत तक पहुंचा, लंबा वक्त जेल में काटना पड़ा, और बाद में अदालत से उसे बरी किया गया। हिंदुस्तान में अदालत से बरी होने का मतलब बेकसूर हो जाना नहीं होता, बस यही साबित होता कि वहां पर पुलिस या जांच एजेंसी गुनाह साबित नहीं कर पाईं।
दूसरे संपादक के खिलाफ तो दर्जनभर या दर्जनों मातहत महिला पत्रकारों ने सेक्स शोषण की शिकायतें की हैं, और वह मामला अदालत में चल ही रहा है। अब किसी व्यक्ति की अच्छी अखबारनवीसी को उसके चरित्र के इस पहलू के साथ जोडक़र देखा जाए या जोडक़र न देखा जाए? यह सवाल बड़ा आसान नहीं है क्योंकि लोगों ने इतिहास में यह भी लिखा हुआ है कि हिटलर एक पेंटर था, और जिस तरह से उसने दसियों लाख लोगों का कत्ल किया, तो क्या उसकी बनाई किसी पेंटिंग को लेकर चित्रकला के पैमानों पर उसका मूल्यांकन किया जाना चाहिए, या उसकी कोई बात नहीं करनी चाहिए? क्या गांधी महात्मा थे इसलिए उनके सत्य के प्रयोगों की चर्चा नहीं होनी चाहिए? क्या नेहरू देश के एक महान नेता थे इसलिए एडविना माउंटबेटन के साथ उनके संबंधों की चर्चा नहीं होनी चाहिए? क्या अटल बिहारी वाजपेई भाजपा के एक बहुत बड़े नेता थे, और जनसंघ से भाजपा तक अपने वक्त के वह सबसे बड़े नेता रहे, तो क्या उनकी जिंदगी में आई महिला के बारे में कोई चर्चा नहीं होनी चाहिए? या क्या इस बात को छुपाया जाना चाहिए कि वह शराब पीते थे? या नेहरू के बारे में यह छुपाना चाहिए कि वह सिगरेट पीते थे?
हिंदुस्तान एक पाखंडी देश है यहां पर लोग अपने आदर्श के बारे में किसी ईमानदार मूल्यांकन को बर्दाश्त नहीं करते। वे जिसे महान व्यक्ति या युगपुरुष मानते हैं, उसके बारे में किसी खामी की चर्चा सुनना नहीं चाहते। लेकिन हाल के वर्षों में हिंदुस्तान में एक नया मिजाज सामने आया है कि जिन लोगों को लोग नापसंद करें, उनके इतिहास और चरित्र के बारे में झूठी बातें गढक़र उन्हें तरह-तरह से, खूब खर्च करके, और खरीदे गए लोगों से चारों तरफ फैलाया जाए। किसी एक देश में किसी फैंसी ड्रेस में गांधी बना हुआ कोई आदमी किसी विदेशी महिला के साथ डांस कर रहा है तो उसे एक चरित्रहीन महात्मा गांधी की तरह पेश करने में हजारों लोग जुटे रहते हैं। अपनी बहन को गले लगाए हुए नेहरु की तस्वीर को चारों तरफ फैलाकर उन्हें बदचलन साबित करने की कोशिश में लोग लगे रहते हैं। ऐसे लोग अपने किसी पसंदीदा के बारे में एक लाइन की भी नकारात्मक सच्चाई सुनना नहीं चाहते, उस पर भी खून-खराबे को तैयार हो जाते हैं। लेकिन जो नापसंद हैं उनके बारे में गढ़ी गई झूठी बातें भी फैलाने के लिए वे अपनी रातों की नींद हराम करते हैं।
झूठ के ऐसे सैलाब के बीच यह जरूरी रहता है कि इतिहास का सही इस्तेमाल हो, लोगों का सही मूल्यांकन हो, लोगों की खूबियों के साथ-साथ उनकी खामियों की चर्चा से भी परहेज न किया जाए, और किसी व्यक्ति को एक बिल्कुल ही बेदाग प्रतिमा की तरह पेश न किया जाए, क्योंकि गढ़ी गई प्रतिमा ही बेदाग हो सकती है, असल जिंदगी में तो इंसान पर कई किस्म के दाग लगे हो सकते हैं, जो कि कुदरत का एक हिस्सा हैं, कुदरत के दिए हुए बदन का एक हिस्सा, या कुदरत के दिए हुए मिजाज का एक हिस्सा।
सावरकर को लेकर जो लोग इतिहास के कड़वे हिस्से से परहेज कर रहे हैं, उनको लोकतंत्र की लचीली सीमाओं को समझना चाहिए जहां पर गांधी और नेहरू जैसे लोगों की कमियों और खामियों का भी जमकर विश्लेषण हुआ, और नेहरू के खिलाफ तो जितने कार्टून उस वक्त बनते थे, उनमें से कई मौकों पर वे कार्टूनिस्ट को फोन करके उसकी तारीफ भी करते थे। आज का वक्त ऐसा हो गया है कि नेहरू के मुकाबले बहुत ही कमजोर और खामियों से भरे हुए छोटे-छोटे से नेता उन पर बने हुए कार्टून पर लोगों को जेल डालने की तैयारी करते हैं। लोकतंत्र की परिपच्ता आने में हिंदुस्तान में हो सकता है कि आधी-एक सदी और लगे क्योंकि अब तो लोग यहां पर बर्दाश्त खोने लगे हैं, सच से परहेज करने लगे हैं, झूठ को गढऩे लगे हैं, और बदनीयत नफरत को फैलाने लगे हैं।
यह पूरा सिलसिला पूरी तरह अलोकतांत्रिक है और मानव सभ्यता के विकास की घड़ी के कांटों को वापिस ले जाने वाला भी है। सभ्य समाज और लोकतांत्रिक समाज को अपना बर्दाश्त बढ़ाना चाहिए, उसे लोगों के व्यक्तित्व और उनकी जिंदगी के पहलुओं को अलग-अलग करके देखना भी आना चाहिए और किसी का मूल्यांकन करते हुए इन सारे पहलुओं को साथ देखने की बर्दाश्त भी रहनी चाहिए। जो सभ्य समाज हैं वहां पर इतिहास लोगों को आसानी से शर्मिंदा नहीं करता। और जहां हिटलर जैसे इतिहास से शर्मिंदगी होना चाहिए तो वहां पूरा का पूरा देश, पूरी की पूरी जर्मन जाति शर्मिंदा होती है, और उससे मिले हुए सबक से वह सीखती है कि उसे क्या-क्या नहीं करना चाहिए। हिंदुस्तान में लोगों के कामकाज से लेकर माफीनामे तक को लेकर जो लोग मुंह चुराते हैं, वो इतिहास की गलतियों को भविष्य में दोहराने की गारंटी भी कर लेते हैं। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अभी एक ऐसी अफ्रीकी अमेरिकी महिला का सम्मान किया है जो 1951 में 31 बरस की उम्र में गुजर चुकी थी। उसे कैंसर था, और डॉक्टरों ने उसकी या उसके परिवार की इजाजत के बिना उसके कैंसर के कुछ सेल निकाल लिए थे। आज से करीब पौन सदी पहले लोगों के अधिकारों की इतनी खुलासे से बात नहीं होती थी, और डॉक्टरों ने उसके कैंसरग्रस्त सेल जब निकाल लिए, तो यह उस वक्त कोई मुद्दा नहीं बना। लेकिन अब जाकर हेनरिटा लैक्स नाम की इस महिला की स्मृति का सम्मान क्यों किया गया इसकी कहानी बड़ी दिलचस्प है।
इन कैंसरग्रस्त सेल को इस महिला के बदन के बाहर प्रयोगशाला में बढ़ाया गया और उन्हें कई गुना किया गया। बाद में दुनिया भर की अलग-अलग प्रयोगशालाओं ने, दवा कंपनियों ने इन सेल्स का इस्तेमाल पोलियो का टीका विकसित करने में किया, जींस का नक्शा बनाने में किया, और कृत्रिम गर्भाधान तकनीक में किया। इस महिला के कैंसरग्रस्त सेल का इतना व्यापक और महत्वपूर्ण इस्तेमाल हुआ कि आज इसे ‘आधुनिक चिकित्सा की मां’ नाम दिया गया।
इस महिला के कैंसरग्रस्त सेल का इस्तेमाल एचआईवी-एड्स की दवाइयां विकसित करने में भी किया गया और अभी कोरोना का इलाज ढूंढने में भी इनका इस्तेमाल हो रहा है। दरअसल इस महिला के सेल ऐसे पहले मानवीय सेल थे जिन्हें शरीर के बाहर क्लोन करके बढ़ाया गया। इसके पहले जितने कैंसर मरीजों के कैंसर सेल अस्पतालों में लिए जाते थे ताकि उन पर कोई शोध हो सके, तो वे तमाम नमूने 24 घंटे के भीतर दम तोड़ देते थे। लेकिन हेनरिटा लैक्स के सेल्स करिश्माई तरीके से जिंदा रहे और हर 24 घंटे में वे 2 गुना होते चले गए, इस तरह वे मानव शरीर के बाहर बढऩे वाले पहले कैंसर सेल थे, और इसलिए रिसर्च में उसका भारी इस्तेमाल हो सका। डब्ल्यूएचओ का हिसाब-किताब बताता है की हेनरिटा लैक्स के सेल अब तक 75000 से ज्यादा स्टडी में इस्तेमाल किए जा चुके हैं।
अभी इस महिला का सम्मान करते हुए स्विट्जरलैंड में डब्ल्यूएचओ के डायरेक्टर जनरल ने कहा कि उसके बदन के सेल का खूब दोहन हुआ, और वह अश्वेत या काली महिलाओं में से एक थी जिनके शरीर का विज्ञान ने बहुत बेजा इस्तेमाल किया। उन्होंने कहा कि इस महिला ने अपने आपको चिकित्सा विज्ञान के हवाले किया था ताकि वह इलाज पा सके, लेकिन चिकित्सा व्यवस्था ने उसके बदन के एक हिस्से को उसकी जानकारी और उसकी इजाजत के बिना लेकर उसका तरह-तरह से इस्तेमाल किया। चिकित्सा विज्ञान की खबरें बताती हैं कि इस महिला के नाम पर रखे गए इन कैंसर सेल, ‘हेलो’, का उपयोग उस सर्वाइकल कैंसर के इलाज में भी हुआ, जिस सर्वाइकल कैंसर की शिकार वह महिला थी।
अभी जब इस महिला के वंशजों का सम्मान हुआ, उसके 87 बरस के बेटे सहित कुनबे के कई लोग मौजूद थे, तो दुनिया के कुछ लोगों ने यह भी कहा कि उसके परिवार को इसका मुआवजा मिलना चाहिए क्योंकि दवा कंपनियों ने उसके कैंसर सेल का इस्तेमाल करके टीके या दवाइयां बनाए, उनका खूब बाजारू इस्तेमाल हुआ। कुछ दूसरे लोगों का कहना था कि ऐसे बनाई गई सारी दवाइयों और सारे टीकों को बिना किसी मुनाफे के मानव जाति के लिए इस्तेमाल करना चाहिए।
अभी कुछ हफ्ते पहले इस परिवार ने ऐसी एक कंपनी के खिलाफ एक मुकदमा किया है जिसने हेनरिटा लैक्स के कैंसर ग्रस्त सेल से दवा बनाकर अरबों रुपए कमाए हैं। परिवार का कहना है कि कंपनी इसे अपना बौद्धिक पूंजी अधिकार करार दे रही है। परिवार के वकील ने अदालत में यह मुद्दा उठाया कि किसी के शरीर का कोई हिस्सा कैसे उसकी इजाजत के बिना किसी दवा कंपनी की संपत्ति हो सकता है और इस महिला के सेल से विकसित की गई दवाइयों की कमाई का पूरा हिस्सा इस परिवार को दिया जाना चाहिए।
पश्चिमी दुनिया में चल रहे इस सिलसिले को देखें, तो लगता है कि हिंदुस्तान जैसे देश ऐसी भाषा से किस तरह पूरी तरह छूते हैं। यहां पर महिलाओं को जानवरों की तरह एक हॉल में लिटाकर उनकी नसबंदी कर दी जाती है, उनमें से कितनी जिंदा बचती हैं, और कितनी नहीं, इसकी कोई फिक्र नहीं होती। यहां इलाज के बीमे की रकम हासिल करने के लिए छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में गांव के गांव की जवान सारी महिलाओं को लाकर उनका गर्भाशय निकाल दिया जाता है, ताकि अस्पताल का बिल बन सके, और बीमा कंपनी से उसे वसूल किया जा सके। यहां कोई पूछने वाले भी नहीं रहते कि उस महिला को ऐसे ऑपरेशन की जरूरत थी या नहीं। किसी के बदन की कोई कीमत हो सकती है, उस पर उसका कोई हक हो सकता है, ऐसे तमाम मुद्दों से हिंदुस्तान मोटे तौर पर बेफिक्र रहता है। यहां बुनियादी इलाज के लिए आज भी सरकारी अस्पताल जाने वाले लोग उसे डॉक्टर और नर्सों का एक एहसान मानते हैं, फिर चाहे वह सरकारी अस्पताल ही क्यों ना हो। लोगों के नागरिक अधिकार इस कदर कुचले हुए हैं कि उनका हौसला ही नहीं होता कि वे कहीं अपने हक की बात गिना सकें। इसलिए हिंदुस्तान में किसी के शरीर के सेल अगर लिए भी जाते होंगे, तो शायद ही उसे इस बारे में कुछ बताया जाता होगा। और यह सिलसिला पश्चिम के पौन सदी पहले के इस सिलसिले जैसा आज भी यहां चल रहा होगा।
एप्पल कंपनी के नए मोबाइल फोन के बाजार में आने के पहले ही कंपनी की दी गई जानकारी कुछ घंटे के भीतर ही लोगों की जुबान पर आ जाती है कि अगला फोन किस साइज का आ रहा है, उसमें कौन सी खूबियां रहेंगी, और दाम कितने डॉलर रहेगा, यह हिंदुस्तान में वह कितने का पड़ेगा। शाहरुख खान का बेटा किसी नशे के मामले में पकड़ाता है तो उस बेटे के बारे में लोगों को खासी जानकारी रहती है। लेकिन हिंदुस्तान के एक सबसे बड़े अखबार का खुद का बनाया हुआ एक पॉडकास्ट सुनते हुए अभी समझ आया कि उस अखबार के बड़े-बड़े दिग्गज राजनीतिक रिपोर्टर माइक्रोफोन पर बात करते हुए भी पंजाब के सिलसिले में दलितों को अलग गिन रहे हैं, और हिंदुओं को अलग। एक दलित के मुख्यमंत्री बनने के मामले को एक हिंदू मुख्यमंत्री से अलग गिनकर चल रहे हैं। यह मामला कुछ वैसा ही है कि कश्मीर के बारे में चर्चा करते हुए लोग कश्मीर और इंडिया जैसी बात करते हैं। एक अमरीकी रेडियो स्टेशन के लिए कुछ बरस पहले मैंने देश की एक बड़ी अखबारनवीस का ऑडियो इंटरव्यू रिकॉर्ड किया था जो कि कश्मीर के मामलों की बड़ी जानकार भी थीं, और उन्होंने बातचीत में एक से अधिक बार कश्मीर और इंडिया जैसी बातें कहीं, जाहिर है कि मेरा अगला और आखरी सवाल यही था कि क्या वे कश्मीर को इंडिया से अलग मानकर चल रही हैं ? और तब जाकर उन्हें अपनी चूक समझ में आई कि वे क्या गलती कर रही थीं।
अभी जब पंजाब में मुख्यमंत्री के बदलने की बात आई और एक दलित विधायक के मुख्यमंत्री बनने की मुनादी हुई तो बहुत से खासे पढ़े लिखे लोगों को हैरानी के साथ यह चर्चा करते हुए सुना कि क्या सिखों में भी कोई जाति व्यवस्था है? लोग यही मानकर चल रहे थे कि जिस तरह गुरुद्वारे की पंगत में बिना जाति धर्म पूछे सबको एक साथ खाना खिलाया जाता है तो उससे शायद सिखों के भीतर कोई जाति व्यवस्था नहीं होगी। सच तो यह है कि भारत के किसी भी दूसरे प्रदेश के मुकाबले पंजाब में दलितों की आबादी का प्रतिशत सबसे अधिक है, वहां 32 फीसदी दलित हैं। लेकिन लोगों की याददाश्त कुछ कमजोर रहती है और मीडिया के बहुत से लोगों ने टीवी चैनलों पर यह कहा, और अखबार की खबरों में भी लिखा, कि यह पंजाब का पहला गैर-सिक्ख मुख्यमंत्री बनने जा रहा है जबकि इसके पहले पंजाब में एक से अधिक गैर-सिक्ख मुख्यमंत्री रह चुके हैं। लोगों की जानकारी असल मुद्दों को लेकर धीरे-धीरे कम इसलिए हो रही है कि फिल्म इंडस्ट्री के एक अभिनेता की खुदकुशी को राजनीतिक बनाने की कोशिशों में वे डूब जाते हैं। खेल सत्तारूढ़ ताकतें करती हैं और लोग स्टेडियम में बैठे दर्शकों की तरह मैच देखने जाते हैं, लेकिन चीयरलीडर्स की तरह नाचने लगते हैं। अफवाहों और झूठ-फरेब के इस बाजार में सच की इज्जत इतनी कम रह गई है कि लोग खबरों में सच पाने की उम्मीद करते, न कोशिश करते।
अभी एक वीडियो सोशल मीडिया पर तैर रहा है जिसमें किसी महानगर में कॉलेज के छात्र-छात्राओं के बीच एक कैमरा और माइक्रोफोन लिए हुए लोग उनसे हिंदुस्तान के बारे में कई किस्म के सवाल करते हैं। उन्हें हिंदुस्तान के पहले प्रधानमंत्री का नाम नहीं मालूम, पहले राष्ट्रपति का नाम नहीं मालूम, उन्हें किसी अंतरिक्ष यात्री का नाम नहीं मालूम, उन्हें छत्तीसगढ़ के भीतर झारखंड है या झारखंड के भीतर छत्तीसगढ़ है यह भी नहीं मालूम, उन्हें उत्तराखंड, हिमाचल, और उत्तर प्रदेश के अलग-अलग होने की खबर नहीं है, उन्हें किसी बात की खबर नहीं है, और वे खासे फैशनेबल कपड़े पहने हुए, संपन्न परिवारों के, कॉलेज में पढ़ रहे या पढ़ चुके लोग दिख रहे हैं। जो सामान्य ज्ञान के दसियों सवालों में नाकामयाब हो कर कैमरे से ही यह सवाल करते हैं कि क्या यह उन्हें अपमानित करने के लिए यह किया जा रहा है?
हिंदुस्तान के असल मुद्दों की जानकारी में लोगों की दिलचस्पी बहुत ही कम है। सच तो यह है कि लोगों की अपने आसपास की ऐसी जानकारी में दिलचस्पी नहीं है जिससे उन्हें कोई मजा नहीं मिलता। देश के बड़े-बड़े अखबारों के छत्तीसगढ़ में रहने वाले रिपोर्टरों से कई बार यह कहा जाता है कि वे बहुत दुख-तकलीफ की या नक्सल हिंसा की खबरें बहुत अधिक ना भेजें क्योंकि उनमें किसी की अधिक दिलचस्पी नहीं है। जब मरने वाले गिनती में बहुत अधिक होते हैं, तब तो यह खबर बनती है, लेकिन छोटी-मोटी नक्सल हिंसा की खबरों में किसी अखबार की दिलचस्पी नहीं रहती, छत्तीसगढ़ के अखबारों की भी सीमित दिलचस्पी रहती है। इसके पीछे की वजह यह है कि विज्ञापन देने वाले लोग अखबार या टीवी चैनलों को दुख-दर्द, तकलीफ, और लाशों से भरा हुआ देखना नहीं चाहते। उसकी जगह एक किसी जहाज पर चल रही पार्टी में थोड़ा-बहुत नशा कर रहे लोगों के पकडाने पर शाहरुख खान के बेटे की वीडियो के साथ कई-कई घंटे उसी खबर को दिखाने में टीवी चैनलों की दिलचस्पी अधिक है, और हो सकता है कि अखबार भी वैसे ही निकलें।
फिल्मी दुनिया, सेक्स, क्राइम, और क्रिकेट से जुड़ी हुई खबरें लोगों को गुदगुदाती हैं, और उन्हें कुछ भी सोचने पर मजबूर नहीं करती। यह कुछ वैसा ही होता है कि सोफे पर बैठ कर चिप्स खाते हुए टीवी पर क्रिकेट देखना जितना आरामदेह रहता है, कसरत करना या दौडऩा, साइकिल चलाना तो उतना आरामदेह हो नहीं सकता। इसलिए लोग अपने दिमाग पर अधिक जोर डालना नहीं चाहते, अपने भीतर के सामाजिक सरोकारों को जगाने का खतरा भी उठाना नहीं चाहते। सामाजिक सरोकार अगर जाग गए तो देश-दुनिया के असल मुद्दे उनके दिल-दिमाग को परेशान करने लगेंगे। इसलिए ऐसी खबरों को ही ना पढ़ा जाए कि कितने लोग कुपोषण के शिकार हैं, कितने बच्चे पिछली शाम के खाने के बाद अगला खाना अगली दोपहर स्कूल में ही पाते हैं। ऐसी खबरों को पढऩे के बाद लोगों के अपने गले से कुछ उतरना मुश्किल होने लगेगा इसलिए लोग सामाजिक सरोकार की तमाम बातों से दूर रहते हैं।
यही वजह है कि दलितों के मुद्दों की जानकारी लोगों को कम है. कश्मीर में एक सैलानी जितनी दिलचस्पी तो है, लेकिन कश्मीर के लोगों की बाकी दिक्कतों से लोग अपने को दूर और अछूता रखते हैं. लोग उत्तर-पूर्वी राज्यों की दिक्कतों से अपने को दूर रखते हैं, और दिल्ली के बाजारों में उत्तर-पूर्व के लोगों को देखकर उन्हें चिंकी बुलाकर अपनी भड़ास निकाल लेते हैं। लोगों को उन लोगों को देख कर भी आत्मग्लानि होती है जो कि बहुत सादगी से जीते हैं, इसलिए ममता बनर्जी की साधारण रबड़ चप्पल और उसकी साधारण साड़ी को लोग मखौल का सामान मानते हैं, और जो नेता दिन में 4 बार, 6 बार महंगे कपड़े बदलते हैं, उनकी वे इज्जत करते हैं। लोग नेताओं से यह पूछना नहीं चाहते कि उनके पास इतना पैसा कहां से आया, और लोग देश के गरीबों की तकलीफ को जानना नहीं चाहते कि बिना पैसों के या इतने कम पैसों के साथ वे जिंदगी कैसे काट सकते हैं।
लोगों का सामाजिक सरोकार से दूर रहना, लोगों की तकलीफों को अनदेखा करना, जमीन की कड़वी हकीकत को नहीं देखना, इन सबसे लोग सुखी रहते हैं, और यही वजह है ये मुद्दे धीरे-धीरे खोते जा रहे हैं फीके पड़ते जा रहे हैं। इसे एक और बात से जोडक़र देखा जा सकता है कि किस तरह हिंदुस्तान की संसद में अरबपति बढ़ते चले जा रहे हैं, और हिंदुस्तान की विधानसभाओं में भी करोड़पतियों का अनुपात लगातार बढ़ते चल रहा है। इतनी संपन्नता लोगों को विपन्नता के दर्शन ही नहीं करने देती और बहुत गरीबी से तकरीबन अनजान लोग जब संसद या विधानसभा में बैठकर चर्चा करते हैं, तो जाहिर है कि वह चर्चा गरीबों पर तो टिक नहीं सकती, वहां तक पहुंच भी नहीं सकती। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)