फेसबुक पर एक लंबी बहस छिड़ी हुई है। पटना में किसी संस्था ने दो लेखकों को कुछ वक्त रहकर, राइटर इन रेसीडेंसी जैसे किसी नाम से लिखने का मौका दिया। कैसे इनको छांटा गया, यह भी एक अलग कहानी है। लेकिन जब इन्हें एक जगह रखा गया, तो पहले से तरह-तरह के विवादों में घिरे हुए, और घोषित तौर पर महिलाओं के प्रति भारी हिकारत की भावना रखने वाले हिन्दी के एक जाने-माने कवि, या किसी और किस्म के साहित्यकार ने शायद वहां रखी गईं दूसरी एक लेखिका के साथ बदसलूकी की, और उसके विरोध करने पर इस लेखक को वहां से बिदा कर दिया गया। अब फेसबुक हिन्दी के लेखक, कवि, या और किस्म के साहित्यकार, और पाठक-प्रकाशक तबकों की भीड़ के बीच बहस का मंच बन गया है कि महिला के प्रति बरसों से हिकारत की सार्वजनिक पोस्ट करने वाले इस लेखक को इस आयोजन के लिए छांटा कैसे गया, और अब आयोजकों ने लेखिका की शिकायत के बाद भी पुलिस या दूसरी कानूनी कार्रवाई क्यों नहीं की?
अब यह लड़ाई लेखकों के अलग-अलग खेमों से ऊपर उठकर, या नीचे गिरकर औरत और मर्द के मुद्दों पर भी चली गई है, और हिन्दी के एक बड़े जाने-माने, और अच्छे समझे जाने वाले कवि ने इसमें जातियों को भी जोड़ दिया है। यह बहस बढ़ती चल रही है, जंगल की आग की तरह, और मुफ्त का फेसबुक एक बड़ा अखाड़ा मुहैया करा रहा है, हर उस्ताद के शागिर्दों के लिए।
मैं व्यक्तिगत रूप से इनमें से किसी साहित्यकार के काम से जरा भी परिचित नहीं हूं। साहित्य से मेरा लेना-देना दुष्यंत कुमार, अदम गोंडवी, या फैज जैसे हाल-फिलहाल के लोगों से है, या फिर प्रेमचंद्र और मंटो जैसे पिछली पीढ़ी के लेखकों से है। और वैचारिक रूप से कबीरपंथी होने के नाते लेखन या साहित्य के पूरे इतिहास में मेरा सबसे अधिक लेना-देना कबीर से है। इसलिए मैं इस मुद्दे पर बिना किसी खेमेबाजी के, और बिना किसी पूर्वाग्रह के लिखने के लायक बचा हुआ हूं।
आज जिस कवि या साहित्यकार को महिला से बदसलूकी के आरोप में घेरा गया है, उनके बारे में मैं सामान्य दिलचस्पी से ही बरसों से देखते आ रहा हूं कि वे कई लेखिकाओं को लेकर बदचलनी के आरोप सरीखे लगाते रहे हैं, और विवादों में घिरे रहे हैं। मैं एक इंसान के रूप में इसको सबसे घटिया बात मानता हूं कि जिस मां से पैदा हुए हैं, उसी मां के जेंडर को हिकारत से देखना, बेबुनियाद तरीके से बदनाम करना, और लोगों पर व्यक्तिगत लांछन लगाना, खासकर महिलाओं पर। फिर मुझे साहित्य की इस खूबी या खामी पर भी बड़ी हैरानी होती है कि इस किस्म की गंदी और घटिया बातें करने वाले लोगों को पाठक भी मिलते हैं, प्रकाशक भी, और उनकी मेजबानी करने के लिए साहित्य संस्थाएं भी।
मैंने कहीं पर पढ़ा था कि हिटलर भी एक पेंटर था। और जब मुझे पता लगा तभी मैं इस बात को सोचता था कि क्या हिटलर की पेंटिंग का चित्रकला के पैमानों पर कोई मूल्यांकन हो सकता है, किया जाना चाहिए, या क्या मैं उसकी पेंटिंग सचमुच ही देखना चाहूंगा? तो मुझे लगता था कि हिटलर की जिंदगी के बाकी पहलुओं को देखते हुए उसकी पेंटिंग को देखा भी नहीं जा सकता। ठीक उसी तरह जिस तरह कि दुबई में दाऊद इब्राहिम की जन्मदिन की पार्टी में झूम-झूमकर नाचते और गाते हुए अन्नू मलिक को देखने के बाद उसे एक जज के रूप में किसी रियलिटी शो में देखना मेरे लिए नामुमकिन था। दाऊद के चारण और भाट को मुम्बई ब्लास्ट के बाद दाऊद की स्तुति गाते देखना, और फिर उसे टीवी के पर्दे पर देखना मेरे लिए तो मुमकिन नहीं था। अब हिन्दी के जिस लेखक-कवि के बारे में यह ताजा महिलाविरोधी विवाद सामने आया है, उसकी भी वकालत करने वाले लोग हो सकते हैं, इसमें मुझे अधिक हैरानी इसलिए नहीं होती कि मैंने दुनिया के सबसे घटिया लोगों, सबसे बुरे मुजरिमों के तरफदार भी देखे हुए हैं। लेकिन एक सीरियल महिलाविरोधी मुजरिम की वकालत पेशेवर वकील करें तो करें, कई जाने-माने ऐसे दिग्गज भी इसे बचाने में कूद पड़े हैं जिनके बारे में साहित्य के जानकार लोग बड़ा ऊंचा ख्याल रखते हैं। मैं किसी भी पक्ष-विपक्ष के पूर्वाग्रह से मुक्त हूं, इसलिए किसी की रचनाएं मुझे उसके चाल-चलन के बारे में राय बनाने को मजबूर नहीं करतीं। मेरा मानना है कि एक इंसान के रूप में जो घटिया है, उसके रचनात्मक काम के मूल्यांकन के चक्कर में भी मैं नहीं पड़ता। जिसमें इंसानियत की कमी है, जिसमें जीवन के बुनियादी मूल्यों की कमी है, जिसमें एक महिला के लिए सम्मान की कमी है, उसके काम को मैं भला सम्मान की कसौटी पर कैसे परख सकता हूं?
मुझे उन नामी-गिरामी, और स्वघोषित सरोकारी लोगों की समझ पर तरस आ रहा है जो कि एक पेशेवर और आदतन महिलाविरोधी की फिक्र करते हुए उस पर रहम कर रहे हैं, महिला पर शक कर रहे हैं। कुछ इसी किस्म के लोग दिल्ली के बड़े-बड़े अखबारों में भी थे, और खासकर एक अखबार इंडियन एक्सप्रेस में एक बड़ी नामी-गिरामी कॉलमिस्ट थी जिसने पंजाब की एक महिला अधिकारी के खिलाफ लिखा था। किसी पार्टी में पिए-खाए केपीएस गिल ने जब वहां की एक आईएएस अधिकारी के नितंब पर च्यूंटी काट दी थी, और उसने इसकी शिकायत दर्ज कराई थी, तो इस महिला कॉलमिस्ट ने लिखा था कि पंजाब से आतंक के खात्मे में केपीएस गिल का योगदान देखते हुए इस महिला को यह बर्दाश्त कर लेना था, और यह शिकायत नहीं करनी थी। इस पैमाने से तो महानता के मामले में जो लोग आसमान पर हैं, उन्हें बीस-बीस बलात्कारों की छूट मिलनी चाहिए, और उनके 21वें बलात्कार पर ही उनके खिलाफ रिपोर्ट दर्ज होनी चाहिए।
यह पूरा सिलसिला इतना बदमजा और इतना घटिया है कि मुझे साहित्य के खेमों से दूर रहने की बड़ी राहत महसूस हो रही है। जो व्यक्ति दस-दस बरस से महिलाओं के खिलाफ घटिया और अश्लील, चरित्र हनन वाली बातें लिखते आ रहा था, वह व्यक्ति कुछ प्रगतिशील नाम के साहित्य संगठनों का भी बाप बना बैठा था। मैं नहीं जानता कि महिला के अपमान में प्रगतिशीलता की कोई भूमिका हो सकती है, लेकिन जब प्रगतिशीलों के संगठन ऐसी गंदगी को अपने माथे पर चंदन के तिलक की तरह सजाकर रखते थे, तो ऐसे संगठनों के लोगों को भी यह सोचना चाहिए कि इनके साथ जुड़े रहकर भी वे महिलाविरोधी तो हो ही रहे हैं।
हिन्दुस्तान जैसे देश में महिला वैसे भी हजार किस्म की बेइंसाफी जिंदगी के हर दायरे में झेलती है, हर जगह उस पर हाथ डालने की कोशिश होती है, और जहां कहीं उस हाथ को झिटक दिया जाता है, वह हाथ पत्थर उठाकर महिला को बदचलन बताकर उसे चौराहे पर बांधकर पत्थर चलाने लगता है। इस विषय पर लिखना शुरू करने के पहले मुझे एक लाईन सूझ रही थी जिसे फेसबुक पर लिखते-लिखते मैं रह गया था, और यह कॉलम लिखना पहले शुरू कर दिया, - मर्द की सारी नैतिकता अमूमन किसी महिला पर झपटने का पहला मौका मिलते ही शीघ्रस्खलन का शिकार हो जाती है।