आजकल

राजस्थान में चपरासी के 53 हजार पदों के लिए 24 लाख आवेदन आए हैं, मतलब हर पद के लिए साढ़े चार सौ से अधिक अर्जियां। अब आंकड़ों तक तो बात ठीक थी, इसके आगे की जानकारी हैरान करती है। एमबीए से लेकर पीएचडी किए हुए लोग भी इस कतार में लगे हैं। जो अर्जियां सरकार को मिली हैं, वह बताती हैं कि देश में बेरोजगारी का हाल क्या है, और इसके साथ-साथ एक सवाल भी खड़ा होता है कि क्या आज लोगों की उच्च शिक्षा का उनके कामकाज, नौकरी, या स्वरोजगार से कोई रिश्ता रह गया है? राजस्थान की एक खबर बताती है कि कुछ साल पहले वहां के एक विधायक का बेटा राज्य विधानसभा में चपरासी बना था। अब इस नई भर्ती की कतार में बीए, बीएड, एमए, एमएड, एलएलबी, और पीएचडी के अलावा बीटेक और एमबीए किए हुए लोग भी हैं।
एक सवाल यह उठता है कि इस किस्म की उच्च शिक्षा के ढांचे पर सरकार या कारोबार का जो निवेश होता है, और ऐसी पढ़ाई पर, आल-औलाद के पढऩे के इन बरसों पर मां-बाप जो खर्च करते हैं, उस पर कारोबारी जुबान में रिटर्न ऑन इन्वेस्टमेंट क्या निकलता है? कहने के लिए देश में हर कुछ हफ्तों या महीनों में एक नया विश्वविद्यालय खुलता है, लेकिन उससे विश्व को क्या मिलता है? विश्व तो छोड़ दें, इस देश को, उसके अपने प्रदेश को, और वहां से डिग्री पाकर बेरोजगार बनने वाले लोगों को क्या मिलता है? मां-बाप जो पैसा लगाते हैं, उसकी क्या भरपाई हो पाती है?
मेरी मामूली सी पूछताछ बताती है कि सरकारी या निजी कॉलेजों से डेंटिस्ट बनकर निकलने वाले लोगों को आज पहले से स्थापित डेंटिस्ट अपने क्लिनिक में 15 हजार रूपए महीने से अधिक नहीं देते। अब निजी डेंटल कॉलेजों का हिसाब देखें, तो वहां चार-पांच बरस पढऩे, और शायद एक साल काम करके निकलने तक जितना खर्च हो चुका रहता है, उसका ब्याज भी 15 हजार रूपए महीने में नहीं निकलता। आज कम से कम मेरे शहर में यह हाल है कि पीजी किए हुए डेंटिस्ट 15-20 हजार रूपए महीने का काम ढूंढते फिरते हैं, और उन पर हुआ खर्च तो आसानी से निकलते दिखता नहीं है।
इस देश में किस तरह की शिक्षा के बाद रोजगार या स्वरोजगार की जरूरत है, इसके तो लाइव पोर्टल रहने चाहिए जिस पर सरकार के योजनाशास्त्री, बाजार में नौकरी देने वाले, और सरकारी विभागों में भर्ती के जानकार लोग मिलकर हर दिन विश्लेषण को अपडेट करते रहें कि अगले कितने बरस तक किस शिक्षण-प्रशिक्षण पाने का क्या भविष्य है? उस पर लागत कितनी आएगी, और उस लागत की भरपाई किस हद तक हो पाएगी? अब अगर चपरासी ही बनना है तो उसके लिए एमबीए, बीटेक, या पीएचडी की क्या जरूरत है? यह नौबत तो तभी आती है जब बाजार व्यवस्था को देखे बिना, और सरकारी संभावनाओं का अंदाज लगाए बिना लोग मां-बाप की छाती मूंग दलते हुए एक के बाद दूसरी डिग्री लिए चले जाते हैं। यह सिलसिला देश के ढांचे के लिए भी अच्छा नहीं है क्योंकि बिना संभावनाओं के एक अंधे कुएं में लोग शिक्षा का निवेश डालते चले जा रहे हैं, शिक्षा को कारोबार बनाकर चलने वाले लोग अपनी दुकानों और कारखानों को चलाने के लिए लोग उनकी पढ़ाई के बाद की बड़ी संभावनाओं का इश्तहार करते रहते हैं, जिनसे किसी को यह हकीकत पता नहीं चलती कि उस पढ़ाई को करने वाले गिने-चुने लोगों को ही उतना आगे बढऩे मिलता है, और बाकी तमाम लोग चपरासी की नौकरी के लिए एमबीए की डिग्री लेकर कतार में लगे रहते हैं।
हमने कल ही इसी पेज पर संपादकीय में लिखा था कि किस तरह पूरी दुनिया में नौकरी और कामकाज की संभावनाओं को देखते हुए भारत और इसके राज्यों को अपने-अपने स्तर पर नई पीढ़ी को उसके लिए तैयार करना चाहिए। आज का मुद्दा कल के लिखे हुए से कहीं-कहीं पर जुड़ भी रहा है। देश के भीतर बीटेक-पीएचडी के बेरोजगार बढ़ाने से देश की शान नहीं बढ़ती, इसकी बजाय यहां आने वाले कारखानों में काम करने की तकनीक और हुनर सीखने वाले लोग अपना, परिवार का, और देश का भी अधिक भला करेंगे।
लोगों को कुछ बरस पहले का याद होगा कि किस तरह छत्तीसगढ़ सहित कई राज्यों में बारिश के बाद उग आने वाले कुकुरमुत्तों की तरह शुरू हो गए इंजीनियरिंग कॉलेज थोक में बंद हुए थे, क्योंकि इंजीनियरों को कहीं कोई काम नहीं मिल रहा था। हर प्रदेश में गिने-चुने चुनिंदा कॉलेज तो जिंदा रह गए, लेकिन बाकी को ताले खरीदने के लिए भी लोन लेना पड़ा। एक देश की यह भी जिम्मेदारी रहती है कि वह आने वाले घरेलू भविष्य, या अंतरराष्ट्रीय संभावनाओं को देखते हुए ही उच्च शिक्षा या उच्च तकनीक को मान्यता दे, वरना गैरजरूरी पढ़ाई करके बेरोजगार बैठे लोगों की फौज सडक़ों पर नारे लगाने के अलावा किसी काम की नहीं रह जाती।
आज दुनिया के सामने एक और बहुत बड़ा खतरा खड़ा हुआ है, जिस पर हम हर कुछ हफ्तों में बोलते या लिखते हैं। एआई की वजह से दुनिया के कारोबार और रोजगार इन दोनों पर इतना बड़ा नाटकीय फर्क आने वाला है कि एक पूरी की पूरी पीढ़ी अपनी संभावनाएं ऐसी सुनामी में खो सकती है। आज लोगों को अहसास नहीं है कि एआई के मुफ्त में हासिल एप्लीकेशन बड़े आम दफ्तरों में, रोजगार और कारोबार में बहुत से लोगों को गैरजरूरी बना दे रहे हैं। इसलिए आज स्कूल की जो पीढ़ी कल कॉलेज से होते हुए पांच बरस में बेरोजगारी की शहादत हासिल करने की तरफ बढ़ रही है, उस पीढ़ी को एआई के खतरों से भी आज ही बचाना होगा, वरना पांच बरस की पढ़ाई के बाद जब उनके पास कोई काम नहीं रहेगा, तो वे कहां जाएंगे? क्या वे राजस्थान में चपरासी बनने की कतार में लगने के लिए आज कॉलेजों की पांच या अधिक सालों की पढ़ाई करेंगे?
यह मौका ऐसे आत्मविश्लेषण का भी है कि भारत में बिना जरूरत, बिना तैयारी, और क्षमता खड़े किए जा रहे नाम के विश्वविद्यालय एक अच्छे विद्यालय जितना योगदान भी नहीं दे पाते। ऐसे में जब पूरी दुनिया के लोगों के बीच मुकाबला अब बढ़ते ही चल रहा है, तो फिर भारत की औसत स्तरहीन पढ़ाई लोगों के किस काम आएगी? अगर उन्हें चपरासी का ही काम मिलना है, तो मामूली स्कूली पढ़ाई के बाद उन्हें चपरासी के काम का ही प्रशिक्षण मिलना चाहिए, और देश को एमबीए और पीएचडी जैसे आत्मझांसे में नहीं जीना चाहिए, इससे डिग्री के कागज का गौरव तो मिल जाता है, गांधी बाबा की फोटो छपा हुआ एक नोट भी नहीं मिल पाता। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)