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सोशल मीडिया पर बच्चों पर रोक, भारत में कोई चर्चा तक शुरू नहीं!
06-Apr-2025 4:03 PM
सोशल मीडिया पर बच्चों पर रोक,  भारत में कोई चर्चा तक शुरू नहीं!

सुप्रीम कोर्ट ने अभी एक जनहित याचिका को सुनने से मना कर दिया जिसमें 13 बरस से कमउम्र के बच्चों को सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर रोकने की मांग की गई थी। अदालत ने कहा कि यह नीतिगत मामला है, और इसे संसद के सामने उठाना चाहिए, न कि अदालत के सामने। अदालत ने यह भी कहा कि याचिकाकर्ता इन मामलों के लिए बनाए गए संबंधित प्राधिकरण में अगर अपनी बात रखें, तो प्राधिकरण 8 हफ्तों में इस पर विचार करे। याचिका में सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर रोक लगाने की मांग की गई थी कि वे उम्र की पड़ताल किए बिना किसी को वहां पर दाखिला न दें। अदालत का कहना एक हिसाब से ठीक हो सकता है कि समाज को देखते हुए देश में जो नीतियां बननी चाहिए, उन्हें बंद अदालतों में काम करने वाले जजों के बजाय जनता से चुनकर आए हुए सांसदों के बीच चर्चा के बाद बनना चाहिए। लेकिन अगर इस गरिष्ठ परिभाषा से परे अदालत सोचती, तो बेहतर होता, और इस पर कम से कम केन्द्र सरकार से उसका पक्ष तो लिया ही जा सकता था। हो सकता है कि केन्द्र सरकार अदालत को जो जानकारी देती, उस पर याचिकाकर्ता के वकील कुछ और सवाल उठा सकते। आज तो अदालत ने जिस तरह इस मामले को संसद की तरफ रवाना कर दिया है, उसका मतलब उसने सब कुछ सरकार पर छोड़ दिया है। जबकि आज दुनिया में बहुत से विकसित देशों में इस बारे में ठोस पहल हो रही है।

ऑस्ट्रेलिया में पिछले बरस से ही एक कानून बनाया गया है जिसने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म को इस बरस तक का समय दिया है कि वे 16 बरस से कमउम्र के बच्चों का वहां दाखिला रोकें। ऐसा ही कानून 15 बरस से छोटे बच्चों को बुरे असर से बचाने के लिए फ्रांस ने 2023 से बनाया हुआ है। और अमरीका में चूंकि अधिक अधिकार राज्यों को हैं, वहां कम से कम एक राज्य फ्लोरिडा में अभी पिछले ही महीने एक कानून बना है जिसमें 14 बरस से छोटे बच्चों को सोशल मीडिया पर रोका जा रहा है, यह एक अलग बात है कि वहां के हर कानून की तरह इसे भी अदालत में चुनौती दी गई है। योरप के जो देश सबसे उदार विचारों के माने जाते हैं, उनमें से एक नार्वे ने अभी यह योजना घोषित की है कि वह 13 बरस से कम उम्र के बच्चों पर सोशल मीडिया इस्तेमाल का अभी लागू प्रतिबंध 15 बरस उम्र तक के बच्चों के लिए बढ़ा रहा है। इन सबसे परे एक और बात को समझने की जरूरत है कि पश्चिम का एक सबसे विकसित देश, ब्रिटेन स्कूली बच्चों से स्मार्टफोन वापिस लेने के लिए जनता के साथ मिलकर एक अभियान चला रहा है। सरकार खुद सीधे-सीधे इस पर रोक नहीं लगा रही, लेकिन मां-बाप इस अभियान को आगे बढ़ा रहे हैं। वहां की प्रमुख विपक्षी कंजरवेटिव पार्टी रोक लगाने के पक्ष में है, लेकिन वह सत्ता से बाहर हो गई है। फिर भी वहां यह सोच-विचार जोरों पर है। एक विपक्षी नेता ने वहां कहा है कि स्मार्टफोन, और सोशल मीडिया के अंधाधुंध इस्तेमाल से बच्चों को भी गर्दन और पीठ की ऐसी तकलीफें हो रही है जो कि अधेड़ लोगों को हुआ करती थी, इसके अलावा वे हिंसक पोर्नोग्राफी देखने के शिकार भी हो रहे हैं।

भारत सरकार के सूचना तकनीक विभाग के सचिव ने इसी बरस जनवरी में यह साफ किया था कि ऑस्ट्रेलिया की तरह की कोई प्रतिबंध भारत में बच्चों के सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म इस्तेमाल पर नहीं लगाया जाएगा। मोदी सरकार का मानना है कि बच्चों के मां-बाप की सहमति की जांच करके सोशल मीडिया कंपनियां बच्चों को दाखिला दे सकती हैं। सरकार का मानना है कि ऑनलाईन ही बच्चे कई तरह की चीजें सीखते भी हैं, और उन पर पूरी तरह से रोक लगा देना ठीक नहीं होगा। भारत सरकार के इस सचिव ने यह भी कहा था कि अभी तक तो किसी ने प्रतिबंध का सुझाव नहीं दिया है, और न ही ऐसी कोई चर्चा ही हुई है।

अब सोचने-समझने की बात यह है कि ऑनलाईन और सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म दो अलग-अलग चीजें हैं। हर सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म तो ऑनलाईन हैं, लेकिन ऑनलाईन हर चीज सोशल मीडिया नहीं है। इसलिए अगर बच्चे ऑनलाईन कोई पढ़ाई करते हैं, या कोई क्रॉफ्ट सीखते हैं, तो वह सोशल मीडिया से अलग है, जहां पर वे जाने-अनजाने कई किस्म के लोगों के संपर्क में आते हैं, और कई तरह के शोषण के खतरों में पड़ जाते हैं। खुद आपस में भी बच्चे सोशल मीडिया पर एक-दूसरे के साथ बर्ताव करते हुए कई ऐसे फोटो-वीडियो का लेन-देन करते हैं जो कि बाद में खतरनाक हो सकते हैं। पश्चिम के देशों ने लगातार यह देखा है कि बच्चों को सेक्स-जाल में फंसाकर उनके फोटो-वीडियो हासिल करना, और फिर उन्हें ब्लैकमेल करके उनकी पाई-पाई चूस लेना एक बड़ा आम जुर्म हो गया है, और उसमें कुछ अफ्रीकी देशों के पेशेवर मुजरिम भी लगे हुए हैं, उनके शिकार कई बच्चे खुदकुशी कर चुके हैं।

भारत में सब कुछ भगवान भरोसे छोड़ देना ठीक नहीं है। दूसरी तरफ केन्द्र सरकार बच्चों के मां-बाप की सहमति पर छोडऩे की जो सोच रखती है, वह इसलिए कमजोर है कि आज के किशोर-किशोरियों के मां-बाप एक अलग पीढ़ी के हैं, और उन्हें सोशल मीडिया की इजाजत देने के खतरे ठीक से मालूम भी नहीं है। इस देश में सरकारी निगरानी इतनी कमजोर है कि समाचार चैनलों के नाम पर रात-दिन उगले जा रहे जहर पर भी कोई रोक नहीं है, ऐसे में यह उम्मीद करना कि सरकार की कोई संस्था बच्चों के सोशल मीडिया इस्तेमाल पर नजर रख सकेगी, यह कुछ अधिक ही उम्मीद करना होगा। आज तो इन मामलों में दुनिया के सबसे जागरूक और जिम्मेदार देश भी अपने बच्चों को पेशेवर साइबर-मुजरिमों के जाल से बचा नहीं पा रहे हैं, ऐसे में भारतीय बच्चों को खुले में छोड़ देना बहुत समझदारी नहीं होगी। और आज देश में जगह-जगह सोशल मीडिया के रास्ते बने संबंधों के हिंसा और जुर्म तक पहुंचने के नाबालिगों के मामले बढ़ते चले जा रहे हैं।

अभी दो महीने पहले ही भारत सरकार के आईटी सचिव ने यह कहा है कि अभी तक तो ऐसे किसी प्रतिबंध का सुझाव भी नहीं आया है, तो यह सही वक्त है कि ऐसे किसी संभावित या प्रस्तावित प्रतिबंध पर सार्वजनिक चर्चा शुरू की जाए, समाज के अलग-अलग तबकों के लोगों की राय ली जाए, बाल मनोविज्ञान के जानकार लोगों, और समाजशास्त्रियों से भी पूछा जाए। आज जब दुनिया के कई देशों को ऐसा प्रतिबंध लगाए बरसों हो चुके हैं, और भारत में इस मुद्दे पर कोई चर्चा भी नहीं हुई है, तो इसका एक मतलब तो यह भी है कि सांसदों की मौजूदा पीढ़ी आज की इस जमीनी हकीकत से ठीक से वाकिफ नहीं है, और इसके खतरों को नहीं जान-समझ रही।

लोकतंत्र में जनमत बनाने के लिए वक्त लगता है। रोक लगे या न लगे, यह एक अलग मुद्दा हो सकता है, लेकिन किस उम्र तक के बच्चों को सोशल मीडिया के कैसे इस्तेमाल की छूट हो, इस बारे में खुली रायशुमारी तो होनी ही चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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