आजकल
- सुनील कुमार
हिन्दुस्तान में जगह-जगह आए दिन ऐसी पुलिस रिपोर्ट होती है कि किसी युवती या महिला ने किसी युवक या आदमी पर बलात्कार का जुर्म लगाया, और रिपोर्ट में यह रहता है कि उसने शादी का वायदा करके देह संबंध बनाए, और बाद में शादी से मुकर गया। मौजूदा कानून और बड़ी अदालतों के ढेर सारे फैसलों की रौशनी में ऐसे मामले तुरंत बलात्कार कानून के तहत दर्ज हो जाते हैं। पुलिस की सीमा मौजूदा कानून रहती है, और कानून बारीक नुक्ताचीनी के लिए बड़ी अदालतों के सामने खड़ा भी होता है, और बड़ी अदालतें कभी-कभार कानून की कुछ बातों को गलत भी मानती हैं, और वैसे में यह संसद के सामने रहता है कि वह अदालती फैसलों को देखते हुए कानून में कोई फेरबदल करे, या सुप्रीम कोर्ट के फैसले को लागू हो जाने दे।
आज इस मुद्दे पर लिखते हुए यह बात साफ है कि सुप्रीम कोर्ट और देश के कई हाईकोर्ट ने ऐसे मामलों में ऐसे साफ फैसले दिए हैं कि ऐसी शिकायतें बलात्कार गिनी जाएंगी। फैसले अपनी जगह ठीक हैं, लेकिन फैसलों से परे यह समझने की जरूरत है कि असल जिंदगी में ऐसे मामलों की बुनियाद क्या है। यह लिखते हुए इस बात का पूरा अंदाज है कि इसे महिलाविरोधी कहा जा सकता है, ऐसे में इसे बलात्कारी आदमी के लिए एक हमदर्दी भी कहा जा सकता है, लेकिन असल जिंदगी की हकीकत को देखते हुए इस पर चर्चा जरूरी भी है।
जिंदगी के प्रेमसंबंधों या स्त्री-पुरूष की दोस्ती को अगर देखें, और खासकर बालिग लोगों की दोस्ती देखें, तो उनमें से बहुत सी दोस्तियां देहसंबंधों तक पहुंच जाती हैं। उनमें से बहुत के साथ ऐसी अंतहीन उम्मीदें जुड़ी रहती होंगी कि यह सिलसिला शादी तक पहुंच जाएगा, दूसरी तरफ ऐसी भी उम्मीदें हो सकती हैं जो कि किसी वायदे के बाद पैदा हुई होंगी, और शादी का वायदा पूरा न होने पर उस वायदाखिलाफी की वजह से पहले के सहमति के देहसंबंध अब बलात्कार की परिभाषा के तहत लाए गए हों। हम कानून की बारीकियों में नहीं जा रहे, क्योंकि उन्हीं पर तो बड़ी अदालतों के बड़े फैसले रहे होंगे, लेकिन अपनी खुद की देखी हुई जिंदगियों का तजुर्बा यह है कि शादी की नीयत, और शादी के वायदे सचमुच के होने के बावजूद बहुत सी नौबतें ऐसी आ जाती हैं कि शादी नहीं हो पाती। यह वायदा लड़के की तरफ से भी टूट सकता है, और लड़की की तरफ से भी। बहुत से मामलों में समाज और परिवार का इतना दबाव हो जाता है कि चाह कर भी ईमानदार प्रेमीजोड़े शादी नहीं कर पाते। ऐसी ही नौबतें तो रहती हैं जिनके चलते प्रेमीजोड़े एक साथ खुदकुशी कर लेते हैं कि साथ जी न सके तो न सही, कम से कम साथ मर तो लें।
अब जिनकी साथ मरने जैसी ईमानदार नीयत रहती है, उनके बीच के देहसंबंध कई वजहों से शादी में तब्दील नहीं हो पाते। ऐसे में बरसों की सहमति के देहसंबंध वायादाखिलाफी की वजह से बलात्कार करार दिए जाएं, यह बात कुछ गले नहीं उतरती। फिर एक बात यह भी है कि हिन्दुस्तान का बलात्कार कानून लैंगिक समानता पर आधारित नहीं है। यह महिला के पक्ष में, और पुरूष के खिलाफ असंतुलित तरीके से झुका हुआ है, और सामाजिक हकीकत को देखें तो ऐसा रहना भी चाहिए। एक पुरूष ही शारीरिक और मानसिक रूप से, सामाजिक और आर्थिक रूप से एक महिला का शोषण करने की हालत में अधिक रहता है। लेकिन एक ऐसी स्थिति की कल्पना करें जब संपन्नता की ताकत रखने वाली कोई लड़की किसी विपन्न लड़के के साथ मोहब्बत करती हो, और दोनों के बीच देहसंबंध भी हों, और बरसों के ऐसे संबंध के बाद किसी वजह से वह लड़की शादी से इंकार कर दे, तो क्या बरसों के ऐसे देहसंबंधों को एक संपन्न द्वारा एक विपन्न का देहशोषण करना करार दिया जाएगा? भारत के मौजूदा कानून के तहत ऐसा नहीं हो सकता, और यहां पर कानून थोड़ा सा बेइंसाफ भी लगता है।
आज चारों तरफ ऐसे दसियों हजार लोग जेलों में बंद हैं जिनके खिलाफ बरसों के सहमति-संबंधों के बाद बलात्कार की शिकायत दर्ज कराई गई है। अब इनके तो फैसले मौजूदा कानून के आधार पर हो ही जाएंगे, और फैसले तक वे बहुत मुश्किल से मिली, बहुत महंगी पड़ी जमानत पर शर्मिंदगी के साथ जीते रहेंगे, लेकिन कानून से परे, क्या यह सचमुच इंसाफ है?
अपने दिल-दिमाग और अपनी रीति-नीति से महिलाओं के कट्टर हिमायती होते हुए भी यह सिलसिला ठीक नहीं लगता है। इस कानून में फेरबदल की जरूरत है क्योंकि बिना बल प्रयोग के, आपसी सहमति से, दो वयस्क लोगों के बीच बने देहसंबंधों का दर्जा महज वादाखिलाफी से बलात्कार नहीं होना चाहिए। वायदे तो कई वजहों से पूरे नहीं हो पाते हैं। बहुत से लोगों के बीच ऐसे रिश्ते तय होते हैं, सगाई होती है, जो कि टूट जाती है, और शादी नहीं हो पाती। बहुत से ऐसे प्रेमसंबंध और देहसंबंध रहते हैं जो बरसों के लंबे वक्त से गुजरते हुए एक-दूसरे को बाकी जिंदगी के लायक नहीं पाते, और समझदारी के साथ अलग होना तय कर लेते हैं।
वादाखिलाफी के आधार पर बलात्कार का जुर्म तय होना लोगों के बीच एक किस्म से भरोसा खत्म करने वाला है। लोगों के बीच संबंध रहें, और जिस दिन वे स्वस्थ न रहें, उन्हें महज इसलिए ढोना पड़े कि संबंध तोडऩा बलात्कार की सजा दिलवाएगा, तो यह सिलसिला नाजायज है, और बेइंसाफी है। बीच-बीच में किसी-किसी हाईकोर्ट ने ऐसे फैसले दिए भी हैं कि इन्हें बलात्कार न गिना जाए, लेकिन कुल मिलाकर आज जो व्यवस्था लागू है, वह सुप्रीम कोर्ट के फैसलों को लेकर है, और उसके बाद किसी का बचाव नहीं है।
यह कानून इस बात को पूरी तरह अनदेखा करता है कि वादाखिलाफी तो जिंदगी के हर दायरे में हो सकती है, होती है, और यह भी जरूरी नहीं होता कि वह सोच-समझकर ही की जाए, कई बार तो अनचाहे भी किसी वायदे को अधूरा छोडऩे की नौबत आ जाती है। यह कानून ऐसी तमाम मानवीय, और सामाजिक नौबतों को अनदेखा करता है, और सिर्फ एक पक्ष के बयान को अनुपातहीन-असंतुलित वजन देते हुए उसके आधार पर दूसरे पक्ष को कुसूरवार मानकर चलता है। कानून का यह पूर्वाग्रह उसकी बुनियाद में ही रखा गया है, और भारत में महिलाओं को खास हक और हिफाजत देने के लिए रखा गया है, लेकिन उसका यह इस्तेमाल न्याय की भावना के तो सीधे-सीधे ही खिलाफ है, न्याय के शब्दों के भी यह खिलाफ है, फिर चाहे यह लिखित कानून की भाषा ही क्यों न हो।
हम अपनी इस सोच के अलावा और लोगों से भी इस मुद्दे पर, कानून के इन पहलुओं पर आपस में चर्चा करने, बहस और सलाह-मशविरा करने की सलाह दे रहे हैं, ताकि समाज के भीतर इस सोच के पक्ष में, या इसके खिलाफ एक जनमत तैयार हो सके। अलग-अलग लोगों के अलग-अलग तर्क हो सकते हैं, लेकिन मौजूदा कानून को, मौजूदा मामलों को देखते हुए इसी तरह छोड़ देना ठीक नहीं है।