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संघ के दो दिग्गजों की दरियादिली और उनके लोगों के बर्ताव का फर्क
13-Apr-2025 7:35 PM
संघ के दो दिग्गजों की दरियादिली और उनके लोगों के बर्ताव का फर्क

किसी व्यक्ति या संस्था के औपचारिक बयान को लेकर कई तरह की अटकलें लगाई जा सकती हैं। ऐसा क्यों कहा गया है? उसका मतलब क्या है? अभी क्यों कहा गया है? और इसके पहले कब-कब क्या-क्या कहा गया था? साथ-साथ एक सवाल और कई बार खड़ा होता है कि जब कुछ असरदार करने की जरूरत रहती है, तब बेअसर अंदाज में महज बयान देने का क्या मतलब रहता है? और कभी-कभी ऐसी नौबत भी रहती है कि किसी एक संस्था या संगठन के लोग एक ही वक्त के आसपास अलग-अलग बयान देते हैं, तो फिर उनका मतलब निकालना सचमुच ही कुछ मुश्किल होता है। हो सकता है कि कुछ दिनों में एआई यह मतलब निकाल सके कि किसी संस्था-संगठन, या राजनीतिक दल के बहुत सारे लोगों के दिए गए अलग-अलग बयानों में से कौन से बयान को सबसे ऊपर माना जाए, लेकिन जब तक एआई ऐसा नहीं करता, तब तक लोगों को खुद ही यह करना पड़ेगा।

मस्जिदों और दरगाहों के नीचे मंदिरों को तलाशने के कई आक्रामक हिन्दुत्व संगठनों की कोशिशों पर देश के सबसे बड़े हिन्दू संगठन आरएसएस के एक के बाद दूसरे बड़े नेता/पदाधिकारी के कहे हुए के क्या मायने निकाले जाएं, यह तय करना कुछ मुश्किल है। अभी कुछ महीने पहले आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने एक सार्वजनिक बयान में कहा था कि राम मंदिर निर्माण के बाद कुछ लोगों को लगता है कि वे नई जगहों पर इसी तरह के मुद्दों को उठाकर हिन्दुओं के नेता बन सकते हैं, लेकिन ये कोशिश मंजूर नहीं की जा सकती। उन्होंने हिन्दू सेवा महोत्सव के उद्घाटन पर देश के आज के माहौल पर फिक्र जाहिर करते हुए मंदिर-मस्जिद वाले चैप्टर को बंद करने की बात कही थी। उन्होंने कहा तिरस्कार और शत्रुता के लिए हर रोज नए प्रकरण निकालना ठीक नहीं है, और ऐसा नहीं चल सकता। उनके इस बयान को कई चर्चित और विवादास्पद तथाकथित हिन्दू धर्मगुरुओं ने खारिज कर दिया था, जिनमें ज्योर्तिमठ के शंकराचार्य अविमुक्तेश्वरानंद भी शामिल थे। उन्होंने कहा- जो लोग आज कह रहे हैं कि हर जगह नहीं खोजना चाहिए, इन्हीं लोगों ने तो बात बढ़ाई है, और बढ़ाकर सत्ता हासिल कर ली, अब सत्ता में बैठने के बाद कठिनाई हो रही है। शंकराचार्य ने कहा अब कह रहे हैं ब्रेक लगाओ, जब आपको जरूरत हो तो आप गाड़ी का एक्सीलरेटर दबाओ, और जब जरूरत लगे तो ब्रेक दबा दो।

 

नागपुर में 2022 में भी मोहन भागवत ने कहा था कि इतिहास वो है जिसे हम बदल नहीं सकते। इसे न तो आज के हिन्दुओं ने बनाया है, और न ही आज के मुसलमानों ने। ये उस समय घटा, हर मस्जिद में शिवलिंग क्यों देखना? अब हमको कोई आंदोलन करना नहीं है।

संघ प्रमुख की इन बातों को लेकर देश के अलग-अलग राजनीतिक विश्लेषकों का अलग-अलग अनुमान है। कुछ लोग इसे भाजपा के साथ, या मोदी के साथ संघ और भागवत के एक अघोषित टकराव से जोडक़र देखते हैं क्योंकि आज देश भर में जितनी जगह मस्जिद या दरगाह को लेकर तनातनी चल रही है, उसमें शामिल हिन्दू लोगों में भाजपा के लोग खुलकर शामिल हैं, और ऐसे राज्यों में अगर भाजपा की सरकार है, तो वह सरकार भी खुलकर हिन्दू आंदोलनकारियों के साथ है, और वहां पर गैरहिन्दू सरकार के भी निशाने पर हैं। इसलिए मोहन भागवत की कही हुई बात क्या महज संघ की समकालीन विचारधारा है, भागवत की निजी राय है, यह भाजपा से अलग रीति-नीति रखने की मुनादी है, या कि यह मोदी की लीडरशिप में चल रही देश-प्रदेश की सरकारों, और भाजपा की आलोचना है? यह अंदाज लगाना बड़ा मुश्किल है।

संघ और भाजपा के रिश्ते संघ और जनसंघ के दिनों से कुछ रहस्यमय रहते आए हैं, और समय-समय पर किसका पलड़ा भारी रहता है, किसका किस पर कितना काबू रहता है, यह अंदाज लगाना भी मुश्किल रहता है। लोगों को याद होगा कि अभी कुछ महीने पहले भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे.पी.नड्डा ने जिस तरह से भाजपा की रणनीति में संघ की जरूरत अब खत्म हो जाने का सार्वजनिक बयान दिया था, उसे भी मोदी खेमे की तरफ से संघ को एक अघोषित चेतावनी सरीखा माना गया था क्योंकि नड्डा भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष रहते हुए भी इतने बड़े नेता नहीं थे कि वे आरएसएस को इस अंदाज में सार्वजनिक रूप से खारिज करें।

खैर, हम यहां पर संघ और भाजपा के रिश्तों को सिर्फ एक पृष्ठभूमि की तरह सामने रख रहे थे क्योंकि आगे की बात के लिए यह लंबा ब्यौरा देना जरूरी था। संघ में भागवत के बाद सबसे बड़े नेता माने जाने वाले, सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले ने अभी संघ की ही एक पत्रिका को दिए इंटरव्यू में कहा है कि अगर देश में 30 हजार मस्जिदों को खोदना शुरू कर दिया जाए, और यह दावा किया जाए कि वे मंदिरों को तोडक़र बनाई गई हैं, तो देश किस दिशा में जाएगा? उन्होंने इंटरव्यू के एक सवाल के जवाब में कहा- क्या इससे समाज में और अधिक शत्रुता और नाराजगी पैदा नहीं होगी? क्या हमें एक समाज के रूप में आगे बढऩा चाहिए, या अतीत में फंसे रहना चाहिए? कथित तौर पर नष्ट किए गए मंदिरों को फिर हासिल करने के लिए हमें इतिहास में कितना पीछे जाना चाहिए? उन्होंने कहा कि मस्जिदों के नीचे मंदिरों की खोज करने से हम (हिन्दू समाज में) छुआछूत को खत्म करने, युवाओं में जीवन-मूल्यों को स्थापित करने, संस्कृति की रक्षा करने, और भाषाओं को संरक्षित करने जैसे अधिक महत्वपूर्ण मुद्दों पर ध्यान देने से वंचित रह जाएंगे। उन्होंने कहा कि जब मंदिरों की बात आती है तो क्या किसी इमारत में जो अब एक मस्जिद है, कोई दिव्यता है? क्या हमें (ऐसी) इमारत में हिन्दू धर्म की तलाश करनी चाहिए, या हमें उन लोगों में हिन्दू धर्म जगाना चाहिए जो खुद को हिन्दू नहीं मानते? उन्होंने कहा इमारतों में हिन्दू धर्म के अवशेष ढूंढने के बजाय अगर हम समाज में हिन्दू धर्म की जड़ों को जगाते हैं, तो मस्जिद का मुद्दा अपने आप हल हो जाएगा। इस इंटरव्यू में उन्होंने मुस्लिमों और ईसाईयों के बारे में आक्रामकता से परे कुछ और बातें भी कही हैं।

अब सवाल यह उठता है कि भाजपा के एक के बाद दूसरे बड़े नेता ने जब ऐसे बयान दिए हैं, तो इनका क्या मतलब निकाला जाए? कुछ लोग संघ से यह सवाल कर सकते हैं कि वे आक्रामक आंदोलनकारी हिन्दुओं को सीधे निर्देश देने के बजाय एक वैचारिक और सैद्धांतिक अंदाज में यह बात क्यों कर रहे हैं जो कि किसी भीड़ को सुनाई नहीं दे सकती, खासकर उन्मादी भीड़ को तो सुनाई बिल्कुल नहीं दे सकती, जो कि कोई भी बड़ा हिन्दू त्यौहार मस्जिदों और दरगाहों के सामने डीजे बजाकर नाचने के बिना नहीं मना सकते। फिर यह भी है कि आज देश के अधिकांश हिस्से में भाजपा का राज है, या भाजपा सत्ता में भागीदार है, ऐसी जगहों पर संघ यह सीधी सलाह क्यों नहीं देता कि सरकारों को धार्मिक उन्माद और साम्प्रदायिक अराजकता को बचाना और बढ़ाना नहीं चाहिए? यह बात तो भागवत प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को भी कह सकते थे जो कि पिछले दिनों उनसे मिलने नागपुर के संघ मुख्यालय गए थे।

संघ या भाजपा की तरफ से संघ के इन दो नेताओं के बयानों पर कुछ कहा नहीं गया है, और भाजपा की सरकारों की तरफ से भी इन दो बयानों के मुताबिक काम होते कई प्रदेशों में तो कम से कम दिख नहीं रहा है। ऐसे में क्या इतिहास में दर्ज करने के लिए ऐसे बयान दिए जा रहे हैं जिन पर अमल करने के लिए असरदार तरीके से किसी को नहीं कहा जा रहा है? जितने भी आक्रामक हिन्दू आंदोलनकारी हैं, वे भाजपा या संघ से जुड़े हुए ही अधिक हैं, और ऐसे में अगर भागवत या उनके दूसरे नंबर के सबसे बड़े सहयोगी के सार्वजनिक बयान भी मस्जिद खोदने के उत्साह को घटा नहीं पा रहे हैं, तो क्या ये बयान सिर्फ जुबानी जमा-खर्च थे?

दत्तात्रेय होसबाले के सिर्फ शब्दों पर अगर हम जाएं, तो उन्होंने एक तर्कसंगत और न्यायसंगत बात कही है कि देश अगर 30 हजार मस्जिदों के नीचे मंदिर तलाशने के काम में लग जाएगा, तो न देश आगे बढ़ सकेगा, न हिन्दू समाज के पास अपनी बुरी बातों से उबरने का मौका रहेगा। हम अभी सिर्फ शब्दों पर चले जा रहे हैं तो लगता है कि इन्हीं शब्दों को संघ को बयानों के बजाय नीतिगत निर्णय और निर्देश की तरह जारी करना चाहिए, तभी उनका असर होगा, और तभी हिन्दू आंदोलनकारी उन्हें गंभीरता से लेंगे। हमारा तो यह भी मानना है कि संघ के इन नेताओं को अपने दसियों लाख स्वयं सेवकों को इस बारे में साफ-साफ निर्देश भी देना चाहिए कि वे ऐसे आंदोलनों में शामिल न हों। वरना उनकी इस बात का क्या अर्थ रह जाएगा कि वे तो मस्जिदों के नीचे मंदिर ढूंढने के खिलाफ हैं, लेकिन उनके स्वयंसेवक ऐसे आंदोलनों में बढ़-चढक़र शामिल हैं! इसलिए मन, वचन, और कर्म की समानता की जरूरत है। भागवत और होसबाले ने जो बयान दिए हैं, अगर वे सचमुच उस पर कायम हैं, तो उन्हें अपने इस रूख पर अपने स्वयंसेवकों और समर्थकों को अमल करने के लिए भी कहना चाहिए।  

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