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क्या यह संस्कृत मदरसा नहीं?
07-Jan-2024 3:39 PM
क्या यह संस्कृत मदरसा नहीं?

मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल से बड़ी दिलचस्प खबर आई है, वहां भारतीय संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए अभी धोती-कुर्ते में क्रिकेट मैच खेला गया, जिसकी कमेंटरी संस्कृत में की गई। तमाम टीमें अलग-अलग धार्मिक नामों वाली थीं, और आयोजकों का कहना था कि संस्कृत देवताओं की भाषा है, और इसी से दुनिया की सभी भाषाएं पैदा हुई हैं। यह टूर्नामेंट संस्कृति बचाओ मंच की तरफ से हो रहा है, और ये टीमें वैदिक विश्वविद्यालय के छात्रों की हैं जो कर्मकाण्ड की शिक्षा प्राप्त करते हैं। टूर्नामेंट जीतने वाली टीम को आयोजन समिति रामलला के दर्शन के लिए अयोध्या भेजने वाली है। 

बड़ा ही दिलचस्प मामला है जिसमें भारतीय संस्कृति को बचाने के लिए, और संस्कृत भाषा के महत्व को स्थापित करने के लिए यह क्रिकेट मैच करवाया जा रहा है। इसके पीछे की धार्मिक और सांस्कृतिक भावनाओं के साथ-साथ यह समझना थोड़ा सा मुश्किल है कि भारतीय संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए अंग्रेजों का खेल क्यों खेला जा रहा है। इसके बजाय चौसर, या तीरंदाजी, कुश्ती, या मल्लखंभ जैसे कोई मुकाबले करवाकर हिन्दुस्तानी संस्कृति को बेहतर तरीके से बचाया जा सकता था, और ऐसे खेलों की संस्कृत में कमेंटरी भी की जा सकती थी। 

यह एक बड़ा अजीब सा घालमेल है जिसमें संस्कृति को धर्म से जोड़ दिया गया है, धर्म को एक भाषा से, और उस भाषा को देवताओं की भाषा बना दिया गया है, और दुनिया की तमाम भाषाओं के इसी संस्कृत से निकलने का दावा करते हुए उसी गर्व में डूबे रहने को काफी मान लिया गया है। यह सच्चे या झूठे इतिहास की छाया में चैन से सोकर वर्तमान को पार कर लेने की एक ऐसी कोशिश है, जो इस पीढ़ी को भविष्य में नहीं पहुंचा सकती। इंसानी बदन की उम्र तो हर पल भविष्य की तरफ बढ़ ही जाती है, लेकिन जब उसकी सोच आगे बढऩे से इंकार कर देती है, और अपने इतिहास की अपनी खुद की गढ़ी हुई कल्पना को आरामदेह मान लेती है, तो फिर बदन बूढ़ा हो जाता है, और दिल-दिमाग कई सदी पहले पहुंचे हुए रहते हैं। 

हालत यह हो जाती है कि तथाकथित सांस्कृतिक इतिहास के गौरवगान में डूबे हुए लोगों को यह विरोधाभास भी समझ नहीं आता कि वे अपनी संस्कृति बचाने के लिए अंग्रेजों के खेल, क्रिकेट की पीठ पर सवार होकर चल रहे हैं, जो कि इस गुलाम देश में अंग्रेजों की दासता के इतिहास का एक प्रतीक भी है। हमलावर और विदेशी शासकों की छोड़ी हुई विरासत पर सवार होकर किस तरह कोई घरेलू संस्कृति जिंदा रह सकती है? 

मध्यप्रदेश के इस वैदिक विश्वविद्यालय में जिस तरह के भी कर्मकाण्ड पढ़ाए जा रहे हैं, उन पर रोजी-रोटी चलने के लिए यह भी जरूरी है कि हिन्दू धर्म को मानने वाले हमेशा ही धर्मालु बने रहें, और कर्मकाण्डों पर उनका भरोसा कायम रहे। इसी उम्मीद में छात्रों की यह नौजवान पीढ़ी धर्म या संस्कृति के कर्मकाण्डों की यह पढ़ाई कर रही है कि उसे हमेशा ही जजमान हासिल रहेंगे। एक हुनर के रूप में तो यह पढ़ाई ठीक हो सकती है कि पूजा-पाठ करवाकर, या हवन-पूजन करवाकर ये लोग अपनी जिंदगी गुजार सकते हैं, लेकिन ऐसी पढ़ाई इस बात को अनदेखा करती है कि यह लोगों को धर्मालुओं पर परजीवी की तरह पलने के लिए तैयार कर रही है। जिन लोगों को भी ऐसा भविष्य सुहाता है, वे बेरोजगार रहने के बजाय पंडिताई करके दान-दक्षिणा से जिंदगी गुजारने का काम कर सकते हैं। और ऐसी ही पीढ़ी तैयार करने के लिए ये आयोजक संस्कृत कमेंटरी वाला क्रिकेट टूर्नामेंट करवा रहे हैं। 

अगर ऐसे संस्थानों का सर्वे किया जाए तो कर्मकाण्ड का कोर्स कर रहे लोगों में से शायद ही कोई किसी नेता या अफसर, या किसी दौलतमंद के बच्चे निकलेंगे। ऐसे तबके अपने बच्चों को तो बेहतर पढ़ाई के लिए भेज देते हैं ताकि वे जिंदगी में अधिक कामयाब हो सकें, दूसरी तरफ वे धर्म और जाति के आधार पर छांटे गए गरीब बच्चों के लिए ऐसी कोर्स चलाते हैं जिनमें वे हमेशा ही धर्म पर पलने वाले बनकर रह जाएं। यह कुछ-कुछ उसी किस्म का है जिस तरह गरीब मुस्लिमों के लिए मदरसों में धर्म की पढ़ाई होती है। संपन्न मुस्लिम अपने बच्चों को पश्चिमी दुनिया में भेजते हैं, और गरीब मुस्लिमों के बच्चों के लिए मदरसे चलते हैं। यह भी देखा जाना चाहिए कि दुनिया के बाकी धर्मों में कमउम्र से ही धर्मशिक्षा देने का इंतजाम किस आय वर्ग के बच्चों के लिए किया जाता है।

पहले तो हिन्दी से प्रेम के नाम पर अंग्रेजी से परहेज ने कई पीढिय़ां बर्बाद कर दी हैं, और उनकी संभावनाएं सीमित कर दी हैं। भाषा को देशप्रेम से जोड़ दिया गया, उसे मातृभाषा और राष्ट्रभाषा का दर्जा दे दिया गया, और ऐसी भावनाओं के चलते दुनिया की विज्ञान और टेक्नॉलॉजी की भाषा का बहिष्कार भी किया गया। हिन्दुस्तान में बहुत से अंग्रेजी हटाओ आंदोलन देखे हैं, जिनका नुकसान हिन्दीभाषी इलाकों की कई पीढिय़ां झेल रही हैं। दूसरी तरफ दक्षिण के जिन राज्यों ने, या अहिन्दीभाषी दूसरे राज्यों में जिस तरह अंग्रेजी को भी अपनाया, उसी का नतीजा है कि उनकी आबादी दुनिया भर में पहुंची, और हिन्दी से परे भी रोजगार कमाने के लायक तैयार हुई। आज हिन्दी से भी और एक दर्जा जटिल और अलोकप्रिय संस्कृत को बढ़ावा देने के नाम पर जिस तरह गरीब बच्चों को उसमें झोंका जा रहा है, वह उन असहाय बच्चों के साथ बेइंसाफी है। 

एक तरफ तो देश के कुछ भाजपा शासन वाले राज्यों में मदरसों की पढ़ाई को कम या खत्म करने की बात होती है, दूसरी तरफ धर्म और संस्कृत भाषा के साथ कर्मकाण्डों की पढ़ाई क्या एक संस्कृत मदरसा नहीं बना रही है? 

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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