दुनिया के अलग अलग हिस्सों में मदर्स डे अलग तारीखों पर मनाया जाता है. भारत में भी मदर्स डे मई माह के दूसरे रविवार को मनाते हैं. लेकिन माओं को सम्मान देने का यह चलन सदियों पुराना है. प्राचीन ग्रीक और रोमन इतिहास में इस दिन के मनाए जाने के बहुत पुराने प्रमाण मिलते हैं. उनके इस दिन को मनाने के पीछे धार्मिक कारण जुड़े थे.
इंग्लैंड में भी 17वीं शताब्दी में लेंट यानि 40 दिनों के उपवास के दौरान चौथे रविवार को मदर्स डे मनाया जाता था. चर्च में प्रार्थना के बाद बच्चे अपने अपने घर फूल या उपहार लेकर जाते थे. युगोस्लाविया और कई और देशों में भी इसी तरह के किसी ना किसी दिन के होने के प्रमाण मिलते हैं.
धीरे धीरे यह चलन 19वीं शताब्दी तक बिल्कुल खत्म हो गया. मदर्स डे मनाने की आधुनिक शुरुआत का श्रेय अमेरिकी महिलाओं जूलिया बार्ड होवे और ऐना जार्विस को जाता है. अमेरिकी गृह युद्ध पर लिखे अपने गीत के जरिए खास पहचान बनाने वाली अमेरिकी लेखिका और कवयित्री जूनिया वार्ड होवे ने 1972 में सुझाव रखा कि 2 जून का दिन शांति और सद्भावना को समर्पित कर सभी माओं के लिए मनाया जाना चाहिए. कई सालों तक लगातार वह इस दिन बोस्टन में सम्मेलन और दूसरे कार्यक्रमों का आयोजन करती रहीं. लेकिन यह चलन ज्यादा दिन तक नहीं चल पाया और धीरे धीरे खत्म हो गया.
ऐना जार्विस को अमेरिका में मदर्स डे के आधुनिकीकरण की जननी माना जाता है. हालांकि ऐना ने खुद कभी शादी नहीं की और उनकी कोई संतान भी नहीं थीं लेकिन इस चलन की शुरुआत उन्होंने अपनी मां की याद में की थी. ऐना की मां एक समाज सेविका थीं और वह अक्सर ऐना से अपनी यह इच्छा जाहिर किया करती थीं कि एक दिन सारी दुनिया की माओं का सम्मान होना चाहिए और उन्हें समाज में उनके योगदान के लिए सराहा जाना चाहिए. 1905 में उनकी मृत्यु होने पर ऐना ने तय किया कि वह उनकी यह इच्छा जरूर पूरी करेंगी. प्रारंभ में उन्होंने अपनी मां के लिए चर्च में फूल भेजने शुरू किए फिर अपने सहयोगियों के साथ उन्होंने सरकार से इस दिन को सरकारी छुट्टी का दिन और आधिकारिक रूप से मदर्स डे के नाम से घोषित किए जाने की मांग की. 1914 में राष्ट्रपति वूडरो विल्सन ने मई के दूसरे रविवार को मदर्स डे के रूप में घोषित कर दिया.
सरकार बदलने के बाद भी कुछ निगम-आयोगों में भाजपा के लोग काबिज हैं, जिन्हें हटाने की कोशिश भी चल रही है। मार्कफेड के अध्यक्ष राधाकृष्ण गुप्ता हटाए जा चुके हैं और अब दुग्ध महासंघ अध्यक्ष रसिक परमार का नंबर है। रसिक परमार भी निर्वाचित हैं और उन्हें हटाने के लिए ग्राउंड तैयार किया जा रहा है।
वैसे तो मीडिया जगत से आए रसिक परमार की साख अच्छी है और उन पर भ्रष्टाचार के कोई ठोस आरोप नहीं हैं। लेकिन दुग्ध महासंघ के अफसर जरूर मौज-मस्ती वाले रहे हैं। महासंघ में ऊंचे ओहदे पर रहे एक अफसर ने भाजपा की टिकट से विधानसभा चुनाव की तैयारी भी की थी, लेकिन उन्हें टिकट नहीं मिल पाई। अफसर ने मतदाताओं को रिझाने के लिए इलाके में दूध-मठा भी बंटवाया था। खैर, रसिक परमार को हटाने के लिए पार्टी नेताओं का दबाव है। उनका कैबिनेट मंत्री का दर्जा वापस लिया जा चुका है। चूंकि लोकसभा का चुनाव चल रहा है और कृषि मंत्री अस्वस्थ हैं। इसलिए इस पर कोई फैसला नहीं हो पाया है। कहा जा रहा है कि महीने के आखिरी तक उनकी सेवाएं वापस ली जा सकती है।
तीस अप्रैल 1945 को जर्मन तानाशाह हिटलर के आत्महत्या करने के बाद आठ मई को जनरल आल्फ्रेड योडल ने बिना शर्त आत्मसमर्पण के कागजों पर हस्ताक्षर कर दिए. आत्मसमर्पण मसौदे पर हस्ताक्षर फ्रांस के शहर रेंस में हुए.
द्वितीय विश्व युद्ध की शुरुआत सितंबर 1939 में जर्मनी द्वारा पौलैंड पर हमले के साथ हुई. 1933 में अडोल्फ हिटलर के शासक बनने के साथ ही जर्मनी प्रथम विश्व युद्ध में मिली बेइज्जती का बदला लेने और दोबारा शक्तिशाली राष्ट्र बनने की कोशिश में जुट गया. प्रथम विश्व युद्ध में हार के बाद जर्मनी को वारसा की संधि पर जबरन हस्ताक्षर करना पड़े थे. इसके कारण उसे अपने कब्जे वाला बहुत सारा क्षेत्र छोड़ना पड़ा था. अपनी सेना सीमित करनी पड़ी और दूसरे देशों को प्रथम विश्व युद्ध में हुए नुकसान का भुगतान देना पड़ा था.
1939 से 1945 तक चलने वाले द्वितीय विश्व युद्ध में 61 देशों की थल, जल और वायु सेनाएं शामिल थीं. इस युद्ध में विश्व दो हिस्सों, मित्र राष्ट्र और धुरी राष्ट्र में बंट गया. पोलैंड पर जर्मनी के आक्रमण के बाद फ्रांस ने जर्मनी के खिलाफ युद्ध की घोषणा कर दी और ब्रिटेन, अमेरिका और योवियत संघ समेत अन्य मित्र देशों ने फ्रांस का साथ दिया. दुनिया की आबादी का लगभग अस्सी फीसदी हिस्सा द्वितीय विश्व युद्ध में प्रभावित हुआ. इस युद्ध में करीब सात करोड़ जानें गई जिनमें बहुत बड़ा हिस्सा नागरिकों का था.
रमन सिंह के पूर्व प्रमुख सचिव अमन सिंह की गिनती देश के ताकतवर नौकरशाहों में होती रही है, लेकिन सरकार बदलते ही अमन सिंह दिक्कत में दिख रहे हैं। सरकार ने उनके खिलाफ शिकायतों की जांच के लिए एसआईटी बनाई थी, जिसमें उन्हें फिलहाल अदालती राहत भी मिल गई है। मगर, कुछ और प्रकरण हैं जिसमें उन्हें थोड़ी-बहुत परेशानी का सामना करना पड़ सकता है। एक प्रकरण उनकी अमेरिका यात्रा का है, जिसमें वे हार्वर्ड बिजनेस स्कूल के कार्यक्रम में बतौर स्पीकर शामिल हुए थे। इस पूरी यात्रा पर करीब 7 लाख खर्च हुए थे। यह खर्चा एनआरडीए ने वहन किया था। अब इस पूरे खर्च को लेकर एनआरडीए दफ्तर में चर्चा हो रही है।
दस्तावेजों को देखे तो पहली नजर में अमन सिंह कहीं गलत नहीं दिखते हैं। वजह यह है कि खुद जीएडी ने एनआरडीए चेयरमैन की अमेरिका यात्रा और खर्चें की अनुमति दी थी। इसमें प्रथम श्रेणी हवाई यात्रा की विशेष अनुमति भी थी। वैसे तो प्रथम श्रेणी में हवाई यात्रा की पात्रता सिर्फ सीएम को रहती है और तत्कालीन सीएम रमन सिंह की खुद की अमन सिंह के लिए विशेष अनुमति रही है। अब यह भी कहा जा रहा है कि संस्थान ने अतिथि के आने-जाने का खर्च वहन क्यों नहीं किया?
जो लोग अमन सिंह को नजदीक से जानते हैं, वे मानते हैं कि अमन सिंह बहुत बारीक रहे हैं। मुकेश गुप्ता की तरह उनसे शायद ही कोई लापरवाह चूक हुई हो। यह जानकर लोगों को हैरानी होगी कि पिछले पांच साल में अमन सिंह ने किसी फाइल पर दस्तखत नहीं किए। जबकि सबसे ज्यादा गड़बड़ी उनके विभाग में सामने आ रही है, लेकिन इसके लिए वे जिम्मेदार नहीं दिखते हैं। जिस किसी फाइल में भी उनके दस्तखत हैं उनमें विभागीय मंत्री के साथ-साथ उनसे ऊपर के कई अफसरों के दस्तखत हैं। यानी उन्हें किसी गलती के लिए उन्हें अकेले जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है। ये अलग बात है कि रमन सरकार में जो कुछ भी अच्छा हुआ, उसका श्रेय बिना कुछ किए अमन को ही मिला। नेता, अफसर हो या फिर पत्रकार, जिस किसी से भी उनकी ठनी, उन्हें पछाड़ कर ही दम लिया। उनकी कार्यशैली पर नजर रखने वाले दावा करते हैं कि अमन को घेर पाना मुश्किल ही नहीं, नामुकिन है।
कॉल रिकॉर्डिंग, जायज-नाजायज?
टेलीफोन पर लोगों से की जा रही बातचीत रिकॉर्ड करना जायज है या नहीं यह कहना अब कुछ मुश्किल हो चला है। एक वक्त था जब लोग अपनी कही बातों के साथ खड़े रहते थे, लेकिन अब खड़े-खड़े मुकर जाते हैं। बिलासपुर हाईकोर्ट में एक बड़े सरकारी वकील ने अभी सरगुजा से आने वाले छत्तीसगढ़ के एक प्रमुख पत्रकार के खिलाफ पुलिस में शिकायत की कि उन्होंने अनिल टुटेजा की जमानत के बारे में पूछताछ करते हुए उन्हें डांटा, और उन्हें धमकाया भी। उन्हें यह बात बुरी लगी है, और इस पर पुलिस कार्रवाई करे। पुलिस पहली नजर में हैरान-परेशान हुई कि किसी को कोई बात बुरी लगी हो तो उसमें पुलिस क्या करे? लेकिन चूंकि बात प्रदेश के एक सबसे बड़े सरकारी वकील की थी, इसलिए पुलिस ने शिकायत में दिए गए फोन नंबर पर फोन करके पत्रकार को चमकाना शुरू किया। लेकिन थाने वाले को अंदाज नहीं था कि सामने ऐसा पत्रकार है जिसकी आए दिन मुख्यमंत्री और मंत्रियों से बात-मुलाकात होती रहती है, और जो कानून की थोड़ी सी समझ भी रखता है। उसने थाने को सलाह दी कि उसे औपचारिक नोटिस भेजा जाए तो वह पूछताछ के लिए पेश होगा। अब बुरे लगने पर तो कोई जुर्म बनता नहीं है, धारा लगती नहीं है, वकील का बयान पुलिस ने लिया नहीं है, ऐसे में नोटिस भेजे तो क्या भेजे?
कहा जा रहा है कि इस पत्रकार ने इस बातचीत के टेलीफोन कॉल को रिकॉर्ड कर लिया था, और पूरी बातचीत में वकील साहब जवाब दे रहे थे, उन्हें कुछ बुरा लगते नहीं दिख रहा था। लेकिन अगर बातचीत रिकॉर्ड नहीं होती तो अमूमन लोग यह मान लेते कि पत्रकार था तो धमकाया ही होगा, और वकील है तो शिकायत सही ही होगी।
अब इस केस को देखें तो लगता है कि कॉल रिकॉर्ड करना जायज है क्योंकि कब कोई किसी कॉल को धमकाने वाला कहने लगे, इसका कोई ठिकाना तो है नहीं। अभी-अभी एक दूसरे मामले में रायपुर की एक सामाजिक कार्यकर्ता महिला ने पुलिस में रिपोर्ट की है कि किस तरह उद्योग विभाग का एक अधिकारी उससे फोन पर नशे में ऊलजलूल बातें कर रहा था, और बात पूरी होने के बाद उस अधिकारी के आसपास के लोग किस तरह शराब पीते हुए आपस में उस महिला के बारे में गंदी और अश्लील बातें कर रहे थे। अब इसकी भी अगर रिकॉर्डिंग नहीं होती, तो यह शिकायत कैसे हो पाती? इसलिए आत्मरक्षा में ऐसी रिकॉर्डिंग अब नाजायज नहीं कही जा सकती।
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मोतीलाल नेहरू इलाहाबाद के एक मशहूर वकील थे. लेकिन उनका भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भी अहम किरदार रहा. वह 1919 से 1920 और दूसरी बार 1928 से 1929 तक कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी रहे.
ब्रिटिश शासन काल में पश्चिमी अंदाज की उच्च शिक्षा पाने वाले भारतीयों में मोतीलाल नेहरू कुछ प्रारंभिक लोगों में से एक थे. उन्होंने कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से कानून की पढ़ाई पूरी की और काफी समय तक अंग्रेजी न्यायालयों में वकील के रूप में काम किया. 1919 में अमृतसर में जलियांवाला बाग हत्याकांड के बाद उन्होंने महात्मा गांधी के आह्वान पर वकालत छोड़ दी और स्वतंत्रता संग्राम में शामिल हो गए.
मेतीलाल नेहरू वैसे तो पश्चिमी रहन सहन और वेशभूषा से खासे प्रभावित थे लेकिन महात्मा गांधी से संपर्क में आने पर उनकी सोच पर काफी फर्क पड़ा. उन्होंने देशबंधु चित्तरंजन दास के साथ 1923 में 'स्वराज पार्टी' का गठन किया. इसी के जरिए वह 'सेंट्रल लेजिस्लेटिव असेम्बली' पहुंचे और बाद में वह विपक्ष के नेता बने. उन्होंने आजादी की लड़ाई के दौरान भारतीयों के पक्ष को सामने रखने के लिए 'इंडिपेंडेंट अखबार' भी चलाया.
इलाहाबाद में अपना नया घर बनवाने के बाद अपना पुराना घर स्वराज भवन उन्होंने कांग्रेस को इस्तेमाल के लिए दे दिया. जवाहरलाल नेहरू उनके एकलौते पुत्र थे. उनकी दो बेटियां विजयलक्ष्मी पंडित और कृष्णा हठीसिंह थीं. मोतीलाल नेहरू का 1931 में इलाहाबाद में निधन हुआ.
जम्मू-कश्मीर के छोटे से जिले लेह के पत्रकारों ने आरोप लगाया है कि भाजपा नेताओं ने लोकसभा चुनाव में अपने पक्ष में माहौल बनाने के लिए पैसा देने की कोशिश की। चुनाव आयोग इसकी पड़ताल कर रहा है। राजनीतिक दलों द्वारा चुनाव के वक्त पत्रकारों को पैसे देने का चलन-सा है। छत्तीसगढ़ में भी 2013 के विधानसभा में कांग्रेस की एक सूची वायरल हुई थी, जिसमें यह उल्लेख था कि किस पत्रकारों को कितने पैसे दिए गए। जिन पत्रकारों ने पैसे लिए थे, उन्होंने चुपचाप रख लिए, लेकिन सूची में कई नाम ऐसे थे जिन्होंने पैसे नहीं लिए पर उनके नाम के आगे राशि का जिक्र था। ऐसे पत्रकारों ने पार्टी के तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष डॉ. चरणदास महंत के समक्ष कड़ी आपत्ति जताई थी, तब मीडिया विभाग संभाल रहे रमेश वल्र्यानी को काफी सफाई देनी पड़ी।
लेन-देन की रिकॉर्डिंग मौजूद है
इस बार के विधानसभा चुनाव में तो बहुत कुछ हुआ। एक राजनीतिक दल ने तो एक मीडिया कंपनी को कुछ पत्रकारों को पैसे देने का जिम्मा सौंपा था। कंपनी के लोग काफी होशियार निकले, उन्होंने चुपचाप रिकॉर्डिंग भी करवा रखी है। ताकि किसी तरह का कम-ज्यादा का आरोप-प्रत्यारोप होने पर सबूत उपलब्ध रहे। लोकसभा चुनाव में प्रदेश भाजपा ने विज्ञापन और मीडिया के लोगों को किसी तरह का व्यवहार देने से खुद को अलग रखा। सुनते हंै कि विधानसभा चुनाव में हार के बाद प्रदेश में इन सब चीजों का हिसाब-किताब रखने वालों पर उंगलियां उठ रही हैं। चर्चा तो यह भी है कि विधानसभा चुनाव में करीब साढ़े 8 करोड़ रूपए बांटे गए थे। यह सब विज्ञापन से अलग था। विरोधी नेता आपसी चर्चा में यह कह रहे हैं कि इसमें काफी हेर-फेर हुई है। और जिम्मेदार लोगों ने पैसे दबा दिए। कई पत्रकारों ने पैसे लेने से मना भी किया, लेकिन छोटे से जिले लेह के पत्रकारों जैसा हौसला नहीं दिखा पाए।
भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के पिता मोतीलाल नेहरू का जन्म आज ही के दिन 1861 में हुआ था.
मोतीलाल नेहरू इलाहाबाद के एक मशहूर वकील थे. लेकिन उनका भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भी अहम किरदार रहा. वह 1919 से 1920 और दूसरी बार 1928 से 1929 तक कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी रहे.
ब्रिटिश शासन काल में पश्चिमी अंदाज की उच्च शिक्षा पाने वाले भारतीयों में मोतीलाल नेहरू कुछ प्रारंभिक लोगों में से एक थे. उन्होंने कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से कानून की पढ़ाई पूरी की और काफी समय तक अंग्रेजी न्यायालयों में वकील के रूप में काम किया. 1919 में अमृतसर में जलियांवाला बाग हत्याकांड के बाद उन्होंने महात्मा गांधी के आह्वान पर वकालत छोड़ दी और स्वतंत्रता संग्राम में शामिल हो गए.
मेतीलाल नेहरू वैसे तो पश्चिमी रहन सहन और वेशभूषा से खासे प्रभावित थे लेकिन महात्मा गांधी से संपर्क में आने पर उनकी सोच पर काफी फर्क पड़ा. उन्होंने देशबंधु चित्तरंजन दास के साथ 1923 में 'स्वराज पार्टी' का गठन किया. इसी के जरिए वह 'सेंट्रल लेजिस्लेटिव असेम्बली' पहुंचे और बाद में वह विपक्ष के नेता बने. उन्होंने आजादी की लड़ाई के दौरान भारतीयों के पक्ष को सामने रखने के लिए 'इंडिपेंडेंट अखबार' भी चलाया.
इलाहाबाद में अपना नया घर बनवाने के बाद अपना पुराना घर स्वराज भवन उन्होंने कांग्रेस को इस्तेमाल के लिए दे दिया. जवाहरलाल नेहरू उनके एकलौते पुत्र थे. उनकी दो बेटियां विजयलक्ष्मी पंडित और कृष्णा हठीसिंह थीं. मोतीलाल नेहरू का 1931 में इलाहाबाद में निधन हुआ.
सीएम के खिलाफ आपत्तिजनक टिप्पणी पर कांग्रेस ने भाजपा विधायक शिवरतन शर्मा को बैन कर दिया है। पार्टी नेता शिवरतन शर्मा के साथ किसी भी टीवी डिबेट में हिस्सा नहीं लेंगे। पिछले कुछ समय से शिवरतन शर्मा, भूपेश सरकार के खिलाफ मुखर हैं। वैसे तो वे भाजपा की गुटीय राजनीति में रमनविरोधी खेमे माने जाते थे, लेकिन सरकार ने जैसे ही रमन-परिवार पर निगाह तिरछी की, तो बचाव में सबसे पहले शिवरतन शर्मा ही आगे आए। वे अब रमन के भरोसेमंद माने जाने लगे हैं।
यह बात किसी से छिपी नहीं है कि पार्टी ने वर्ष-2013 के विस चुनाव में उन्हें टिकट नहीं देने का फैसला किया था, तब बृजमोहन अग्रवाल के अडऩे की वजह से उन्हें टिकट मिल पाई और चुनाव भी जीत गए। इस बार के विधानसभा चुनाव में भाग्य ने उनका साथ दिया और त्रिकोणीय संघर्ष में फिर बाजी मार गए। इन सफलताओं के बावजूद पार्टी के भीतर उनकी छवि कोई अच्छी नहीं रही है। उनका परिवार चावल कारोबार से जुड़ा है। कुछ साल पहले बलौदाबाजार में चावल-धान घोटाला हुआ था, तो शिवरतन शर्मा निशाने पर रहे।
भाजपा सरकार में उनके परिवार ने काफी आर्थिक तरक्की की। नागरिक आपूर्ति निगम में परिवहन के ठेके में पूर्व विधायक गुरूमुख सिंह होरा परिवार का बहुत लंबे समय से एकाधिकार रहा है, लेकिन शिवरतन के परिवार ने होरा का वर्चस्व तोड़ दिया। भाटापारा में शिवरतन परिवार का डीपीएस स्कूल भी है। वे भाटापारा-बलौदाबाजार जिले में एक बड़ी आर्थिक ताकत बन चुके हैं।
सुनते हैं कि रमन सरकार में मंत्रिमंडल में उन्हें जगह दिलाने के लिए सरोज पाण्डेय ने काफी मेहनत की थी। तब एक प्रमुख नेता ने निजी चर्चाओं में यह कहकर खारिज किया था कि शिवरतन को मंत्रिमंडल में शामिल करने से अच्छा संदेश नहीं जाएगा और भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिल सकता है। अब जब शिवरतन शर्मा आक्रामक दिख रहे हैं, तो इसकी प्रतिक्रिया भी हो सकती है। फिलहाल तो उनके खिलाफ आपत्तिजनक टिप्पणी पर पुलिस में शिकायत दर्ज कराई जा रही है।
बहिष्कार के मुकाबले बहिष्कार
भारतीय जनता पार्टी ने कुछ समय पहले जब कांगे्रस के एक प्रवक्ता विकास तिवारी का टीवी चैनलों पर बहिष्कार घोषित किया, तो कांगे्रस प्रवक्ताओं की लिस्ट में मिलीजुली प्रतिक्रिया रही। एक ही तरह के काम करने वाले लोगों के बीच जाहिर है कि थोड़ी सी खींचतान रहती ही है, और हर टीवी डिबेट के बाद जब दोनों-तीनों पार्टियों के लोग चाय पर गपियाते हैं, तो अपनी-अपनी पार्टी के दूसरों की कमजोरियां भी बांटी जाती हैं। ऐसे में विकास तिवारी का बहिष्कार उन पर भारी पड़ रहा था।
अब जब शिवरतन शर्मा के एक बयान को लेकर कांगे्रस ने पहले जब केवल बयान जारी किया तो विकास तिवारी बेचैन थे। उनकी बेचैनी को देखते हुए पार्टी ने फिर शिवरतन शर्मा का बहिष्कार किया, तो कलेजे में कुछ ठंडक पड़ी।
प्रवक्ताओं की जात क्या है?
एक दिलचस्प बात यह है कि छत्तीसगढ़ में कांगे्रस और भाजपा जैसी दोनों बड़ी पार्टियों के प्रवक्ताओं को टीवी पर देखें, तो दिखता है कि ब्राम्हण या सवर्ण हावी हैं। कांगे्रस की लिस्ट देखें तो राजेन्द्र तिवारी, शैलेष नितिन त्रिवेदी, आरपी सिंह, किरणमयी नायक, विकास तिवारी, रमेश वल्र्यानी जैसे लोग ही टीवी के परदे पर दिखते हैं। दूसरी तरफ भाजपा में सच्चिदानंद उपासने, श्रीचंद सुंदरानी, केदार गुप्ता, संजय श्रीवास्तव, के चेहरे ही टीवी पर दिखते हैं।
कहने के लिए इन पार्टियों की प्रवक्ता-सूची में मुस्लिम, ईसाई, दलित, आदिवासी हो सकते हैं, लेकिन अमूमन वे टीवी पर दिखते नहीं हैं। अब अल्पसंख्यकों और सबसे दबे-कुचले तबकों की जगह पार्टी की ओर से बोलने में ही इतनी कमजोर रखी गई है, तो बहस में इन तबकों के तजुर्बों की भला क्या जगह होती होगी? लेकिन राजनीतिक दलों के लोगों अखबारों के संपादकीय विभाग या न्यूज रूम को भी गिना सकते हैं कि वहां पर भी तो महज ब्राम्हणों का बोलबाला है। मीडिया मालिक अधिकतर मारवाड़ी, और पत्रकार अधिकतर ब्राम्हण!
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60 के दशक में सोवियत संघ और अमेरिका के बीच धरती ही नहीं अंतरिक्ष में भी एक दूसरे से आगे निकल जाने की होड़ लगी थी. आज ही के दिन एलन शेपर्ड अंतरिक्ष में पहुंचने वाले पहले अमेरिकी नागरिक बने.
5 मई 1961 को अमेरिका ने पहली बार नागरिक शेपर्ड को अंतरिक्ष में भेजा. इसी के साथ अमेरिका रूस के बाद अंतरिक्ष में इंसान भेजने वाला दूसरा देश बन गया. फ्रीडम 7 मिशन के तहत अमेरिका अक्टूबर 1960 से ही एलन शेपर्ड को अंतरिक्ष में भेजना चाह रहा था. लेकिन तकनीकी कारणों से इसमें रुकावटें आती रहीं.
आखिरकार 5 मई 1961 को यह मुमकिन हुआ. एलन शेपर्ड ने अंतरिक्ष में करीब 15 मिनट बिताए. शेपर्ड धरती से 187 किलोमीटर की दूरी तय करने में तो सफल रहे, लेकिन वह धरती के चारों तरफ घूम नहीं पाए. हालांकि शेपर्ड के अंतरिक्ष में जाने से पहले ही 12 अप्रैल 1961 को सोवियत संघ के हीरो यूरी गागरिन अंतरिक्ष पहुंच चुके थे. अगले 10 महीने अमेरिका के लिए काफी मुश्किल भरे रहे. 1962 में एक बार फिर अमेरिका की उम्मीदें जगीं.
20 फरवरी 1962 को अमेरिका ने 40 वर्षीय जॉन ग्लेन को अंतरिक्ष में भेजा. कहा जा सकता है कि फ्रेंडशिप 7 मरक्युरी अंतरिक्ष यान ने अमेरिका की इज्जत बचा ली. इस यान ने 296 मिनटों में धरती के तीन चक्कर लगाए. जब जॉन ग्लेन धरती पर लौटे तो वो अमेरिका के नए हीरो थे. उस वक्त राष्ट्रपति जॉन एफ केनेडी ने पूरे सम्मान के साथ ग्लेन का स्वागत किया. अमेरिका दुनिया को यह संदेश देने में कामयाब रहा कि वह भी किसी से पीछे नहीं है.