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-सरोज सिंह
किसान आंदोलन की कमान इन दिनों भारतीय किसान यूनियन के नेता राकेश टिकैत मज़बूती से पकड़े दिखाई दे रहे हैं.
राकेश टिकैत वैसे तो पश्चिमी उत्तर प्रदेश से ताल्लुक रखते हैं. लेकिन अब किसान महापंचायतों में आने का बुलावा हरियाणा राजस्थान, महाराष्ट्र, कर्नाटक और मध्य प्रदेश से भी आ रहा है.
आने वाले दिनों में उनकी व्यस्तता ऐसी है कि हर दूसरे दिन किसी ना किसी जगह का कार्यक्रम लगा हुआ है. राकेश टिकैत के साथी धर्मेंद्र मलिक कहते हैं, "26 जनवरी के बाद से राकेश टिकैत हरियाणा में चार महापंचायत को संबोधित कर चुके हैं जिसमें जींद में दो और चरखी दादरी और कुरुक्षेत्र में एक-एक महापंचायत शामिल है."
वो कहते हैं, "इसके अलावा आने वाले दिनों के लिए दो कार्यक्रम अभी तय हैं लेकिन बुलावा कई और जगहों से आया हुआ है, जिसमें अलवर, गढ़ी सापला, बहादुरगढ़, अकोला, बेलारी, जयपुर, दौसा के निमंत्रण शामिल हैं."
राकेश टिकैत उत्तर प्रदेश के बाहर किसानों के नेता बनते प्रतीत हो रहे हैं तो दूसरी तरफ़ उनके बड़े भाई नरेश टिकैत ने उत्तर प्रदेश में महापंचायतों की कमान संभाल रखी है.
उन्होंने सिसौली, बिजनौर, मुज़फ़्फरनगर में महापंचायतें की हैं. इसके अलावा बड़ौत, सांगली जैसी कुछ महापंचायतों में कोई बड़ा किसान नेता नहीं पहुँचा, लेकिन किसान महापंचायतें वहाँ भी हुईं. 12 फरवरी को नरेश टिकैत मुरादाबाद में होने वाली किसान महापंचायत में शिरकत करेंगे.
इन्हीं व्यस्तताओं को देखते हुए कहा जा रहा है कि किसान आंदोलन के लिए ये महापंचायतें संजीवनी का काम कर रही हैं.
कहा जा रहा है कि हरियाणा, राजस्थान में महापंचायतों में जुट रही भीड़ से साबित हो रहा है कि राकेश टिकैत पूरे उत्तरी भारत के किसान नेता बन चुके हैं.
लेकिन इस बात में कितना दम है. ये जानने और समझने के लिए हरियाणा, राजस्थान और उत्तर- प्रदेश तीनों राज्यों में महापंचायतों के बारे में समझना होगा.
महापंचायत क्या होती है?
जब खाप किसी मुद्दे पर बड़ी बैठक बुलाती है तो उसी को पंचायत या महापंचायत कहते हैं. खाप के नेता आपस में बैठकर तय करते हैं कि किस मुद्दे पर कब पंचायत बुलानी है और उसी हिसाब से निमंत्रण भेजा जाता है. खाप का नेतृत्व परिवार में ही रहता है और पीढ़ी दर पीढ़ी ट्रांसफर होता रहता है.
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आरएलडी नेता जयंत चौधरी शामली की किसान महापंचायत में
खाप पंचायतों का आधार गोत्र या जातियां होती हैं. कई बार सर्व-जातीय खाप पंचायतें भी बुलाई जाती हैं, जिसमें सभी जातियों के लोग शामिल होते हैं.
आमतौर पर खाप ऐसी पंचायतों का आयोजन सामाजिक मुद्दे और अपने अंदरूनी मसलों को सुलझाने के लिए करती हैं. लेकिन कभी-कभी आर्थिक और किसानी संबंधित मुद्दों पर भी बुलाई जाती है, जैसे इन दिनों हो रहा है.
हरियाणा में टिकैत कितने बड़े किसान नेता?
हरियाणा की राजनीति में किसका कितना दख़ल है, उस पर एक किताब है 'पालिटिक्स ऑफ चौधर'. इस किताब के लेखक सतीश त्यागी कहते हैं, "पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा में जो महापंचायतें हो रही हैं उनमें ज़्यादातर जाट हैं. दोनों इलाकों के जाट गोत्र की दृष्टि से एक ही तरह के हैं. इसलिए दोनों में सामाजिक संबंध हैं, रिश्तेदारियाँ हैं. चूंकि ये आंदोलन अब जाट नेताओं के हाथ में चला गया है इसलिए पंचायतों में भीड़ खुद ही चली आ रही है."
सतीश त्यागी कहते हैं, किसान आंदोलन की पकड़ दक्षिण हरियाणा में कम और सेंट्रल हरियाणा (रोहतक, झज्जर, सोनीपत) में ज़्यादा है.
हरियाणा में गुरनाम सिंह चढूनी को किसानों का सबसे बड़ा नेता माना जाता है, जो भारतीय किसान यूनियन के ही नेता हैं और जाट सिख हैं.
हरियाणा में जो किसान मुद्दे पर महापंचायतें हुईं उनमें जींद में वो गए थे, लेकिन कैथल और भिवानी में वो नहीं गए. उन्होंने कहा कि उनका कहीं और का कार्यक्रम पहले से तय था.
लेकिन राकेश टिकैत के साथ उनका नहीं जाना सुर्खियां बनी.
इसके पीछे की राजनीति के बारे में बताते हुए सतीश त्यागी कहते हैं, "गुरनाम सिंह चढूनी हरियाणा के जीटी रोड बेल्ट (करनाल, कैथल) से आते हैं, जहाँ जाटों का दबदबा ज़्यादा नहीं है. उस इलाके में खापों का प्रभाव भी ज़्यादा नहीं है. हरियाणा में जातियों की बसावट हर इलाके में अलग है. यहाँ एक इलाके में जाट रहते हैं, राजपूत दूसरे में और यादव अलग इलाके में. रोहतक, सोनीपत वाले इलाके में 50 फीसदी से ज़्यादा जाट मिलेंगे."
"अब आंदोलन का चरित्र बदल गया है. अब इस आंदोलन का चरित्र जाति का ज़्यादा है. चढूनी उसमें फ़िट नहीं बैठते. जाटों को अपना नेतृत्व चाहिए तो उनको राकेश टिकैत अपील कर रहे हैं. चढूनी जाट नेता तो हैं, लेकिन वो सिख जाट हैं. जाटों में सिख, हिंदू, मुसलमान सब होते हैं. चढूनी अगर रोते तो आंदोलन का वो रूप नहीं होता जो राकेश टिकैत के रोने के बाद हुआ."
सतीश त्यागी 28 जनवरी को राकेश टिकैत के उन भावुक पलों की ओर इशारा कर रहे हैं, जिसके बात किसान आंदोलन में नई ऊर्जा आ गई. ग़ाज़ीपुर बॉर्डर जो खाली होने लगा था, वहाँ दोबारा से किसानों की भीड़ जुटनी शुरू हो गई.
तो क्या गुरनाम सिंह चढूनी और राकेश टिकैत के साथ ना आने से आंदोलन को कोई नुक़सान हो रहा है?
इस पर सतीश त्यागी कहते हैं, आंदोलन को फिलहाल कोई नुक़सान नहीं हो रहा. फिलहाल किसान नेताओं की रणनीति ये लग रही है कि जिस क्षेत्र में जिसका प्रभुत्व ज़्यादा है उसका इस्तेमाल करो.
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लेकिन रोहतक के महर्षि दयानंद यूनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसर रहे एसएस चहर कहते हैं, "इन महापंचायतों का किसान आंदोलन में ज़्यादा रोल नहीं है. खाप तो जाति पर आधारित होती हैं. लेकिन इस आंदोलन को जाति के आधार पर समर्थन नहीं मिल रहा. सभी जाति के किसानों से मिल रहा है. देश के किसी गाँव में दो तरह के लोग रहते हैं. एक किसान और दूसरा मज़दूर या फिर कहें तो किसानी से जुड़ा मज़दूर. ये आंदोलन उन्हीं का है. इसलिए हर महापंचायत में भीड़ देखने को मिल रही है."
हालांकि प्रोफ़ेसर चहर मानते हैं कि अब राकेश टिकैत आंदोलन के बड़े नेता हो गए हैं, सिंघु और टिकरी बॉर्डर पर आंदोलन दम तोड़ रहा है. जाटों के अलावा हरियाणा के दूसरी जाति के लोग खुलकर नए कृषि क़ानून के विरोध में नहीं आ रहे. इसके पीछे वो उनकी अलग मजबूरियाँ गिनाते हैं.
राजस्थान में महापंचायत और टिकैत की पकड़
राजस्थान में अभी तक राकेश टिकैत की महापंचायत तो नहीं हुई. आने वाले दिनों में अलवर में प्रस्तावित ज़रूर है. लेकिन कांग्रेस नेता सचिन पायलट ने दौसा में एक महापंचायत की थी. उसमें बहुत बड़ी संख्या में राजस्थान के गुर्जर किसान शामिल हुए थे क्योंकि पायलट को गुर्जर नेता के तौर पर देखा जाता है.
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प्रोफ़ेसर डॉ. पेमाराम ने राजस्थान के जाटों के उत्थान और किसान आंदोलन पर किताबें लिखी हैं. बीबीसी से बातचीत में वो कहते हैं, "राजस्थान में किसान ज़्यादातर जाट जाति से आते है. राजस्थान में अब तक जितने किसान आंदोलन हुए हैं वो जाटों ने किए हैं और उन्हीं के नेतृत्व में हुए हैं. इसलिए इस बार का किसान आंदोलन का नेतृत्व भी जाटों के हाथ में ही है. लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि दूसरी जाति के किसान इसमें शामिल नहीं हैं."
डॉ. पेमाराम मानते हैं कि राजस्थान में किसान आंदोलन उस तरीके का नहीं है जैसा पंजाब हरियाणा में है. वो इसके पीछे की वजह कांग्रेस की झिझक को मानते हैं.
उनके मुताबिक़ कांग्रेस ने अपनी पूरी ताक़त आंदोलन में नहीं झोंकी है और बीजेपी के जाट नेता पार्टी के हाथों मजबूर हैं. जहाँ तक राजस्थान में जाटों के वर्चस्व का सवाल है, 100 विधानसभा सीटों पर उनका एक तरफा वोट जीत-हार तय कर सकता है. हर साल तकरीबन 30-40 सीटों पर जाट नेता चुन कर आते हैं, जो बीजेपी और कांग्रेस दोनों पार्टियों से होते हैं. इन्हीं दोनों पार्टियों की राजस्थान में चलती भी है.
यही वजह है कि राजस्थान आंदोलन में किसान आंदोलन के नेता हनुमान बेनिवाल बन गए हैं, जो खुद जाट हैं. दूसरे नेता अमराम राम हैं जो शाहजहांपुर बॉर्डर पर मिलते हैं. लेकिन उनका प्रभुत्व पूरे राजस्थान में नहीं बल्कि सीकर में ज़्यादा है. वो लेफ्ट पार्टी से जुड़े हैं.
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हनुमान बेनिवाल
डॉ. पेमाराम कहते हैं कि राकेश टिकैत की महापंचायत अगर राजस्थान में होगी तो राजस्थान में भी आंदोलन ज़ोर पकड़ सकता है. वहाँ के जाटों में भी टिकैत को लेकर उत्साह तो है. ज़रूरत है तो कांग्रेस जैसी किसी पार्टी को उनके साथ खड़े होने की. पर्दे के पीछे से समर्थन में वज़न नहीं आता.
उत्तर प्रदेश में टिकैत का समर्थन
हरवीर सिंह, रुरलवायस.इन के संपादक हैं. पश्चिमी उत्तर प्रदेश को सालों से कवर किया है.
हरवीर सिंह पूरे मुद्दे को अलग नज़रिए से समझाते हैं. उनके मुताबिक़, "किसान आंदोलन का नेतृत्व हमेशा से जाटों के हाथ में ही रहा है, चाहे हरियाणा हो, या पंजाब हो या राजस्थान या फिर उत्तर प्रदेश."
"हरियाणा में गुरनाम सिंह चढूनी हैं, वो जाट नेता हैं. उत्तर प्रदेश में राकेश टिकैत भी जाट नेता हैं. राजस्थान के अमराम राम भी जाट नेता हैं जो शाहजहांपुर बॉर्डर पर किसान आंदोलन में शुरू से ही डटे हुए हैं."
"लेकिन किसानों की जो महापंचायतें हो रही हैं उनमें सिर्फ़ खाप वाले ही नहीं बाकी लोग भी शामिल हो रहे हैं. इसलिए ये नहीं कहा जा सकता की किसान आंदोलन जाटों का आंदोलन होकर रह गया है. ये कह सकते हैं कि नेतृत्व जाटों के हाथ में है लेकिन आंदोलन अब भी किसानों का है."
हरवीर सिंह उत्तर प्रदेश के किसान महापंचायतों का उदाहरण देकर कहते हैं, "मुज़फ़्फरनगर में पहली महापंचायत बालियान खाप ने बुलाई थी, जिसके नेता राकेश टिकैत के बड़े भाई राकेश टिकैत हैं. दूसरी महापंचायत बड़ौत में हुई थी जो खाप के लोगों ने बुलाई थी और तीसरी राष्ट्रीय लोक दल और समाजवादी पार्टी की मिली जुली पंचायत थी, जिसमें खाप भी शामिल थी."
"ये पंचायतें किसानों के नाम पर बुलाई जा रही हैं जिसमें बाद में बिरादरी, खाप, नेता और राजनीतिक दल सब शामिल हो रहे हैं. खाप के नेता आपस में बैठ कर तय करते हैं कि किस मुद्दे पर कब पंचायत बुलानी है और उसी हिसाब से निमंत्रण भेजा जाता है."
कोई भी किसान आंदोलन केवल एक जाति पर खड़ा होकर नहीं चल सकता. मुज़फ़्फरनगर में मुसलमान भी बड़ी संख्या में आ रहे हैं.
हरियाणा की खाप पंचायतों में गुरनाम सिंह चढूनी के नहीं जाने को हरवीर सिंह दूसरी राजनीति बताते हैं.
उनके मुताबिक, "गुरनाम सिंह चढूनी पहले भारतीय किसान यूनियन हरियाणा के अध्यक्ष हुआ करते थे. फिर राकेश टिकैत के साथ उनकी नहीं बनी और उन्होंने दूसरा गुट बना लिया. इस किसान आंदोलन में उन्होंने हरियाणा में किसानों का नेतृत्व किया और वो बड़े नेता बनकर ऊभरे."
"लेकिन किस महापंचायत में कौन नेता जाएगा ये वहाँ की खाप तय करती है ना कि किसान नेता. राकेश टिकैत को निमंत्रण आएंगे तो वो जाएंगे. चढूनी को निमंत्रण नहीं आएगा तो वो वहाँ नहीं जाएँगे. मेवात में महापंचायत हुई. वहाँ राकेश टिकैत नहीं गए वहाँ युद्धवीर सिंह गए. एक महापंचायत में राजेवाल और दर्शनपाल गए."
महापंचायत सरकार के लिए कितनी चिंता का सबब
लेकिन इन महापंचायतों को लेकर एक दूसरा नज़रिया भी सामने आ रहा है. सिंघु और टिकरी बॉर्डर पर आंदोलन कमज़ोर होता दिख रहा है क्योंकि ज़्यादा चर्चा ग़ाज़ीपुर की हो रही है. लेकिन जब टिकैत दूसरे राज्यों में महापंचायतों में शामिल होने लगेंगे तो ग़ाज़ीपुर पर किसानों की भीड़ ख़ुद कम हो जाएगी. ऐसे में आंदोलनकारियों से ग़ाज़ीपुर को ख़ाली करना सरकार के लिए आसान होगा.
तो क्या सब कुछ सरकार के गेमप्लान का हिस्सा है?
हरवीर सिंह कहते हैं, "शुरुआत में कई लोग इस थ्योरी को सही मान रहे थे. लेकिन अब राकेश टिकैट के लिए भी बिना माँग मनवाए, धरना ख़त्म करना आसान नहीं होगा. पहले किसी गाँव से 10 लोग दिल्ली के बॉर्डर पर धरना देने आ रहे थे. लेकिन 50 गाँव के लोग अब एक जगह इकट्ठा हो रहे हैं और सपोर्ट कर रहे हैं. अब हर इलाके में खाप खुद महापंचायतें आयोजित कर रही हैं. इन नेताओं को बुला रही हैं. अब सब कुछ 'ऑटो मोड' में है."
राकेश टिकैत ग़ाज़ीपुर पर हैं या नहीं अब लोगों के लिए ये मायने नहीं रखता. यही सरकार के लिए सबसे बड़ी चिंता का सबब है.
लेकिन आँकड़ों की बात करें तो लगता नहीं कि सरकार को इससे चिंतित होने की ज़रूरत है.
सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज़ में प्रोफेसर संजय कुमार कहते हैं कि जाटों का वर्चस्व हरियाणा राजस्थान और पश्चिम उत्तर प्रदेश में सबसे ज़्यादा है. अब कई इलाकों में किसान आंदोलन को जाट आंदोलन के रूप में भी देखा जा रहा है क्योंकि नेतृत्व उनके हाथ में चला गया है.
तीनों राज्यों में जाटों का अंकगणित समझाते हुए संजय कुमार कहते हैं, "हरियाणा में दो-तीन पार्टियाँ हैं (आईएनएलडी और जेजेपी) जो जाट वोट बैंक की वजह से ही वजूद में हैं. बीजेपी को जाट वोट हरियाणा में कभी मिला, तो कभी नहीं मिला, केवल 20-25 फीसदी ही उनके खाते में रहा. इसलिए उन्होंने ग़ैर जाटों को एकजुट करने का प्रयास किया और जीतने पर मुख्यमंत्री भी गै़र जाट ही बनाया. इसलिए जाटों के आंदोलन और महापंचायतों में भीड़ जुटने से बीजेपी बहुत दिक़्क़त में नहीं दिख रही."
राजस्थान में 2014 के चुनाव में जाटों का वोट बीजेपी को मिला था. 2018 के विधानसभा चुनाव में उनका बड़ा हिस्सा 38-40 फीसदी के आस-पास कांग्रेस की तरफ़ शिफ़्ट हो गया. लेकिन फिर 2019 में वो बीजेपी खेमे में आ गए. 2019 के लोकसभा चुनाव में 55-60 फीसदी जाटों ने बीजेपी के लिए वोट किया.
लेकिन यहाँ किसान आंदोलन ने अभी उग्र रूप धारण नहीं किया है. दूसरी बात राजस्थान की राजनीति में जाटों का उतना प्रभाव नहीं है जितना हरियाणा या पश्चिमी उत्तर प्रदेश की राजनीति में है. इसलिए बीजेपी को नुक़सान होने की चिंता कम है.
रही बात उत्तर प्रदेश की. तो पश्चिमी उत्तर प्रदेश में 44 सीटों पर जाट बहुसंख्यक हैं. पहले वो राष्ट्रीय लोक दल के साथ हुआ करते थे. लेकिन 2014 और उसके बाद के चुनाव के बाद से बीजेपी के साथ दिखने लगे. वहाँ नुक़सान होने की संभावना है. लेकिन उत्तर प्रदेश में 403 विधानसभा सीटें हैं.
वो कहते हैं कि पंजाब को किसान आंदोलन का जाट पॉलिटिक्स से अलग रखने की ज़रूरत है. वहाँ सिखों की ज़्यादा चलती है. वैसे भी पंजाब में बीजेपी का ज़्यादा कुछ दांव पर नहीं लगा है. वो कभी वहाँ बड़ी पार्टी नहीं रही. उनका सहयोगी दल उनको छोड़ चुका है. (bbc.com)